चौखट-भाग 1 : प्रेम को तरसती रेशमी

टैंपो कुलदीप के दरवाजे पर आ कर रुक गया था. उस में आलूप्याज और तरहतरह की हरी सब्जियां लदी थीं. दरवाजे की चौखट से पीठ टिकाए कुलदीप की बीवी रेशमी उस के इंतजार में बैठी थी.

कुलदीप टैंपो से उतर कर सब्जी मंडी से आई सब्जियों को दरवाजे के सामने की चौकी पर रखने लगा. इसी चौकी पर बेचने के लिए सब्जियां रखी जाती थीं. रेशमी भी सब्जियों की टोकरी उठा कर रखने लगी थी.

गली के नुक्कड़ पर कुलदीप की सब्जी की दुकान थी. यह दुकान उस ने अपने टूटेफूटे पुराने घर में ही खोल रखी थी. इसी दुकान की कमाई से

2 जनों का पेट भरता था. कुलदीप रोज सुबह सब्जी मंडी से सब्जी ला कर दुकान लगाता था. शाम तक सारी सब्जियां बिक जाती थीं.

कुलदीप की बीवी रेशमी गोरीचिट्टी और खूबसूरत थी. वह कदकाठी की मजबूत थी. उस की आंखें कजरारी थीं. उस का हुस्न लाजवाब था. उसे देखने के लिए दुकान पर ग्राहकों का आनाजाना लगा रहता था, जिस से दुकान की बिक्री और ज्यादा बढ़ जाती थी.

रेशमी की शादी 7-8 साल पहले कुलदीप से हुई थी. रेशमी को अभी तक कोई बच्चा नहीं हुआ था. कुलदीप

की बूढ़ी मां पोतेपोती की आस में ही मर गई थी.

रेशमी में कोई कमी नहीं थी. खोट तो कुलदीप में था. कुलदीप को शराब पीने की बुरी आदत थी. वह शाम में ठेके पर जा कर शराब पीता था. घर लौटते समय वह नशे में चूर हो जाता था. किसी तरह खाना खा कर वह बिछावन पर निढाल हो कर सो जाता था. रेशमी को करवटें बदलते रात बीत जाती थी. सुबह होते उस का हुस्न बासी फूल की तरह मुरझा जाता था.

कुलदीप ने दुकान में बैठेबैठे पुकारा, ‘‘रेशमी यहां आना तो…’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’ रेशमी ने कमरे से आ कर पूछा.

‘‘यह सब्जी की टोकरी खाली हो गई है. इसे रख दो. इस का माल बिक गया है,’’ कुलदीप ने कहा.

खाली टोकरी रेशमी ने उठा ली. वह खाली टोकरी को देख कर सोचने लगी, ‘कुलदीप भी तो इसी टोकरी की तरह खाली हो गया है. उस की मर्दानगी बची नहीं है. उस का माल बिक गया है.’

रेशमी जोर से हंसते हुए टोकरी ले कर चली गई. कुलदीप उस के हंसने का राज समझ नहीं सका.

देशी शराब की दुकान पर चहलपहल थी. कुलदीप अपने दोस्तों किशन, सूरज और अजय के साथ बैठा दारू पी रहा था. वहां एक ठेले पर चखना के लिए मछली फ्राई बिक रही थी.

दारू पीते किशन ने कुलदीप से कहा, ‘‘दारू पीने से थकान दूर होती है. नींद खूब बढि़या आती है.’’

कुलदीप यह सुन कर मुसकराया.

सूरज ने कहा, ‘‘यार कुलदीप, दारू पीने से मर्दानगी उफान मारती है. औरत को बिछावन पर मर्द पछाड़ देता है.’’

‘‘हांहां, दारू में जिंदगी का असली मजा है,’’ अजय ने कहा.

कुलदीप ने हंस कर कहा, ‘‘एकदम बकवास हैं तुम सब की बातें. मुझे तो दारू पीने की आदत है, इसलिए हर रोज छक कर दारू पीता हूं.’’

कुलदीप के दोस्त शराब पीने के बाद अपनेअपने रास्ते निकल गए.

कुलदीप नशे में झूमता हुआ घर पहुंचा, तो रेशमी घर की चौखट के पास बैठी उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘आ गए न पी कर… इसे समझाना मुश्किल है. तू हर रोज घर की गाढ़ी कमाई बरबाद कर देता है,’’ आते ही रेशमी बड़बड़ाई.

‘‘अरे भई, कमाता हूं तो पीता हूं. इस में किसी के बाप का क्या जाता है,’’ कुलदीप ने बेहयाई से कहा.

रेशमी ने उसे नफरत से देखा. उसे लगा कि वह कुलदीप को एक झापड़ लगा दे, लेकिन वह गुस्सा पी कर रह गई. रेशमी ने भोजन की थाली कुलदीप के सामने ला कर रख दी.

कुलदीप ने किसी तरह खाना खाया. पेट में तो दारू भरी थी, रोटी के लिए जगह कहां बची थी.

रेशमी पलंग पर जा कर लेट गई. खाना खा कर कुलदीप भी साथ में लेट गया. उस के मुंह से दारू की बदबू आ रही थी.

दारू के नशे में कुलदीप रेशमी को बांहों में भर कर चूमने लगा. उस के उभारों को सहलाने लगा. रेशमी ने भी उसे जोर से बांहों में जकड़ लिया.

जिस्म की आग भड़क चुकी थी. कुलदीप सैक्स करने लगा, लेकिन वह गीले पटाखे की तरह फुस हो कर रह गया. वह तुरंत पस्त हो गया था. रेशमी प्यासी ही रह गई.

कुलदीप करवट बदल कर खर्राटे भरने लगा. रेशमी की रात यों ही तड़पते हुए बीत गई.

रेशमी सुबह में सब्जी की दुकान पर बैठी थी, तभी एक नौजवान दुकान पर आया.

‘‘क्या चाहिए बाबू? कौन सी सब्जी तौल कर दे दूं?’’ रेशमी ने कहा.

‘‘यहां कोई कमरा खाली है. मुझे किराए का एक कमरा चाहिए था,’’ उस नौजवान ने कहा.

रेशमी कुछ सोच कर बोली, ‘‘एक कमरा तो खाली है, लेकिन उस कमरे में कुछ फालतू सामान रखा है.’’

‘‘कमरा दिखा दो,’’ नौजवान ने कहा. रेशमी ने घर के अंदर ले जा कर उसे कमरा दिखा दिया.

‘‘इस का किराया?’’ उस नौजवान ने पूछा.

‘‘महीने का 800 रुपए,’’ रेशमी ने कहा.

वह नौजवान कमरा लेने को तैयार हो गया. उस का नाम धीरेन था.

धीरेन उस कमरे में आ कर रहने लगा. वह गठीला नौजवान था. अभी

उस की शादी नहीं हुई थी. वह गांव से शहर में कमाने आया था. वह फर्नीचर बनाने की एक दुकान पर बढ़ई का काम करता था.

रेशमी की जिंदगी में थोड़ा बदलाव आया. वह धीरेन के आने से खुश रहने लगी. वह कामकाज से फुरसत पा कर बननेसंवरने लगी, जिस से उस का रंगरूप और निखर उठा.

धीरेन शाम को काम पर से घर लौट आता. वह बाजार से नाश्ते का कोई आइटम खरीद लेता, जिसे रेशमी को भी वह खाने को देता.

एक दिन बाजार से घर आते ही धीरेन ने रेशमी को पुकारा, ‘‘समोसे लाया हूं. आ कर जल्दी से खा लो.’’

रेशमी कमरे से बाहर चली आई. ‘‘अरे वाह, समोसे गरम हैं,’’ कह कर रेशमी समोसे खाने लगी.

धीरेधीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ने लगीं. धीरेन घर के छोटेमोटे काम भी निबटाने लगा, जिस से रेशमी को दुकान चलाने में सहूलियत होने लगी.

एक दिन कुलदीप घर पर नहीं था. रेशमी हरे रंग की नई साड़ी के साथ मैच खाता ब्लाउज पहने हुए थी. वह इस साड़ी में खूब जंच रही थी.

धीरेन आज जल्द घर आ गया. रेशमी बनसंवर कर उस के कमरे के पास जा कर खड़ी हो गई. धीरेन उसे देख कर मुसकराया, ‘‘रेशमी, तुम भोजपुरी फिल्म की हीरोइन लग रही हो.’’

