
चौबेजी पूजा से उठे ही थे, खबर मिली कि ठकुराइन अम्मा का देहावसान हो गया है. खबर सुनते ही अचानक उन के चमकते गालों की लालिमा और सुर्ख हो गई. होंठों पर मुसकान भी उभर आई. पत्नी पास ही खड़ी थी. मुसकराते हुए उस से पूछा, ‘‘अजी सुनती हो, ठकुराइन अम्मा नहीं रहीं, अच्छा मौका मिला है. तुम्हें जो चाहिए बता दो. फिर मत कहना कि कोई इच्छा अधूरी रह गई.’’
पत्नी खुशीखुशी कंगन, साड़ी जैसी अनगिनत मुरादें बताने लगी लेकिन चौबेजी को जल्दी थी इसलिए ठकुराइन की हवेली की तरफ दौड़ लिए. रास्ते में पूछताछ भी करते गए कि कब कैसे क्या हुआ है. जब वे हवेली पहुंचे तब तक वहां भारी भीड़ जमा हो चुकी थी. उन्हें अपनी लेटलतीफी पर गहरा अफसोस हुआ. वहां दर्जनभर पंडेपुजारी उन से पूर्व ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके थे. वैसे तो ठकुराइन उन्हीं की जजमान थीं, लेकिन अवसर कौन चूकता है. चील, कौए, गिद्ध जैसे शवों पर टूट पड़ते हैं ठीक वैसा ही नजारा इस समय हवेली में भी था.
ठकुराइन की उम्र लगभग 75-80 साल की रही होगी. भरापूरा परिवार, सम्मानित, धनाढ्य खानदान, खुद उन का समाज में खूब रुतबा था. खैर, बिना समय गंवाए चौबेजी ने मोरचा संभाला और ठकुराइन के बड़े बेटे केदार सिंह से मुखातिब हुए. कुरते की जेब से पंचांग निकाल कर, तुरुप का इक्का उछाला, ‘‘अम्माजी का देहांत कब हुआ है?’’
केदार सिंह ने सुबह का समय बताया तो चौबेजी चिहुंक कर बोले, ‘‘भला हो इस परिवार का,’’ उन के चेहरे पर चिंता और घबराहट के सधे हुए भाव स्पष्ट नजर आने लगे.
ठकुराइन का पूरा परिवार चौबेजी को विस्मयभरी नजरों से घूरने लगा. चौबेजी अपनी तरंग में बोलते चले गए, ‘‘बेटा, बुरा मत मानना लेकिन यह महाअपशकुन हुआ है तुम्हारे घर में. पंचक, अमावस और शनिवार के दिन ब्रह्ममुहूर्त में अचानक यों देह त्याग. यह शुभ संकेत नहीं है.’’
केदार सिंह ने डरते हुए पूछा, ‘‘क्या किया जाए, चौबेजी?’’
कुछ सोचते हुए गंभीर स्वर में चौबेजी बोले, ‘‘खर्चा होगा. दाहसंस्कार शास्त्रोक्त ढंग से कराना पड़ेगा, अन्यथा अनर्थ हो सकता है.’’
ठकुराइन का पूरा परिवार चौबेजी की हां में हां मिलाने लगा. अपना सिक्का जमता देख चौबेजी ने अपने आसपास खड़े अन्य पंडों पर नजर डाली. तुरंत सब ने उन की बात का समर्थन किया. कुछ पलों के लिए माहौल में भय और खामोशी छा गई. केदार सिंह ने फौरन सहमति देते हुए चौबेजी को दाहसंस्कार की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी. पंडों की पूरी मंडली अब चौबेजी के नेतृत्व में क्रियाकर्म की तैयारी में जुट गई. वैकुंठी (अरथी), चंदन की लकड़ी, देशी घी, पूजन सामग्री के नाम पर पूरे 51 हजार रुपए ऐंठ लिए गए. जो चेले सामान लेने गए उन्हें चौबेजी ने पहले ही संकेत कर दिया कि 2 पीपे देशी घी के पहले ही उन के घर पहुंचा दिए जाएं. वहां सामान संभालने या गिनती करने की भला फुरसत किसे थी.
ठकुराइन के मृत शरीर को वैकुंठी पर रखने का समय आया तो उन के परिवार की महिलाएं उन के जेवरात हटाने लगीं. चौबेजी ने फौरन हस्तक्षेप करते हुए टोका, ‘‘अरे, आप अपने खानदान की परंपरा और रुतबे का कुछ तो खयाल रखो. ऐसे नंगीबूची विदा करोगे अपनी अम्मा को? शास्त्रों में विधान है कि बिना स्वर्णाभूषणों के तो दाहसंस्कार संभव ही नहीं. इस तरह उन्हें मोक्ष कैसे मिल पाएगा?’’
बड़ी बहू ने पूछा, ‘‘फिर इन आभूषणों का क्या होगा?’’
चौबेजी ने उचित समय पर गरम लोहे पर चोट मारते हुए कहा, ‘‘जजमान, ये जेवरात तो क्रियाकर्म कराने वाले पंडों को मिलते हैं. तभी तो अम्माजी का मोक्ष संभव होगा.’’
लेकिन महंगाई के जमाने में ठकुराइन का परिवार इतने कीमती जेवर छोड़ने को तैयार न था. तर्कवितर्क होते रहे और अंत में मोलतोल के बाद चैन, अंगूठी, टौप्स और पायजेब पर बात डन हो गई. चौबेजी की आंखें चमकने लगी थीं. मन प्रसन्न था. आखिर अब समय आया था जब उन का दांव लगा था.
दरअसल, पिछले कुछ सालों में इन्हीं ठकुराइन ने उन की दुकानदारी बंद करवा दी थी. एक छोटी सी घटना को ले कर पंडों का विवाद ठकुराइन से क्या हुआ कि महिला होते हुए भी उन्होंने बड़ा क्रांतिकारी प्रतिरोध किया. घर के दरवाजे पंडेपुजारियों के लिए बंद करवा दिए और पूजापाठ के नाम पर होने वाली लूट को उन्होंने सख्ती से रोक दिया था.
कितने बुरे दिन निकले थे इस जमात के. मिन्नतें करने, माफी मांगने पर भी ठकुराइन का दिल नहीं पसीजा था. लेकिन चौबेजी को लग रहा था कि अब संयोग से लक्ष्मी स्वयं छप्पर फाड़ कर उन के घर आने वाली है. अब यह विडंबना ही थी कि ठकुराइन का पूरा परिवार पंडेपुजारियों के आगे बेबस था. इस का कारण श्रद्धा से ज्यादा मौत के प्रति मानव मन का स्वाभाविक भय था.
बहरहाल, दाहसंस्कार का कार्य निबट गया. शहर के पंडेपुजारियों की खूब कमाई हो गई. मजे की बात यह रही
कि रोजरोज आपस में लड़ने वाले पंडेपुजारियों में इस घटना पर अस्थायी एकता स्थापित हो गई. वैसे भी सामूहिक स्वार्थ के लिए विरोधियों में एकता होना कोई नई बात भी नहीं थी. दाहसंस्कार के बाद तेरहवीं और सत्तरहवीं तक उन सब का जमघट हवेली पर लगा रहा. चौबेजी और उन की मंडली सुबह से शाम तक हवेली में अपनी सेवाएं देने लगी. प्रवचन, कीर्तन, शास्त्रपुराणों का वाचन दिनभर चलता. चौबेजी ने अपने प्रवचन से श्रोताओं को बड़े सुंदर ढंग से समझाने का पूरा प्रयास किया कि इस समयावधि में मृतक परिवार द्वारा ‘जीवात्मा’ के मोक्ष के लिए क्याक्या उपक्रम किए जाने चाहिए. इस आयोजन से मिल रही संतुष्टि से ठकुराइन का पूरा परिवार नतमस्तक था. उन के मन में अब कोई संशय नहीं रह गया था कि ठकुराइन को मोक्ष नहीं मिलेगा. हवेली की तिजोरियां खुल चुकी थीं और ऐसे लोगों में मलाई चाटने की होड़ लगी रही. तेरहवीं की तैयारी जोरों पर थी. साथ ही चौबेजी छमाही और बरसी की रस्म भी लगेहाथों निबटा देना चाहते थे. समझदारी इसी में होती है कि संवेदनाओं को उचित समय पर ही ‘कैश’ करवा लेना चाहिए. शायद चौबेजी की यही मंशा रही होगी.
रात का समय था. चौबेजी चारपाई पर लेटे थे. पास बैठी अर्द्धांगिनी उन्हें समझाते हुए कह रही थी, ‘‘सुनो जी, अगर पट जाए तो आप अपने लिए एक गरम कोट भी मांग लो. छोटे बेटे की बरात में आप भी कोट पहन कर खूब जमोगे. दूसरे, बबलू कब से बाइक लेने को कह रहा है, फिर मेरा भी…’’ ऐसी बातें सुन कर चौबेजी के मुख पर मुसकान और गहरी हो गई.
दूसरे दिन सुबह हवेली जाते ही चौबेजी ने तेरहवीं के दिन की पूजापाठ, दानदक्षिणा की सूची केदार सिंह को सौंप दी. चौबेजी की नजर में सूची संक्षिप्त थी लेकिन उस में काफी कुछ था. 51 ब्राह्मणों का भोज, वस्त्र, दक्षिणास्वरूप 1,100 रुपए प्रति ब्राह्मण के सुझाव के अलावा वस्त्राभूषण समेत घरगृहस्थी के तमाम सामान लिखे थे जैसे गद्दे, रजाई, पलंग, बरतन इत्यादि. लेकिन सूची में गरम कोट और बाइक की डिमांड देख केदार सिंह का माथा ठनका.
चौबेजी की कलाकारी की अब गहन परीक्षा होनी थी. ठकुराइन के परिवार को इस अटपटी बात पर संतुष्ट करने के लिए चौबेजी ने अपनी बात कुछ इस तरह रखी, ‘‘जजमानों के कल्याण और शुभत्व की रक्षा के लिए यह सब जरूरी है. आप बाइक की बात को गलत न समझें क्योंकि जीवात्मा द्वारा वैतरणी पार कर मोक्षगामी होना गाय की पूंछ पकड़ कर ही संभव है लेकिन आधुनिक जमाने में हम पंडे भी शहर में गाय कैसे पाल सकते हैं? उस के विकल्प के लिए बाइक सर्वोत्तम साधन है.
वह हमारे काम भी आएगी और पूरा सदुपयोग भी होगा. इसलिए ठकुराइन की आत्मा को मुक्ति मिल सकेगी. गरम कोट भी इसीलिए लिखा है. सर्दी, गरमी, वर्षा तीनों ऋतुओं का खयाल तो रखना पड़ता है न? जो भी हमें दोगे वह सीधा ठकुराइन अम्मा की आत्मा को प्राप्त होगा, फिर दानदक्षिणा में जजमान को ज्यादा तर्कवितर्क नहीं करना चाहिए वरना श्रद्धा विलुप्त हो जाती है.’’
ठकुराइन का परिवार कुछ विरोध करता उस से पूर्व ही मंडली के सदस्य चौबेजी की बात का समर्थन करने लग गए. 1,100 रुपए की दक्षिणा की तजवीज सुनते ही चौबेजी के चेलेचपाटे समवेत स्वर में ठकुराइन के परिवार को संतुष्ट करने में जुट गए.
तेरहवीं और सत्तरहवीं की रस्में पूरी हो गईं. लगेहाथों छमाही और बरसी का कार्यक्रम भी संपन्न हो गया. चौबेजी समेत सभी पंडेपुजारी ठकुराइन के परिवार को खूब आशीष दे रहे थे. इस आयोजन में सभी को यथायोग्य माल मिल चुका था. सब मस्त थे. कारण, जिस में जितनी योग्यता, कलाकारी या हुनर था उस ने उसी के अनुरूप पा लिया था. ठकुराइन का मोक्ष हुआ या नहीं, यह तो अलग बात है लेकिन मोक्ष दिलाने वालों की खूब चांदी हो गई. यह मोक्ष कितने लाख में मिला, यह चौबेजी ही जानें.
मैं और पत्नी पिक्चर देख कर घर लौटे तो मेरी माताजी ने बताया कि जोधपुर के एक महानुभाव मुझ से मिलने के लिए करीब 6 बजे आए थे. मैं ने माताजी से पूछा, ‘‘उस आदमी का क्या नाम था और किसलिए आया था?’’ माताजी ने कहा, ‘‘नाम तो हम ने पूछा नहीं लेकिन जीप में आया और बोला कि पंवार साहब से मिलना है.’’ मैं ने बहुत सोचा लेकिन मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा और सोचतेसोचते शाम का खाना खा कर सो गया. दूसरे दिन सवेरे 7 बजे निवृत्त हो कर मैं पत्नी से बातें कर रहा था कि एक जीप मेरे बंगले के सामने आ कर रुकी. मैं समझ गया कि वही महानुभाव आए होंगे. यही हुआ जीप में से एक अजनबी उतरा और पीछे के हिस्से में से एक सबइंस्पैक्टर वरदी पहने उतरा. जीप का ड्राइवर भी पुलिस की वरदी पहने हुए था. बंगले के ड्राइंगरूम में घुसते ही उस ने हाथ मिलाते हुए अपना परिचय दिया.
‘‘मैं उदयपुर का एसपी के एल भंडारी हूं. शायद आप डा. डी एस कोठारी, चेयरमैन, यूजीसी को जानते होंगे. मैं उन का जमाई हूं. मैं सीबीआई के एक केस की तहकीकात करने के लिए कोलकाता आया था. सोचा, इस बार इंफाल घूम कर आते हैं. मेरी पत्नी एक डाक्टर है. उस ने बताया कि यहां के नागा दोशाले और रजाइयां बहुत सुंदर बनती हैं. सोचा, उस के लिए कुछ खरीदारी भी कर लूंगा और इस क्षेत्र को देख भी लूंगा.’’
