साली बनी घरवाली : क्या बहन का घर उजाड़ पाई आफरीन

आफरीन बहुत ही मजाकिया और चंचल लड़की थी. उस का जीजा अरमान जब भी अपनी बीवी राबिया के साथ ससुराल आता, तो आफरीन उन से ऐसेऐसे मजाक करती कि अरमान शर्म से पानीपानी हो जाता था.

राबिया की शादी 2 महीने पहले अरमान से हुई थी. अरमान एक सौफ्टवेयर कंपनी में काम करता था और अच्छाखासा कमा लेता था. साथ ही, अरमान देखने में भी लंबाचौड़ा और काफी हैंडसम था, जिसे पा कर राबिया बहुत खुश थी.

राबिया एक सीधीसादी घरेलू लड़की थी. वह अपने शौहर के साथ प्यार करने तक में हिचकिचाती थी और बहुत ही सादगी भरी जिंदगी गुजारती थी. नोएडा जैसे शहर में रहने के बावजूद उस का रहनसहन बिलकुल गंवारों वाला था.

अरमान राबिया को देख कर यह तो समझ गया था कि वह सीधीसादी और शौहर की प्रति वफादार है, क्योंकि रात को बिस्तर पर जब वह उस के साथ होती थी, तो काफी शरमाती थी.

लेकिन, राबिया जितनी सीधीसादी थी, उस की छोटी बहन आफरीन उतनी ही चंचल और हंसमुख थी, जो अपने जीजा अरमान से काफी घुलीमिली रहती थी और मस्तीमजाक करती रहती थी. यही वजह थी कि अरमान का ससुराल में काफी दिल लगता था.

आफरीन मौडर्न खयाल के साथसाथ रंगीनमिजाज लड़की थी, जो अकसर टाइट जींस और कसी हुई टीशर्ट पहनती थी, जिस में छाती झांकती थी. यह देख कर अरमान मन ही मन रोमांचित हो उठता था.

ऐसा नहीं था कि अरमान को साली आफरीन से डर लगता था, वह तो बस उस मौके की तलाश में था, जो उसे अकेले में मिलना चाहिए था.

एक रात की बात है. राबिया और अरमान कमरे में लेटे हुए थे कि तभी आफरीन वहां आ गई और अपने जीजा से बोली, ‘‘मुझे भी आप के पास सोना है. मैं भी तो आप की साली हूं और साली आधी घरवाली होती है.’’

यह सुन कर अरमान शरमा गया और कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया, क्योंकि पास में ही उस की बीवी राबिया लेटी थी.

राबिया आफरीन से बोली, ‘‘यह कैसा मजाक कर रही है तू. अपने शौहर के पास जा कर सोना, जब तेरी शादी हो जाए.’’

आफरीन ने कहा, ‘‘क्या बाजी, तुम तो जानती ही हो कि साली आधी घरवाली होती है. तुम तो अकसर इन के पास सोती हो, आज मुझे भी सोने दो. मेरा भी तो कुछ हक है अपने जीजा के पास सोने का.’’

राबिया उठते हुए बोली, ‘‘तू बहुत बातें बनाने लगी है. अभी अम्मी को बताती हूं.’’

आफरीन कमरे से भागते हुए बोली, ‘‘अरे बाजी, मैं तो जीजाजी से मजाक कर रही थी. देखा, इन की कैसे सिट्टीपिट्टी गुम हो गई और मेरे सोने की बात सुन कर पसीनापसीना हो गए.’’

राबिया अरमान की तरफ देख कर हंसते हुए बोली, ‘‘आप तो वाकई आफरीन के छोटे से मजाक से घबरा कर एकदम पसीनापसीना हो गए.’’

अरमान ने कहा, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. दरअसल, वह मजाक इस ढंग से करती है कि सामने वाले के होश ही उड़ जाते हैं. मै तो उस की बातें सुन कर घबरा गया था कि वह तुम्हारे सामने कैसी जिद कर रही है.’’

राबिया ने कहा, ‘‘ दरअसल, वह है ही बड़ी नटखट. हंसीमजाक करने में बड़ी माहिर है.’’

एक रात की बात है. ठंड का महीना था. सब लोग गहरी नींद में सोए थे. अरमान खुद बड़ी मुश्किल से कंपकंपाता हुआ बाहर निकला था. उस ने जैसे ही आफरीन के कमरे में झांक कर देखा, तो आहट पा कर आफरीन तेज आवाज में बोली, ‘‘कौन है?’’

अरमान ने कहा, ‘‘कोई नहीं, मैं हूं. पानी पीने के लिए उठा था मैं. तुम्हारे कमरे की लाइट जली देखी, तो अंदर झांकने लगा.’’

‘‘अरे जीजू, आप भी बस. इतना शरमाते हो. लगता है, आप भी मेरी दीदी की तरह शरमीले हो. आओ बैठो. मैं आप को ऐसी फिल्म दिखाऊंगी कि आप के होश उड़ जाएंगे.’’

अरमान ने कहा, ‘‘नहीं बाबा. बहुत ठंड है. मैं तो अपने कमरे में जा रहा हूं.’’

आफरीन ने कहा, ‘‘तो मैं कोई आप को जमीन पर थोड़े ही बैठने को कह रही हूं, जो आप को ठंड लग जाएगी. आओ, कंबल में आ जाओ. ऐसी गरमी दूंगी कि आप पसीनापसीना हो जाएंगे और याद करेंगे कि किस से पाला पड़ा है.’’

अरमान ने धीमे से कहा, ‘‘नहीं, अगर कोई आ गया तो क्या कहेगा. मुझे डर लगता है.’’

‘‘अरे जीजू, आप भी बड़े डरपोक हो. ऐसी ठंड में कौन अपने बिस्तर से बाहर निकलने की हिम्मत करेगा. और राबिया बाजी तो एक बार सो गईं, तो सीधे सवेरे ही उठेंगी.

‘‘आओ न यार, कभी साली का भी खयाल कर लिया करो. वैसे भी साली आधी घरवाली होती है.’’

अरमान ने कहा, ‘‘नहीं, मैं चलता हूं. तुम आराम करो या फिल्म देखो.’’

आफरीन अपने बिस्तर से उठते हुए बोली, ‘‘आप भी पता नहीं कौन सी सदी में जी रहे हो. यह जिंदगी मजे लेने के लिए है. यों शरमाने से काम नहीं चलने वाला.’’

इस से पहले कि अरमान वहां से जाता, आफरीन ने उसे खींच लिया और अपने पास बैठाते हुए बोली, ‘‘एक ऐसी फिल्म दिखाती हूं, जो शायद आप ने कभी न देखी हो.’’

आफरीन ने अपने मोबाइल पर एक इंगलिश फिल्म चला दी और बोली, ‘‘जीजू, जब तक आप यह सब नहीं देखेंगे, तब तक आप की जिंदगी रंगीन नहीं बन सकती. देखो, इस में कैसे जिंदगी के मजे लिए जाते हैं.’’

अरमान ने फिल्म में चल रहे पोर्न सीन को देख कर कहा, ‘‘तुम भी क्या बकवास देखती हो? तुम्हें शर्म नहीं आती…’’

आफरीन ने अदा दिखाते हुए कहा, ‘‘मेरे साथ रहोगे तो आप भी शर्म नहीं करोगे, बल्कि खुशगवार जिंदगी जिओगे.’’

इतनी देर में मोबाइल में चल रही फिल्म के सैक्सी सीन देख कर अरमान के बदन में मानो आग लगने लगी.

आफरीन ने मामला भांपते हुए कंबल के अंदर अरमान का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘क्या जीजू, कुछ गरमी आई या अभी तक ठंडे पड़े हो…’’

अरमान समझ चुका था कि आज की रात उस की जिंदगी की रंगीन रात बनने वाली है.

आफरीन अपने हाथों से अरमान के बदन में गरमी भर ही रही थी कि वह बेकाबू हो गया और उस ने आफरीन को भींच लिया.

आफरीन अरमान की इस हरकत से और ज्यादा रोमांटिक हो गई और अपनी टीशर्ट खुद ही उतारते हुए बोली, ‘‘आज की फिल्म हम खुद बनाएंगे,’’ कहते हुए उस ने मोबाइल एक तरफ रख दिया.

इस के बाद वे दोनों एकदूसरे के जिस्म को ऐसे चूम रहे थे, जैसा उन्होंने अभी कुछ देर पहले फिल्म में देखा था. दोनों एकदूसरे में समाने के लिए बेताब हो रहे थे. खूब मौजमस्ती के बाद दोनों संतुष्ट हो गए और एकदूसरे से अलग हो गए.

आफरीन बोली, ‘‘जीजू, आप ने तो कमाल ही कर दिया. मेरे रोमरोम को ऐसे भर दिया, जिस के लिए मैं कब से बेचैन थी. आप तो बड़े ही रोमांटिक निकले.’’

अरमान ने कहा, ‘‘तुम ने भी आज मुझे वह मजा दिया है, जो मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था.’’

आफरीन बोली, ‘‘लगता है कि आप दीदी से खुश नहीं हैं. दरअसल, दीदी बहुत सीधीसादी हैं. उन्हें क्या पता कि जिंदगी कैसे जी जाती है. आप मेरा साथ दोगे, तो मैं आप को वे खुशियां दूंगी, जो आप ने कभी सोची भी नहीं होंगी.’’

अरमान ने कहा, ‘‘तुम ने सही कहा. तुम्हारी दीदी में सैक्स को ले कर कोई फीलिंग है ही नहीं, वह तो बस नौर्मल ढंग से सैक्स करती है और जल्दी सो जाती है. उस के साथ रह कर मेरी जिंदगी बोर हो गई है.’’

आफरीन बोली, ‘‘आप चिंता न करें. जो खुशियां दीदी नहीं दे पाईं, वे साली देगी.’’

अब दोनों को जब भी मौका मिलता, वे एकदूसरे से खूब मजे लेते. कभी अरमान अपनी सुसराल आ कर आफरीन के जिस्म को भोगता, तो कभी आफरीन अपनी दीदी राबिया के घर जा कर अरमान के साथ मजे लेती.

धीरेधीरे वे एकदूसरे से प्यार कर बैठे और अब मियांबीवी बन कर जिंदगी गुजारना चाहते थे.

लेकिन, राबिया उन के रास्ते का रोड़ा बनी हुई थी, क्योंकि जब तक वह रास्ते से नहीं हटती, तब तक दोनों कानूनन एक नहीं हो सकते थे.

आफरीन और अरमान ने एक प्लान बनाया, जिस के तहत अरमान ने धीरेधीरे राबिया से लड़ाई झगड़े शुरू कर दिए. वह बातबात पर उसे ताने देता और कभीकभी उस पर हाथ भी उठा देता.

अरमान की इस हरकत से राबिया परेशान हो उठी और उस ने अपने अम्मीअब्बा से अरमान से अलग होने की बात कही.

राबिया के अम्मीअब्बा ने उन दोनों को बैठा कर समझाने की काफी कोशिश की, पर अरमान इस जिद पर अड़ गया कि वह एक गंवार और सीधीसादी औरत के साथ जिंदगी नहीं गुजार सकता. यह खुद तो मैलीकुचैली रहती है, साथ ही इस के अंदर वे जज्बात नहीं, जो एक शौहर को चाहिए. उस के आने से पहले सो जाती है और जब अरमान उस से अपनी ख्वाहिश जाहिर करता है, तो शरमाती है.

राबिया के अम्मीअब्बा सम?ा गए कि राबिया बहुत ही कम रोमांटिक है और वह अपने शौहर को वह जिस्मानी सुख नहीं दे पाती, जिस की उसे जरूरत है. लिहाजा, उन्होंने राबिया और अरमान के अलग होने पर कोई पाबंदी नहीं लगाई और दोनों खुशीखुशी एकदूसरे से अलग हो गए.

अरमान अब नोएडा के अपने घर में रह रहा था. उस की चाल कामयाब हो चुकी थी. उसे राबिया से आसानी से छुटकारा मिल गया था.

आफरीन भी नौकरी करने के बहाने नोएडा पहुंच गई. दोनों ने वहां निकाह कर लिया और निकाह होते ही अरमान की साली आफरीन उस की घरवाली बन गई. दोनों एकसाथ रह कर जिंदगी के मजे लेने लगे.

इस शादी से अरमान भी बहुत खुश था, तो आफरीन भी कम खुश न थी. उसे उस का मनपसंद जीवनसाथी मिल चुका था, जो उस के साथ उस की मरजी के मुताबिक सैक्स करता और उसे पूरा मजा देता.

अरमान को भी आफरीन के रूप में अब एक ऐसी जीवनसाथी मिली, जो बिस्तर पर भी और जिंदगीभर उस का पूरा साथ देती और उस की हर जरूरत पूरा करने को हर समय तैयार रहती.

कुछ महीने बाद राबिया और उस के घर वालों को भी यह पता चल गया कि आफरीन ने अरमान से निकाह कर लिया है और वह उस के साथ उस के घर पर रह रही है और वे दोनों बहुत खुश हैं.

राबिया अब यह सोचने पर मजबूर हो गई थी कि इन दोनों ने मिल कर उस के खिलाफ साजिश रची, ताकि वे आपस में एकसाथ मिल कर रह सकें. उसे अफसोस था तो बस इतना कि उसी की बहन ने उस के शौहर को अपने हुस्न के जाल में फंसा कर अपना कब्जा जमा लिया और साली से उस की घरवाली बन गई.

घर लौट जा माधुरी : जवानी की दहलीज

जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही मन सातवें आसमान पर जा पहुंचता है. सारी दुनिया रंगीन और मदभरी लगती है. मन का घोड़ा बेलगाम होने लगता है और मदहोशी में किसी की बात सुनना नहीं चाहता है. कुछ ऐसा ही माधुरी के साथ हो रहा था.

रात के साढ़े 10 बज रहे थे. तृप्ति खाना खा कर पढ़ने के लिए बैठी थी. वह अपने जरूरी नोट रात में 11 बजे के बाद ही तैयार करती थी. रात में गली सुनसान हो जाती थी. कभीकभार तो कुत्तों के भूंकने की आवाज के अलावा कोई शोर नहीं होता था.

तृप्ति के कमरे का एक दरवाजा बनारस की एक संकरी गली में खुलता था. मकान मालकिन ऊपर की मंजिल पर रहती थीं. वे विधवा थीं. उन की एकलौती बेटी अपने पति के साथ इलाहाबाद में रहती थी.

नीचे छात्राओं को देने के लिए 3 छोटेछोटे कमरे बनाए गए थे. 2 कमरों के दरवाजे अंदर के गलियारे में खुलते थे. उन दोनों कमरों में भी छात्राएं रहती थीं.

दरवाजा बाहर की ओर खुलने का एक फायदा यह था कि तृप्ति को किसी वजह से बाहर से आने में देर हो जाती थी तो मकान मालकिन की डांट नहीं सुननी पड़ती थी.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. तृप्ति किसी अनजाने डर से सिहर उठी. उसे लगा, कोई गली का लफंगा

तो नहीं. वैसे, आज तक ऐसा नहीं हुआ था. रात 10 बजे के बाद गली की ओर खुलने वाले दरवाजे को किसी ने नहीं खटखटाया था.

कभीकभार बगल वाली छात्राएं कुछ पूछने के लिए साइड वाला दरवाजा खटखटा देती थीं. उन दोनों से वह सीनियर थी, इसलिए वे भी रात में ऐसा कभीकभार ही करती थीं.

पर जब ‘तृप्ति, दरवाजा खोलो… मैं माधुरी’ की आवाज सुनाई पड़ी, तो तृप्ति ने दरवाजे की दरार से झांक कर देखा. यह माधुरी थी. उस के बगल के गांव की एक सहेली. मैट्रिक तक दोनों साथसाथ पढ़ी थीं. बाद में तृप्ति बनारस आ गई थी. बीए करने के बाद बीएचयू की ला फैकल्टी में एडमिशन लेने के लिए वह एडमिशन टैस्ट की तैयारी कर रही थी.

माधुरी बगल के कसबे में ही एक कालेज से बीए करने के बाद घर बैठी थी. पिता उस की शादी करने के लिए किसी नौकरी करने वाले लड़के की तलाश में थे.

‘‘अरे तुम… इतनी रात गए… कहां से आ रही हो?’’ हैरान होते हुए तृप्ति ने पूछा.

‘‘बताती हूं, पहले अंदर तो आने दे,’’ कुछ बदहवास और चिंतित माधुरी आते ही बैड पर बैठ गई.

‘‘एक गिलास पानी तो ला… बहुत प्यास लगी है,’’ माधुरी ने इतमीनान की सांस लेते हुए कहा. ऐसा लग रहा था मानो वह दौड़ कर आई थी.

तृप्ति ने मटके से पानी निकाल कर उसे देते हुए कहा, ‘‘गलियां अभी पूरी तरह सुनसान नहीं हुई हैं… वरना अब तक तो इस गली में कुत्ते भी भूंकना बंद कर देते हैं,’’ फिर उस ने माधुरी की ओर एक प्लेट में बेसन का लड्डू बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पहले कुछ खा ले, फिर पानी पीना. लगता है, तुम दौड़ कर आ रही हो?’’

माधुरी ने लड्डू खाते हुए कहा, ‘‘इतनी संकरी गली में कमरा लिया है कि तुम्हारे यहां कोई पहुंच भी नहीं सकता. यह तो मैं पिछले महीने ही आई थी इसलिए भूली नहीं, वरना जाने इतनी रात को अब तक कहां भटकती रहती.’’

‘‘पहले मैं गर्ल्स होस्टल में रहना चाहती थी, पर अगलबगल में कोई ढंग का मिल नहीं रहा था, महंगा भी बहुत था. यह बहुत सस्ते में मिल गया. यहां बहुत शांति रहती है, इसलिए इम्तिहान की तैयारी के लिए सही लगा. बस, आ गई. अगर मेरा एडमिशन बीएचयू में हो जाता है, तो आगे से वहीं होस्टल में रहूंगी.

‘‘अच्छा, अब तो बता कैसे आई हो? इतना बड़ा बैग… लगता है, काफी सामान भर रखा है इस में. कहीं जाने का प्लान है क्या?’’ तृप्ति ने पूछा.

‘‘हां, बताती हूं. अब एक कप चाय तो पिला,’’ माधुरी बोली.

‘‘खाना खाया है या बनाऊं… लेकिन, तुम ने खाना कहां से खाया होगा. घर से सीधे आ रही हो या…’’

‘‘खाना तो नहीं खाया है. मौका ही नहीं मिला, लेकिन रास्ते में एक दुकान से ब्रैड ले ली थी. अब इतनी रात को खाने की चिंता छोड़ो. ब्रैडचाय से काम चला लूंगी मैं,’’ माधुरी ने कहा.

चाय और ब्रैड खाने के बाद माधुरी की थकान तो मिट गई थी, पर उस के चेहरे पर अब भी चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थीं.

माधुरी बोली, ‘‘तृप्ति, तुम्हें याद है, जब हम लोग 9वीं जमात में थे, तब सौरभ नाम का एक लड़का 10वीं जमात में पढ़ता था. वही लंबी नाक वाला, गोरा, सुंदर, जो हमेशा मुसकराता रहता था…’’

‘‘हां, जिस के पीछे कई लड़कियां भागती थीं… और जिस के पिता की गहनों की मार्केट में बड़ी सी दुकान थी,’’ तृप्ति ने याद करते हुए कहा.

‘‘हां, वही.’’

‘‘पर, बात क्या है… तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘वही तो मैं बता रही हूं. वह 2 बार मैट्रिक में फेल हुआ तो उस के पिता ने उस की पढ़ाई छुड़वा कर दुकान पर बैठा दिया. पिछले साल भैया की शादी थी. मां भाभी के लिए गहनों के लिए और्डर देने जाने लगीं तो साथ में मुझे भी ले लिया.

‘‘मैं गहनों में बहुत काटछांट कर रही थी, इसलिए उस के पिता ने गहने दिखाने के लिए सौरभ को लगा दिया, तभी उस ने मुझ से पूछा था, ‘तुम माधुरी हो न?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘हां, पर तुम

कैसे जानते हो?’

‘‘उस ने बताया, ‘भूल गई क्या… हम दोनों एक ही स्कूल में तो पढ़ते थे.’

‘‘मैं उसे पहचानती तो थी, लेकिन जानबूझ कर अनजान बन रही थी. फिर उस ने मेरी ओर देखा तो शर्म से मेरी आंखें झुक गईं. उस दिन गहनों के और्डर दे कर हम लोग घर चले आए, फिर एक हफ्ते बाद मां के साथ मैं भी गहने लेने दुकान पर गई थी.

‘‘मां ने मुझ से कहा था, ‘दुकानदार का बेटा तुम्हारा परिचित है, तो दाम में कुछ छूट करा देना.’

‘‘मैं ने कहा था, ‘अच्छा मां, मैं उस से बोल दूंगी.’

‘‘पर, दाम उस के पिताजी ने लगाए. उस ने पिता से कहा, तो कुछ कम हो गया… घर आने पर मालूम हुआ कि भाभी के लिए जो सोने की अंगूठी खरीदी गई थी, वह नाप में छोटी थी. मां बोलीं, ‘माधुरी, कल अंगूठी ले जा कर बदलवा देना, मुझे मौका नहीं मिलेगा. कल कुछ लोग आने वाले हैं.’

‘‘मैं दूसरे दिन जब दुकान पर पहुंची तो सौरभ के पिताजी नहीं थे. मुझे देख कर वह मुसकराते हुए बोला, ‘आओ माधुरी, बैठो. आज क्या और्डर करना है?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘कुछ नहीं… बस, यह अंगूठी बदलवानी है. भाभी की उंगली में नहीं आएगी. नाप में बहुत छोटी है.’

‘‘वह बोला था, ‘कोई बात नहीं,

इसे तुम रख लो. भाभी के लिए मैं दूसरी दे देता हूं.’

‘‘मैं ने छेड़ते हुए कहा था, ‘बड़े आए देने वाले… दाम तो कम कर नहीं सकते… मुफ्त में देने चले हो.’

‘‘यह सुन कर उस ने कहा था, ‘कल पिताजी मालिक थे, आज मैं हूं. आज मेरा और्डर चलेगा.’

‘‘सचमुच ही उस ने वही किया, जो कहा. मैं ने बहुत कोशिश की, लेकिन उस ने अंगूठी वापस नहीं ली. भाभी के नाप की वैसी ही दूसरी अंगूठी भी दे दी.

‘‘मैं जब घर पहुंची तो मेरी उंगली में पहले वाली अंगूठी देख कर मां ने पूछा था, ‘इस को लौटाया नहीं क्या?’

‘‘मैं ने डरतेडरते कहा था, ‘इस को वापस लेने से इनकार कर दिया मां.’

‘‘यह सुन कर मां ने कठोर आवाज में पूछा था, ‘किस ने? उस छोकरे ने या उस के बाप ने?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘उस के पिताजी नहीं थे, आज वही था.’

‘‘मां ने कहा था, ‘अंगूठी निकाल दे. कल मैं लौटा आऊंगी. बेवकूफ लड़की, तुम नहीं जानती, यह सुनार का छोकरा तु?ा पर चारा डाल रहा है. उस की मंशा ठीक नहीं है. अब आगे से उस की दुकान पर मत जाना.’

‘‘मां की बात मु?ो बिलकुल नहीं सुहाई. पिछली बार जब मैं उस की दुकान पर गई थी तब तो दाम कम कराने के लिए उसी से पैरवी करवा रही थीं. अब जब इतना बड़ा उपहार अपनी इच्छा से दिया तो नखरे कर रही हैं.

‘‘सच कहूं तृप्ति, मां के इस बरताव से मेरा सौरभ के प्रति और झुकाव बढ़ गया. उस दिन के बाद से मैं उस की दुकान पर जाने का बहाना ढूंढ़ने लगी.

