ट्रेन की इमर्जैंसी खिड़की और वो लड़की

‘‘जल्दी करो मां. मुझे देर हो रही है. फिर ट्रेन में जगह नहीं मिलेगी,’’ अरुण ने कहा.

मां बोलीं, ‘‘तेरी गाड़ी तो 12 बजे की है. अभी तो 7 भी नहीं बजे हैं.’’

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो. मैं यार्ड में ही जा कर डब्बे में बैठ जाऊंगा. प्लेटफार्म पर सभी जनरल डब्बे बिलकुल भरे हुए ही आते हैं,’’ अरुण बोला.

उन दिनों ‘श्रमजीवी ऐक्सप्रैस’ ट्रेन पटना जंक्शन से 12 बजे खुल कर अगले दिन सुबह 5 बजे नई दिल्ली पहुंचती थी. अरुण को एक इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना था. अगले दिन सुबह के 11 बजे दिल्ली के दफ्तर में पहुंचना था.

अरुण के पिता किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी थे. अभी कुछ महीने पहले ही वे रिटायर हुए थे. वे कुछ दिनों से बीमार थे. वे किसी तरह 2 बेटियों की शादी कर चुके थे. सब से छोटे बेटे अरुण ने बीए पास करने के बाद कंप्यूटर की ट्रेनिंग ली थी. वह एक साल से बेकार बैठा था.

अरुण 1-2 छोटीमोटी ट्यूशन करता था. उस के पास स्लीपर क्लास के भी पैसे नहीं थे, इसीलिए पटना से दिल्ली जनरल डब्बे में जाना पड़ रहा था.

मां ने कहा, ‘‘बस हो गया. मैं ने  परांठा और भुजिया एक पैकेट में पैक कर दिया है. तुम याद से अपने बैग में रख लेना.’’

पिता ने भी बिस्तर पर पड़ेपड़े कहा, ‘‘जाओ बेटे, अपने सामान का खयाल रखना.’’

अरुण मातापिता को प्रणाम कर स्टेशन के लिए निकल पड़ा. यार्ड में जा कर एक डब्बे में खिड़की के पास वाली सिंगल सीट पर कब्जा जमा कर उस ने चैन की सांस ली.

ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंची, तो चढ़ने वालों की बेतहाशा भीड़ थी.

अरुण जिस खिड़की वाली सीट पर बैठा था, वह इमर्जैंसी खिड़की थी. एक लड़की डब्बे में घुसने की नाकाम कोशिश कर रही थी. उस लड़की ने अरुण के पास आ कर कहा, ‘‘आप इमर्जैंसी खिड़की खोलें, तो मैं भी डब्बे में आ सकती हूं. मेरा इस ट्रेन से दिल्ली जाना बहुत जरूरी है.’’

अरुण ने उसे सहारा दे कर खिड़की से अंदर डब्बे में खींच लिया.

लड़की पसीने से तरबतर थी. दुपट्टे से मुंह का पसीना पोंछते हुए उस ने अरुण को ‘थैंक्स’ कहा.

थोड़ी देर में गाड़ी खुली, तो अरुण ने अपनी सीट पर जगह बना कर लड़की को बैठने को कहा. पहले तो वह  झिझक रही थी, पर बाद में और लोगों ने भी बैठने को कहा, तो वह चुपचाप बैठ गई.

तकरीबन 2 घंटे बाद ट्रेन बक्सर पहुंची. यह बिहार का आखिरी स्टेशन था. यहां कुछ लोकल मुसाफिरों के उतरने से राहत मिली.

अरुण के सामने वाली सीट खाली हुई, तो वह लड़की वहां जा बैठी.

अरुण ने लड़की का नाम पूछा, तो वह बोली, ‘‘आभा.’’

अरुण बोला, ‘‘मैं अरुण.’’

दोनों में बातें होने लगीं. अरुण ने पूछा, ‘‘पटना में तुम कहां रहती हो?’’

आभा बोली, ‘‘सगुना मोड़… दानापुर के पास.’’

‘‘मैं बहादुरपुर… मैं पटना के पूर्वी छोर पर हूं और तुम पश्चिमी छोर पर. दिल्ली में कहां जाना है?’’

‘‘कल मेरा एक इंटरव्यू है.’’

‘‘वाह, मेरा भी कल एक इंटरव्यू है. बुरा न मानो, तो क्या मैं जान सकता हूं कि किस कंपनी में इंटरव्यू है?’’

आभा बोली, ‘‘लाल ऐंड लाल ला असोसिएट्स में.’’

अरुण तकरीबन अपनी सीट से उछल कर बोला, ‘‘वाह, क्या सुहाना सफर है. आगाज से अंजाम तक हम साथ रहेंगे.’’

‘‘क्या आप भी वहीं जा रहे हैं?’’

अरुण ने रजामंदी में सिर हिलाया और मुसकरा दिया. रातभर दोनों अपनीअपनी सीट पर बैठेबैठे सोतेजागते रहे थे.

ट्रेन तकरीबन एक घंटा लेट हो गई थी. इस के बावजूद काफी देर से गाजियाबाद स्टेशन पर खड़ी थी. सुबह के 7 बज चुके थे. अरुण नीचे उतर कर लेट होने की वजह पता लगाने गया.

अरुण अपनी सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘गाजियाबाद और दिल्ली के बीच में एक गाड़ी पटरी से उतर गई है. आगे काफी ट्रेनें फंसी हैं. ट्रेन के दिल्ली पहुंचने में काफी समय लग सकता है.’’

आभा यह सुन कर घबरा गई. अरुण ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘डोंट वरी. हम दोनों यहीं उतर जाते हैं. यहीं फ्रैश हो कर कुछ चायनाश्ता कर लेते हैं. फिर यहां से आटोरिकशा ले कर सीधे कनाट प्लेस एक घंटे के अंदर पहुंच जाएंगे.’’

दोनों ने गाजियाबाद स्टेशन पर ही चायनाश्ता किया. फिर आटोरिकशा से दोनों कंपनी पहुंचे. दोनों ने अलगअलग इंटरव्यू दिए. इस के बाद कंपनी के मालिक मोहनलाल ने दोनों को एकसाथ बुलाया.

मोहनलाल ने दोनों से कहा, ‘‘देखो, मैं भी बिहार का ही हूं. दोनों की क्वालिफिकेशंस एक ही हैं. इंटरव्यू में दोनों की परफौर्मेंस बराबर रही है, पर मेरे पास तो एक ही जगह है. अब तुम लोग बाहर जा कर तय करो कि किसे नौकरी की ज्यादा जरूरत है. मुझे बता देना, मैं औफर लैटर इशू कर दूंगा.’’

अरुण और आभा दोनों ने बाहर आ कर बात की. अपनीअपनी पारिवारिक और माली हालत बताई.

आभा की मां विधवा थीं. उस की एक छोटी बहन भी थी. वह पटना के कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में पार्ट टाइम नौकरी करती थी, पर उसे बहुत कम पैसे मिलते थे. परिवार को उसी को देखना होता था.

अरुण ने आभा के पक्ष में सहमति जताई. आभा को वह नौकरी मिल गई.

मालिक मोहनलाल अरुण से बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘नौकरी तो तुम भी डिजर्व करते थे. मैं तुम से बहुत खुश हूं. वैसे तो किराया देने का कोई करार नहीं था. फिर भी मैं ने अकाउंटैंट को कह दिया है कि तुम्हें थर्ड एसी का अपडाउन रेल किराया मिल जाएगा. जाओ, जा कर पैसे ले लो.’’

अरुण ने पैसे ले लिए. आभा उसे धन्यवाद देते हए बोली, ‘‘यह दिन मैं कभी नहीं भूलूंगी. मिस्टर मोहनलाल ने मु  झे बताया कि तुम ने मेरी खाितर बड़ा त्याग किया है.’’ दोनों ने एकदूसरे का फोन नंबर लिया और संपर्क में रहने को कहा.

अरुण जनरल डब्बे में बैठ कर पटना लौट आया. उस ने किराए का काफी पैसा बचा लिया था. मातापिता को जब पता चला कि उसे नौकरी नहीं मिली, तो वे दोनों उदास हो गए.

कुछ ही दिनों में अरुण के पिता चल बसे. अरुण किसी तरह 2-3 ट्यूशन कर अपना काम चला रहा था. जिंदगी से उस का मन टूट चुका था. कभी सोचता कि घर छोड़ कर भाग जाए, तो कभी सोचता गंगा में जा कर डूब जाए. फिर अचानक बूढ़ी मां की याद आती, तो आंखों में आंसू भर आते.

एक दिन अरुण बाजार से कुछ सामान खरीदने गया. एक 16-17 साल का लड़का अपने कंधे पर एक बैग लटकाए कुछ बेच रहा था. उस के एक पैर में पोलियो का असर था. लाठी के सहारे चलता हुआ वह अरुण के पास आ कर बोला, ‘‘भैया, क्या आप को पापड़ चाहिए? 10 रुपए का एक पैकेट है.’’

अरुण ने कहा, ‘‘नहीं चाहिए पापड़.’’

लड़के ने थैले से एक शीशी निकाल कर कहा, ‘‘आम का अचार है. चाहिए? पापड़ और अचार दोनों घर के बने हैं. मां बनाती हैं.’’

अरुण के मन में दया आ गई. उस के पास 5 रुपए ही बचे थे. उस ने लड़के को देते हुए कहा, ‘‘मुझे कुछ चाहिए तो नहीं, पर तुम इसे रख लो.’’

अरुण ने रुपए उस के हाथ में पकड़ा दिए. दूसरे ही पल वह लड़का गुस्से से बोला, ‘‘मैं विकलांग हूं, पर भिखारी नहीं. मैं मेहनत कर के खाता हूं. जिस दिन कुछ नहीं कमा पाता, मांबेटे पानी पी कर सो जाते हैं.’’

इतना बोल कर उस लड़के ने रुपए अरुण को लौटा दिए. पर वह अरुण की आंखों में उम्मीद की किरण जगा गया. वह सोचने लगा, ‘जब यह लड़का जिंदगी से हार नहीं मान सकता है, तो मैं क्यों मानूं?’

अरुण के पास दिल्ली में मिले कुछ रुपए बचे थे. वह कोलकाता गया. वहां के मंगला मार्केट से थोक में कुछ जुराबें, रूमाल और गमछे खरीद लाया. ट्यूशन के बाद बचे समय में न्यू मार्केट और महावीर मंदिर के पास फुटपाथ पर उन्हें बेचने लगा.

इस इलाके में सुबह से ले कर देर रात तक काफी भीड़ रहती थी. अरुण की अच्छी बिक्री हो जाती थी.

शुरू में अरुण को कुछ झिझक होती थी, पर बाद में उस का इस में मन लग गया. इस तरह उस ने देखा कि एक हफ्ते में तकरीबन 7-8 सौ रुपए, तो कभी हजार रुपए की बचत होती थी.

इस बीच बहुत दिन बाद उसे आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘अगले हफ्ते मेरी शादी होने वाली है. कार्ड पोस्ट कर दिया है. तुम जरूर आना और मां को भी साथ लाना.’’

अरुण मां के साथ आभा की शादी में सगुना मोड़ उस के घर गया. आभा ने अपनी मां, बहन और पति से उन्हें मिलवाया और कहा, ‘‘मैं जिंदगीभर अरुण की कर्जदार रहूंगी. मुझे नौकरी अरुण की वजह से ही मिली थी.’’

शादी के बाद आभा दिल्ली चली गई. अरुण की दिनचर्या पहले जैसी हो गई.

एक दिन आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘मेरे पति गुड़गांव की एक गारमैंट फैक्टरी में डिस्पैच सैक्शन में हैं. फैक्टरी से मामूली डिफैक्टिव कपड़े सस्ते दामों में मिल जाते हैं. तुम चाहो, तो इन्हें बेच कर अच्छाखासा मुनाफा कमा सकते हो.’’

अरुण बोला, ‘नेकी और पूछपूछ… मैं गुड़गांव आ रहा हूं.’

इधर अरुण उस पापड़ वाले लड़के का स्थायी ग्राहक हो गया था. उस का नाम रामू था. हर हफ्ते एक पैकेट पापड़ और अचार की शीशी उस से लिया करता था. अब अरुण महीने 2 महीने में एक बार दिल्ली जा कर कपड़े लाता और उन्हें अच्छे दाम पर बेचता.

धीरेधीरे अरुण का कारोबार बढ़ता गया. उस ने कंकड़बाग में एक छोटी सी दुकान किराए पर ले ली थी. बीचबीच में कोलकाता से भी थोक में कपड़े लाया करता. कारोबार बढ़ने पर उस ने एक बड़ी दुकान ले ली.

अरुण की शादी थी. उस ने आभा को भी बुलाया. वह भी पति के साथ आई थी. अरुण ने उस पापड़ वाले लड़के को भी अपनी शादी में बुलाया था.

शादी हो जाने के बाद जब अरुण अपनी मां के साथ मेहमानों को विदा कर रहा था, अरुण ने आभा को उस की मदद के लिए थैंक्स कहा.

आभा ने कहा, ‘‘अरे यार, नो मोर थैंक्स. हिसाब बराबर. हम दोस्त  हैं.’’

फिर अरुण ने रामू को बुला कर सब से परिचय कराते हुए कहा, ‘‘आज मैं जोकुछ भी हूं, इस लड़के की वजह से हूं. मैं तो जिंदगी से निराश हो चुका था. मेरे अंदर जीने की इच्छा को इस स्वाभिमानी मेहनती रामू ने जगाया.’’

तब अरुण रामू से बोला, ‘‘मुझे अपनी दुकान में एक सेल्समैन की जरूरत है. क्या तुम मेरी मदद करोगे?’’

रामू ने हामी भर कर सिर झुका कर अरुण को नमस्कार किया.

अरुण बोला, ‘‘अब तुम्हें घूमघूम कर सामान बेचने की जरूरत नहीं है. मैं ने यहां के विधायक को अर्जी दी है तुम्हें अपने फंड से एक तिपहिया रिकशा देने की. तुम उसे आसानी से चला सकते हो और आजा सकते हो.’’

अरुण, आभा, रामू और बाकी सभी की आंखें खुशी से नम थीं. तीनों एकदूसरे के मददगार जो बने थे.

इज्जत : सौदेबाज अनजान भाभी

बात उन दिनों की है, जब मेरे बीटैक के फाइनल सैमैस्टर का इम्तिहान होने वाला था और मैं इसी की तैयारी में मसरूफ था. अपनी सुविधा और आजादी के लिए होस्टल में रहने के बजाय मैं ने शहर में एक कमरा किराए पर ले कर रहने का फैसला किया था. शहर में अकेला रहना बोरिंग हो सकता है. यही सोच कर मैं ने अपने साथी रंजीत को अपना रूममेट बना लिया था.

फाइनल सैमैस्टर का इम्तिहान सिर पर था, इसलिए मैं इसी में बिजी रहता था, पर रंजीत को इस की कोई परवाह नहीं थी. वह पिछले हफ्ते अपने घर से आया था और अब उसे फिर वहां जाने की धुन सवार हो गई थी.