‘‘आप कहां पर ठहरे हुए हैं?’’ मैं ने पूछा.
‘‘मैं सर्किट हाउस में कमरा नं. 7 में ठहरा हुआ हूं,’’ उस ने जवाब दिया.
‘‘आप से मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई. मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’ मैं ने प्रश्न किया. ‘‘मेरा आप से कोई विशेष काम नहीं है. मैं कल मारवाड़ी ढाबे में खाना खाने गया था. वहां पर बैठे हुए लोगों से पूछा कि इंफाल में कोई जोधपुर का रहने वाला है? उन्हीं लोगों ने बताया कि केंद्रीय विद्यालय के प्रिंसिपल पंवार साहब जोधपुर के रहने वाले हैं. पंवार साहब, मैं भी नवचौकिया महल्ला, जोधपुर का रहने वाला हूं,’’ उस ने कहा और वह जोधपुर की मारवाड़ी भाषा में बातें करने लगा. मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि वह जोधपुर का ही रहने वाला था. थोड़ी देर बाद वह पूछने लगा, ‘‘आप इंफाल के एसपी साहब को तो जानते ही होंगे?’’
‘‘नहीं, मैं उन्हें नहीं जानता,’’ मैं ने जवाब दिया.
‘‘बड़े भले आदमी हैं. मैं ने इंफाल में एअरपोर्ट पर उतरते ही उन्हें फोन किया, तो उन्होंने मेरे लिए जीप भिजवा दी और सर्किट हाउस में ठहरने का बंदोबस्त करवा दिया. चलिए, आप को भी एसपी साहब से मिलवा दूंगा,’’ उस ने कहा. नाश्ते का समय था. मैं ने उन से नाश्ता करने के लिए अनुरोध किया. उन्होंने और सबइंस्पैक्टर ने मेरे साथ नाश्ता किया और चाय पी. भंडारी साहब के अनुरोध पर मैं उन के साथ इंफाल के एसपी साहब से मिलने के लिए जीप में चला गया. दफ्तर में पहुंचे तो भंडारी ने मेरा परिचय इंफाल के एसपी से करवाया. मैं उन से हाथ मिला कर उन के सामने कुरसी पर बैठ गया. एसपी इंफाल ने कहा, ‘‘हम ने आप के गुमशुदा सूटकेस के लिए सिल्चर एअरपोर्ट पर वायरलैस मैसेज करवा दिया है लेकिन उस का कोई उत्तर अभी नहीं मिला है.’’ भंडारी धन्यवाद देते हुए उन से पुलिस विभाग की बातें करने लगे. एसपी इंफाल भी बातों में व्यस्त हो गए और मैं उन दोनों की बातों को सुनता रहा.
‘‘मैं आप के लिए एक टोपी और कुछ खाने के पैकेट को आप के कमरे में भेज दूंगा. मैं कभी उदयपुर जाऊंगा. सुना है उदयपुर बहुत सुंदर शहर है. हां, कोलकाता के लिए आप का एअर टिकट बुक करवा दिया है,’’ एसपी इंफाल ने बताया. मेरे स्कूल जाने का समय हो गया तो मैं ने उन लोगों से माफी मांगी और उठ कर जाने लगा तो भंडारी मेरे साथ हो लिए. जीप में बैठ कर मैं और भंडारी अपने स्कूल के कमरे में आ कर बैठ गए. मुझे दूसरे दिन तेजपुर में नया केंद्रीय विद्यालय शुरू करने जाना था. मैं ने अपने चपरासी को बुला कर चैकबुक से चैक काट कर दिया और चपरासी को बैंक से नकद पैसे ला कर इंफाल से गुवाहाटी का हवाई जहाज का टिकट खरीदने के लिए कहा. इतने में भंडारी बोल पड़े, ‘‘पंवार साहब, आप को तो पता है कि मेरा सूटकेस सिल्चर में खो गया है, उस में मेरे 4 हजार रुपए थे. अभी मेरे पास बहुत कम रुपए हैं जिन से मैं सामान नहीं खरीद सकता. क्या आप मुझे 400 रुपए उधार दे सकते हैं? सूटकेस मिलते ही मैं आप को 400 रुपए वापस लौटा दूंगा.’’
यह बात भंडारी ने बड़ी तकलीफ को दर्शाते हुए कही. मैं ने मजबूर हो कर 400 रुपए का एक चैक और काटा और चपरासी को नकद लाने के लिए बैंक भेज दिया. थोड़ी देर जोधपुर शहर की बातें मारवाड़ी भाषा में चलती रहीं. इस बीच चपरासी मेरा एअर टिकट इंफाल से गुवाहाटी तक का और 400 रुपए ले कर आ गया. मैं ने 400 रुपए भंडारी को दे दिए. भंडारी ने धन्यवाद देते हुए 400 रुपए ले लिए. थोड़ी देर बातों ही बातों में मैं ने भंडारी को डिनर का निमंत्रण दिया. बाद में भंडारी मुझे स्कूल में काम करने के लिए छोड़ कर डिनर पर आने का वादा कर के चले गए. मैं स्कूल के काम में लग गया. छुट्टी होने के बाद घर आ कर लंच किया और आराम करने के लिए सो गया. शाम को चाय पीने के थोड़ी देर बाद करीब 5 बजे जीप आई और भंडारी बहुत सारे दोशाले, रजाई और साडि़यां खरीद कर लाए. खरीदे हुए सामान के बारे में बातें होने लगीं. पत्नी भी ड्राइंगरूम में आ गई. पुलिस के सबइंस्पैक्टर के साथ होने से उन्हें कपड़े बहुत सस्ते भाव में मिल गए. बातों ही बातों में उन्होंने मेरी पत्नी को मुंहबोली बहन बना लिया. शाम को खूब छक कर डिनर खाया, अगले दिन जाने का प्रोग्राम बनाया. एअरपोर्ट जाते वक्त मुझे जीप में ले जाने का वादा कर के वे सर्किट हाउस चले गए.
अगले दिन सवेरे वे मेरे घर आए, चाय नाश्ता किया. फिर मुझे जीप में बैठा कर एअरपोर्ट की ओर रवाना हो गए. करीब 20 मिनट तक जीप से सफर करने के बाद हम ने देखा कि एअरपोर्ट से हवाई जहाज ने उड़ान भर ली थी. हम दोनों सोचने लगे यह हवाई जहाज कौन सा था? मैं ने कहा, ‘‘यहां से इस वक्त सिर्फ एक उड़ान कोलकाता ही जाती थी.’’ खैर, हम एअरपोर्ट पहुंचे तो पता चला कि जहाज ने मौसम खराब होने पर 10 मिनट पहले उड़ान भर ली. भंडारी और मैं दोनों बड़े असमंजस में पड़ गए कि समय के पहले कैसे हवाई जहाज उड़ सकता था. इंडियन एअरलाइंस वालों ने कहा कि आप अपने टिकट के पैसे वापस ले सकते हैं. 10 मिनट पहले उड़ान भरना मजबूरी थी क्योंकि मौसम ज्यादा खराब होने वाला था.
भंडारी गुस्से में आ कर चिल्लाने लगे, ‘‘अब मैं कैसे कोलकाता जाऊंगा. खैर, मेरा सूटकेस जो सिल्चर पर गुम हुआ, उस का क्या हुआ?’’ ‘‘आप का सूटकेस मिल गया है और यह रखा हुआ है,’’ इंडियन एअरलाइंस के कर्मचारी ने संकेत करते हुए कहा.
‘‘इस सूटकेस को मैं खोल कर लूंगा,’’ भंडारी ने कहा.
‘‘हम इस को तोल लेते हैं. इस का वजन आप के टिकट में बताए वजन के बराबर 11 किलोग्राम है. अंदर क्या है यह हम नहीं जानते,’’ इंडियन एअरलाइंस के कर्मचारी ने कहा. भंडारी के पास उस सूटकेस की चाबी थी. सूटकेस खोला और चिल्लाने लगे, ‘‘इस सूटकेस में मेरी पुलिस की वरदी नहीं है और उस वरदी में एसपी के सोने के पिप्स थे वे गायब हैं. सूटकेस में 1,200 रुपए थे, वे भी गायब हैं. मैं आप के अफसर से शिकायत करूंगा और जिस ने चोरी की है उसे जेल भिजवा कर रहूंगा.’’ ‘‘साहब, आप जो भी हैं, इस तरह गुस्सा मत करिए और अपने व्यवहार व गुस्से को काबू में रखिए वरना हम गवर्नर से आप की शिकायत करेंगे,’’ इंडियन एअरलाइंस के कर्मचारी ने सज्जनतापूर्वक कहा.
‘‘जाइएजाइए, आप किसी से शिकायत करिए. मैं सूटकेस नहीं लूंगा,’’ भंडारी बोले. झगड़ा करने के बाद भंडारी ने आखिरकार सूटकेस ले लिया और हम लोग वापस इंफाल शहर की तरफ लौटने लगे. रास्ते में भंडारी के जाने की व्यवस्था के बारे में सोचते रहे. उन्हें कोलकाता जाने की जल्दी थी और दूसरे दिन फ्लाइट नहीं थी. भंडारी सड़क के रास्ते से जाने की सोचने लगे. जीप हमें मेरे घर पर ले आई. करीब 1 बजे हम लोगों ने दिन का खाना खाया और थोड़ा आराम किया. शाम को करीब 8 बजे घूमतेघूमते डिप्टी सुपरिंटैंडैंट अशोक खन्ना (मेरे दोस्त) के घर चले गए. बातें होती रहीं, फिर उन्होंने भंडारी से पता लिखने के लिए कहा. भंडारी ने कागज पर अपना पता लिखा- ‘‘के एल भंडारी, आईएएस, एसपी उदयपुर.’’ खन्ना ने कहा कि उन्होंने आईएएस कैसे लिखा है. इस पर भंडारी ने अपनी गलती का एहसास कर के आईएएस को आईपीएस बना दिया. वहां से लौट कर मैं अपने पड़ोसी डीएसपी प्रवीण सरदाना के घर पर गपशप करने गए. वहां से बातें कर के शाम को 6 बजे घर लौटे और बातचीत करते रहे.
थोड़ी देर बाद डीएसपी सरदाना मेरे घर आए और मुझे अलग ले जा कर पूछा कि क्या मैं भंडारी को पर्सनली जानता था? मैं ने कहा कि मैं भंडारी को नहीं जानता था. इस पर सरदाना ने कहा कि उन्हें शक था कि भंडारी कोई पुलिस का अफसर था. खैर, मेरे साथ सरदाना, भंडारी के पास गए तो भंडारी कहने लगे कि क्या उन्हें कोई शक था? सरदाना ने कहा कि नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. और वे चले गए. थोड़ी देर बाद पुलिस की जीप आई जिस में डीएसपी सरदाना थे. वे घर में आए और कहा, ‘‘भंडारी साहब, आप को एसपी इंफाल ने बुलाया है. पंवार साहब, आप भी साथ चलें.’’ हम तीनों जीप में बैठ कर एसपी इंफाल के दफ्तर में पहुंच गए. बातचीत होती रही. शक का वातावरण देख कर भंडारी घबराते हुए कहने लगे, ‘‘आप को अगर शक है तो आप उदयपुर ट्रंककौल कर के पूछ लीजिए. मैं एसपी भंडारी ही हूं.’’
‘‘आप एसपी हैं तो आप का आईडैंटिटी कार्ड कहां है?’’ एसपी इंफाल ने पूछा. ‘‘कार्ड तो मेरी वरदी में था और वरदी मेरे सोने के पिप्स के साथ सूटकेस में से गायब हो गई,’’ भंडारी ने जवाब दिया. ‘‘हम लोगों ने आईपीएस औफिसरों की लिस्ट में आप का नाम ढूंढ़ा लेकिन आप का नाम नहीं मिला. हम कैसे मान लें कि आप एसपी उदयपुर हैं?’’ एसपी इंफाल ने पूछा.
‘‘मुझे नहीं मालूम, मेरा नाम क्यों नहीं है? लेकिन मैं एसपी उदयपुर हूं,’’ भंडारी ने जवाब दिया.
‘‘आप के पास कोई सुबूत तो होगा. आप की पर्सनल डायरी तो होगी?’’ एसपी इंफाल ने पूछा. मैं ने भंडारी की पर्सनल डायरी उन के पास देखी थी. वह मेरे घर की मेज पर उन के ब्रीफकेस के पास रखी थी. मैं ने एसपी इंफाल से कहा, ‘‘इन की डायरी मेरे घर पर टेबल पर पड़ी थी, मंगवाइए.’’ फौरन पुलिस का आदमी भेजा गया और वह डायरी ले कर आया. एसपी इंफाल ने डायरी देखी. उस डायरी में कहीं भी भंडारी नाम नहीं था और उस से कुछ पता नहीं चला. एसपी साहब ने भंडारी की डायरी मुझे दे दी. मैं ने उन की डायरी को उलटपलट कर देखा. अंतिम तारीख को ध्यान में रखते हुए डायरी के पन्ने को ध्यान से देखने लगा. उस पन्ने पर लिखा था, ‘फेयर फ्रौम कोलकाता, टू इंफाल-रु. 375’ मैं ने फेयर की स्पैलिंग देखी और भंडारी से पूछा, ‘‘क्या ‘फेयर फ्रौम कोलकाता, टू इंफाल’ अपनी डायरी में आप ने लिखा है?’’
भंडारी ने कहा, ‘‘हां, मैं ने लिखा है.’’ मैं डायरी का पन्ना एसपी इंफाल के सामने रख कर बोला, ‘‘भंडारी अगर आईपीएस औफिसर हैं, फेयर की स्पैंलिग को गलत नहीं लिख सकते.’’ एसपी इंफाल को पूरा विश्वास हो गया और उन्होंने भंडारी को डांट कर कहा, ‘‘आप एसपी नहीं, फरेबी हैं, झूठे हैं. सैल्फस्टाइल एसपी बने हुए हैं.’’