‘‘तुम भी किसी हीरो से कम नहीं लगते हो,’’ रेशमी ने नशीली आवाज में कहा.

शह पा कर धीरेन ने रेशमी को बांहों में भर कर चूम लिया. वह भी उस से लिपट गई. दोनों एकदूसरे को चूमने लगे. वह रेशमी के उभारों को सहलाने लगा.

जिस्म की आग भड़क चुकी थी. दोनों कमरे की चौकी पर लेट गए. धीरेन सैक्स करने लगा. रेशमी उस का भरपूर साथ देने लगी. जिस्म की भूख जब शांत हुई, तब दोनों एकदूसरे से अलग हुए.

एक दिन कुलदीप दुकान पर ग्राहकों से मोलभाव कर सब्जियां बेच रहा था. रेशमी ने घरेलू काम से फुरसत पा ली थी. वह कमरे में बैठी पुराने दिनों के बारे में सोच रही थी.

अम्मा कहती थीं कि लड़कियों को घर की दहलीज नहीं लांघनी चाहिए. घर के बाहर लड़कियां महफूज नहीं होतीं. उन्हें हर हाल में अपनी आबरू बचा कर रखनी चाहिए.

पर जब मरद नकारा मिले तो औरत को आबरू की नकाब उतारनी एक मजबूरी होती है. आखिर कब तक आबरू की नकाब ओढ़े रहेगी. वह नकाब तो हटानी पड़ती है. रेशमी की इस सोच ने अपनी मंजिल पा ली थी.

जीवन की नई शुरुआत – भाग 1 : कोरोना का साइड इफैक्ट

‘‘अ रे रे रे, कोई रोको उसे, मर जाएगा वो,’’ अचानक से आधी रात को शोर सुन कर सारे लोग जाग गए और जो देखा, देख कर वे भी चीख पड़े. जल्दी से उसे वहां से खींच कर नीचे उतारा गया, वरना जाने क्या अनर्थ हो गया होता.

यह तीसरी बार था जब रघु अपनी जान देने की कोशिश कर रहा था. लेकिन इस बार भी उसे किसी ने बचा लिया, वरना अब तक तो वह मर गया होता.

क्वारंटीन सैंटर का निरीक्षण करने पहुंचे डीएम यानी जिलाधिकारी को जब रघु की आत्महत्या करने की बात पता चली और यह भी कि वह न तो ठीक से खातापीता है और न ही किसी से बात करता है. वह खुद में ही गुमसुम रहता है. कुछ पूछने पर वह अपने घर जाने की बात कह रो पड़ता है, तो डीएम को भी फिक्र होने लगी कि अगर इस लड़के ने क्वारंटीन सैंटर में कुछ कर लिया तो बहुत बुरा होगा.

जिलाधिकारी ने वहां रह रहे एकांतवासियों से पूछा कि उन्हें दिया जा रहा भोजन गुणवत्तायुक्त है या नहीं? हाथ धोने के लिए साबुन, मास्क, तौलिया आदि की व्यवस्था के बारे में भी जानकारी ली, फिर वहां की देखभाल करने वाले केयरटेकर को खूब फटकार लगाई कि वह करता क्या है? एक इंसान आत्महत्या करने की क्यों कोशिश कर रहा है, उसे जानना नहीं चाहिए?

‘‘फांसी लगाने की कोशिश कर रहे थे, पर क्यों?’’ उस जिलाधिकारी ने जब रघु के समीप जा कर पूछा, तो भरभरा कर उस की आंखें बरस पड़ीं.

‘‘कोई तकलीफ है यहां? बोलो न, मरना क्यों चाहते हो? अपने परिवार के पास नहीं जाना है?’’ जब जिलाधिकारी मनोज दुबे ने कहा, तो सिसकियां लेते हुए रघु कहने लगा, ‘‘जाना है साहब, कब से कह रहा हूं मु?ो मेरे घर जाने दो, पर कोई मेरी सुनता ही नहीं.’’

कहते हुए रघु फिर सिसकियां लेते हुए रो पड़ा तो जिलाधिकारी मनोज को उस पर दया आ गई.

‘‘हां, तो चले जाना, इस में कौन सी बड़ी बात है, बल्कि यहां कोई रहने नहीं आया है. अवधि पूरी होगी, सभी को भेज दिया जाएगा अपनेअपने घर. बताओ, और कोई बात है? यहां किसी चीज की समस्या हो रही है?’’

‘‘नहीं… लेकिन, मेरे मांबाप बूढ़े और बीमार हैं, उन्हें मेरी जरूरत है,’’ कहते हुए रघु का गला भर्रा गया. लेकिन जिलाधिकारी को लग रहा था कि बात कुछ और भी है, जो रघु को खाए जा रही है.

अपने घरपरिवार से दूर क्वारंटीन सैंटर में 15-20 दिनों से रह रहे रघु पर मानसिक दबाव बढ़ने लगा था. वह रात को उठ कर यहांवहां घूमने लगता और अजीब सी हरकतें करता था. कभी वह क्वारंटीन सैंटर की ऊंची दीवार को नापता, तो कभी बड़े से लंबे दरवाजे को आंखें गड़ा कर देखता. कई बार तो वह पेड़ पर चढ़ जाता, ताकि वहां से फांद कर दीवार पार कर सके, पर कामयाब नहीं हो पाता.

रघु की इस हरकत पर उसे फटकार भी पड़ी थी. लेकिन उस का कहना था कि उसे घर जाना है. अब उस के सब्र का बांध टूटने लगा है. उस ने कई बार मरने की भी धमकी दी थी कि अगर उसे उस के घर नहीं जाने दिया गया तो वह अपनी जान दे देगा. लेकिन कौन सुनने वाला था यहां उस की? सब उसे ‘पागल बताते’ कह कर चुप करा देते और हंसते. जैसे सच में वह कोई पागल हो. लेकिन वह पागल नहीं था. यह बात कैसे सम?ाए सब को कि उसे यहां से जाना है, नहीं तो सब खत्म हो जाएगा.

जिलाधिकारी मनोज के पूछने पर रघु कहने लगा, ‘‘साहब, अच्छीखासी खुशहाल जिंदगी चल रही थी हमारी. किसी चीज की कमी नहीं थी. पर इस कोरोना ने एक ?ाटके में सब बरबाद कर दिया साहब, कुछ नहीं बचा, कुछ नहीं, न ही नौकरी और न ही मेरा प्यार…’’

बोलतेबोलते रघु की हिचकियां बंध गईं और वह बिलख कर रोने लगा, ‘‘साहब, हम गरीबों का तो समय ही खराब है, वरना क्या दालरोटी पर भी मार पड़ जाती? अच्छीखासी जिंदगी चल रही थी हमारी. मेहनतमजदूरी कर के खुश थे हम. लेकिन सब मटियामेट हो गया.’’

अपने आंसू पोंछते हुए रघु बताने लगा कि अभी 2 साल पहले ही वह अपने गांव सिवान से गुजरात आया था. वह यहां मिस्त्री का काम करता था, जिस से उस की अच्छीखासी कमाई हो जाती थी. अपने मांबाप के पास घर भी पैसे भेजता था. लेकिन अब क्या करेगा, समझ नहीं आ रहा है.

बताने लगा कि वह यहां अहमदाबाद में एक कमरे का घर ले कर रह रहा था. सोचा था कि मांबाप को भी ले आएगा, सब साथ मिल कर रहेंगे. लेकिन जिंदगी में ऐसी उथलपुथल मच जाएगी, नहीं सोचा था.

रघु हमेशा खुश रहने वाला, हंस कर बोलने वाला इंसान था और यही बात मुन्नी को, जो उस की ही बस्ती में रहती

थी और नेपाल से थी, उस के करीब लाती थी.

रघु का साथ मुन्नी को खूब भाता था. उस के पिता बड़े बाजार से थोकभाव में सब्जीफल ला कर बाजार में बेचते थे. उसी से उन के 8 जनों का परिवार का खर्चा चलता था. मुन्नी भी दोचार घरों में

झाड़ बरतन कर के कुछ पैसे कमा लेती थी. मगर रघु को मुन्नी का दूसरे के घरों में

?ाड़ ूबरतन करना जरा भी अच्छा नहीं लगता था. उसे जब कोई गंदी नजरों से घूरता, तो रघु की आंखों में खून उतर आता. मन करता उस का कि जान ही ले ले उस की. कितनी बार उस ने मुन्नी से कहा कि छोड़ दे वह लोगों के घरों में काम करना. पर मुन्नी उस की बात को यह कह कर टाल दिया करती कि उसे क्यों बुरा लगता है? कौन लगती है वह उस की?