जब रंजीत अपने घर जाने के लिए निकल गया, तो मैं भी अपनी पढ़ाई में मस्त हो गया.

अभी आधा घंटा भी नहीं बीता होगा कि रंजीत लौट कर मुझ से बोला, ‘‘भाई, यह बता कि अगर किसी को मदद की जरूरत हो, तो उस की मदद करनी चाहिए या नहीं?’’

रंजीत और मदद… मुझे हैरत हो रही थी, क्योंकि किसी की मदद करना उस के स्वभाव के बिलकुल उलट था, पर पहली बार उस के मुंह से मदद शब्द सुन कर अच्छा लगा.

मैं ने कहा, ‘‘बिलकुल. इनसान ही इनसान के काम आता है. जरूरतमंद की मदद करने से बेहतर और क्या हो सकता है. पर आज तुम ऐसा क्यों पूछ रहे हो? तुम्हारे घर जाने का क्या हुआ?’’

‘‘यार, बात यह है कि मैं घर जाने के लिए टिकट खरीद कर जब प्लेटफार्म पर पहुंचा, तो देखा कि एक औरत अपने 2 बच्चों के साथ बैठी रो रही थी. मुझ से रहा न गया और पूछ बैठा, ‘आप क्यों रो रही हैं?’

‘‘उस औरत ने जवाब दिया, ‘मुझे जहानाबाद जाना है. इस समय वहां जाने वाली कोई गाड़ी नहीं है. अगली गाड़ी के लिए मुझे कल सुबह तक यहां इंतजार करना होगा.’

‘‘मैं ने पूछा, ‘तो इस में रोने वाली क्या बात थी?’’’

रंजीत ने उस औरत की बात को और आगे बढ़ाया. वह बोली थी, ‘रात के 8 बज चुके हैं. मैं जानती हूं कि 9 बजे के बाद यह स्टेशन सुनसान हो जाता है. मेरे साथ 2 बच्चे भी हैं. कोई अनहोनी न हो जाए, यही सोचसोच कर मुझे रोना आ रहा है. मैं इस स्टेशन पर रात कैसे गुजारूंगी?’

‘‘मैं सोच में पड़ गया कि मु झे उस औरत की मदद करनी चाहिए या नहीं. यही सोच कर तुम से पूछने आ गया,’’ रंजीत मेरी ओर देखते हुए बोला.

‘‘देखो भाई रंजीत, हम लोग यहां बैचलर हैं. किसी की मदद करना तो ठीक है, पर किसी अनजान औरत को अपने कमरे पर लाना मु झे अच्छा नहीं लग रहा है. मकान मालकिन पता नहीं हम लोगों के बारे में क्या सोचेगी?’’

मुझे उस समय पता नहीं क्यों उस अनजान औरत को कमरे पर लाने का खयाल अच्छा नहीं लग रहा था, इसलिए अपने मन की बात उसे बता दी.

‘‘मकान मालकिन पूछेगी, तो बता देंगे कि रामध्यान की भाभी है, यहां डाक्टर के पास आई है. वैसे भी हम लोगों के गांव से अकसर कोई न कोई मिलने तो आता ही रहता है,’’ रंजीत ने एक उपाय सुझाया.

आप को बताते चलें कि जिस बिल्डिंग में हम लोग रहते थे, उस की दूसरी मंजिल पर रामध्यान भी किराए पर रह रहा था. वह वैसे तो हमारे ही कालेज का एक शरीफ छात्र था, पर हम लोगों से जूनियर था, इसलिए न केवल हमारी बातें मानता था, बल्कि हमें इज्जत भी देता था.

‘‘ठीक है. अब अगर तुम उस औरत की मदद करना ही चाहते हो, तो मुझे क्या दिक्कत है. रामध्यान को सारी बातें समझा दो.’’

रंजीत तेजी से सीढि़यां चढ़ता हुआ रामध्यान के पास गया और उसे सारी बातें बता दीं. उसे कोई दिक्कत नहीं थी, बल्कि उस औरत के रातभर रहने के लिए वह अपना कमरा देने को भी तैयार था. वह उसी समय अपनी कुछ किताबें ले कर हमारे कमरे में रहने चला आया.

‘‘अब तुम जाओ रंजीत. उसे ले आओ. और हां, उसे यह भी समझा देना कि अगर कोई पूछे, तो खुद को रामध्यान की भाभी बताए.’’

‘‘नहीं, तुम भी मेरे साथ चलो,’’ वह मुझे भी अपने साथ ले जाना चाहता था.

‘‘मुझे पढ़ने दो यार, इम्तिहान सिर पर हैं. मैं अपना समय बरबाद नहीं करना चाहता,’’ मैं बहाना करते हुए बोला.

‘‘अच्छा, किसी की मदद करना समय बरबाद करना होता है. तुम्हारा अगर नहीं जाने का मन है, तो साफसाफ कहो. वैसे भी एक दिन में तुम्हारी कितनी तैयारी हो जाएगी? एक दिन किसी की मदद के लिए तो कुरबान किया ही जा सकता है,’’ रंजीत किसी तरह मुझे ले ही जाना चाहता था.

‘‘ठीक है भाई, जैसी तुम्हारी मरजी. आज की शाम किसी की मदद के नाम,’’ मैं मजबूर हो कर बोला. थोड़ी देर में

मैं भी तैयार हो कर उस के साथ निकल पड़ा. रंजीत आगेआगे और मैं पीछेपीछे. वह मु झे स्टेशन के सब से आखिरी प्लेटफार्म के एक छोर पर ले गया, जहां वह औरत अपने दोनों बच्चों के साथ बैठी थी. वह हमें देख कर मुसकराने लगी. न जाने क्यों, उस का इस तरह मुसकराना मुझे अच्छा नहीं लगा.

मैं सोचने लगा कि न जाने कैसी औरत है, पर उस समय मुझ से कुछ बोलते नहीं बना.

स्टेशन से बाहर आ कर मैं ने 2 रिकशे वाले बुलाए. मुझे टोकते हुए वह औरत बोली, ‘‘2 रिकशों की क्या जरूरत है. एक ही में एडजस्ट कर चलेंगे न. बेकार में ज्यादा पैसे खर्च कर रहे हैं.’’

‘‘पर हम एक ही रिकशे में कैसे चलेंगे?’’ मैं ने सवाल किया.

वह बोली, ‘‘देखिए, ऐसे चलेंगे…’’ कह कर वह रिकशे की सीट पर ठीक बीच में बैठ गई और दोनों बच्चों को अपनी गोद में बिठा लिया, ‘‘आप दोनों मेरे दोनों ओर बैठ जाइए,’’ वह हम दोनों को देख कर मुसकराते हुए बोली.

मुझे इस तरह बैठना अच्छा नहीं लग रहा था, पर उस दौर में पैसों की बड़ी किल्लत थी. अगर उस समय इस तरह से कुछ पैसे बच रहे थे, तो क्या बुरा था. आखिरकार हम दोनों उस के दोनों ओर बैठ गए.

हमारे बैठते ही अपने एकएक बच्चे को उस ने हम दोनों को थमा दिया. मैं अब भीतर ही भीतर कुढ़ने लगा था. हमारी अजीब हालत थी. हम उस की मदद कर रहे थे या वह हम से जबरदस्ती मदद ले रही थी.

रिकशे की रफ्तार तेज होती जा रही थी और मेरे सोचने की रफ्तार भी तेज होने लगी थी. मैं कहां हूं, किस हालत में हूं, यह भूल कर मैं अपनी सोच में ही डूबने लगा था. न जाने क्यों मुझे बारबार यह खयाल आ रहा था कि कहीं हम कुछ गलत तो नहीं कर रहे हैं.

कमरे पर पहुंचतेपहुंचते रात के 8 बज चुके थे. रंजीत ने उसे सारी बात समझा कर रामध्यान के कमरे में ठहरा दिया.

मैं ने रंजीत से कहा, ‘‘भाई, जब यह हमारे यहां आ गई है, तो इस के खानेपीने का इंतजाम भी तो हमें ही करना पड़ेगा. जाओ, होटल से कुछ ले आओ.’’

रंजीत खुशीखुशी होटल की ओर चल पड़ा. मुझे बड़ा अजीब लग रहा था कि रंजीत को आज क्या हो गया है, पर मैं चुप था. वह जितनी तेजी से गया था, उतनी ही तेजी से और बहुत जल्दी खानेपीने का सामान ले कर लौटा था.

‘‘जाओ, उसे खाना दे आओ. हम दोनों रामध्यान के साथ यहीं खा लेंगे,’’ मैं ने रंजीत से कहा.

रंजीत खाना देने ऊपर के कमरे में गया और तकरीबन आधा घंटे बाद लौटा. मुझे भूख लगी थी, लेकिन मैं उस का इंतजार कर रहा था. सोच रहा था कि उस के आने के बाद साथ बैठ कर खाएंगे.

मैं ने पूछा, ‘‘तुम ने इतनी देर क्यों लगा दी?’’

‘‘भाई, उस के कहने पर मैं ने भी उसी के साथ खाना खा लिया,’’ रंजीत धीरे से बोला.

‘‘कोई बात नहीं… आओ रामध्यान, हम दोनों खाना खा लें. हम तो इसी का इंतजार कर रहे थे और यह तुम्हारी भाभी के साथ खाना खा आया,’’ मैं ने मजाक करते हुए कहा.

रामध्यान को भी हंसी आ गई. वह हंसते हुए खाने की थाली सजाने लगा.

रात को खाना खाने के बाद अकसर हम लोग बाहर टहलने के लिए निकला करते थे, इसलिए खाने के बाद मैं बाहर जाने के लिए तैयार हो गया और रंजीत को भी तैयार होने के लिए कहा.

‘‘आज मेरा जाने का मन नहीं है,’’ रंजीत टालमटोल करने लगा.

आखिरकार मैं और रामध्यान टहलने के लिए निकले. तकरीबन आधा घंटे के बाद लौटे. वापस आने पर देखा कि हमारे कमरे पर ताला लगा हुआ था.

रामध्यान ने हंसते हुए कहा, ‘‘भैया, हो सकता है रंजीत भैया भाभी के पास गए हों.’’

‘‘हो सकता है. जा कर देखो,’’ मैं ने रामध्यान से कहा.

‘‘थोड़ी देर बाद रामध्यान और रंजीत हंसतेमुसकराते सीढ़ियों से नीचे आ रहे थे.

‘‘भाभीजी तो बहुत मजाकिया हैं भाई. सच में मजा आ गया,’’ उतरते ही रंजीत ने कहा.

‘‘अब हंसना छोड़ो और जल्दी कमरा खोलो,’’ वे दोनों हंस रहे थे, पर मुझे गुस्सा आ रहा था.

मैं ने चुपचाप कमरे में जा कर अपने कपड़े बदले और बैड पर सोने चला गया. थोड़ी देर तक बैड पर लेटेलेटे मैं ने पढ़ाई की और उस के बाद मु झे नींद आ गई.

देर रात को रंजीत और रामध्यान की बातों से मेरी नींद टूटी. उन दोनों को देख कर लग रहा था कि वे दोनों अभीअभी कहीं से लौटे हैं.

मैं ने उन से पूछा, ‘‘तुम दोनों कहां गए थे और अभी तक सोए क्यों नहीं?’’

‘कहीं… कहीं नहीं. बस अभी सोने ही वाले हैं,’ दोनों ने एकसुर में कहा.

थोड़ी देर बाद रंजीत ने मुझे जगाते हुए कहा, ‘‘भाई, तुम्हें एक बात कहनी है.’’

‘‘इतनी रात को… बोलो, क्या बात कहनी है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तुम बुरा तो नहीं मानोगे?’’ उस ने पूछा.

‘‘अगर बुरा मानने वाली बात नहीं होगी, तो बुरा क्यों मानूंगा?’’ मैं ने कहा.

‘‘तुम चाहो तो भाभीजी के मजे ले सकते हो,’’ रंजीत थोड़ा संकोच करते हुए बोला.

‘‘क्या बक रहे हो रंजीत? तुम्हें क्या हो गया है?’’ मैं ने हैरानी और गुस्से में उस से पूछा.

‘‘भाई, अच्छा मौका है. चाहो तो हाथ साफ कर लो,’’ रंजीत के चेहरे पर इस समय एक कुटिल मुसकान थी. वह अपनी इसी मुसकान से मुझे कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था.

‘‘हम ने उसे सहारा दिया है. वह हमारी मेहमान है. तुम ऐसा कैसे सोच सकते हो?’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘इस तरह भी हम उस की मदद कर सकते हैं. मैं ने उस से बात कर ली है. एक बार के लिए 2 सौ रुपए में सौदा पक्का हुआ है,’’ वह मुझे ऐसे बता रहा था, जैसे कोई बड़ा उपहार भेंट करने जा रहा हो.

‘‘मुझे तुम्हारी सोच से घिन आती है रंजीत. आखिर तुम अपने असली रूप में आ ही गए. मु झे हैरत हो रही थी कि तुम भला किसी की मदद कैसे कर सकते हो. अब तुम्हारी असलियत सामने आई.

‘‘मुझे पहले से ही शक हो रहा था, पर मैं यह सोच कर चुप था कि चलो, एक अच्छा काम कर रहे हैं. अच्छा क्या खाक कर रहे हैं,’’ मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था, पर इस समय उसे समझाने के अलावा मेरे पास दूसरा कोई रास्ता नहीं था.

रंजीत कुछ नहीं बोला. वह सिर झुकाए बैठा था.

थोड़ी देर तक हम दोनों ऐसे ही चुपचाप बैठे रहे. रामध्यान अब तक सो चुका था.

थोड़ी देर बाद रंजीत बोला, ‘‘ठीक है भाई, सो जाओ. मैं भी सोता हूं.’’

सुबह जब मैं उठा, तब तक 7 बज चुके थे. रामध्यान की तथाकथित भाभी इस समय हमारे कमरे में बैठी थी. रामध्यान और रंजीत भी उस के पास ही बैठे थे.

‘‘मैं आप के ही उठने का इंतजार कर रही थी,’’ मुझे देखते हुए वह बोली.

‘‘क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हुआ कुछ नहीं. मैं जा रही हूं. कुछ बख्शीश तो दे दीजिए,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

‘‘बख्शीश किस बात की?’’ मुझे हैरानी हुई.

‘‘देखो मिस्टर, आप के इस दोस्त ने 2 सौ रुपए में एक बार की बात कर मेरी इज्जत का सौदा किया था. इन दोनों ने 2-2 बार मेरी इज्जत को तारतार किया. इस तरह पूरे 8 सौ रुपए बनते हैं. और ये हैं कि मुझे केवल 4 सौ रुपए दे कर टरकाना चाहते हैं. मैं भी अड़ चुकी हूं. बंद कमरे में मेरी इज्जत जाते हुए किसी ने नहीं देखा. अब अगर मैं यहां चिल्ला कर बताने लगी कि तुम लोग मुझे यहां क्यों लाए थे, तो तुम लोगों की इज्जत गई समझो,’’ वह बड़े ही तीखे अंदाज में बोले जा रही थी.