भंडारी फिर भी कहे जा रहा था, ‘‘मैं पक्का एसपी हूं, आप कहीं से पता लगाइए.’’ एसपी इंफाल ने डीएसपी सरदाना से कहा कि उन्हें अंदर ले जा कर पूछताछ करें. थोड़ी देर बाद भंडारी, सरदाना के औफिस में आए. सरदाना ने कहा कि भंडारी एसपी उदयपुर नहीं है. भंडारी ने भी कहा कि वह एसपी नहीं है. एसपी इंफाल ने भंडारी को हिरासत में ले लिया. उन्हें 6 महीने की कैद की सजा हो गई. पता चला भंडारी का धंधा हेराफेरी करना है. बड़ौदा की पुलिस उन का पीछा कर रही थी. वे भागतेभागते कोलकाता पहुंचे और इंफाल आ गए. 3 महीने की सजा भुगतने के बाद उन्हें बड़ौदा की पुलिस को सौंप दिया गया. इंफाल की जेल में 3 महीने रहे और मेरे 400 रुपए बड़ी मुश्किल से लौटाए. जोधपुर के लोगों से पता लगाया तो पता चला कि भंडारी आदतन ‘श्री 420’ थे. वे भीनमाल के सरकारी कालेज में झूठे सर्टिफिकेट दिखा कर कैमिस्ट्री के लैक्चरर (टैम्परेरी) बन गए और उन्होंने 3 महीने तक बिना पढ़ाए तनख्वाह उठाई. वे कक्षा 7वीं पढ़े हुए थे लेकिन अंगरेजी फर्राटे से बोलते थे और किसी भी बड़े अधिकारी की ऐक्ंिटग बड़े आत्मविश्वास से कर लेते थे. सुना है वे अभी तक यही धंधा करते हैं, पकड़े जाते हैं, जेल काट कर बाहर आ जाते हैं. उन्होंने ‘श्री 420’ का धंधा जो अपना रखा था.
ठकाठक ठक, ठकाठक ठक, ठकाठक ठक. रात के साढ़े 12 बजे थे. लखनऊ मेल टे्रन तेजी से लखनऊ की ओर जा रही थी. डब्बे के सभी यात्री सोए हुए पर मीनाक्षी की आंखों में नींद कहां? उस का दिमाग तो अतीत की पटरियों पर असीमित गति से दौड़ रहा था. उसे लगता था जैसे वर्षों पुरानी बेडि़यों के बंधन आज अचानक टूट गए हों.
50 वर्षीया मीनाक्षी दिल्ली में सरकारी सेवा में एक उच्च पद पर आसीन है. सैकड़ों बार कभी सरकारी कामकाज के सिलसिले में तो कभी अपने निजी कार्यवश टे्रन में सफर कर चुकी है. लेकिन आज की यात्रा उन सभी यात्राओं से कितनी भिन्न थी.
‘चाय, चाय, चाय गरम,’ आवाज सुन कर, मीनाक्षी का ध्यान टूटा तो देखा, टे्रन बरेली स्टेशन पर खड़ी है. बरेली? हां, बरेली ही तो है. 30 साल पुराने बरेली और आज के बरेली स्टेशन में लेशमात्र भी फर्क नहीं आया था. वही चायचाय की पुकार, वही लाल कमीज में भागतेदौड़ते कुली और वही यात्रियों की भगदड़.
‘एक कप चाय देना,’ जैसे स्वप्न में ही मीनाक्षी ने कहा. वही बेस्वाद कढ़ी हुई बासी चाय, वही कसैला सा स्वाद. हां, कुल्हड़ की जगह लिचपिचे से प्लास्टिक के गिलास ने जरूर ले ली थी.
कहीं कुछ भी तो नहीं बदला था. पर इन 30 वर्षों में मीनाक्षी में जरूर बहुत बदलाव आ गया था. मां के डर से बालों में बहुत सारा तेल लगा कर एक चोटी बनाने वाली मीनाक्षी के बाल आज सिल्वी के सधे हाथों से कटे उस के कंधों पर झूल रहे थे. 30 वर्ष पहले की दबीसहमी, इकहरे बदन की वह लड़की आज आत्मविश्वास से भरपूर एक गौरवशाली महिला थी. चाय का गिलास हाथ में पकड़ेपकड़े दिमाग फिर अतीत की ओर चल पड़ा था…
‘मम्मी, आज सुषमा का जन्मदिन है, उस ने अपने घर बुलाया है. मैं जाऊं?’
‘सुषमा? कौन सुषमा?’ मां का रोबदार स्वर कानों में गूंजा तो मीनाक्षी सहम सी गई थी.
‘मेरी क्लास में पढ़ती है, आज उस का जन्मदिन है,’ मुंह से अटकअटक कर शब्द निकले थे.
‘कौनकौन आ रहा है?’ मां ने पत्रिका से सिर उठाए बगैर ही पूछा था.
‘यह तो पता नहीं पर मम्मी, मैं जल्दी ही आ जाऊंगी,’ आशा बंधती देख मीनाक्षी ने जल्दीजल्दी कहा था.
‘उस के घर में और कौनकौन हैं?’
‘उस की मम्मी, और भाई. पापा तो ट्रांसफर हो कर इलाहाबाद चले गए हैं. ये लोग भी अगले शनिवार को जा रहे हैं.’
‘भाई बड़ा है या छोटा?’
‘भाई उस से 2 साल बड़ा है.’
‘तुम नहीं जाओगी किसी सुषमावुशमा के यहां,’ मां के स्वर में दृढ़ता थी.
‘पर क्यों, मम्मी? वे लोग अब इलाहाबाद चले जाएंगे. मैं उस से अब कभी मिल भी नहीं पाऊंगी,’ मीनाक्षी ने साहस जुटा कर कहा था.
‘बेकार बहस मत करो. जा कर पढ़ाई करो.’
‘पर मम्मी, सुषमा मेरा इंतजार कर रही होगी.’
‘कह दिया न एक बार, बड़ों का कहना मानना भी सीखो कभी.’
मां ने पत्रिका से सिर उठा कर जब उसे घूर कर देखा तो वह कितना सहम गई थी. चुपचाप अपने कमरे में अर्थशास्त्र की किताब खोल कर बैठ गई थी. खुली किताब पर कितनी ही देर तक टपटप आंसू गिरते रहे थे.
‘‘मेमसाब, चाय के पैसे दे दो. टे्रन चलने वाली है,’’ चाय वाले की आवाज सुन कर मीनाक्षी फिर वर्तमान में लौट आई थी. इटली से लाए हुए विशुद्ध चमड़े के बैग से 5 रुपए का सिक्का निकाल कर उस ने चाय वाले को दिया तो उस का ध्यान लाल नेल पौलिश से रंगे अपने नाखूनों पर चला गया. मां का वह कठोर अनुशासन क्या उसे ऐेसे गाढ़े रंग की नेल पौलिश लगाने की अनुमति देता? उस कठोर अनुशासन के माहौल में पुस्तकों की दुनिया से बाहर निकलने की मीनाक्षी की कभी हिम्मत ही नहीं हुई थी. मार्शल, रौबिंस और कींस की अर्थशास्त्र की परिभाषाओं के बाहर भी एक दुनिया है, उस का पता उसे तब चला जब उस का चयन इंडियन इकानौमिक सर्विस में हो गया. तब से आज तक, उस ने मुड़ कर पीछे नहीं देखा था. मां का 5 साल पहले निधन हो गया था.
इतने सालों के बाद सुषमा जब उसे कुछ दिन पहले फेसबुक पर मिल गई तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. कितनी देर तक दोनों ने फोन पर बातें की थीं. सुषमा की शादी हो गई थी, 2 बेटियां भी थीं. मीनाक्षी ने तो न शादी की थी न ही करने का इरादा था. वह तो अपने काम की दुनिया में ही शायद खुश थी.
कल सुबह जब सुषमा का फोन आया तो मीनाक्षी को खयाल आया कि उस की बेटी की शादी का कार्ड भी तो आया था जो मेज की दराज में डाल कर वह भूल गई थी.
‘‘क्या? तू अभी तक दिल्ली में ही बैठी है? आज शाम को लेडीज संगीत है, कल शादी है. कब पहुंच रही है?’’
‘‘नहीं सुषमा, मैं नहीं आ पाऊंगी. दफ्तर में जरूरी मीटिंग है.’’
‘‘मीटिंग गई भाड़ में. मेरे घर में पहली शादी है और तू नहीं आएगी?’’ सुषमा ने क्रोध दिखाया तो मीनाक्षी ने उसे टालने को कह दिया, ‘‘अच्छा, देखती हूं.’’
‘‘देखनावेखना कुछ नहीं. बस, आ जा,’’ कह कर सुषमा ने फोन काट दिया.
मीनाक्षी फिर फाइलें देखने में लग गई. उसे पता था कि शादी और मीटिंग में किसे प्राथमिकता देनी है. वर्षों के कठोर अनुशासन ने उस की सोच को ऐसा ही बना दिया था. पर काम करने में दिल नहीं लगा तो चपरासी को हुक्म दिया, ‘ये सब फाइलें कार में रख दो. मैं घर जा रही हूं.’
पर पता नहीं क्यों, घर पहुंचतेपहुंचते जैसे दिल में एक कशमकश सी शुरू हो गई. क्या उसे लखनऊ जाना चाहिए? पर मीटिंग का क्या होगा? क्या जिंदगी सिर्फ दफ्तर की फाइलों और घर की चारदीवारी में ही सीमित है? रिश्तों का इस में कोई स्थान नहीं है?
उस के मन में यह अंतर्द्वंद्व चल ही रहा था कि नीचे के फ्लैट से कुछ शोर सा सुनाई दिया.
‘‘तू कहीं नहीं जाएगी. मैं ने कह दिया न,’’ पड़ोसिन मिसेज गुप्ता अपनी 16 वर्षीय बेटी कनुप्रिया से कह रही थीं.
‘‘क्यों, क्यों न जाऊं? पूजा मेरा इंतजार कर रही होगी.’’
‘‘मुझे नापसंद है यह तेरी पूजावूजा.’’
‘‘नहीं पसंद तो मैं क्या करूं? मैं ने कब कहा कि आप उस से दोस्ती कर लीजिए,’’ कनुप्रिया ने पलट कर जवाब दिया था, ‘‘उस का आज बर्थडे है. मुझे तो वहां जाना ही है,’’ कनुप्रिया के जवाब में ढिठाई थी.
मीनाक्षी के मन में एक खलबली सी मच गई और चाहेअनचाहे वह कान लगा कर उन की बातें सुनने लगी.
‘‘मुझे नापसंद आवे है यह तेरा सहेलीपन. वो छोरी ठीक ना है. तू उस के घर ना जावेगी, बस, मैं ने कह दिया,’’ मिसेज गुप्ता ने गुस्से में कहा.
‘‘क्यों, क्या खराबी है उस में?’’ कनुप्रिया ने फिर सवाल दागा.
‘‘ऐ छोरी, जबान लड़ावे है? कान खोल के सुन ले. जो छोरी मुझे पसंद ना है, तू उस से दोस्ती ना रख सके है.’’
जैसेजैसे कनुप्रिया और उस की मां की तकरार बढ़ रही थी, मीनाक्षी के दिल में घबराहट का तूफान सा उठ रहा था.
50 वर्षीया प्रौढ़ा का दिल फिर 16 वर्षीया किशोरी की तरह धड़कने लगा था, साथ ही लगा कि पड़ोसियों की घरेलू बातें सुनना अच्छी बात नहीं है. वह उठ कर खिड़की बंद करने लगी तो कनुप्रिया की आवाज फिर कानों में पड़ी.?
‘‘लड़कों को तो छोड़ो, अब लड़कियों से दोस्ती करने के लिए भी मांबाप से परमीशन लेनी पड़ेगी क्या? भैया को तो आप कुछ कहती नहीं हैं.’’
मीनाक्षी के दिल में धुकधुक होने लगी. क्या कनुप्रिया अपनी सहेली के घर जाएगी या फिर वह भी अपने कमरे में जा कर अर्थशास्त्र की किताब के पन्नों को आंसुओं से भिगोएगी? कनुप्रिया को जाना ही चाहिए. कनुप्रिया जरूर जाएगी, उस का बागी दिल कह रहा था. पर नहीं, बेचारी कनु मां से बगावत कैसे करेगी? मां नाराज हो गई तो? पर मां भी तो अत्याचार कर रही है. सोचसोच कर मीनाक्षी के दिमाग में हथौड़े बजने लगे थे.
हीरो पुक के स्टार्ट होने की आवाज ने मीनाक्षी को जैसे सोते से जगा दिया. ऐक्सिलरेटर की घूंघूंघूं, ऊंऊंऊं …कनुप्रिया पूजा से मिलने चली गई थी. आज की पीढ़ी कितनी भिन्न है, कितनी दबंग है. क्या मीनाक्षी कभी अपनी किसी सहेली के घर जा पाई थी? अर्थशास्त्र की पुस्तकों के बाद दफ्तर की फाइलें ही उस की नियति बन गई थी. पेपर, नोट्स, नोटिंग्स, लक्ष्य, लक्ष्य और लक्ष्य, क्या इन सब के बाहर भी कोई दुनिया है? सोचतेसोचते कब शाम हो गई, पता ही नहीं चला. नीचे कनुप्रिया वापस आ गई थी. साथ में, शायद पूजा भी थी.
दोनों की खिलखिलाहट भरी हंसी सुन कर मीनाक्षी के दिल में एक टीस सी उठी. कर्तव्य, काम और ड्यूटी के आगे भी एक दुनिया है जिस में जीतेजागते इंसान रहते हैं. अचानक यह एहसास बहुत तेज हो गया और फिर जैसे घने बादल छंट गए. उस का हाथ फोन की ओर बढ़ गया, ‘‘हैलो, सुपर ट्रैवल्स? एक टिकट लखनऊ का आज रात का, किसी भी क्लास में, फौरन भेज दीजिए. समय कम है, क्या आप का आदमी मुझे टिकट स्टेशन पर ही दे सकता है?’’ और मीनाक्षी ने अपनी अटैची पैक करनी शुरू कर दी.