‘‘एक दिन मौका मिल ही गया. बड़े वाले जीजाजी घर आए थे. मां ने जब भाभी के लिए खरीदे गए गहनों को दिखाया तो वे बोले, ‘सुनार ने वाजिब दाम लगाया है. मुझे भी उपहार में देने के लिए एक अंगूठी की जरूरत है. सलहज की उंगली का नाप आप के पास है ही, इस से थोड़ी अलग डिजाइन की अंगूठी मैं भी उसी दुकान से ले लेता हूं.’

‘‘मां ने कहा था, ‘माधुरी साथ चली जाएगी. दुकानदार का लड़का इस का परिचित है. कुछ छूट भी कर देगा.’

‘‘मां ने अंगूठी लौटाने वाली बात को जानबूझ कर छिपा लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि मुझ पर किसी तरह का आरोप लगे. मेरी शादी के लिए बाबूजी किसी नौकरी वाले लड़के की तलाश में थे.

‘‘दूसरे दिन जीजाजी के साथ जब मैं उस की दुकान पर पहुंची तब सौरभ किसी औरत को अंगूठी दिखा रहा था. मुझे देखते ही वह मुसकराया और बैठने के लिए इशारा किया. जब जीजाजी ने अंगूठी दिखाने को कहा तो उस के पिताजी ने उसी की ओर इशारा कर दिया.

‘‘तभी कोई फोन आया और उस के पिताजी बोले, ‘2-3 घंटे के लिए मैं कुछ जरूरी काम से बाहर जा रहा हूं. ये लोग पुराने ग्राहक हैं, इन का ध्यान रखना.’

‘‘यह सुन कर सौरभ के चेहरे पर मुसकान थिरक गई. वह बोला, ‘जी बाबूजी, मैं सब संभाल लूंगा.’’

‘‘जीजाजी ने एक अंगूठी पसंद की और उस का दाम पूछा. मैं ने कहा, ‘मेरे जीजाजी हैं.’

‘‘मेरा इशारा समझ कर सौरभ ने कहा, ‘फिर तो जो आप दे दें, मुझे मंजूर होगा.’

‘‘जीजाजी ने बहुत कहा, लेकिन वह एक ही रट लगाए रहा, ‘आप जो देंगे, ले लूंगा. आप लोग पुराने ग्राहक हैं. आप लोगों से क्या मोलभाव करना है.’

‘‘जीजाजी धर्मसंकट में थे. उन्होंने अपना डैबिट कार्ड बढ़ाते हुए कहा, ‘अब मैं भी मोलभाव नहीं करूंगा. आप जो दाम भर देंगे, स्वीकार कर लूंगा.’

‘‘खैर, जीजाजी ने जो सोचा था, उस से कम दाम उस ने लगाया. उस ने हम लोगों के लिए मिठाई मंगाई और जब जीजाजी मुंह धोने वाशबेसिन की ओर गए तो वही पुरानी अंगूठी मुझे जबरन थमाते हुए कहा था, ‘अब फिर न लौटाना… नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा.’

‘‘जीजाजी देख न लें, इसलिए मैं ने उस अंगूठी को ले कर छिपा लिया.

‘‘उस दिन के बाद हम दोनों मौका निकाल कर चोरीछिपे एकदूसरे से मिलते रहे. सौरभ से मालूम हुआ कि उस के पिताजी ने पिछले साल उस की शादी एक अमीर लड़की से दहेज के लालच में करा दी थी. लड़की तो सुंदर है, लेकिन गूंगीबहरी है. वह अपने मातापिता की एकलौती बेटी है. मां का देहांत हो चुका है. पिता ने अपनी जायदाद लड़की के नाम कर दी है. शहर में एक तिमंजिला मकान भी उस की नाम से है. उस मकान से हर महीने अच्छा किराया मिलता है. रुपयापैसा उसी के अकाउंट में जमा होता है. पिताजी ने भी गहनों की यह दुकान उस के नाम कर दी है.

‘‘तृप्ति, सौरभ मुझ पर इतना पैसा खर्च करने लगा कि मैं उसी की हो कर रह गई.’’

‘‘यानी तुम ने अपना जिस्म भी उसे सौंप दिया?’’ तृप्ति ने हैरान होते हुए पूछ लिया.

‘‘क्या करती… कई बार हम लोग होटल में मिले. कोई न कोई बहाना बना कर मैं सुबह निकलती और उस के बुक कराए होटल में पहुंच जाती. शुरू में तो काफी हिचकिचाई, पर बाद में उस के आग्रह के आगे झुक गई.’’

‘‘फिर…?’’ तृप्ति ने पूछा.

‘‘फिर क्या… मैं हर वक्त उसी के बारे में सोचने लगी. उस ने मुझे भरोसा दिलाया कि कुछ दिनों बाद वह अपनी पत्नी को तलाक दे देगा और मुझ से शादी कर लेगा.’’

‘‘और तुम्हें विश्वास हो गया?’’

‘‘उस ने शपथ ले कर कहा है. मुझे विश्वास है कि वह धोखा नहीं देगा.’’

‘‘अब बताओ कि तुम यहां कैसे आई हो?’’ तृप्ति ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘एक हफ्ता पहले जीजाजी आए थे. उन्होंने बाबूजी के सामने एक लड़के का प्रस्ताव रखा था. लड़का एक सरकारी दफ्तर में है, लेकिन बचपन से ही उस का एक पैर खराब है, इसलिए लंगड़ा कर चलता है. वह मुझ से बिना दहेज की शादी करने को तैयार है.

‘‘बाबूजी तैयार हो गए. मां ने विरोध किया तो कहने लगे, ‘एक पैर ही तो खराब है. सरकारी नौकरी है. उसे कई रियायतें भी मिलेंगी.

‘‘जब मां भी तैयार हो गईं तो मैं ने मुंह खोला, पर उन्होंने मुझे डांटते हुए कहा, ‘तुम्हें तो नौकरी मिली नहीं, अब मुश्किल से नौकरी वाला एक लड़का मिला है, तो जबान चलाती है.’

‘‘लेकिन, बात यह नहीं थी. किसी ने मां के कान में डाल दिया था कि मेरा सौरभ से मिलनाजुलना है. मां को तो उसी समय शक हो गया था, जब मैं अंगूठी बिना लौटाए आ गई थी.

‘‘इधर सौरभ मेरे लिए कुछ न कुछ हमेशा खरीदता रहता था. अब घर में क्याक्या छिपाती मैं. कोई न कोई बहाना बनाती, पर मां का शक दूर न होता. वे भी चाहती थीं कि किसी तरह जल्द से जल्द मेरी शादी हो जाए, ताकि समाज में उन की नाक न कटे.

‘‘मां का मुझ पर भरोसा नहीं रहा था. उन्होंने मुझे गांव से बाहर जाने की मनाही कर दी. उधर बाबूजी ने जीजाजी के प्रस्ताव पर हामी भर दी.

लड़के ने मेरा फोटो और बायोडाटा देख कर शादी करने का फैसला मुझ पर छोड़ दिया. बिना मुझ से सलाह लिए मांबाबूजी ने अगले महीने मेरी शादी की तारीख भी पक्की कर दी है.

‘‘मांबाबूजी का यह रवैया मुझे नागवार लगा, इसलिए मैं  सौरभ से इस संबंध में बात करना चाहती थी. मैं उस के साथ कहीं भाग जाना चाहती थी.

‘‘बहुत मुश्किल से किसी तरह दवा लाने का बहाना कर के मैं गांव से निकली. फोन पर सौरभ को सारी बातें बताईं. उस ने कहा कि मैं रात में बनारस पहुंच जाऊं. सुबह वहीं से मुंबई के लिए ट्रेन पकड़ लेंगे. उस ने रिजर्वेशन भी करा लिया है. उस का एक दोस्त वहां रहता है. मुझे दोस्त के पास रख कर वह लौट आएगा, फिर पत्नी को तलाक दे कर मुझ से शादी कर लेगा.’’

‘‘ओह… तो तुम मुंबई जाने की तैयारी कर के आई हो?’’ तृप्ति ने कहा.

‘‘हां.’’

‘‘माधुरी, तुम समदार हो, इसलिए तुम को मैं समझ तो नहीं सकती… और फिर अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने का हक सभी को है, पर हम आपस में इस बारे में बात तो कर ही सकते हैं, जिस से सही दिशा मिल सके और तुम समझ पाओ कि जानेअनजाने में तुम से कोई गलत फैसला तो नहीं हो रहा है.’’

‘‘बोल तृप्ति, समय कम है, मुझे सुबह निकलना भी है. यह तो मुझे भी एहसास हो रहा है कि मैं कुछ गलत कर रही हूं. पर मेरे सामने इस के अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं है,’’ माधुरी की चिंता उस के चेहरे से साफ झलक रही थी.

‘‘अच्छा माधुरी, सौरभ के पिता से गहनों की कीमत में छूट कराने के लिए तुम्हें सौरभ से कहना पड़ा था न?’’

‘‘हां.’’

‘‘सौरभ से तुम्हारी जानपहचान भी नहीं थी. सिर्फ इतना ही कि तुम्हारे साथ सौरभ भी एक ही स्कूल में पढ़ता था.’’

‘‘हां.’’

‘‘सौरभ के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. काफी सारा पैसा उस के बैंक अकाउंट में था, जिसे खर्चने के लिए उसे अपने पिता की इजाजत लेने की जरूरत नहीं थी.’’

‘‘यह भी सही है.’’

‘‘सौरभ की शादी उस की मरजी से नहीं हुई थी. गूंगीबहरी होने के चलते अपनी पत्नी को वह पसंद नहीं करता था. कहीं न कहीं उस के मन में किसी दूसरी सुंदर लड़की की चाह थी.’’

‘‘तुम्हारी बातों में सचाई है. कई बार उस ने ऐसा कहा था. लेकिन तुम जिरह बहुत अच्छा कर लेती हो. देखना, तुम अच्छी वकील बनोगी.’’

‘‘वह खुद जवान और सुंदर है और तुम भी उस की सुंदरता की ओर खिंचने लगी थी.’’

‘‘यह भी सही है.’’

‘‘फिर अब तो तुम मानोगी कि तुम से ज्यादा तुम्हारी शारीरिक सुंदरता उसे अपनी ओर खींच रही थी और पहली ही ?ालक में उस ने तुम में अपनी हवस पूरी की इच्छा की संभावना तलाश ली होगी. और जब तुम ने उस की सोने की महंगी अंगूठी स्वीकार कर ली तब वह पक्का हो गया कि अब तुम उस के जाल में आसानी से फंस सकती हो.

‘‘फिर वही हुआ, अपने पैसे का उस ने भरपूर इस्तेमाल किया और तुम पर बेतहाशा खर्च किया, जिस के नीचे तुम्हारा विवेक भी मर गया. तुम्हारी समझ कुंठित हो गई और तुम ने अपनी जिंदगी का सब से बड़ा धन गंवा दिया, जिसे कुंआरापन कहते हैं.’’

माधुरी के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं.

‘‘बोल तृप्ति बोल, अपने मन की बात खुल कर मेरे सामने रख,’’ माधुरी उत्सुकता से उस की बातें सुन रही थी.

‘‘माधुरी, अब जिस सैक्स सुख के लिए मर्द शादी तक इंतजार करता है, वही उसे उस के पहले ही मिल जाए और उसे यह विश्वास हो जाए कि अपने पैसों से तुम्हारी जैसी लड़कियों को आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है, तो वह अपनी पत्नी को तलाक देने और दूसरी से शादी करने का ?ां?ाट क्यों मोल लेगा?

‘‘फिर वह अच्छी तरह जानता है कि उस की पत्नी की बदौलत ही उस के पास इतनी दौलत है और उसे तलाक देते ही उस को इस जायदाद से हाथ धोना पड़ जाएगा. मुकदमे का झंझंट होगा, सो अलग.

‘‘मुझे तो लगता है, तुम किसी बड़ी साजिश की शिकार होने वाली हो. तुम से उस का मन भर गया है. अब वह तुम्हें अपने दोस्त को सौंपना चाहता है.’’

‘‘नहींनहीं…’’ अचानक माधुरी के मुंह से चीख सी निकली.

‘‘पर, इस सब में केवल सौरभ ही कुसूरवार नहीं है, तुम भी हो. तुम ने क्या सोच कर अंगूठी अपने जीजाजी और मां से छिपाई.

‘‘जीजाजी के सामने ही क्यों नहीं कहा कि सौरभ, यह अंगूठी तुम्हें उपहार में दे रहा है. मां को भी क्यों नहीं बताया कि लाख मना करने पर भी सौरभ ने अंगूठी नहीं ली.

‘‘अगर तुम ने ऐसा किया होता तो फिर सौरभ समझ जाता कि उस ने गलत जगह अपनी गोटी डाली है और वह आगे बात न बढ़ाता. जवानी और पैसे के लालच में तुम्हारी मति मारी गई थी. तुम गलत को सही और सही को गलत समझाने लगी थी.

‘‘तुम्हारी मां गहनों में छूट चाहती थीं. हर ग्राहक की चाहत सस्ता खरीदने की होती है, उन की भी थी. लेकिन वे नाजायज कुछ नहीं चाहती थीं. उन्होंने धूप में अपने बाल सफेद नहीं किए हैं. उन को सौरभ की अंगूठी देने के पीछे की मंशा पता चल गई थी, इसीलिए ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह दी थी.

‘‘अब तुम्हारी शादी जिस लड़के से तय हुई है, तुम उस से बात करती. उस के स्वभाव, व्यवहार और चरित्र का पता लगाती. अगर पसंद नहीं आता तो साफ इनकार कर देती. यह एक सही कदम होता. इस के लिए कई लोग तुम्हारी मदद में आगे आ जाते. तुम्हारा आत्मविश्वास बना रहता और मनोबल भी ऊंचा रहता.’’

माधुरी बोली, ‘‘एक गिलास पानी पिला तृप्ति. अब मैं सब समझ गई हूं. कल घर लौट जाऊंगी. मां से बोल दूंगी, आगे की पढ़ाई के लिए सम?ाने मैं तृप्ति के पास आई थी. मां पूछेंगी तो तुम भी यही कह देना.’’

तृप्ति ने कहा, ‘‘कल सुबह मैं चाची को फोन कर के बता दूंगी. सौरभ को अभी तुम बोल दो. अभी वह भी सोया न होगा. बनारस आने की तैयारी में लगा होगा. उस से कहो कि मैं अब गांव लौट रही हूं. मांबाबूजी का दिल दुखाना नहीं चाहती. तुम्हारा घर तोड़ कर किसी की आह नहीं लेना चाहती.

‘‘मुझे पूरा भरोसा है कि सौरभ खुश होगा कि बला उस के सिर से टलेगी.’’

तृप्ति ने सच ही कहा था. सौरभ अभी जाग रहा था और थोड़ी देर पहले ही मुंबई वाले अपने दोस्त से कहा था, ‘यार, अब इस बला को तुम संभालो. वह सुंदर है. खर्च करोगे तो तुम्हारी हो जाएगी. जब मन भर जाएगा तो कुछ दे कर उस के गांव वाली ट्रेन पर बिठा देना. अब मुझे एक दूसरी मिल गई है.’

सौरभ ने एक छोटा सा जवाब दिया था, ‘जैसी तुम्हारी इच्छा. मैं रिजर्वेशन कैंसिल करा देता हूं.’

माधुरी का मन अब हलका था, ‘‘तृप्ति, अब एक काम और कर दे. कल क्यों आज ही घर में फोन कर दे. अभी रात के 12 बजे हैं. मांबाबूजी बहुत चिंतित होंगे. मैं चुपके से यहां आ गई हूं.’’

‘‘अच्छा, बोलती हूं…’’ तृप्ति माधुरी की मां को समझ रही थी, ‘‘चिंता न करें आंटीजी. माधुरी मेरे पास आ गई है. वह आगे पढ़ना चाहती है. आप ने उस को घर से निकलने पर बंदिश लगा दी थी न, इसलिए… हां, उसे बता कर निकलना चाहिए था… अच्छा प्रणाम, माधुरी सो गई है, कल सुबह बात कर लेगी.’’

फोन कट गया. माधुरी को अपने किए पर पछतावा तो था, पर आगे साजिश में फंसने से बच जाने की खुशी भी थी. साथ ही, अपनी सहेली तृप्ति पर गर्व भी था. दोनों सहेलियां बात करतेकरते सो गईं.

कुछ इस तरह : कैसा था जूही का परिवार

एक बजे जूही ने घर में सोए मेहमानों पर नजर डाली. उस की चाची, मामी और ताऊ व ताईजी कुछ दिनों के लिए रुक गए थे. बाकी मेहमान जा चुके थे. ये लोग जूही और उस की मम्मी कावेरी का दुख बांटने के लिए रुक गए थे.

जूही ने अब धीरे से अपनी मम्मी के बैडरूम का दरवाजा खोल कर झांका. नाइट बल्ब जल रहा था. जूही ने मां को कोने में रखी ईजीचेयर पर बैठे देखा तो उस का दिल भर आया. क्या करे, कैसे मां का दिल बहलाए. मां का दुख कैसे कम करे. कुछ तो करना ही पड़ेगा, ऐसे तो मां बीमार पड़ जाएंगी.

उस ने पास जा कर कहा, ‘‘मां, उठो, ऐसे बैठेबैठे तो कमर अकड़ जाएगी.’’ कावेरी के मुंह से एक आह निकल गई. जूही ने जबरदस्ती मां का हाथ पकड़ कर उठाया और बैड पर लिटा दिया. खुद भी उन के बराबर में लेट गई. जूही का मन किया, दुखी मां को बच्चे की तरह खुद से चिपटा ले और उस ने वही किया.

कावेरी से चिपट गई वह. कावेरी ने भी उस के सिर पर प्यार किया और रुंधे स्वर में कहा, ‘‘अब हम कैसे रहेंगे बेटा, यह क्या हो गया?’’ यही तो कावेरी 20 दिनों से रो कर कहे जा रही थी. जूही ने शांत स्वर में कहा, ‘‘रहना ही पड़ेगा, मां. अब ज्यादा मत सोचो. सो जाओ.’’

जूही धीरेधीरे मां का सिर थपकती रही और कावेरी की आंख लग ही गई. कई दिनों का तनाव, थकान तनमन पर असर दिखाने लगा था. जूही की खुद की आंखों में नींद नहीं थी.

26 वर्षीया जूही, कावेरी और पिता शेखर 3 ही लोगों का तो परिवार था. अब उस में से भी 2 ही रह गईं. 20 दिनों पहले शेखर जो रात को सोए, उठे ही नहीं. सोतेसोते कब हार्टफेल हो गया, पता ही नहीं चला. मांबेटी अकेली उन के जाने के बाद सब काम कैसे निबटाए चली आ रही हैं, वे ही जानती हैं.

रिश्तेदारों को इस दुखद घटना की सूचना देने से ले कर, उन के आने पर सब संभालते हुए जूही भी शारीरिक व मानसिक रूप से थक रही है अब. शेखर एक सफल, प्रसिद्ध बिजनैसमैन थे. आर्थिक स्थिति काफी अच्छी थी. मुंबई के पवई इलाके में उन के इस 4 बैडरूम फ्लैट में अब मांबेटी ही रह गई हैं.

एमबीए करने के बाद जूही काफी दिनों से पिता के बिजनैस में हाथ बंटा रही थी. यह वज्रपात अचानक हुआ था, इस की पीड़ा असहनीय थी. शेखर जिंदादिल इंसान थे. जीवन के हर पल को वे भरपूर जीते थे. परिवार के साथ घूमना उन का प्रिय शौक था. साल में एक बार कावेरी और जूही को ले कर कहीं न कहीं घूमने जरूर जाते थे और अब भी अगले महीने स्विट्जरलैंड जाने के टिकट बुक थे, मगर अब?

जूही के मुंह से एक सिसकी निकल गई. पिता की इच्छाएं, उन के जीने के अंदाज, उनकी जिंदादिली, उन का स्नेह याद कर रुलाई का आवेग फूट पड़ा. मां की नींद खराब न हो जाए यह सोच कर वह बालकनी में जा कर वहां रखी चेयर पर बैठ कर देर तक  रोती रही. अचानक सिर पर हाथ महसूस हुआ, तो वह चौंकी. हाथ कावेरी का था. ‘‘मम्मी, आप?’’

‘‘मु?ो लिटा कर खुद यहां आ गई. चलो, आओ, सोते हैं, 3 बज रहे हैं. अब की बार बेटी को दुलारते हुए कावेरी अपने साथ ले गई. 20 दिनों से यही तो चल रहा था. कभी बेटी मां को संभाल रही थी, कभी मां बेटी को.

दोनों ने लेट कर सोने की कोशिश करते हुए आंखें बंद कर लीं. कुछ ही दिनों में बाकी मेहमान भी चले गए. मांबेटी अकेली रह गईं. घर का सूनापन, हर तरफ फैली उदासी, घर के कोनेकोने में बसी शेखर की याद. जीना कठिन था पर जीवन है, तो जीना ही था. कावेरी सुशिक्षित थीं. वे पढ़नेलिखने की शौकीन थीं. कुछ सालों से लेखन के क्षेत्र में काफी सक्रिय थीं. उन की कई रचनाएं प्रकाशित होती रहती थीं. लेखन के क्षेत्र में उन की एक खास पहचान बन चुकी थी. शेखर से उन्हें हमेशा प्रोत्साहन मिला था. अब शेखर के जाने के बाद कलम जो छूटा, उस का सिरा पकड़ में ही नहीं आ रहा था.

जूही ने औफिस जाना शुरू कर दिया था. कई शुभचिंतक उसे औफिस में भरपूर सहयोग कर रहे थे. पर घर पर अकेली उदास मां की चिंता उसे दुखी रखती. जूही ने एक दिन कहा, ‘‘मां, कुछ लिखना शुरू करो न. कुछ लिखोगी, तो ठीक रहेगा, मन भी लगेगा.’’

‘‘नहीं, मैं अब लिख नहीं पाऊंगी. मेरे अंदर तो सब खत्म हो गया है. लिखने का तो कोई विचार आता ही नहीं.’’

जूही मुसकराई, ‘‘कोई बात नहीं, कई राइटर्स कभीकभी नहीं लिख पाते. होता है ऐसा. ठीक है, ब्रेक ले लो.’’ फिर एक दिन जूही ने कहा, ‘‘मां, टिकट बुक हैं, हम दोनों चलें स्विटजरलैंड?’’

कावेरी को ?ाटका लगा. ‘‘अरे नहींनहीं, सोचा भी कैसे तुम ने? तुम्हारे पापा के बिना हम कैसे जाएंगे. घूम लिए जितना घूमना था,’’ कह कर कावेरी सिसक पड़ी. जूही ने मां के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘मां, सोचो, पापा का सपना था वहां जाने का, हम वहां जाएंगे तो लगेगा पापा की इच्छा पूरी कर रहे हैं. वे जहां भी हैं, हमें देख रहे हैं. मैं तो यही महसूस करती हूं. आप को नहीं लगता, पापा हमारे साथ ही हैं? मैं तो औफिस में भी उन की उपस्थिति अपने आसपास महसूस करती हूं, दोगुने उत्साह के साथ काम में लग जाती हूं. चलो न मां, हम घूम कर आएंगे.’’

कावेरी ने गंभीरतापूर्वक फिर न कर दिया. पर अगले दोचार दिन जूही के लगातार सकारात्मक सु?ावों और स्नेहभरी जिद के आगे कावेरी ने हां में सिर हिलाते हुए, ‘‘जैसी तुम्हारी मरजी, तुम्हारे लिए यही सही’’ कहा, तो जूही उन से लिपट गई, बोली, ‘‘बस मां, अब सब मेरे ऊपर छोड़ दो.’’