मैं ने रंजीत और रामध्यान की ओर देखा. वे दोनों सिर झुकाए चुपचाप बैठे थे. मुझ से कोई भी नजरें नहीं मिला रहा था.

मैं सारी बात समझ चुका था. यह भी जानता था कि रंजीत और रामध्यान के पास और पैसे नहीं होंगे. ऐसे में मु झे ही अपनी जेब ढीली करनी होगी.

मैं ने अपना पर्स निकाला और उसे 4 सौ रुपए देते हुए बोला, ‘‘लीजिए अपने पैसे.’’ पैसे मिलते ही वह खुश हो गई और अपने रास्ते चल पड़ी.

मैं सोच रहा था कि इज्जत आखिर है क्या? कल उस की इज्जत बचाने के लिए हम ने उसे सहारा दिया था और आज अपनी इज्जत बचाने के लिए हमें उसे पैसे देने पड़े.

इस तरह कहने को तो दुनिया की नजरों में हम सभी की इज्जत जातेजाते बची है. वह औरत बाइज्जत अपने रास्ते गई और हम अपने घर में.

आज भी जब मैं उस घटना को याद करता हूं, तो सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि क्या वाकई उस औरत के साथसाथ हम सभी ने अपनीअपनी इज्जत बचा ली थी?

‘इज्जत’ हमारे हैवानियत से भरे कामों के ऊपर पड़ा परदा है. इसी परदे को तारतार होने से बचाने के लिए हम ने उस औरत को पैसे दिए.

यह परदा दुनिया से तो हमारी हिफाजत करता नजर आ रहा है, पर हम सभी ने एकदूसरे को बिना इस परदे के देख लिया है. दुनियाभर के लिए हम भले ही इज्जतदार हों, पर अपनी सचाई का हमें पता है.

 

 

हरिनूर : कहानी शबीना और नीरज के प्यार की

‘‘अरे, इस बैड नंबर 8 का मरीज कहां गया? मैं तो इस लड़के से तंग आ गई हूं. जब भी मैं ड्यूटी पर आती हूं, कभी बैड पर नहीं मिलता,’’ नर्स जूली काफी गुस्से में बोलीं.

‘‘आंटी, मैं अभी ढूंढ़ कर लाती हूं,’’ एक प्यारी सी आवाज ने नर्स जूली का सारा गुस्सा ठंडा कर दिया. जब उन्होंने पीछे की तरफ मुड़ कर देखा, तो बैड नंबर 10 के मरीज की बेटी शबीना खड़ी थी.

शबीना ने बाहर आ कर देखा, फिर पूरा अस्पताल छान मारा, पर उसे वह कहीं दिखाई नहीं दिया और थकहार कर वापस जा ही रही थी कि उस की नजर बगल की कैंटीन पर गई, तो देखा कि वे जनाब तो वहां आराम फरमा रहे थे और गरमागरम समोसे खा रहे थे.

शबीना उस के पास गई और धीरे से बोली, ‘‘आप को नर्स बुला रही हैं.’’

उस ने पीछे घूम कर देखा. सफेद कुरतासलवार, नीला दुपट्टा लिए सांवली, मगर तीखे नैननक्श वाली लड़की खड़ी हुई थी. उस ने अपने बालों की लंबी चोटी बनाई हुई थी. माथे पर बिंदी, आंखों में भरापूरा काजल, हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यों की खनखन.

वह बड़े ही शायराना अंदाज में बोला, ‘‘अरे छोडि़ए ये नर्सवर्स की बातें. आप को देख कर तो मेरे जेहन

में बस यही खयाल आया है… माशाअल्लाह…’’

‘‘आप भी न…’’ कहते हुए शबीना वहां से शरमा कर भाग आई और सीधे बाथरूम में जा कर आईने के सामने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया. फिर हाथों को मलते हुए अपने चेहरे को साफ किया और बालों को करीने से संवारते हुए बाहर आ गई.

तब तक वह मरीज, जिस का नाम नीरज था, भी वापस आ चुका था. शबीना घबरा कर दूसरी तरफ मुंह कर के बैठ गई.

नीरज ने देखा कि शबीना किसी भी तरह की बात करने को तैयार नहीं है, तो उस ने सोचा कि क्यों न पहले उस की मम्मी से बात की जाए.

शबीना की मां को टायफायड हुआ था, जिस से उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा था. नीरज को बुखार था, पर काफी दिनों से न उतरने के चलते उस की मां ने उसे दाखिल करा दिया था.

नीरज की शबीना की अम्मी से काफी पटती थी. परसों ही दोनों को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी, पर तब तक नीरज और शबीना अच्छे दोस्त बन चुके थे.

शबीना 10वीं जमात की छात्रा थी और नीरज 11वीं जमात में पढ़ता था. दोनों के स्कूल भी आमनेसामने थे. वैसे भी फतेहपुर एक छोटी सी जगह है, जहां कोई भी आसानी से एकदूसरे के बारे में पता लगा सकता है. सो, नीरज ने शबीना का पता लगा ही लिया.

एक दिन स्कूल से बाहर आते समय दोनों की मुलाकात हो गई. दोनों ही एकदूसरे को देख कर खुश हुए. उन की दोस्ती और गहरी होती गई.

इसी बीच शबीना कभीकभार नीरज के घर भी जाने लगी, पर वह नीरज को अपने घर कभी नहीं ले गई.

ऐसे ही 2 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. अब यह दोस्ती इश्क में बदल कर रफ्तारफ्ता परवान चढ़ने लगी.

एक दिन जब शबीना कालेज से घर में दाखिल हुई, तो उसे देखते ही अम्मी चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हें बताया था न कि तुम्हें देखने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं, पर तुम ने वही किया जो 2 साल से कर रही हो. तुम्हारी जोया आपा ठीक ही कह रही थीं कि तुम एक लड़के के साथ मुंह उठाए घूमती रहती हो.’’

‘‘अम्मी, आप मेरी बात तो सुनो… वह लड़का बहुत अच्छा है. मुझ से बहुत प्यार करता है. एक बार मिल कर तो देखो. वैसे, तुम उस से मिल भी चुकी हो,’’ शबीना एक ही सांस में सबकुछ कह गई.

‘‘वैसे अम्मी, अब्बू कौन होते हैं हमारी निजी जिंदगी का फैसला करने वाले? कभी दुखतकलीफ में तुम्हारी खैर पूछने आए, जो आज इस पर उंगली उठाएंगे? हम मरें या जीएं, उन्हें कोई फर्क पड़ता है क्या?

‘‘शायद आप भूल गई हो, पर मेरे जेहन में वह सबकुछ आज भी है, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. तब नई अम्मी ने अब्बू के सामने ही कैसे हमें जलील किया था.

‘‘इतना ही नहीं, हम सभी को घर से बेदखल भी कर दिया था.’’ तभी जोया आपा घर में आईं.

‘‘अरे जोया, तुम ही इस को समझाओ. मैं तुम दोनों के लिए जल्दी से चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कहते हुए अम्मी रसोईघर में चली गईं.

रसोईघर क्या था… एक बड़े से कमरे को बीच से टाट का परदा लगा कर एक तरफ बना लिया गया था, तो दूसरी तरफ एक पुराना सा डबल बैड, टूटी अलमारी और अम्मी की शादी का एक पुराना बक्सा रखा था, जिस में अम्मी के कपड़े कम, यादें ज्यादा बंद थीं. मगर सबकुछ रखा बड़े करीने से था. तभी अम्मी चाय और बिसकुट ले कर आईं और सब चाय का मजा लेने लगे.

शबीना यादों की गहराइयों में खो गई… वह मुश्किल से 6-7 साल की थी, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. वह अपनी बड़ी सी हवेली के बगीचे में खेल रही थी. तभी नई अम्मी घर में दाखिल हुईं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. उस की अम्मी हर वक्त रोती क्यों रहती हैं?

जब नई अम्मी को बेटा हुआ, तो जोया आपा और अम्मी को बेदखल कर उसी हवेली में नौकरों के रहने वाली जगह पर एक कोना दे दिया गया.

अम्मी दिनभर सिलाईकढ़ाई करतीं और जोया आपा भी दूसरों के घर का काम करतीं तो भी दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं हो पाती थी.

अम्मी 30 साल की उम्र में 50 साल की दिखने लगी थीं. ऐसा नहीं था कि अम्मी खूबसूरत नहीं थीं. वे हमेशा अब्बू की दीवानगी के किस्से बयां करती रहती थीं.

सभी ने अम्मी को दूसरा निकाह करने को कहा, पर अम्मी तैयार नहीं हुईं. पर इधर कुछ दिनों से वे काफी परेशान थीं. शायद जोया आपा के सीने पर बढ़ता मांस परेशानी का सबब था. मेरे लिए वह अचरज, पर अम्मी के लिए जिम्मेदारी.

‘‘शबीना… ओ शबीना…’’ जोया आपा की आवाज ने शबीना को यादों से वर्तमान की ओर खींच दिया.

‘‘ठीक है, उस लड़के को ले कर आना, फिर देखते हैं कि क्या करना है.’’

लड़के का फोटो देख शबीना खुशी से उछल गई और चीख पड़ी. भविष्य के सपने संजोते हुए वह सोने चली गई.

अकसर उन दोनों की मुलाकात शहर के बाहर एक गार्डन में होती थी. आज जब वह नीरज से मिली, तो उस ने कल की सारी घटना का जिक्र किया, ‘‘जनाब, आप मेरे घर चल रहे हैं. अम्मी आप से मुलाकात करना चाह रही हैं.’’

‘‘सच…’’ कहते हुए नीरज ने शबीना को अपनी बांहों में भर लिया. शबीना शरमा कर बड़े प्यार से नीरज को देखने लगी, फिर नीरज की गाड़ी से ही घर पहुंची.

नीरज तो हैरान रह गया कि इतनी बड़ी हवेली, सफेद संगमरमर सी नक्काशीदार दीवारें और एक मुगलिया संस्कृति बयां करता हरी घास का लान, जरूर यह बड़ी हैसियत वालों की हवेली है.

नीरज काफी सकुचाते हुए अंदर गया, तभी शबीना बोली, ‘‘नीरज, उधर नहीं, यह अब्बू की हवेली है. मेरा घर उधर कोने में है.’’

हैरानी से शबीना को देखते हुए नीरज उस के पीछेपीछे चल दिया. सामने पुराने से सर्वैंट क्वार्टर में शबीना दरवाजे पर टंगी पुरानी सी चटाई हटा कर अंदर नीरज के साथ दाखिल हुई.

नीरज ने देखा कि वहां 2 औरतें बैठी थीं. उन का परिचय शबीना ने अम्मी और जोया आपा कह कर कराया.

अम्मी ने नीरज को देखा. वह उन्हें बड़ा भला लड़का लगा और बड़े प्यार से उसे बैठने के लिए कहा.

अम्मी ने कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के लिए चाय बना कर लाती हूं. तब तक अब्बू और भाईजान भी आते होंगे.’’

‘‘अब्बू, अरे… आप ने उन्हें क्यों बुलाया? मैं ने आप से पहले ही मना किया था,’’ गुस्से से चिल्लाते हुए शबीना अम्मी पर बरस पड़ी.

अम्मी भी गुस्से में बोलीं, ‘‘चुपचाप बैठो… अब्बू का फैसला ही आखिरी फैसला होगा.’’

शबीना कातर निगाहों से नीरज को देखने लगी. नीरज की आंखों में उठे हर सवाल का जवाब वह अपनी आंखों से देने की कोशिश करती.

थोड़ी देर तक वहां सन्नाटा पसरा रहा, तभी सामने की चटाई हिली और भरीभरकम शरीर का आदमी दाखिल हुआ. वे सफेद अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने हुए थे. साथ ही, उन के साथ 17-18 साल का एक लड़का भी अंदर आया.

आते ही उस आदमी ने नीरज का कौलर पकड़ कर उठाया और दोनों लोग नीरज को काफी बुराभला कहने लगे.

नीरज एकदम अचकचा गया. उस ने संभलने की कोशिश की, तभी उस में से एक आदमी ने पीछे से वार कर दिया और वह फिर वहीं गिर गया.

शबीना कुछ समझ पाती, इस से पहले ही उस के अब्बू चिल्ला कर बोले, ‘‘खबरदार, जो इस लड़के से मिली. तुझे शर्म नहीं आती… वह एक हिंदू लड़का है और तू मुसलमान…’’ नीरज की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘‘आज के बाद शबीना की तरफ आंख उठा कर मत देखना, वरना तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का वह हाल करेंगे कि प्यार का सारा भूत उतर जाएगा.’’

नीरज ने समय की नजाकत को समझाते हुए चुपचाप चले जाना ही उचित समझ.

अब्बू ने शबीना का हाथ झटकते हुए अम्मी की तरफ धक्का दिया और गरजते हुए बोले, ‘‘नफीसा, शबीना का ध्यान रखो और देखो अब यह लड़का कभी शबीना से न मिले. इस किस्से को यहीं खत्म करो,’’ और यह कहते हुए वे उलटे पैर वापस चले गए.

अब्बू के जाते ही जो शबीना अभी तक तकरीबन बेहोश सी पड़ी थी, तेजी से खड़ी हो गई और अम्मी से बोली, ‘‘अम्मी, यह सब क्या है? आप ने इन लोगों को क्यों बुलाया? अरे, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है कि ये इतने सालों में कभी तो हमारा हाल पूछने नहीं आए. हम मर रहे हैं या जी रहे हैं, पेटभर खाना खाया है कि नहीं, कैसे हम जिंदगी गुजार रहे हैं. दोदो पैसे कमाने के लिए हम ने क्याक्या काम नहीं किया.

‘‘बोलो न अम्मी, तब ये कहां थे? जब हमारी जिंदगी में चंद खुशियां

आईं, तो आ गए बाप का हक जताने. मेरा बस चले, तो आज मैं उन का सिर फोड़ देती.’’

‘‘शबीना…’’ कहते हुए अम्मी ने एक जोरदार चांटा शबीना को रसीद कर दिया और बोलीं, ‘‘बहुत हुआ… अपनी हद भूल रही है तू. भूल गई कि उन से मेरा निकाह ही नहीं हुआ है, दिल का रिश्ता है. मैं उन के बारे में एक भी गलत लफ्ज सुनना पसंद नहीं करूंगी. कल से तुम्हारा और नीरज का रास्ता अलगअलग है.’’

शबीना सारी रात रोती रही. उस की आंखें सूज कर लाल हो गईं. सुबह जब अम्मी ने शबीना को इस हाल में देखा, तो उन्हें बहुत दुख हुआ. वे उस के बिखरे बालों को समेटने लगीं. मगर शबीना ने उन का हाथ झटक दिया.