‘‘हां, मेमसाब, कुली चाहिए?’’ लखनऊ स्टेशन पर कुली पूछ रहा था.
आखिरकार, मीनाक्षी लखनऊ पहुंच गई, दिल्ली से लखनऊ की यात्रा पूरी हुई या उस के जीवन की नई यात्रा शुरू हुई? यह सोचते हुए वह आगे बढ़ गई.
लेखक- अब्बास खान ‘संगदिल’
बरसों से जमेजकड़े दादा मियां की पुश्तैनी जायजाद उन की मुहब्बत, वफादारी, गरीबों की भलाई ने उन्हें इलाके में मशहूर बना रखा था. नेता भी उन की दहलीज पर माथा टेकते थे.
बरसों पुरानी दरगाह की देखभाल, आमदनी की जिम्मेदारी भी दादा मियां के खानदान के आदमी ही किया करते थे. उन का एक ही बेटा था इस्माइल. लाड़प्यार ने उसे ज्यादा पढ़ने नहीं दिया और वह घर के कामकाज देखने लगा.
‘‘यार इस्माइल, आजकल लोगों का रुझान मजहब की तरफ ज्यादा है. औरतों को इस मामले में आगे देखा जा रहा है. वे मर्दों को इस ओर जल्दी ही अपनी तरफ कर लेती हैं. अगर हम चाहें तो…’’ कह कर उस का दोस्त रफीक रुक गया.
‘‘बात पूरी करो यार, तुम बात अधूरी मत छोड़ा करो,’’ इस्माइल ने कहा.
‘‘हम आजकल पैसों की तंगी से गुजर रहे हैं. मांबाप की जायदाद से कब तक चुपचाप लेते रहेंगे. कुछ कमाने की सोचो. मैं ने एक बात सोची है. अगर कहो तो बताऊं?’’
‘‘हांहां, बताओ,’’ इस्माइल बोला.
‘‘दादा मियां से कह कर दरगाह की देखरेख की जिम्मेदारी तुम ले लो. उन के बुढ़ापे को देख कर उन्हें आराम करने की सलाह दे दो. खादिम की जिम्मेदारी तुम उठाओ. इस से हमें खर्चे के लिए कुछ न कुछ मिल जाएगा.’’
‘‘ठीक है, मैं कोशिश करता हूं,’’ इस्माइल ने कहा.
यह बात जब इस्माइल ने दादा मियां से कही, तो वे आसानी से तैयार हो गए.
दरगाह के खादिम का काम इस्माइल ने संभाल लिया. रफीक को यह जान कर खुशी हुई कि अब उस के मन की मुराद पूरी हो जाएगी.
रफीक इलाके का दबंग, खर्चीला और आशिकमिजाज कुंआरा नौजवान था. लड़ाईझगड़े की खातिर वह कई बार जेल की सजा भी काट आया था. वहीं से वह नकली नोट और नकली जेवर बनाने के तरीके भी सीख कर आया था.
दरगाह पर चढ़ावे को देख कर रफीक की नीयत में खोट आने लगा. जेल में रफीक से हुई मुलाकात का उस के एक साथी ने फायदा उठाना चाहा. वह उस से मिलने गांव आ पहुंचा. यहां के नजारे देख कर वह दंग रह गया.
आसपास के गांव के लोग दरगाह पर भारी चढ़ावा ले कर आते, रुपएपैसे, चांदीसोना चढ़ाते. फिर वह सब सामान दरगाह के अंदर रखी अलमारी में ताला लगा कर बंद कर दिया जाता और चाबी दादा मियां के पास रहती.
साल में एक बार दरगाह पर होने वाले जश्न पर अलमारी खुलती, फिर आधा सोनाचांदी बेच कर मजार के लिए सामान खरीदा जाता. उर्स के लिए कोई चंदा नहीं किया जाता था.
दरगाह की आमदनी में अब काफी इजाफा होने लगा था. दरगाह का नजारा बदलाबदला सा था.
तभी गांव में कुछ लोगों को खेती के लिए सरकारी कर्ज की योजना की जानकारी मिली.
‘‘क्यों न हम भी सरकारी योजना का फायदा उठाएं,’’ रशीद मियां ने कहा.
‘‘हांहां, ठीक कहते हो. जब सरकार दे रही है तो लेने में क्या हर्ज है,’’ जुम्मन ने कहा.
फिर गांव के कुछ लोगों ने बैंक जा कर खेतीबारी के लिए लोन की रकम हासिल कर ली.
इधर उर्स का मौका आ गया. सलमा ने अपने शौहर से कहा, ‘‘क्यों न हम दरगाह पर रकम रख कर एक लाख के 2 लाख यानी दोगुनी रकम कर लें?’’
‘‘हांहां, ठीक कहती हो तुम. मैं आज ही 2-4 दोस्तों से इस की बात करता हूं.’’
और फिर इस्माइल के पास गांव के कुछ आदमी पहुंचे. उन्होंने इस्माइल से दरगाह पर एक रात के लिए रकम रखने, फिर वापस घर ले जाने की बात कही. साथ ही रकम दोगुनी हो जाने की दुआ मांग कर पूरी होने की बात भी कही.
इस्माइल ने रजामंदी दे दी. फिर उर्स लगते ही कुछ लोग जेवर, तो कुछ लोग भारीभरकम रकम की पोटली हरे रंग के कपड़े में बांध कर दरगाह पर रख कर आ गए.
वहां पर पहले से हाजिर फकीरों को रफीक द्वारा पूरी बात मालूम हो गई थी.
‘‘आज दरगाह की गुसल करा कर नई चादरें डाली जाएंगी. वह भी फजर के वक्त,’’ एक बूढ़े फकीर ने कहा.
दादा मियां इस के लिए तैयार हो गए.
‘‘वहां कोई नहीं रहना चाहिए. सिर्फ फकीर ही रहेंगे और रफीक.’’
अपनी योजना के मुताबिक, नकली नोट व नकली जेवर रख कर फजर से पहले सारा असली सोनाचांदी व रुपए अपनी झोली में रख कर वे फकीर रफूचक्कर हो गए.
इधर फजर में बचे एक फकीर ने मजार पर पानी डाल कर उसे धो कर नई चादर चढ़ाई और वह भी फरार हो गया.
सुबह भीड़ बढ़ने लगी. दिन का सारा चढ़ावा अलमारी में रख दिया गया.
शाम को कुछ लोगों का रखा सामान उन्हें वापस मिल गया. वे सब घर लौट आए और वह सामान अपने घर में सुरक्षित रख कर खुश हो रहे थे.
15 दिन के बाद सलीम मियां सामान खरीदने पोटली में रखे नोट ले कर बाजार गए तो दुकानदार की बात सुन कर उन के पैरों तले की जमीन खिसक गई.
‘‘तुम्हारे सभी नोट नकली हैं. कहां से इतने नकली नोट ले आए? चुपचाप खिसक लो, नहीं तो नकली नोट रखने के मामले में जेल चले जाओगे,’’ दुकानदार ने कहा.
सलीम मियां घबरा कर घर लौट आए. उन्होंने जब पड़ोसी से इस का जिक्र किया तो उस ने भी अपने जेवर ले कर सुनार की दुकान पर उन की जांच कराई.
‘‘रफीक भाई, जहां अंधविश्वासी ज्यादा रहते हैं, वहां आसानी से लोगों को बेवकूफ बनाया जा सकता है,’’ उस के साथी जुबैद ने कहा.
‘‘जरा दरगाह के बारे में कुछ पता हो तो बताओ कि वहां कौन से बाबा हैं, कब से हैं,’’ रफीक के दोस्त जुबैद ने पूछा.
‘‘कल गांव के एक बुजुर्ग चांद मियां से पूछते हैं. उन की उम्र 90 साल से ऊपर है.’’
‘‘अच्छा, ठीक है.’’
वे अगले दिन चांद मियां के घर पहुंचे.
‘‘दादा, ये मेरे दोस्त हैं. शहर से आए हैं. दरगाह के बारे में कुछ जानना चाह रहे हैं,’’ रफीक ने चांद मियां को सारी बात बता दी.
चांद मियां ने बताया, ‘‘दादा मियां के यहां किसी जमाने में मोहर्रम पर ताजिया बनता था, फिर उसे इसी जगह पर रखा जाता था. कुछ दिनों तक यह सिलसिला चला, फिर बंद हो गया. दादा मियां ने उसी जगह दरगाह बना दी. मन्नत मानने वाले धीरेधीरे वहां आने लगे.
‘‘दादा मियां ने कुछ लोगों को बताया कि बाबा का उर्स मनाओ, सोनाचांदी, रुपए चढ़ाओ. इसी से दरगाह का खर्च चलाओ. चढ़ावे वाले के मन की मुराद भी पूरी होगी, सब बढ़ कर मिलेगा.
‘‘तब से आज तक यह सिलसिला चल रहा है. कौन बाबा हैं, कहां से आए हैं, इस का आज तक किसी को पता नहीं चला,’’ कह कर वे चुप हो गए.
धीरेधीरे समय बीतता गया. अपनी योजना के मुताबिक उर्स के मौके पर 2 फकीर आए और उन्होंने वहीं डेरा जमा लिया. वे लोगों की फरियाद सुनने लगे.
लोगों की भीड़ के बीच एक औरत अपने 4 महीने के बच्चे को ला कर बाबा के सामने लिटा कर बोली, ‘‘बाबा, मैं आज इस बच्चे के वजन का मीठा, रुपएपैसा, चांदीसोना चढ़ाना चाहती हूं. मेरी मुराद पूरी हो गई,’’ उस ने साथ में लाए मीठा, सोनाचांदी, रुपए रख दिए और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई.
फकीर ने आंख खोल कर बच्चे के सिर पर हाथ फेरा, फिर वे बोले, ‘‘बेटी, दरगाह पर रख आओ. मीठा सभी में बांट दो.’’
जब लोगों ने अपनी आंखों से यह सब देखा तो वे हैरत में पड़ गए. अब तो मन्नत मानने वालों की भीड़ बढ़ने लगी.
दादा मियां और इस्माइल इस राज को नहीं जान सके. 1-2 दिन बाद वह फकीर वहां नहीं दिखा.
‘क्यों रफीक मियां, वह फकीर आजकल दिख नहीं रहा?है,’ कुछ लोगों ने पूछा.
‘‘भैया, फकीरों का क्या भरोसा. आज यहां हैं तो कल वहां,’’ रफीक ने बताया.
सुनार ने उन के सारे गहनों को गिलट के, सोने के पतरे वाले बता कर वापस कर दिया. धीरेधीरे अफवाह फैली. लोगों ने इस की शिकायत दादा मियां से की.
दादा मियां ने रफीक को बुलावा भेजा, पर वह घर पर नहीं मिला. पता चला कि वह 2 दिन से घर से गायब है. अब शक का दायरा और भी बढ़ गया.
अलमारी के सारे पुराने रखे जेवर, नकदी गायब थे. उन की जगह नकली नोट, नकली जेवर रखे थे.
दादा मियां वहीं सिर पकड़ कर बैठ गए. आंख से आंसू झरने लगे. वे बारबार यही कहते रहे, ‘‘बुढ़ापे में दाग लग गया. हमारे खानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ, कौन सी कमी है हमारे पास…’’ दरगाह के नाम पर सब हो गए ठगी के शिकार.
Writer- नरेश कुमार पुष्करना
गरमी की छुट्टियों में पापा को गोआ का अच्छा और सस्ता पैकेज मिल गया तो उन्होंने एयरटिकट बुक करा लिए. अनिता और प्रदीप की तो जैसे मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई थी. एक तरफ जहां हवाईयात्रा का मजा था वहीं दूसरी तरफ गोआ के खूबसूरत बीचिज का नजारा देखने की खुशी थी. अनिता ने जब से अपने सहपाठी विजय से उस की गोआ यात्रा का वृत्तांत सुना था तब से उस के मन में भी गोआ घूमने की चाह थी. आज तो उस के पांव जमीं पर नहीं पड़ रहे थे. बस, इंतजार था कि कब यात्रा का दिन आए और वे फुर्र से उड़ कर गोआ पहुंच गहरे, अथाह समुद्र की लहरों का लुत्फ उठाएं. उस का मन भी समुद्र की लहरों की तरह हिलौरे मार रहा था. अनिता 12वीं व प्रदीप 10वीं कक्षा में आए थे. हर साल पापा के साथ वे किसी हिल स्टेशन पर रेल या बस द्वारा ही जा पाते थे, लेकिन पहली बार हवाई यात्रा के लुत्फ से मन खुश था.
आखिर इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और वह दिन भी आ गया जब वे अपना सामान पैक कर कैब से एयरपोर्ट पहुंचे और चैकिंग वगैरा करवा कर हवाईजहाज में बैठे. करीब ढाई घंटे के मजेदार हवाई सफर के बाद वे दोपहर 3 बजे गोआ एयरपोर्ट पहुंच गए, जहां बाहर होटल का कर्मचारी हाथ में तख्ती लिए उन्हें रिसीव करने आया था. बाहर निकलते ही सामने होटल के नाम की तख्ती लिए कर्मचारी को देख प्रदीप बोला, ‘‘वह रहा पापा, हमारे होटल का कर्मचारी.’’