जूही की मौसी गंगा का बेटा अजय पेरिस में अपनी पत्नी रीमा के साथ रहता था. जूही अब लगातार अजय से संपर्क कर सलाह करती रही. जिस ने भी सुना कि दोनों घूमने जा रही हैं, हैरान रह गया. कुछ लोगों ने मुंह बनाया, व्यंग्य किए. पर वहीं, कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने खुल कर मांबेटी के इस फैसले की प्रशंसा की. जूही को शाबाशी दी कि वह अपना मनोबल, आत्मविश्वास ऊंचा रखते हुए अपनी मां को कुछ बदलाव के लिए बाहर ले कर जा रही है.

उन लोगों का कहना था कि अच्छा है, दोनों घूम कर आएंगी, इतना बड़ा वज्रपात हुआ है, दोनों कुछ उबर पाएंगी.

इतनी प्रतिभावान मां हिम्मत छोड़ कर ऐसे ही दुख में डूबी रही तो क्या होगा मां का, कैसे मन लगेगा, जूही को इस बात की बड़ी चिंता थी और यह कि जिन किताबों में मां रातदिन डूबी रहती थीं, अब उन की तरफ देख भी नहीं रही थीं. बस, चुपचाप बैठी रहती थीं. इस ट्रिप से मां का मन जरूर बदलेगा. घर में तो हर समय कोई न कोई शोक प्रकट करने आता ही रहता था. वही बातें बारबार सुन कर कैसे इस मनोदशा से निकला जा सकता है. यही सब जूही के दिमाग में चलता रहता था.

शेखर का टिकट तो बहुत भारीमन से जूही कैंसिल करवा चुकी थी. औफिस का काम अपने मित्रों, सहयोगियों पर छोड़ कर जूही और कावेरी ट्रिप पर निकल गईं.

मुंबई से साढ़े 3 घंटे में कतर पहुंच कर वहां 2 घंटे रुकना था. जूही पिता को याद करते हुए उन की बातें करने में न हिचकते हुए कावेरी से उन की खूब बातें करने लगी कि पापा को ट्रैवलिंग का कितना शौक था. हर जगह का स्ट्रीटफूड ट्राई करते थे. हम भी ऐसा ही करेंगे. कावेरी भी धीरेधीरे सब याद करते हुए मुसकराने लगी तो जूही को बहुत खुशी हुई. फ्लाइट चेंज कर के दोनों साढ़े 7 घंटे में जेनेवा पहुंच गए.

जूही ने कहा, ‘‘मां, यहां रुकेंगे. ‘लेक जेनेवा’ पास से देखेंगे. पापा ने बताया था, उन्होंने डिस्कवरी चैनल में देखा था एक बार, लेक से एक तरफ स्विटजरलैंड, एक तरफ फ्रांस दिखता है. वहां ‘लोसान टाउन’ है जहां से ये दोनों दिखते हैं. वहीं ‘लेक जेनेवा’ के सामने किसी होटल में रह लेंगे.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम ने सोचा है, सब जानकारी ले ली है न?’’

‘‘हां, मां, अजय भैया के लगातार संपर्क में हूं.’’ रात होतेहोते बर्फ से ढके पहाड़ों पर लाइट दिखने लगी. जूही ने उत्साहपूर्ण कांपती सी आवाज में कहा, ‘‘मां, वह देखो, वह फ्रांस है.’’ होटल में रूम ले कर सामान रख कर फ्रैश होने के बाद दोनों ने कुछ खाने का और्डर किया, थोड़ा खापी कर दोनों बार निकल आईं.

लेक के आसपास कईर् परिवार बैठ कर एंजौय कर रहे थे. शेखर की याद शिद्दत से आई. कावेरी वहां के माहौल पर नजर डालने लगी. सब कितने शांत, खुश, बच्चे खेल रहे थे. आसपास काफी चर्च थे. चर्च की घंटियों की आवाज कावेरी को बड़ी भली सी लगी.

दोनों अगले दिन लोसान घूमते रहे. कैथेड्रल्स, गार्डंस, म्यूजियम बहुत थे. वहां दोनों 2 दिन रुके. वहीं एक जगह मूवी ‘दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे’ की शूटिंग हुई थी. कावेरी अचानक हंस पड़ी, ‘‘जूही, याद है न, तुम्हारे पापा ने यह मूवी 4 बार देखी थी. टीवी पर तो जब भी आती थी, वे देखने बैठ जाते थे. यही सब तो उन्हें यहां देखना था, आज यह जगह देख कर वे बहुत खुश होते.’’

‘‘वे देख रहे हैं यह जगह हमारे साथ, जो हमेशा दिल में रहते हैं. वे दूर कहां हैं,’’ जूही बोली थी.

कावेरी मुसकरा दी, ‘‘मेरी मां बनती जा रही हो तुम. मेरी मां होती तो वे भी मु?ो यही सम?ातीं. सच ही कहा गया है कि बेटी बड़ी हो जाए तो भूमिकाएं बदल जाती हैं.’’

दोनों वहां से फिर ‘इंटरलेकन’ चली गईं. वहां जा कर तो दोनों का मन खिल उठा. वहां बड़ा सा पहाड़ था. 2 लेक के बीच की जगह को इंटरलेकन कहा जाता है. सुंदर सी लेक. अचानक जूही जोर से हंस पड़ी, ‘‘मां, उधर देखो, कितने सारे हिंदी के साइन बोर्ड.’’

‘‘वाह,’’ कावेरी भी वहां हिंदी के साइनबोर्ड देख कर आश्चर्य से भर उठी. वहां से दोनों 2 घंटे का सफर कर खूबसूरत ‘टौप औफ यूरोप’ देखने गईं जो पूरे साल बर्फ से ढका रहता है. वहां से वापस आ कर आसपास की जगहें देखीं. वहां का कल्चर, खानपान का आनंद उठाती रहीं. वहां उन्हें थोड़ा जरमन कल्चर भी देखने को मिला.

ट्रिप काफी रोमांचक और खूबसूरत लग रहा था. दोनों को कहीं कोई परेशानी नहीं थी. दोनों हर जगह फैले प्राकृतिक सौंदर्य को जीभर कर एंजौय कर रही थीं. पूरी ट्रिप के अंत में उन्हें 2 दिन के लिए अजय के घर भी जाना था. अजय सब बता ही रहा था कि अब कहां और कैसे जाना है.

फिर अजय की सलाह पर दोनों वहां से

इटली में ‘ओरोपा सैंचुरी’ चले गए, जो पहाड़ों में ही है. वहां बहुत ही पुराने चर्च हैं, जहां जीसस के हर रूप को बहुत ही अनोखे ढंग से दिखाया गया है. जीसस का साउथ अफ्रीकन और डार्क जीसस और मदर मैरी का अद्भुत रूप देख कर दोनों दंग रह गईं. इंग्लिश नेस थीं. बहुत सारी धर्मशालाएं थीं. बहुत ही अद्भुत, रोमांचक अनुभव था यह.

फोन का नैटवर्क नहीं था तो हर जगह शांति थी व इतनी सुंदरता कि कावेरी ने अरसे बाद मन को इतना शांत महसूस किया. आसपास सुंदर झलों की आवाज, प्रकृतिप्रदत्त सौंदर्य को आत्मसात करती कावेरी जैसे किसी और ही दुनिया में पहुंच गई थी. अगले दिन एक नन दोनों को ग्रेवयार्ड दिखाने ले गई.

जूही अब तक? इस नन से काफी बातें कर चुकी थी. अपने पिता की मृत्यु के बारे में भी बता चुकी थी. नन काफी स्नेहिल स्वभाव की थी. वहां पहुंच कर नन की शांत, गंभीर आवाज गूंज रही थी, ‘बस, यही सच है. जीवन का सार यही है. यही होना है. एक दिन सब को जाना ही है. बस, यही कोशिश करनी चाहिए कि कुछ ऐसा कर जाएं कि सब के पास हमारी अच्छी यादें ही हों. जितना जीवन है, खुशी से जी लें, पलपल का उपयोग कर लें. दुखों को भूल आगे बढ़ते रहें.’’ नन तो यह कह कर थोड़ा आगे बढ़ गई. कावेरी को पता नहीं क्या हुआ, वह अद्भुत से मिश्रित भावों में भर कर जोरजोर से रो पड़ी.

नन ने वापस आ कर कावेरी का कंधा थपथपाया और फिर आगे बढ़ गई. जूही भी मां की स्थिति देख सिसक पड़ी. पर जीभर कर रो लेने के बाद कावेरी ने अचानक खुद को बहुत मजबूत महसूस किया. खुद को संभाला, अपने और जूही के आंसू पोंछे. जूही को गले लगा कर प्यार किया और मुसकरा दी.

जूही अब हैरान हुई, ‘‘क्या हुआ, मां, आप ठीक तो हैं न?’’

‘‘हां, अब बिलकुल ठीक हूं, चलें?’’ दोनों आगे चल दीं.

जूही ने मां की ऐसी शांत मुद्रा बहुत दिनों बाद देखी थी, कहा, ‘‘मां, बहुत थक गई, आज जल्दी सोऊंगी मैं.’’

‘‘तुम सोना, मुझे कुछ काम है.’’

‘‘क्या  काम, मां?’’ जूही फिर हैरान हुई.

‘‘आज ही रात को नई कहानी में इस ट्रिप का अनुभव लिखना है न.’’

‘‘ओह, सच मां?’’ जूही ने मां के गाल चूम लिए.

एकदूसरे का हाथ पकड़ शांत मन से दोनों ने कुछ इस तरह से आगे कदम बढ़ा दिए थे कि नन भी पीछे मुड़ कर उन्हें देख मुसकरा दी थी.

बरबादी : एक थप्पड़ की चुकाई भारी कीमत

जब गीदड़ की मौत आती है, तो वह शहर की ओर भागता है और जब किसान की बरबादी आती है, तो वह अपने खेत बेचता है.

कर्णपुर के चौधरी राजपाल सिंह और महिपाल सिंह दोनों सगे भाई 40 बीघा जमीन के खुशहाल काश्तकार थे. खेतीबारी की सब सुखसुविधाएं उन के पास थीं और जमीन भी उन की ऐसी कि सोना उगले.

बड़ा भाई राजपाल जितना सीधा, सरल और मेहनती था, छोटा भाई महिपाल उतना ही मक्कार और कामचोर था.

राजपाल को तो खेती करने के अलावा किसी और बात की कोई सुध ही नहीं थी. वह निपट अनपढ़ था. उसे तो हिसाबकिताब से दूरदूर तक का कोई मतलब ही नहीं था. ऐसा लगता था कि वह मिट्टी का बना है और उसे खेती में ही मरखप जाना है.

राजपाल का दैनिक खर्चा बस इतना सा था कि उसे दिनभर के लिए बीड़ी का एक बंडल चाहिए होता था. उसे तो बस यह चिंता रहती थी कि उस के खेतों में बढ़िया फसल कैसे हो. इस को ले कर उस की दूसरे किसानों से प्रतियोगिता चलती रहती थी.

छोटा भाई महिपाल 10वीं जमात तक पढ़ गया था. वह खेती की तरफ नजर भी नहीं धरता था. पिताजी के गुजर जाने के बाद लिखतपढ़त और हिसाबकिताब के सारे काम उस के हिस्से में आ गए थे. सुबह से ही तैयार हो कर वह किसी न किसी बहाने शहर चांदपुर की ओर निकल जाता, थिएटर में सिनेमा देखता, खातापीता, मौज उड़ाता और देर शाम घर लौटता. घर लौट कर ऐसा जाहिर करता कि शहर में न जाने कितने पहाड़ तोड़ कर आया है.

सब जानते थे कि राजपाल तो महिपाल का गुलाम है. चौधरी खानदान की पूरी जायदाद का असली वारिस तो महिपाल ही है. 40 बीघा जमीन के मालिक होने की मुहर महिपाल पर ही लगी हुई थी, इसलिए उस के लिए शादी के रिश्ते खूब आ रहे थे.

जाट समाज के चौधरी किसी की जोत की जमीन को ही उस की अमीरी की निशानी मानते हैं. महिपाल की शादी भी एक बड़े चौधरी की बेटी के संग धूमधाम से हो गई. बड़े भाई राजपाल को इस शादी से रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ा. उस की शादी तो पहले ही ‘खेतीबारी’ से हो गई थी.

वैसे भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों में पांडवों के समय से यह प्रथा चली आ रही थी कि हर जाट परिवार में एक भाई कुंआरा जरूर रहता था. इस की वजह जोत की जमीन को बंटने से बचाना होती थी. ज्यादातर यह भाई छोटा होता था, जो अपने किसी एक बड़े भाई और भाभी के साथ रहने लगता था. उस के मरने के बाद उस जमीन पर उसी बड़े भाई का हक मान लिया जाता था.

लेकिन यहां मामला कुछ उलटा हो गया था. यहां बड़ा भाई कुंआरा था, जो अपने छोटे भाई की पत्नी के साथ नहीं रह सकता था. छोटे भाई की पत्नी के आ जाने पर राजपाल का हवेली के अंदर आनाजाना भी तकरीबन बंद हो गया था. वह बाहर वाली बैठक में ही रहने लगा था.

एक दिन महिपाल का अपने पड़ोसी सतेंद्र से झगड़ा हो गया. बात बढ़ने पर महिपाल ने सतेंद्र के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया. अब तो दोनों परिवार लट्ठ ले कर आमनेसामने आ गए, लेकिन सतेंद्र के पिता राजेंद्र सिंह एक अनुभवी और शातिर इनसान थे. उन्होंने हाथ जोड़ कर और माफी मांग कर झगड़ा खत्म कराया.

सतेंद्र को अपने पिता की यह बात बहुत अखरी. उसे तो थप्पड़ का बदला लेना था, इसलिए वह अपने पिता पर ही लालपीला होने लगा, ‘‘बाबूजी, आप को दुशमनों से माफी मांगने की क्या जरूरत थी. मैं तो अकेला ही दोनों भाइयों के सिर फोड़ देता.’’

‘‘सतेंद्र, तू सिर तो फोड़ देता, फिर जेल कौन जाता? पुलिस के डंडे कौन खाता? मुकदमा कौन लड़ता? रोज कचहरी के चक्कर कौन लगाता? वकीलों की भारी फीस कौन भरता? ये ही रास्ते तो बरबादी की ओर ले जाते हैं. इस में किसानों के खूड़ (जमीन) तक बिक जाते हैं.’’

‘‘लेकिन पिताजी, आप ने तो उन से माफी मांग कर हमारी नाक ही कटवा दी.’’

‘‘बेटा, होश में आओ. ठंडे दिमाग से काम लो. तेरे लगे थप्पड़ का बदला मैं महिपाल की बरबादी से लूंगा. बस, तू अब देखता जा. उसे नंगाभूखा कर के न छोड़ा तो कहना.’’

राजेंद्र सिंह को पता था कि महिपाल कुछ करताधरता तो है नहीं, बस अपने बड़े भाई राजपाल की मेहनत पर ऐश करता है. अगर राजपाल की शादी करा दी जाए और दोनों भाइयों का बंटवारा हो जाए, तो महिपाल खुद घुटनों पर आ जाएगा.

इस के लिए राजेंद्र सिंह ने राजपाल से नजदीकियां बढ़ानी शुरू कीं और उस के साथ उठनाबैठना शुरू किया, फिर उसे अपने विश्वास में लिया और शादी करने के लिए तैयार किया.

राजेंद्र सिंह की रिश्तेदारी में एक लड़की थी, जिस के अनपढ़ और सांवली होने के चलते शादी होने में दिक्कत आ रही थी. राजेंद्र सिंह ने दोनों तरफ से ऐसा टांका भिड़ाया कि बात बन गई.

कुछ नानुकर के बाद छोटे भाई महिपाल को भी इस शादी के लिए ‘हां’ करनी पड़ी. आखिर वह अपने ही बड़े भाई की शादी का विरोध कब तक और कैसे करता?

राजपाल की शादी होते ही सबकुछ 2 हिस्सों में बंट गया, हवेली से ले कर खेती की जमीन तक. शादी के बाद राजपाल और महिपाल में तनातनी भी रहने लगी. गांव में ऐसा कौन सा बंटवारा हुआ है, जिस में दोनों पक्ष संतुष्ट हो जाएं. राजेंद्र सिंह यही तो चाहते थे.

बंटवारे के बाद महिपाल को परेशान देख सतेंद्र ने अपने पिता से कहा, ‘‘बाबूजी, आप ने तो कमाल ही कर दिया. आप तो लोमड़ी से भी ज्यादा होशियार निकले.’’

राजेंद्र सिंह ने कुटिलता से मुसकरा कर कहा, ‘‘बेटा, अभी तू देखता जा. उस महिपाल को एक थप्पड़ की कीमत कितनी भारी चुकानी पड़ेगी.’’

महिपाल को खेतीबारी का काम तो आता नहीं था, वह तो अपने बड़े भाई राजपाल की मेहनत पर मौज उड़ाता आ रहा था. खुद खेती करना उस के बूते की बात नहीं थी. अपने हिस्से की 20 बीघा जमीन उस ने बंटाई पर दे दी. पहले वह 40 बीघा जमीन की कमाई खा रहा था, अब 20 बीघा जमीन का भी केवल बंटाई का आधा हिस्सा मिल रहा था. उस की आमदनी बंटवारे के बाद केवल एकचौथाई रह गई थी.

महिपाल को पहले से ही शहर की लत लगी हुई थी. उस ने सोचा कि जोड़े हुए पैसे से क्यों न चांदपुर शहर में दुकान खोल ली जाए. दुकान पर बस बैठना ही तो होता है, करनाधरना कुछ खास नहीं. उस ने शहर के बाहरी इलाके में एक दुकान किराए पर ले ली और उस में परचून की दुकान खोल ली. दुकान बढि़या चल निकली, तो महिपाल अपने परिवार को भी शहर में ले आया.

दुकान और मकान का किराया अच्छाखासा था. उस ने सोचा कि गांव में तो अब रहना नहीं, फिर क्यों न गांव की हवेली का अपना हिस्सा बेच दिया जाए. उस ने वह हिस्सा राजपाल को ही बेच दिया.

परिवार के शहर में आने के बाद तो महिपाल के पैर दुकान पर टिकते न थे. पुरानी आदतें उस की गई नहीं थीं. पत्नी और बच्चों के साथ महिपाल कभी फिल्म देखने, कभी शहर घूमने और कभी किसी नई जगह की ओर निकल जाता. वह हरिद्वार में एक बाबा का शिष्य भी बन गया था. बाबा के कहने पर उस ने बाबा के आश्रम के बनने में 2 लाख रुपए भी दिए थे.

कुछ दिनों के बाद महिपाल की दुकान के बराबर में एक बनिए ने भी अपनी परचून की दुकान खोल ली. बनिया कारोबार करने में माहिर था. वह दुकान पर जम कर बैठता था. उस ने महिपाल के जमेजमाए ग्राहक तोड़ने शुरू कर दिए. उस ने ग्राहकों के लिए ‘होम डिलीवरी’ भी शुरू कर दी.

महिपाल को कारोबार के ये दांवपेंच नहीं आते थे. वह अपनी चौधराहट के अहम में ‘होम डिलीवरी’ जैसे काम नहीं कर सकता था. बनिए की दुकान के सामने धीरेधीरे महिपाल की दुकान बैठने लगी.

कम आमदनी होने पर महिपाल ने परचून की दुकान ही बंद कर दी. अपनी दुकान का परचून का सामान भी उसी बनिए को बेच दिया. उस का संबंध चूंकि गांव से था, इसलिए उस ने सोचा कि उस के लिए कृषि यंत्रों और हार्डवेयर की दुकान खोलना ठीक रहेगा, लेकिन इस के लिए बड़ी रकम की जरूरत थी, तो उस ने अपनी 5 बीघा जमीन भी बेच दी.

दुकान तो ठीक थी, लेकिन बड़ी समस्या यह थी कि किसान सामान उधार मांगते थे और गन्ने की फसल आने पर उधार चुकाने की बात करते थे. मजबूर हो कर महिपाल को उधार देना पड़ा, लेकिन गन्ने की फसल आने पर भी किसान उधार चुकाने में आनाकानी करते थे. कई तो दुकान की तरफ आना ही छोड़ देते थे और फोन भी नहीं उठाते थे. उधारी ने महिपाल की दुकान का भट्ठा बैठाना शुरू कर दिया.

ऐसे समय में ही एक दिन राजेंद्र सिंह उस की दुकान पर आए. महिपाल तो पुरानी बातों को पहले ही भुला चुका था. एकदूसरे का हालचाल जानने के बाद दोनों में बातें होने लगीं.

‘‘चाचा, लगता है कि कारोबार करना अपने बस की बात नहीं है.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ महिपाल?’’

तब महिपाल ने अपनी सारी दास्तान राजेंद्र सिंह को बता दी. वे उस की परेशानी की बात सुन कर मन ही मन बड़े खुश हुए, लेकिन बाहर से ऐसा दिखावा किया जैसे बड़े दुखी हों.

तभी राजेंद्र सिंह को अपने बेटे सतेंद्र के गाल पर लगे थप्पड़ की याद आई. तब उन्होंने महिपाल की बरबादी के ताबूत में आखिरी कील ठोंकते हुए कहा, ‘‘महिपाल, तेरी गलती यह है कि तू दो नावों पर सवार है. गांव में भी अभी तेरी जमीन है और शहर में भी तू पैर जमाने की कोशिश कर रहा है.’’

‘‘फिर क्या करूं चाचा?’’

‘‘मैं तो कहता हूं महिपाल कि तू यह दुकान का चक्कर छोड़ और एक डेरी खोल ले. हम गांव वाले दुकान के बजाय यह काम आसानी से संभाल सकते हैं. हमें गायभैंस पालना भी आता है और दूध का काम तो हम आसानी से कर ही लेते हैं.’’

‘‘लेकिन चाचा, शहर में डेरी खोलने के लिए तो बहुत ज्यादा जमीन चाहिए.’’

‘‘देख महिपाल, कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना पड़ता ही है. ऐसा कर गांव की जमीन बेच कर शहर में जमीन खरीद ले और फिर डेरी खोल कर मालामाल हो जा. वहीं पर अपनी शानदार कोठी भी बना लेना. किराए के मकान में कब तक रहता रहेगा… अपना मकान होगा, अपनी डेरी होगी, नौकरचाकर होंगे, तो शहर में भी तेरा रुतबा गांव जैसा ही हो जाएगा.’’

‘‘चाचा, आप कह तो बिलकुल सही रहे हो. किराए का मकान और दुकान बड़े महंगे पड़ते हैं. अपनी जगह का कम से कम किराया तो नहीं देना पड़ता. मैं आप की सलाह पर जरूर विचार करूंगा.’’

‘‘विचार करना छोड़ बेटा, अमल कर, अमल,’’ यह कह कर राजेंद्र सिंह मुसकराते हुए और यह सोचते हुए चल दिए, ‘महिपाल, गांव से तो तू उजड़ेगा ही और शहर में भी तू बस नहीं पाएगा. अब तुझे पूरी तरह बरबाद होने से कोई नहीं रोक सकता.’

लेकिन महिपाल को तो राजेंद्र सिंह की बात जम गई. वह तो सुनहरे सपनों में खो गया. उस ने दुकान में रखे कृषि यंत्र और हार्डवेयर का सामान सस्ते दामों पर एक बनिए को बेच दिया. अब वह अपनी बची हुई 15 बीघा जमीन भी बेचने की जुगाड़ में लग गया.

राजपाल और उस के दूसरे हमदर्दों ने उसे खेती की जमीन न बेचने की सलाह दी, लेकिन महिपाल पर तो राजेंद्र सिंह की बातों का ऐसा रंग चढ़ा था कि उस पर लाख कोशिश करने पर भी कोई और रंग चढ़ नहीं सकता था. 15 बीघा जमीन में से 10 बीघा जमीन तो खुद राजेंद्र सिंह ने खरीदी और 5 बीघा जमीन राजपाल ने.