बहरहाल, इसी तरह दिनहफ्ते, महीने बीतने लगे. शबीना और नीरज की कोई बातचीत तक नहीं हुई. न ही नीरज ने मिलने की कोशिश की और न ही शबीना ने.

इसी तरह एक साल बीत गया. अब तक अम्मी ने मान लिया था कि शबीना अब नीरज को भूल चुकी है.

उसी दौरान शबीना ने अपनी फैशन डिजाइन के काम में काफी तरक्की कर ली थी और घर में अब तक सब नौर्मल हो गया था. सब ने सोचा कि अब तूफान शांत हो चुका है.

वह दिन शबीना की जिंदगी का बहुत खास दिन था. आज उस के कपड़ों की प्रदर्शनी थी. वह तेजतेज कदमों से लिफ्ट की तरफ बढ़ रही थी, तभी लिफ्ट का दरवाजा खुला, तो सामने खड़े शख्स को देख कर उस के पैर ठिठक गए.

‘‘कैसी हो शबीना?’’ उस ने बोला, तो शबीना की आंखों से आंसू आ गए. बिना कुछ बोले भाग कर वह उस के गले लग गई.

‘‘तुम कैसे हो नीरज? उस दिन तुम्हारी इतनी बेइज्जती हुई कि मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि तुम से कैसे बात करूं, पर सच में मैं तुम्हें कभी भी नहीं भूली…’’

नीरज ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘‘वह सब छोड़ो, यह बताओ कि तुम यहां कैसे?

‘‘आज मेरे सिले कपड़ों की प्रदर्शनी लगी है, पर तुम…’’

‘‘मैं यहां का मैनेजर हूं.’’

शबीना ने मुसकराते हुए प्यारभरी निगाहों से नीरज को देखा. नीरज को लगा कि उस ने सारे जहां की खुशियां पा ली हैं.

‘‘अच्छा सुनो, मैं यहां का सारा काम खत्म कर के रात में 8 बजे तुम से यहीं मिलूंगी.’’

आज शबीना का मन अपने काम में नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि जल्दी से नीरज के पास पहुंच जाए.

शबीना को देखते ही नीरज बोला, ‘‘कुछ इस कदर हो गई मुहब्बत तनहाई से अपनी कि कभीकभी इन सांसों के शोर को भी थामने की कोशिश कर बैठते हैं जनाब…’’

शबीना मुसकराते हुए बोली, ‘‘शिकवा तो बहुत है मगर शिकायत कर नहीं सकते… क्योंकि हमारे होंठों को इजाजत नहीं है तुम्हारे खिलाफ बोलने की,’’ और वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘नीरज, तुम्हें पता नहीं है कि आज मैं मुद्दतों बाद इतनी खुल कर हंसी हूं.’’

‘‘शायद मैं भी…’’ नीरज ने कहा. रात को दोनों ने एकसाथ डिनर किया और दोनों चाहते थे कि इतने दिनों की जुदाई की बातें एक ही घंटे में खत्म कर दें, जो कि मुमकिन नहीं था. फिर वे दोनों दिनभर के काम के बाद उसी पुराने गार्डन या कैफे में मिलने लगे.

लोग अकसर उन्हें साथ देखते थे. शबीना के घर वालों को भी पता चल गया था, पर उन्हें लगता था कि वे शादी नहीं करेंगे. वे इस बारे में शबीना को समयसमय पर हिदायत भी देते रहते थे.

इसी तरह साल दर साल बीतने लगे. एक दिन रात के अंधेरे में उन दोनों ने अपना शहर छोड़ एक बड़े से महानगर में अपनी दुनिया बसा ली, जहां उस भीड़ में उन्हें कोई पहचानता तक नहीं था. वहीं पर दोनों एक एनजीओ में नौकरी करने लगे.

उन दोनों का घर छोड़ कर अचानक जाना किसी को अचरज भरा नहीं लगा, क्योंकि सालों से लोगों को उन्हें एकसाथ देखने की आदत सी पड़ गई थी. पर अम्मी को शबीना का इस तरह जाना बहुत खला. वे काफी बीमार रहने लगीं. जोया आपा का भी निकाह हो गया था.

इधर शबीना अपनी दुनिया में बहुत खुश थी. समय पंख लगा कर उड़ने लगा था. एक दिन पता चला कि उस की अम्मी को कैंसर हो गया और सब लोगों ने यह कह कर इलाज टाल दिया था कि इस उम्र में इतना पैसा इलाज में क्यों बरबाद करें.

शबीना को जब इस बात का पता चला, तो उस ने नीरज से बात की.

नीरज ने कहा, ‘‘तुम अम्मी को अपने पास ही बुला लो. हम मिल कर उन का इलाज कराएंगे.’’

शबीना अम्मी को इलाज कराने अपने घर ले आई. अम्मी जब उन के घर आईं, तो उन का प्यारा सा संसार देख कर बहुत खुश हुईं.

नीरज ने बड़ी मेहनत कर पैसा जुटाया और उन का इलाज कराया और वे धीरेधीरे ठीक होने लगीं. अब तो उन की बीमारी भी धीरेधीरे खत्म हो गई. मगर अम्मी को बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती. नीरज उन की परेशानी को समझ गया.

एक दिन शाम को अम्मी शबीना के साथ बैठी थीं, तभी नीरज भी पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘अम्मी, जिंदगी में ज्यादा रिश्ते होना जरूरी नहीं है, पर रिश्तों में ज्यादा जिंदगी होना जरूरी है. अम्मी, जब बनाने वाले ने कोई फर्क नहीं रखा, तो हम कौन होते हैं फर्क रखने वाले.

‘‘अम्मी, मेरी तो मां भी नहीं हैं, मगर आप से मिल कर वह कमी भी पूरी हो गई.’’

अम्मी ने प्यार से नीरज को गले लगा लिया, तभी नीरज बोला, ‘‘आज एक और खुशखबरी है, आप जल्दी ही नानी बनने वाली हैं.’’

अब अम्मी बहुत खुश थीं. वे अकसर शबीना के घर आती रहतीं. समय के साथ ही शबीना ने प्यारे से बेटे को जन्म दिया, जिस का नाम शबीना ने हरिनूर रखा. शबीना ने यह नाम दे कर उसे हिंदूमुसलमान के वातों से बरी कर दिया था.

हकीकत : क्या था फारुकी साहब की मौत का कारण?

फा रुकी साहब के खानदान के हमारे पुराने संबंध थे. वे पुश्तैनी रईस थे. अच्छे इलाके में दोमंजिला मकान था. उन के 2 बेटे थे, जमाल और कमाल. एक बेटी सुरैया थी, जिस की शादी भी अच्छे घर में हुई थी.

फारुकी साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे थे. सुनते हैं कि उन की बीवी नवाब खानदान की हैं. उम्र 72-73 साल होगी. वे अकसर बीमार रहती हैं. जमाल व कमाल भी शादीशुदा व बालबच्चेदार हैं. उन का भरापूरा परिवार है. सुरैया से मुलाकात हो जाती थी. उन के भी एक बेटी व एक बेटा है. दोनों की भी शादी हो गई है.

उन्हीं दिनों कमाल साहब के यहां से शादी का कार्ड आया. उन के दूसरे बेटे की शादी थी. कार्ड देख कर बड़ी खुशी हुई. कार्ड उन की अम्मी दुरदाना बेगम के नाम से छपा था. नीचे भी उन्हीं का नाम था. अच्छा लगा कि आज भी लोग बुजुर्गों की इतनी कद्र और इज्जत करते हैं.

शादी में जाने का मेरा पक्का इरादा था. इस तरह अम्मी व सुरैया आपा से भी मुलाकात हो जाती, पर मुझे फ्लू हो गया. मैं शादी में न जा सकी. फिर कहीं से खबर मिली कि कमाल साहब की अम्मी बीमार हैं. उन्हें लकवे का असर हो गया है.

एक दिन मैं कमाल साहब के यहां पहुंच गई. दोनों भाई बड़े ही अपनेपन से मिले. नईर् बहू से मिलाया गया, खूब खातिरदारी हुई.

मैं ने कहा, ‘‘कमाल साहब, मुझे अम्मी से मिलना है. कहां हैं वे?’’

कमाल साहब का चेहरा फीका पड़ गया. वे कहने लगे ‘‘दरअसल, अम्मी सुरैया के यहां गई हुई हैं. वे एक ही जगह पर रहतेरहते बोर हो गई थीं.’’

मैं वहां से निकल कर सीधी सुरैया आपा के यहां पहुंच गई. वे मुझे देख कर बेहद खुश हो गईं, फिर अम्मी के कमरे में ले गईं.

खुला हवादार, साफसुथरा महकता कमरा. सफेद बिस्तर पर अम्मी लेटी थीं. वे बड़ी कमजोर हो गई थीं. कहीं से नहीं लग रहा था कि यह एक मरीज का कमरा है.

अम्मी मुझ से मिल कर खूब खुश हुईं, खूब बातें करने लगीं. उन्हीं की बातों से पता चला कि वे तकरीबन डेढ़ साल से सुरैया आपा के पास हैं. जब उन पर लकवे का असर हुआ था. उस के तकरीबन एक महीने बाद ही कमाल और जमाल, दोनों भाई अम्मी को यह कह कर सुरैया आपा के पास छोड़ गए थे कि हमारे यहां अम्मी को अलग से कमरा देना मुश्किल है और घर में सभी लोग इतने मसरूफ रहते हैं कि अम्मी की देखभाल नहीं हो पाती.

तब से ही अम्मी सुरैया आपा के पास रहने लगी थीं. सुरैया आपा और उन की बहू बड़े दिल से उन की खिदमत करतीं, खूब खयाल रखतीं.

मैं ने सुरैया आपा से कहा, ‘‘अम्मी डेढ़ साल से आप के पास हैं, पर 3-4 महीने पहले कमाल भाई के बेटे की शादी का कार्ड आया था, उस में तो दावत देने वाले में अम्मी का नाम था और दावत भी अम्मी की तरफ से ही थी.’’

सुरैया आपा हंस कर बोलीं, ‘‘दोनोें भाइयों के घर में अम्मी के लिए जगह न थी, पर कार्ड में तो बहुत जगह थी. कार्ड तो सभी देखते हैं और वाहवाह करते हैं, घर आ कर कौन देखता है कि अम्मी कहां हैं? दुनिया को दिखाने के लिए यह सब करना पड़ा उन्हें.’’

मारे गए गुलफाम : हिमानी ने दिखाया हुस्नजाल

मुंबई के इंदिरा नगर में बनी वह चाल बड़ी सड़क से समकोण बनाती एक पतली गली के दोनों ओर आबाद थी. इस के दोनों ओर 15-15 खोलियां बनी हुई थीं. इन खोलियों में ज्यादातर वे लोग रहते थे, जो या तो छोटेमोटे धंधे करते थे या किसी के घर में नौकर या नौकरानी का काम करते थे.

इस चाल के आसपास गंदगी थी. गली में जगहजगह कूड़ेकचरे के ढेर नजर आते थे. कहींकहीं खोलियों की नालियों का गंदा पानी बहता दिखलाई पड़ता था.

इन खोलियों में रहने वाले लोगों का स्वभाव भी उन की खोलियों की तरह अक्खड़ और गंदा था. वे बातबात पर गालीगलौज करते थे और देखते ही देखते मरनेमारने पर उतारू हो जाते थे.

इन्हीं खोलियों में से एक खोली सुभद्राबाई की भी थी, जो जबान की कड़वी, पर दिल की नेक थी. वह लोगों के घरों में चौकाबरतन का काम करती थी और इसी से अपना गुजारा करती थी.

मुंबई में तो वैसे ही घर में काम करने वाली बाई मुश्किल से मिलती है, ऊपर से सुभद्राबाई जैसी नेक और ईमानदार बाई का मिलना तो किसी चमत्कार जैसा ही था. यही वजह थी कि सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन के मालिक उस के साथ बहुत अच्छा बरताव करते थे और उस की छोटीमोटी मांग तुरंत मान लेते थे.

सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन में एक घर प्रताप का भी था. उन का महानगर में रेडीमेड गारमैंट्स का कारोबार था, जो खूब चलता था.

प्रताप की उम्र तकरीबन 55 साल थी और उन की पत्नी नंदिनी भी तकरीबन उन्हीं की उम्र की थीं. घर में पतिपत्नी ही रहते थे, क्योंकि उन के दोनों बेटे दूसरे शहरों में नौकरी करते थे और अपने परिवार के साथ वहीं सैटल हो गए थे.

नंदिनी अकसर अपने बेटों के पास जाया करती थीं, जबकि प्रताप को अपने कारोबार के चलते इस का मौका कम ही मिलता था.

जब भी नंदिनी अपने बेटों के पास जातीं, सुभद्राबाई की जिम्मेदारियां बढ़ जातीं. ऐसे में उसे घर का काम करने के अलावा प्रताप के लिए खाना भी बनाना पड़ता. पर सुभद्राबाई खुशीखुशी यह जिम्मेदारी संभालती. प्रताप और नंदिनी भी इस के बदले उसे छोटेमोटे तोहफे और नकद पैसे देते रहते थे.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. महानगर की बत्तियां जल उठी थीं, तभी एक टैक्सी इस गली के मुहाने पर आ कर रुकी. टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और उस में से तकरीबन 25 साला एक खूबसूरत लड़की उतरी. शर्ट और जींस में सजी वह दरमियाने कद की एक सुगठित बदन वाली लड़की थी.

टैक्सी की दूसरी ओर का दरवाजा खोल कर तकरीबन 30 साला एक हैंडसम नौजवान निकला.

उस नौजवान ने टैक्सी का किराया चुकाया और जब टैक्सी आगे बढ़ गई, तो वे दोनों गली में दाखिल हो गए.

सुभद्राबाई थोड़ी देर पहले अपने काम से लौटी थी और अब खोली में पड़ी चारपाई पर लेट कर अपनी कमर सीधी कर रही थी. बढ़ती उम्र के साथ ज्यादा देर तक काम करने पर उस की कमर अकड़ जाती थी और ऐसे में उस के लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता था.

अचानक किसी ने उस की खोली का दरवाजा खटखटाया. पहले तो वह चौंकी, फिर उठ कर दरवाजा खोल दिया. पर दरवाजा खोलते ही उस की आंखों में हैरानी के भाव उभरे. दरवाजे पर 2 अनजान लोग खड़े थे.

‘‘किस से मिलना है आप को?’’ सुभद्राबाई उन्हें गहरी नजरों से देखती हुई बोली.

‘‘क्या आप सुभद्राबाई हैं?’’ लड़की ने पूछा.

‘‘हां,’’ सुभद्राबाई बोली.

‘‘फिर तो हमें आप से ही मिलना है.’’

‘‘पर, मैं ने तो आप लोगों को पहचाना नहीं. कौन हैं आप लोग?’’

‘‘मेरा नाम हिमानी है और ये शमशेर. जहां तक आप का हमें पहचानने का सवाल है, तो उस के पहले हम मिले ही नहीं.’’

‘‘फिर आज?’’