पापा उस ओर मुखातिब हुए और उस व्यक्ति को अपना परिचय दिया. उस ने उन्हें एक तरफ खड़े होने को कहा और अन्य सवारियों को देखने लगा. फिर सब सवारियों के आ जाने पर उस ने अपनी ट्रैवलर बस बुलाई और सब को ले कर होटल रवाना हो गया. अनिता ने जिद कर खिड़की की सीट ली. ट्रैवलर बस सड़क किनारे लगे ऊंचेऊंचे नारियल के पेड़ों से पटी सड़कों पर दौड़ती जा रही थी. हरियाली, समुद्र के साइडसीन व मांडवी नदी पर बने पुल से बस गुजरी तो बड़ेबड़े क्रूज को नदी में तैरते देख अनिता ‘वाऊ’ कहे बिना न रही. होटल पहुंचे तो शाम हो चुकी थी. पापा ने बताया, ‘‘यहां क्रूज का लुत्फ उठाना अलग ही मजा देता है, थोड़ा आराम कर लेते हैं फिर क्रूज के सफर का मजा लेंगे.’’
ये भी पढ़ें- क्यों आंसुओं का कोई मोल नहीं: आखिर क्या हुआ था मार्गरेट के साथ
ठीक 6 बजे सभी फ्रैश हो कर क्रूज की सवारी के लिए रवाना हो गए. रास्ते में प्राकृतिक नजारे, हरियाली, नारियल के पेड़ों का मनोरम दृश्य देखते ही बनता था. अनिता और प्रदीप ने कईर् सैल्फी लीं.
टैक्सी से उतरते ही सामने खड़े क्रूज को देख वे हतप्रभ रह गए. आते समय मांडवी नदी में तैरता क्रूज कैसे छोटी सी नाव सा दिख रहा था, पर वास्तव में दोमंजिला यह जहाज कितना बड़ा है. क्रूज के अंदर का नजारा भी दिलचस्प था. यहां छत पर डीजे बज रहा था तो निचली मंजिल पर खानेपीने की दुकान व अन्य इंतजाम था. क्रूज की छत से सनसैट का बहुत ही सुंदर नजारा दिख रहा था. लगभग एक घंटा क्रूज का लुत्फ उठा, मांडवी नदी की सैर कर स्टेज पर वहां के लोकल नृत्य देख वे फूले न समाए. उन्होंने यहां कई फोटो लिए. उन का यहां से वापस आने का मन नहीं कर रहा था.
अगले दिन जब वे बीचिज घूमने निकले तो अनिता ने डिमांड की कि अंजुना बीच चलते हैं, क्योंकि उस के सहपाठी विजय ने वहां के अप्रतिम सौंदर्य के बारे में बताया था.
‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ पापा ने कहा और टैक्सी से वे अंजुना बीच के लिए रवाना हो गए. अंजुना तट के पास वर्ष 1920 में निर्मित अलबुकर्म का महल है जो 8 स्तंभों से घिरा है. इसे देख वे बीच पर आ कर लहरों का मजा लेने लगे.
तभी पापा के पास 2 व्यक्ति आए और अपने होटल के बारे में बताते हुए बोले, ‘‘हम सिर्फ होटल का प्रचार कर रहे हैं साथ ही आप को गिफ्ट भी देंगे. आज के लकी स्कीम वाले ब्रौशर हमें दिए गए हैं. बस, आप अपना फोन नंबर और कहां से आए हैं बताएं और कार्ड स्क्रैच करें,’’ ब्रौशर में कई मुफ्त गिफ्ट के फोटो छपे थे. पापा ने फोन नंबर व नाम आदि लिखवाया व कार्ड स्क्रैच किया तो उस में मोबाइल लिखा मिला जिस से पापा के चेहरे पर भी मुसकुराहट आ गई. फिर उन दोनों ने उत्साहित होते हुए पापा को बताया कि हम आप को अपना होटल दिखाएंगे. जहां ले जाना व वापस छोड़ना फ्री रहेगा, फिर गिफ्ट देंगे.
पापा को लालच भी आया सो वे उन की बात मान टैक्सी में बैठ गए, लेकिन अनिता को यह अटपटा लग रहा था. वह मन ही मन सोच रही थी कि भला कोई किसी को फ्री में कुछ भी क्यों देगा? लगभग 2 किलोमीटर चल कर वह टैक्सी वाला उन्हें एक महलनुमा होटल के रिसैप्शन पर छोड़ कर चला गया. रिसैप्शन पर बैठी रिसैप्शनिस्ट ने पापा से हाथ मिलाया व अपना परिचय देते हुए बताया कि हम आप तीनों के लिए गिफ्ट भी प्रोवाइड करेंगे. बस, आप यह फौर्म भर दें.
फौर्म में नाम, पता, फोन नंबर और क्रैडिट कार्ड की डिटेल तक मांगी गई थी. साथ ही उन्होंने क्रैडिट कार्ड दिखाने को भी कहा. फिर अंदर से 2 युवतियां आईं जो देखने में ठीक नहीं लग रही थीं, उन्होंने भी पापा से हाथ मिलाया. रिसैप्शनिस्ट ने बताया कि ये दोनों युवतियां आप को होटल दिखाएंगी, लेकिन अनिता को उन की बातें खल रही थीं, ‘आखिर क्यों कोई फ्री में किसी को महंगे मोबाइल गिफ्ट करेगा सिर्फ होटल दिखाने के लिए?’ तभी उन में से एक युवती बड़ी अदा दिखाती हुई बोली, ‘‘आइए न, आप को होटल दिखाती हूं. हमारे होटल में हर तरह की सुविधा है.’’
ये भी पढ़ें- घर का भूला: कैसे बदलने लगे महेंद्र के रंग
अभी वह कुछ और कहती कि अनिता ने पापा को बुलाया और कहा, ‘‘पापा क्या आप मेरी बात समझ पाएंगे. मुझे लगता है ये लोग फ्रौड हैं. रूम दिखाने के बहाने कस्टमर को रूम में ले जाते हैं और युवती को अकेले में तंग करने का आरोप लगाते हैं फिर उसे ब्लैकमेल करते हैं. ‘‘पिछली बार मेरे क्लासफैलो विजय और उस के दोस्त गोआ आए थे तो उन के साथ बिलकुल ऐसी ही घटना घटी थी. उस ने मुझे बताया था. ये युवतियां भी मुझे कुछकुछ ऐसा ही इशारा करती दिखती हैं. बी अलर्ट पापा.’’ अनिता की बात सुन पापा का भी माथा ठनका, लेकिन तभी होटल की युवती बोली, ‘‘रुक क्यों गए. चलिए न,’’ और पापा का हाथ पकड़ कर ले जाने लगी.
पापा को लगा अनिता ठीक कह रही है यह इतने अपनेपन से हमें क्यों होटल दिखाएगी, लेकिन वे विरोध नहीं कर पाए. तब तक अनिता ने मम्मी व प्रदीप को भी सारी बात बता दी थी, ‘‘मम्मी आप ही सोचिए, कोई युवती इस तरह किसी का हाथ पकड़ कर ले जाती है भला?’’ अब मम्मी व प्रदीप ने भी पापा को रोका, प्रदीप बोला, ‘‘पापा, दीदी ठीक कह रही हैं, कोई हमें फ्री में गिफ्ट, फ्री में गाड़ी में यहां लाना व वापस छोड़ना क्यों करेगा भला? जरूर दाल में कुछ काला है.’’
अब पापा को भी किसी अनहोनी की आशंका लगी, अत: वे रूड होते हुए बोले, ‘‘छोड़ो मेरा हाथ, नहीं देखना मुझे तुम्हारा होटल,’’ फिर वे रिसैप्शन पर गए और वहां से अपना डिटेल भरा फौर्म ले कर फाड़ दिया और बोले, ‘‘फ्री के झांसे में हम नहीं आने वाले हटो, अगर गिफ्ट देना था, होटल ही दिखाना था तो क्रैडिट कार्ड की डिटेल क्यों भरवाईं,’’ कहते हुए पापा बाहर निकल गए. पीछेपीछे अनिता, प्रदीप व मम्मी भी चल दिए. होटल की ये युवतियां जाल में फंसा मुरगा हाथ से निकलने पर कुढ़ती हुई अपना सा मुंह ले कर रह गईं. बाहर आ कर वे राहत महसूस करते हुए अनिता की तारीफ कर रहे थे. उन्हें लग रहा था जैसे वे किसी बड़ी मुसीबत में फंसने से बच गए हैं. अब वे वापस अंजुना बीच जाने का रास्ता पूछना चाहते थे कि तभी वहां एक नवविवाहित जोड़ा आपस में लड़ता दिखा. वे दोनों एकदूसरे पर इलजाम लगा रहे थे तुम्हारे कारण ही फंसे, युवती कहती तुम ने मोबाइल गिफ्ट का लालच किया.
उन की बातें सुन अनिता को अपनी कहानी से जुड़ता वाकेआ लगा सो अनिता ने उन से पूछा, तो पता चला कि ठीक उसी तरह उस जोड़े को भी अंजुना बीच से मोबाइल गिफ्ट का सब्जबाग दिखा कर होटल लाया गया था. अंदर जा कर होटल दिखाने के बहाने होटल की उन लड़कियों ने मोबाइल व पर्स तक छीन लिया. फौर्म में भरी क्रैडिट कार्ड की डिटेल दिखा कर बोले इस में लिखा है कि तुम इस कार्ड से पेमैंट करोगे. उन्होंने पुलिस बुलानी चाही पर उन्होंने बाउंसर रखे हुए हैं जो पकड़ कर उन्हें सड़क पर फेंक गए. अनिता ने फिर समझदारी दिखाई और बोली, ‘‘पापा, हमें पुलिस को कंप्लेंट कर इन की मदद करनी चाहिए.’’
‘‘नहीं,’’ वह युवक बोला, ‘‘उन्होंने फौर्म में हमारा, हमारे होटल का पता व रूम नंबर भी लिखवाया है और कहा है कि अगर तुम ने शिकायत की तो वहीं बाउंसर भेज कर पिटाई करवा देंगे.’’
‘‘ओह, तो क्या उन की धमकी से डर कर शिकायत भी नहीं करोगे. पापा, आप शिकायत कीजिए, हम अपना वाकेआ भी बताएंगे.’’
पापा को लगा अनिता ठीक कह रही है अत: उन्होंने पास के थाने में जा कर शिकायत की. पुलिस ने भी मुस्तैदी दिखाते हुए छापा मारा तो उस होटल से कई युवतियां पकड़ी गईं. यह एक गैंग था. पकड़े जाने पर रिसैप्शनिस्ट ने बताया कि हमारे गैंग के लोग बीच पर आए भोलेभाले लोगों को गिफ्ट के लालच में फ्री में गाड़ी में बैठा कर यहां लाते हैं. ‘‘फिर हम लोग होटल दिखाने के बहाने उन की सारी डिटेल भी लिखवा लेते हैं व होटल घुमाते हुए युवतियां पुरुष पर छेड़छाड़ का इलजाम लगा उन्हें धमकाती हैं. फिर इज्जत बचाने के लिए वे लोग सब दे जाते हैं व किसी से कहते भी नहीं.’’
ये भी पढ़ें- घर का भूला- भाग 1: कैसे बदलने लगे महेंद्र के रंग
इंस्पैक्टर ने सभी को गाड़ी में बैठाया और थाने ले आए जहां मीडिया वाले भी पहुंच चुके थे. सभी अनिता की समझदारी की तारीफ कर रहे थे. पापा ने भी अनिता की पीठ थपथपाई, ‘‘अनिता, आज तुम्हारी समझदारी से न केवल हम सब लुटने से बच गए बल्कि इस कपल्स का लुटा सामान भी वापस मिल पाया और गैंग का भंडाफोड़ हुआ सो अलग. मुझे तुम पर गर्व है बेटी.’’ सुबह होटल के रैस्टोरैंट में नाश्ते को पहुंचे तो वहां पड़े अखबार में अनिता की समझदारी के चर्चे पढ़ कर पापा गर्व महसूस कर रहे थे. आसपास के लोगों को भी घटना का पता चला तो उन्होंने आ कर अनिता की पीठ थपथपाई व उस की समझदारी की तारीफ की. नाश्ता कर वे अपने अगले पड़ाव वैगेटोर बीच की ओर प्रस्थान कर गए. इस घटना ने उन की गोआ यात्रा को अविस्मरणीय बना दिया था.
सुबह के 7 बजे थे. गाडि़यां सड़क पर सरपट दौड़ रही थीं. ट्रैफिक इंस्पैक्टर बलविंदर सिंह सड़क के किनारे एक फुटओवर ब्रिज के नीचे अपने साथी हवलदार मनीष के साथ कुरसी पर बैठा हुआ था. उस की नाइट ड्यूटी खत्म होने वाली थी और वह अपनी जगह नए इंस्पैक्टर के आने का इंतजार कर रहा था.
बलविंदर सिंह ने हाथमुंह धोया और मनीष से बोला, ‘‘भाई, चाय पिलवा दो.’’
मनीष उठा और सड़क किनारे एक रेहड़ी वाले को चाय की बोल कर वापस आ गया. तुरंत ही चाय भी आ गई. दोनों चाय पीते हुए बातें करने लगे.
बलविंदर सिंह ने कहा, ‘‘अरे भाई, रातभर गाडि़यों के जितने चालान हुए हैं, जरा उस का हिसाब मिला लेते.’’
मनीष बोला, ‘‘जनाब, मैं ने पूरा हिसाब पहले ही मिला लिया है.’’
इसी बीच बलविंदर सिंह के मोबाइल फोन की घंटी बजी. वह बड़े मजाकिया अंदाज में फोन उठा कर बोला, ‘‘बस, निकल रहा हूं. मैडम, सुबहसुबह बड़ी फिक्र हो रही है…’’
अचानक बलविंदर सिंह के चेहरे का रंग उड़ गया. वह हकलाते हुए बोला, ‘‘मनीष… जल्दी चल. रश्मि का ऐक्सिडैंट हो गया है.’’
दोनों अपनाअपना हैलमैट पहन तेजी से मोटरसाइकिल से चल दिए.
दरअसल, रश्मि बलविंदर सिंह की 6 साल की एकलौती बेटी थी. उस के ऐक्सिडैंट की बात सुन कर वह परेशान हो गया था. उस के दिमाग में बुरे खयाल आ रहे थे और सामने रश्मि की तसवीर घूम रही थी.
बीच रास्ते में एक ट्रक खराब हो गया था, जिस के पीछे काफी लंबा ट्रैफिक जाम लगा हुआ था. बलविंदर सिंह में इतना सब्र कहां… मोटरसाइकिल का सायरन चालू किया, फुटपाथ पर मोटरसाइकिल चढ़ाई और तेजी से जाम से आगे निकल गया.
ये भी पढ़ें- अतीत की यादें: जब चेतन का अतीत आया सामने
अगले 5 मिनट में वे दोनों उस जगह पर पहुंच गए, जहां ऐक्सिडैंट हुआ था.
बलविंदर सिंह ने जब वहां का सीन देखा, तो वह किसी अनजान डर से कांप उठा. एक सफेद रंग की गाड़ी आधी फुटपाथ पर चढ़ी हुई थी. गाड़ी के आगे के शीशे टूटे हुए थे. एक पैर का छोटा सा जूता और पानी की लाल रंग की बोतल नीचे पड़ी थी. बोतल पिचक गई थी. ऐसा लग रहा था कि कुछ लोगों के पैरों से कुचल गई हो. वहां जमीन पर खून की कुछ बूंदें गिरी हुई थीं. कुछ राहगीरों ने उसे घेरा हुआ था.
बलविंदर सिंह भीड़ को चीरता हुआ अंदर पहुंचा और वहां के हालात देख सन्न रह गया. रश्मि जमीन पर खून से लथपथ बेसुध पड़ी हुई थी. उस की पत्नी नम्रता चुपचाप रश्मि को देख रही थी. नम्रता की आंखों में आंसू की एक बूंद नहीं थी.
बलविंदर ंिंसह के पैर नहीं संभले और वह वहीं रश्मि के पास लड़खड़ा कर घुटने के बल गिर गया. उस ने रश्मि को गोद में उठाने की कोशिश की, लेकिन रश्मि का शरीर तो बिलकुल ढीला पड़ चुका था.
बलविंदर सिंह को यह बात समझ में आ गई कि उस की लाड़ली इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी है. उसे ऐसा लगा, जैसे किसी ने उस का कलेजा निकाल लिया हो.
बलविंदर सिंह की आंखों के सामने रश्मि की पुरानी यादें घूमने लगीं. अगर वह रात के 2 बजे भी घर आता, तो रश्मि उठ बैठती, पापा के साथ उसे रोटी के दो निवाले जो खाने होते थे. वह तोतली जबान में कविताएं सुनाती, दिनभर की धमाचौकड़ी और मम्मी के साथ झगड़ों की बातें बताती, लेकिन अब वह शायद कभी नहीं बोलेगी. वह किस के साथ खेलेगा? किस को छेड़ेगा?
बलविंदर सिंह बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा. कोई है भी तो नहीं, जो उसे चुप करा सके. नम्रता वैसे ही पत्थर की तरह बुत बनी बैठी हुई थी.
हलवदार मनीष ने डरते हुए बलविंदर सिंह को आवाज लगाई, ‘‘सरजी, गाड़ी के ड्राइवर को लोगों ने पकड़ रखा है… वह उधर सामने है.’’
बलविंदर सिंह पागलों की तरह उस की तरफ झपटा, ‘‘कहां है?’’
बलविंदर सिंह की आंखों में खून उतर आया था. ऐसा लगा, जैसे वह ड्राइवर का खून कर देगा. ड्राइवर एक कोने में दुबका बैठा हुआ था. लोगों ने शायद उसे बुरी तरह से पीटा था. उस के चेहरे पर कई जगह चोट के निशान थे.
बलविंदर सिंह तकरीबन भागते हुए ड्राइवर की तरफ बढ़ा, लेकिन जैसेजैसे वह ड्राइवर के पास आया, उस की चाल और त्योरियां धीमी होती गईं. हवलदार मनीष वहीं पास खड़ा था, लेकिन वह ड्राइवर को कुछ नहीं बोला.
बलविंदर सिंह ने बेदम हाथों से ड्राइवर का कौलर पकड़ा, ऐसा लग रहा था, जैसे वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा हो.
दरअसल, कुछ समय पहले ही बलविंदर सिंह का सामना इस शराबी ड्राइवर से हुआ था.
सुबह के 6 बजे थे. बलविंदर सिंह सड़क के किनारे उसी फुटओवर ब्रिज के नीचे कुरसी पर बैठा हुआ था. थोड़ी देर में मनीष एक ड्राइवर का हाथ पकड़ कर ले आया. ड्राइवर ने शराब पी रखी थी और अभी एक मोटरसाइकिल वाले को टक्कर मार दी थी.
ये भी पढ़ें- सूनी आंखें: सीमा के पति का क्या संदेश था?
मोटरसाइकिल वाले की पैंट घुटने के पास फटी हुई थी और वहां से थोड़ा खून भी निकल रहा था.
बलविंदर सिंह ने ड्राइवर को एक जोरदार थप्पड़ मारा था और चिल्लाया, ‘सुबहसुबह चढ़ा ली तू ने… दूर से ही बदबू मार रहा है.’
ड्राइवर गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘साहब, गलती हो गई. कल इतवार था. रात को दोस्तों के साथ थोड़ी पार्टी कर ली. ड्यूटी पर जाना है, घर जा रहा हूं. मेरी गलती नहीं है. यह एकाएक सामने आ गया.’
बलविंदर सिंह ने फिर थप्पड़ उठाया था, लेकिन मारा नहीं और जोर से चिल्लाया, ‘क्यों अभी इस की जान चली जाती और तू कहता है कि यह खुद से सामने आ गया. दारू तू ने पी रखी
है, लेकिन गलती इस की है… सही है…मनीष, इस की गाड़ी जब्त करो और थाने ले चलो.’
ड्राइवर हाथ जोड़ते हुए बोला था, ‘साहब, मैं मानता हूं कि मेरी गलती है. मैं इस के इलाज का खर्चा देता हूं.’
ड्राइवर ने 5 सौ रुपए निकाल कर उस आदमी को दे दिए. बलविंदर सिंह ने फिर से उसे घमकाया भी, ‘बेटा, चालान तो तेरा होगा ही और लाइसैंस कैंसिल होगा… चल, लाइसैंस और गाड़ी के कागज दे.’
ड्राइवर फिर गिड़गिड़ाया था, ‘साहब, गरीब आदमी हूं. जाने दो,’ कहते हुए ड्राइवर ने 5 सौ के 2 नोट मोड़ कर धीरे से बलविंदर सिंह के हाथ पर रख दिए.
बलविंदर सिंह ने उस के हाथ में ही नोट गिन लिए और उस की त्योरियां थोड़ी कम हो गईं.
वह झूठमूठ का गुस्सा करते हुए बोला था, ‘इस बार तो छोड़ रहा हूं, लेकिन अगली बार ऐसे मिला, तो तेरा पक्का चालान होगा.’
ड्राइवर और मोटरसाइकिल सवार दोनों चले गए. बलविंदर सिंह और मनीष एकदूसरे को देख कर हंसने लगे. बलविंदर बोला, ‘सुबहसुबह चढ़ा कर आ गया.’
मनीष ने कहा, ‘जनाब, कोई बात नहीं. वह कुछ दे कर ही गया है.’
वे दोनों जोरजोर से हंसे थे.
अब बलविंदर सिंह को अपनी ही हंसी अपने कानों में गूंजती हुई सुनाई दे रही थी और उस ने ड्राइवर का कौलर छोड़ दिया. उस का सिर शर्म से झुका हुआ था.
बलविंदर और मनीष एकदूसरे की तरफ नहीं देख पा रहे थे. वहां खड़े लोगों को कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ है, क्यों इन्होंने ड्राइवर को छोड़ दिया.
ये भी पढ़ें- किरचें: सुमन ने अपनी मां के मोबाइल में क्या देखा?
मनीष ने पुलिस कंट्रोल रूम में एंबुलैंस को फोन कर दिया. थोड़ी देर में पीसीआर वैन और एंबुलैंस आ कर वहां खड़ी हो गई.
पुलिस वालों ने ड्राइवर को पकड़ कर पीसीआर वैन में बिठाया. ड्राइवर एकटक बलविंदर सिंह की तरफ देख रहा था, पर बलविंदर सिंह चुपचाप गरदन नीचे किए रश्मि की लाश के पास आ कर बैठ गया. उस के चेहरे से गुस्से का भाव गायब था और आत्मग्लानि से भरे हुए मन में तरहतरह के विचारों का बवंडर उठा, ‘काश, मैं ने ड्राइवर को रिश्वत ले कर छोड़ने के बजाय तत्काल जेल भेजा होता, तो इतना बड़ा नुकसान नहीं होता.’
अब 1 बज रहा था. नंदिनी ने लंच किया. आज लंच करतेकरते वह अकेली मुसकराती रही. आज अचानक उसे पता नहीं क्याक्या याद आने लगा. सालों पुरानी अपनी लाल चूडि़यां याद आने लगीं. मन हुआ शुरुआती दिनों की तरह खूब सजधज कर विपिन के साथ कुछ समय बिताए. लंच कर के उस ने फिर दूरबीन उठा ली. फिर कुछ नहीं दिखा. वह भी जा कर सो गई. फिर उठ कर घर के कुछ काम निबटाए.
4 बजे चाय का कप ले कर फिर दूरबीन उठा कर स्टूल पर बैठ गई. मांबेटी वाले घर में तो कोई हलचल नहीं दिखी, पर नवविवाहित जोड़ा घर की सैटिंग में व्यस्त था. दोनों मिल कर सामान ठीक कर रहे थे. शायद नएनए आए थे फ्लैट में. बीचबीच में दोनों का रोमांस भी चल रहा था. लड़के ने पत्नी को गोद में उठा कर घुमा दिया. आकर्षक जोड़ा था.
नंदिनी ने हंस कर अपनी दूरबीन को चूम लिया. आज उसे एक नया रोमांच महसूस हो रहा था. पूरा दिन कब बीत गया, पता ही नहीं चला. सब से बड़ी बात उसे पति और बच्चों की कोई बात याद कर के गुस्सा नहीं आया. आज कोई झुंझलाहट नहीं थी मन में. एकदम खिलाखिला था मन.
5 बज रहे थे. नंदिता अपनी शाम की सैर पर जाने के लिए तैयार होने लगी. वह शाम को रोज 1 घंटा सोसायटी के पार्क में सैर करती थी. आज उस के कदमों में गजब की तेजी थी. मन में स्फूर्ति थी. सैर करते हुए सोच रही थी कि इस दूरबीन का किस्सा घर में किसी को नहीं बताऊंगी.
वह जानती है यह हरकत अच्छी नहीं है पर उसे तो आज पूरा दिन मजा आया, सहीगलत के चक्कर में नहीं पड़ेगी वह. 6 बजे आ कर वह किचन में व्यस्त हो गई. शाम को सब के आने के समय नंदिनी ने दूरबीन अपनी साडि़यों की तह में छिपा दी.
विपिन राहुल और सोनी के आने के बाद नंदिनी नाश्ते के बाद डिनर की तैयारी में व्यस्त हो गई. वह बच्चों से बीचबीच में दिन भर की बातें पूछती रही. कालेज के कुछ और सवाल पूछने पर फोन में व्यस्त राहुल झुंझला गया, ‘‘मां, कितने सवाल करती हो?’’
आज नंदिनी खुद ही अपने ऊपर हैरान रह गई. उसे राहुल की इस बात पर जरा भी गुस्सा नहीं आया. वह गुनगुनाती हुई अपने काम करती रही. डिनर के बाद विपिन न्यूज देखने लगे. बच्चे अपने रूम में चले गए. नंदिनी का मन हुआ अपनी दूरबीन उठा ले पर नहीं, यह तो असंभव था. वह घर में किसी को भनक नहीं लगने देगी. उस ने फिर बड़े ही रोमांटिक अंदाज में विपिन के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘चलो, बाहर टहल कर आते हैं.’’
विपिन को हैरत का एक तेज झटका लगा. नंदिनी को ध्यान से देख कर पूछा, ‘‘तुम्हें क्या हुआ है?’’
नंदिनी हंस पड़ी, ‘‘बस यही पूछते रहते हो तुम्हें क्या हुआ है, कभी कुछ और भी तो कहो.’’
विपिन ने मुसकराते हुए टीवी बंद कर दिया.
दोनों टहल आए. नंदिनी का मूड बहुत अच्छा था1 उस नवविवाहित जोड़े की प्रणयलीला याद कर एक भूलीभटकी सी रोमानियत उस के मन में भी उतरती जा रही थी. उस रात उस ने अपने और विपिन के प्रणयपलों को बड़ी उमंग से जीया.
सुबह नंदिनी तीनों के जाते ही जल्दी से दूरबीन उठा कर स्टूल पर बैठ गई. मांबेटी वाले फ्लैट में मां शायद कामकाजी थी, वह साड़ी पहने तैयार थी. बेटी शायद कालेज में होगी. दोनों साथ ही निकलती थीं. घर में कोई और नहीं था. कल शायद लेट गई थीं. तभी तो नाचगा रही थीं. दोनों बहुत फ्रैश और खुश लग रही थीं.
फिर नंदिनी ने दूरबीन दूसरे फ्लैट की ओर घुमाई कि क्या कर रहे होंगे ये हीरोहीरोइन. वह खुद ही जोर से हंस दी. देखा, शायद हीरो औफिस के लिए तैयार था. हीरोइन अपने हाथ से उसे नाश्ता करा रही थी. वाह, रोमांस चल रहा है. हां, यही तो दिन हैं भई… चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात. वह खुद ही सब सोच कर मुसकराती रही. तभी श्यामा आ गई तो नंदिनी ने दूरबीन छिपा दी.
आज एक अरसे बाद नंदिनी ने विपिन को व्हाट्सऐप पर मैसेज किया, ‘आई लव यू.’
विपिन की हैरानी वाली बात स्माइली आई और ‘सेम टू ये, डियर’ का जवाब. नंदिनी विचित्र सी अनुभूतियों में घिरी घर के काम निबटाती रही. फिर वह दोपहर में ब्यूटीपार्लर गई. बढि़या फेशियल, मैनीक्योर, पैडीक्योर, एक मौडर्न हेयरकट करवाया, खुद को आईने में देख कर खुश हुई. फिर अपने लिए नई कुरती खरीदी.
घर आते ही दूरबीन उठाई पर कुछ नहीं दिखा. मांबेटी शायद शाम को ही वापस आती थीं. हीरोइन एकाधबार बालकनी में दिखाई दी. फिर शाम के समय एकदम सजीसंवरी हीरो का इंतजार करती. नंदिनी भी शाम के समय आज कुछ अलग ढंग से तैयार हुई.
शाम को सोनीराहुल आए तो नंदिनी को देखते ही सोनी बोली, ‘‘वाह, मां, कितनी अच्छी लग रही हो. वाह, नया हेयरकट, बहुत अच्छा है.’’
राहुल ने भी कहा, ‘‘ऐसे ही रहा करो मां, लुकिंग गुड.’’
विपिन तो कल से ही नंदिनी में आए परिवर्तन पर हैरान थे. नंदिनी को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोले, ‘‘वाह, क्या बात है. भई, क्या इरादा है?’’
नंदिनी हंसतेह हुए बोली, ‘‘अच्छा ही है.’’
आगे पढ़ें
‘‘कारखाने का हिसाबकिताब तो सही है न?’’ पत्नी ने गंभीरता से पूछा.
‘‘हां, मगर तुम पूछ क्यों रही हो?’’ पति ने पूछा.
‘‘क्योंकि, आज शाम को ही पिताजी आने वाले हैं. भाई और मम्मी की हादसे में मौत के बाद वे किसी बिजनैसमैन से ही मेरी शादी करना चाहते थे, ताकि उन की फैक्टरी ठीक ढंग से चल सके. पर कालेज में मेरी एक भूल के चलते वे तुम जैसे बेरोजगार से मेरी शादी करने को मजबूर हुए.
‘‘पिछली बार भी जब वे आए थे, तो बिजनैस में गिरावट देख कर चिंतित हो गए थे. पैसा भी काफी फालतू के कामों में खर्च किया गया था.’’
‘‘नहींनहीं, इस बार ऐसा कुछ नहीं है. तुम टैंशन मत लो. वैसे भी टैंशन लेने से होने वाले बच्चे पर बुरा असर पड़ता है. डाक्टर ने तुम्हें बैड रैस्ट बोला है.
‘‘चलो, आराम कर लो,’’ पति पत्नी को कुरसी पर से उठने में मदद करता हुआ बोला, ‘‘तुम लेट कर आराम करो. मैं प्रमिला को बोल कर अनार का जूस भिजवा देता हूं.
‘‘अब इस मुसीबत से कैसे छुटकारा पाया जाए?’’ किचन में घुसता हुआ वह आदमी बड़बड़ा रहा था.
‘‘क्या हुआ सरजी?’’ रसोईघर में काम करते हुए नौकरानी प्रमिला ने पूछा.
‘‘अरे, इस काली मोटी भैंस को संभालतेसंभालते तो मैं परेशान हो गया हूं. ऊपर से शाम को इस का बाप भी आ रहा है. मैं तो पागल ही हो जाऊंगा,’’ वह आदमी झुंझलाता हुआ बोला.
‘‘वह सब तो ठीक है सरजी, मुझे भी आज से दूसरा महीना चढ़ गया है. अब बहुत ज्यादा दिनों तक यह बात छिप नहीं पाएगी. यह बात भी मैं पहले ही साफ कर चुकी हूं कि मैं यह बच्चा किसी भी कीमत पर नहीं गिराऊंगी,’’ कहतेकहते प्रमिला की आवाज में धमकीनुमा तेजी आ गई.
‘‘अरे पगली, तुझ जैसी सुंदरी तो बड़े नसीब वालों को ही मिलती है. मैं तो जिंदगीभर तुझे अपने साथ अपनी जान बना कर रखूंगा. इस समय समस्या यह है कि इस भैंस से पीछा कैसे छुड़ाया जाए?’’ वह आदमी धीरे से प्रमिला के कंधे पर हाथ रखता हुआ बोला.
‘‘मैं क्या करूं… यह सब सोचना तुम्हारा काम है,’’ प्रमिला उस आदमी के और नजदीक आते हुए बोली.
‘‘मेरी जान, जो करना है वह तो तुम्हीं को करना है,’’ वह आदमी अपनी आवाज में भरपूर शहद घोलते हुए बोला. ‘‘मतलब…?’’ प्रमिला ने पूछा.
‘‘मतलब यह कि उस भैंस को हमें रास्ते से हटाना ही होगा. बिना इस के तुम इस बंगले की मालकिन नहीं बन सकती…’’ अपनी तरफ से प्रमिला को लालच के सब्जबाग दिखाता हुआ वह आदमी बोला, ‘‘अच्छा बताओ, तुम मेरे प्यार के लिए क्या कर सकती हो?’’
‘‘मैं तो अपनी जान भी दे सकती हूं,’’ प्रमिला बोली.
‘‘जान देनी नहीं, जान लेनी है. अनार के जूस में तुम्हें यह जहर मिलाना होगा,’’ वह आदमी अपनी जेब से रूमाल के बीच रखी एक शीशी निकाल कर प्रमिला की मुट्ठी में बंद करता हुआ बोला.
‘‘अरे, पुलिस का लफड़ा हो गया तो…?’’ प्रमिला ने पूछा.
‘‘इतना पैसा किस काम आएगा. मैं ने पुलिस को पूरी तरह से सैट कर दिया है,’’ वह आदमी बोला. प्रमिला ने मुट्ठी पूरी ताकत से बंद कर ली.
‘‘शाबाश… और सुन, यह हीरे के कंगन तू अपने पास रख. इन्हें पहन कर ही तू मेरी दुलहन बनेगी,’’ वह आदमी बोला, ‘‘अब जल्दी से अनार का जूस दे आ, ताकि उस के बाप के आने से पहले उस का काम तमाम हो जाए.’’
‘‘ठीक है. अभी जूस दे कर आती हूं,’’ प्रमिला बोली.
‘‘गुड गर्ल…’’ वह आदमी गिलास ले कर जाती हुई प्रमिला की पीठ चूमते हुए बोला, ‘‘मैं बाजार से मिठाई व नाश्ता ले कर आता हूं. इस का बाप आने वाला है. दिखावा तो करना ही पड़ेगा न. तेरे लिए कौन सी मिठाई लाऊं?’’
‘‘मुझे तो काजूकतली पसंद है,’’ प्रमिला मुसकराते हुए बोली और जहर मिले हुए जूस का गिलास ले कर देने चली गई.
तकरीबन 3 घंटे बाद वह आदमी लौट आया. तब तक 2-3 खून की उलटियां होने के बाद उस की पत्नी मर चुकी थी.
उस ने अपनी योजना को कामयाब होते देख तुरंत ही बड़े शातिर तरीके से पुलिस को चित कर दिया और शक के तौर पर प्रमिला का नाम लिखवा दिया.
जहर की शीशी पर प्रमिला की उंगलियों के निशान उसे कुसूरवार साबित करने के लिए काफी थे. हीरे के कंगन उस के पास से मिलने के चलते उस पर चोरी करने का आरोप भी साबित हो गया.
एक ही घर में 3 लोगों के अलगअलग चरित्र देख कर अदृश्य कुत्ता हैरान था. एक वह औरत थी, जो अपने प्यार की खातिर दौलत के अंबार को छोड़ कर प्रेमी से शादी करने को तैयार हुई और आखिरी सांस तक उस के प्रति वफादार रही.
दूसरा वह आदमी, जिस की नजर में प्यार मतलब सिर्फ हवस था. उस का मकसद धोखा दे कर दौलत हासिल करना और मिले हुए पैसों से ऐयाशी करना था.
तीसरी प्रमिला, जो अपने फायदे और कभी न मिल पाने वाले सुख की खातिर एक मासूम को मौत के घाट उतारने तक से नहीं चूकी.
कुत्ते को अब अपने कुत्ता होने पर फख्र हो रहा था. कम से कम उन की दुनिया में लालच जैसी कोई बुराई तो नहीं है. स्वामीभक्ति और वफादारी जैसे शब्द उन के नामों के साथ जुड़े हुए हैं.
वह अदृश्य कुत्ता दूसरी जगह के लिए रवाना हो गया. दूसरा वाला बंगला भी बहुत बड़ा था. इस के बाहर लगे कटआउट से लग रहा था कि यह किसी राजनीतिक हस्ती का घर था.
अंदर जा कर उस ने देखा कि वही कटआउट की फोटो वाला आदमी सफेदझक कपड़ों में 10-20 चमचों से घिरा हुआ बैठा था. कुत्ते को याद आया कि यह तो वही शख्स था, जो कुछ महीने पहले गलियों में लोगों के पैरों में गिरगिर कर वोट मांग रहा था. अपने विरोधियों पर भ्रष्ट होने के आरोप लगाते हुए खुद को देश का सब से बड़ा ईमानदार साबित कर रहा था.
‘‘हां तो कितना ऐस्टीमेट बन रहा है इस ब्रिज का?’’ नेताजी ने सामने बैठे सूटबूटधारी से पूछा.
‘‘यह इस इलाके का सब से बिजी ब्रिज रहेगा. इस पर ट्रैफिक लोड भी बहुत ज्यादा रहेगा. हमारी कंपनी इस तरह के ब्रिज बनाने में माहिर है. हमारे हिसाब से इस ब्रिज की लागत 500 करोड़ के आसपास की आएगी,’’ वह कंपनी वाला आदमी बोला.
‘‘इस में हमारा हिस्सा कितना होगा?’’ नेताजी ने पूछा.
‘‘जी, एक फीसदी… मतलब,
5 करोड़,’’ वह आदमी बोला.
‘‘किसी की मैयत में बैठने के लिए आए हो, जो इतनी सी रकम दे रहे हो. इतने की तो शराब ही हो जाती है नेताजी की पार्टी में,’’ एक चमचा बोला.
‘‘देखिए श्रीमानजी…’’ नेताजी गंभीरता से बोले, ‘‘हमें फालतू की बात करने की और भावताव करने की आदत तो है नहीं. हम 20 फीसदी मतलब 100 करौड़ से कम तो लेंगे नहीं.’’
आगे पढ़ें
लेखक- Satish Saxena
मैं 30 की हो चली हूं. मेरा मानना है कि सब को अपनेअपने हिस्से की लड़ाई लड़नी पड़ती है. एक लड़ाई मैं ने भी लड़ी थी, उस समय जब मैं थर्ड ईयर में थी. पर आज जिंदगी मेरे लिए सांसों का एक पुलिंदा बन चुकी है, जिसे मुझे ढोना है और मैं ढोए जा रही हूं, नितांत अकेली.
मैं नहीं जानती कि मेरी कहानी सुन कर कितनी युवतियां मुझे मूर्ख कहेंगी? कितनी मेरे साहस को सराहेंगी? यह जानने के बाद भी कि मेरे साहस ने ही मुझ से मेरे मातापिता छीने. वह प्यार छीना जो मेरे लिए बेशकीमती था. आज कोई नहीं है, जिसे मैं अपना कह सकूं. केवल और केवल एक हताशा है जो हर पल मेरे साथ रहती है और मेरी जीवनसंगिनी बन चुकी है.
आज मैं एक कालेज में लैक्चरर के पद पर नियुक्त हूं. स्टूडैंट्स को पढ़ाते समय जब कभी किताब खोलती हूं तो मेरी यादों की किताब के पन्ने तेजी से उलटनेपलटने लगते हैं. मुझे याद आ जाते हैं, कालेज के वे दिन जब मेरी मुलाकात आकाश से हुई थी. मैं अपनी सहेलियों में सब से ज्यादा सुंदर थी. मेरी बड़ीबड़ी हिरनी सी बोलती आंखों, गोरेचिट्टे छरहरे शरीर और कमर तक लहराते बालों पर ही तो वह मरमिटा था.
आमतौर पर बीए फाइनल या एमए करतेकरते परिवार में लड़कियों की शादी तय करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. कुछ लड़कियां अपने मातापिता द्वारा पसंद किए गए लड़कों के साथ शादी कर के अपनी गृहस्थी बसा लेती हैं, तो कुछ अपने प्रेमी को वर के रूप में पा कर नई जिंदगी की शुरुआत कर लेती हैं.
कालेज में इस उम्र की लड़कियों के बीच अधिकतर भावी पति ही चर्चा का विषय होते हैं. एक दिन मेरे और सहेलियों के बीच इस बात पर बहस छिड़ गई कि शादी से पहले मंगेतर या प्रेमी के साथ क्या सैक्स उचित है?
कई लड़कियों का मानना था कि इस में अनुचित ही क्या है, जो कल होना है वह आज हो रहा है. आजकल लड़के कुछ ज्यादा ही डिमांडिंग हो गए हैं. यदि उन की डिमांड्स पूरी न हों तो यह भी संभव है कि विवाहपूर्व ही लड़के लड़की के संबंधों में दरार आ जाए. कुछ कह रही थीं कि इस में खतरा भी है. मान लो किन्हीं कारणों से यदि शादी नहीं हो पाई तो यह भी हो सकता है कि लड़का आप को ब्लैकमेल करना शुरू कर दे या यह भी हो सकता है कि लड़के से ब्रेकअप के बाद भविष्य में होने वाली शादी में, इस प्रकार का संबंध अड़चन बन जाए.
मैं शादी से पहले यौन संबंधों की पक्षधर कभी नहीं थी. मेरी नजर में ऐसे रिश्ते कैलकुलेटेड होते हैं, जो मात्र लड़की का शरीर पाने के लिए बनाए जाते हैं. इन में प्यार नहीं होता. वे लड़के जो अपनी भावी पत्नी या प्रेमिका से शादी से पहले सैक्स की डिमांड करते हैं, उन के लिए नारी केवल एक संपत्ति होती है, जिस का उपयोग वे अपनी इच्छानुसार करना चाहते हैं. वे यह भी नहीं सोचते कि जिस ने आप को अपना सर्वस्व समर्पित किया, अपने प्यार से आप को स्पंदित किया, उस के भी अपने कुछ जज्बात हैं? उस की भी अपनी कोई सोच है. यदि कुछ अवांछित हो गया तो भुगतना तो लड़की को ही पड़ेगा. खैर, यह अपनीअपनी लड़ाई है, जिसे प्रत्येक लड़की को अपनेअपने तरीके से लड़ना पड़ता है. मैं ने अपना प्रश्न रखा था. बहस का कोई परिणाम नहीं निकला.
मेरे और आकाश के रोमांस को लगभग 2 महीने हो चले थे. उस के लिए हर दिन वेलैंटाइन डे हुआ करता था, वह कालेज के गेट पर मेरे आने से पहले एक गुलाब लिए खड़ा रहता. मुझे देखते ही उस की आंखें नशीली हो उठतीं. चेहरे पर कातिलाना मुसकराहट उभर आती. मेरा भी मन पुलकित हो उठता. प्रेम की ताजा और स्फूर्त गंध हम दोनों के बीच बहने लगती. वह मुझे बड़े आशिकाना अंदाज में फूल भेंट करता और कहता, ‘स्वागत है आप का, हुस्न ए मलिका अनामिका.’ उस के शब्द सुनते ही जाने कितने प्यार के पटाखे मेरे मन में भड़ाकभड़ाक की आवाज के साथ फटने लगते थे.
उन 2 महीने में मैं ने कभी यह महसूस नहीं किया कि वह प्रेम को सीधे सैक्स से जोड़ कर देखता है या उस में मेरे प्रति कोई दैहिक आकर्षण है. मुझे तो वह हर पल भावनात्मक रूप से ही जुड़ा हुआ मिला. यही उस की विशेषता थी जो मुझे उस से बांधे रखती थी. यही वह गुण था जो उसे अन्य लड़कों से भिन्न बनाता था. उस की उपस्थिति से ही मेरे मन के तार झंकृत होने लगते थे.
फिर एक दिन वह हो गया जिस की मुझे अपेक्षा नहीं थी. लाइब्रेरी के सामने वाली गैलरी में किसी को अपने आसपास न पा कर उस ने मुझे अपनी बांहों में भर लिया और अपने अधर मेरे अधरों पर टिकाने की कोशिश करने लगा. मेरे लिए यह स्थिति असह्य थी. क्रोध आंखों में उतर आया. शरीर कंपकंपा गया.
‘आकाश… हाउ डेयर यू?’ मैं ने उसे धकेलते हुए गुस्से से कहा, ‘‘तुम ने मुझे समझ क्या रखा है? एक भोग्या? आई नैवर ऐक्सपैक्टेड दिस फ्रौम यू? गैट लौस्ट.’’ फिर पता नहीं कितनी देर तक मेरे शरीर में अंगारे दहकते रहे थे. मस्तिष्क में चिनगारियां फूटती रही थीं. मन सुलगता रहा था.
मैं ने देखा, आकाश का हाल मुझ से बिलकुल उलटा था. चेहरा उड़ाउड़ा सा था. मानो कीमती वस्तु के अचानक खो जाने का डर उस के चेहरे पर साफ झलक रहा था.
‘‘आई एम सौरी,’’ कंपकंपाते हाथों से उस ने मेरी बांहें पकड़ते हुए कहा था, ‘‘पता नहीं मैं कैसे सुधबुध खो बैठा? मेरा मकसद तुम्हारा दिल दुखाने का नहीं था. इतने अरसे से हम मिलते रहे हैं, पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ? प्लीज, आई एम सौरी अगेन.’’
उस दिन आकाश ने मेरी बांहें उस समय तक नहीं छोड़ी थीं, जब तक कि मैं ने उसे माफ नहीं कर दिया था.
एक जवान लड़की की मां, लड़की को ले कर किनकिन परेशानियों से जूझती हुई जीती है, यह मेरी मां इंद्रा ही जानती थीं या वे स्त्रियां जानती हैं, जिन की बेटियां जवान हो जाती हैं.
मेरे लिए मां हर पल परेशान रहती थीं. मेरे घर से बाहर निकलने से ले कर लौटने तक, चैन की सांस नहीं ले पाती थीं. हीरा सब के सामने हो तो कौन उसे लूटने का प्रयास नहीं करेगा? वे इसी भय से मुक्ति चाहती थीं. उन का कहना था कि मैं एक बार घर से विदा हो कर अपने पति के घर चली जाऊं, तब जा कर उन्हें चैन मिलेगा. पिताजी भी यही चाहते थे कि मैं फाइनल ईयर करतेकरते ही लाइफ में सैटल हो जाऊं.
बड़े प्रयासों के बाद उन्हें एक अच्छे परिवार वाला शिक्षित, सौम्य और संस्कारी लड़का मिला. वह आगरा में एक प्राइवेट फर्म में अच्छे पद पर कार्यरत था. लड़के के पिता ने पिताजी से कहा कि आप आगरा आइए. हमारा घर देखिए. लड़केलड़की को मिल लेने दीजिए, यदि सबकुछ ठीकठाक रहा तो शादी की बात भी हो जाएगी.
मां लड़के के पिता की बातें सुनते ही रोमांचित हो गई थीं. प्रतीत हुआ था जैसे उन का नाम किसी अवार्ड फंक्शन के लिए नामांकित हो गया हो. उन्होंने दूसरे दिन ही आगरा जाने की तैयारियां कर डालीं.
युवकयुवतियों के सिर से प्यार का भूत उतरे नहीं उतरता. मेरे सिर से भी नहीं उतरा था. मैं इस रिश्ते के लिए तैयार ही नहीं हुई. मैं ने स्पष्ट शब्दों में मां से कह दिया था, ‘‘मां, आकाश मेरा प्यार है. मैं शादी करूंगी तो उसी से, वरना नहीं.’’
मां बोली थीं, ‘‘हमारे खानदान में दूरदूर तक किसी ने प्रेमविवाह नहीं किया है तो मैं तुझे कैसे करने दूंगी? और यह जो तू प्यारप्यार करती है, यह प्यार नहीं है, एक हवस है. जैसे ही यह खत्म हुई वैसे ही प्यार का नशा भी उतर जाएगा. तुझे शादी तो हमारी इच्छा से ही करनी पड़ेगी.’’
‘‘यह नहीं होगा, मां,’’ मैं ने स्पष्ट कहा, ‘‘इस से बेहतर है कि मैं जिंदगी भर कुंआरी ही रहूं.’’
‘‘और यदि हमारे मनमुताबिक नहीं हुआ तो हम दोनों तुझ से रिश्ता ही तोड़ लेंगे,’’ मां अपना आपा खो चुकी थीं.
अंतत: मैं आगरा जाने के लिए तैयार हो गई थी. आगरा में मैं ने लड़के से मिलते ही अपने संबंध के बारे में सबकुछ साफसाफ बता दिया था. लड़का सुलझा हुआ था. पीढि़यों और विचारों के अंतर को भलीभांति समझता था. उस ने ही इस शादी से इनकार कर दिया.
अब मां को अपनी परेशानियों का अंत आसपास कहीं भी दिखाई नहीं दिया. निवाला हर बार मुंह के पास आतेआते नीचे गिर जाता था. लड़का पसंद आता भी तो शादी की बात किसी न किसी कारण से अधूरी रह जाती.
फिर धीरेधीरे उन की हताशा ने मेरे सुख में ही अपना सुख तलाशना शुरू कर दिया. उन्होंने अपने मन में मेरे और आकाश के प्यार को रोकने के लिए जिद का जो बांध बांध रखा था, समय के साथसाथ वह टूटने लगा. पहले कुछ दरारें दिखाई दीं, फिर समूचा बांध ही ध्वस्त हो गया.
फिर एक दिन पिताजी की उपस्थिति में मां ने मुझे अपना फैसला सुना दिया, ‘‘हमें तेरी और आकाश की शादी मंजूर है. उसे एक दिन मातापिता के साथ बुला लो. उन की सहमति मिलते ही हम, तुम दोनों की सगाई कर देंगे.’’
यह सुन कर जो खुशी मुझे मिली थी, उस का वर्णन ठीक तरह से कर ही नहीं पाऊंगी. पोरपोर से प्यार शोर मचा रहा था. जीत जश्न मनाने लगी थी. आकाश का हाल भी मुझ जैसा ही था. हमारी मुट्ठियों में सारा आसमान सिमट आया था. बस, हमें और क्या चाहिए था?
दूसरे दिन ही दोनों परिवार इकट्ठे हुए. दोनों परिवारों ने अपने बच्चों की खुशियों के लिए रिश्ता मंजूर कर लिया और फिर 20 दिन बाद हमारी सगाई हो गई थी. मुझे शुरू से ही यह स्लोगन बहुत अच्छा लगता था, ‘ये दिन भी न रहेंगे.’ हमारा दुख सुख में बदल चुका था. उस के बाद तो हम ने जमाने को पीछे मुड़ कर देखना ही छोड़ दिया था.
सगाई के कुछ दिन बाद ही मेरा जन्मदिन था. जन्मदिन पर आकाश ने मुझे उपहार में 50 हजार रुपए की नीले रंग की साड़ी दी थी और होटल वेलैंटाइन में एक शानदार डिनर पार्टी भी. उस दिन मैं बहुत खुश थी. देर रात तक पार्टी चलती रही थी. पार्टी खत्म होते ही मैं उस रूम में चली आई थी, जो आकाश ने मेरे आराम के लिए बुक किया था. उस समय वह अपने दोस्तों में व्यस्त था.
रात को 2 बजे आकाश मेरे कमरे में घुसा था. उस के मुंह से शराब की दुर्गंध आ रही थी. कमरे में घुसते ही वह बोला, ‘‘आई नीड यू डार्लिंग, कम औन.’’
उस के इरादे समझते ही मैं बेड से उठ गई थी. तीखे शब्दों में मैं ने उस से कहा था, ‘‘तुम अच्छी तरह जानते हो आकाश, शादी से पहले मुझे ऐसे संबंध पसंद नहीं हैं’’ ऐसा बोलते समय मैं भय से कांप भी रही थी.
‘‘डौंट टैल मी, ये लड़कियों के चोचले हैं. मैं बखूबी जानता हूं. और डार्लिंग अब तो हमारी सगाई भी हो चुकी है. यू आर माई वुड बी वाइफ नाऊ,’’ कह कर वह मेरी ओर बढ़ने लगा था.
मैं उस का एग्रेशन देख कर ही समझ गई थी कि मुझे पाना उस की जिद है. आज वह यह जिद पूरा कर के ही रहेगा. वह अपनी जिद पर अड़ा रहा और मैं अपनी जिद पर.
जब मैं नहीं झुकी तो उस ने मुझे चेतावनी दे डाली, ‘‘अगर तुम्हें मेरी इच्छा की कोई परवा नहीं है तो मुझे भी तुम्हारी कोई परवा नहीं है. मैं तुम से अपने संबंध अभी, इसी वक्त तोड़ता हूं. अब हमारी शादी कभी नहीं होगी. अपने ऐथिक्स का सेहरा अपने सिर पर बांध जिंदगीभर डोलती रहना.’’
वह उठ कर कमरे से बाहर जाने का प्रयास करने लगा. मैं काटो तो खून नहीं वाली स्थिति में आ गई. मैं ने तेजी से आगे बढ़ कर उसे फिर सोफे पर बिठा दिया. मैं गिड़गिड़ाने लगी थी, ‘‘यह क्या कह रहे हो आकाश? तुम नशे में हो. नहीं समझ पा रहे हो कि जो कुछ तुम ने कहा है, यदि ऐसा हुआ तो इस का असर हमारी जिंदगियों को तबाह कर देगा. जिस प्यार को मैं ने मुश्किल से पाया है, वह मेरी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल जाएगा. प्लीज, जरा यह तो सोचो?’’
पर वह जरा भी विचलित नहीं हुआ. कहने लगा, ‘‘माई डिसीजन इज फाइनल, तुम्हें क्या करना है, इस का फैसला तुम कर लो.’’ मेरी पकड़ से छूटने का प्रयास करते हुए उस ने अपना फैसला सुना दिया.
मैं उसे और नहीं रोक पाई थी. सारी मिन्नतें, कसमें, वादे सब नाकाम होते चले गए थे. वह तेजी से उठा और कमरे से निकल गया.
उस सवेरे 3 जिंदगियां मर गई थीं. मेरी, मां की और पिताजी की. पिताजी ने आकाश के विरुद्ध पुलिस में शिकायत करने का निश्चय किया तो मां ने उन्हें रोक दिया. मेरी बदनामी का डर था. उस के बाद हम ने शहर ही छोड़ दिया. कुछ समय बाद न मां रहीं, न पिताजी. दोनों को सदमा निगल गया. रह गई तो सिर्फ मैं, हताश, अपनी जिंदगी को ढोती हुई.
पीरियड खत्म हो गया है. किताब भी बंद हो गई है. पर मैं अभी भी अनिश्चितता की स्थिति में हूं. मुझे नहीं पता कि मैं अपनी लड़ाई जीती हूं या हारी? मां और पिताजी की मौत का बोझ मेरे सिर पर है. यह मुझे आज की युवतियां ही बता पाएंगी कि मेरा आकाश की इच्छाओं के सामने झुकना सही था या गलत? मुझे तो इसी तरह जीना है. सिर्फ इसी तरह.