वैसे तो मुन्नी को भी दूसरे के घरों

में ?ाड़ ूबरतन करना अच्छा नहीं लगता था, मगर क्या करे वह भी? अब 8-8 जनों का पेट एक की कमाई से थोड़े ही भर सकता था. कितनी बार लोगों की भेदती नजरों का वह निशाना बनी है. जिन घरों में वह काम करती है, वहां के मर्द ही उस पर गंदी नजर रखते हैं.

कहते तो बेटीबहन समान है, पर गलत इरादों से यहांवहां छेड़ देते हैं. देखने की कोशिश करते हैं कि लड़की कैसी है? लेकिन मुन्नी उस टाइप की लड़की थी ही नहीं. वह तो अपने काम से मतलब रखती थी. गरीबों के पास एक इज्जत ही तो होती है, वही चली जाए तो मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है. कुछ बोल भी नहीं सकती थी, अगर आवाज उठाती तो उलटे मुंह गिरती. सो, बच कर रहने में ही अपनी भलाई सम?ाती थी.

गलती मुन्नी के मांबाप की भी कम नहीं थी. एक बेटे की खातिर पहले तो धड़ाधड़

5 बेटियां पैदा कर लीं और अब उसी बेटी को दूसरेतीसरे घरों में काम करने भेजने लगे, ताकि पैसे की कमाई होती रहे.

चूंकि मुन्नी घर में सब से बड़ी थी, इसलिए छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारी भी उस के ऊपर ही थी. बेचारी दिनभर चक्करघिन्नी की तरह पिसती रहती, फिर भी मां से गालियां पड़तीं कि ‘करमजली, कहां गुलछर्रे उड़ाती फिरती है पूरे दिन.’

इधर मुन्नी को देखदेख कर रघु का कलेजा दुखता रहता, क्योंकि प्यार जो करने लगा था वह उस से. अपने काम से वापस आ कर हर रोज वह घर के बाहर खटिया लगा कर बैठ जाता और मुन्नी को निहारता रहता था. लेकिन आज कहीं भी उसे मुन्नी नहीं दिख रही थी, सो हैरानपरेशान सा वह इधरउधर देख ही रहा था कि उस के सिर पर आ कर कुछ गिरा. देखा, तो पेड़ पर चढ़ी मुन्नी उस के सिर पर पत्ता तोड़तोड़ कर फेंक रही थी.

मनमोहिनी – भाग 2 : एक संगदिल हसीना

अब तो मोहकलाल ने मनमोहिनी का दिल जीतने में पलभर की देरी भी नहीं की. स्कूल में एक नया पद ‘कोऔर्डिनेटर’ बना दिया गया, जिस पर मनमोहिनी का कब्जा हो गया.

अब मनमोहिनी को स्कूल में सभी टीचरों के बीच तालमेल बिठाना था. यह काम उस ने ‘गुटबंदी’ कर के बखूबी किया. जो टीचर पढ़ाने में यकीन करते थे, उन का मनमोहिनी से कभी तालमेल नहीं हुआ, हो भी नहीं सकता था. लेकिन जिन को पढ़ाने में कम और दूसरी बातों में ज्यादा मजा आता था, वे सब मनमोहिनी के खेमे में शामिल हो गए.

मनमोहिनी जब अपने औफिस से निकलती तो अपने बाएं और दाएं2 मैडमों को अपना बौडीगार्ड बना कर चलती. धमक ऐसी कि किसी को कुछ भी कह दे. कोई शिकायतकर्ता मोहकलाल तक पहुंचता तो उसे मोहकलाल की लताड़ और सुननी पड़ती.

इस तरह स्कूल में मनमोहिनी का एकछत्र राज कायम हो गया. या तो वह मोहकलाल के औफिस में मिलती या फिर मोहकलाल उस के औफिस में. अब मोहकलाल को स्कूल में कहीं ढूंढ़ने की जरूरत नहीं थी. सब को पता था कि वे कहां मिल सकते हैं.

धीरेधीरे मोहकलाल का संगीत प्रेम भी सुलगने लगा. प्रेम और संगीत का तो वैसे भी चोलीदामन का साथ है. अब तो स्कूल में आएदिन संगीत सभाओं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन होने लगे.

ऐसे कार्यक्रमों में मोहकलाल से गाना गाने की डिमांड होती. उन के गाने के बिना ऐसा कोई कार्यक्रम पूरा ही नहीं होता, भले ही टाइम ओवर हो जाए. मोहकलाल अपने गाने से प्रेम रस की बौछार करते और उस से मनमोहिनी को तरबतर कर देते.

लेकिन मनमोहिनी ने कोई कच्ची गोलियों तो खेली नहीं थीं. वह जानती थी कि उस की ‘मन मोहिनी’ माया का असर 3-4 साल से ज्यादा नहीं होता. यहां भी यही हुआ. प्रिंसिपल मोहकलाल उसे छोड़ नहीं पा रहे थे और स्कूल की मैनेजमैंट कमेटी मनमोहिनी को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. एक साल तो इसी कशमकश में खिंच गया.

मनमोहिनी के लिए ‘चेंज ओवर’ करने के लिए यह काफी समय था.

मनमोहिनी – भाग 1 : एक संगदिल हसीना

मनमोहिनी अपनी ड्रैस से मैच करता हुआ पर्स अपनी बगल में लटका कर और कूल्हे मटका कर जब चलती तो ऐसा लगता जैसे बौलीवुड की कोई हीरोइन सड़क पर रैंप वाक कर रही हो. भले ही मनमोहिनी ने 40 हरेभरे सावनभादों देख लिए हों, लेकिन वह किसी भी सूरत में 30 से ज्यादा की नहीं लगती थी. यह उस की गजब की फिटनैस का जादू था.

मनमोहिनी को होना तो चाहिए था किसी मौडलिंग कंपनी में, लेकिन वह शिक्षा विभाग में आ गई. लेकिन उस ने आपदा में भी अवसर ढूंढ़ लिया, इसलिए अब उसे कोई गम नहीं था. उस के पास अपनी खूबसूरती और लटकेझटकों का भरपूर खजाना था. इन के दम पर वह आत्मविश्वास से लबालब भरी हुई थी.

इस बात का गहरा ज्ञान और अनुभव मनमोहिनी को कालेज लाइफ में ही हो गया था कि औरत ही औरत की कट्टर दुश्मन होती है, इसलिए उस ने कभी भूल कर भी यह गलती नहीं की कि वह अपनी ‘कंचन काया’ को ले कर महिला कालेज की महिला इंटरव्यू मंडली के सामने आए, जो उस के जोबन और लटकेझटकों को देखते ही जलभुन कर खाक हो जाए.

मनमोहिनी तो मर्दों की कमजोरी को बहुत पहले से जानती थी, इसलिए उस ने अपनी खूबसूरती के हंटर और अदाओं के तीर हमेशा मर्दों पर चलाए, क्योंकि वहां कामयाबी का फीसद सौ से कम नहीं था.

जब मनमोहिनी मर्द मंडली या

फिर अकेले मर्द के सामने इंटरव्यू के लिए हाजिर होती तो उस के हावभाव रीतिकाल के महाकवि बिहारी लाल की उस नायिका की तरह होते जो भरे भवन में भी अपने नायक से नैनों से बात कर लेने में माहिर है. बकौल बिहारी लाल :

‘कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात,

भरे भौन में करत है नैननु ही सब बात.’

अब भला कौन बूढ़ा खूसट होगा, जो मनमोहिनी को न चुने या फिर उस के नाम की सिफारिश न करे. बूढ़े से बूढ़ा भी मनमोहिनी के लटकेझटकों पर रीझ जाता था, नौजवान मसखरों की तो बात ही जाने दीजिए, वे तो किस खेत की मूली. इसी के बूते एक बड़े स्कूल में मनमोहिनी को नौकरी मिलने का चांस बन गया.

प्रिंसिपल मोहकलाल मनमोहिनी की खूबसूरती में इंटरव्यू के समय ही गिरफ्तार हो गए थे. मनमोहिनी ने जल्दी ही भांप लिया था कि अब आगे

क्या होने वाला है. वजह, औरतों में भविष्य को सूंघने की ताकत मर्दों के मुकाबले बहुत ज्यादा होती है.