‘‘क्या हमें सारी बातें यहीं दरवाजे पर ही बतलानी पड़ेंगी?’’

‘‘आइए, अंदर आ जाइए,’’ सुभद्राबाई झोंपते हुए बोली.

अंदर सुभद्राबाई ने उन्हें चारपाई पर बिठाया, फिर खोली का दरवाजा बंद कर उन के पास खोली के फर्श पर ही बैठ गई.

‘‘आप भी चारपाई पर बैठिए,’’ उसे फर्श पर बैठता देख लड़की बोली.

‘‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘आप बोलिए, आप को मुझ से क्या काम है?’’

‘‘काम तो है, वह भी बहुत जरूरी,’’ पहली बार लड़के ने मुंह खोला, ‘‘पर, इस के पहले हम आप को यह बता दें कि हमें आप के बारे में सबकुछ मालूम है. आप किनकिन लोगों के पास काम करती हैं और उन से आप को क्या पगार मिलती है?’’

‘‘यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है.’’

‘‘हम आप के सवाल का जवाब देंगे, पर इस के पहले आप हमारे एक सवाल का जवाब दीजिए.’’

‘‘कौन से सवाल का?’’

‘‘सुभद्राबाई, आप का शरीर जब तक ठीक है, आप लोगों के घरों में काम कर के अपना गुजारा कर लेती हैं, पर जिस दिन आप का शरीर थक जाएगा, उस दिन आप क्या करेंगी?’’

‘‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझ.’’

‘‘मेरा मतलब यह है कि क्या आप अपने काम से इतना पैसा कमा लेती हैं कि अपना बुढ़ापा सही ढंग से बिता सकें?’’

सुभद्राबाई के चेहरे पर परेशानी के भाव उभरे. पिछले कई दिनों से वह भी यही बात सोच रही थी.

‘‘आप चुप क्यों हैं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़का बोला.

‘‘मुझे अपने काम से जो पैसा मिलता है, वह खानेपहनने और खोली का किराया देने में ही खर्च हो जाता है. मैं लाख कोशिश करती हूं कि हर महीने कुछ पैसे बचा लूं, ताकि बुढ़ापे में काम आएं, पर बचा नहीं पाती.’’

‘‘और कभी बचा भी नहीं पाएंगी, क्योंकि मुंबई में हर चीज इतनी महंगी है कि मेहनतमजदूरी करने वाला इनसान कुछ बचा ही नहीं सकता.’’

‘‘तुम बिलकुल ठीक कहते हो बेटा,’’ सुभद्राबाई एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘पर, किया भी क्या जा सकता है?’’

‘‘हम औरों के लिए तो नहीं, पर आप के लिए इतना जरूर कह सकते हैं कि बहुतकुछ किया जा सकता है.’’

‘‘कौन करेगा मेरे लिए और क्यों?’’

‘‘यहां कोई दूसरे के लिए कुछ नहीं करता, अपना भविष्य संवारने के लिए इनसान को खुद ही कुछ करना पड़ता है. अगर आप अपना बुढ़ापा संवारना चाहती हैं, तो आप को ही इस की कोशिश करनी होगी.’’

‘‘पर क्या…’’

‘‘पहले आप यह बतलाइए कि क्या आप अपने भविष्य के लिए कुछ पैसे जोड़ना चाहती हैं?’’

‘‘भला कौन नहीं चाहेगा?’’

‘‘मैं आप की बात कर रहा हूं.’’

‘‘हां.’’

‘‘हम आप को पूरे 50 हजार रुपए देंगे.’’

‘‘50 हजार…?’’ सुभद्राबाई हैरान हो कर बोली.

‘‘हां, पूरे 50 हजार.’’

‘‘इस के लिए मुझे करना क्या होगा?’’

‘‘कुछ खास नहीं,’’ लड़के के बदले लड़की बोली, ‘‘आप को सिर्फ एक महीने के लिए मुझे प्रताप के घर बतौर नौकरानी रखवाना होगा. वह भी तब, जब वह घर में अकेला हो.’’

‘‘पर, क्यों?’’

‘‘तुम 50 हजार रुपए कमाना चाहती हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर वह करो, जो हम चाहते हैं.’’

‘‘लेकिन, तुम बतौर नौकरानी वहां एक महीने रह कर करना क्या चाहती हो?’’

‘‘कुछ न कुछ तो करूंगी ही, पर यह बात हम तुम्हें नहीं बताएंगे.’’

सुभद्राबाई खामोश हो गई. उस के चेहरे पर चिंता की रेखाएं खिंच आई थीं. 50 हजार रुपए की बात सुन कर उस के मन में लालच की भावना जाग उठी थी, पर दूसरी ओर वह उन लोगों की तरफ से दुखी भी थी. न जाने वे प्रताप के साथ क्या करना चाहते थे.

‘‘अब तुम क्या सोचने लगीं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़की बोली.

‘‘पर, तुम कहीं से भी काम वाली बाई नहीं लगती हो,’’ सुभद्राबाई लड़की को सिर से पैर तक देखते हुए बोली.

‘‘यह हमारी सिरदर्दी है. तुम यह बताओ कि तुम यह काम कर सकती हो या नहीं?’’

‘‘तुम्हारा इरादा प्रतापजी को कोई नुकसान पहुंचाना तो नहीं?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘फिर ठीक है,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘पर, पैसे?’’

‘‘उस दिन तुम्हें पैसे मिल जाएंगे, जिस दिन तुम मुझे बतौर नौकरानी प्रताप के घर रखवा दोेगी.’’

‘‘अरे सुभद्रा, तुम…’’ सुभद्राबाई ने हिमानी के साथ जैसे ही ड्राइंगरूम में कदम रखा, प्रताप बोला, ‘‘पूरे 4 दिन कहां रहीं? तुम सोच भी नहीं सकतीं कि इन 4 दिनों में मुझे कितनी परेशानी उठानी पड़ी. तुम्हें तो मालूम ही है कि तुम्हारी मालकिन आजकल बेटे के पास गई हैं.’’

‘‘मालूम है मालिक,’’ सुभद्राबाई अपने चेहरे पर दर्द का भाव लाती हुई बोली, ‘‘पीठ दर्द से मेरा उठनाबैठना मुश्किल है. डाक्टर को दिखाया, तो दवाओं के साथसाथ पूरे एक महीने तक बैडरैस्ट करने की सलाह दी है.’’

‘‘एक महीना?’’

‘‘पर, आप फिक्र न करें, आप को इस दरमियान कोई तकलीफ न होगी,’’ सुभद्राबाई हिमानी को आगे करते हुए बोली, ‘‘यह मेरी भतीजी हिमानी है. जब तक मैं नहीं आती, यही आप के घर का सारा काम करेगी.’’

प्रताप ने हिमानी पर एक गहरी नजर डाली. खूबसूरत और जवान हिमानी को देख उस की आंखों में एक अनोखी चमक जागी.

‘‘इसे सबकुछ समझ दिया है न?’’ प्रताप ने पूछा.

‘‘जी मालिक?’’

हिमानी प्रताप के घर काम करने आने लगी थी. उसे यहां पर काम करते हुए

10 दिन बीत गए थे. इस बीच उस ने बड़ी मेहनत और लगन से प्रताप के घर का काम किया था और उस की सुखसुविधा का बेहतर खयाल रखा था. उस के इस बरताव से प्रताप बड़े खुश हुए थे. वे हिमानी के साथ बड़ा ही कोमल और अपनापन भरा बरताव करते थे.

सच तो यह था कि हिमानी की खूबसूरती और जवानी ने उन के अधेड़ बदन में एक नई उमंग जगा दी थी और उन्हें हिमानी का साथ मिलने से एक अजीब खुशी मिलती थी.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. प्रताप अपने बैडरूम में पलंग पर बैठे थे. हिमानी घुटने के बल झुकी उस के कमरे की सफाई कर रही थी. ऐसे में उस के भारी और गोरे उभारों का ज्यादातर भाग उस के ब्लाउज से बाहर झांक रहा था. प्रताप की निगाहें रहरह कर उस के इन कयामती उभारों की ओर उठ जाया करती थीं और जब भी ऐसा होता, उन के तनबदन में एक हलचल सी मच जाती थी.

हिमानी कहने को तो काम कर रही थी, पर उस का पूरा ध्यान प्रताप की हरकतों पर था. उस की नजरों का भाव समझ कर वह मन ही मन खुश हो रही थी. उसे लग रहा था कि वह जल्द ही प्रताप को अपने शीशे में उतार लेगी और ऐसा होते ही अपना उल्लू सीधा कर यहां से रफूचक्कर हो जाएगी.

हिमानी सफाई का काम कर खड़ी हुई और ऐसा होते ही प्रताप की नजरों से वह नजारा गायब हो गया. इस के बावजूद उन के बदन में जो कामनाओं की आग भड़की थी, उस ने उन्हें हिला दिया था.

प्रताप पलंग से उतरे, फिर आगे बढ़ कर हिमानी को अपनी बांहों में भर लिया. उन की इस हरकत से हिमानी चौंकी, फिर बांहों में कसमसाते हुए बोली, ‘‘यह क्या कर रहे हैं साहब?’’

‘‘हिमानी, तुम बहुत ही खूबसूरत हो,’’ प्रताप जोश से कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारी इस खूबसूरती ने मेरे तनबदन में आग लगा दी है. तुम से लिपट कर मैं अपने तन की इसी आग को बुझाने की कोशिश कर रहा हूं.’’

‘‘पर, यह गलत है.’’

‘‘कुछ गलत नहीं,’’ प्रताप उसे बुरी तरह चूमते, सहलाते हुए बोले.

मन ही मन मुसकराती हिमानी कुछ देर तक उन की बांहों से छूटने का नाटक करती रही, फिर अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. ऐसा होते ही प्रताप ने उसे उठा कर पलंग पर डाला, फिर उस पर सवार हो गए.

भावनाओं का तूफान जब गुजर गया, तो हिमानी रोते हुए बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया? मुझे तो बरबाद कर दिया?’’

पलभर तक तो प्रताप के मुंह से बोल न फूटे, फिर वे शर्मिंदा हो कर बोले, ‘‘हिमानी, मुझ से गलती हो गई. मैं अपने आपे में नहीं था. जो कुछ हुआ, उस का मुझे अफसोस है. प्लीज, यह बात सुभद्राबाई को न बतलाना.’’

‘‘आप ने मेरा सबकुछ लूट लिया और अब कह रहे हैं कि बूआ से यह बात न कहूं.’’

‘‘मैं तुम्हें इस की कीमत देने को तैयार हूं.’’

‘‘कीमत…?’’ हिमानी ने गुस्से वाली निगाहों से प्रताप को देखा.

बदले में प्रताप ने तकिए के नीचे से चाबियों का गुच्छा निकाला, फिर कमरे में रखी अलमारी की ओर बढ़ गए. ऐसा होते ही हिमानी के होंठों पर शातिराना मुसकान रेंग उठी. पर जैसे ही उन्होंने सेफ खोली, उस की निगाहें उस पर जम गईं. अलमारी बड़े नोटों और गहनों से भरी थी.

प्रताप हिमानी के करीब आए और तकरीबन जबरदस्ती नोट की गड्डी उस के हाथ पर रखते हुए बोले, ‘‘प्लीज, सुभद्राबाई को कुछ न बतलाना.’’

हिमानी उन्हें पलभर घूरती रही, फिर अपने कपड़े ठीक करने के बाद नोटों की गड्डी ब्लाउज में रखते हुए कमरे से निकल गई.

उस रात प्रताप पूरी रात ढंग से सो न सके. उन्हें यह बात परेशान करती रही कि कहीं हिमानी उन की करतूत सुभद्राबाई को न बतला दे. अगर ऐसा हो गया, तो वे किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहने वाले थे.

पर दूसरे दिन उन्हें तब हैरानी और खुशी का झटका लगा, जब हिमानी हमेशा की तरह काम पर लौट आई. वह बिलकुल सामान्य थी और उसे देख कर ऐसा हरगिज नहीं लगता था कि उस के साथ कुछ ऐसावैसा घटा है.

जब 5 दिन तक सबकुछ ठीक रहा, तो छठे दिन रात को प्रताप ने हिमानी को हिम्मत कर के एक बार फिर अपनी बांहों में समेट लिया.

‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’ हिमानी चौंकने का नाटक करती हुई बोली, ‘‘आप ने वादा किया था कि आप दोबारा ऐसी गलती नहीं करेंगे.’’

‘‘मैं क्या करूं हिमानी…’’ प्रताप कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारे हुस्न और जवानी ने मुझे ऐसा पागल किया है कि मैं अपनेआप पर काबू नहीं रख पा रहा हूं. प्लीज, मुझे रोको मत… मुझे मेरी प्यास बुझ लेने दो.’’

हिमानी ने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. अगले ही पल दोनों के बदन एकदूसरे से चिपक कर पलंग पर अठखेलियां कर रहे थे. इस बार हिमानी भी पूरे जोश के साथ प्रताप का साथ दे रही थी.

हिमानी ने चालाकी से प्रताप को अपने हुस्नजाल में फांस लिया था. जब उसे यकीन हो गया कि शिकार पूरी तरह उस के जाल में फंस गया है, तो एक रात उस ने उस के खाने में बेहोशी की दवा मिलाई और उस की पूरी अलमारी खाली कर रफूचक्कर हो गई.

प्रताप को जब सवेरे होश आया और उस ने अपनी अलमारी देखी, तो सिर पीट लिया. लोकलाज के डर से वे पुलिस में भी इस की शिकायत न कर सके.

 

हार : गाय की चमड़ी का चमत्कार

आबादी इतनी बढ़ गई है कि सड़क के दोनों किनारों तक शनीचरी बाजार सिमट गया है. चारों ओर मकान बन गए हैं. मजार और पुलिस लाइन के बीच जो सड़क जाती है, उसी सड़क के किनारे शनीचरी बाजार लगता है. तहसीली के बाद बाजार शुरू हो जाता है, बल्कि कहिए कि तहसीली भी अब बाजार के घेरे में आ गई है.

शनीचरी बाजार के उस हिस्से में केवल चमड़े के देशी जूते बिकते हैं. यहीं पर किशन गौशाला का दफ्तर भी है. अकसर गौशाला मैनेजर की झड़प मोचियों से हो जाती है. मोची कहते हैं कि उन के पुरखे शनीचरी बाजार में आ कर हरपा यानी सिंधोरा, भंदई, पनही यानी जूते बेचते रहे. तब पूरा बाजार मोचियों का था. जाने कहां से कैसे गौसेवक यहां आ गए. अगर सांसद के प्रतिनिधि आ कर बीचबचाव न करते तो शायद दंगा ही हो जाता.

लेकिन सांसद का शनीचरी बाजार में बहुत ही अपनापा है इसलिए मोचियों का जोश हमेशा बढ़ा रहता है. अपनापा भी खरीदबिक्री के चलते है. सांसद रहते दिल्ली में हैं, मगर हर महीने तकरीबन 25-30 जोड़ी खास देशी जूते, जिसे यहां भंदई कहा जाता है, दिल्ली में मंगाते हैं.