जमीन बेचने से महिपाल के हाथ में एक बड़ी रकम आई. लेकिन इस के बदले जब वह शहर में डेरी के लिए जमीन खरीदने निकला, तो वहां की जमीन की कीमत सुन कर उस के होश फाख्ता हो गए. लेकिन बढ़े कदम अब पीछे नहीं खींचे जा सकते थे. गांव की बीघे की जमीन यहां गज में बदल गई.

जमीन खरीदने और मकान बनाने में ही महिपाल की दोतिहाई रकम खर्च हो गई. कुछ रकम उस ने अपने खर्चे और मौजमस्ती में उड़ा दी. तब वह डेरी के लिए बड़ी मुश्किल से 3 भैंस और 2 गाय खरीद पाया.

लेकिन महिपाल को अंदाजा नहीं था कि डेरी खोलना टेढ़ी खीर है. उसे चारा लाने और गायभैंस की देखभाल के लिए 24 घंटे का एक महंगा नौकर भी रखना पड़ा. वह और उस की पत्नी भी दिनरात डेरी के ही काम में लगे रहते. दूध के काम से उन्हें सवेरे जल्दी उठना पड़ता और रात को भी सोने में देर हो जाती. चारे की महंगाई सिर चढ़ कर बोल रही थी. चारे के अलावा भी डेरी के अनेक खर्चे थे, जिन का महिपाल को तनिक भी एहसास नहीं था.

डेरी का काम कर के महिपाल 2-3 साल में ही हांफ गया. दूध से गायभैंस भागती तो दूसरी खरीदनी उस के लिए भारी पड़ जाती. उधर बच्चे बड़े हो गए थे. बड़ी बेटी शीला के लिए एक अच्छा लड़का मिला, तो महिपाल ने अपनी मूंछ ऊंची रखने के लिए डेरी वाली जमीन बेच कर उस की शादी में खूब दहेज दिया और बरातियों की शानदार आवभगत की.

अब महिपाल के पास केवल मकान बचा था. दोनों बेटे नकुल और विकुल ध्यान न देने की वजह से बिगड़ गए थे. नकुल ने किसी तरह बीए कर लिया था. उस की नौकरी लगवाने के चक्कर में महिपाल दलालों के चंगुल में फंस गया. वे नकुल की नौकरी लगवाने के लिए 15 लाख रुपए मांग रहे थे. मरता क्या न करता, महिपाल ने मकान बेच कर दलालों को पैसे थमा दिए.

दलालों ने दिल्ली में किराए पर एक औफिस खोल रखा था. नकुल को उन्होंने 1-2 महीने अफसर बना कर उस औफिस में बैठाया और अच्छीखासी तनख्वाह दी, फिर उसे वहां से भगा दिया.

किराए के मकान में महिपाल बिना किसी आमदनी के कितने दिन रहता. थकहार कर और मूंछें नीची कर के उस ने एक ठेकेदार के यहां मुनीम की नौकरी शुरू कर दी.

नकुल बेरोजगार हो कर आवारा किस्म के लड़कों की संगत में उठनेबैठने लगा और नशे का शिकार हो गया. छोटा बेटा विकुल किसी लड़की के चक्कर में पड़ गया था. अपनी प्रेमिका को महंगा गिफ्ट देने के लिए वह मोबाइल चोरी करने लगा और एक दिन पुलिस द्वारा पकड़ लिया गया.

महिपाल ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि गांव की जमीन बेच कर उस की ऐसी बरबादी होगी. दोनों ही बेटे नालायक निकल जाएंगे. उसे लगने लगा कि वह दिल का मरीज बनता जा रहा है.

एक दिन महिपाल दिल के डाक्टर के पास पहुंचा, तो डाक्टर ने जांच करने के बाद बताया, ‘‘महिपालजी, आप तो दिल के मरीज हो चुके हैं. आप को जल्दी ही दिल का आपरेशन करवाना होगा.’’

महिपाल पर घर चलाने लायक पैसा था नहीं, वह दिल का आपरेशन क्या कराता. उस ने यह बात अपने परिवार से भी छिपा कर रखी. एक दिन घर में कुरसी पर बैठेबैठे ही उस की गरदन पीछे को लुढ़क गई. उस की पत्नी और बेटों के पास अब उस के अंतिम संस्कार करने के लिए भी पैसे नहीं थे.

उस के क्रियाकर्म के लिए राजपाल और कुछ गांव वाले ट्रैक्टरट्रौली में बैठ कर आए. उन्होंने मिलजुल कर उस के अंतिम संस्कार का इंतजाम किया. इस काम में राजेंद्र सिंह ने भी हाथ बंटाया.

महिपाल की अर्थी उठाने वालों में सब से आगे राजेंद्र सिंह और उन का बेटा सतेंद्र था. दोनों महिपाल की अर्थी उठाए हुए एकदूसरे की ओर देख कर मुसकरा रहे थे. महिपाल की बरबादी के काफिले को राजेंद्र सिंह ने आखिरी मुकाम पर पहुंचा दिया था. इस का एहसास किसी को भी नहीं था कि एक थप्पड़ की कीमत इतनी बड़ी और भारी हो सकती है.

पुराना कोट : संतोख ने क्यों बेची अमानत

कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. चौकचौराहों पर लोग अलाव जला कर आग ताप रहे थे. रविवार का दिन था और विरेश के औफिस की छुट्टी थी. वह घर पर बैठा चाय पी रहा था कि उस की पत्नी शैली ने उस से कहा, ‘‘आज शौपिंग करने चलते हैं. आप के लिए एक कोट खरीद दूंगी. कितनी सर्दी पड़ रही है.’’

‘‘लेकिन, मेरे पास कोट तो है ही. मुझे इस की जरूरत नहीं है,’’ विरेश ने कहा.

‘‘अरे, वही पुराना ब्लैक कोट. उसे 3-4 सालों से पहन रहे हैं आप. इस बार ब्राउन रंग का कोट आप के लिए पसंद कर दूंगी. आप पर खूब जंचेगा,’’ पत्नी शैली ने मुसकरा कर कहा. विरेश ने आखिर पत्नी की बात मान ली.

शाम को शैली शौपिंग के लिए तैयार हो गई थी. शैली की खूबसूरती का क्या कहना, मेकअप ने उस का रूप और निखार दिया था. उस ने इतनी कंपकंपाती ठंड में भी हलकाफुलका सलवारकमीज ही पहना था. अलबत्ता, होंठों पर हलकी चौकलेटी लिपस्टिक लगाई थी, जिसे देख कर विरेश का दिल प्यार करने के लिए मचल उठा था.

‘‘किस पर बिजली गिराने का इरादा है?’’ विरेश ने चुटकी ली.

‘‘इस सर्दी में मेरे हुस्न की थोड़ी गरमी जरूरी है, नहीं तो आप को ठंड लग सकती है,’’ शैली ने मनमोहक अंदाज में हंस कर कहा.

विरेश ने उसे भरपूर नजर से निहारते हुए कहा, ‘‘लड़कियों और औरतों को क्या ठंड नहीं लगती है? चाहे कितनी भी सर्दी क्यों न पड़ रही हो, वे कम कपड़ों में ही घर से बाहर शौपिंग करने चली जाती हैं. उन पर ठंड का कोई असर नहीं होता है क्या?’’

‘‘अगर हम ठंड की परवाह करेंगी, तो अपना फैशन और हुस्न की नुमाइश कैसे करेंगी…’’ शैली ने विरेश को प्यार से समझाया.

विरेश और शैली प्यारभरी बातें करते हुए एक बड़े शोरूम में आ गए थे. शैली ने विरेश के लिए एक ब्राउन कलर का कोट पसंद कर दिया था, जिसे पहन कर विरेश वाकई स्मार्ट दिख रहा था.

बाजार में शैली ने अपनी पसंद की पापड़ी चाट खाई. वे दोनों 1-2 घंटे के बाद घर लौट आए थे.

रात के 11 बज रहे थे. दिन से ज्यादा रात में ठंड पड़ रही थी. अपने कमरे में विरेश और शैली रजाई के अंदर दुबक गए थे. अब दोनों एकदूसरे से लिपट कर सर्दी से थोड़ी राहत महसूस कर रहे थे. 2 जवां जिस्म प्यार करने के लिए तड़प उठे थे. जिस्म की आग धीमेधीमे सुलगने लगी थी. विरेश शैली के उभारों को सहलाने लगा.

शैली ने विरेश के होंठों को चूम कर कहा, ‘‘आप शाम से ही रोमांटिक मूड में आ गए थे.’’

‘‘हां, क्यों नहीं. तुम खूबसूरत और सैक्सी जो लग रही थीं. इस ठंडी रात में प्यार करने के लिए मेरा दिल मचल उठा है,’’ विरेश शैली के ऊपर आते हुए बोला.

शैली ने विरेश को जोर से जकड़ लिया. रात में दोनों ने जीभर कर मजे लिए. जब जिस्म की प्यास बुझ गई, तब वे दोनों गहरी नींद में सो गए.

सुबह की कुनकुनी धूप खिली हुई थी. धूप में कुरसी पर बैठा विरेश अखबार पढ़ रहा था. अखबार में खबर छपी थी, ‘ठंड ने कहर बरपाया. 2 लोगों की मौत. शीतलहर का प्रकोप जारी.’

खबर पढ़ कर विरेश सहम गया. तभी रसोईघर से शैली ने किसी काम से विरेश को अपने पास बुलाया, ‘‘मेरा एक काम कर दो.’’

‘‘क्यों नहीं. पर पहले वह नेक काम तो बताओ?’’ विरेश ने कहा.

‘‘वह पुराना ब्लैक कोट किसी गरीब को दे दीजिए. किसी जरूरतमंद का ठिठुरती ठंड से बचाव हो जाएगा. अपनी अलमारी में नए कोट की जगह भी बन जाएगी.’’

विरेश ने कुछ सोचते हुए शैली से कहा, ‘‘संतोख को वह कोट दे देते हैं. वही मजदूर जो ईंटबालू ढोने से ले कर साफसफाई का हमारा काम कर देता है.’’

‘‘ठीक मजदूर है, उसी को वह पुराना कोट दे दीजिएगा,’’ शैली ने अपनी रजामंदी जताई.

दूसरे दिन विरेश वह पुराना कोट ले कर संतोख की झोंपड़ी की तरफ चला गया.

कालोनी में छोटेबड़े मकानों के बीच जो थोड़ी सी जगह बची थी, वहां कुछ मजदूर, मिस्त्री, रिकशे वाले अपनी झोंपड़ी बना कर रहते थे. संतोख भी यहीं रह कर शहर में मजदूरी करता था.

विरेश को संतोख अपनी झोंपड़ी के पास मिल गया था.

‘‘कहिए साहब, कुछ काम है क्या?’’ संतोख हैरानी से विरेश को देखते हुए बोला.

‘‘कोई काम तो अभी नहीं है. बस, यह कोट तुम्हें देने चला आया,’’ विरेश ने कहा.

‘‘अरे साहब, मेरे लिए इतना अच्छा कोट. पूरे जाड़े इसी कोट को पहनूंगा,’’ कहते हुए संतोख ने वह कोट ले लिया.

‘‘संतोख, इस कोट को संभाल कर रखना,’’ कह कर विरेश चला गया.

विरेश घर पर आ गया था. शैली ने पूछा, ‘‘क्या संतोख मिल गया था?’’

‘‘हां, मिल गया था. उसे कोट दे कर आ रहा हूं,’’ विरेश ने कहा.

‘‘हम लोग के हाथों एक बढि़या काम तो हो गया. संतोख जैसे जरूरतमंद को वह कोट जाड़े में बहुत काम आ जाएगा,’’ कह कर शैली घरेलू काम में लग गई.

संतोख सुबह में मजदूरी करने जा रहा था. वह विरेश का दिया हुआ कोट पहने हुए था. उसे रास्ते में मुकेश मिल गया. मुकेश बिजली मिस्त्री था. उस की नजर संतोख के कोट पर पड़ी. उसे संतोख का कोट पसंद आ गया.

मुकेश मन ही मन सोचने लगा कि इस कोट को संतोख से किसी तरह ले लूं, तो इस कंपकंपाती ठंड में बड़ी राहत हो जाएगी.

यह सोच कर मुकेश ने संतोख से कहा, ‘‘संतोख, यह कोट बेचोगे. मैं इसे खरीदना चाहता हूं.’’

संतोख पलभर के लिए सोच में पड़ गया. लेकिन रुपए मिलने के लालच ने उस का ईमान डिगा दिया,’’ मुकेश, तुम इस कोट के कितने रुपए दोगे?’’

‘‘700 रुपए दे दूंगा,’’ मुकेश ने ललचाई नजरों से कोट की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘700 रुपए तो नहीं, 800 रुपए में यह कोट दे दूंगा. अगर मंजूर है, तो बोलो?’’ संतोख ने कहा.

‘‘700 रुपए ही दूंगा, लेकिन 100 रुपए की शाम को शराब की पार्टी कर दूंगा,’’ मुकेश ने कहा.

‘‘ठीक है, यह लो कोट. चलो, अब फटाफट रुपए निकालो.’’

मुकेश ने 700 रुपए जेब से निकाल कर संतोख को दे दिए. संतोख ने कोट उतार कर उसे दे दिया. मुकेश खुशी से कोट ले कर चला गया.

कोट खरीद कर मुकेश ने जाड़े से बचाव का एक रास्ता पा लिया था, वहीं संतोख ने चंद रुपए की खातिर जाड़े में ठंड लगने का खतरा मोल ले लिया था.

शाम हो गई थी. मुकेश संतोख के साथ शराब के ठेके पर पहुंच गया.

उस ने अपने पैसे से शराब की बोतल खरीदी और संतोख के साथ शराब पीने बैठ गया.

एक गिलास के बाद दूसरा गिलास. इस तरह दोनों ने पूरी शराब की बोतल खाली कर डाली. जब संतोख पर नशा हावी हो गया, तब वह बैठने लगा, ‘‘शराब में बहुत गरमी होती है. जाड़े में शराब पीने से देह गरम हो जाती है. इस के पीने से सर्दी बिलकुल नहीं लगती है.’’

मुकेश ने कहा, ‘‘संतोख, तुम ठीक कहते हो. शराब पीने से मजा तो आता ही है, ठंड भी भाग जाती है. शराब पी लो तो ठंड में भी भलेचंगे रहोगे. देह में गरमी और फुरती बनी रहेगी.’’

दोनों नशे में लड़खड़ाते हुए अपने घर चले गए. 2 दिन बाद जब संतोख मजदूरी कर के घर लौटा, तब उस के बदन व सिर में तेज दर्द हो रहा था. उस की बीवी लाजो ने उस का बदन छू कर देखा, ‘‘अरे, आप का बदन तो बहुत गरम लग रहा है. आप को बुखार हो गया है.’’

‘‘मुझे बहुत ठंड लग रही है. जल्दी से मुझे कंबल ओढ़ा दो,’’ संतोख ने मरियल आवाज में कहा. लाजो ने उसे कंबल ओढ़ा दिया.

संतोख ने बुखार में तपते हुए किसी तरह रात बिताई. दूसरे दिन वह डाक्टर के पास गया.

डाक्टर ने संतोख का चैकअप किया, ‘‘तुम को ठंड लग गई है. कुछ दवाएं लिख देता हूं.’’

डाक्टर ने दवाएं परचे पर लिख दीं. डाक्टर ने संतोख से पूछा, ‘‘क्या तुम ने 1-2 दिन पहले शराब पी थी?’’

‘‘हां, डाक्टर साहब,’’ संतोख ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘देखो, उसी शराब ने तुम को बीमार कर दिया. अब कभी शराब मत पीना,’’ कह कर डाक्टर ने इशारे से उसे जाने को कहा. संतोख डाक्टर के चैंबर से बाहर आ गया.

संतोख के जाते ही डाक्टर ने अपने पास बैठे जूनियर डाक्टर को बुलाया, ‘‘शराब गरम होती है. जब कोई शराब पीता है, तो एकाएक उस के बदन में गरमी आ जाती है. लेकिन बाहर तो सर्दी पड़ रही है. सर्दी के असर से ठंड लगने का डर बढ़ जाता है. संतोख के साथ भी यही हुआ?है.’’

‘‘लेकिन, ये लोग मानते कहां हैं. शराब पीना नहीं छोड़ते हैं,’’ जूनियर डाक्टर ने कहा.

4-5 दिन बीत जाने के बाद भी संतोख का मर्ज ठीक होने के बजाय बढ़ता ही गया. महंगी दवाएं खरीदने से घर का खर्च चलाना मुश्किल होने लगा. चारपाई पर पड़े हुए बीमार संतोख ने लाजो से कहा, ‘‘कुछ रुपए विरेश

बाबू से मांग कर ले आओ. उन को बोलना कि ठीक हो जाने पर रुपए वापस कर दूंगा.’’ लाजो बिना देर किए विरेश से रुपए मांगने चली गई.

‘‘विरेश बाबू, संतोख बीमार है. घर का खर्च चलाने के लिए पैसे नहीं है. 500 रुपए मिल जाते तो… बाद में पैसे वापस कर दूंगी,’’ लाजो ने कहा.

‘‘संतोख को हुआ क्या है?’’ विरेश ने कहा.

‘‘उसे ठंड लग गई है,’’ लाजो ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘मैं अभी आता हूं. तुम घर जाओ. रुपए संतोख के हाथ में ही दूंगा और उस से तबीयत का हाल भी पूछ लूंगा,’’ विरेश ने कहा.

विरेश थोड़ी ही देर में संतोख को देखने उस की झोंपड़ी में चला गया, ‘‘कैसी तबीयत है अब? कुछ सुधार लग रहा है?’’ विरेश ने संतोख से पूछा.

‘‘कुछ सुधार नहीं है, साहब. तबीयत बिगड़ती ही जा रही?है,’’ संतोख ने कहा.

‘‘जो कोट दिया था, उसे पहना कि नहीं?’’ विरेश ने पूछा.

संतोख ने कोई जवाब नहीं दिया. वह खामोश ही रहा. तभी उस की बीवी लाजो ने कहा, ‘‘क्या कहूं साहब, संतोख उस कोट को बेच कर दारू पी गया.’’

यह सुन कर विरेश को बहुत बुरा लगा. उस के दिल पर चोट लगी थी.

‘‘ऐसा क्यों किया संतोख. मैं ने कोट इस कड़कड़ाती ठंड में तुम्हें पहनने के लिए दिया था,’’ विरेश ने उदास हो कर कहा.

संतोख कुछ नहीं बोला. उस की आंखों में आंसू छलक आए. विरेश ने उस के हाथ में 5 सौ रुपए रखे और झोंपड़ी से बाहर निकल गया.

घर आ कर विरेश ने शैली को बताया, ‘‘संतोख ने तो वह कोट पहना तक नहीं. उसे ठंड लग गई है. उस कोट को बेच कर वह शराब पी गया.’’

यह सुनते ही शैली संतोख को भलाबुरा कहने लगी, ‘‘ये छोटे लोग होते ही ऐसे हैं. इन को किसी की भलाई नहीं चाहिए. चंद रुपए के लिए हमारा दिया हुआ कोट बेच दिया. वह भी ठेके पर जा कर शराब पीने के लिए. अब बीमार पड़ा है. मरने दीजिए उसे.’’

विरेश खामोश हो कर शैली की बात सुनता रहा. वह कुछ न बोला. शैली अपना गुस्सा संतोख पर उतार चुकी थी.

4-5 दिन बीते थे. विरेश और शैली मार्केट से घर लौट रहे थे. संतोख की झोंपड़ी के पास लोगों की भीड़ लगी हुई थी. झोंपड़ी से संतोख की बीवी लाजो के रोने की आवाजें आ रही थीं. विरेश और शैली किसी अनहोनी के डर से ठिठक कर रुक गए.

विरेश ने वहां खड़े एक शख्स से पूछा, ‘‘क्या बात है? संतोख ठीक तो है न?’’

‘‘संतोख तो मर गया. उस की बीवी लाजो बहुत रो रही है साहब,’’ उस आदमी ने बताया. विरेश और शैली यह सुन कर सन्न रह गए.

सुहानी गुड़िया: सलोनी से अरविंद को क्यों मांगनी पड़ी माफी

आज मेरा जी चाह रहा है कि उस का माथा चूम कर मैं उसे गले से लगा लूं और उस पर सारा प्यार लुटा दूं, जो मैं ने अपने आंचल में समेट कर जमा कर रखा था. चकनाचूर कर दूं उस शीशे की दीवार को जो मेरे और उस के बीच थी. आज मैं उसे जी भर कर प्यार करना चाहती हूं.

मुझे बहुत जोर की भूख लगी थी. भूख से मेरी आंतें कुलबुला रही थीं. मैं लेटेलेटे भुनभुना रही थी, ‘‘यह मरी रेनू भी ना जाने कब आएगी. सुबह के 10 बजने को हैं, पर महारानी का अतापता ही नहीं. यह लौकडाउन ना होता तो ना जाने कब का इसे भगा देती और दूसरी रख लेती. जब इसे काम की जरूरत थी तो कैसे गिड़गिड़ा मेरे पास आई थी और अब नखरे देखो मैडम के.’’

अरविंद सुबहसुबह मुझे चाय के साथ ब्रेड या बिसकुट दे कर दवा खिलाते और खुद दूध कौर्नफ्लैक्स खा कर अस्पताल चले जाते हैं. डाक्टरों की छुट्टियां कैंसिल हैं, इसलिए ज्यादा मरीज ना होने पर भी उन्हें अस्पताल जाना ही पड़ता है.

मैं डेढ़ महीने से टाइफाइड के कारण बिस्तर पर पड़ी हूं. घर का सारा काम रेनू ही देखती है. मैं इतनी कमजोर हो गई हूं कि उठ कर अपने काम करने की भी हिम्मत नहीं होती. पड़ेपड़े न जाने कैसेकैसे खयाल मन में आ रहे थे, तभी सुहानी की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘मां आप जाग रही हैं क्या? मैं आप के लिए चाय बना लाऊं.’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, चाय और दवा तो तेरे बड़े पापा दे गए हैं, पर बहुत जोर की भूख लगी है. रेनू भी ना जाने कब आएगी. कितना भी डांट लो, इस पर कोई असर नहीं होता.’’

सुहानी बोली, ‘‘मां, आप उस पर चिल्लाना मत, आप की तबीयत और ज्यादा खराब हो जाएगी.’’

उस ने टीवी औन कर के लाइट म्यूजिक चला दिया. मैं गाने सुन कर अपना ध्यान बंटाने की कोशिश करने लगी.

थोड़ी ही देर में सुहानी एक प्लेट में पोहा और चाय ले कर मेरे पास खड़ी थी. मैं हैरानी से उसे देख कर बोली, ‘‘अरे, यह क्या किया तुम ने, अभी रेनू आ कर बनाती ना.’’

सुहानी ने बड़े धीमे से कहा, ‘‘मां, आप को भूख लगी थी, इसीलिए सोचा कि मैं ही कुछ बना देती हूं.’’

मेरा पेट सच में ही भूख के कारण पीठ से चिपका जा रहा था, इसलिए मैं प्लेट उस के हाथ से ले कर चुपचाप पोहा खाने लगी. उस ने मुझ से पूछा, ‘‘मां, पोहा ठीक से बना है ना?’’

नमक थोड़ा कम था, पर मैं मुसकरा कर बोली, ‘‘हां, बहुत अच्छा बना है, तुम ने यह कब बनाना सीखा.’’

यह सुन कर उस की आंखों में जो संतोष और खुशी की चमक मुझे दिखी, वह मेरे मन को छू गई.

जब से मैं बीमार पड़ी हूं, मेरे पति और बच्चों से भी ज्यादा मेरा ध्यान सुहानी रखती है. मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह समझ जाती है कि मुझे क्या चाहिए.

मुझे याद आने लगा वह दिन, जब मेरे देवरदेवरानी अपनी नन्ही सी बिटिया के साथ शौपिंग कर के लौट रहे थे. सामने से आती एक तेज रफ्तार कार ने उन की कार में टक्कर मार दी. वे दोनों बुरी तरह घायल हो गए.

देवर ने तो अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही दम तोड़ दिया था और देवरानी एक हफ्ते तक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझने के बाद भगवान को प्यारी हो गई.

अस्पताल में जब अर्धचैतन्य अवस्था में देवरानी ने नन्ही सलोनी का हाथ अरविंद के हाथों में थमाते हुए कातर निगाहों से देखा तो वह फफकफफक कर रो पड़े. उन की मृत्यु के बाद लखनऊ में उन के घर, औफिस, फंड, ग्रेच्युटी वगैरह के तमाम झमेलों का निबटारा करने के लिए लगभग 2 महीने तक अरविंद को लखनऊ में काफी भागदौड़ करनी पड़ी. सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद सलोनी की कस्टडी का प्रश्न उठा.

देवरानी का मायका रायबरेली में 3 भाइयों और मातापिता का सम्मिलित परिवार और व्यवसाय था. वे चाहते थे कि सलोनी की कस्टडी उन्हें दे दी जाए. उन के बड़े भैया बोले, ‘‘सलोनी हमारी बहन की एकमात्र निशानी है, हम उसे अपने साथ ले जाना चाहते हैं.’’

इस पर अरविंद ने कहा कि सलोनी मेरे भाई की भी एकमात्र निशानी है. वहीं अरविंद के पिताजी बोले, ‘‘सलोनी कहीं नहीं जाएगी. मेरे बेटे अनिल की बिटिया हमारे घर में ही रहेगी.”

इस पर देवरानी का छोटा भाई बिगड़ कर बोला, ‘‘मैं अपनी भांजी का हक किसी को नहीं मारने दूंगा. आप लोग मेरे बहनबहनोई की सारी संपत्ति पर कब्जा करना चाहते हैं, इसीलिए सलोनी को अपने पास रखना चाहते हैं.’’

इस विषय पर अरविंद और मांबाबूजी की उन से बहुत बहस हुई. अरविंद और बाबूजी जानते थे कि उन लोगों की नजर मेरे देवर के लखनऊ वाले मकान और रुपयोंपैसों पर थी. सलोनी के नानानानी बहुत बुजुर्ग थे, वे उस की देखभाल करने में सक्षम नहीं थे. अंत में अरविंद ने सब को बैठा कर निर्णय लिया कि अम्मांबाबूजी बहुत बुजुर्ग हैं और गांव में सलोनी की पढ़ाईलिखाई का उचित इंतजाम नहीं हो सकता, इसलिए सलोनी मेरे साथ रहेगी. अनिल का लखनऊ वाला मकान सलोनी के नाम पर कर दिया जाएगा और उसे किराए पर उठा दिया जाएगा. उस का जो भी किराया आएगा, उसे सलोनी के अकाउंट में जमा कर दिया जाएगा.

अनिल के औफिस से मिला फंड वगैरह का रुपया भी सलोनी के नाम से फिक्स कर दिया जाएगा, जो उस की पढ़ाईलिखाई और शादीब्याह में खर्च होगा.

अरविंद के इस फैसले से मैं सहम गई. उस समय तो कुछ न कह पाई, पर अपने 2 छोटे बच्चों के साथ एक और बच्चे की जिम्मेदारी उठाने के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं थी. अभी तक जिस सहानुभूति के साथ मैं उस की देखभाल कर रही थी, वह विलुप्त होने लगी.

मैं ने डरतेडरते अरविंद से कहा, ‘‘सुनिए, मुझे लगता है कि आप को सलोनी को उस के नानानानी को दे देना चाहिए. नानानानी और मामा के बच्चों के साथ वह ज्यादा खुश रहेगी.’’

अरविंद शायद मेरी मंशा भांप गए और मेरे कंधे पर सिर रख कर रो पड़े. कातर नजरों से मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘रंजू, अनिल मेरा एकलौता भाई था. वह मुझे इस तरह छोड़ जाएगा, यह सपने में भी नहीं सोचा था. सलोनी मेरे पास रहेगी तो मुझे लगेगा मानो मेरा भाई मेरे पास है.’’

मैं ने उन्हें जीवन में पहली बार इतना मायूस और लाचार देखा था. वह बच्चों की तरह बिलखते हुए बोले, ‘‘रंजू, मेरे मातापिता और सलोनी को अब तुम्हें ही संभालना है.’’

उन को इतना व्यथित देख मैं ने चुपचाप नियति को स्वीकार कर लिया. बाबूजी इस गम को सह न पाए. हार्ट पेशेंट तो थे ही, महीनेभर बाद दिल का दौरा पड़ने से परलोक सिधार गए.

बाबूजी के जाने के बाद तो अम्मां मानो अपनी सुधबुध ही खो बैठीं, न खाने का होश रहता, न नहानेधोने का. हर समय पूजापाठ में व्यस्त रहने वाली अम्मां अब आरती का दीया भी ना जलाती थीं. वे कहतीं, ‘‘बहू, अब कौनो भगवान पर भरोसा नाही रही गओ है, का फायदा ई पूजापाठ का जब इहै दिन दिखबे का रहै.’’

उन्हें कुछ भी समझाने का कोई फायदा नहीं था. वे अंदर ही अंदर घुलती जा रही थीं. एक बरस बाद वे भी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं.

अरविंद अपने काम में बहुत व्यस्त रहने लगे. सामान्य होने में उन्हें दोतीन वर्ष का समय लग गया.

नन्ही सलोनी मुझे मेरे घर में सदैव अवांछित सदस्य की तरह लगती थी. उस के सामने न जाने क्यों मैं अपने बच्चों को खुल कर न तो दुलरा ही पाती और न ही खुल कर गले लगा पाती थी. मैं अपने बच्चों के साथसाथ उसे भी तैयार कर के स्कूल भेजती और उस की सारी जरूरतों का ध्यान रखती, पर कभी गले से लगा कर दुलार ना कर पाती.

समय कब हथेलियों से सरक कर चुपकेचुपके पंख लगा कर उड़ जाता है, इस का हमें एहसास ही नहीं होता. कब तीनों बच्चे बड़े हो गए और कब मैं सलोनी की बड़ी मां से सिर्फ मां हो गई, मुझे पता ही ना चला. मैं उसे कुछ भी नहीं कहती थी, पर सुमित और स्मिता को जो भी इंस्ट्रक्शंस देती, वह उन्हें चुपचाप फौलो करती. उन दोनों को तो मुझे होमवर्क करने, दूध पीने और खाने के लिए टोकना पड़ता था, पर सलोनी अपना सारा काम समय से करती थी.

मुझे पेंटिंग्स बनाने का बड़ा शौक था. घर की जिम्मेदारियों की वजह से मैं अपने इस शौक को आगे तो नहीं बढ़ा पाई, पर बच्चों के प्रोजैक्ट में और जबतब साड़ियों, कुरतों और कपड़ों के बैग वगैरह पर अपना हुनर आजमाया करती थी.

जब भी मैं कुछ इस तरह का काम करती, तो सुहानी भी अपनी ड्राइंग बुक और कलर्स के साथ मेरे पास आ कर बैठ जाती और अपनी कल्पनाओं को रंग देने का प्रयास करती. यदि कहीं कुछ समझ में ना आता, तो बड़ी मासूमियत से पूछती, ‘‘बड़ी मां, इस में यह वाला रंग करूं अथवा ये वाला ज्यादा अच्छा लगेगा.’’ उस की कला में दिनोंदिन निखार आता गया. विद्यालय की ओर से उसे सभी प्रतियोगिताओं के लिए भेजा जाने लगा और हर प्रतियोगिता में उसे कोई ना कोई पुरस्कार अवश्य मिलता. पढ़ाई में भी अव्वल सलोनी अपने सभी शिक्षकशिक्षिकाओं की लाड़ली थी.

जब कभी सुमित, स्मिता और सुहानी तीनों आपस में झगड़ा करते, तो सुहानी समझदारी दिखाते हुए उन से समझौता कर लेती. मैं बच्चों के खेल और लड़ाई के बीच में कोई दखलअंदाजी नहीं करती थी.

डेढ़ महीने पहले जब डाक्टर ने मेरी रिपोर्ट देख कर बताया कि मुझे टाइफाइड है तो सभी चिंतित हो गए. सुमित, स्मिता और अरविंद हर समय मेरे पास ही रहते और मेरा बहुत ध्यान रखते थे, पर धीरेधीरे सब अपनी दिनचर्या में बिजी हो गए.

अभी परसों की ही बात है, मैं स्मिता को आवाज लगा रही थी, ‘‘स्मिता, मेरी बोतल में पानी खत्म हो गया है, थोड़ा पानी कुनकुना कर के बोतल में भर कर रख दो.”

इस पर वह खीझ कर बोली, ‘‘ओफ्फो मम्मा, आप थोड़ा वेट नहीं कर सकतीं. कितनी अच्छी मूवी आ रही है, आप तो बस रट लगा कर रह जाती हैं.’’

इस पर सुहानी ने उठ कर चुपचाप मेरे लिए पानी गरम कर दिया. मेरी खिसियाई सी शक्ल देख कर वह बोली, ‘‘मां क्या आप का सिरदर्द हो रहा है, लाइए मैं दबा देती हूं.”

मैं ने मना कर दिया. सुमित बीचबीच में आ कर मुझ से पूछ जाता है, ‘‘मां, आप ने दवा ली, कुछ खाया कि नहीं वगैरह.”

स्मिता भी अपने तरीके से मेरा ध्यान रखती है और अरविंद भी, किंतु सलोनी उस के तो जैसे ध्यान में ही मैं रहती हूं.

आज मुझे आत्मग्लानि महसूस हो रही है. 11वीं कक्षा में पढ़ने वाली सलोनी कितनी समझदार है. मैं सदैव अपने घर में उसे अवांछित सदस्य ही मानती थी, कभी मन से उसे बेटी न मान पाई. लेकिन वह मासूम मेरी थोड़ी सी देखभाल के बदले में मुझे अपना सबकुछ मान बैठी. कितने गहरे मन के तार उस ने मुझ से जोड़ लिए थे.

मुझे याद आ रहा है उस का वह अबोध चेहरा, जब सुमित और स्मिता स्कूल से आ कर मेरे गले से झूल जाते और वह दूर खड़ी मुझे टुकुरटुकुर निहारती तो मैं बस उस के सिर पर हाथ फेर कर सब को बैग रख कर हाथमुंह धोने की हिदायत दे देती थी.

उस ने मेरी थोड़ी सी सहानुभूति को ही शायद मेरा प्यार मान लिया था. अपनी मां की तो उसे ज्यादा याद नहीं, पर मुझे ही मानो मां मान कर चुपचाप अपना सारा प्यार उड़ेल देना चाह रही है.

आज मेरा जी चाह रहा है कि मैं उसे अपने गले से लगा कर फूटफूट कर रोऊं और अपने मन का सारा मैल और परायापन अपने आंसुओं से धो डालूं. मैं उसे अपने सीने से लगा कर ढेर सारा प्यार करना चाह रही हूं. मैं उस से कहना चाहती हूं, ‘‘मैं तेरी बड़ी मां नहीं सिर्फ मां हूं. मेरी एक नहीं दोदो बेटियां हैं. अपने और सलोनी के बीच जो कांच की दीवार मैं ने खड़ी कर रखी थी, वह आज भरभरा कर टूट गई है. सलोनी मेरी गुड़िया मुझे माफ कर दो.‘‘

कलियुगी मां: जब प्रेमी संग भागी 2 बच्चों की मां

शहनवाज जैसे ही हैडक्वार्टर से घर पहुंचा, तभी उस के मोबाइल फोन की घंटी बज उठी. उस ने मोबाइल फोन उठा कर देखा कि कोतवाली से इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला का फोन था. उस ने काल रिसीव कर लिया, ‘‘हैलो…’’‘शहनवाज, आप अभी कोतवाली आ जाइए. आप ने जिस औरत की अपने प्रेमी के साथ घर से भागने की अर्जी दिलाई थी, वह अपने प्रेमी के साथ कोतवाली पहुंच गई है.

आप भी शिकायत करने वाले को ले कर कोतवाली पहुंचे जाइए,’ उधर से इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला बोले और फोन कट गया.यह सुन कर शहनवाज का मूड औफ हो गया. सुबह से तो वह दौड़ ही रहा था. आज डीएम साहब ने मीटिंग की थी, इसलिए सभी पत्रकारों को हैडक्वार्टर बुलाया गया था और वहां से आ कर उस ने दो घूंट पानी तक नहीं पीया था कि उसे अब फिर कोतवाली जाना था.कुछ सोचते हुए शहनवाज ने मोबाइल फोन से काल कर यासीन को कोतवाली पहुंचने के लिए कहा और दोबारा बाइक निकाली, फिर कोतवाली की ओर चल दिया.शहनवाज 29 साल का नौजवान था.

दिखने में वह भले ही साधारण कदकाठी का था, पर उस की लेखनी और बोल में काफी दम था. उसे पत्रकारिता की गहरी समझ थी और अपने काम के प्रति वह बहुत जागरूक था.जब शहनवाज कोतवाली पहुंचा, तो उस ने देखा कि महिला सिपाही कोमल के साथ एक औरत खड़ी थी और सामने ही बैंच पर एक नौजवान बैठा था. उन को देख कर वह इतना समझ गया कि शायद यही यासीन की बीवी परवीन है और साथ में उस का प्रेमी है.यासीन के केस को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं.

दरअसल, एक हफ्ते पहले ही शहनवाज शहर से सटे कसबे खीरी में गया हुआ था. उस के न्यूज चैनल ने उस इलाके में हो रहे विकास के कामों की एक स्टोरी उस से मांगी थी, जिस की कवरेज के लिए वह अपने साथी नवाज के साथ आया हुआ था. उसे कवरेज करते देख कर कई लोग वहीं जमा हो गए थे.‘‘आप पत्रकार अंकल हैं?’’ तभी भीड़ में से किसी की आवाज सुन कर शहनवाज का ध्यान उस ओर गया. उस ने देखा कि सामने तकरीबन 6-7 साल का एक बच्चा खड़ा था.

‘‘आप ने बताया नहीं कि आप पत्रकार अंकल हैं?’’ शहनवाज कुछ बोलता, इस से पहले ही उस बच्चे ने दोबारा पूछ लिया.‘‘हां, बेटा…’’ शहनवाज ने कहा.

‘‘अंकल, आप मेरी अम्मी को वापस बुला दीजिए.

मुझे उन के बिना अच्छा नहीं लगता. वे हम सब से नाराज हो कर पता नहीं कहां चली गई हैं. पापा ने पुलिस अंकल से उन को ढूंढ़ने के लिए कहा था, लेकिन वे भी मेरी अम्मी को ढूंढ़ कर नहीं लाए,’’ वह बच्चा रोता हुआ उस से बोला.बच्चे की अपनी अम्मी के लिए मुहब्बत और उस की मासूमियत देख कर पता नहीं क्यों शहनवाज का बच्चे पर प्यार उमड़ आया और उस ने उसे अपनी गोद में उठा लिया.

‘‘अच्छा, आप के पापा कहां हैं?’’ शहनवाज ने बड़े प्यार से उस बच्चे से पूछा.‘‘वे उधर हैं,’’ बच्चा एक ओर इशारा करते हुए बोला.शहनवाज ने देखा कि कुछ ही दूरी पर एक झोंपड़ीनुमा घर था, जिस के दरवाजे पर एक मजदूर सा दिखने वाला आदमी खड़ा हुआ था.

उस की गोद में एक बच्चा भी था, जो शायद 4-5 साल का होगा.शहनवाज ने उस बच्चे को गोद से उतार दिया और उसे झोंपड़ी की ओर चलने के लिए इशारा किया. वह बच्चा चलने ही वाला था कि तभी वह आदमी, जिस की गोद में बच्चा था, तेज चल कर उन के पास आने लगा.‘‘माफ करना भाईजान, मेरे बेटे ने आप को तंग किया. मेरा नाम यासीन है और यह मेरा बेटा जुनैद है.

मैं इसे कितना समझा रहा हूं कि तेरी अम्मी जल्दी लौट आएगी, लेकिन इसे समझ नहीं आ रहा है. दिनरात ये दोनों भाई ‘अम्मीअम्मी’ की रट लगाए रहते हैं.

‘‘जब से जुनैद की बूआ ने बोला है कि कोई पत्रकार ही अब हमारी मदद कर सकता है, तभी से ये बच्चे मुझ से बोल रहे हैं कि पत्रकार अंकल के पास चलो, वे हमारी अम्मी को ढूंढ़ने में मदद करेंगे,’’ यासीन शहनवाज के पास आ कर बोला.‘‘ओह, पर आखिर आप की पत्नी इन छोटेछोटे बच्चों को छोड़ कर कहां चली गई हैं?’’ शहनवाज ने यासीन से हैरत से पूछा.

‘‘वह 5 दिन पहले अपने प्रेमी के साथ घर से भाग गई थी. जानकारी मिली है कि वह यहां से लखनऊ चली गई है और वहां अपने प्रेमी के साथ ही रह रही है,’’ यासीन ने धीरे से बताया.यह सुन कर शहनवाज ने उन दोनों मासूम बच्चों की ओर देखा. मां के बगैर उन दोनों के चेहरे उतरे हुए थे. वह सोच में पड़ गया कि कोई मां इतनी कठोर कैसे हो सकती है?

‘‘क्या आप ने अपनी पत्नी को ढूंढ़ने के लिए कोतवाली में कोई अर्जी दी है?’’ शहनवाज ने यासीन से पूछा.‘‘जी…’’ यासीन बोला.शहनवाज ने कुछ सोच कर यासीन से पूरी जानकारी ली और उस के बाद उस ने कोतवाली फोन मिला दिया.

उस ने इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला को अर्जी के बारे में जानकारी देते हुए जल्द ही यासीन की पत्नी को ढूंढ़ने के लिए कहा और दोबारा अपनी कवरेज करने लगा था. उस ने यासीन का मोबाइल फोन नंबर ले लिया था, ताकि उस से दोबारा बात हो सके.‘‘शहनवाजजी, साहब आप को औफिस में बुला रहे हैं,’’ तभी किसी की आवाज सुन कर शहनवाज चौंक गया. सामने कांस्टेबल राधेश्याम खड़ा था.शहनवाज कोतवाली में चला गया. यासीन भी अपने बच्चों को ले कर कोतवाली पहुंच चुका था.

दोनों बच्चों ने जब अपनी अम्मी को देखा, तो वे भाग कर उस से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगे.‘‘अम्मी, तुम हमें छोड़ कर कहां चली गई थीं… हम अब शैतानी नहीं करेंगे… हम से कोई गलती हो गई है, तो हमें माफ कर दें और आगे से हमें कहीं छोड़ कर मत जाना,’’ जुनैद ने रोते हुए कहा.बच्चों का अपनी मां के प्रति प्यार देख कर कोतवाली का पूरा माहौल बदल गया था.

वहां मौजूद यासीन, इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला समेत सभी की आंखें नम हो गई थीं.अचानक शहनवाज को अपनी अम्मी की याद आ गई, जो उस की नाममात्र परेशानी से परेशान हो उठती थीं. उसे अच्छी तरह से याद है, जब वह छोटा था, तो एक बार उसे दिमागी बुखार हो गया था. तब अम्मी कितना परेशान हो गई थीं और रातदिन रोरो कर बस उस की देखभाल करती थीं. और तो और उस के बीमार होने पर उन्होंने खानापीना छोड़ दिया था.फिर भी शहनवाज अपनी मां के बगैर इतनी दूर अपनी बीवी सना के साथ लखीमपुर में रह रहा था.

वह अब्बू के साथ एक छोटी सी तकरार पर सना के साथ सबकुछ छोड़ कर चला आया था. वह सोच रहा था कि कैसे रह रही होंगी उस की अम्मी उस से दूर?‘‘नहीं, तुम मेरे बच्चे नहीं हो. छोड़ो मुझे, दूर हटो और जाओ अपने बाप के पास. मुझे नहीं रहना तुम लोगों के साथ,’’ इतनी तेज आवाज सुन कर शहनवाज यादों का दामन छोड़ एक बार फिर आज में आ गया.

वह आवाज यासीन की बीवी परवीन की थी, जो अपने दोनों बच्चों को झिड़क कर खुद से अलग कर रही थी, लेकिन बच्चे थे कि अपनी अम्मी से चिपके ही जा रहे थे. शायद वे सोच रहे थे कि एक बार उन की अम्मी उन्हें गोद में उठा कर प्यार कर लें.यह सब देख कर शहनवाज को बहुत ज्यादा गुस्सा आ रहा था. कैसी मां है यह, जो अपने बच्चों से इस तरह से बरताव कर रही है.

‘‘आखिर तुम क्यों नहीं रहना चाहती हो अपने शौहर और बच्चों के साथ? अगर कोई परेशानी है या फिर तुम्हारा शौहर तुम्हें मारतापीटता है, तो मुझे बताओ,’’ इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला ने यासीन की बीवी से पूछा.‘‘नहीं, मुझे इन से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मुझे नहीं रहना है यासीन और उस के बच्चों के साथ. मैं वसीम से प्यार करती हूं और मुझे उसी के साथ में रहना है,’’ परवीन कुछ दूरी पर खड़े नौजवान की ओर इशारा करते हुए बोली.‘‘लेकिन, तुम्हारे छोटेछोटे बच्चे हैं. क्या रह पाओगी इन के बगैर? ये बच्चे भी तुम से कितना प्यार करते हैं और मैं भी तुम से बहुत प्यार करता हूं, यह तुम जानती हो, लेकिन फिर भी तुम क्यों नहीं समझ रही हो…’’

परवीन की बात सुन कर यासीन ने उसे समझाने की कोशिश की.‘‘कुछ भी हो, मैं तुम्हारे साथ इस तरह की जिंदगी नहीं गुजार सकती,’’ परवीन ने दोटूक जवाब यासीन को दिया, तो यासीन दोबारा कुछ न बोला.सभी ने परवीन को बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन उस ने किसी की बात नहीं मानी. उस ने तो जैसे ठान ही लिया था कि वह अपने प्रेमी वसीम के साथ ही रहेगी.

यह देख कर शहनवाज को बड़ा गुस्सा आ रहा था. उस का मन कर रहा था कि अभी जोरदार तमाचा ऐसी कमबख्त मां के गाल पर मार दे, जो इन मासूम चेहरों को देख कर भी उस की ममता नहीं जाग रही थी.जब परवीन अपने प्रेमी के साथ जाने लगी, तो दोनों बच्चे एक बार फिर फूटफूट कर रोने लगे. उन बच्चों का रोना किसी से देखा नहीं जा रहा था.‘‘पापा, अम्मी को रोक लो. हम कभी अम्मी को परेशान नहीं करेंगे,’’ मासूम जुनैद गुहार लगा रहा था.तभी अचानक महिला सिपाही कोमल ने बिना कुछ सोचेसमझे उन दोनों बच्चों को अपनी छाती से लगा लिया और उन्हें चुप कराने लगी.

कुछ ही देर में बच्चे चुप हो गए, पर वे एकटक अपनी अम्मी को देख रहे थे, जो किसी अनजान के साथ उन्हें छोड़ दूर जा रही थी.तभी कुछ सोच कर शहनवाज उन दोनों बच्चों के पास पहुंच गया और उन्हें प्यार से समझाया, ‘‘वे तुम्हारी अम्मी नहीं हैं. सच तो यह है कि तुम्हारी अम्मी अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’इतना सुनना था कि वे दोनों बच्चे अचानक एक बार फिर अपनी अम्मी के पास जा पहुंचे.‘‘हमें माफ कर दें. हम ने आप को बिना वजह परेशान किया.

हमें नहीं मालूम था कि हमारी अम्मी अब इस दुनिया में नहीं हैं,’’ जुनैद ने इतना कहा और फिर दोनों बच्चे वापस आ गए.तभी शहनवाज ने देखा कि जुनैद की बात सुन कर परवीन की आंखें भी गीली होने लगी थीं. पर वह कुछ कहती, तभी उस का प्रेमी वसीम गाड़ी ले कर आ गया और उसे गाड़ी में बैठा कर चल दिया. दोनों बच्चे और यासीन गाड़ी को जाते हुए देखते रहे.

शहनवाज ने यासीन से भी घर जाने के लिए कहा और खुद भी अपनी बाइक उठा कर कोतवाली से बाहर आ गया. यह सब देख कर उस का सिर भारी होने लगा था और वह कय्यूम चाचा की दुकान पर चाय पीने के लिए चला गया, जो कोतवाली से कुछ दूर रेलवे स्टेशन के करीब थी.कय्यूम चाचा की दुकान से कुछ ही दूरी पर भीड़ जमा थी. शहनवाज ने पूछा, ‘‘चाचा, यह भीड़ कैसी?’’

‘‘वहां कोई पागल औरत है, जिस ने कल रात में ही एक बच्ची को जन्म दिया है. उस की गर्भनाल भी अभी नहीं कटी है. मांबच्चे में कहीं जहर न फैल जाए, इस के लिए डाक्टर की टीम गर्भनाल काटने की कोशिश कर रही है,’’ कय्यूम चाचा ने बताया.कुछ सोच कर शहनवाज भी भीड़ को चीरता हुआ वहां जा पहुंचा. उस ने देखा कि सामने एक औरत थी, जिस के फटेपुराने कपड़े पहने, बाल उलझेउलझे और शरीर से भी वह बहुत कमजोर लग रही थी.

वह चंद घंटे पहले जनमी नवजात बच्ची को सीने से चिपकाए हुए थी.एक लेडी डाक्टर बच्ची को उस से लेने की कोशिश कर रही थी, जिस से कि गर्भनाल काटी जा सके, लेकिन वह औरत बच्ची को छोड़ ही नहीं रही थी. शायद उसे लग रहा था कि वे लोग उस की बच्ची उस से छीन लेंगे.अपनी बच्ची के लिए उस पागल मां की ममता देख कर सभी हैरान हो रहे थे. तभी शहनवाज का ध्यान उस कलियुगी मां पर गया, जो अपने 2 मासूम बच्चों को रोता हुआ छोड़ कर अपने प्रेमी के साथ दूर चली गई थी, बहुत दूर. उस का चेहरा ध्यान में आते ही शहनवाज का मन कसैला हो गया.

मैली लाल डोरी : दास्तान अपर्णा की

रविवार होने के कारण अपर्णा सुबह की चाय का न्यूज पेपर के साथ आनंद लेने के लिए बालकनी में पड़ी आराम कुरसी पर आ कर बैठी ही थी कि उस का मोबाइल बज उठा. उस के देवर अरुण का फोन था.

‘‘भाभी, भैया बहुत बीमार हैं. प्लीज, आ कर मिल जाइए,’’ और फोन

कट गया.

फोन पर देवर अरुण की आवाज सुनते ही उस के तनबदन में आग लग गई. न्यूजपेपर और चाय भूल कर वह बड़बड़ाने लगी, ‘आज जिंदगी के 50 साल बीतने को आए, पर यह आदमी चैन से नहीं रहने देगा. कल मरता है तो आज मर जाए. जब आज से 20 साल पहले मेरी जरूरत नहीं थी तो आज क्यों जरूरत आन पड़ी.’ उसे अकेले बड़बड़ाते देख कर मां जमुनादेवी उस के निकट आईं और बोलीं, ‘‘अकेले क्या बड़बड़ाए जा रही है. क्या हो गया? किस का फोन था?’’

‘‘मां, आज से 20 साल पहले मैं नितिन से सारे नातेरिश्ते तोड़ कर यहां तबादला करवा कर आ गई थी और मैं ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. तब से ले कर आज तक न उन्होंने मेरी खबर ली और न मैं ने उन की. तो, अब क्यों मुझे याद किया जा रहा है?

‘‘मां, आज उन के गुरुजी और दोस्त कहां गए जो उन्हें मेरी याद आ रही है. अस्पताल में अकेले क्या कर रहे हैं. आश्रम वाले कहां चले गए,’’ बोलतेबोलते अपर्णा इतनी विचलित हो उठी कि उस का बीपी बढ़ गया. मां ने दवा दे कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

50 वर्ष पूर्व जब नितिन से उस का विवाह हुआ तो वह बहुत खुश थी. उस की ससुराल साहित्य के क्षेत्र में अच्छाखासा नाम रखती थी. वह अपने परिवार में सब से छोटी लाड़ली और साहित्यप्रेमी थी. उसे लगा था कि साहित्यप्रेमी और सुशिक्षित परिवार में रह कर वह भी अपने साहित्यज्ञान में वृद्धि कर सकेगी. परंतु, वह विवाह हो कर जब आई तो उसे मायके और ससुराल के वातावरण में बहुत अंतर लगा.

ससुराल में केवल ससुरजी को साहित्य से लगाव था, दूसरे सदस्यों का तो साहित्य से कोई लेनादेना ही नहीं था. इस के अलावा मायके में जहां कोई ऊंची आवाज में बात तक नहीं करता था वहीं यहां घर का हर सदस्य क्रोधी था. ससुरजी अपने लेखन व यात्राओं में इतने व्यस्त रहते कि उन्हें घरपरिवार के बारे में अधिक पता ही नहीं रहता था. सास अल्पशिक्षित, घरेलू महिला थीं. वे अपने शौक, फैशन व किटी पार्टीज में व्यस्त रहतीं. घर नौकरों के भरोसे चलता. हर कोई अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से जी रहा था. सभी भयंकर क्रोधी और परस्पर एकदूसरे पर चीखतेचिल्लाते रहते. इन 2 दिनों में ही नितिन को ही वह कई बार क्रोधित होते देख चुकी थी. यहां का वातावरण देख कर उसे डर लगने लगा था.

सुहागरात को जब नितिन कमरे में आए तो वह दबीसहमी सी कमरे में बैठी थी. नितिन उसे देख कर बोले, ‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बैठी हो?’

‘कुछ नहीं, ऐसे ही,’ उस ने दबे स्वर में धीरे से कहा.

‘तो इतनी घबराई हुई क्यों हो?’

‘नहीं…वो… मुझे आप से डर लगता है,’ अपर्णा ने घबरा कर कहा.

‘अरे, डरने की क्या बात है,’ कह कर जब नितिन ने उसे अपने गले से लगा लिया तो वह अपना सब डर भूल गई.

विवाह को कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन डाकिया एक पीला लिफाफा लैटरबौक्स में डाल गया. जब नितिन ने खोल कर देखा तो उस में केंद्रीय विद्यालय में अपर्णा की नियुक्ति का आदेश था जिस के लिए उस ने विवाह से पूर्व आवेदन किया था. खैर, समस्त परिवार की सहमति से अपर्णा ने नौकरी जौइन कर ली. घर और बाहर दोनों संभालने में तकलीफ तो उठानी पड़ती, परंतु वह खुश थी कि उस का अपना कुछ वजूद तो है.

तनख्वाह मिलते ही नितिन ने उस का एटीएम कार्ड और चैकबुक यह कहते हुए ले लिया कि ‘मैं पैसे का मैनेजमैंट बहुत अच्छा करता हूं, इसलिए ये मेरे पास ही रहें तो अच्छा है. कहां कब कितना इन्वैस्ट करना है, मैं अपने अनुसार करता रहूंगा.’

मेरे पास रहे या इन के पास, यह सोच कर अपर्णा ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. इस बीच वह एक बेटे की मां भी बन गई. एक दिन जब वह घर आई तो नितिन मुंह लटकाए बैठा था. पूछने पर बोला कि वह जिस कंपनी में काम करता था वह घाटे में चली गई और उस की नौकरी भी चली गई.

अपर्णा बड़े प्यार से उस से बोली, ‘तो क्या हुआ, मैं तो कमा ही रही हूं. तुम क्यों चिंता करते हो. दूसरी ढूंढ़ लेना.’

‘अच्छा तो तुम मुझे अपनी नौकरी का ताना दे रही हो. नौकरी गई है, हाथपैर नहीं टूटे हैं अभी मेरे,’ नितिन क्रोध से बोला.

‘नितिन, तुम बात को कहां से कहां ले जा रहे हो. मैं ने ऐसा कब कहा?’

‘ज्यादा जबान मत चला, वरना काट दूंगा,’ नितिन की आंखों से मानो अंगारे बरस रहे थे.

उसे देख कर अपर्णा सहम गई. आज उसे नितिन के एक नए ही रूप के दर्शन हुए थे. वह चुपचाप दूसरे कमरे में जा कर अपना काम करने लगी. नौकरी चली जाने के बाद से अब नितिन पूरे समय घर में रहता और सुबह से शाम तक अपनी मरजी करता. एक दिन अपर्णा को घर आने में देर हो गई. जैसे ही वह घर में घुसी.

‘इतनी देर कैसे हो गई.’

‘आज इंस्पैक्शन था.’

‘झूठ बोलते शर्म नहीं आती, कहां से आ रही हो?’

‘तुम से बात करना बेकार है. खाली दिमाग शैतान का घर वाली कहावत तुम्हारे ऊपर बिलकुल सटीक बैठती है,’ कह कर अपर्णा गुस्से में अंदर चली गई.

पूरे घर पर नितिन का ही वर्चस्व था. अपर्णा को घर की किसी बात में दखल देने की इजाजत नहीं थी. वह कमाने की मशीन और मूकदर्शक मात्र थी. एक दिन जब वह घर में घुसी तो देखा कि पूरा घर फूलों से सजा हुआ है. पूछने पर पता चला कि आज कोई गुरुजी और उन के शिष्य घर पर पधार रहे हैं. इसीलिए रसोई में खाना भी बन रहा है.

अपर्णा ने नितिन से पूछा, ‘यह सब क्या है नितिन? सुबह मैं स्कूल गई थी, तब तो तुम ने कुछ नहीं बताया?’

‘तुम सुबह जल्दी निकल गई थीं, सूचना बाद में मिली. आज गुरुजी घर आने वाले हैं. जाओ तुम भी तैयार हो जाओ,’ कह कर नितिन फिर जोश से काम में जुट गया.

उस दिन देररात्रि तक गुरुजी का प्रोग्राम चलता रहा. न जाने कितने ही लोग आए और गए. सब को चाय, खाना आदि खिलाया गया. अपर्णा को सुबह स्कूल जाना था, सो, वह अपने कमरे में आ कर सो गई. दूसरे दिन शाम को जब स्कूल से लौटी तो नितिन बड़ा खुश था. ट्रे में चाय के 2 कप ले कर अपर्णा के पास ही बैठ गया और कल के सफल आयोजन के लिए खुशी व्यक्त करने लगा. तभी अपर्णा ने धीरे से कहा, ‘नितिन, आप खुश हो, इसलिए मैं भी खुश हूं परंतु मेहनत की गाढ़ी कमाई की यों बरबादी ठीक नहीं.’

‘तुम क्या जानो इन बाबाओं की करामात? और जगदगुरु तो पहुंचे हुए हैं. तुम्हें पता है, शहर के बड़ेबड़े पैसे वाले लोग इन के शिष्य बनना चाहते हैं परंतु ये घास नहीं डालते. अपना तो समय खुल गया है जो गुरुजी ने स्वयं ही घर पधारने की बात कही. तुम्हारी गलती भी नहीं है. तुम्हारे घर में कोई भी बाबाओं के प्रताप में विश्वास नहीं करता. तो तुम कैसे करोगी? व्यंग्यपूर्वक कह कर नितिन वहां से चला गया. शाम को फिर आया और कहने लगा, ‘देखो, यह लाल डोरी. इसे सदा हाथ में बांधे रखना, कभी उतराना नहीं, गुरुजी ने दी है. सब ठीक होगा.’

कलह और असंतोष के मध्य जिंदगी किसी तरह कट रही थी. बिना किसी काम के व्यक्ति की मानसिकता भी बेकार हो जाती है. उसी बेकारी का प्रभाव नितिन के मनमस्तिष्क पर भी दिखने लगा था. अब उस के स्वभाव में हिंसा भी शामिल हो गई थी. बातबात पर अपर्णा व बच्चों पर हाथ उठा देना उस के लिए आम बात थी. घर का वातावरण पूरे समय अशांत और तनावग्रस्त रहता. लगातार चलते तनाव के कारण अपर्णा को बीपी, शुगर जैसी कई बीमारियों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया.

एक दिन घर पर नितिन से मिलने कोई व्यक्ति आया. कुछ देर की बातचीत

के बाद अचानक दोनों में हाथापाई होने लगी और वह आदमी जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगा. कालोनी के कुछ लोग गेट पर जमा हो गए और कुछ अपने घरों में से झांकने लगे. किसी तरह मामला शांत कर के नितिन आया तो अपर्णा ने कहा, ‘यह सब क्या है? क्यों चिल्ला रहा था यह आदमी?’

‘शांत रहो, ज्यादा जबान और दिमाग चलाने की जरूरत नहीं है,’ बेशर्मी से नितिन ने कहा.

‘इस तरह कालोनी में इज्जत का फालूदा निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती?’

‘बोला न, दिमाग मत चलाओ. इतनी देर से कह रहा हूं, चुप रह. सुनाई नहीं पड़ता,’ कह कर नितिन ने एक स्केल उठा कर अपर्णा के सिर पर दे मारा.

अपर्णा के सिर से खून बहने लगा. अगले दिन जब वह स्कूल पहुंची तो उस के सिर पर लगी बैंडएड देख कर पिं्रसिपल ऊषा बोली, ‘यह क्या हो गया, चोट कैसे लगी?’

उन के इतना कहते ही अपर्णा की आंखों से जारजार आंसू बहने लगे. ऊषा मैडम उम्रदराज और अनुभवी थीं. उन की पारखी नजरों ने सब भांप लिया. सो, उन्होंने सर्वप्रथम अपने कक्ष का दरवाजा अंदर से बंद किया और अपर्णा के कंधे पर प्यार से हाथ रख कर बोलीं, ‘क्या हुआ बेटा, कोई परेशानी है, तो बताओ.’

कहते हैं प्रेम पत्थर को भी पिघला देता है, सो ऊषा मैडम के प्यार का संपर्क पाते ही अपर्णा फट पड़ी और रोतेरोते उस ने सारी दास्तान कह सुनाई.

‘मैडम, आज शादी के 20 साल बाद भी मेरे घर में मेरी कोई कद्र नहीं है. पूरा पैसा उन तथाकथित बाबाजी की सेवा में लगाया जा रहा है. बाबाजी की सेवा के चलते कभी आश्रम के लिए सीमेंट, कभी गरीबों के लिए कंबल, और कभी अपना घर लुटा कर गरीबों को खाना खिलाया जा रहा है. यदि एक भी प्रश्न पूछ लिया तो मेरी पिटाई जानवरों की तरह की जाती है. सुबह से शाम तक स्कूल में खटने के बाद जब घर पहुंचती हूं तो हर दिन एक नया तमाशा मेरा इंतजार कर रहा होता है. मैं थक गई हूं इस जिंदगी से,’ कह कर अपर्णा फूटफूट कर रोने लगी.

ऊषा मैडम अपनी कुरसी से उठीं और अपर्णा के आगे पानी का गिलास रखते हुए बोलीं, ‘बेटा, एक बात सदा ध्यान रखना कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है. सब से बड़ी गलती तेरी यह है कि तू पिछले

20 सालों से अन्याय को सह रही है. जिस दिन तेरे ऊपर उस का पहला हाथ उठा था, वहीं रोक देना था. सामने वाला आप के साथ अन्याय तभी तक करता है जब तक आप सहते हो. जिस दिन आप प्रतिकार करने लगते हो, उस का मनोबल समाप्त हो जाता है. आत्मनिर्भर और पूर्णतया शिक्षित होने के बावजूद तू इतनी कमजोर और मजबूर कैसे हो गई? जिस दिन पहली बार हाथ उठाया था, तुम ने क्यों नहीं मातापिता और परिवार वालों को बताया ताकि उसे रोका जा सकता. क्यों सह रही हो इतने सालों से अन्याय? छोड़ दो उसे उस के हाल पर.’

‘मैं हर दिन यही सोचती थी कि शायद सब ठीक हो जाएगा. मातापिता की इज्जत और लोकलाज के डर से मैं कभी किसी से कुछ नहीं कह पाई. लगा था कि मैं सब ठीक कर लूंगी. पर मैं गलत थी. स्थितियां बद से बदतर होती चली गईं.’ अपर्णा ने रोते हुए कहा.

अब ऊषा मैडम बोलीं, ‘जो आज गलत है, वह कल कैसे सही हो जाएगा. जिस इंसान के गुस्से से तुम प्रथम रात्रि को ही डर जाती हो और जिस इंसान को अपनी पत्नी पर हाथ उठाने में लज्जा नहीं आती. जो बाबाओं की करामात पर भरोसा कर के खुद बेरोजगार हो कर पत्नी का पैसा पानी की तरह उड़ा रहा है, वह विवेकहीन इंसान है. ऐसे इंसान से तुम सुधार की उम्मीद लगा बैठी हो? क्यों सह रही हो? तोड़ दो सारे बंधनों को अब. निर्णय तुम्हें लेना है,’ कह कर मैडम ने दरवाजा खोल दिया था.

बाहर निकल कर उस ने भी अब और न सहने का निर्णय लिया और अगले ही दिन अपने तबादले के लिए आवेदन कर दिया. 6 माह बाद अपर्णा का तबादला दूसरे शहर में हो गया.

नितिन को जब तबादले के बारे में पता चला, तो क्रोध से चीखते हुए बोला, ‘यह क्या मजाक है मुझ से बिना पूछे ट्रांसफर किस ने करवाया?’

‘मैं ने करवाया. मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. तुम्हारे उन तथाकथित गुरुजी ने तुम्हारी बसीबसाई गृहस्थी में आग लगा दी. आज और अभी से ही तुम्हारी यह दुनिया तुम्हें मुबारक. अब और अधिक सहने की क्षमता मुझ में नहीं है.’

‘हांहां, जाओ, रोकना भी कौन चाहता है तुम्हें? वैसे भी कल गुरुजी आ रहे हैं. तुम्हारी तरफ देखना भी कौन चाहता है. मैं तो यों भी गुरुजी की सेवा में ही अपना जीवन लगा देना चाहता हूं,’ कह कर भड़ाक से दरवाजा बंद कर के नितिन बाहर चला गया.

बस, उस के बाद से दोनों के रास्ते अलगअलग हो गए थे. बेटे नवीन ने पुणे में जौब जौइन कर ली थी. परंतु आज आए इस एक फोन ने उस के ठहरे हुए जीवन में फिर से तूफान ला दिया था. तभी अचानक उस ने मां का स्पर्श कंधे पर महसूस किया.

‘‘क्या सोच रही है, बेटा.’’

‘‘मां, कुछ नहीं समझ आ रहा? क्या करूं?’’

‘‘बेटा, पत्नी के नाते नहीं, केवल इंसानियत के नाते ही चली जा, बल्कि नवीन को भी बुला ले. कल को कुछ हो गया, तो मन में हमेशा के लिए अपराधबोध रह जाएगा. आखिर, नवीन का पिता तो नितिन ही है न,’’ अपर्णा की मां ने उसे समझाते हुए कहा.

अगले दिन वह नवीन के साथ दिल्ली के सरकारी अस्पताल के बैड नंबर 401 पर पहुंची. बैड पर लेटे नितिन को देख कर वह चौंक गई. बिखरे बाल, जर्जर शरीर और गड्ढे में धंसी आंखें. शरीर में कई नलियां लगी हुई थीं. मुंह से खून की उलटियां हो रही थीं. पूछने पर पता चला कि नितिन को कोई खतरनाक बीमारी है. उसे आया देख कर नितिन के चेहरे पर चमक आ गई.

वह अपनी कांपती आवाज में बोला, ‘‘तुम आ गईं. मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी. अब मैं ठीक हो जाऊंगा,’’ तभी डाक्टर सिंह ने कमरे में प्रवेश किया. नवीन की तरफ मुखातिब हो कर वे बोले, ‘‘इन्हें एड्स हुआ है. अंतिम स्टेज में है. हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं.’’

‘‘आज आप के तथाकथित गुरुजी कहां गए. आप की देखभाल करने क्यों नहीं आए वे. जिन के कारण आप ने अपनी बसीबसाई गृहस्थी में आग लगा दी. आज उन्होंने अपनी करामात क्यों नहीं दिखाई? मुझ से क्या चाहते हैं आप. क्यों मुझे फोन किया गया था?’’ अपर्णा आवेश से भरे स्वर में बोली. तभी देवर अरुण आ गया. उस ने जो बताया, उसे सुन कर अपर्णा दंग रह गई.

‘‘आप के जाने के बाद भैया एकदम निरंकुश हो गए. गुरुजी के आश्रम में कईकई दिन पड़े रहते. घर पर ताला रहता और भैया गुरुजी के आश्रम में. गुरुजी के साथ ही दौरों पर जाते. गुरुजी के आश्रम में सेविकाएं

भी आती थीं. गुरुजी सेविकाओं से हर प्रकार की सेवा करवाते थे. कई बार गुरुजी के कहने पर भैया ने भी अपनी सेवा करवाई. बस, उसी समय कोई इन्हें तोहफे में एड्स दे गई. गुरुजी और उन के आश्रम के लोगों को जैसे ही भैया की बीमारी के बारे में पता चला, उन्होंने इन्हें आश्रम से बाहर कर दिया. और आज 3 साल से कोई खैरखबर भी नहीं ली है.’’

अपर्णा मुंह खोले सब सुन रही थी. उस ने नितिन की ओर देखा तो उस ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए मानो अब तक की सारी काली करतूतों को एक माफी में धो देना चाहता हो.

अपर्णा कुछ देर सोचती रही, फिर नितिन की ओर घूम कर बोली, ‘‘नितिन, मेरातुम्हारा संबंध कागजी तौर पर भले ही न खत्म हुआ हो पर दिल के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. जब मेरे दिल में ही तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है, तो कागज क्या करेगा? जहां तक माफी का सवाल है, माफी तो उस से मांगी जाती है जिस ने कोई गुनाह किया हो. तुम ने आज तक जो कुछ भी मेरे साथ किया, उसे भुलाना तो मुश्किल है, पर हां, माफ करने की कोशिश करूंगी. पर अब तुम मुझ से कोई उम्मीद मत रखना.

मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकती. हां, इंसानियत के नाते तुम्हारी बीमारी के इलाज में जो पैसा लगेगा, मैं देने को तैयार हूं. बस, अब और मुझे कुछ नहीं कहना. मैं तुम्हें सारे बंधनों से मुक्त कर के जा रही हूं,’’ यह कह कर मैं ने पर्स में से एक छोटा पैकेट, वह मैली लाल डोरी निकाल कर नितिन के तकिए पर रख दी, ‘‘लो अपनी अमानत, अपने पास रखो.’’

यह कह कर अपर्णा तेजी से कमरे से बाहर निकल गई. नितिन टकटकी लगाए उसे जाते देखता रहा.

बेचारी दिव्यांशी : ब्यूटीपार्लर से कौन हुआ रफूचक्कर

महल्ले के कई लोग अचरज भरी निगाहों से उस कमरे को देख रहे थे जहां पर कोई नया किराएदार रहने आ रहा था और जिस का सामान उस छोटे से कमरे में उतर रहा था. सामान इतना ही था कि एक सवारी वाले आटोरिकशा में पूरी तरह से आ गया था.

सब यही सोच रहे थे और आपस में इसी तरह की बातें कर रहे थे कि तभी एक साइकिल रिकशा से एक लड़की उतरी जो अपने पैरों से चल नहीं सकती थी, इसीलिए बैसाखियों के सहारे चल कर उस कमरे की तरफ जा रही थी.

अब महल्ले की औरतें आपस में कानाफूसी करने लगीं… ‘क्या इस घर में यह अकेले रहेगी?’, ‘कौन है यह?’, ‘कहां से आई है?’ वगैरह.

कुछ समय बाद उस लड़की ने उन सवालों के जवाब खुद ही दे दिए, जब वह अपने पड़ोस में रहने वाली एक औरत से एक जग पानी देने की गुजारिश करने उस के घर गई.

घर में घुसते ही शिष्टाचार के साथ उस ने नमस्ते की और अपना परिचय देते हुए बोली, ‘‘मेरा नाम दिव्यांशी है और मैं पास के कमरे में रहने आई हूं. क्या मुझे पीने के लिए एक जग पानी मिल सकता है? वैसे, नल में पानी कब आता है? मैं उस हिसाब से अपना पानी भर लूंगी.’’

‘‘अरे आओआओ दिव्यांशी, मेरा नाम सुमित्रा है और पानी शाम को 5 बजे और सुबह 6 बजे आता है. कहां से आई हो और यहां क्या करती हो?’’ पानी देते हुए सुमित्रा ने पूछा.

‘‘आंटी, आप मेरे कमरे पर आइए, तब हम आराम से बैठ कर बातें करेंगे. अभी मुझे बड़ी जोरों की भूख लगी है. वैसे, मैं शहर के नामी होटल रामभरोसे में रिसैप्शनिस्ट का काम करती हूं, जहां मेरा ड्यूटी का समय सुबह 6 बजे से है. मेरा काम दोहपर के 3 बजे तक खत्म हो जाता है.’’

बातचीत में सुमित्रा को दिव्यांशी अच्छी लगी और उस के परिवार के बारे में ज्यादा जानने की उत्सुकता में शाम को पानी आने की सूचना ले कर वह दिव्यांशी के कमरे पर पहुंच गई.

दिव्यांशी अब अपने बारे में बताने लगी, ‘‘आज से तकरीबन 16 साल पहले मैं अपने मातापिता के साथ मोटरसाइकिल से कहीं जा रही थी कि तभी एक ट्रक से भीषण टक्कर होने से मेरे मातापिता मौके पर ही मर गए थे.

‘‘चूंकि मैं दूर छिटक गई थी इसलिए जान तो बच गई, पर पास से तेज रफ्तार से गुजरती बाइक मेरे दोनों पैरों पर से गुजर गई और मेरे दोनों पैर काटने पड़े. तभी से चाचाचाची ने अपने पास रखा और पढ़ायालिखाया.

‘‘उन के कोई बच्चा नहीं है. इस वजह से भी वे मुझ से बहुत स्नेह रखते हैं. चाचा की माली हालत ज्यादा अच्छी नहीं है, फिर भी वे मेरी नौकरी करने के खिलाफ हैं, पर मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं, इसीलिए शहर आ कर मैं ने इस नौकरी को स्वीकार कर लिया.

‘‘इस होटल की नौकरी के साथसाथ मैं सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में हिस्सा लेती हूं ताकि कोई सरकारी नौकरी लग जाए. मैं अपनी योग्यता पर विश्वास रखती हूं इसी कारण किसी तरह की कोचिंग नहीं लेती हूं, बल्कि 3 बजे होटल से आ कर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हूं. इस से मेरी प्रतियोगिता की तैयारी भी हो जाती है और कुछ कमाई भी.

‘‘इस महल्ले में कोई बच्चा अगर ट्यूशन लेना चाहता हो तो उन्हें मेरे पास भेजिए न भाभी,’’ दिव्यांशी ने अपनेपन से सुमित्रा से कहा.

‘‘जरूर. मैं अपने सभी मिलने वालों से कहूंगी…’’ सुमित्रा ने पूछा, ‘‘और तुम अपने खाने का क्या करती हो?’’

‘‘सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना तो मैं होटल की पैंट्री में ही खा लेती हूं और शाम को इस आटोमैटिक हौट प्लेट पर दालचावल या खिचड़ी जैसी चीजें पका लेती हूं.’’

यह सुन कर सुमित्रा मन ही मन दिव्यांशी की हिम्मत की तारीफ कर रही थी. तकरीबन आधा घंटे तक दिव्यांशी के साथ बैठने के बाद वह अपने घर वापस आ गई.

सुबह साढ़े 5 बजे वही साइकिल रिकशा वाला जो दिव्यांशी को छोड़ने आया था, लेने आ गया. साफ था, दिव्यांशी ने उस का महीना बांध कर लाने व छोड़ने के लिए लगा लिया था.

सुमित्रा ने भी अपना काम बखूबी निभाया और महल्ले में सभी को दिव्यांशी के बारे में बताया. तकरीबन सभी ने उस की हिम्मत की तारीफ की. हर कोई चाहता था कि कैसे न कैसे कर के उस की मदद की जाए. कई घरों के बच्चे दिव्यांशी के पास ट्यूशन के लिए आने लगे थे.

दिव्यांशी को इस महल्ले में आए अभी पूरा एक महीना होने में 2-3 दिन बचे थे कि एक दिन महल्ले वालों ने देखा कि दिव्यांशी किसी लड़के के साथ मोटरसाइकिल पर आ रही है.

सभी को यह जानने की इच्छा हुई कि वह लड़का कौन है. पूछने पर पता चला कि उस का नाम रामाधार है और उसी के होटल में कुक है और आज ही उस ने यह सैकंडहैंड बाइक खरीदी है.

1-2 दिन के बाद ट्यूशन खत्म होने पर दिव्यांशी ने एक बच्चे को भेज कर महल्ले की 4-5 औरतों को अपने कमरे में बुलवा लिया और कहने लगी, ‘‘मैं इतने दिनों से आप लोगों के साथ रह रही हूं इसलिए आप लोगों के साथ एक बात करना चाहती हूं. रामाधार हमारे होटल में कुक है और वह चाहता है कि मैं रोज उस के साथ औफिस जाऊं.

‘‘वैसे भी रिकशे वाला 2,000 रुपए महीना लेता है. अगर आप लोगों को कोई एतराज न हो तो मैं उस के साथ आनाजाना कर लूं?’’

‘‘जब तुम पूछ कर सभी के सामने आनाजाना कर रही हो तो हमें क्या दिक्कत हो सकती है और पिछले एक महीने में इतना तो हम तुम्हें समझ ही गए हैं कि तुम कोई गलत काम कर ही नहीं सकती. तुम निश्चिंत हो कर रामाधार के साथ आजा सकती हो, ‘‘सुमित्रा बाकी सब औरतों की तरफ देख कर बोली. सभी औरतों ने अपनी सहमति दे दी.

रामाधार 26-27 साल का नौजवान था. उस की कदकाठी अच्छी थी. फूड और टैक्नोलौजी का कोर्स करने के बाद दिव्यांशी के होटल में ही वह कुक का काम करता था. वह दिव्यांशी को लेने व छोड़ने जरूर आता था, पर कभी भी दिव्यांशी के कमरे के अंदर नहीं गया था.

अब तक 3 महीने गुजर चुके थे. ट्यूशन पढ़ रहे सभी बच्चों के मासिक टैस्ट हो चुके थे और तकरीबन सभी बच्चों ने कहीं न कहीं प्रगति की थी. इस कारण दिव्यांशी का सम्मान और ज्यादा बढ़ गया था.

एक दिन अचानक दिव्यांशी ने फिर से सभी औरतों को अपने घर बुलवा लिया. इस बार मामला कुछ गंभीर लग रहा था.

सुमित्रा की तरफ देख कर दिव्यांशी बोली, ‘‘मैं ने आप सभी में अपना परिवार देखा है, आप लोगों से जो प्यार और इज्जत मिली है, उसी के आधार पर मैं आप लोगों से एक बात की इजाजत और चाहती हूं. मैं और रामाधार शादी करना चाहते हैं.

‘‘दरअसल, रामाधार को दुबई में दूसरी नौकरी मिल गई है और उसे अगले 3 महीनों में कागजी कार्यवाही कर के वहां नौकरी जौइन करनी है. वहां जाने के बाद वह वहां पर मेरे लिए भी जौब की जुगाड़ कर लेगा. जाने से पहले वह शादी कर के जाना चाहता है, ताकि पतिपत्नी के रूप में हमें एक ही संस्थान में काम मिल जाए.

‘‘मैं ने अपने चाचा को भी बता दिया है. वे भी इस रिश्ते से सहमत हैं, पर यहां आने में नाकाम हैं, क्योंकि उन के साले का गंभीर ऐक्सिडैंट हो गया है.’’

सभी औरतें एकदूसरे की तरफ देखने लगीं. 16 नंबर मकान में रहने वाली कमला ताई दिव्यांशी की हमदर्द बन गई थीं. उन की आंखों में सवाल देख दिव्यांशी बोली, ‘‘ताईजी, रामाधार की कहानी भी मेरे ही जैसी है. उस के मातापिता की मौत बचपन में ही हो गई थी. कोई और रिश्तेदार न होने के कारण पड़ोसियों ने उसे अनाथ आश्रम में दे दिया था. वहीं पर रह कर उस ने पढ़ाई की और आज इस लायक बना.’’

अब तो सभी के मन में रामाधार के प्रति हमदर्दी के भाव उमड़ पड़े.

‘‘शादी कब करने की सोच रहे हो,’’ 10 नंबर वाली कल्पना भाभी ने पूछा.

‘‘इसी हफ्ते शादी हो जाएगी तो अच्छा होगा और कागजी कार्यवाही करने में भी आसानी होगी.’’

‘‘इतनी जल्दी तैयारी कैसे होगी?’’ सुमित्रा ने सवाल किया.

‘‘तैयारी क्या करनी है, हम ने सोचा है कि हम आर्य समाज मंदिर में शादी करेंगे और शाम का खाना रामभरोसे होटल में रख कर आशीर्वाद समारोह आयोजित कर लेंगे. दूसरे दिन सुबह रामाधार अपनी कागजी कार्यवाही के लिए दिल्ली चला जाएगा और 10-12 दिन बाद जब वापस आएगा तो मैं उस के घर चली जाऊंगी.

‘‘मैं आप लोगों से अनुरोध करूंगी कि आप मुझे ट्यूशन की फीस अगले 3 महीने की एडवांस में दे दें. सामान के बदले में मुझे कैश ही दें क्योंकि सामान तो मैं साथ ले जा नहीं पाऊंगी.’’

सभी को दिव्यांशी की भविष्य के प्रति गंभीरता पसंद आई. 11 नंबर मकान में रहने वाली चंदा चाची उत्सुकतावश बोली, ‘‘बिना जेवर के दुलहन अच्छी नहीं लगती इसलिए शादी के दिन मैं अपना नया वाला सोने का सैट, जो अपनी बेटी की शादी के लिए बनवाया है, उस दिन दिव्यांशी को पहना दूंगी.’’

‘‘जी चाचीजी, रिसैप्शन के बाद मैं वापस कर दूंगी,’’ दिव्यांशी बोली.

अब तो होड़ मच गई. कोई अंगूठी, तो कोई पायल, कोई चैन, तो कोई कंगन दिव्यांशी को देने को तैयार हो गया. सुधा चाची ने अपनी लड़की का नया लहंगा दे दिया.

कुल 50-55 घरों वाले इस महल्ले में कन्यादान करने वालों की भी होड़ लग गई. कोई 5,000 रुपए दे रहा था, तो कोई 2,100 रुपए.

शादी के दिन महल्ले में उत्सव जैसा माहौल था. सभी छुट्टी ले कर घर पर ही थे. अपनेअपने वादे के मुताबिक सभी ने अपने गहनेकपड़े दिव्यांशी को दे दिए थे.

शादी दोपहर 12 बजे होनी थी. इसी वजह से दिव्यांशी को सुबह 9 बजे ब्यूटीपार्लर पहुंचना था और वहीं से आर्य समाज मंदिर. लेकिन सब से बड़ा सवाल यह था कि दिव्यांशी को ब्यूटीपार्लर ले कर जाएगा कौन?

इतनी सुबह उस के साथ जाने का मतलब था कि खुद को बिना तैयार किए शादी में जाना, इसलिए यह निश्चित हुआ कि सुमित्रा के पति दिव्यांशी को अपने साथ ले कर जाएंगे और ब्यूटीपार्लर की जगह पर छोड़ देंगे. जैसे ही पार्लर का काम पूरा हो जाएगा, दिव्यांशी फोन कर के उन्हें बुलवा लेगी और वहीं से सभी आर्य समाज मंदिर चले जाएंगे.

तय समय के मुताबिक ही सारा कार्यक्रम शुरू हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे सुमित्रा के पति अपनी कार ले कर दिव्यांशी के दरवाजे पर पहुंच गए और उस के बताए ब्यूटीपार्लर पर सारे सामान के साथ ले गए. पार्लर अभीअभी खुला ही था. वह उसे पार्लर पर छोड़ कर चले गए.

अब सभी तैयार होने लगे. चूंकि रिसैप्शन शाम को होना था इसीलिए तकरीबन सभी घरों में या तो सिर्फ नाश्ता बना या खिचड़ी.

तकरीबन साढ़े 11 बजे सुमित्रा सपरिवार दिव्यांशी को लेने के लिए पार्लर पहुंची, पर दिव्यांशी तो वहां थी ही नहीं. ज्यादा जानकारी लेने पर पता चला कि पार्लर तो साढ़े 10 बजे खुलता है. 9 बजे तो सफाई वाला आता है जो पार्लर के कर्मचारियों के आने के बाद चला जाता है. आज सुबह 9 बजे किसी का भी किसी तरह का अपौइंटमैंट नहीं था.

सुमित्रा को चक्कर आने लगे. वह किसी तरह चल कर कार तक पहुंची और पति को सारी बात बताई.

पति तुरंत पार्लर के अंदर गए और उन के अनुरोध पर उस सफाई वाले को बुलवाया गया, ताकि कुछ पता चल सके.

सफाई वाले ने जो बताया, उसे सुन कर सभी के होश उड़ गए. उस ने बताया, ‘‘सुबह जो लड़की पार्लर में आई थी, उस ने बताया था कि वह एक नाटक में एक विकलांग भिखारी का रोल कर रही है. उसे हेयर कट और मेकअप कराना है.

‘‘तब मैं ने बताया कि पार्लर तो सुबह साढ़े 10 बजे खुलेगा, तो वह कहने लगी कि तब तक मेरा पैर फालतू ही मुड़ा रहेगा, मैं वाशरूम में जा कर पैरों में लगी इलास्टिक को निकाल लूं क्या? जब तक पार्लर खुलेगा, मैं नाश्ता कर के आ जाऊंगी.

‘‘मैं ने कहा ठीक है. देखिए, इस कोने में उस की बैसाखियां और निकला हुआ इलास्टिक रखा है.’’

सभी ने देखा, बैसाखियों के साथ एक छोटी सी थैली रखी थी. इस में चौड़े वाले 2 इलास्टिक और दिव्यांशी के फोन का सिम कार्ड रखा हुआ था.

आर्य समाज मंदिर में सभी लोग अपनेआप को ठगा सा महसूस करते हुए एकदूसरे की तरफ देख रहे थे.

शादी: सुरेशजी को अपनी बेटी पर क्यों गर्व हो रहा था?

‘‘सुनो, आप को याद है न कि आज शाम को राहुल की शादी में जाना है. टाइम से घर आ जाना. फार्म हाउस में शादी है. वहां पहुंचने में कम से कम 1 घंटा तो लग ही जाएगा,’’ सुकन्या ने सुरेश को नाश्ते की टेबल पर बैठते ही कहा.

‘‘मैं तो भूल ही गया था, अच्छा हुआ जो तुम ने याद दिला दिया,’’ सुरेश ने आलू का परांठा तोड़ते हुए कहा.

‘‘आजकल आप बातों को भूलने बहुत लगे हैं, क्या बात है?’’ सुकन्या ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा.

‘‘आफिस में काम बहुत ज्यादा हो गया है और कंपनी वाले कम स्टाफ से काम चलाना चाहते हैं. दम मारने की फुरसत नहीं होती है. अच्छा सुनो, एक काम करना, 5 बजे मुझे फोन करना. मैं समय से आ जाऊंगा.’’

‘‘क्या कहते हो, 5 बजे,’’ सुकन्या ने आश्चर्य से कहा, ‘‘आफिस से घर आने में ही तुम्हें 1 घंटा लग जाता है. फिर तैयार हो कर शादी में जाना है. आप आज आफिस से जल्दी निकलना. 5 बजे तक घर आ जाना.’’

‘‘अच्छा, कोशिश करूंगा,’’ सुरेश ने आफिस जाने के लिए ब्रीफकेस उठाते हुए कहा.

आफिस पहुंच कर सुरेश हैरान रह गया कि स्टाफ की उपस्थिति नाममात्र की थी. आफिस में हर किसी को शादी में जाना था. आधा स्टाफ छुट्टी पर था और बाकी स्टाफ हाफ डे कर के लंच के बाद छुट्टी करने की सोच रहा था. पूरे आफिस में कोई काम नहीं कर रहा था. हर किसी की जबान पर बस यही चर्चा थी कि आज शादियों का जबरदस्त मुहूर्त है, जिस की शादी का मुहूर्त नहीं निकल रहा है उस की शादी बिना मुहूर्त के आज हो सकती है. इसलिए आज शहर में 10 हजार शादियां हैं.

सुरेश अपनी कुरसी पर बैठ कर फाइलें देख रहा था तभी मैनेजर वर्मा उस के सामने कुरसी खींच कर बैठ गए और गला साफ कर के बोले, ‘‘आज तो गजब का मुहूर्त है, सुना है कि आज शहर में 10 हजार शादियां हैं, हर कोई छुट्टी मांग रहा है, लंच के बाद तो पूरा आफिस लगभग खाली हो जाएगा. छुट्टी तो घोषित कर नहीं सकते सुरेशजी, लेकिन मजबूरी है, किसी को रोक भी नहीं सकते. आप को भी किसी शादी में जाना होगा.’’

‘‘वर्माजी, आप तो जबरदस्त ज्ञानी हैं, आप को कैसे मालूम कि मुझे भी आज शादी में जाना है,’’ सुरेश ने फाइल बंद कर के एक तरफ रख दी और वर्माजी को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला.

‘‘यह भी कोई पूछने की बात है, आज तो हर आदमी, बच्चे से ले कर बूढ़े तक सभी बराती बनेंगे. आखिर 10 हजार शादियां जो हैं,’’ वर्माजी ने उंगली में कार की चाबी घुमाते हुए कहा, ‘‘आखिर मैं भी तो आज एक बराती हूं.’’

‘‘वर्माजी, एक बात समझ में नहीं आ रही कि क्या वाकई में पूरे स्टाफ को शादी में जाना है या फिर 10 हजार शादियों की खबर सुन कर आफिस से छुट्टी का एक बहाना मिल गया है,’’ सुरेश ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘लगता है कि आप को आज किसी शादी का न्योता नहीं मिला है, घर पर भाभीजी के साथ कैंडल लाइट डिनर करने का इरादा है. तभी इस तरीके की बातें कर रहे हो, वरना घर जल्दी जाने की सोच रहे होते सुरेश बाबू,’’ वर्माजी ने चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘नहीं, वर्माजी, ऐसी बात नहीं है. शादी का न्योता तो है, लेकिन जाने का मन नहीं है, पत्नी चलने को कह रही है. लगता है जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों भई…भाभीजी के मायके में शादी है,’’ वर्माजी ने आंख मारते हुए कहा.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है, वर्माजी. पड़ोसी की शादी में जाना है. ऊपर वाले फ्लैट में नंदकिशोरजी रहते हैं, उन के बेटे राहुल की शादी है. मन इसलिए नहीं कर रहा कि बहुत दूर फार्म हाउस में शादी है. पहले तो 1 घंटा घर पहुंचने में लगेगा, फिर घर से कम से कम 1 घंटा फार्म हाउस पहुंचने में लगेगा. थक जाऊंगा. यदि आप कल की छुट्टी दे दें तो शादी में चला जाऊंगा.’’

‘‘अरे, सुरेश बाबू, आप डरते बहुत हैं. आज शादी में जाइए, कल की कल देखेंगे,’’ कह कर वर्माजी चले गए.

मुझे डरपोक कहता है, खुद जल्दी जाने के चक्कर में मेरे कंधे पर बंदूक रख कर चलाना चाहता है, सुरेश मन ही मन बुदबुदाया और काम में व्यस्त हो गया.

शाम को ठीक 5 बजे सुकन्या ने फोन कर के सुरेश को शादी में जाने की याद दिलाई कि सोसाइटी में लगभग सभी को नंदकिशोरजी ने शादी का न्योता दिया है और सभी शादी में जाएंगे. तभी चपरासी ने कहा, ‘‘साबजी, पूरा आफिस खाली हो गया है, मुझे भी शादी में जाना है, आप कितनी देर तक बैठेंगे?’’

चपरासी की बात सुन कर सुरेश ने काम बंद किया और धीमे से मुसकरा कर कहा, ‘‘मैं ने भी शादी में जाना है, आफिस बंद कर दो.’’

सुरेश ने कार स्टार्ट की, रास्ते में सोचने लगा कि दिल्ली एक महानगर है और 1 करोड़ से ऊपर की आबादी है, लेकिन एक दिन में 10 हजार शादियां कहां हो सकती हैं. घोड़ी, बैंड, हलवाई, वेटर, बसों के साथ होटल, पार्क, गलीमहल्ले आदि का इंतजाम मुश्किल लगता है. रास्ते में टै्रफिक भी कोई ज्यादा नहीं है, आम दिनों की तरह भीड़भाड़ है. आफिस से घर की 30 किलोमीटर की दूरी तय करने में 1 से सवा घंटा लग जाता है और लगभग आधी दिल्ली का सफर हो जाता है. अगर पूरी दिल्ली में 10 हजार शादियां हैं तो आधी दिल्ली में 5 हजार तो अवश्य होनी चाहिए. लेकिन लगता है लोगों को बढ़ाचढ़ा कर बातें करने की आदत है और ऊपर से टीवी चैनल वाले खबरें इस तरह से पेश करते हैं कि लोगों को विश्वास हो जाता है. यही सब सोचतेसोचते सुरेश घर पहुंच गया.

घर पर सुकन्या ने फौरन चाय के साथ समोसे परोसते हुए कहा, ‘‘टाइम से तैयार हो जाओ, सोसाइटी से सभी शादी में जा रहे हैं, जिन को नंदकिशोरजी ने न्योता दिया है.’’

‘‘बच्चे भी चलेंगे?’’

‘‘बच्चे अब बड़े हो गए हैं, हमारे साथ कहां जाएंगे.’’

‘‘हमारा जाना क्या जरूरी है?’’

‘‘जाना बहुत जरूरी है, एक तो वह ऊपर वाले फ्लैट में रहते हैं और फिर श्रीमती नंदकिशोरजी तो हमारी किटी पार्टी की मेंबर हैं. जो नहीं जाएगा, कच्चा चबा जाएंगी.’’

‘‘इतना डरती क्यों हो उस से? वह ऊपर वाले फ्लैट में जरूर रहते हैं, लेकिन साल 6 महीने में एकदो बार ही दुआ सलाम होती है, जाने न जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ सुरेश ने चाय की चुस्कियों के बीच कहा.

‘‘डरे मेरी जूती…शादी में जाने की तमन्ना सिर्फ इसलिए है कि वह घर में बातें बड़ीबड़ी करती है, जैसे कोई अरबपति की बीवी हो. हम सोसाइटी की औरतें तो उस की शानशौकत का जायजा लेने जा रही हैं. किटी पार्टी का हर सदस्य शादी की हर गतिविधि और बारीक से बारीक पहलू पर नजर रखेगा. इसलिए जाना जरूरी है, चाहे कितना ही आंधीतूफान आ जाए.’’

सुकन्या की इस बात को उन की बेटी रोहिणी ने काटा, ‘‘पापा, आप को मालूम नहीं है, जेम्स बांड 007 की पूरी टीम साडि़यां पहन कर जासूसी करने में लग गई है. इन के वार से कोई नहीं बच सकता है…’’

सुकन्या ने बीच में बात काटते हुए कहा, ‘‘तुम लोगों के खाने का क्या हिसाब रहेगा. मुझे कम से कम बेफिक्री तो हो.’’

‘‘क्या मम्मा, अब हम बच्चे नहीं हैं, भाई पिज्जा और बर्गर ले कर आएगा. हमारा डिनर का मीनू तो छोटा सा है, आप का तो लंबाचौड़ा होगा,’’ कह कर रोहिणी खिलखिला कर हंस पड़ी. फिर चौंक कर बोली, ‘‘यह क्या मां, यह साड़ी पहनोगी…नहींनहीं, शादी में पहनने की साड़ी मैं सिलेक्ट करती हूं,’’ कहतेकहते रोहिणी ने एक साड़ी निकाली और मां के ऊपर लपेट कर बोली, ‘‘पापा, इधर देख कर बताओ कि मां कैसी लग रही हैं.’’

‘‘एक बात तो माननी पड़ेगी कि बेटी मां से अधिक सयानी हो गई है, श्रीमतीजी आज गश खा कर गिर जाएंगी.’’

तभी रोहन पिज्जा और बर्गर ले कर आ गया, ‘‘अरे, आज तो कमाल हो गया. मां तो दुलहन लग रही हैं. पूरी बरात में अलग से नजर आएंगी.’’

बच्चों की बातें सुन कर सुकन्या गर्व से फूल गई और तैयार होने लगी. तैयार हो कर सुरेश और सुकन्या जैसे ही कार में बैठने के लिए सोसाइटी के कंपाउंड में आए, सुरेश हैरानी के साथ बोल पड़े, ‘‘लगता है कि आज पूरी सोसाइटी शादी में जा रही है, सारे चमकधमक रहे हैं. वर्मा, शर्मा, रस्तोगी, साहनी, भसीन, गुप्ता, अग्रवाल सभी अपनी कारें निकाल रहे हैं, आज तो सोसाइटी कारविहीन हो जाएगी.’’

मुसकराती हुई सुकन्या ने कहा, ‘‘सारे अलग शादियों में नहीं, बल्कि राहुल की शादी में जा रहे हैं.’’

‘‘दिल खोल कर न्योता दिया है नंदकिशोरजी ने.’’

‘‘दिल की मत पूछो, फार्म हाउस में शादी का सारा खर्च वधू पक्ष का होगा, इसलिए पूरी सोसाइटी को निमंत्रण दे दिया वरना अपने घर तो उन की पत्नी ने किसी को भी नहीं बुलाया. एक नंबर के कंजूस हैं दोनों पतिपत्नी. हम तो उसे किटी पार्टी का मेंबर बनाने को राजी नहीं होते हैं. जबरदस्ती हर साल किसी न किसी बहाने मेंबर बन जाती है.’’

‘‘इतनी नाराजगी भी अच्छी नहीं कि मेकअप ही खराब हो जाए,’’ सुरेश ने कार स्टार्ट करते हुए कहा.

‘‘कितनी देर लगेगी फार्म हाउस पहुंचने में?’’ सुकन्या ने पूछा.

‘‘यह तो टै्रफिक पर निर्भर है, कितना समय लगेगा, 1 घंटा भी लग सकता है, डेढ़ भी और 2 भी.’’

‘‘मैं एफएम रेडियो पर टै्रफिक का हाल जानती हूं,’’ कह कर सुकन्या ने रेडियो चालू किया.

तभी रेडियो जौकी यानी कि उद्घोषिका ने शहर में 10 हजार शादियों का जिक्र छेड़ते हुए कहा कि आज हर दिल्लीवासी किसी न किसी शादी में जा रहा है और चारों तरफ शादियों की धूम है. यह सुन कर सुरेश ने सुकन्या से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि आज शहर में 10 हजार शादियां होंगी?’’

‘‘आप तो ऐसे पूछ रहे हो, जैसे मैं कोई पंडित हूं और शादियों का मुहूर्त मैं ने ही निकाला है.’’

‘‘एक बात जरूर है कि आज शादियां अधिक हैं, लेकिन कितनी, पता नहीं. हां, एक बात पर मैं अडिग हूं कि 10 हजार नहीं होंगी. 2-3 हजार को 10 हजार बनाने में लोगों को कोई अधिक समय नहीं लगता. बात का बतंगड़ बनाने में फालतू आदमी माहिर होते हैं.’’

तभी रेडियो टनाटन ने टै्रफिक का हाल सुनाना शुरू किया, ‘यदि आप वहां जा रहे हैं तो अपना रूट बदल लें,’ यह सुन कर सुरेश ने कहा, ‘‘रेडियो स्टेशन पर बैठ कर कहना आसान है कि रूट बदल लें, लेकिन जाएं तो कहां से, दिल्ली की हर दूसरी सड़क पर टै्रफिक होता है. हर रोज सुबहशाम 2 घंटे की ड्राइविंग हो जाती है. आराम से चलते चलो, सब्र और संयम के साथ.’’

बातों ही बातों में कार की रफ्तार धीमी हो गई और आगे वाली कार के चालक ने कार से अपनी गरदन बाहर निकाली और बोला, ‘‘भाई साहब, कार थोड़ी पीछे करना, वापस मोड़नी है, आगे टै्रफिक जाम है, एफ एम रेडियो भी यही कह रहा है.’’

उस को देखते ही कई स्कूटर और बाइक वाले पलट कर चलने लगे. कार वालों ने भी कारें वापस मोड़नी शुरू कर दीं. यह देख कर सुकन्या ने कहा, ‘‘आप क्या देख रहे हो, जब सब वापस मुड़ रहे हैं तो आप भी इन के साथ मुड़ जाइए.’’

सुरेश ने कार नहीं मोड़ी बल्कि मुड़ी कारों की जगह धीरेधीरे कार आगे बढ़ानी शुरू की.

‘‘यह आप क्या कर रहे हो, टै्रफिक जाम में फंस जाएंगे,’’ सुकन्या ने सुरेश की ओर देखते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं होगा, यह तो रोज की कहानी है. जो कारें वापस मुड़ रही हैं, वे सब आगे पहुंच कर दूसरी लेन को भी जाम करेंगी.’’ धीरेधीरे सुरेश कार को अपनी लेन में रख कर आगे बढ़ाता रहा. चौराहे पर एक टेंपो खराब खड़ा था, जिस कारण टै्रफिक का बुरा हाल था.

‘‘यहां तो काफी बुरा हाल है, देर न हो जाए,’’ सुकन्या थोड़ी परेशान हो गई.

‘‘कुछ नहीं होगा, 10 मिनट जरूर लग सकते हैं. यहां संयम की आवश्यकता है.’’

बातोंबातों में 10 मिनट में चौराहे को पार कर लिया और कार ने थोड़ी रफ्तार पकड़ी. थोड़ीथोड़ी दूरी पर कभी कोई बरात मिलती, तो कार की रफ्तार कम हो जाती तो कहीं बीच सड़क पर बस वाले बस रोक कर सवारियों को उतारने, चढ़ाने का काम करते मिले.

फार्म हाउस आ गया. बरात अभी बाहर सड़क पर नाच रही थी. बरातियों ने अंदर जाना शुरू कर दिया, सोसाइटी निवासी पहले ही पहुंच गए थे और चाट के स्टाल पर मशगूल थे.

‘‘लगता है, हम ही देर से पहुंचे हैं, सोसाइटी के लोग तो हमारे साथ चले थे, लेकिन पहले आ गए,’’ सुरेश ने चारों तरफ नजर दौड़ाते हुए सुकन्या से कहा.

‘‘इतनी धीरे कार चलाते हो, जल्दी कैसे पहुंच सकते थे,’’ इतना कह कर सुकन्या बोली, ‘‘हाय मिसेज वर्मा, आज तो बहुत जंच रही हो.’’

‘‘अरे, कहां, तुम्हारे आगे तो आज सब फीके हैं,’’ मिसेज गुप्ता बोलीं, ‘‘देखो तो कितना खूबसूरत नेकलेस है, छोटा जरूर है लेकिन डिजाइन लाजवाब है. हीरे कितने चमक रहे हैं, जरूर महंगा होगा.’’

‘‘पहले कभी देखा नहीं, कहां से लिया? देखो तो, साथ के मैचिंग टाप्स भी लाजवाब हैं,’’ एक के बाद एक प्रश्नों की झड़ी लग गई, साथ ही सभी सोसाइटी की महिलाओं ने सुकन्या को घेर लिया और वह मंदमंद मुसकाती हुई एक कुरसी पर बैठ गई. सुरेश एक तरफ कोने में अलग कुरसी पर अकेले बैठे थे, तभी रस्तोगी ने कंधे पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘क्या यार, सुरेश…यहां छिप कर चुपके से महिलाआें की बातों में कान अड़ाए बैठे हो. उठो, उधर मर्दों की महफिल लगी है. सब इंतजाम है, आ जाओ…’’

सुरेश कुरसी छोड़ते हुए कहने लगे, ‘‘रस्तोगी, मैं पीता नहीं हूं, तुझे पता है, क्या करूंगा महफिल में जा कर.’’

‘‘आओ तो सही, गपशप ही सही, मैं कौन सा रोज पीने वाला हूं. जलजीरा, सौफ्ट ड्रिंक्स सबकुछ है,’’ कह कर रस्तोगी ने सुरेश का हाथ पकड़ कर खींचा और दोनों महफिल में शरीक हो गए, जहां जाम के बीच में ठहाके लग रहे थे.

‘‘यार, नंदकिशोर ने हाथ लंबा मारा है, सबकुछ लड़की पक्ष वाले कर रहे हैं. फार्म आउस में शादी, पीने का, खाने का इंतजाम तो देखो,’’ अग्रवाल ने कहा.

‘‘अंदर की बात बताता हूं, सब प्यारमुहब्बत का मामला है,’’ साहनी बोला.

‘‘अमा यार, पहेलियां बुझाना छोड़ कर जरा खुल कर बताओ,’’ गुप्ता ने पूछा.

‘‘राहुल और यह लड़की कालिज में एकसाथ पढ़ते थे, वहीं प्यार हो गया. जब लड़कालड़की राजी तो क्या करेगा काजी, थकहार कर लड़की के बाप को मानना पड़ा,’’ साहनी चटकारे ले कर प्यार के किस्से सुनाने लगा. फिर मुड़ कर सुरेश से कहने लगा, ‘‘अरे, आप तो मंदमंद मुसकरा रहे हैं, क्या बात है, कुछ तो फरमाइए.’’

‘‘मैं यह सोच रहा हूं कि क्या जरूरत है, शादियों में फुजूल का पैसा लगाने की, इसी शादी को देख लो, फार्म हाउस का किराया, साजसजावट, खानेपीने का खर्चा, लेनदेन, गहने और न जाने क्याक्या खर्च होता है,’’ सुरेश ने दार्शनिक भाव से कहा.

‘‘यार, जिस के पास जितना धन होता है, शादी में खर्च करता है. इस में फुजूलखर्ची की क्या बात है. आखिर धन को संचित ही इसीलिए करते हैं,’’ अग्रवाल ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा.

‘‘नहीं, धन का संचय शादियों के लिए नहीं, बल्कि कठिन समय के लिए भी किया जाता है…’’

सुरेश की बात बीच में काटते हुए गुप्ता बोला, ‘‘देख, लड़की वालों के पास धन की कोई कमी नहीं है. समंदर में से दोचार लोटे निकल जाएंगे, तो कुछ फर्क नहीं पड़ेगा.’’

‘‘यह सोच गलत है. यह तो पैसे की बरबादी है,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘सारा मूड खराब कर दिया,’’ साहनी ने बात को समाप्त करते हुए कहा, ‘‘यहां हम जश्न मना रहे हैं, स्वामीजी ने प्रवचन शुरू कर दिए. बाईगौड रस्तोगी, जहां से इसे लाया था, वहीं छोड़ आ.’’

सुरेश चुपचाप वहां से निकल लिए और सुकन्या को ढूंढ़ने लगे.

‘‘क्या बात है, भाई साहब, कहां नैनमटक्का कर रहे हैं,’’ मिसेज साहनी ने कहा, जो सुकन्या के साथ गोलगप्पे के स्टाल पर खट्टेमीठे पानी का मजा ले रही थी और साथ कह रही थी, ‘‘सुकन्या, गोलगप्पे का पानी बड़ा बकवास है, इतनी बड़ी पार्टी और चाटपकौड़ी तो एकदम थर्ड क्लास.’’

सुकन्या मुसकरा दी.

‘‘मुझ से तो भूखा नहीं रहा जाता,’’ मिसेज साहनी बोलीं, ‘‘शगुन दिया है, डबल तो वसूल करने हैं.’’

उन की बातें सुन कर सुरेश मुसकरा दिए कि दोनों मियांबीवी एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं. मियां ज्यादा पी कर होश खो बैठा है और बीवी मीनमेख के बावजूद खाए जा रही है.

सुरेश ने सुकन्या से कहा, ‘‘खाना शुरू हुआ है, तो थोड़ा खा लेते हैं, नहीं तो निकलने की सोचते हैं.’’

‘‘इतनी जल्दी क्या है, अभी तो कोई भी नहीं जा रहा है.’’

‘‘पूरे दिन काम की थकान, फिर फार्म हाउस पहुंचने का थकान भरा सफर और अब खाने का लंबा इंतजार, बेगम साहिबा घर वापस जाने में भी कम से कम 1 घंटा तो लग ही जाएगा. चलते हैं, आंखें नींद से बोझिल हो रही हैं, इस वाहन चालक पर भी कुछ तरस करो.’’

‘‘तुम भी बच्चों की तरह मचल जाते हो और रट लगा लेते हो कि घर चलो, घर चलो.’’

‘‘मैं फिर इधर सोफे पर थोड़ा आराम कर लेता हूं, अभी तो वहां कोई नहीं है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुकन्या सोसाइटी की अन्य महिलाआें के साथ बातें करने लगी और सुरेश एक खाली सोफे पर आराम से पैर फैला कर अधलेटे हो गए. आंखें बंद कर के सुरेश आराम की सोच रहे थे कि एक जोर का हाथ कंधे पर लगा, ‘‘सुरेश बाबू, यह अच्छी बात नहीं है, अकेलेअकेले सो रहे हो. जश्न मनाने के बजाय सुस्ती फैला रहे हो.’’

सुरेश ने आंखें खोल कर देखा तो गुप्ताजी दांत फाड़ रहे थे.

मन ही मन भद्दी गाली निकाल कर प्रत्यक्ष में सुरेश बोले, ‘‘गुप्ताजी, आफिस में कुछ अधिक काम की वजह से थक गया था, सोचा कि 5 मिनट आराम कर लूं.’’

‘‘उठ यार, यह मौका जश्न मनाने का है, सोने का नहीं,’’ गुप्ताजी हाथ पकड़ कर सुरेश को डीजे फ्लोर पर ले गए जहां डीजे के शोर में वर और वधू पक्ष के नजदीकी नाच रहे थे, ‘‘देख नंदकिशोर के ठुमके,’’ गुप्ताजी बोले पर सुरेश का ध्यान सुकन्या को ढूंढ़ने में था कि किस तरीके से अलविदा कह कर वापस घर रवानगी की जाए.

सुकन्या सोसाइटी की महिलाओं के साथ गपशप में व्यस्त थी. सुरेश को नजदीक आता देख मिसेज रस्तोगी ने कहा, ‘‘भाई साहब को कह, आज तो मंडराना छोड़ें, मर्द पार्टी में जाएं. बारबार महिला पार्टी में आ जाते हैं.’’

‘‘भाभीजी, कल मैं आफिस से छुट्टी नहीं ले सकता, जरूरी काम है, घर भी जाना है, रात की नींद पूरी नहीं होगी तो आफिस में काम कैसे करूंगा. अब तो आप सुकन्या को मेरे हवाले कीजिए, नहीं तो उठा के ले जाना पड़ेगा,’’ सुरेश के इतना कहते ही पूरी महिला पार्टी ठहाके में डूब गई.

‘‘क्या बचपना करते हो, थोड़ी देर इंतजार करो, सब के साथ चलेंगे. पार्टी का आनंद उठाओ. थोड़ा सुस्ता लो. देखो, उस कोने में सोफे खाली हैं, आप थोड़ा आराम करो, मैं अभी वहीं आती हूं.’’

मुंह लटका कर सुरेश फिर खाली सोफे पर अधलेटे हो गए और उन की आंख लग गई.

नींद में सुरेश ने करवट बदली तो सोफे से नीचे गिरतेगिरते बचे. इस चक्कर में उन की नींद खुल गई. चंद मिनटों की गहरी नींद ने सुरेश की थकान दूर कर दी थी. तभी सुकन्या आई, ‘‘तुम बड़े अच्छे हो, एक नींद पूरी कर ली. चलो, खाना शुरू हो गया है.’’

सुरेश ने घड़ी देखी, ‘‘रात का 1 बजा था. अब 1 बजे खाना परोस रहे हैं.’’

खाना खाते और फिर मिलते, अलविदा लेते ढाई बज गए. कार स्टार्ट कर के सुरेश बोले, ‘‘आज रात लांग ड्राइव होगी, घर पहुंचतेपहुंचते साढ़े 3 बज जाएंगे. मैं सोचता हूं कि उस समय सोने के बजाय चाय पी जाए और सुबह की सैर की जाए, मजा आ जाएगा.’’

‘‘आप तो सो लिए थे, मैं बुरी तरह थक चुकी हूं. मैं तो नींद जरूर लूंगी… लेकिन आप इतनी धीरे कार क्यों चला रहे हो?’’

‘‘रात के खाली सड़कों पर तेज रफ्तार की वजह से ही भयानक दुर्घटनाएं होती हैं. दरअसल, पार्टियों से वापस आते लोग शराब के नशे में तेज रफ्तार के कारण कार को संभाल नहीं पाते. इसी से दुर्घटनाएं होती हैं. सड़कों पर रोशनी पूरी नहीं होती, सामने से आने वाले वाहनों की हैडलाइट से आंखों में चौंध पड़ती है, पटरी और रोडडिवाइडर नजर नहीं आते हैं, इसलिए जब देरी हो गई है तो आधा घंटा और सही.’’

पौने 4 बजे वे घर पहुंचे, लाइट खोली तो रोहिणी उठ गई, ‘‘क्या बात है पापा, पूरी रात शादी में बिता दी. कल आफिस की छुट्टी करोगे क्या?’’

सुरेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘कल नहीं, आज. अब तो तारीख भी बदल गई है. आज आफिस में जरूरी काम है, छुट्टी का मतलब ही नहीं. अगर अब सो गया तो समझ लो, दोपहर से पहले उठना ही नहीं होगा. बेटे, अब तो एक कप चाय पी कर सुबह की सैर पर जाऊंगा.’’

‘‘पापा, आप कपड़े बदलिए, मैं चाय बनाती हूं,’’ रोहिणी ने आंखें मलते हुए कहा.

‘‘तुम सो जाओ, बेटे, हमारी नींद तो खराब हो गई है, मैं चाय बनाती हूं,’’ सुकन्या ने रोहिणी से कहा.

चाय पीने के बाद सुरेश, सुकन्या और रोहिणी सुबह की सैर के लिए पार्क में गए.

‘‘आज असली आनंद आएगा सैर करने का, पूरा पार्क खाली, ऐसे लगता है कि हमारा प्राइवेट पार्क हो, हम आलसियों की तरह सोते रहते हैं. सुबह सैर का अपना अलग ही आनंद है,’’ सुरेश बांहें फैला कर गहरी सांस खींचता हुआ बोला.

‘‘आज क्या बात है, बड़ी दार्शनिक बातें कर रहे हो.’’

‘‘बात दार्शनिकता की नहीं, बल्कि जीवन की सचाई की है. कल रात शादी में देखा, दिखावा ही दिखावा. क्या हम शादियां सादगी से नहीं कर सकते? अगर सच कहें तो सारा शादी खर्च व्यर्थ है, फुजूल का है, जिस का कोई अर्थ नहीं है.’’

तभी रोहिणी जौगिंग करते हुए समीप पहुंच कर बोली, ‘‘पापा, बिलकुल ठीक है, शादियों पर सारा व्यर्थ का खर्चा होता है.’’

सुकन्या सुरेश के चेहरे को देखती हुई कुछ समझने की कोशिश करने लगी. फिर कुछ पल रुक कर बोली, ‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है. आज सुबह बापबेटी को क्या हो गया है?’’

‘‘बहुत आसान सी बात है, शादी में सारे रिश्तेदारों को, यारों को, पड़ोसियों को, मिलनेजुलने वालों को न्योता दिया जाता है कि शादी में आ कर शान बढ़ाओ. सब आते हैं, कुछ कामधंधा तो करते नहीं…उस पर सब यही चाहते हैं कि उन की साहबों जैसी खातिरदारी हो और तनिक भी कमी हो गई तो उलटासीधा बोलेंगे, जैसे कि नंदकिशोर के बेटे की शादी में देखा, हम सब जम कर दावत उड़ाए जा रहे थे और कमियां भी निकाल रहे थे.’’

तभी रोहिणी जौगिंग का एक और चक्कर पूरा कर के समीप आई और बोलने लगी तो सुकन्या ने टोक दिया, ‘‘आप की कोई विशेष टिप्पणी.’’

यह सुन कर रोहिणी ने हांफते हुए कहा, ‘‘पापा ने बिलकुल सही विश्लेषण किया है शादी का. शादी हमारी, बिरादरी को खुश करते फिरें, यह कहां की अक्लमंदी है और तुर्रा यह कि खुश फिर भी कोई नहीं होता. आखिर शादी को हम तमाशा बनाते ही क्यों हैं. अगर कोई शादी में किसी कारण से नहीं पहुंचा तो हम भी गिला रखते हैं कि आया नहीं. कोई किसी को नहीं छोड़ता. शादी करनी है तो घरपरिवार के सदस्यों में ही संपन्न हो जाए, जितना खच?र् शादी में हम करते हैं, अगर वह बचा कर बैंक में जमा करवा लें तो बुढ़ापे की पेंशन बन सकती है.’’

‘‘देखा सुकन्या, हमारी बेटी कितनी समझदार हो गई है. मुझे रोहिणी पर गर्व है. कितनी अच्छी तरह से भविष्य की सोच रही है. हम अपनी सारी जमापूंजी शादियों में खर्च कर देते हैं, अकसर तो उधार भी लेते हैं, जिस को चुकाना भी कई बार मुश्किल हो जाता है. अपनी चादर से अधिक खर्च जो करते हैं.’’

‘‘क्या बापबेटी को किसी प्रतियोगिता में भाग लेना है, जो वहां देने वाले भाषण का अभ्यास हो रहा है या कोई निबंध लिखना है.’’

‘‘काश, भारत का हर व्यक्ति ऐसा सोचता.

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