मर्द तो वर्तमान में ही अपनी सुधबुध खो बैठता है और वर्तमान का ही मजा लूटने में रह जाता है. ऐसे मामलों में वह तब जागता है, जब ‘छीछालेदरी का सूरज’ उग चुका होता है. लेकिन औरतें ऐसे मामलों में मर्दों के बजाय एक कदम आगे होती हैं. वे भविष्य को वर्तमान के साथ बांध कर चलती हैं.

मनमोहिनी का पढ़ाईलिखाई से कोई ज्यादा वास्ता तो था नहीं, इसलिए उस ने एक नई जुगत भिड़ाई. 2-4 बार वह किसी न किसी बहाने से मर्दों को लुभाने वाला इत्र लगा कर प्रिंसिपल मोहकलाल के कमरे में गई. अपने पल्लू को ठीक करने के बहाने उस ने मोहकलाल की आंखों समेत दिल तक को बींध कर

रख दिया.

फिर मौका देख कर मनमोहिनी बड़े कमसिन अंदाज में बोली, ‘‘सर, मैं कोऔर्डिनेशन का काम बड़े अच्छे से जानती हूं. अगर आप मुझे यह काम दे

दें, तो मैं आप को अपना हुनर दिखा सकती हूं.’’

जब मनमोहिनी प्रिंसिपल मोहकलाल को यह बात बता रही थी, तो मोहकलाल को न जाने क्यों ऐसा एहसास हुआ, जैसे  मनमोहिनी ने अपनी बाईं आंख झपकाई नहीं, बल्कि उन की तरफ देख कर दबाई हो. मोहकलाल को अपने अंदर झटके के साथ किसी करंट का एहसास हुआ.

राजनीति नकाब की – भाग 1

राखी का त्योहार 4 दिनों बाद है पर निहाल बहुत परेशान है. कारण यह है कि पिछले रक्षाबंधन पर निहाल ने अपनी बहन मिनी से वादा किया था कि अगले साल रक्षाबंधन तक वह उस को एक स्मार्टफोन गिफ्ट कर देगा. लेकिन यह तो अब तक होता दिख नहीं रहा था क्योंकि निहाल अभी तक सिर्फ 10 हजार रुपए ही जमा कर पाया था और एक अच्छा स्मार्टफोन कम से कम 20 हजार रुपए में आता है. निहाल एक युवा बेरोजगार था. शहर के एक अच्छे कालेज से परास्नातक होने के बावजूद उसे नौकरी नहीं मिली थी.

निहाल ने बहुत सी प्रतियोगी परीक्षाएं दीं पर इसे उस का बुरा समय कहें या समाज में बढ़ता हुआ बेरोजगारी का दौर, उसे कहीं भी नौकरी नहीं मिली.

निहाल इंटरव्यू देदे कर थक चुका था और अब उस की हिम्मत भी जवाब दे चुकी थी. इसीलिए उस ने अब हाथपैर मारना भी छोड़ दिया था. अब वह इधरउधर प्राइवेट जौब कर के ही अपना खर्चा चला रहा था.

उस के कालेज के पुराने दोस्त ही उस का एकमात्र सहारा थे जो कभीकभार पैसे से मदद कर देते थे या उसे कोई ऐसा कामचलाऊ काम दिला देते थे जिस से वक्तीतौर पर निहाल को कुछ पैसे मिल जाते और उस का काम चल जाता था.

निहाल का सब से विश्वसनीय दोस्त था देवराज उर्फ भैयाजी. कहने की जरूरत नहीं है कि भैयाजी प्रदेश की राजनीति में हाथपैर मार रहा था.

राजनीति में पैठ बनाने का आसान रास्ता विश्वविद्यालय था और इसीलिए देवराज गैरजरूरी पाठ्यक्रमों में दाखिला ले कर पढ़ाई कर रहा था जिस से होस्टल के कमरे में ही रहते हुए छात्र राजनीति आसानी से करे. चूंकि छात्र नेताओं को बड़े राजनेता अपना एक अच्छा वोटबैंक मानते हैं, इसलिए उन से भी देवराज का अच्छा संपर्क बना हुआ था.

निहाल जब भी किसी तरह की समस्या में घिरा होता तब वह भैयाजी के पास आता था और हर बार भैयाजी उस की सहायता कर देता था. हालांकि, निहाल यह जानता था कि देवराज भले ही उस का पुराना दोस्त है पर उस की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा से निहाल को भी डर लगा रहता था.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं, भैयाजी?’’ दरवाजे पर खड़े निहाल ने हौल में बैठे देवराज से पूछा.

‘‘अरे, निहाल, अरे यार, क्यों शर्मिंदा करते हो, आओआओ, अंदर आओ यार,’’ देवराज ने आगे बढ़ कर निहाल को गले लगा लिया.

‘‘और यह क्या भैयाजीभैयाजी कहते रहते हो. अरे, मैं अपने दुमछल्लों के लिए भैयाजी हूं, तुम्हारे लिए नहीं. तुम तो मु?ो देव ही कहा करो,’’ देवराज उर्फ भैयाजी ने निहाल के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘हां, पर नहीं, जब अपना दोस्त आगे बढ़ जाए और आप खुद उस से पीछे रह जाएं तो उस का सम्मान तो करना ही पड़ेगा. है न भैयाजी?’’ इतना कह कर देवराज और निहाल जोर से हंसने लगे.

‘‘आओ बैठ कर चाय पीते हैं, बड़े दिन हो गए तुम्हारे साथ चाय नहीं पी हम ने,’’ देवराज ने निहाल को अंदर ले जाते हुए कहा.

‘‘हां, चाय तो पिऊंगा ही, पर…’’ निहाल हिचकिचा सा गया.

‘‘हांहां, बोलो न क्या बात है. तुम कुछ छिपा रहे हो न मु?ा से?’’ देवराज ने निहाल के संकोच को पढ़ लिया था.

‘‘हां, भैयाजी, वह दरअसल रक्षाबंधन आने वाला है और मैं ने मिनी को स्मार्टफोन देने का वादा किया है. उस के लिए कुछ पैसे कम पड़ रहे हैं,’’ शर्म से गड़ गया था निहाल.

‘‘अमां यार, निहाल, बस, इतनी सी बात, बता भाई कितने पैसे चाहिए तु?ो?’’ देवराज ने माहौल को हलका बनाते हुए कहा.

‘‘वो भैयाजी, मेरे पास 10 हजार रुपए हैं, और जो स्मार्टफोन मिनी को चाहिए वह कम से कम 20 हजार रुपए में आएगा. मैं ने पिछले साल ही उस से वादा किया था कि उसे स्मार्टफोन दिलाऊंगा. तो अगर 10 हजार रुपए मिल जाते तो मेहरबानी…’’ बीच में ही रोक दिया देवराज ने निहाल को, ‘‘कैसी मेहरबानी यार, एक दोस्त ही दोस्त के काम आता है. आज मैं तुम्हारे काम आ रहा हूं और कल को अगर मु?ो जरूरत पड़ जाए तो तुम मेरे काम आना. ये लो 12 हजार रुपए,’’ देवराज ने निहाल के हाथ में पैसे रखते हुए कहा.

‘‘पर भैयाजी, मु?ो तो सिर्फ 10 हजार रुपए ही चाहिए,’’ यह कहते हुए निहाल की आंखों में नमी उतर आई थी.

‘‘अरे भाई, रक्षाबंधन का त्योहार है, मोबाइल के साथसाथ मिठाई की भी तो जरूरत होगी न, बाकी के 2 हजार रुपए मिठाई के लिए हैं. और हां, एक राखी मेरी भी कलाई पर बांधेगी मिनी,’’ देवराज ने निहाल की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा.

निहाल ने देवराज का बहुत आभार जताया और यह भरोसा भी दिलाया कि जल्दी से जल्दी वह देवराज के पैसे लौटा देगा, बदले में देवराज सिर्फ मुसकरा दिया.

भैयाजी से पैसे ले कर निहाल सीधा बाजार गया और जो ब्रैंड मिनी ने बताया था उसी ब्रैंड का मोबाइल खरीद लिया.

रक्षाबंधन का दिन भी आ गया. मिनी ने भाई निहाल की कलाई पर राखी बांधी और मिठाई भी खिलाई. निहाल ने एक चमकीली पैकिंग में मोबाइल मिनी की ओर बढ़ा दिया जिसे देख कर मिनी के चेहरे पर चमक बिखर गई.

‘‘ओह, वाओ भैया, आप दुनिया के सब से अच्छे भैया हो. आप मेरी पसंद का ब्रैंड वाला मोबाइल ले आए. अरे भैया, आप ने तो कमाल कर दिया,’’ मोबाइल ले कर ?ामने लगी थी मिनी. भाईबहन का यह प्यार देख कर निहाल की मां और पापा की आंखों में आंसू आ गए. निहाल भी खुशी से मिनी को चहकते हुए देखता रहा.

कौन कहेगा कि कुछ दिनों पहले फ्रौक पहन कर घूमती थी मिनी और आज शहर के विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में स्नातक की पढ़ाई कर रही थी. उस का सपना प्रोफैसर बनने का था जिस के लिए मिनी जीजान से लगी थी और उस से ज्यादा तो निहाल चाहता था कि मिनी पढ़लिख कर प्रोफैसर बन जाए ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो सके.

निहाल ने पुरुषों द्वारा प्रताडि़त कितनी ही महिलाओं के किस्से सुने थे, इसलिए वह बिलकुल नहीं चाहता था कि मिनी की शादी के बाद वह किसी भी तरह से अपने पति से दब कर रहे. वह नहीं चाहता था कि घर से विश्वविद्यालय जाते समय मिनी को बस की भीड़ में दबना पड़े, इसलिए उस ने एक पुरानी स्कूटी दिला दी थी. निहाल ने बड़े ही प्यार से उस की पिछली नंबर प्लेट पर लिखवा दिया था. ‘मिनी मेल.’ कितना निश्छल और निस्वार्थ था भाईबहन का यह प्यार. निहाल का मोबाइल बजा तो उस ने देखा कि देवराज का फोन था.

‘‘हैल्लो, हां, देव भैयाजी, बताइए इस नाचीज को कैसे याद किया,’’ निहाल ने मोबाइल कान से लगाते हुए कहा.

‘‘अरे, कुछ नहीं बस ऐसे ही. दरअसल, तुम तो जानते ही हो कि मैं ने सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में अपने पैर जमाने के लिए ही यहां दाखिला ले रखा है और यहां से निकल कर मु?ो खुल कर राजनीति करनी है और उस के लिए जरूरी है कि मेरा विश्वविद्यालय में खूब नाम हो और उस के लिए मु?ो धरने करना, भूख हड़ताल पर बैठना और छात्रों के रहनुमा के रूप में अपनेआप को प्रदर्शित करना है. यार, इसी सब में लगा हुआ हूं,’’ एक सांस में ही देवराज इतना कुछ बोल गया था.

‘‘हां, तो निहाल, तू ऐसा करना, ठीक 11 बजे विधानसभा के सामने आ जाना. अपने और लोग भी होंगे वहां पर. थोड़ी नारेबाजी, थोड़ी ड्रामेबाजी होगी और एकाध मीडिया वालों को भी इंटरव्यू दे देंगे और बस, खानापीना,’’ आखिरी के शब्द कहते हुए हंसने लगा था देवराज.

‘‘हां बिलकुल, तुम बुलाओ और मैं न आऊं ऐसा तो हो ही नहीं सकता. तुम निश्चिंत रहो, मैं पहुंच जाऊंगा,’’ निहाल ने हामी भर दी.

निहाल समय से पहले ही धरना स्थल पर पहुंच गया था. करीब 100 युवा विद्यार्थी वहां पर अपनी कुछ मांगों को ले कर प्रदर्शन के लिए आए थे. कुछ देर बाद देवराज भी अपने दुमछल्लों से घिरा हुआ एक खुली जीप में आया. देवराज ने सब के बीच खड़े हो कर भाषण दिया. क्या खूब बोला था. यह वह देवराज नहीं था जिस को निहाल जानता था. यह तो एक नए तेवर वाला कोई दूसरा ही देवराज था.

देवराज यहां पर भैयाजी ज्यादा था और उस के भाषण से लगता था कि जैसे देश का कोई बड़ा नेता हो. धरना खत्म हुआ तो देवराज ने सब के बीच से आगे बढ़ कर निहाल कोे गले लगाया और कहा, ‘‘दोस्त, तुम ने मेरे लिए जो समय निकाला उस के लिए तुम्हारा बहुत आभारी हूं. वरना आज की दुनिया में कौन दोस्तों को याद रखता है.’’

‘‘अरे देव, यह तो तुम्हारा बड़प्पन है. मैं तो कुछ भी नहीं,’’ निहाल ने कृतज्ञता से देवराज को देखते हुए कहा. देवराज ने कुरते की जेब में हाथ डाल कर 10 हजार रुपए निकाले और निहाल को पकड़ाते हुए बोला, ’’जानता हूं दोस्त, तुम्हारा समय बहुत कीमती है. मैं उस की पूरी कीमत तो नहीं चुका सकता पर जो थोड़ाबहुत कर सकता हूं, बस, वो ही कर रहा हूं.’’

‘‘य…ये…देवराज, पैसे क्यों दे रहे हो,’’ निहाल चौंक कर बोला.

इस के बदले में देवराज ने निहाल के हाथों को अपने हाथों में ले कर सिर्फ अपनी आंखों के मौन से ही सब कह दिया जो शब्दों से नहीं कहा जा सकता था.

बदचलनी का ठप्पा – भाग 1 : क्यों भागी परबतिया घर से?

कोलियरी की कोयला खदान में काम करने वाला एक सीधासादा मजदूर था अर्जुन महतो. पिछले से पिछले साल वह अपनी ननिहाल अनूपपुर गया था, तो वहां से पार्वती को ब्याह लाया. कच्चे महुए जैसा रंग और उस पर तीखे नयननक्श, खिलखिला कर हंसती तो उस के मोतियों जैसे दांत देखने वाले को बरबस मोहित कर लेते. वह कितनी खूबसूरत थी, उसे कह कर बताना बड़ा मुश्किल काम था. कोलियरी में जहां चारों ओर कोयले की कालिख ही कालिख बिखरी हो, वहां पार्वती की खूबसूरती उस के लिए एक मुसीबत ही तो थी. लोगों ने तरहतरह की बातें बनाईं.

एक ने कहा, ‘‘अर्जुन के दिन बहुरे हैं, जो इतनी सुंदर बहुरिया पा गया, वरना कौन पूछता उस कंगाल को?’’

एक छोटे दिल वाले ने जलभुन कर यह भी कह दिया, ‘‘ऐसा ही होता है यार, अंधे के हाथ ही बटेर लगती है.’’

उधर अर्जुन इन सब बातों से बेखबर, अपनी पार्वती में मगन था. लाड़ में वह उसे ‘परबतिया’ कह कर पुकारता था. उस की प्यारी परबतिया उस की गृहस्थी जमाने लगी थी.

अर्जुन को भी कोयला खदान की लोडर (गाड़ी में कोयला लादने वाला) की नौकरी में मकसद और जोश दोनों नजर आने लगे थे. कोलियरी के नेताओं के भाषणों में वह अमूमन एक ही घिसीपिटी बात सुनता था कि खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालना है और सरकार के हाथ मजबूत करने हैं, पर अर्जुन भी इन भाषणों को और मजदूरों की तरह पान खा कर थूक देता था.

अर्जुन की सरकार तो उस की परबतिया थी. गोरीचिट्टी और गोलमटोल. धरती के पेट में छिपी कोयला खदान की उस काली दुनिया में जब अर्जुन अपने कंधों पर कोयले से भरी टोकरी लादे टब (एक टन कोयले  की गाड़ी) को भर रहा होता, तब भी  उस के दिल और दिमाग में सिर्फ उस  की परबतिया होती, उस के छोटे से  घर में खाना बना कर उस का इंतजार करती हुई. मेहनत करने से अर्जुन का शरीर लोहा हो गया था. पहली बार जब उस  ने पार्वती को अपनी मजबूत बांहों में जकड़ा था तो वह मीठेमीठे दर्द से चिहुक उठी थी.

अर्जुन को लगा था कि परबतिया तो कोयले से भरी उस टोकरी से बहुत हलकी है. कहां वह कालाकाला कोयला और कहां हलदी की तरह गोरी फूलों की यह चटकती कली. अर्जुन की बांहों की मजबूती पा कर वह कली खिलने लगी थी. कभीकभी अर्जुन पार्वती को छेड़ता, ‘‘कम खाया कर परबतिया, बहुत मोटी होती जा रही है.’’

पार्वती अर्जुन के चौड़े सीने से सट जाती और अपनी महीन आवाज में फुसफुसाती, ‘‘इतना प्यार क्यों करता है रे मुझ से? तेरा लाड़प्यार ही तो मुझे दूना किए दे रहा है.’’

अर्जुन निहाल हो जाता. उस जैसा एक आम मजदूर इस से बड़ी और किस खुशी की कल्पना कर सकता था. वह सिर्फ नाम का ही तो अर्जुन था, जिस के पास कोयला खदान की खतरनाक नौकरी के सिवा कुछ भी नहीं था. समय बीतता गया. इस बीच कोयला खदान से जुड़े नियमकानूनों में भारी बदलाव आए. कोयला खानों का ‘राष्ट्रीयकरण’ हो गया.

अर्जुन जैसे लोगों को इस ‘राष्ट्रीयकरण’ का अर्थ तो समझ में नहीं आया शुरू में, किंतु थोड़े ही दिन बाद इस का मतलब साफ हो गया. ‘राष्ट्रीयकरण’ के बाद  सभी मजदूर सरकारी मुलाजिम हो गए. और इस तरह मजदूर और कामगार कामचोर और उद्दंड भी हो गए, क्योंकि उन का कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था. अर्जुन जैसे गिनती के मजदूरों पर ही पूरी ईमानदारी और खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालने का जिम्मा आ पड़ा था.

मेहनत ऐसे मजदूरों के खून में थी, क्योंकि कोयला खानों से इन का रिश्ता उतना ही पुराना और मजबूत था, जितना एक खेतिहर का अपनी जमीन और माटी से होता है. धीरेधीरे यहां की कोलियरी में कई मजदूर नेता भी उभरने लगे. पर देवेंद्रजी ने, जिन का इतिहास भी यहां की कोयला खदान जितना ही पुराना है, अपने आगे किसी नए नेता को उभरने नहीं दिया. वे हमेशा से मजदूर के भरोसेमंद आदमी रहे थे और उन की चौपाल हमेशा हरीभरी रहती थी.  किसी मजदूर को घर चाहिए, तो किसी को बिजली. कहीं महल्ले में पानी का इंतजाम करवाना है, तो कहीं मजदूरों के लिए कैंटीन का. कोई रिटायर हो गया है, तो उस का दफ्तर से हिसाबकिताब करवाना है, भविष्य निधि वगैरह के पैसे दिलवाने हैं.

कोई भी काम हो, कैसी भी समस्या हो, देवेंद्रजी बड़ी आसानी से सुलझा देते थे. उन्हें मैनेजरों का पूरा भरोसा हासिल था, इसलिए विरोधी नेता भी उन्हें डिगा नहीं पाते थे.  अचानक इस कोलियरी में एक अजीब घटना हो गई. फैलने को या तो आग फैलती है या अफवाह. पर यह अफवाह नहीं थी, इसीलिए यहां के सभी लोग हैरान थे.

किसी ने कहा, ‘‘भाई, सुना तुम ने… बड़ा गजब हो गया.’’

दूसरे ने पूछा, ‘‘क्या पहाड़ टूट गया एक ही रात में? कल तक तो सबकुछ ठीकठाक था.’’

तीसरे ने कहा, ‘‘वाह भाई, कुछ दीनदुनिया की खबर भी रखा करो यार, खातेकमाते तो सभी हैं.’’

दूसरे ने फिर पूछा, ‘‘पर, हुआ क्या है, कुछ बताओगे भी?’’

‘‘अरे वह परबतिया थी न, दिनदहाड़े जा कर गया प्रसाद के घर बैठ गई,’’ बताने वाले की आवाज में ऐसा जोश था, मानो वह इस घटना के घटने का सालों से इंतजार कर रहा हो.

‘‘कौन परबतिया और कौन गया प्रसाद? यार, साफसाफ बताओ न,’’ पूछने वाले के चेहरे का रंग अजीब हो गया था.

‘‘गजब करते हो यार, धिक्कार है तुम्हारी जिंदगी को. अरे, परबतिया को नहीं जानते?’’ बताने वाले के चेहरे पर धिक्कार के भाव थे,

‘‘क्या उस जैसी  2-4 औरतें हैं यहां? अरे वही अर्जुन महतो की घरवाली. हां, वही पार्वती. कल वह अर्जुन का घर छोड़ गया प्रसाद के घर बैठ गई.’’

‘‘अच्छा, वह परबतिया,’’ उस घटना से अनजान आदमी ने चौंकते हुए  कहा, ‘‘अरे भई, ‘तिरिया चरित्तर’  को कौन समझ सकता है. भाई…बड़ी सतीसावित्री बनती थी.’’

जितने मुंह उतनी बातें. चारों तरफ कानाफूसी. लोग चटकारे लेले कर उस घटना की चर्चा कर रहे थे. बहुत दिनों से यहां कुछ हुआ नहीं था, इसलिए यहां के पान के ठेलों पर महफिलें सूनीसूनी रहने लगी थीं. पुरानी बातों  को ले कर आखिर लोग कब तक जुगाली करते…

इस नई घटना से सभी का जोश फिर लौट आया था. कुछ लोग इस घटना से दहशत और सन्नाटे की चपेट में भी आ गए थे. जब पार्वती जैसी बेदाग औरत ऐसा कर सकती है तो उन की अपनी बीवियों का क्या भरोसा? हर शक्की पति घबराया हुआ था. कहीं उन की बीवियां भी ऐसा कर बैठें तो…?

इस घटना के बाद देवेंद्र की  चौपाल फिर सजी थी ठीक किसी मदारी के तमाशे जैसी. कभी कोई भला आदमी गलती से यहां मर जाता तो अरथी के साथ चलने के लिए लोग  ढूंढ़े नहीं मिलते थे. कहते, ‘‘अरे, कोई मर गया तो मर गया. एक न एक  दिन तो सभी को मरना ही है.’’

भीड़ में आए ज्यादा लोगों को हमदर्दी अर्जुन महतो के साथ थी. बेचारा, बेसहारा अर्जुन. कितनी धोखेबाज होती हैं ये औरतें भी. और यदि खूबसूरत हुई तो मुसीबतें ही मुसीबतें. मनचले कुत्तों की तरह सूंघते फिरते हैं. देवेंद्र की चौपाल में भीड़ बढ़ी, तो पास ही मूंगफली बेचने वाली बुढि़या खुश हो गई थी. केवल वही थी वहां, जिसे सिर्फ अपनी मूंगफलियों की बिक्री की चिंता थी.

उसे न परबतिया से मतलब था, न गया प्रसाद से. घर के बाहर भीड़ का शोरगुल हुआ, तो देवेंद्र घर से बाहर निकल आए.  सभी ने उन को प्रणाम किया. वह वहीं नीम के पेड़ के नीचे कुरसी लगवा कर बैठ गए. देवेंद्रजी ने गहराई से भीड़ का जायजा लिया और परेशानी भरी आवाज में बोले, ‘‘फिर कौन सा बवाल हो गया भाइयो? क्या हमें अब एक दिन का चैन भी नहीं मिलेगा…”

अब पता चलेगा – भाग1 : राधा क्या तोड़ पाई बेटी संदली की शादी

दुबई से संदली उत्साह से भरे स्वर में अपने पापा विकास और मम्मी राधा को बता रही थी,”पापा, मैं आप को जल्दी ही आर्यन से मिलवाउंगी. बहुत अच्छा लड़का है. मेरे साथ उस का एमबीए भी पूरा हो रहा है. हम दोनों ही इंडिया आ कर आगे का प्रोग्राम बनाएंगे.”

विकास सुन कर खुश हुए, कहा,”अच्छा है,जल्दी आओ, हम भी मिलते हैं आर्यन से. वैसे कहां का है वह?”

”पापा, पानीपत का.”

”अरे वाह, इंडियन लड़का ही ढूंढ़ा तुम ने अपने लिए. तुम्हारी मम्मी को तो लगता था कि तुम कोई अंगरेज पसंद करोगी.‘’

संदली जोर से हंसी और कहा,”मम्मी को जो लगता है, वह कभी सच होता है क्या? फोन स्पीकर पर है पर मम्मी कुछ क्यों नहीं बोल रही हैं?”

”शायद उसे शौक लगा है आर्यन के बारे में जान कर.”

राधा का मूड बहुत खराब हो चुका था. वह सचमुच जानबूझ कर कुछ नहीं बोलीं.

जब विकास ने फोन रख दिया तो फट पड़ीं,”मुझे तो पता ही था कि यह लड़की पढ़ने के बहाने से ऐयाशियां करेगी. अब पता चलेगा पढ़ने भेजा था या लड़का ढूंढ़ने.”

”क्या बात कर रही हो, जौब भी मिल ही जाएगा. अब अपनी पसंद से लड़का ढूंढ़ लिया तो क्या गलत किया? संदली समझदार है, जो फैसला करेगी, अच्छा ही होगा.”

“अब पता चलेगा कि इस लड़की की किसी से निभ नहीं सकती, न किसी काम की अकल है, न कोई तमीज.और जो यह लोन ले रखा है, शादी कर के बैठ जाएगी तो कौन उतारेगा लोन? मुझे पता ही था कि यह लड़की कभी किसी को चैन से नहीं रहने दे सकती,” राधा जीभर कर संदली को कोसती रहीं.

विकास को उन पर गुस्सा आ गया, बोले,”तुम्हें तो सब पता रहता है. बहुत अंतरयामी समझती हो खुद को.पता नहीं कैसे इतना ज्ञानी समझती हो खुद को.

“आसपड़ोस की अपनी जैसी हर समय कुड़कुड़ करने वाली लेडीज की बातों के अलावा कुछ भी पता है कि क्या हो रहा है दुनिया में?”

हर बार की तरह दोनों का गुस्स्सा रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.

विकास ने जूते पहनते हुए कहा, “मैं ही जा रहा हूं थोड़ी देर बाहर, अकेली बोलती रहो.”

यह कोई पहली बार तो हुआ नहीं था. बातबेबात किचकिच करने वाली राधा का तकियाकलाम था,’अब पता चलेगा.’

बड़ी बेटी प्रिया कनाडा में अपनी फैमिली के साथ रहती थी, संदली फिलहाल दुबई में थी. कोई भी कैसी भी बात करता, राधा हमेशा यही कहतीं कि उन्हें सब पता था. उन का कहना था कि उन्होंने इतनी दुनिया देखी है, उन्हें हर बात का इतना ज्ञान है कि कोई भी बात उन से छिपी नहीं रहती, फिर चाहे कुकिंग की बात हो या फैशन की.

यहां तक कि राजनीति की हलचल पर भी कोई बात होती तो उन का कहना होता कि उन्हें तो पता ही था कि फलां पार्टी यह करेगी. 1-2 दिन पहले वे किसी से कह रहीं थीं कि उन्हें तो पता ही था कि अब किसान आंदोलन होगा.

उन की बात सुनते हुए विकास ने बाद में टोका था,”ऐसी हरकतें क्यों करती हो, राधा? किसान आंदोलन होगा, यह भी तुम्हें पता था, कुछ तो सोच कर बोला करो.”

”अरे,मुझे पता था कि कुछ ऐसा होगा.”

विकास चुप हो गए, पता नहीं कौन सी ग्रंथि है राधा के मन में जो वह हर बात में घर में किसी न किसी बात में हावी होने की कोशिश करती थी. कई बार विकास अपने रिश्तेदारों के सामने राधा की बातों से शर्मिंदा भी हो जाते थे. बेटियां भी इस बात से हमेशा बचती रहीं कि राधा के सामने उन की फ्रैंड्स आएं.

विकास अंधेरी में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत थे. आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी पर राधा कंजूस भी थी और बहुत तेज भी, साथ ही उन्हें अपने उस ज्ञान पर भी बहुत घमंड था जो ज्ञान दूसरों की नजर में मूर्खता में बदल चुका था. अजीब सी आत्ममुग्ध इंसान थीं.

घर में उन के व्यवहार से सब हमेशा दुखी रहते. राधा ने संदली को अगले दिन फोन किया और सीधे पूछा,”अभी शादी कर लोगी तो तुम्हारा लोन कौन चुकाएगा?”

”मैं इंडिया आ कर जौब करूंगी, लोन उतार दूंगी. अभी हम दोनों सीधे मुंबई ही आ रहे हैं, आर्यन को आप लोगों से मिलवा दूं?”

राधा ने कोई उत्साह नहीं दिखाया. संदली ने उदास हो कर फोन रख दिया. संदली और आर्यन को एअरपोर्ट से लेने विकास खुद जा रहे थे.

प्रोग्राम यह तय हुआ कि विकास औफिस से सीधे एअरपोर्ट चले जाएंगे. देर रात सब घर पहुंचे तो राधा ने सब के लिए डिनर तैयार कर रखा था. आर्यन उन्हें पहली नजर में ही बहुत अच्छा लगा पर बेटी से मन ही मन नाराज थीं कि पढ़ने भेजा था, लड़का पसंद कर के घर ले आई है.

उन्हें विकास पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था कि अभी से कैसे आर्यन को दामाद समझ रहे हैं. संदली फोन पर पहले ही बता चुकी थी कि पानीपत में आर्यन के पिता का बहुत लंबाचौड़ा बिजनैस है. बहुत धनी, आधुनिक परिवार है. 2 ही भाई हैं, आर्यन बड़ा है, छोटा भाई अभय अभी पढ़ रहा है.

आर्यन से मिलने, उस से बातें करने के बाद कोई कारण ही नहीं था कि राधा कुछ कमी निकालती पर यह बात हजम ही नहीं हो रही थी कि बेटी ने अपने लिए लड़का खुद पसंद कर लिया है.

विकास को भी आर्यन बहुत पसंद आया था. वह ऐसे घुलमिल गया था कि जैसे कब से इस परिवार का ही सदस्य है.

डिनर करते हुए संदली ने कहा,”मम्मी, हम दोनों अब कल ही दिल्ली जा रहे हैं. वहां आर्यन के पेरैंट्स हमें एअरपोर्ट पर लेने आ जाएंगे. मुझे भी उन से मिलना है. मैं जल्दी ही वापस आ जाउंगी.”

राधा ने कहा,”मुझे तो पता ही था कि तुम हम से पूछोगी भी नहीं, खुद ही होने वाले ससुराल पहुंच जाओगी.अब पता चलेगा.’’

विकास ने आर्यन की उपस्थिति को देखते हुए मुसकरा कर बात संभाली,”यह तो अच्छा ही है न कि तुम अपनी बेटी को जानती हो, तुम्हें पता था, अच्छा है.’

संदली ने मां की बात पर ध्यान ही नहीं दिया. युवा मन अपने सपनों में खोया था, प्यार से बीचबीच में एकदूसरे को देखते संदली और आर्यन विकास को बड़े अच्छे लगे.

आगे पढ़ें- विकास को गुस्सा आ गया…

मनमोहिनी – भाग 3 : एक संगदिल हसीना

अब वह किसी और स्कूल में अपना जलवा बिखेरने की तैयारी कर चुकी थी. मोहकलाल ने उसे भावभीनी विदाई दी.

मनमोहिनी उड़ी तो मोहकलाल कुछ दिन तक मजनू बने रहे. उन का मन स्कूल के किसी काम में नहीं लगता था. स्कूल के कौरिडोर उन्हें सूनेसूने से लगते. अपना गम भुलाने के लिए वे म्यूजिक रूम का रुख करते. तब वहां से दुखभरे फिल्मी नगमों की तान सुनाई पड़ती… ‘मेरी किस्मत में तू नहीं शायद जो तेरा…’, ‘आ लौट के आजा…’

इस पर कौरिडोर में चाय की खाली ट्रे ले जाती फूलवती आया अपने लहजे में जवाब देती, ‘‘अब तो वह चली गई, अब काहे बावरा हो रिया.’’

लेकिन बेचारी फूलवती को क्या पता था कि वियोग क्या होता है. वियोग तो अच्छेअच्छों को कवि बना देता है, तभी तो सुमित्रानंदन पंत ने कहा था :

‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान, निकल कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान.’

लेकिन इसी के साथ एक काम और हुआ. फूलवती की अनजाने में कही

गई बात किसी मुंहफट टीचर के कान

में पड़ गई. फिर तो वह बात स्कूल में सभी टीचरों के ‘हंसोड़खाने’ की आवाज बन गई.

इस बात को टीचर एकदूसरे को चटकारे लेले कर सुनाते और मजे लेते हैं. फूलवती को आज तक नहीं पता कि उस ने अनजाने में कितने काम की बात कही थी.                            द्य

जुम्मन और अलगू का बदला – भाग 1

आज अलगू की खुशी देखते ही बनती थी. सुबह से चहकाचहका घूम रहा था और सभी मिलने वालों से बड़ी हंसीखुशी से बात कर रहा था. कहां तो बंदे के चेहरे पर हमेशा एक सर्द खामोशी चस्पां रहती थी, पर आज तो वह बेवजह हंसा जा रहा था. उस के खुश रहने की वजह यह थी कि उस का बचपन का दोस्त जुम्मन वापस जो आ रहा था.

जुम्मन और अलगू एकसाथ खेले और बड़े हुए थे, पर तकरीबन 10 साल पहले ही जुम्मन गांव से शहर की ओर कमाने चला गया था. उस समय जुम्मन की उम्र महज 18 साल थी और अब वह 28 साल का हो गया था.

इन सालों में जुम्मन ने शहर में मोटर मेकैनिक का काम किया और एक से एक महंगी गाड़ी को अच्छे ढंग से  बनाना सीखा. अब तो वह किसी भी गाड़ी के मर्ज को मिनटों में भांप लेता था.

‘‘बाकी तो सब बात सही है, पर मुझे यह बताओ कि तुम गांव छोड़ कर चले गए थे और शहर में तुम्हारा रोजगार भी अच्छा चल रहा था, तब वापस क्यों आ गए?’’ अलगू ने जुम्मन से गले मिलते ही पहला सवाल दाग दिया.

जुम्मन ने अलगू को अपने प्लान के बारे में बताया, ‘‘शहर में रह कर मोटर मेकैनिक का काम करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि इस लाइन में होड़ बहुत है. हर गलीमहल्ले में एकाध मेकैनिक मिल जाता है.

‘‘यहां गांव के सामने से ही तो शहर की ओर जाती हुई एक चौड़ी सड़क है, एकदम हाईवे टाइप. बस, इसी रोड के किनारे अपनी कार और मोटरसाइकिल रिपेयरिंग की दुकान खोलूंगा. सड़क पर गाडि़यों की आवाजाही रहेगी तो काम भी खूब मिलेगा. और फिर जब गांव में ही रोजगार मिल रहा है, तो शहर जाने की क्या जरूरत है?’’

जुम्मन ने बेशक गांव वापस आने के पक्ष में ये सारी दलीलें दे डाली थीं, पर अंदर ही अंदर अलगू अच्छी तरह से जानता था कि हकीकत कुछ और ही है और वह हकीकत थी रन्नो से जुम्मन की मुहब्बत.

जुम्मन और रन्नो शादी करना चाहते हैं, पर दिक्कत यह है कि जुम्मन एक मुसलमान परिवार से है और रन्नो हिंदू लड़की है.

कमबख्त जातपांत का लफड़ा तो रास्ते में रोड़ा बन कर आएगा ही, पर एक बार धंधा अच्छी तरह से जम जाए, तब खुद जा कर जुम्मन शान से रन्नो का हाथ मांग लेगा और अगर लड़की के पिता जातिधर्म की दुहाई देंगे तो उन्हें आज के जमाने की हकीकत से रूबरू कराते हुए बता देगा कि पुराना जमाना बदल रहा है, आजकल हिंदूमुसलिम कोई नहीं देखता, बस अपनी लड़की और लड़के की खुशी का ध्यान रखते हैं  मांबाप.

अगर वे लोग इतनी बात से सबकुछ समझ गए तो ठीक है, नहीं तो फिर जुम्मन और भी कच्चाचिट्ठा खोल देगा और यह बताने से बिलकुल नहीं डरेगा कि इस गांव में दूसरे धर्म की लड़की से प्यार करने वाला वह अकेला नहीं है, बल्कि और लोग भी हैं जो अलग धर्म में मुहब्बत करते हैं और शादी भी करना चाहते हैं.

अरे, फिर तो जुम्मन नाम बताने से भी नहीं चूकेगा, भले ही उस का दोस्त अलगू उस से नाराज हो जाए. अलगू, अरे हां भाई, अलगू ही तो है उस का दोस्त और उसे प्यार है एक मुसलिम लड़की से. अब अलगू को सलमा से प्यार है और सलमा भी तो अलगू से मुहब्बत करती है और यह मुहब्बत कोई जानबूझ कर नहीं की जाती, यह तो बस हो जाती है.

पर यह बात बाहुबली जिगलान को समझ आए तब तो. जिगलान इस गांव में रहने वाला खानदानी ठाकुर था. वह 48 साल का था, पर शरीर में जवानों जैसा कसाव और चेहरे पर ताजगी. उस की तलवारकट मूंछ उसे एक रोबीला इनसान बनाती थी.

हालांकि ठाकुर जिगलान को राजनीति में कोई पद तो हासिल नहीं था, पर बड़ेबड़े नेता उस के पैर छूने आते थे. इस की वजह सिर्फ एक थी कि चुनाव में ठाकुर जिगलान सभी गांव वालों के वोट दिलाने की गारंटी लेता था और बदले में नेता उसे पैसे देते थे.

हालांकि इस गांव में हिंदू तकरीबन 60 फीसदी और मुसलिम तकरीबन 40 फीसदी थे, फिर भी ठाकुर जिगलान ने अपनी इमेज एक सैक्युलर की बना रखी थी, जबकि वह गांव के हिंदूमुसलिमों को आपस में लड़ा कर रखता और अपना उल्लू सीधा करता था.

ठाकुर जिगलान जानता था कि अगर गांव के लोगों में एकता हो गई, तो वह अपनी मरजी गांव के लोगों पर नहीं चला पाएगा.

ठाकुर जिगलान के चारों तरफ उस के चमचे रहते थे, जो गांव की जवान होती लड़कियों पर बुरी नजर रखते थे.  गांव के लोग चाह कर भी इस बात का विरोध नहीं कर पाते थे, क्योंकि ठाकुर जिगलान के पास पैसा भी था और लोगों का समूह भी, जो उस के एक इशारे पर कुछ भी करगुजरने को तैयार रहते थे.

ठाकुर जिगलान अपने इर्दगिर्द इकट्ठे जवान लड़कों की कमजोर नस को अच्छी तरह जानता था और वह कमजोर नस थी दारू और मांस. तकरीबन हर दूसरे दिन ही ठाकुर  जिगलान की बगिया के कोने में बने बड़े से चूल्हे पर मांस पकाया जाता और सूरज डूबतेडूबते दारू और मांस खाने वाले इकट्ठे होने लगते थे.

जब कभी ठाकुर जिगलान का मन किसी लड़की पर आ जाता, तो वह उसे उठवा लेता और रेप कर देता था.कभीकभी तो ठाकुर जिगलान के मुंह लगे मुंशी जानकीदास को हैरानी होती कि साहब खुद इतने रसूख वाले हैं, पर कभीकभी इन्हें न जाने क्या हो जाता है.

खेत में पसीने में तर हो कर काम कर रही होती किसी भी औरत, जिस की खुली पीठ और काली रंगत की कमर कहीं से भी आकर्षक नहीं लग रही होती थी, उसे भी उठवा कर वे उस का रेप करने का मजा लेते हैं. अरे, कम से कम अपना रसूख भी तो देखें.

एक दिन जब 25 साल के जानकीदास से रहा नहीं गया, तो वह ठाकुर जिगलान से कह बैठा और उस की बात का ठाकुर ने मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘अरे जनकिया, ठकुराई हमें विरासत में मिली है. यह सब करना हमारे खून में है और खून का असर जल्दी नहीं जाता.

‘‘हम जानते हैं कि वह लड़की जाति से छोटी है, फिर भी उस का रेप करते हैं, क्योंकि ये लोग हमारी जांघ के नीचे रहने लायक ही हैं.’’

ठाकुर जिगलान की बात जानकीदास की समझ में आई या नहीं, पर उस ने हां की मुद्रा में अपना सिर जरूर हिला दिया.

ठाकुर जिगलान की पत्नी, जो उम्र में महज 30 साल की थी, खामोशी से यह सब देखा करती थी. उस ने कई बार अपने पति को समझाना भी चाहा तो बदले में ठाकुर की डांट ही मिली और खामोश रहने की ताकीद भी.

बेचारी ठकुराइन समझ गई थी कि खामोशी को उसे अपना सिंगार बनाना होगा. उस ने तो जबान ही सिल ली थी.चूंकि गांव वाले ठाकुर जिगलान के रोब से अच्छी तरह वाकिफ थे, इसलिए लड़कियों के रेप के बाद भी कोई चूं तक नहीं करता और ज्यादातर मामलों में तो लड़की के मांबाप ही लड़की को नहलाधुला कर बैठा लेते और लड़की से भी चुप रहने को कह देते.

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