भंदई के बहुत बड़े खरीदार हैं सांसद महोदय. मोची तो उन्हें पहचानते ही नहीं, क्योंकि वे खुद तो आ कर भंदई नहीं खरीदते, पर उन के लोग भंदई खरीद कर ले जाते हैं.

गौशाला चलाने वाले भी सांसद का लिहाज करते हैं. आखिर उन्हीं की मेहरबानी से गौशाला वाले नजदीक की बस्ती जरहा गांव में 20 एकड़ जमीन जबरदस्ती कब्जा सके थे.

किशन गौशाला शहर के करीब बसे जरहा गांव में है. इस गौशाला में सांसद कई बार जा चुके हैं. पहले गौशाला वालों ने 10 एकड़ जमीन गांव के किसानों से खरीदी. वहां कुछ गायों को रखा. कृष्ण जन्माष्टमी के दिन एक कार्यक्रम हुआ था, जिस में सांसद चीफ गैस्ट बने थे. सरपंच के दोस्तों ने दही लूटने का कमाल दिखाया, फिर अखाड़े का करतब हुआ.

गांव वाले बहुत खुश हुए कि चलो गांव में गौमाता के लिए एक ढंग का आसरा तो बना.

सांसद ने उस दिन गांव के मोचियों को भी इस समारोह में बुलाया. जरहा गांव शहर से सट कर बसा है. गौशाला का दफ्तर शहर में है और गौशाला है जरहा गांव में.

दफ्तर के पास जरहा गांव, बोरिद, अकोली के मोची चमड़े का सामान बेचने शनिवार को आते हैं, पर बाकी दिन वे गांव में भंदई बनाते हैं. जाने कब से यह सिलसिला इसी तरह चल रहा है.

लेकिन जब से सांसद भोलाराम भंदई खरीद कर दिल्ली ले जाने लगे हैं, तभी से मोचियों का कारोबार कुछ नए रंग पर आ गया है. ऊपर से सांसद ने अपनी सांसद निधि से जरहा गांव में मोची संघ के लिए पिछले साल 3 लाख रुपए दिए थे. वे गांवगांव में अलगअलग मंचों के लिए सांसद निधि से खूब पैसे देते हैं, मगर इन दिनों मंचों की धूम है.

इस इलाके में दलितों की तादाद ज्यादा है, इसलिए सांसद अपने हिसाब से अपना भविष्य पुख्ता करते चल रहे हैं. मोची मंचों का भी लगातार फैलाव हो रहा है, तो गौशाला का भला हो रहा है.

गौशाला के कर्ताधर्ता सब दूसरे राज्य के हैं. वे शहर के जानेमाने कारोबारी हैं. सब ने थोड़ाथोड़ा पैसा लगा कर 10 एकड़ जमीन ले ली और किशन गौशाला खोल कर गांव में घुस गए. वहां 2 दुकानें भी अब इसी तबके की खुल गई हैं. एक स्कूल भी जरहा गांव में चलता है, जिसे किशनशाला नाम दिया गया है.

इस स्कूल में सभी टीचर सेठों के  जानकार लोग हैं. सांसद सेठों और मोचियों में बराबर से इज्जत बनाए हुए हैं. सब को पार लगाते हैं, चूंकि सब उन्हें पार लगाते हैं. लेकिन इधर जब से बाबरी मसजिद ढही है, जरहा गांव में दूसरा दल भी हरकत में आ गया है. सेठ सांसद के विरोधी दल को पसंद करते हैं. जिले में 2 ही झांडे असर में हैं, तिरंगा और भगवा. 2 ही चिह्न यहां पहचाने जाते हैं, पंजा और कमल.

गौप्रेमी सभी सेठ कमल पर विराजने वाली लक्ष्मी मैया के भगत हैं, वहीं मोची, लुहार, धोबी, कुम्हार, कुर्मी,  तेली, इन्हीं जातियों की तादाद इस इलाके में ज्यादा है, इसीलिए आजादी के बाद कांग्रेस को भी इलाके के लोगों ने अपना समर्थन दिया. लेकिन जब से बाबरी मसजिद को ढहा कर जरहा गांव का नौजवान गांव लौटा है, कमल की नई रंगत देखते ही बन रही है.

लेकिन सांसद भोलाराम परेशान नहीं होते. वे जानते हैं कि सेठों को इस लोक पर राज करने के लिए धंधा प्यारा है और परलोक सुधारने के लिए है ही किशन गौशाला. दोनों के फायदे में है कि वे कभी भोलाराम का दामन न छोड़ें.

ये भोलाराम भी कमाल के आदमी हैं. एक बड़े किसान के घर में पैदा हुए. मैट्रिक पास कर आगे पढ़ना चाहते थे, लेकिन उन के पिताजी ने पैरों में बेड़ी पहनाने की ठान ली.

शादी की सारी तैयारी हो गई, लेकिन बरात निकलने के ठीक पहले दूल्हा अचानक ही गायब हो गया और प्रकट हुआ दिल्ली में. यह बात साल 1946 की है. सालभर में भोलाराम ने दिल्ली के एक बडे़ अखबार में अपने लिए जगह बना ली.

भोलाराम दल के लोग तो चुनाव के समय रोरो कर यह भी बताते हैं कि भोलारामजी तब रिपोर्टिंग के लिए गांधीजी की अंतिम प्रार्थना सभा में भी गए थे. नाथूराम ने जब गोलियां चलाईं, तो गांधीजी ‘हे राम’ कह कर भोलारामजी की गोद में ही गिरे थे.

भोलाराम के खास लोग तो यह भी कहते हैं कि भोलारामजी का खून से सना कुरता आज भी गांधी संग्रहालय में हैं. जिसे देखना हो दिल्ली जा कर देख आए.

इलाके के लोगों में वह कुरता देखने की कभी दिलचस्पी नहीं रही. भोलाराम लगातार आगे बढ़ते गए और दिल्ली में एक नामी पत्रकार हो गए.

एक दिन इंदिरा गांधी ने उन्हें इस इलाके का सांसद बना दिया. इस इलाके के लोग नेताओं की बात नहीं टालते.

इंदिरा गांधी ने पहली चुनावी सभा में कहा, ‘‘यह इलाका भोलेभाले लोगों का है. यहां भोलाराम ही सच्चे प्रतिनिधि हो सकते हैं.’’

इंदिरा गांधी से आशीर्वाद ले कर भोलाराम भी उस दिन जोश से भर गए. उन्होंने मंच पर ही कहा, ‘‘इंदिरा गांधी की बात हम सभी को माननी है. अगर विरोधियों के भालों से बचना है, तो भोले को समर्थन जरूर दीजिए.’’

भोले और भाले का ऐसा तालमेल इंदिरा गांधी को भी भा गया. उन्होंने मुसकरा कर भोलाराम को और अतिरिक्त अंक दे दिया.

तब से लगातार 5 बार भोलाराम ही यहां के सांसद बने. वे इलाके के बड़े लोगों की बेहद कद्र करते हैं, इसीलिए भोलाराम की बात भी कोई नहीं टालता.

महीनाभर पहले शनीचरी बाजार में हंगामा मच गया. हुआ यह कि भोलाराम अपने टोपीधारी विशेष प्रतिनिधि के साथ बाजार आए. चैतराम मोची की दुकान बस अभी लगी ही थी कि दोनों नेता उस के आगे जा कर खड़े हो गए.

चैतराम ने इस से पहले कभी भोलाराम को देखा भी नहीं था. वह केवल साथ में आए गोपाल दाऊ को पहचानता था.

गोपाल दाऊ ने ही चैतराम को भोलाराम का परिचय दिया. खादी का कुरतापाजामा और गले में लाल रंग का  गमछा.

भोलाराम तकरीबन 70 बरस के हैं, मगर चेहरा सुर्ख लाल है. चुनाव जीतने के बाद उन का सूखा चेहरा लाल होता गया और वे 2 भागों में बंट गए.

भोलाराम दिल्ली में रहते तो सूटबूट पहनते. गले में लाल रंग का गमछा तो खैर रहा ही. दिल्ली में रहते तो दिल्ली वालों की तरह खातेपीते, लेकिन अपने संसदीय इलाके में मुनगा, बड़ी, मछरियाभाजी, कांदाभाजी ही खाते.

अपने इलाके में भंदई प्रेमी सांसद भोलाराम को सामने पा कर चैतराम को कुछ सूझ नहीं. भोलाराम ने उस के कंधे पर हाथ रख दिया.

चैतराम ने भोलाराम के पैरों में अपने हाथों की बनी भंदई रख दी. भंदई छत्तीसगढ़ी सैंडल को कहते हैं. मोची गांव में मरे मवेशियों के चमड़े से इसे बनाते हैं. सूखे दिनों की भंदई अलग होती है, जबकि बरसाती भंदई अलग बनती है.

अपने हाथ की बनी भंदई पहने देख भोलाराम के सामने चैतराम झक गया. भोलाराम ने कहा, ‘‘भाई, मुझे पता लगा है कि तुम्हीं मुझे भंदई बना कर देते हो, इसलिए मिलने चला आया. इस बार 100 जोड़ी भंदई चाहिए.’’

‘‘100 जोड़ी…’’ चैतराम का मुंह खुला का खुला रह गया.

भोलाराम ने कहा, ‘‘हां, 100 जोड़ी. दिल्ली में अपने दोस्तों को तुम्हारे हाथ की भंदई बहुत बांट चुका हूं. इस बार विदेशी दोस्तों का साथ होने वाला है.

‘‘मैं जब भी विदेश जाता हूं, तो वहां भंदई पर सब की नजर गड़ जाती है. सोचता हूं कि इस बार एकएक जोड़ी भंदई उन्हें भेंट करूं. बन जाएगी न?’’

चैतराम ने पूछा, ‘‘कब तक चाहिए मालिक?’’

‘‘2 महीने में.’’

‘‘2 महीने में… मालिक?’’

‘‘हांहां, 2 महीने में तुम्हें देनी है. मैं खुद आऊंगा तुम्हारे गांव में भंदई ले जाने के लिए.’’

‘‘मालिक, गांवभर के सारे मोची मिलजुल कर बनाएंगे. मैं गांव जा कर सब को तैयार करूंगा.’’

‘‘तुम जानो तुम्हारा काम जाने. मुझे तो भंदई चाहिए बस.’’

इतना सुनना था कि पास में दुकान लगाए उसी गांव के 2 और मोची एकसाथ बोल पड़े, ‘‘दाऊजी, आप की मेहरबानी से सब ठीकठाक है. हम सब मिल कर बना देंगे भंदई.

‘‘मगर मालिक, ये गौशाला वाले गांव में 20 एकड़ जमीन पर कब्जा कर के बैठ गए हैं. पिछले 2 साल से यहां के किसान अपने जानवरों को रिश्तेदारों के पास पहुंचाने लगे हैं.

‘‘हुजूर, यह जगह जानवरों के चरने के लिए थी, मगर सेठ लोगों ने घेर कर कब्जा कर लिया है.

‘‘2 साल से हम सब लोग फरियाद कर रहे हैं, पर कोई सुनता ही नहीं. अब आप आ गए हैं, तो कुछ तो रास्ता निकालिए. छुड़ाइए गायभैंसों के लिए उस 20 एकड़ जमीन को. गौशाला के नाम से सेठ लोग गाय के चरने की जगह को ही लील ले गए साहब. अजब अंधेर है.’’

भोलाराम को इस बेजा कब्जे की जानकारी तो थी, मगर वे यही सोच रहे थे कि सेठ लोग सब संभाल लेंगे. यहां तो पासा ही पलट सा गया है. भंदई का शौक अब उन्हें भारी पड़ रहा था. फिर भी उन्होंने चैतराम को पुचकारते हुए कहा, ‘‘मैं देख लूंगा. तुम लो ये एक हजार रुपए एडवांस के.’’

‘‘इस की जरूरत नहीं है मालिक,’’ हाथ जोड़ कर चैतराम ने कहा.

‘‘रख लो,’’ भोलाराम ने कहा.

चैतराम ने रखने को तो अनमने ढंग से एक हजार रुपए रख लिए, मगर सौ जोड़ी भंदई बना पाना उसे आसान नहीं लग रहा था.

गांव जा कर उस ने अपने महल्ले के लोगों को इकट्ठा किया. 4 लोगों ने 25-25 जोड़ी भंदई बनाने का जिम्मा ले लिया. चैतराम का जी हलका हुआ.

लेकिन सेठों को भी खबर लग गई कि गांव के मोची किशन गौशाला का विरोध सांसद भोलाराम से कर रहे थे. वे बहुत भन्नाए. उन्होंने गांव के अपने पिछलग्गू सरपंच, पंच और कुछ खास लोगों से बात की और गांव में बैठक हो गई. सरपंच ने मोची महल्ले के लोगों के साथ गांव वालों को भी बुलवाया.

सरपंच ने कहा, ‘‘देखो भाई, आज की बैठक बहुत खास है. गाय की वजह से बैठी है यह सभा.’’

चैतराम ने कहा, ‘‘मालिक, गाय का चारागाह सब गौशाला वाले दबाए बैठे हैं. चारागाह नहीं रहेगा, तो गौधन की बढ़ोतरी कैसे होगी?’’

चैतराम का इतना कहना था कि बाबरी मसजिद तोड़ने गई सेना में शामिल हो कर लौटे जरहा गांव का एकलौता वीर सुंदरलाल उठ खड़ा हुआ. उस ने कहा, ‘‘वाह रे चैतराम, तू कब से हो गया गौ का शुभचिंतक?’’

सुंदरलाल का इतना कहना था कि चैतराम के साथ उस के महल्ले के सभी लोग उठ खड़े हुए. उस ने कहा, ‘‘मालिक हो, मगर बात संभल कर नहीं कर सकते. हम मरे हुए गायभैंसों का चमड़ा उतारते हैं, आप लोग तो जीतीजागती गाय की जगह दबाने वालों के हाथों खेल गए.’’

ऐसा सुन कर सुंदरलाल सिटपिटा सा गया. तभी भोलाराम दल के एक जवान रामलाल ने कहा, ‘‘राजनीति करो, मगर धर्म बचा कर. आदिवासियों को गाय बांटने का झांसा तुम लोग देते हो और गांव की जमीन, जिस में गाएं चरती थीं, उसे पैसा ले कर बाहर से आए सेठों को भेंट कर देते हो.’’

सुंदरलाल ने कहा, ‘‘100 जोड़ी भंदई के लिए गायों को जहर दे कर मरवाओगे क्या…?’’

उस का इतना कहना था कि ‘मारोमारो’ की आवाज होने लगी और लाठीपत्थर चलने लगे.

गांव में यह पहला मौका था, जब बैठक में लाठियां चल रही थीं.

3 मोचियों के सिर फट गए. चैतराम का बायां हाथ टूट गया.

अखबार में खबर छप गई. सांसद भोलाराम ने जरहा गांव का दौरा किया. उन्होंने मोचियों से कहा, ‘‘तुम लोग एकएक घाव का हिसाब मांगने का हक रखते हो. यह गुंडागर्दी नहीं चलेगी. मैं सब देख लूंगा.’’

भाषण दे कर जब भोलाराम अपनी कार में बैठ रहे थे, तभी उन्हीं की उम्र के एक आदमी ने उन्हें आवाज दे कर रोका. भोलाराम ने पूछा, ‘‘कहो भाई?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘भोला भाई, अब आप न भोले हैं, न भाले हैं. मैं पहले चुनाव से आप का संगी हूं. जहां भाला बनना चाहिए, वहां आप भोला बन जाते हैं. जहां भोला बनना चाहिए, वहां भाला, इसलिए सबकुछ गड्डमड्ड हो गया.

‘‘भाई मेरे कोई जिंदा गाय की राजनीति कर रहा है, तो कोई मरी हुई गाय की चमड़ी का चमत्कार बूझ रहा है. हैं दोनों ही गलत. मगर हमारी मजबूरी है कि 2 गलत में से एक को हर बार चुनना पड़ता है. इस तरह हम ही हर बार हारते हैं.’’

कणकण का हिसाब : महंगा पड़ा मुखिया का लालच

‘‘कुदरत किसी के साथ बेइंसाफी नहीं होने देती. लेकिन हम उस की बारीकियों को समझ नहीं पाते. हमारे नजरिए में ही खोट होती है, तभी हम उस के कानून की खिल्ली उड़ाते हैं. अगर आप का जिस्म ताकतवर है, तो जोरदार ठोकर का भी कोई असर नहीं होता… पर अगर कमजोर है तो मामूली सा झटका भी बहुत बड़ा भूचाल लगता है.

‘‘इसी तरह वह जब साथ देता है, तब मिट्टी छुओ तो सोना बन जाती है. लेकिन, जब हालात ठीक नहीं होते, तो जोकुछ भी दांव पर लगाओ, वह भस्म हो जाता है. केवल मेहनत से कमाया हुआ पैसा, यश ही जिंदगी में साथ देता है.’’

‘‘चोर, डाकू, ठग तो लाखों का हाथ मारते हैं, लेकिन फिर भी कलपते रहते हैं और रातदिन बेचैन रहते हैं. वहीं दूसरी ओर एक मजदूर दिनभर मिट्टी, कूड़ा, ईंट, गारा का काम कर के जब सोता है, तो उसे सूरज की किरणें ही जगाती हैं,’’ इतना कह कर मास्टर रामप्रकाश ने जीत सिंह से विदा मांगी.

जीत सिंह ने मास्टरजी की बात काटते हुए कहा, ‘‘मेहनत से पैदा की हुई दौलत तो आदमी के पास रहनी ही चाहिए. बड़ेबड़े राजाओं ने दूसरों के देश, सूबे जीते और भोगे, उन का क्या हुआ?’’

‘‘मुखियाजी, यह सिर्फ दिल का भरम और थोड़ी देर का संतोष होता है. महाराजा अशोक को इस से वैराग भी तो उपजा था?’’ इतना जवाब दे कर मास्टरजी चले गए.

जीत सिंह बमरौली गांव के मुखिया थे. गांव में उन का अच्छाखासा रोब था. उन की पत्नी गीता कुछ घमंडी थी. वे 2 बेटियों की शादी कर चुके थे. एक बेटा कमलेश सिंह अभी कुंआरा था. घर का कामकाज वही चलाता था. मुखियाजी सूद पर रुपया उठाते थे. उन्होंने 2-3 गुंडे पाल रखे थे जो उन का बिगड़ा काम बनाते थे.

बमरौली गांव से 5-6 किलोमीटर दूर झुमरी अपने 2 बैलों को जानवरों की मंडी में बेचने आया था. रात काफी हो चुकी थी. जिन्होंने कुछ बेचा था, उन के पास रुपए थे. जिन्होंने खरीदा था, वे खाली थे. जिन के पास धन था, वे थोड़े परेशान थे कि उन्हें कोई लूट सकता है.

झुमरी भी उन्हीं परेशान लोगों में से एक था. सोचा, कुछ जलेबी खा कर पेट भर लिया जाए और फिर घर जाने की सोचे. पावभर जलेबी ले कर वह वहीं दुकान पर खाने लगा. फिर पास रखी पानी की टंकी से पानी पी कर जेब से बीड़ी निकाली और उसी हलवाई की दुकान पर जलती भट्ठी से बीड़ी को सुलगाया. 2-4 बार निगाहें चारों तरफ फेंकी.

फिर झुमरी धीरेधीरे अपने गांव की ओर बढ़ा. रास्ते में उस ने सोचा, ‘क्यों न आज बमरौली गांव के मुखिया के यहां रात काटी जाए और सुबह 4 बजे उठ कर बस पकड़ कर घर पहुंचा जाए.’

मुखिया के घर पहुंच कर वह चौपाल पर पड़े तख्त पर बैठ गया. कमलेश ने पिता को जा कर कहा, ‘‘कोई आदमी आया है और तख्त पर बैठा है.’’

जीत सिंह बाहर आए और पूछा, ‘‘क्या काम है? किस से मिलना है? कहां से आए हो?’’

झुमरी ने बताया, ‘‘मालिक, मैं विलमंडे का रहने वाला हूं. बैल बेचने आया था, सो बिक गए. रात काफी हो गई… सुबह 4 बजे वाली बस से चला जाऊंगा. आज रात यहां ठहरना चाहता हूं.’’

‘‘इस में क्या मुश्किल है… यहीं तख्त पर सो जाओ. यहां कोई खतरा नहीं,’’ जीत सिंह ने इतना कह कर अपनी मंजूरी दे दी, फिर पूछा, ‘‘कुछ खाओगे?’’

‘‘नहीं मालिक, मंडी से खा कर आया हूं,’’ झुमरी ने जवाब दिया.

जीत सिंह ने एक दरी और एक चादर ला कर झुमरी को दी और कहा, ‘‘इसे बिछा लो.’’

‘‘अच्छा मालिक,’’ कह कर झुमरी ने दोनों चीजें ले लीं और धोती के फेंटे से रुपए निकाल कर बोला, ‘‘यह रुपए रख लीजिए, सुबह चलते समय ले लूंगा.’’

‘‘कितने हैं?’’ जीत सिंह ने पूछा.

‘‘10,000 में 20 कम,’’ झुमरी ने कहा.

जीत सिंह रुपए ले कर गीता के पास गए और कहा, ‘‘रुपए संदूक में रख दो, सुबह देने हैं.’’

गीता ललचाई नजरों से उन नोटों को ले कर काफी समय तक देखती ही रही. गीता कभी चौके में जाती, तो कभी कमरे में, जैसे कोई लालच उसे डगमगा रहा हो. आखिर उस ने जीत सिंह को बुलाया और कहा, ‘‘घर आई ‘लक्ष्मी’ जाने न पाए.’’

‘‘क्या कहती हो, बड़प्पन कमाया है. सब मिट्टी में मिल जाएगा,’’ जीत सिंह ने गुस्से से कहा.

‘‘अपने घर में कुछ करना ही नहीं,’’ गीता ने समझाया, ‘‘दूसरों को इतनी अक्ल देते हो, खुद के लिए इतना सा काम भी नहीं कर सकते.’’

जीत सिंह काफी देर तक सोचते रहे कि काम इस तरह करना चाहिए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. थोड़ी देर बाद वह उठे और भीतर से बंदूक उठा कर घर से निकल पड़े.

रात के अंधेरे में केवल पीपल के पत्ते ही कुछ बोल रहे थे और जुगनू रोशनी दे रहे थे. तकरीबन 2 फर्लांग पर हलकी सी रोशनी थी. वह भीखू का घर था, जहां मिट्टी का दीया जल रहा था. जीत सिंह जल्दी से भीखू के घर के पास पहुंच गए. भीखू खाट पर पड़ापड़ा बीड़ी के कश खींच रहा था.

‘‘भीखू, क्या कर रहे हो?’’ जीत सिंह ने आवाज दी.

‘‘जी मालिक, क्या हुक्म है?’’ भीखू ने बीड़ी को पैर से कुचलते हुए हाथ जोड़ कर पूछा.

‘‘थोड़ा बाहर आओ… कुछ बात करनी है,’’ जीत सिंह घर से थोड़ी दूर अंधेरे में भीखू को ले गए और कुछ बात की. फिर खुद खाली हाथ घर वापस आ गए.

गीता और जीत सिंह को रातभर नींद नहीं आई. घड़ी का हर घंटा कई घंटों के बराबर लग रहा था. जैसेतैसे कर के रात के 2 बजे जीत सिंह ने झुमरी को जगाया और कहा, ‘‘उठो, तुम्हारे जाने का समय हो गया, नहीं तो बस छूट जाएगी.’’

झुमरी ने दरी समेट कर तख्त पर रख दी. इतने में जीत सिंह नोटों का बंडल ले आए और दे कर कहने लगे, ‘‘लो, गिन लो इन्हें.’’

‘‘अरे मालिक, आप के पास क्या कमी है… आप हमें शर्मिंदा कर रहे हैं,’’ झुमरी नोटों की गड्डी ले कर बाहर निकला. बाहर सन्नाटे में उस ने चारों ओर नजरें घुमाईं. फिर आगे बढ़ा. वह 5-6 कदम ही बढ़ा होगा कि एक आदमी ने उस को रोका और कहा, ‘‘अभी केवल 3 बजे हैं… बहुत रात बाकी है. मेरे घर चलो.’’

झुमरी का खून सूख गया. अंधेरा और बढ़ गया. मुंह का बोल रुक गया. सिर्फ आंखें ही बोल और कह रही थीं. पूरे जिस्म को जैसे लकवा मार गया था. झुमरी ने उस से कुछ सवाल ही नहीं किया कि तुम कौन हो? तुम्हारा क्या इरादा है?

उस आदमी ने कहा, ‘‘मैं न कोई चोर हूं, न डाकू और न तुम्हारा दुश्मन. मुझे अपना हमदर्द समझो… मुझ पर यकीन करो.’’

झुमरी डर से कांप रहा था. लगभग 10 मिनट बाद उस आदमी का घर आ गया. दोनों भीतर घुसे और दरवाजा बंद कर लिया. दोनों ही डरे हुए थे. इस कारण दीया भी न जलाया. दोनों नीचे ही बैठ गए.

‘‘देखो, मेरा नाम हरिनाथ है. मैं यहां मेहनत कर के अपना गुजारा करता हूं. कभी किसी खेत पर तो कभी किसी खेत पर. मेरे आगेपीछे कोई रोने वाला नहीं, मर जाऊंगा तो गांव वाले मुझे गांव से बाहर फूंक देंगे.’’

‘‘रात से ही मेरा पेट खराब था. मुझे शौच के लिए बाहर जाना पड़ा. मैं गड्ढे में बैठा था कि मुखिया जीत सिंह भीखू के घर से निकल कर अंधेरे में बैठ गया. उस ने तुम्हें मारने की योजना बनाई है और भीखू को बंदकू दी है… जैसे ही तुम पगडंडी पर पहुंचते, तुम्हें गोली मार दी जाती और पैसा छीन लिया जाता. यह सच मैं ने सुन लिया और मैं जल्दी ही घर भागा. मैं सोया नहीं. अब तुम दिन निकले, तभी जाना,’’ इतना कह कर वह चुप हो गया.

झुमरी ने हरिनाथ से पानी मांग, तो उस ने उसे पानी का गिलास दिया. पानी पीते ही झुमरी का जैसे नया जन्म हो गया. उस का चेहरा खिल उठा.

इसी वक्त बंदूक के छूटने की आवाज आई और झुमरी व हरिनाथ फिर डर गए.

‘‘यह क्या हो रहा है?’’ यह सवाल दोनों के दिमाग पर हथौड़े चला रहा था. गांव वालों ने सोचा, ‘शायद डाकू आ गए हैं…’ सब ओर सन्नाटा था.

जीत सिंह समझ गए कि अपना काम हो गया. सोचा, ‘भीखू को 500 रुपए देंगे और बाकी सब अपने हो गए.’

जब काफी देर हो गई, तब जीत सिंह ने सोचा, ‘इतनी देर क्यों हो रही है? न तो कमलेश वापस आया और न भीखू. चलता हूं, हरामखोर को गरम करूंगा.’

‘2 बजे मैं ने झुमरी को भेजा. केवल पगडंडी तक 5 मिनट का रास्ता है.

4 बजे कमलेश को… दोनों ही फरार हो गए होंगे.’

जीत सिंह तेज कदमों से भीखू के घर पहुंचे.

‘‘भीखू, भीखू… आए क्यों नहीं?’’ जीत सिंह ने गुस्से से पूछा.

‘‘मालिक, उस के पास कुछ निकला ही नहीं,’’ भीखू ने जवाब दिया.

‘‘तुम झूठ बकते हो. तुम्हें अभी गोली से उड़ा दूंगा,’’ जीत सिंह ने धमकाते हुए कहा.

‘‘नहीं मालिक, आप से झूठ बोल कर कहां जाऊंगा?’’ भीखू ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘चल मेरे साथ, देखता हूं क्या गड़बड़ है,’’ जीत सिंह ने इतना कह कर भीखू को साथ ले लिया.

दोनों ही तेज चाल से चले जा रहे थे. दोनों की सांसें फूल रही थीं. 3-4 मिनट के बाद वे उस जगह पहुंच गए, तब तक कुछ उजाला होने लगा था. नजदीक पहुंच कर देखा. एकदम से यकीन नहीं हुआ. आंखें पथरा गईं.

जीत सिंह ने जोर से चीख मारी, ‘‘अरे, यह तो मेरा कमलेश है… तू ने किसे मार डाला बैरी.’’

‘‘मालिक, अंधेरे में मुंह तो दिखा नहीं,’’ भीखू ने कांपती आवाज में कहा.

सवेरा हुआ तो गांव में यह खबर बिजली की तरह फैल गई.

उधर झुमरी हरिनाथ को अपने साथ ले गया. उम्रभर साथ निभाने का पीपल के नीचे खड़े हो कर प्रण किया.

जीत सिंह सिसकियां भरतेभरते बेटे की लाश के पास बैठ गए. सुबह शौच के लिए जाते हुए लोग रुकरुक कर यह सब देख कर हैरान थे. कुछ पूछते नहीं बनता था.

जीत सिंह को उस बूढ़े रामप्रकाश मास्टर की बात याद आ रही थी. उन्होंने ठीक ही कहा था, ‘कुदरत कणकण का हिसाब रखती है, लेकिन आदमी उस को समझ नहीं पाता.’

जीत सिंह ने फिर सोचा, ‘अगर मैं उस बात को समझ जाता, तो यह बरबादी न होती… मेरे लालच ने ही मेरे बेटे की जान ले ली.’

वारिस : नकारा सेठ की मदमाती सेठानी

अकसर शाम को मैं ने उसे गांव के अंदर से बाहर शौच को जाते समय देखा था. सिंदूर की बड़ी सी सुर्ख बिंदी लगाए हुए. उस के नीचे हमेशा चंदन का टीका लगा रहता था. यही कोई होगी साढ़े 5 फुट लंबी. गांव में औरतें इतनी लंबी कम ही होती हैं.

वैसे तो उसे बहुत खूबसूरत नहीं कहा जा सकता, पर गोरी होने के चलते मोटे नैननक्श भी ज्यादा बुरे नहीं लगते थे. बड़ी सी सिंदूर वाली बिंदी उस पर खूब फबती है. शायद इसलिए ही उस की ओर ध्यान खिंच जाता है सब का खासकर मर्द तो एक बार पलट कर देखता जरूर था, फिर चाहे कोई जवान हो या बुजुर्ग. इतनी खूबसूरत न होने पर भी कशिश तो थी, ऊपर से हंस कर बोल जाती तो थोड़ी खुरदरी जबान भी फूल ही बिखेरती आदमी जात पर.

एक बात और यह कि अपनेआप को ज्यादा खूबसूरत दिखाने के लिए वह शायद काली प्रिंट की साड़ियां ज्यादा ही पहनती है, पर वे उस पर जमती भी हैं. अरे, एक खासीयत और रह गई न उस की बाकी, वह अपने पैर बहुत ही साफसुथरे रखती है.

गांव में अकसर औरतों के पैर गंदे और एड़ियां फटी ही देखी हैं, पर लगता है कि वह दिन में कई बार रगड़ती होगी, इसलिए ही तो कांच सी चमकदार हुई रहती हैं उस की एड़ियां ऊपर से, जिन में चांदी की बड़ीबड़ी पाजेब पहने रहती है. झनकझनक चलती तो दूर से पहचान हो जाती और ऊपर से इठलाइठला कर चलना तो लगता कहर ही है.

हां, यही सही में सेठजी की घरवाली है. सेठ धनपत लाल की शादी के तकरीबन 10 बरस बाद भी उस का मूंग भी मैला नहीं हुआ. जैसी आई थी, अब भी वैसी ही है. न मोटी हुई, न पतली.

इतनी धनदौलत है कि चाहे तो धन के कुल्ले करे धनपत लाल. उस के पास बस कमी है तो आंगन में खेलने वाले की, नन्ही किलकारी के गुंजन की. अरे मतलब, अब तक सेठानी की गोद खाली है. शुरू के 5-6 साल तो खेलतेखाते निकल ही गए, मगर अब सेठजी की मां आएदिन ताने देती रहती है.

लोग भी बीच रास्ते में कानाफूसी करते हैं कि सेठ दूसरी औरत लाने के जुगाड़ में है. आतेजाते लोग सेठजी की तारीफ में चुटकी लेले कर कह ही देते हैं कि धनपत लाल तो तराजू पर ध्यान देते हैं, घरवाली पर नहीं.

कुछ लोग बोलते कि गढ़ी के दरवाजे के पास सट्टे हवेली से सुबह अंधेरे एक औरत को निकलते देखा. साफसाफ तो नहीं दिख रही थी, कदकाठी से धनपत लाल की ही घरवाली लग रही थी.

किसी ने सवाल किया कि वह तो लखन सिंह का घर है, वहां क्या करने जाएगी सेठ धनपत की घरवाली? इसी तरह बात आईगई हो गई, पर जब भी मैं उसे देखती, मुझे लगता कि वह अपना दर्द शायद बड़ी सी बिंदी के पीछे छिपाए घूम रही थी.

सुनने में आ रहा था कि अकसर धनपत लाल और उस की घरवाली के बीच कुछ महीनों से झगड़े बढ़ रहे हैं. आए 2-4 दिन में वह देर रात झगड़ा कर कहीं चली जाती है. सास अपनी बहू को ढूंढ़ती रहती है और भोर होते ही वह वापस आ जाती है.

कुछ महीनों तक तो वही सब चलता रहा, अचानक एक दिन सुनने में आया कि इतने बरसों के बाद धनपत लाल की घरवाली के पैर भारी हैं. पूरे गांव में खुशी की लहर है. जहां देखो, वहां वही चर्चा. दुकान पर तो जो भी गया, मिठाई खाए बगैर कैसे आ जाता भला.

अब लड़ाईझगड़े खत्म हो गए थे. रूठ कर जानाआना तो शायद बरसों पहले की बात हो गई. सुना है कि सास तो बहू की सेवा में हाजिर ही खड़ी रहती है. बढ़ते पेट के साथ खुशी में देखतेदेखते कब 9 महीने निकल गए, पता ही नहीं चला.

आज जब गांव में पटाखे चले, बंदूकें चलीं तो पता चला कि सेठ धनपत के बेटा हुआ है.

समय पंख लगा कर उड़ गया. मैं ने आज अचानक देखा, वही बड़ी सी बिंदी लगाए नीचे चंदन का तिलक लगा कर वही की वही शाम को काले फ्लौवर वाली प्रिंट की साड़ी पहने आ रही थी धीरेधीरे.

पल्लू पकड़े एक गोराचिट्टा गोलमटोल सिर पर जूड़ा बांधे आंखों में काजल लगाया हुआ बालक. काजल इतना बड़ा शायद इसलिए कि किसी की नजर न लग जाए उस के अनमोल लाल को.

वह मस्त मदमाती हथिनी सी चल रही थी. उसे देख कर लग रहा था कि जो भी चमक आज उस की बिंदिया में है, वह मां बन कर आ गई या फिर सेठ धनपत लाल को वारिस दे कर.

धंधा बना लिया : लक्ष्मी ने ललचाया चंपा को

‘‘सुनती हो चंपा?’’

‘‘क्या बात है? दारू पीने के लिए पैसे चाहिए?’’ चंपा ने जब यह बात कही, तब विनोद हैरानी से उस का मुंह ताकता रह गया.

विनोद को इस तरह ताकते देख चंपा फिर बोली, ‘‘इस तरह क्या देख रहा है? मु झे पहले कभी नहीं देखा क्या?’’

‘‘मतलब, तुम से बात करना भी गुनाह है. मैं कोई भी बात करूं, तो तुम्हें लगता है कि मैं दारू के लिए ही पैसा मांगता हूं.’’

‘‘हां, तू ने अपना बरताव ही ऐसा कर लिया है. बोल, क्या कहना चाहता है?’’

‘‘लक्ष्मी होटल में धंधा करते हुए पकड़ी गई.’’

‘‘हां, मु झे मालूम है. एक दिन यही होना था. वही क्या, पूरी 10 औरतें पकड़ी गई हैं. क्या करें, आजकल औरतों ने अपने खर्चे पूरे करने के लिए यह धंधा बना लिया है. लक्ष्मी खूब बनठन कर रहती थी. वह धंधा करती है, यह बात तो मुझे पहले से मालूम थी.’’

‘‘तु झे मालूम थी?’’ विनोद हैरानी से बोला.

‘‘हां, बल्कि वह तो मुझ से भी यह धंधा करवाना चाहती थी.’’

‘‘तुम ने क्या जवाब दिया?’’

‘‘उस के मुंह पर थूक दिया,’’ गुस्से से चंपा बोली.

‘‘यह तुम ने अच्छा नहीं किया?’’

‘‘मतलब, तुम भी चाहते थे कि मैं भी उस के साथ धंधा करूं?’’

‘‘बहुत से मरद अपनी जोरू से यह धंधा करा रहे हैं. जितनी भी पकड़ी गईं, उन में से ज्यादातर को धंधेवाली बनाने में उन के मरदों का ही हाथ था,’’ विनोद बोला.

‘‘वे सब निकम्मे मरद थे, जो अपनी जोरू की कमाई खाते हैं. आग लगे ऐसी औरतों को…’’ कह कर चंपा झोंपड़ी से बाहर निकल गई.

चंपा जा जरूर रही थी, मगर उस का मन कहीं और भटका हुआ था.

चंपा घरों में बरतन मांजने का काम करती थी. जिन घरों में वह काम करती है, वहां से उसे बंधाबंधाया पैसा मिल जाता था. इस से वह अपनी गृहस्थी चला रही थी.

चंपा की 4 बेटियां और एक बेटा है. उस का मरद निठल्ला है. मरजी होती है, उस दिन वह मजदूरी करता है, वरना बस्ती के आवारा मर्दों के साथ ताश खेलता रहता है. उसे शराब पीने के लिए पैसा देना पड़ता है.

चंपा उसे कितनी बार कह चुकी है कि तू दारू नहीं जहर पी रहा है. मगर उस की बात को वह एक कान से सुनता है, दूसरे कान से निकाल देता है. उस की चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि चंपा की कड़वी बातों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता है.

जो 10 औरतें रैस्टहाउस के पकड़ी गई थीं, उन में से लक्ष्मी चंपा की बस्ती के मांगीलाल की जोरू है.

पुरानी बात है. एक दिन चंपा काम पर जा रही थी. कुछ देरी होने के चलते उस के पैर तेजी से चल रहे थे. तभी सामने से लक्ष्मी आ गई थी. वह बोली थी, ‘कहां जा रही हो?’

‘काम पर,’ चंपा ने कहा था.

‘कौन सा काम करती हो?’ लक्ष्मी ने ताना सा मारते हुए ऊपर से नीचे तक उसे घूरा था.

तब चंपा भी लापरवाही से बोली थी, ‘5-7 घरों में बरतन मांजने का काम करती हूं.’

‘महीने में कितना कमा लेती हो?’ जब लक्ष्मी ने अगला सवाल पूछा, तो चंपा सोच में पड़ गई थी. उस ने लापरवाही से जवाब दिया था, ‘यही कोई 4-5 हजार रुपए महीना.’

‘बस इतने से…’ लक्ष्मी ने हैरान हो कर कहा था.

‘तू सम झ रही है कि घरों में बरतन मांज कर 10-20 हजार रुपए महीना कमा लूंगी क्या?’ चंपा थोड़ी नाराजगी से बोली थी.

‘कभी देर से पहुंचती होगी, तब बातें भी सुननी पड़ती होंगी,’ जब लक्ष्मी ने यह सवाल पूछा, तब चंपा भीतर ही भीतर तिलमिला उठी थी. वह गुस्से से बोली थी, ‘जब तू सब जानती है, तब क्यों पूछ रही है?’

‘‘तू तो नाराज हो गई चंपा…’’ लक्ष्मी नरम पड़ते हुए बोली थी, ‘इतने कम पैसे में तेरा गुजारा चल जाता है?’

‘चल तो नहीं पाता है, मगर चलाना पड़ता है,’ चंपा ने जब यह बात कही, तब वह भीतर ही भीतर खुश हो गई थी.

‘अगर मेरा कहना मानेगी तो…’ लक्ष्मी ने इतना कहा, तो चंपा ने पूछा था, ‘मतलब?’

‘तू मालामाल हो सकती है,’ लक्ष्मी ने जब यह बात कही, तब चंपा बोली थी, ‘कैसे?’

‘अरे, औरत के पास ऐसी चीज है कि उसे कहीं हाथपैर जोड़ने की जरूरत नहीं पड़े. बस, थोड़ी मर्यादा तोड़नी पड़ेगी,’ चंपा की जवानी को ऊपर से नीचे देख कर जब लक्ष्मी मुसकराई, तो चंपा ने पूछा था, ‘क्या कहना चाहती है.’

‘नहीं सम झी मेरा इशारा…’ फिर लक्ष्मी ने बात को और साफ करते हुए कहा था, ‘अभी तेरे पास जवानी है. इन मर्दों से मनचाहा पैसा हड़प सकती है. ये मरद तो जवानी के भूखे होते हैं.’

‘तू मुझ से धंधा करवाना चाहती है?’ चंपा नाराज होते हुए बोली थी.

‘‘क्या बुराई है इस में? हम जैसी कितनी औरतें धंधा कर रही हैं और हजारों रुपए कमा रही हैं. फिर आजकल तो बड़े घरों की लड़कियां भी अपना खर्च निकालने के लिए यह धंधा कर रही हैं,’’ लक्ष्मी ने यह कहा, तो चंपा आगबबूला हो उठी और गुस्से से बोली थी, ‘एक औरत हो कर ऐसी बातें करते हुए तु झे शर्म नहीं आती?’

‘शर्म गई भाड़ में. अगर औरत इस तरह शर्म रखने लगी है, तो हमारे मरद हम को खा जाएं. एक बार यह धंधा अपना लेगी न, तब देखना तेरा मरद तेरे आगेपीछे घूमेगा,’ लक्ष्मी ने जब चंपा को यह लालच दिया, तब वह गुस्से से बोली थी, ‘ऐसी सीख मु झे दे रही है, खुद क्यों नहीं करती है यह धंधा?’

‘तू तो नाराज हो गई. ठीक है, अपने मरद के सामने सतीसावित्री बन. जब पैसे की बहुत जरूरत पड़ेगी न, तब मेरी यह बात याद आएगी,’ कह कर लक्ष्मी चली गई थी.

आज लक्ष्मी धंधा करती पकड़ी गई. धंधा तो वह बहुत पहले से ही कर रही थी. सारी बस्ती में यह चर्चा थी.

जब चंपा मिश्राइन के बंगले पर पहुंची, तब मिश्राइन और उस के पति ड्राइंगरूम में बैठे बातें कर रहे थे.

चंपा के पहुंचते ही मिश्राइन जरा गुस्से से बोली, ‘‘चंपा, आज तो तुम ने बहुत देर कर दी. क्या हुआ?’’

चंपा चुप रही. मिश्राइन फिर बोली, ‘‘तू ने जवाब नहीं दिया चंपा?’’

‘‘क्या करूं मेम साहब, आज हमारी बस्ती की लक्ष्मी धंधा करते हुए पकड़ी गई.’’

‘‘उस का अफसोस मनाने लगी थी?’’ मिश्राइन बोली.

‘‘अफसोस मनाए मेरी जूती…’’ गुस्से से चंपा बोली, ‘‘सारी बस्ती वाले उस पर थूथू कर रहे हैं. अच्छा हुआ कि वह पकड़ी गई.

‘‘तेरे आने के पहले उसी पर चर्चा चल रही थी…’’ मिश्राजी बोले, ‘‘लक्ष्मी भी क्या करे? पैसों की खातिर ऐसी झुग्गी झोंपड़ी वाली औरतों ने यह धंधा बना लिया है.’’

मिश्राजी ने जब यह बात कही, तब चंपा की इच्छा हुई कि कह दे, ‘आप जैसे अमीर घरों की औरतें भी गुपचुप तरीके से यह धंधा करती हैं,’ मगर वह यह बात कह नहीं सकी.

वह बोली, ‘‘क्या करें बाबूजी, हमारी बस्ती में एक औरत बदनाम होती है, यह धंधा करती है, मगर उस के पकड़े जाने पर सारी बस्ती की औरतें बदनाम होती हैं.’’ इतना कह कर चंपा बरतन मांजने रसोईघर में चली गई.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें