दूसरा मर्द : दो नाव पर सवार श्यामली

श्यामली बैठ कर अखबार पढ़ने लगी. स्कूल के बच्चे बरामदे के पास घास पर बैठ कर दोपहर का खाना खाने लगे. मधुप भी अपना डब्बा खोलते हुए बोला, ‘‘श्यामलीजी, अब आ भी जाइए. खबरें तो बाद में भी पढ़ी जा सकती हैं. मुझे तो बड़ी जोर की भूख लगी है.’’

‘‘लेकिन मुझे भूख नहीं है. तुम खा लो,’’ अखबार से नजर हटाए बगैर श्यामली बोली.

‘‘इस का मतलब आज फिर अरुण से झगड़ा हुआ होगा?’’ मधुप ने श्यामली की उलझन समझते हुए पूछा.

‘‘हां… रात को वे देर से शराब पी कर आए. खाने में मिर्च कम होने पर तुनक पड़े और बेवजह मुझे मारने लगे,’’ कहते हुए श्यामली की आंखें भर आईं. बात जारी रखते हुए उस ने आगे बताया, ‘‘मैं रातभर सो न पाई. सुबहसुबह ही तो आंख लगी थी. अगर मैं जल्दी स्टेशन न आ पाती तो ट्रेन निकल जाती.’’

‘‘अब उठिए भी… मेरी मां ने आज वैसे ही ढेर सारा खाना रख दिया है,’’ मधुप ने कहा, तो श्यामली उस की बात टाल न सकी.

श्यामली को इस कसबे में नौकरी करते 5 साल बीत गए थे. वह सुबह 9 बजे तक अपने घर का सारा काम निबटा कर स्कूल आते समय साथ में खाने का डब्बा भी ले आती थी. उस का पति एक बैंक में क्लर्क था, जिस की सोहबत अच्छी नहीं थी. वह हमेशा नशे में धुत्त रहता था और अपनी बीवी की तनख्वाह पर नजर गड़ाए रहता था. जब कभी वह पैसा देने में आनाकानी करती, तब दोनों के बीच झगड़ा होता था.

एक तो रोजरोज रेलगाड़ी के धक्के खाना, ऊपर से स्कूल के बच्चों के साथ सिर खपाना, श्यामली बुरी तरह से थक जाती थी. उसे न घर में चैन था, न बाहर. उस के इस दुखभरे पलों को मुसकराहट में बदलने के लिए मधुप उस की जिंदगी में दाखिल हुआ था. वह उस के साथ ही नौकरी करता था.

मधुप भी उसी के शहर का रहने वाला था. रोजाना दोनों एक ही ट्रेन से साथसाथ आतेजाते थे. वे एकदूसरे में घुलमिल गए थे. श्यामली शादीशुदा थी, पर मधुप अभी कुंआरा था.

मधुप से श्यामली के घर की बात छिपी हुई नहीं थी. वह उस की दुखती रग को पहचान गया था. सोचना शायद उसे प्यार और हमदर्दी की जरूरत है, इसलिए वह उस की हिम्मत बढ़ाता रहता था.

तब श्यामली सोचती कि सब लोग एकजैसे नहीं होते. वह अपने मन की बात मधुप को बता कर हलकापन महसूस करती थी और उसे अपना हमराज मानने लगी थी.

एक दिन श्यामली तैयार हो कर बाहर निकली ही थी कि सामने मधुप को देख कर ठिठक गई.

‘‘क्या बात है?’’ श्यामली ने पूछा.

‘‘बाबूजी की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई है. उन्हें बाहर ले जाना होगा. यह छुट्टी की अर्जी रख लीजिए.’’

अर्जी देख कर श्यामली हैरान रह गई, फिर बोली, ‘‘क्या पूरे 15 दिन की छुट्टी ले रहे हो?’’

‘‘हां. डाक्टर ने सलाह दी है. अगर उन्हें आराम नहीं मिला, तो शायद और ज्यादा छुट्टी लेनी पड़ जाएं.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए श्यामली ने अर्जी अपने पास रख ली. वह मधुप को दूर तक जाते हुए देखती रही.

मधुप जब छुट्टी से लौट कर आया तो श्यामली खुशी से झूम उठी. फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘मधुप, बच्चों के इम्तिहान होने से पहले क्यों न हम सब पिकनिक पर चलें?’’

मधुप फौरन श्यामली की बात मान गया.

स्कूल से 4 किलोमीटर दूर एक झील थी. बड़ी अच्छी जगह थी. वहां छुट्टी के दिन जाना तय हुआ.

श्यामली ने घर आ कर अरुण से कहा, ‘‘क्योंजी, पिकनिक पर आप भी चलेंगे न? उस दिन आप की भी छुट्टी रहेगी.’’

अरुण गुस्से से बोला, ‘‘हफ्ते में एक दिन तो यारदोस्तों के साथ दारू पीने का मौका मिलता है… उसे भी तुम छीन लेना चाहती हो?’’

उस की बात सुन कर श्यामली का दिल नफरत से भर उठा.

पिकनिक वाले दिन श्यामली भोर होेते ही उठ बैठी. अरुण अभी तक सो रहा था. वह उस का खाना बना कर नहाधो कर तैयार हुई और समय से पहले ही स्टेशन पर आ गई.

मधुप भी उसी का इंतजार कर रहा था. श्यामली बेहद खुश थी. उस ने अपने सिंगार में कोई कमी नहीं रखी थी. उस के जिस्म से इत्र की बड़ी अच्छी महक आ रही थी.

श्यामली की खूबसूरती देख कर मधुप अंदर ही अंदर तड़प उठा. उस से रहा नहीं गया, बोला, ‘‘श्यामलीजी, आप आज बहुत हसीन लग रही हैं.’’

शायद वह मधुप से तारीफ सुनना चाहती थी, इसलिए उस के गाल और ज्यादा गुलाबी हो गए.

सभी बच्चे भोजन कर आराम करने लगे. लेकिन मधुप झील के किनारे एक इमली के पेड़ तले बैठा था.

‘‘अरे, तुम यहां बैठे हो, मैं तुम्हें कब से खोज रही हूं,’’ श्यामली उस के बिलकुल नजदीक आ बैठी.

‘‘बस यों ही इस झील की लहरों को देख रहा हूं. पानी कितना ठंडा?है.’’

थोड़ी देर दोनों के बीच चुप्पी छाई रही.

अचानक श्यामली बोली, ‘‘मधुप.’’

‘‘जी कहो…’’ श्यामली की ओर निगाहें घुमाते हुए मधुप ने पूछा.

‘‘मैं चाहती हूं कि तुम मुझे अपना लो,’’ अटकते हुए श्यामली ने कहा.

मधुप हैरान रह गया. बोला, ‘‘लेकिन आप तो शादीशुदा हैं.’’

‘‘जिसे तुम शादी कहते हो, वह नरक है. वहां सांस लेते हुए भी मुझे दर्द होता है. अगर तुम ‘हां’ कह दो तो मैं अपने मर्द से तलाक ले लूंगी.’’

‘‘श्यामलीजी, झगड़े हर घर में होते हैं लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि बीवी और मर्द हमेशा के लिए एकदूसरे से अपना मुंह मोड़ लें,’’ समझाते हुए मधुप ने कहा.

‘‘फिर मैं क्या करूं? मधुप, मैं अब बिलकुल टूट चुकी हूं. मुझे तुम्हारे सहारे की जरूरत है. बोलो, मेरा साथ दोगे?’’ श्यामली उस की आंखों में झांकते हुए बोली.

मधुप सोच में डूब गया. वह फैसला नहीं कर पा रहा था. कुछ देर बाद उस ने कहा, ‘‘मर्द अगर गलत रास्ते पर जाता है तो बीवी ही आगे आ कर उसे सही रास्ते पर लाती है. अरुण पर एक बार फिर अपने प्यार का बादल बरसा कर देख लीजिए. आओ, अब चलें, सूरज ढलने लगा है,’’ उठते हुए मधुप ने कहा.

श्यामली किसी मुजरिम की तरह मधुप के पीछेपीछे चल पड़ी.

उन के स्कूल से जिले की हौकी टीम में हिस्सा लेने के लिए 2 लड़कियों को चुना गया था. श्यामली ने मधुप से कहा, ‘‘अगर तुम भी मेरे साथ चलोगे तो सफर अच्छा कट जाएग.’’

‘‘आप कहती हैं तो चल देता हूं,’’ मधुप बोला.

उन के जिले की टीम मैच जीत गई थी. शाम को दोनों लड़कियों को होस्टल की दूसरी लड़कियों के बीच छोड़ कर श्यामली मधुप के साथ तांगे पर बैठ कर घूमने निकल पड़ी. दोनों ने खूब चाटपकौड़े खाए.

मधुप ने अपनी पसंद की एक साड़ी खरीदी और तोहफे के तौर पर श्यामली को दे दी. फिर एक होटल में खाना खाया, उस के बाद पार्क में आ बैठे, जहां फव्वारे चल रहे थे और रंगबिरंगी रोशनी भी थी.

मधुप एक फूल वाले से मोगरे की लडि़यां ले आया, जिन्हें उस ने अपने हाथों से श्यामली के बालों में लगा दिया. वह उस के और नजदीक सिमट आई.

श्यामली को अपनी जिंदगी में इतना प्यार कभी भी नहीं मिल पाया था, जितना कि मधुप उस पर उड़ेल रहा था. न चाहते हुए भी वह बोली, ‘‘मधुप, रात बहुत हो चुकी है… होस्टल में लड़कियां हमारा इंतजार कर रही होंगी?’’

मधुप कुछ नहीं बोला. तब श्यामली ने अपना सिर उस की गोद में रख दिया तो वह प्यार से उस के बाल सहलाने लगा. धीरेधीरे पार्क से लोग जाने लगे थे. तब मधुप ने उस का हाथ पकड़ कर उठाया, ‘‘आओ, चलते हैं.’’

श्यामली उठ खड़ी हुई. बाहर आ कर मधुप ने एक रिकशा वाले से पूछा,’’ यहां पास में कोई होटल है?’’

श्यामली हैरानी से मधुप का मुंह ताकने लगी.

‘‘हां साहब, पास में ही एक होटल है… सस्ता भी है,’’ रिकशा वाले ने कहा. तो दोनों रिकशा में बैठ गए.

श्यामली का कलेजा ‘धकधक’ कर रहा था. वह मधुप के इस फैसले से बेहद खुश थी, लेकिन दिल में डर भी समाया हुआ था.

रिकशा से उतर कर मधुप ने कमरा लेते वक्त श्यामली को अपनी बीवी बताया और उस की कमर में हाथ डाल कर सीढि़यां चढ़ने लगा. रातभर 2 जवान जिस्म एकदूसरे में समाए रहे.

सुबह श्यामली का शरीर टूट रहा था. चादर पर बिखरे मोगरे के फूल अपनी हलकीहलकी खुशबू अभी तक बिखेर रहे थे. रात की बात याद आते ही उस का दिल एक बार फिर गुदगुदा उठा.

मधुप अभी तक सोया हुआ था. वह उसे उठाते हुए बोली, ‘‘देखो, सुबह हो गई है.’’

मधुप आंखें मलते हुए उठा. उस ने श्यामली को एक बार फिर अपनी बांहों में भरने की कोशिश की तो वह छिटकते हुए बोली, ‘‘हटो, जाने रातभर लड़कियां होस्टल में कैसे रही होंगी?’’

वे दोनों तैयार हो कर होस्टल पहुंच गए.

तकरीबन 3 महीने बाद मधुप का वहां से तबादला हो गया तो श्यामली तड़प उठी. उस से बिछड़ते वक्त मधुप ने कहा, ‘‘मैं एक हफ्ते बाद तुम से मिलने आऊंगा. इस बीच तुम भी अपने आदमी से तलाक के बारे में पूरी बात कर लेना. जल्दी ही हम दोनों ब्याह कर लेंगे.’’

श्यामली ने आंसू भरी निगाहों से उसे विदा किया.

अब वह फिर से अकेली स्कूल जाने लगी. मधुप के इंतजार में हफ्ते, महीने और फिर साल बीतते गए पर न तो मधुप की कोई चिट्ठी आई और न ही वह खुद आया. बाद में श्यामली को पता चला कि मधुप तो वहां जा कर शादी कर चुका है. वह अपने आदमी के अलावा दूसरे मर्द द्वारा भी ठगी जा चुकी थी.

News Kahani: बरेली का सीरियल किलर और चतुर चाल

‘‘अरे रश्मि, कहां जा रही है इतनी सुबह?’’ मां ने घर से निकलती बेटी रश्मि को रसोई से टोका.

‘‘थोड़ा रनिंग कर आऊं मां, देखूं तो सही इन स्पोर्ट्स शू में कितना दम है,’’ रश्मि ने दरवाजा बंद करते हुए कहा.

पिछले कई दिनों से 24 साल की रश्मि खुद को सेहतमंद रखने के लिए बड़ी मेहनत कर रही थी. जिला हैडक्वार्टर में क्लर्क की नौकरी मिलने के बाद रश्मि और उस की विधवा मां की जिंदगी बदल गई थी.

आज भी 5 किलोमीटर की रनिंग करने के बाद रश्मि एक दुकान पर पहुंची और वहां से सब्जी काटने का एक तेज धार वाला चाकू खरीदा. चाकू आकार में थोड़ा बड़ा था मानो कटहल जैसी कोई ठोस चीज काटने के लिए खरीदा गया हो.

जब रश्मि घर पहुंची, तो वह पसीने से तरबतर थी. मां ने उस के पास चाकू देख कर अपना माथा पीट लिया और बोलीं, ‘‘यह लड़की तो पागल हो गई है. पिछले एक हफ्ते में 3 चाकू खरीद लिए हैं. न जाने पर्स में रख कर उन का कौन सा अचार डालेगी. क्या जरूरत है इतने चाकू रखने की?’’

‘‘अरे मां, औफिस में कुछ न कुछ काटने के लिए चाकू की जरूरत पड़ ही जाती है. तुम चिंता मत करो, सस्ता सा चाकू है,’’ रश्मि ने इतना कह कर तौलिया लिया और नहाने चली गई. आज रविवार था, तो उसे औफिस जाने की कोई जल्दी नहीं थी.

रश्मि अपनी मां के साथ बरेली जिले के एक गांव में रहती थी. रोज जिला हैडक्वार्टर में अपने औफिस जाने के लिए उसे तकरीबन 3 किलोमीटर पैदल चल कर बसस्टैंड तक पहुंचना होता था. रास्ते में गन्ने के खेत थे और सुनसान इलाका था. पर चूंकि रश्मि यहीं पलीबढ़ी थी, तो उसे ज्यादा डर नहीं लगता है.

पर पिछले कुछ समय से रश्मि बड़ी चिंता में थी. दरअसल, कुछ दिन पहले उस ने एक ऐसा कांड देख लिया था, जिस से उस के दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई थी.

एक शाम को बसस्टैंड से घर लौटते हुए रश्मि ने एक गन्ने के खेत में किसी औरत पर हमला होते हुए देख लिया था. उसे हमलावर की पहचान थी, पर वह डर गई थी, क्योंकि उस आदमी ने भी उसे देख लिया था.

रश्मि डर कर वहां से भाग गई थी, पर उस के कानों में उस हमलावर की जोरदार आवाज गूंज रही थी, ‘मैं ने तेरा चेहरा देख लिया है. मेरा अगला शिकार तू ही बनेगी.’

पहले तो रश्मि पुलिस में जाना चाहती थी, पर फिर उसे लगा कि पुलिस में जाने से हो सकता है कि वह हमलावर चौकन्ना हो जाए, इसलिए यह लड़ाई तो उसे खुद ही लड़नी पड़ेगी.

बस, तभी से रश्मि ने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया था. वह रोज कसरत करती थी. सूटसलवार पर भी स्पोर्ट्स शू पहनती थी, ताकि मौका मिलने पर तेजी से भाग सके.

इस कांड को अब 3 महीने हो गए थे. एक सुबह की बात थी. रश्मि को औफिस जाने में देर हो गई. मां से लंच बौक्स ले कर वह जल्दी से भागी, ताकि उस की बस न निकल जाए.

गांव से पैदल ही जाने वाली बस की सवारियां काफी दूर जा चुकी थीं. लिहाजा, रश्मि अकेले ही सुनसान रास्ते पर तेजतेज चल रही थी.

गांव से कुछ दूर निकलते ही गन्ने के खेत आ गए थे. वहां एकदम सन्नाटा था. रश्मि को अपनी सांसों की आवाज भी आ रही थी, तभी उसे महसूस हुआ कि कोई साया उस का पीछा कर रहा है. वह समझ गई कि कोई तो है, जो जानबू?ा कर उस के पीछेपीछे चल रहा है.

रश्मि का हाथ अपने बैग में रखे बड़े चाकू पर चला गया. वह सोच रही थी कि अगर आज वह हिम्मत हार गई, तो अपनी जान से हाथ धो बैठेगी.

रश्मि ने दिमाग लगाया और वह 10 कदम तेज और 10 कदम धीरे चलने लगी. इस बात से उस के पीछे चल रहा साया चकरा गया. इतने में रश्मि एक पगडंडी की तरफ चल पड़ी. वह आज आरपार करने के मूड में थी.

दूसरी तरफ वह साया खुश हो गया कि शिकार खुद उस के जाल में फंस रहा है. पर अचानक रश्मि ने खेतों की ओट में अपनी चाल धीरे कर दी और थोड़ी ही देर में वह उस साए के पीछे थी.

एक पुराने कुएं के पास जा कर वह आदमी रुक गया. रश्मि धीरे से उस के नजदीक गई. उस के हाथ में चाकू था. फिर अचानक वह तेजी से झपटी, पर तब तक वह आदमी चौकस हो चुका था.

रश्मि का वार खाली गया और उस आदमी ने लड़खड़ाती रश्मि के हाथ से चाकू छीन लिया और फुरती से उसे कुएं में फेंक दिया.

‘‘आज जाल में फंसी है चिडि़या. तेरी तो मैं उस दिन से ही तलाश कर रहा हूं, जब तू ने मेरा चेहरा देख लिया था,’’ उस आदमी ने कहा.

यह तो वही हमलावर था. रश्मि जमीन पर पड़ी थी. उस के हाथ में तब तक दूसरा चाकू आ चुका था. जैसे ही वह आदमी दोबारा उस पर ?ापटा, रश्मि ने तेजी से चाकू वाला हाथ घुमाया.

इस बार वार खाली नहीं गया. उस आदमी का कंधा चिर गया था. वह दर्द के मारे बिलबिला गया और इसी बात का फायदा उठा कर रश्मि ने पूरी ताकत से उस की टांगों के बीच खींच कर जोर से लात मारी.

बस, फिर क्या था, वह आदमी धड़ाम से धरती पर जा गिरा. रश्मि ने पूरी ताकत से उस के दोनों हाथ अपनी चुन्नी से बांध दिए और दम लेने के लिए एक पेड़ के नीचे जा कर पसर गई.

बड़ी देर से रश्मि पेड़ के सहारे टिकी बेदम सी पड़ी थी. उस की सांसें ऊपरनीचे हो रही थीं. सामने वह राक्षस पड़ा था. उस के दोनों हाथ रश्मि की चुन्नी से बंधे हुए थे, पर उस के चेहरे पर शिकन की एक लकीर नहीं थी.

वह अभी भी रश्मि की ऊपरनीचे होती छाती को घूर रहा था. फिर उस ने रश्मि के कानों की बालियों को देखा और कुटिल मुसकान से फिर छातियों पर उस की नजर रेंग गई.

रश्मि ने ताड़ लिया था कि यह आदमी बड़ी सख्त जान है. वह चौकन्नी हो गई. उस ने वहीं पड़ेपड़े उस आदमी से पूछा, ‘‘अब तक कितनियों को मार दिया है तू ने? मैं तो तुझे तभी पहचान गई थी, जब तू ने उस मासूम औरत का गला घोंट कर उस के गले की चेन झपट ली थी. बता, क्या इरादा है तेरा?’’

‘‘मेरे इरादे की न पूछ ऐ जालिम, मुझे वफा के बदले बेवफाई का इनाम मिला है…  तू भी मेरे हाथ से कत्ल होगी. किसी को नहीं छोड़ूंगा,’’ वह आदमी अपना आपा खोने लगा.

‘‘ऐसा क्या जख्म दिया था उस औरत ने कि तू उस की जान का दुश्मन ही बन बैठा?’’ यह पूछते हुए रश्मि और भी संभल चुकी थी. उस का बैग अभी भी हाथ में था.

‘‘उस औरत की कोई गलती नहीं थी. वह तो किसी और के किए की सजा भुगत गई बेचारी. मैं तो उसे जानता भी नहीं था,’’ वह आदमी बोला.

‘‘तू है कौन? और यह सब क्यों कर रहा है?’’ रश्मि ने हिम्मत कर के पूछा.

‘‘चल, तू भी क्या याद करेगी. मेरा नाम कुलदीप है और मैं गांव बाकरगंज थाना नवाबगंज इलाके का रहने वाला हूं. मेरी 2 सगी बहनें हैं. मेरी सगी मां की मौत हो चुकी है.’’

‘‘सगी मां की मौत का मतलब…?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘मेरे बाप बाबूराम ने मेरी मां के जिंदा रहते समय ही किसी दूसरी औरत से शादी कर ली थी. मेरा बाप अपनी दूसरी पत्नी के कहने पर मेरी मां को खूब मारता था. यह देख कर मेरा खून खौल जाता था और मैं अपनी सौतेली मां से नफरत करने लगा था, इसलिए मैं अपनी सौतेली मां की उम्र की 45 से 50 साल की औरतों को अपना शिकार बनाने लगा.

‘‘पर, बेवफाई तो तुम्हारे बाप ने की थी तुम्हारी मां के साथ, फिर यह सब क्यों?’’ रश्मि ने हैरानी से पूछा.

‘‘मेरी बीवी के चलते मैं और ज्यादा हैवान बनता चला गया.’’

‘‘बीवी ने तेरे साथ क्या किया था?’’

‘‘मुझे नहीं पता. मेरी शादी साल 2014 में हुई थी. मैं अपनी बीवी के साथ भी मारपीट करता था. मुझ से परेशान हो कर वह कुछ साल पहले मुझे छोड़ कर चली गई थी.’’

‘‘उस के बाद क्या हुआ?’’ रश्मि को जैसे कुलदीप की कहानी में मजा आने लगा था.

‘‘फिर क्या था, मैं भांग, सुल्फा, शराब का नशा करने लगा और अपने घर से निकल कर आसपास के जंगल और गांवगांव भटकने लगा.

‘‘मैं इतना ज्यादा भटकता था कि अब तो मुझे आसपास के सुनसान इलाके, खेतों के रास्तों पर बनी सभी पगडंडियों की पूरी जानकारी है.

‘‘मैं केवल सुनसान इलाके से जा रही अकेली औरत को देख कर ही उस पर हमला करता था. हमला करने से पहले मैं पक्का कर लेता था कि किसी ने मुझे उस औरत के पीछे जाते हुए नहीं देखा है.

‘‘अगर किसी औरत का पीछा करते समय रास्ते में कोई भी बच्चा, मर्द या कोई दूसरी औरत मुझे मिल जाती थी, तब मैं उस दिन वारदात नहीं करता था.’’

‘‘तुम वारदात कहां करते हो?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘गन्ने के खेत में, क्योंकि वहां मुझे देख पाना मुश्किल होता था. अपने शिकार को मार कर वहां से जाते समय मैं उस औरत के गले में उसी की पहनी गई साड़ी या दुपट्टे से कस कर गांठ लगा देता था.’’

रश्मि समझे गई थी कि यह आदमी पागल है और मौका मिलते ही उसे भी मार डालेगा. उस ने ठान लिया कि इसे सबक सिखाना ही होगा. वह धीरे से उठी और अपने बैग से दूसरा चाकू निकाला. साथ में एक चुन्नी और निकाली, फिर वह कुलदीप की ओर बढ़ी.

‘‘क्या इरादा है तेरा? मेरे हाथ खोल, फिर बताता हूं कि मैं क्या चीज हूं,’’ कुलदीप गुर्राया, पर तब तक रश्मि उस के पीछे जा चुकी थी. उस ने अपनी चुन्नी कुलदीप के गले में लपेटी और कस दी.

थोड़ी ही देर में कुलदीप की आंखें उबल कर बाहर आने को हो गईं. वह छटपटा कर रह गया. फिर रश्मि ने न जाने क्या सोच कर अपनी पकड़ ढीली की और उसे वहीं बेहोश छोड़ कर वहां से चल दी.

इस सुनसान इलाके से कोई तो गुजरेगा, फिर इस हैवान को जो सजा होनी होगी, देखा जाएगा. क्या पता, तब तक इस की सांसें चलेंगी भी या नहीं.

शिष्टाचार : रिकशा वाले ने सिखाया सबक

लखविंदर प्लेटफार्म से बड़ी जल्दबाजी में निकलने की फिराक में था. वह तेजतेज कदमों से सीढि़यां उतरने लगा. प्लेटफार्म की आखिरी 2 सीढ़ियों से वह कुछ जल्दी में उतर जाना चाहता था. उस की टैक्सी स्टेशन के बाहर खड़ी थी. पता नहीं, ड्राइवर रुके या न रुके, आजकल सब को जल्दी है.

बेतरतीबी में अचानक से लखविंदर 2 सीढ़ियां एकसाथ उतर गया था और गिरतेगिरते बचा था. प्लेटफार्म की आखिरी सीढ़ी पर कोई सोया हुआ था.

लखविंदर अचानक से उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम लोगों को सोने के लिए और कोई जगह नहीं मिलती है क्या… यह स्टेशन तुम्हारे बाप का है क्या… आखिर सीढ़ियों के पास कौन सोता है.

‘‘तुम लोग शुरू से ही जाहिल और गंवार किस्म के लोग रहे हो. तुम्हें पता नहीं है कि मेरी टैक्सी बाहर खड़ी है और मैं तुम्हारी वजह से ही अभी गिरतेगिरते बचा हूं.’’

वह नौजवान अब उठ कर बैठ गया था. मैलेकुचैले कपड़ों में वह कोई मजदूर मालूम पड़ता था. सिरहाने रखे कंबल को तह कर के वह एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, दिनभर रिकशा खींचता हूं. प्लेटफार्म के किनारे इसलिए नहीं सोता कि लोग दिनभर बैग टांग कर इस प्लेटफार्म से उस प्लेटफार्म पर भागते रहते हैं और वहां आपाधापी मची रहती है.

‘‘खैर, हम गरीबों को नींद भी कहां आ पाती है. एक ट्रेन जाती नहीं कि दूसरी आ जाती है. वैसे, कायदे से जब हम किसी से टकराते हैं या किसी को गलती से हमारा पैर लग जाता है, तो हम सामने वाले को छू कर प्रणाम करते हैं. इस को शायद मैनर्स कहा जाता है. हिंदी में शिष्टाचार, लेकिन आपाधापी में हम शिष्टाचार भूलने लगे हैं…’’

वह नौजवान थोड़ा रुका, फिर बोला, ‘‘सौरी सर, मैं आप के रास्ते में आकर प्लेटफार्म पर सो गया था. बाबूजी, एक बात बोलूं… आदमी को खाना कम मिले, चल जाता है, लेकिन नींद पूरी मिलनी चाहिए. लेकिन देखिए, हमारी जिंदगी में नींद भी ठीक से नहीं मिल पाती है.

‘‘बाबूजी, आप को कहीं लगी तो नहीं न? पैर में कुछ मोचवोच तो नहीं आ गई? लाइए, मैं आप के टखने दबा देता हूं,’’ वह लड़का लखविंदर के पैर पकड़ कर दबाने लगा.

सचमुच 2 सीढ़ियों से एकसाथ उतरने से लखविंदर की एड़ी में मोच आ गई थी.

‘‘नहीं, ठीक है. रहने दो,’’ लखविंदर जल्दी में था. उस की टैक्सी जो छूटने वाली थी.

लखविंदर टैक्सी में बैठा, तो उसे उस नौजवान की बातें याद आने लगीं. आदमी आखिर है क्या? वक्त के हाथों की कठपुतली. बातचीत के लिहाज से वह लड़का बिहारी लग रहा था. यहां चडीगढ़ में वह रिकशा खींचता होगा. स्टेशन के बाहर जहां वह सोया हुआ था, उस से थोड़ी दूरी पर एक रिकशा खड़ा था.

लखविंदर याद करने लगा अपने पुराने दिन. वह भी तो चंडीगढ़ छोड़ कर चेन्नई चला गया था, अपने काम के सिलसिले में. वहीं स्टेशन के बाहर बस डिपो के पास उस की भी तो कई रातें ऐसे ही बीती थीं.

लखविंदर के पास तो उन दिनों खाने तक के पैसे नहीं होते थे. कई दिनों तक तो कई बस कंडक्टरों और ड्राइवरों ने उसे खाना खिलाया था. तब उन लोगों ने तो ऐसा बरताव उस के साथ नहीं किया था. उस ने उस रिकशे वाले को कितना सुनाया.

आखिर कौन परदेश में परदेशी नहीं है. अपनी जगह कोई जानबूझ कर तो नहीं छोड़ता है. सब पेट के चलते ही तो देशनिकाला हो जाते हैं, नहीं तो किस को अपना मुल्क छोड़ने का जी करता है.

आज सब जल्दबाजी में हैं, एकदूसरे को कुचल कर आगे बढ़ने की फिराक में हैं. सब को जल्दी है, भले ही वे दूसरों का हक छीन लें. बंद एसी कार में भी लखविंदर को पसीना आने लगा. उस ने खिड़की खोल ली.

ड्राइवर ने कार धीमी कर दी, फिर बैक मिरर से देखते हुए लखविंदर से पूछा ‘‘सर, आप ठीक तो हैं न?’’

लखविंदर ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘सर, आप कार का शीशा बंद कर दीजिए. एसी काम नहीं करेगा.’’

लखविंदर फिर चुप रहा.

‘‘सर, क्या हुआ?’’

‘‘सुनो, कार को वापस स्टेशन की तरफ मोड़ लो,’’ लखविंदर ने कहा.

‘‘वापस क्यों सर?’’

‘‘बस, ऐसे ही.’’

‘‘सर, आप का घर अब मुश्किल से आधा किलोमीटर ही दूर है. रात बहुत हो गई है, सर. मेरे बच्चे मेरा घर पर इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘नहीं, तुम स्टेशन तक फिर से वापस चलो. एक जरूरी सामान… शायद अपना बैग मैं प्लेटफार्म 6 नंबर पर ही भूल गया हूं,’’ लखविंदर झूठ बोल गया.

‘‘ओह, लेकिन अब बैग मिलेगा नहीं, आप बेकार ही जा रहे हैं. स्टेशन पर छूटी हुई चीजें चोरी हो जाती हैं, कभी नहीं मिलतीं.’’

‘‘कोई बात नहीं, फिर भी चलो.’’

‘‘भाड़ा डबल लगेगा. बोलो, आप को मंजूर है?’’ ड्राइवर ने कहा.

‘‘मंजूर है,’’ लखविंदर बोला.

रास्तेभर लखविंदर यही सोचता रहा कि किसी तरह वह लड़का उसे उसी जगह फिर से मिल जाए.

रात और खाली सड़क होने की वजह से कार हवा से बातें कर रही थी. आधेपौने घंटे बाद लखविंदर फिर से चंडीगढ़ के उसी स्टेशन पर था.

लखविंदर की बेचैनी बहुत बढ़ गई थी. उसे पता नहीं ऐसा क्यों लग रहा था कि वह नौजवान, जिसे उस ने अपनी गलती की वजह से बहुत बुराभला कहा था, वह उस प्लेटफार्म पर नहीं मिलेगा.

लखविंदर 6 नंबर प्लेटफार्म पर था, लेकिन सचमुच में लखविंदर ने जैसा सोचा था, ठीक वैसा ही हुआ. लड़का उस प्लेटफार्म पर नहीं था, लेकिन लखविंदर भी बहुत ही आत्मविश्वासी था. वह बारीबारी से सभी प्लेटफार्म को अच्छी तरह चैक कर आया था, लेकिन लड़का नदारद था.

लखविंदर का दिल बैठ गया. वह वापस स्टेशन से बाहर निकलने को हुआ कि तभी रास्ते में उसी शक्लसूरत का एक शख्स उस से जा टकराया. यह वही लड़का था, जो 6 नंबर प्लेटफार्म के नीचे सब से आखिरी वाली सीढ़ी पर सोया था.

लखविंदर को संकोच हुआ. पता नहीं, यह वही शख्स है या कोई और है. इन कुलियों और रिकशे वाले की शक्ल भी तो एकजैसी दिखती हैं.

अपनी झिझिक को परे धकेलते हुए लखविंदर बोला, ‘‘भाई, तुम वही रिकशे वाले हो न, जिस को मेरे टखने से चोट लगी थी?’’

‘‘जी नहीं, मैं तो अभीअभी आया हूं,’’ वह नौजवान साफसाफ झूठ बोल गया. दरअसल, वह रिकशे वाला लखविंदर का इम्तिहान ले रहा था.

‘‘ओह, माफ करना भाई. आप की तरह का ही एक नौजवान रिकशे वाला था, जिसे पता नहीं मैं घंटाभर पहले बहुत भलाबुरा कह आया था. बहुत अफसोस है यार मुझे इस बात का. एक तो मैं उस के ऊपर चढ़ा और उस को ही बहुत भलाबुरा भी कह दिया.

‘‘बेचारे उस लड़के की कोई गलती नहीं थी. मैं ही शिष्टाचार भूल गया था. आप भी तो रिकशा चलाते हैं न… क्या आप जानते हैं उसे, जो 6 नंबर प्लेटफार्म पर सोता है?’’

‘‘कौन भीखू, जो 6 नंबर प्लेटफार्म पर रोज रात को सोता है? वही न? हां, मैं उसे जानता हूं.’’

‘‘आप का कुछ चुराया है उस ने क्या?’’ उस लड़के ने पूछा.

‘‘अरे नहीं भाई. वह तो बड़ा सज्जन आदमी है. अकड़ू तो मैं हूं. पता नहीं, उसे मैं गुस्से में क्याक्या कह गया.’’

‘‘ठीक है, मिलेगा तो कह दूंगा. उस को कुछ कहना है क्या? उस का नाम भीखू ही है.’’

‘‘हां, वही लड़का… भीखू.’’

‘‘भाई, इस खत में मैं ने अपना सब हाल लिख दिया है. भीखू मिले तो उसे दे देना,’’ लखविंदर ने कहा.

लखविंदर के दिमाग में इस बात का एहसास पहले से था. उस ने कार में ही अपने औफिस के पैड पर एक खत उस लड़के के नाम लिख दिया था :

प्रिय भाई,

पता नहीं, यह कैसा संयोग है कि एक अनपढ़ आदमी ने मुझ जैसे पढ़ेलिखे आदमी का घमंड चकनाचूर कर दिया है. आप जहां सोए थे, वैसी जगह पर मैं ने भी अपने गरीबी भरे दिन बिताए थे.

गुरबत के दिन मैं ने भी देखे हैं. मेरे घर में भी कईकई दिनों तक  चूल्हा नहीं जला था, लेकिन मैं अपने पुराने दिन भूल गया.

आज जब मैं आप के ऊपर गिरा, तो कायदे से मुझे आप से माफी मांगनी चाहिए थी, लेकिन यह काम भी आप ही कर गए.

आप के कहे अलफाज आज अभी मेरे दिल में कांच की किरचों की तरह चुभ रहे हैं. मैं चुल्लू भर पानी में डूब मरने लायक भी नहीं हूं.

खैर, आज मैं अपनी ही नजरों में जितना जलील हुआ हूं कि आप को बता नहीं सकता. हालांकि, माफी मांग लेने भर से मेरा काम खत्म नहीं हो जाता, फिर भी मैं अपने बरताव पर बहुत शर्मिंदा हूं.

फिर भी मुझे अपना बड़ा भाई समझ कर माफ कर देना. मैं अभी चंडीगढ़ में ही हूं. अगर आप को यह खत मिलता है, तो इस में मैं अपना पूरा नाम, पता, मोबाइल नंबर लिख कर दे रहा हूं. आप को कभी भी किसी मदद की जरूरत हो, तो बेहिचक हो कर इस पते पर या अमुक दिए गए मोबाइल नंबर पर संपर्क करें.

मैं वैसे तो चेन्नई में काम करता हूं, लेकिन मेरे घर पर मेरे अलावा मेरे मातापिता, 2 बड़े भाई, मेरी पत्नी और बच्चे सभी लोग रहते हैं. आप को कभी काम हो या किसी चीज की जरूरत हो, तो बेझिझक हो कर मिल लेना या दिए गए मोबाइल नंबर पर फोन कर लेना.

आप का भाई लखविंदर सिंह उस लड़के ने खत अपने हाथ में रख लिया, फिर वह बोला, ‘‘अगर भीखू नहीं मिला तो…?’’

‘‘भाई, उस के पते पर डाक में डाल देना, वरना मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा या ऐसा करो कि उस का पता भी इस छोटी डायरी में लिख दो.’’

लखविंदर ने जेब से एक छोटी डायरी निकाल कर दी और उस से कहा, ‘‘इस में उस का पता लिख दो भाई.’’

उस लड़के ने डायरी हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘पता तो मैं आप को लिख कर दे रहा हूं, लेकिन उसे आप घर जा कर ही पढ़ना. ठीक है?’’

लखविंदर ने ‘हां’ में सिर हिलाया.

लखविंदर स्टेशन से बाहर निकला, तो देखा कि कार का ड्राइवर कार में ही ऊंघ रहा था.

लखविंदर ने कार में बैठते ही ड्राइवर से चलने को कहा .

ड्राइवर ने पूछा, ‘‘आप का छूटा हुआ बैग प्लेटफार्म पर मिला क्या?’’

‘‘नहीं,’’ लखविंदर ने कहा.

‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था कि बैग नहीं मिलेगा. बेकार ही

हम वापस आए. इतने समय में मैं घर पहुंच गया होता.’’

लखविंदर को भी अफसोस हो रहा था कि उस के चक्कर में बेचारा ड्राइवर भी रात को परेशान हुआ.

‘‘भाई, सौरी यार. तुम्हें इतनी रात को परेशान किया.’’

‘‘अरे, कोई बात नहीं सरदारजी.’’

रास्ते में लखविंदर सोचता जा रहा था कि वह बेकार ही स्टेशन गया. उस लड़के से मुलाकात भी नहीं हो पाई.

लखविंदर को सिगरेट पीने की तलब हुई. उस ने जेब टटोल कर सिगरेट का पैकेट ढूंढ़ना शुरू किया. सिगरेट का पैकेट तो नहीं मिला, लेकिन वह डायरी मिली, जिस में उस ने भीखू का पता उस लड़के को नोट करने को दिया था. उस में पता तो नहीं था, अलबत्ता एक खत जरूर था :

बड़े भैया,

मैं आप को देखते ही पहचान गया था. आप का चेहरा देख कर मुझे लगा कि आप मुझे ही ढूंढ़ रहे हैं, लेकिन मैं डर गया था कि कहीं आप मुझे और भी भलाबुरा न कहने लगें. लिहाजा, मैं आप को अपना परिचय नहीं दे पाया.

दरअसल, मैं वही लड़का हूं, जो 6 नंबर प्लेटफार्म पर सोता हूं. मेरा ही नाम भीखू है, जो अभीअभी आप से मिला था. दूसरी बात यह भी थी कि मैं आप को अपने सामने शर्मिंदा होते नहीं देख सकता था. इसी संकोच के चलते मैं आप से कुछ न कह सका. मैं आप को छोटा नहीं दिखाना चाहता था, इसीलिए अपना परिचय छिपाया.

खैर, कभी इस लायक हुआ तो आप से मिलने आप के घर या दफ्तर जरूर आऊंगा.

आप का छोटा भाई भीखू.

खत पढ़ कर लखविंदर की आंखों से आंसू बहने लगे. सचमुच भीखू के अंदर भरे शिष्टाचार के सामने लखविंदर बहुत छोटा था.

थैंक यू मैट्रो : क्या था मनोलिसा के फोन का राज

विकास दलित था. उस का नाम विकास रखने पर गांव के दबंगों ने उस के परिवार को बहुत बड़ी सजा दी. विकास दिल्ली आ गया और यहां एक शबनम मौसी ने उसे पाला. एक दिन विकास को मैट्रो में एक खूबसूरत लड़की मिली, जो ऐसा काम करती थी, जिसे सुन कर विकास हैरान रह गया.

रोजाना सुबह औफिस के लिए मैट्रो पकड़ना और देर शाम को वापस लौटना, यही विकास की दिनचर्या थी. वह पिछले 4 साल से नोएडा में नौकरी कर रहा था. यह तो अच्छा है कि उस के औफिस से हौजखास ज्यादा दूर नहीं है, इसलिए मैट्रो स्टेशन से उतर कर आटोरिकशा पकड़ कर औफिस पहुंचने में उसे बहुत ज्यादा समय नहीं लगता है.

मैट्रो में लोगों की भीड़ तो बहुत होती है, पर कोई किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करता, हालचाल भी नहीं पूछता. हर कोई अपने में ही बिजी है और शायद मस्त भी है.

ज्यादातर लोग तो अपने मोबाइल में ही बिजी रहते हैं. किसी ने कानों पर ईयरफोन लगा रखा है, तो कोई किसी से मोबाइल पर बात कर रहा है. यह सब देख कर विकास को अपने गांव की याद आ गई.

विकास एक दलित परिवार में पैदा हुआ था. उस के बाबूजी बड़े लोगों के खेतों में मजदूरी करते थे और बदले में मिले पैसों से उन का घर चलता था, पर फिर भी बाबूजी और अम्मां यही चाहते थे कि विकास गांव से निकल कर शहर जा कर कुछ पढ़ाई करे और अपनी जिंदगी अच्छी तरह से बसर करे, पर उस समय 10 साल के विकास को कुछ पता नहीं था कि पढ़ाई की अहमियत क्या होती है या पढ़ाई करने के लिए क्या करना पड़ता है.

हां, इतना जरूर याद है कि गांव के लोग अकसर उस से उस के नाम का मतलब पूछा करते थे, जिस के बदले में विकास यही कहता कि ‘बाबूजी नाम धरे हैं, मुझे नहीं पता मतलबवतलब’.

पर, उस दिन गांव के एक बड़े आदमी का बेटा, जो शहर से पढ़ कर आया था, बाबूजी को गालियां देने लगा और जब बाबूजी बाहर निकले, तो उस ने पूछा कि उन्होंने अपने लड़के का नाम विकास क्यों रखा है?

बाबूजी हाथ जोड़ते हुए बोले थे, ‘‘मालिक, जब इस की मां पेट से थी, तब नेता लोग आ कर ‘विकासविकास’ चिल्लाते थे. यह नाम अच्छा लगा तो हम ने इस का नाम विकास रख दिया.’’

बाबूजी की इस बात पर उस लड़के ने अपने साथियों के साथ उन की पिटाई कर दी. विकास की अम्मां बहुत चिल्लाईं, पर उन सब ने बाबूजी को बहुत मारा था.

बाद में विकास ने जाना कि वे लोग ऊंची जाति के थे, जो एक दलित के द्वारा ऊंची जाति जैसा नाम रख लिए जाने से नाराज थे.

उस दिन के बाद से गांव में किसी ने विकास को विकास नाम से नहीं पुकारा था.

विकास को अम्मां की याद भी है. उस दिन अम्मां जंगलपानी के लिए खेत की तरफ गई थीं, पर फिर कभी वापस नहीं आई थीं.

लोगों ने बताया कि कुछ लोगों ने विकास की अम्मां के साथ गलत काम किया है. उस के बाद विकास की अम्मां कहां गई थीं, किसी को पता नहीं चला. शायद उन्होंने खुदकुशी कर ली थी.

अम्मां के साथ हुए गलत काम और उन की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने के लिए विकास के पिता थाने गए थे, पर रिपोर्ट नहीं लिखी गई. अलबत्ता, वापस आने पर गांव के दबंगों ने विकास के पिता को तब तक पीटा था, जब तक कि वे मर नहीं गए.

विकास ने यह सब अपनी आंखों से देखा था और वह इतना डर गया था कि तुरंत ही गांव से शहर जाने वाली सड़क पर नंगे पैर भागने लगा था. सिर पर सूरज चमक रहा था, पर वह तब तक भागा, जब तक भाग सकता था और फिर बेहोश हो कर सड़क पर गिर गया था.

जब विकास को होश आया, तब वह एक घर में था. एक ऐसा घर, जहां पर अजीब से दिखने वाले लोग थे. न वे मर्द जैसे दिख रहे थे और न ही औरतों की तरह दिख रहे थे. वहां की मुखिया को लोग ‘शबनम मौसी’ कह कर बुलाते थे और उन की बहुत इज्जत करते थे.

विकास को उन्होंने अपने पास रखा, पालापोसा और पढ़ायालिखाया. इस लायक बनाया कि वह बड़े शहर में जा कर नौकरी कर सके और अपनी अम्मां और बाबूजी का सपना पूरा कर सके.

विकास आज भी शबनम मौसी को फोन करता है और उन से अपना दुखदर्द बांटता है.

मैट्रो में कभीकभी ऐसा हो जाता है कि रोजाना चढ़ने वाले लोग आप को और आप उन को पहचानने लगते हैं. भले ही एकदूसरे से बोलचाल न हो, पर एक अनकहा रिश्ता तो कायम हो ही जाता है.

पिछले एक हफ्ते से विकास देख रहा था कि एक खूबसूरत सी मौडर्न लड़की उसे अकसर मैट्रो में दिख जाती है, जो एक जगह से चढ़ती तो है, पर उस के उतरने का स्टेशन कभी फिक्स नहीं रहता. कभी वह कहीं उतरती है, तो कभी कहीं और.

आज भी वह लड़की मैट्रो के अंदर आई और तीर की तरह विकास के पास पहुंच गई. दोनों चुपचाप खड़े रहे. अगले स्टेशन पर जब बैठने की जगह बनी, तो विकास ने इशारे से उसे बैठ जाने को कहा.

‘‘थैंक यू वैरी मच,’’ उस लड़की ने बैठते हुए कहा और कुछ देर बाद अपने नाश्ते का टिफिन विकास की तरफ बढ़ा दिया. उस में कुछ कटलेट और सौस था.

विकास ने भी बेतकल्लुफी से एक टुकड़ा उठा लिया. हालांकि वह नाश्ता कर के आया था, पर लड़की के उस की तरफ टिफिन बढ़ाने में इतना प्यार झलक रहा था कि वह मना न कर सका था.

‘‘बहुत टैस्टी है. थैंक यू,’’ विकास बोला, तो बदले में वह लड़की सिर्फ मुसकरा भर दी.

इस के बाद विकास ने लड़की के चेहरे पर एक भरपूर नजर डाली. कितनी खूबसूरत थी वह. गोरा रंग, होंठ थोड़े से मोटे, पर गुलाबी चमक लिए हुए और सुराहीदार गरदन, जिस पर बाईं तरफ एक काला तिल था, जो उस की गरदन को और खूबसूरत बना रहा था.

तभी लड़की का मोबाइल बजा. वह शांत हो कर किसी से बात करने लगी और फिर अगले स्टेशन पर ही वह लड़की उतर गई.

विकास को लगा कि जाते समय वह लड़की मुसकराएगी या कुछ बोलेगी, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, बल्कि लड़की जब उतरी तो उस के चेहरे पर हलका सा तनाव था और जबड़े भी भिंचे हुए थे.

अगले 2 दिन तक वह लड़की मैट्रो में नजर नहीं आई. विकास को उस की कमी तो नहीं खल रही थी, पर अगर उस लड़की का नाम और मोबाइल नंबर उसे पता होता, तो फोन कर के उस का हालचाल ही पूछ लेता.

एक दिन की बात है, जब प्लेटफार्म पर ही वह लड़की विकास को दिख गई. विकास उस से बातचीत करने को बेताब था, वह लपक कर उस के पास पहुंच गया.

‘‘हैलो… तुम कहां थीं इतने दिन? बीमार थीं क्या?’’ विकास एकसाथ सबकुछ जान लेना चाहता था, पर इतने सारे सवालों के बदले में लड़की ने सिर्फ एक हलकी सी मुसकराहट के साथ उसे बताया कि वह किसी काम में बिजी थी.

‘‘क्या काम करती हो तुम? कहां है तुम्हारा औफिस और तुम ने अभी तक अपना नाम क्यों नहीं बताया?’’ विकास ने सब पूछ डाला, जिस के बदले में लड़की ने सिर्फ इतना जवाब दिया, ‘‘मेरा नाम मोनालिसा है और मेरा औफिस… यों सम?ा लो कि मैं औनलाइन काम करती हूं.’’

अब दोनों की मुलाकात हुए तकरीबन 2 महीने हो गए थे और इन 2 महीनों में विकास समझ चुका था कि उसे मोनालिसा से प्यार है, पर वह अपने बारे में कुछ और बातें साझ नहीं कर रही है, जैसे वह कहां काम करती है? कहां रहती है? उस के मांबाप कहां रहते हैं? आदि.

पर, अब विकास इन सवालों के जवाब अपने ढंग से जान कर रहेगा और उस ने यही किया. हर दिन की तरह विकास मोनालिसा से आज भी मैट्रो में मिला. मोनालिसा ने उसे नाश्ता खिलाया.

कुछ देर बाद जब मोनालिसा के मोबाइल पर फोन आया, तब वह मैट्रो से उतर कर जाने लगी.

विकास ने आज पहले से ही ठान रखा था कि वह मोनालिसा का औफिस देख कर रहेगा. वह मोनालिसा की नजर बचा कर उस का पीछा करने लगा.

मोनालिसा मैट्रो स्टेशन से बाहर निकल कर एक छाया वाली जगह पर रुक गई और फिर किसी से मोबाइल पर बात करने लगी. तकरीबन 20 मिनट के बाद वहां पर एक काले रंग की शानदार कार रुकी और मोनालिसा उस में बैठ गई.

इतनी शानदार कार में मोनालिसा को बैठते देख विकास को भी थोड़ा अचरज लगा, पर उस ने सोचा कि हो सकता है कि औफिस के किसी साथी की कार में मोनालिसा ने लिफ्ट मांग ली हो, पर अगले दिन जब मोनालिसा मैट्रो से किसी और स्टेशन पर उतर गई, तब विकास को थोड़ा शक हुआ कि किसी भी इनसान का औफिस किसी एक तय जगह पर होता है, पर मोनालिसा तो अलगअलग जगह पर उतरती है. यह कैसा काम? यह कैसा औफिस?

विकास आज भी उस का पीछा कर रहा था. पर, आज मोनालिसा किसी शानदार कार में नहीं, बल्कि एक टैक्सी में बैठ कर कहीं गई.

विकास की बेचैनी अब और भी बढ़ गई थी. उस ने तुरंत ही मोनालिसा को फोन लगाया, पर मोनालिसा ने फोन काट दिया. विकास महसूस कर रहा था कि उसे प्यार हो गया है और अब वह जल्द से जल्द शादी के बंधन में बंध जाना चाहता था, पर मोनालिसा और उस का राज गहराता जा रहा था.

रात के 9 बजे विकास ने एक बार फिर मोनालिसा को फोन लगाया, तो मोनालिसा ने उसे लड़खड़ाती आवाज में बताया कि उस ने इस समय एक महंगी वाली शराब पी हुई है, इसलिए वह उस से बात नहीं कर सकती. वह कल मैट्रो में उस से बात करेगी.

मोनालिसा शराब पीती है… पर, शराब तो आजकल सभी मौडर्न लड़कियां पीती हैं और वैसे भी विकास शराब को बुरा नहीं समझता था.

अगली सुबह जब मोनालिसा विकास से मिली, तो उस की आंखें गुलाबी हो रही थीं. यह शायद थकान के चलते था या नशे का खुमार अभी भी बाकी था.

आज वे दोनों ही एकसाथ एक ही प्लेटफार्म पर उतर गए और खाली पड़ी बैंच पर जा कर बात करने लगे.

थोड़ी देर की बातचीत के बाद मोनालिसा का कौफी पीने का मन करने लगा, इसलिए वे दोनों एक रैस्टोरैंट में गए, जहां पर कोने में खाली पड़ी टेबल पर बैठ गए.

विकास ने सीधेसीधे सवाल दागा, ‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं. क्या तुम शादी करोगी मुझ से?’’

मोनालिसा विकास का यह सवाल सुन कर सन्न रह गई, पर फिर उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘काश, मैं शादी कर सकती.’’

‘‘क्यों नहीं कर सकती? ’’ विकास ने पूछा.

‘‘तुम अभी मेरे बारे में कुछ नहीं जानते विकास, क्योंकि अगर जानते होते तो मुझे शादी का प्रस्ताव कभी न देते.’’

‘‘तो बताओ न अपने बारे में… कुछ बताती क्यों नहीं?’’ विकास ने तकरीबन चीखते हुए कहा.

मोनालिसा ने विकास की आंखों में देखते हुए बताना शुरू किया, ‘‘तो जान लो विकास कि मैं अपनी जिंदगी चलाने के लिए जिस्म का धंधा करती हूं… और इतना ही नहीं, मुझे एड्स भी है… बोलो, अब शादी करोगे मुझ से?’’

मोनालिसा का यह जवाब सुन कर विकास के हाथपैर सुन्न से होने लगे, उस की जबान सूख गई. इतनी खूबसूरत लड़की धंधेवाली कैसे हो सकती है? और उस के बाद यह एड्स जैसी जानलेवा बीमारी… कैसे हुआ यह सब?

‘‘क्या हुआ? मेरे बारे में जान कर तुम चुप क्यों हो गए? शादी करने का नशा कहां काफूर हो गया?’’ मोनालिसा ताना मारने वाले लहजे में कह रही थी.

विकास चुप रहा और तकरीबन 2 मिनट की चुप्पी के बाद उस ने बोलना शुरू किया, ‘‘पर, रोजीरोटी के लिए और भी बहुतकुछ किया जा सकता था. तुम ने जिस्म बेचना क्यों शुरू कर दिया?’’

इस सवाल के बदले मोनालिसा ने विकास को बताया कि उस के बौयफ्रैंड ने मोनालिसा के साथ रेप किया था, जिस से उसे एड्स हो गया था. उस के बाद जिंदगी में ज्यादा कुछ बाकी नहीं रह गया था, बस वह मर्दों से बदला लेना चाहती थी और उसे यही तरीका समझ आया.

मोनालिसा की बात सुन कर विकास ने बोलना शुरू किया, ‘‘मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम शराब पीती हो या तुम्हें किसी मजबूरी के चलते अपना जिस्म बेचना पड़ रहा है और तुम अलगअलग लोगों के साथ सोती हो. तुम ने अपने बारे में यह सब बता कर ईमानदारी दिखाई है.

‘‘अगर तुम न बताती तो मैं कभी नहीं जान पाता. और फिर आजकल शहर तो शहर, गांव में भी सैक्स संबंध बनाना आम होता जा रहा है. मुझ प्यार है तुम से और सच्चा प्यार यह सब नहीं देखता.’’

‘‘पर, तुम ने मेरी बीमारी के बारे में नहीं सुना क्या?’’ मोनालिसा बोली.

‘‘सुना भी और समझ भी कि तुम किसी और की गलती के चलते इस बीमारी से संक्रमित हो गई हो, पर लगता है कि तुम ने मेरे प्यार को पहचाना नहीं. सच्चा प्यार सिर्फ एकदूसरे के जिस्म को भोगते रहने का नाम नहीं है, बल्कि प्यार तो आशिक की कुरबानी मांगता है. अगर तुम से शादी करने के बाद मुझे एड्स हो भी जाता है तो क्या हुआ… हम साथ जी न सकेंगे तो कोई बात नहीं, एकसाथ मर तो सकेंगे.’’

विकास मानो आगे भी बहुतकुछ कहना चाह रहा था, पर उस की इतनी बातें मोनालिसा को यह यकीन दिलाने के लिए काफी थीं कि विकास उस से बहुत प्यार करता है.

मोनालिसा की जिंदगी में बहुत से ऐसे मर्द आ चुके थे, जिन्होंने उस से शादी का वादा तो किया था, पर उस की बीमारी के बारे में जान कर उस से दूर हो गए थे.

विकास और मोनालिसा की पिछली जिंदगी दुख से भरी हुई थी, जिस में कड़वापन तो था, पर प्यार के लिए जगह नही थी. आज दोनों के खालीपन को प्यार ने लबालब भर दिया था.

मोनालिसा जानती थी कि भायानक बीमारी के चलते वह ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रह पाएगी. एक दिन वह गुमनामी में मर जाएगी, पर अब मरने से पहले वह जीभर कर जी लेना चाहती थी अपने प्यार विकास के साथ.

मोनालिसा ने विकास पर नजर दौड़ाई, जो शबनम मौसी को फोन लगा कर अपने प्यार के बारे में बता रहा था.

एक मैट्रो मोनालिसा के सामने से तेजी से गुजर रही थी और यह देख उस के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा, ‘‘थैंक यू मैट्रो.’’

बबूल का पेड़: जब बड़ा भाई अपने छोटे भाई से पराया हुआ

कमरे में प्रवेश करते ही नीलम को अपने जेठजी, जिन्हें वह बड़े भैया कहती थी, पलंग पर लेटे हुए दिखाई दिए. नीलम ने आवाज लगाई, ‘‘भैया, कैसे हैं आप?’’

‘‘कौन है?’’ एक धीमी सी आवाज कमरे में गूंजी.

‘‘मैं, नीलम,’’ नीलम ने कहा.

बड़े भैया ने करवट बदली. नीलम उन को देख कर हैरान रह गई. क्या यही हैं वे बड़े भैया, जिन की एक आवाज से सारा घर कांपता था, कपड़े इतने गंदे जैसे महीनों से बदले नहीं गए हों, दाढ़ी बढ़ी हुई, जैसे बरसों से शेव नहीं की हो, शायद कुछ देर पहले कुछ खाया था जो मुंह के पास लगा था और साफ नहीं किया गया था. हाथपैर भी मैलेमैले से लग रहे थे, नाखून बढ़े हुए. उन को देख कर नीलम को उन पर बड़ा तरस आया. तभी नीलम का पति रमन भी कमरे में आ गया. बड़े भाई को इस दशा में देख कर रमन रोने लगा, ‘‘भैया, क्या मैं इतना पराया हो गया कि आप इस हालत में पहुंच गए और मुझे खबर भी नहीं की.’’

भैया से बोला नहीं जा रहा था. उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए और कहने लगे, ‘‘किस मुंह से खबर करता छोटे, क्या नहीं किया मैं ने तेरे साथ. फिर भी तू देखने आ गया, क्या यह कम है.’’

‘‘नहीं भैया, अब मैं आप को यहां नहीं रहने दूंगा. अपने साथ ले जाऊंगा और अच्छी तरह से इलाज करवाऊंगा,’’ रमन सिसकते हुए कह रहा था.

नीलम को याद आ रहे थे वे दिन जब वह दुलहन बन कर इस घर में आई थी. उस के मातापिता ने अपनी सामर्थ्य से ज्यादा दहेज दिया था लेकिन मनोहर भैया हमेशा उस का मजाक उड़ाते थे. उस के दहेज के सामान को देख कर रमन से कहते, ‘क्या सामान दिया है, इस से अच्छा तो हम लड़की को सिर्फ फूलमाला पहना कर ही ले आते.’

उन की शादी अमीर घर में हुई थी, लेकिन रमन की ससुराल उतनी अमीर नहीं थी. इसलिए वे हमेशा उस का मजाक उड़ाते थे. रोजरोज के तानों से नीलम को बहुत गुस्सा आता, पर रमन के समझाने पर वह चुप रह जाती. फिर भी बड़े भैया के लिए उस के दिल में गांठ पड़ ही गई थी. उन से भी ज्यादा तेज उन की पत्नी शालू थी जो बोलती कम थी पर अंदर ही अंदर छुरियां चलाने से बाज नहीं आती थी.

मातापिता की मृत्यु के बाद घर में मनोहर भैया की ही चलती थी. सब कुछ उन से पूछ कर होता था. एक तो मनोहर बड़े थे, दूसरे, वे एक अच्छी कंपनी में अच्छे पद पर थे. उन की शादी भी पैसे वाले घर में हुई थी जबकि रमन न सिर्फ छोटा था बल्कि एक छोटी सी दुकान चलाता था. उस की शादी एक साधारण घर में हुई थी. उस की घरेलू स्थिति ठीक नहीं थी. रमन को इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, वह न सिर्फ अपने बड़े भाई को बहुत प्यार करता था बल्कि उन की हर बात को मानना अपना कर्तव्य भी समझता था. मनोहर अपने छोटे भाई को वह प्यार नहीं देते थे जिस का वह हकदार था, बल्कि हमेशा उस की बेइज्जती करने के बहाने ढूंढ़ते रहते. वे हमेशा यह जतलाना चाहते थे कि घर में सिर्फ वे ही श्रेष्ठ हैं और बाकी सब बेवकूफ हैं.

‘‘नीलम, कहां खो गईं. चलो, भैया का सामान पैक करो, इन को हम अपने साथ ले जाएंगे,’’ रमन की आवाज सुन कर नीलम वापस वर्तमान में आ गई.

‘‘भैया, प्रिया नहीं आती क्या आप से मिलने?’’ नीलम ने पूछा.

‘‘आती है कभीकभी, लेकिन वह भी क्या करे. उस की अपनी गृहस्थी है. हमेशा तो मेरे पास नहीं रह सकती न,’’ भैया रुकरुक कर बोल रहे थे.

‘‘और राजू और पल्लवी कहां हैं?’’ नीलम ने पूछा.

‘‘राजू तो औफिस गया होगा और पल्लवी शायद किसी ‘किटी पार्टी’ में गई होगी,’’ भैया शर्मिंदा से लग रहे थे.

नीलम को इसी तरह के किसी जवाब की उम्मीद थी. उसे अच्छी तरह याद है वह दिन जब उस की छोटी बहन सीढि़यों से गिर गई थी तो वह हड़बड़ाहट में बिना किसी को बताए अपनी मां के घर चली गई थी. बस, इतनी सी बात पर मनोहर भैया ने बखेड़ा खड़ा कर दिया था कि ऐसा भी किसी भले घर की बहू करती है क्या कि किसी को बगैर बताए मायके चली जाए.

उन दिनों भैया ही सारा घर संभालते थे. रमन भी अपनी सारी कमाई भैया के हाथ में दे देता था और कभी भी नहीं पूछता था कि भैया उन पैसों का क्या करते हैं जबकि भैया सब से यही कहते फिरते थे कि छोटे का खर्च तो वही चलाते हैं. छोटे की तो बिलकुल भी कमाई नहीं है.

नीलम की सारी अच्छाइयां, सारी पढ़ाईलिखाई, सारे गुण सिर्फ एक कमी के नीचे दब कर रह गए कि एक तो उस का मायका गरीब था, दूसरे, पति की कमाई भी साधारण थी. सारे रिश्तेदारों, दोस्तों में शालू और मनोहर नीलम और रमन को नीचा दिखाने का प्रयास करते. नीलम को अपनी इस स्थिति से बहुत कोफ्त होती पर वह चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती थी क्योंकि रमन उसे कुछ भी बोलने नहीं देता था.

एक बड़े पेड़ के नीचे जिस तरह एक छोटा पौधा पनप नहीं सकता वैसी ही कुछ स्थिति रमन की थी. पिता की मृत्यु के बाद मनोहर घर के मुखिया तो बन गए लेकिन उन्होंने रमन को सिर्फ छोटा भाई समझा, बेटा नहीं. बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति जो फर्ज होता है वह उन्होंने कभी नहीं निभाया.

नीलम समझ नहीं पाती थी कि क्या करे? वैसे वह बहुत समझदार और शांत स्वभाव की थी, लेकिन कभीकभी शालू और मनोहर के तानों से इतनी दुखी हो जाती कि उसे लगता कि वह रमन को ही छोड़ दे. रमन का चुप रहना उसे और परेशान कर जाता, लेकिन रमन को छोड़ना तो इस समस्या का हल नहीं था. रमन तो बहुत अच्छा था. बस, उस की एक ही कमजोरी थी कि वह बड़े भाई की हर अच्छी या बुरी बात मानता था और आंख बंद कर उन पर विश्वास भी करता था.

रमन के इसी विश्वास का मनोहर ने हमेशा फायदा उठाया. उस ने पुश्तैनी मकान भी अपने नाम करवा लिया और एक दिन नीलम और रमन को अपने ही घर से जाने को कह दिया.

इतना कुछ होने पर भी रमन कुछ नहीं बोला और अपनी 4 साल की बेटी और पत्नी को ले कर चुपचाप घर से निकल पड़ा. उस दिन नीलम को अपने पति की कायरता पर बहुत गुस्सा आया, लेकिन जब रमन ही कुछ करने को तैयार नहीं था तो वह क्या कर सकती थी, पर मन ही मन उस ने सोच लिया था कि वह इस घर में अब कभी वापस नहीं आएगी और इस घर से बाहर रह कर ही अपनी और अपने परिवार की एक पहचान बनाएगी.

अब नीलम की अग्निपरीक्षा शुरू हो गई थी. घर में पैसों की तंगी बनी रहेगी, यह तो नीलम को मालूम था क्योंकि संयुक्त परिवार में बहुत से ऐसे खर्चे होते हैं जिन का पता नहीं चलता, लेकिन एकल परिवार में उन खर्चों को निकालना मुश्किल हो जाता है. फिर भी नीलम ने हार नहीं मानी और जुट गई अपना एक समर्थ संसार बनाने में. सुबह मुंहअंधेरे उठ कर घर का कामकाज करती, उस के बाद कई बच्चों को घर पर बुला कर ‘ट्यूशन’ पढ़ाती और फिर रमन के साथ दुकान पर चली जाती.

नीलम के अंदर दुकान चलाने की गजब की क्षमता थी जो शायद अभी तक उस के अंदर सुप्त पड़ी थी. उस ने अपने मीठे व्यवहार, ईमानदारी और मेहनत से न सिर्फ अपनी दुकान को बढ़ाया बल्कि रमन का आत्मविश्वास बढ़ाने में भी उस का साथ दिया.

बड़े भाई से अलग रह कर रमन को भी एहसास हो गया था कि वह कितना बुद्धू था और बड़े भाई ने उस का कितना फायदा उठाया.

मनोहर ने सोचा था कि रमन कभी भी घर से नहीं जाएगा और अगर जाता है तो जाते वक्त उस के आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाएगा या फिर नीलम ही कुछ भलाबुरा कहेगी पर वह हैरान था कि दोनों ने कुछ भी नहीं कहा बल्कि चुपचाप एकदूसरे का हाथ पकड़ कर घर से चले गए. वैसे भी वे रमन से चिढ़ते थे कि उस की पत्नी हमेशा उस का कहना मानती थी जबकि वह इतना समर्थ भी नहीं था और एक उन की पत्नी शालू है, जिस ने उन का जीना मुश्किल किया हुआ था. हर वक्त उसे कुछ न कुछ चाहिए. उस की फरमाइशें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं.

मनोहर ने रमन को घर से तो निकाल दिया पर उन के अंदर आत्मग्लानि का भाव पैदा हो गया था. एक दिन रात को शराब के नशे में धुत्त हो कर मनोहर ने रमन को फोन किया, ‘चल छोटे, घर आजा, भूल जा सब कुछ.’ लेकिन नीलम और रमन ने सोच लिया था कि अब उस घर में वापस नहीं जाना है. अब मनोहर को एक नया बहाना मिल गया था अपनेआप को बहलाने का कि उस ने तो उन दोनों को वापस बुलाया था पर वे ही वापस नहीं आए और गाहेबगाहे वे अपने रिश्तेदारों को कहने लगे कि वे दोनों अपनी मरजी से घर छोड़ कर गए हैं. नीलम तो हमेशा से ही रमन को उन से दूर करना चाहती थी, पर अंदर की बात तो कोई भी नहीं जानता था कि यह सब कियाधरा मनोहर का ही है.

रमन और नीलम ने दिनरात मेहनत की. धीरेधीरे उन की दुकान एक अच्छे ‘स्टोर’ में बदल गई थी. अब उस ‘स्टोर’ की शहर में एक पहचान बन गई थी. रमन और नीलम का जीवनस्तर भी ऊंचा हो गया था. उन के बच्चे शहर के अच्छे स्कूलों में पढ़ने लगे थे. अब मनोहर उन से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश करते पर वे दोनों तटस्थ रहते.

रमन के घर छोड़ने के बाद दोनों भाइयों का आमनासामना बहुत ही कम हुआ था. एक बार मनोहर के बेटे राजू की शादी में वे मिले थे, तब रमन ने महसूस किया था कि बड़े भाई की अब घर में बिलकुल भी नहीं चलती है. जो कुछ भी हो रहा था, वह बच्चों की मरजी से ही हो रहा था. बड़े भाई के बच्चे भी उन पर ही गए थे. वे बिलकुल ही स्वार्थी निकले थे. दूसरी मुलाकात मनोहर की बेटी प्रिया की शादी में हुई थी. बड़े भैया को अनेक रोगों ने घेर लिया था. वे बहुत ही कमजोर हो गए थे. तब भी उन को देख कर रमन को बहुत दुख हुआ था पर उस वक्त वह कुछ नहीं बोला था, लेकिन शालू भाभी के जाने के बाद तो जैसे भैया बिलकुल ही अकेले पड़ गए थे. उन का खयाल रखने वाला कोई भी नहीं था. शालू जैसी भी थी, पर अपने पति का तो खयाल रखती ही थी. राजू को अपने काम और क्लबों से ही फुरसत नहीं थी. वैसे भी उसे पिता के पास बैठ कर उन का हाल जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. अगर वह अपने पिता का ध्यान नहीं रख सकता था तो पल्लवी को क्या पड़ी थी इन सब बातों में पड़ने की? वह भी ससुर का बिलकुल ध्यान नहीं रखती थी.

एकएक बात रमन के दिमाग में चलचित्र की तरह घूम रही थी. पुरानी घटनाओं का क्रम जैसे ही खत्म हुआ तो रमन बोला, ‘‘बड़े भैया, कल ही किसी से पता चला था कि आप गुसलखाने में गिर गए हैं. मुझ से रहा नहीं गया और आप का हाल पूछने चला आया.’’

रमन का दिल रोने लगा कि खामखां ही वह इतने दिनों तक भैया से नाराज रहा और उन की खबर नहीं ली, लेकिन अब वह उन को अपने साथ जरूर ले जाएगा, लेकिन बड़े भैया ने जाने से इनकार कर दिया, ‘‘मुझे माफ कर दे छोटे, सारी जिंदगी मैं ने सिर्फ तेरा मजाक उड़ाया है और अब जब मैं बिलकुल ही मुहताज हो चुका हूं और मेरे अपने मुझे बोझ समझने लगे हैं, इस वक्त मैं तेरे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहता.’’

‘‘नहीं भैया, ऐसा मत कहो. क्या मैं आप का अपना नहीं, मैं ने आप को अपना भाई नहीं बल्कि पिता माना है और एक बेटे का कर्तव्य है कि वह अपने पिता की सेवा करे, इसलिए आप को मेरे साथ चलना ही पड़ेगा,’’ रमन ने विनती की.

तभी नीलम भी बोल पड़ी, ‘‘भैया, आप को हमारे साथ चलना ही पड़ेगा, हम आप को इस तरह छोड़ कर नहीं जा सकते.’’

अब तक पल्लवी भी घर पहुंच चुकी थी. उस ने चाचा और चाची को देख कर इस तरह व्यवहार किया जैसे वह उन दोनों को जानती ही नहीं. उस को इस बात की भी चिंता नहीं थी कि दुनियादारी के लिए ही कुछ दिखावा कर दे. उस का व्यवहार इस बात की गवाही दे रहा था कि अगर मनोहर को कोई अपने साथ ले जाता है तो उसे कोई परवा नहीं है. अभी तक मनोहर को आशा थी कि शायद पल्लवी उसे कहीं भी जाने नहीं देगी और उसे रोक लेगी, पर उस की बेरुखी देख कर मनोहर भैया उठ खड़े हुए, ‘‘चल छोटे, मैं तेरे साथ ही चलता हूं, लेकिन उस से पहले तुझे मेरा एक काम करना पड़ेगा.’’

‘‘वह क्या, भैया?’’ रमन ने पूछा.

‘‘तुझे एक वकील लाना पड़ेगा क्योंकि मैं यह बंगला तेरे नाम करना चाहता हूं जो धोखे से मैं ने अपने नाम करवा लिया था,’’ मनोहर ने कहा.

‘‘लेकिन मुझे यह घर नहीं चाहिए भैया, मेरे पास सब कुछ है,’’ रमन ने कहा.

‘‘मैं जानता हूं छोटे, तेरे पास सब कुछ है लेकिन जिंदगी ने मुझे यह सबक सिखाया है कि किसी से भी धोखे से ली हुई कोई भी वस्तु सदैव दुख ही देती है. मैं इतने सालों तक चैन से नहीं सो पाया और अब चैन से सोना चाहता हूं इसलिए मुझे मना मत कर और अपना हक वापस ले ले.’’

यह सब सुन कर पल्लवी के तो होश उड़ गए. उसे लगता था कि उस के ससुर का तो कोई अपना है ही नहीं, जो उन्हें अपने साथ ले जाएगा, और इतना बड़ा बंगला सिर्फ उस के हिस्से ही आएगा. लेकिन ससुर की बात सुन कर उसे लगा कि इतना बड़ा घर उस के हाथ से निकल गया है. उस ने फटाफट बहू होने का फर्ज निभाया. उस ने मनोहर को रोकने की कोशिश की, पर मनोहर ने कहा, ‘‘नहीं बहू, अब नहीं, अब मैं नहीं रुक सकता. तुम ने और मेरे बेटे ने मुझे बिलकुल ही पराया कर दिया है. इस बूढ़े और लाचार इंसान को अब अपने मतलब के लिए इस घर में रखना चाहते हो. नहीं, इस घर में तड़पतड़प कर मरने से अच्छा है मैं अपने भाई के साथ कुछ दिन जी लूं, लेकिन फिर भी मैं कहता हूं कि इस में तुम्हारी गलती कम है क्योंकि मैं ने ही बबूल का पेड़ बोया है तो आम की उम्मीद कहां से करूं.’’

कुछ देर बाद नीलम और रमन मनोहर को ले कर अपने घर जा रहे थे और पल्लवी पछता रही थी कि उस ने अपने ससुर को नहीं रोका जिन के जाने से इतना बड़ा घर हाथ से निकल गया.

टेढ़ा है पर मेरा है : नेहा की अग्निपरीक्षा

नेहा को सारी रात नींद नहीं आई. उस ने बराबर में गहरी नींद में सोए अनिल को न जाने कितनी बार निहारा. वह 2-3 चक्कर बच्चों के कमरे के भी काट आई थी. पूरी रात बेचैनी में काट दी कि कल से पता नहीं मन पर क्या बीतेगी. सुबह की फ्लाइट से नेहा की जेठानी मीना की छोटी बहन अंजलि आने वाली थी. नेहा के विवाह को 7 साल हो गए हैं. अभी तक उस ने अंजलि को नहीं देखा था. बस उस के बारे में सुना था.

नेहा के विवाह के 15 दिन बाद ही मीना ने ही हंसीहंसी में एक दिन नेहा को बताया था, ‘‘अनिल तो दीवाना था अंजलि का. अगर अंजलि अपने कैरियर को इतनी गंभीरता से न लेती, तो आज तुम्हारी जगह अंजलि ही मेरी देवरानी होती. उसे दिल्ली में एक अच्छी जौब का औफर मिला तो वह प्यारमुहब्बत छोड़ कर दिल्ली चली गई. उस ने यहीं हमारे पास लखनऊ में रह कर ही तो एमबीए किया था. अंजलि शादी के बंधन में जल्दी नहीं बंधना चाहती थी. तब मांजी और बाबूजी ने तुम्हें पसंद किया… अनिल तो मान ही नहीं रहा था.’’

‘‘फिर ये विवाह के लिए कैसे तैयार हुए?’’ नेहा ने पूछा था.

‘‘जब अंजलि ने विवाह करने से मना कर दिया… मांजी के समझाने पर बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ था.’’

नेहा चुपचाप अनिल की असफल प्रेमकहानी सुनती रही थी. रात को ही अंजलि का फोन आया था. उस का लखनऊ तबादला हो गया था. वह सीधे यहीं आ रही थी. नेहा जानती थी कि अंजलि ने अभी तक विवाह नहीं किया है.

मीना ने तो रात से ही चहकना शुरू कर दिया था, ‘‘अंजलि अब यहीं रहेगी, तो कितना मजा आएगा नेहा, तुम तो पहली बार मिलोगी उस से… देखना, कितनी स्मार्ट है मेरी बहन.’’

नेहा औपचारिकतावश मुसकराती रही. अनिल पर नजरें जमाए थी. लेकिन अंदाजा नहीं लगा पाई कि अनिल खुश है या नहीं. नेहा व अनिल और उन के

2 बच्चे यश और समृद्धि, जेठजेठानी व उन के बेटे सार्थक और वीर, सास सुभद्रादेवी और ससुर केशवचंद सब लखनऊ में एक ही घर में रहते थे और सब

की आपस में अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी. सब खुश थे, लेकिन अंजलि के आने की खबर से नेहा कुछ बेचैन थी.

अंजलि सुबह अपने काम में लग गई. मीना बेहद खुश थी. बोली, ‘‘नेहा, आज अंजलि की पसंद का नाश्ता और खाना बना लेते हैं.’’

नेहा ने हां में सिर हिलाया. फिर दोनों किचन में व्यस्त हो गईं. टैक्सी गेट पर रुकी, तो मीना ने पति सुनील से कहा, ‘‘शायद अंजलि आ गई, आप थोड़ी देर बाद औफिस जाना.’’

‘‘मुझे आज कोई जल्दी नहीं है… भई, इकलौती साली साहिबा जो आ रही हैं,’’ सुनील हंसा.

अंजलि ने घर में प्रवेश कर सब का अभिवादन किया. मीना उस के गले लग गई. फिर नेहा से परिचय करवाया. अंजलि ने जिस तरह से उसे ऊपर से नीचे तक देखा वह नेहा को पसंद नहीं आया. फिर भी वह उस से खुशीखुशी मिली.

जब अंजलि सब से बातें कर रही थी, तो नेहा ने उस का जायजा लिया… सुंदर, स्मार्ट, पोनीटेल बनाए हुए, छोटा सा टौप और जींस पहने छरहरी अंजलि काफी आकर्षक थी.

जब अनिल फ्रैश हो कर आया, तो अंजलि ने फौरन अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘हाय, कैसे हो?’’

अनिल ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसी हो?’’

‘‘कैसी लग रही हूं?’’

‘‘बिलकुल वैसी जैसे पहले थी.’’

नेहा के दिल को कुछ हुआ, लेकिन प्रत्यक्षतया सामान्य बनी रही. सुभद्रादेवी और केशवचंद उस से दिल्ली के हालचाल पूछते रहे. मीना व अंजलि के मातापिता मेरठ में रहते हैं. नेहा के मातापिता नहीं हैं. एक भाई है जो विदेश में रहता है.

नाश्ता हंसीमजाक के माहौल में हुआ. सब अंजलि की बातों का मजा ले रहे थे. बच्चे भी उस से चिपके हुए थे. यश और समृद्धि थोड़ी देर तो संकोच में रहे, फिर उस से हिलमिल गए. नेहा की बेचैनी बढ़ रही थी. तभी अंजलि ने कहा, ‘‘दीदी, अब मेरे लिए एक फ्लैट ढूंढ़ दो.’’

मीना ने कहा, ‘‘चुप कर, अब हमारे साथ ही रहेगी तू.’’

सुनील ने भी कहा, ‘‘अकेले कहीं रहने की क्या जरूरत है? यहीं रहो.’’

सुनील और अनिल अपनेअपने औफिस चले गए. केशवचंद पेपर पढ़ने लगे. सुभद्रादेवी तीनों से बातें करते हुए आराम से बाकी काम में मीना और नेहा का हाथ बंटाने लगीं.

नेहा को थोड़ा चुप देख कर अंजलि हंसते हुए बोली, ‘‘नेहा, क्या तुम हमेशा इतनी सीरियस रहती हो?’’

मीना ने कहा, ‘‘अरे नहीं, वह तुम से पहली बार मिली है… घुलनेमिलने में थोड़ा समय तो लगता ही है न…’’

अंजलि ने कहा, ‘‘फिर तो ठीक है वरना मैं ने तो सोचा अगर ऐसे ही सीरियस रहती होगी तो बेचारा अनिल तो बोर हो जाता होगा. वह तो बहुत हंसमुख है… दीदी, अनिल अब भी वैसा ही है शरारती, मस्तमौला या फिर कुछ बदल गया है? आज तो ज्यादा बात नहीं हो पाई.’’

मीना हंसी, ‘‘शाम को देख लेना.’’

नेहा मन ही मन बुझती जा रही थी. लंच के बाद अपने कमरे में थोड़ा आराम करने लेटी तो विवाह के शुरुआती दिन याद आ गए. अनिल काफी सीरियस रहता था, कभी हंसताबोलता नहीं था. चुपचाप अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर देता था. नवविवाहितों वाली कोई बात नेहा ने महसूस नहीं की थी. फिर जब मीना ने अनिल और अंजलि के बार में उसे बताया तो उस ने अपने दिल को मजबूत कर सब को प्यार और सम्मान दे कर सब के दिल में अपना स्थान बना लिया. अब कुल मिला कर उस की गृहस्थी सामान्य चल रही थी, तो अब अंजलि आ गई.

नेहा यश और समृद्धि को होमवर्क करवा रही थी कि अंजलि उस के रूम में आ गई.

नेहा ने जबरदस्ती मुसकराते हुए उसे बैठने के लिए कहा, तो वह सीधे बैड पर लेट गई. बोली, ‘‘नेहा, अनिल कब तक आएगा?’’

‘‘7 बजे तक,’’ नेहा ने संयत स्वर में कहा.

‘‘उफ, अभी तो 1 घंटा बाकी है… बहुत बोर हो रही हूं.’’

‘‘चाय पीओगी?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘नहीं, अनिल को आने दो, उस के साथ ही पीऊंगी.’’

नेहा को अंजलि का अनिल के बारे में बात करने का ढंग अच्छा नहीं लग रहा था. लेकिन करती भी क्या. कुछ कह नहीं सकती थी.

अनिल आया, तो अंजलि चहक उठी फिर ड्राइंगरूम में सोफे पर अनिल के बराबर मे बैठ कर ही चाय पी. घर के बाकी सभी सदस्य वहीं बैठे हुए थे. अंजलि ने पता नहीं कितनी पुरानी बातें छेड़ दी थीं.

नेहा का उतरा चेहरा देख कर अनिल ने पूछा, ‘‘नेहा, तबीयत तो ठीक है न? बड़ी सुस्त लग रही हो?’’

‘‘नहीं, ठीक हूं.’’

यह सुन कर अंजलि ने ठहाका लगाया. बोली, ‘‘वाह अनिल, तुम तो बहुत केयरिंग पति बन चुके हो… इतनी चिंता पत्नी की? वह दिन भूल गए जब मुझे जाता देख कर आंहें भर रहे थे?’’

यह सुन कर सभी घर वाले एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

तब मीना ने बात संभाली, ‘‘क्या कह रही हो अंजलि… कभी तो कुछ सोचसमझ कर बोला कर.’’

‘‘अरे दीदी, सच ही तो बोल रही हूं.’’

नेहा ने बड़ी मुश्किल से स्वयं को संभाला. दिल पर पत्थर रख कर मुसकराते हुए चायनाश्ते के बरतन समेटने लगी.

सब थोड़ी देर और बातें कर के अपनेअपने काम में लग गए. डिनर के समय भी अंजलि अनिलअनिल करती रही और वह उस की हर बात का हंसतेमुसकराते जवाब देता रहा.

अगले दिन अंजलि ने भी औफिस जौइन कर लिया. सब के औफिस जाने के बाद नेहा ने चैन की सांस ली कि अब कम से कम शाम तक तो वह मानसिक रूप से शांत रहेगी.

ऐसे ही समय बीतने लगा. सुबह सब औफिस निकल जाते. शाम को घर लौटने पर रात के सोने तक अंजलि अनिल के इर्दगिर्द ही मंडराती रहती. नेहा दिनबदिन तनाव का शिकार होती जा रही थी. अपनी मनोदशा किसी से शेयर भी नहीं कर पा रही थी. कुछ कह कर स्वयं को शक्की साबित नहीं करना चाहती थी. वह जानती थी कि उस ने अनिल के दिल में बड़ी मेहनत से अपनी जगह बनाई थी. लेकिन अब अंजलि की उच्छृंखलता बढ़ती ही जा रही थी. वह कभी अनिल के कंधे पर हाथ रखती, तो कभी उस का हाथ पकड़ कर कहीं चलने की जिद करती. लेकिन अनिल ने हमेशा टाला, यह भी नेहा ने नोट किया था. मगर अंजलि की हरकतों से उसे अपना सुखचैन खत्म होता नजर आ रहा था. क्या उस की घरगृहस्थी टूट जाएगी? क्या करेगी वह? घर में सब अंजलि की हरकतों को अभी बचपना है, कह कर टाल जाते.

नेहा अजीब सी घुटन का शिकार रहने लगी.

एक रात अनिल ने उस से पूछा, ‘‘नेहा, क्या बात है, आजकल परेशान दिख रही हो?’’

नेहा कुछ नहीं बोली. अनिल ने फिर कुछ नहीं पूछा तो नेहा की आंखें भर आईं, क्या अनिल को मेरी परेशानी की वजह का अंदाजा नहीं होगा? इतने संगदिल क्यों हैं अनिल? बच्चे तो नहीं हैं, जो मेरी मनोदशा समझ न आ रही हो… जानबूझ कर अनजान बन रहे हैं. नेहा रात भर मन ही मन घुटती रही. बगल में अनिल गहरी नींद सो रहा था.

एक संडे सब साथ लंच कर के थोड़ी देर बातें कर के अपनेअपने रूम में आराम

करने जाने लगे तो किचन से निकलते हुए नेहा के कदम ठिठक गए. अंजलि बहुत धीरे से अनिल से कह रही थी, ‘‘शाम को 7 बजे छत पर मिलना.’’

अनिल की कोई आवाज नहीं आई. थोड़ी देर बाद नेहा अपने रूम में आ गई. अनिल आराम करने लेट गया. फिर नेहा से बोला, ‘‘आओ, थोड़ी देर तुम भी लेट जाओ.’’

नेहा मन ही मन आगबबूला हो रही थी. अत: जानबूझ कर कहा, ‘‘बच्चों के लिए कुछ सामान लेना है… शाम को मार्केट चलेंगे?’’

‘‘आज नहीं, कल,’’ अनिल ने कहा.

नेहा ने चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘आज क्यों नहीं?’’

‘‘मेरा मार्केट जाने का मूड नहीं है… कुछ जरूरी काम है.’’

‘‘क्या जरूरी काम है?’’

‘‘अरे, तुम तो जिद करने लगती हो, अब मुझे आराम करने दो, तुम भी आराम करो.’’

नेहा को आग लग गई. सोचा, बता दे उसे पता है कि क्या जरूरी काम है… मगर चुप रही. आराम क्या करना था… बस थोड़ी देर करवटें बदल कर उठ गई और वहीं रूम में चेयर पर बैठ कर पता नहीं क्याक्या सोचती रही. 7 बजे की सोचसोच कर उसे चैन नहीं आ रहा था… क्या करे, क्या मांबाबूजी से बात करे, नहीं उन्हें क्यों परेशान करे, क्या कहेगी अंजलि अनिल से, अनिल क्या कहेंगे… उस से बातें करते हुए खुश तो बहुत दिखाई देते हैं.

7 बजे के आसपास नेहा जानबूझ कर बच्चों को पढ़ाने बैठ गई. मांबाबूजी पार्क में टहलने गए हुए थे. मीना और सुनील अपने रूम में थे. उन के बच्चे खेलने गए थे. तनाव की वजह से नेहा ने यश और समृद्धि को खेलने जाने से रोक लिया था. बच्चों में मन बहलाने का असफल प्रयास करते हुए उस ने देखा कि अनिल गुनगुनाते हुए बालों में कंघी कर रहा है. उस ने पूछा, ‘‘कहीं जा रहे हैं?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बाल ठीक कर रहे हैं.’’

अनिल ने उसे चिढ़ाने वाले अंदाज में कहा, ‘‘क्यों, कहीं जाना हो तभी बाल ठीक करते हैं?’’

‘‘आप हर बात का जवाब टेढ़ा क्यों देते हैं?’’

‘‘मैं हूं ही टेढ़ा… खुश? अब जाऊं?’’

नेहा की आंखें भर आईं, कुछ बोली नहीं. यश की नोटबुक देखने लगी. अनिल सीटी बजाता हुआ रूम से निकल गया. 5 मिनट बाद नेहा बच्चों से बोली, ‘‘अभी आई, तुम लोग यहीं रहना,’’ और कमरे से निकल गई. अनिल छत पर जा चुका था. उस ने भी सीढि़यां चढ़ कर छत के गेट से अपना कान लगा दिया. बिना आहट किए सांस रोके खड़ी रही.

तभी अंजलि की आवाज आई, ‘‘बड़ी देर लगा दी?’’

‘‘बोलो अंजलि, क्या बात करनी है?’’

‘‘इतनी भी क्या जल्दी है?’’

नेहा को उन की बातचीत का 1-1 शब्द साफ सुनाई दे रहा था.

अनिल की गंभीर आवाज आई, ‘‘बात शुरू करो, अंजलि.’’

‘‘अनिल, यहां आने पर सब से ज्यादा खुश मैं इस बात पर थी कि तुम से मिल सकूंगी, लेकिन तुम्हें देख कर तो लगता है कि तुम मुझे भूल गए… मुझे तो उम्मीद थी मेरा कैरियर बनने तक तुम मेरा इंतजार करोगे, लेकिन तुम तो शादी कर के बीवीबच्चों के झंझट में पड़ गए. देखो, मैं ने अब तक शादी नहीं की, तुम्हारे अलावा कोई नहीं जंचा मुझे… क्या किसी तरह ऐसा नहीं हो सकता कि हम फिर साथ हो जाएं?’’

‘‘अंजलि, तुम आज भी पहले जैसी ही स्वार्थी हो. मैं मानता हूं नेहा से शादी मेरे लिए एक समझौता था, अपनी सारी भावनाएं तो तुम्हें सौंप चुका था… लगता था नेहा को कभी वह प्यार नहीं दे पाऊंगा, जो उस का हक है, लेकिन धीरेधीरे यह विश्वास भ्रम साबित हुआ. उस के प्यार और समर्पण ने मेरा मन जीत लिया. हमारे घर का कोनाकोना उस ने सुखशांति और आनंद से भर दिया. अब नेहा के बिना जीने की सोच भी नहीं सकता. जैसेजैसे वह मेरे पास आती गई, मेरी शिकायतें, गुस्सा, दर्द जो तुम्हारे लिए मेरे दिल में था, सब कुछ खत्म हो गया. अब मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. मैं नेहा के साथ बहुत खुश हूं.’’

गेट से कान लगाए नेहा को अनिल की आवाज में सुख और संतोष साफसाफ महसूस हुआ.

अनिल आगे कह रहा था, ‘‘तुम भाभी की बहन की हैसियत से तो यहां आराम से रह सकती हो लेकिन मुझ से किसी भी रिश्ते की गलतफहमी दिमाग में रख कर यहां मत रहना… मेरे खयाल में तुम्हारा यहां न रहना ही ठीक होगा… नेहा का मन तुम्हारी किसी हरकत पर आहत हो, यह मैं बरदाश्त नहीं करूंगा. अगर यहां रहना है तो अपनी सीमा में रहना…’’

इस के आगे नेहा को कुछ सुनने की जरूरत महसूस नहीं हुई. उसे अपना मन पंख जैसा हलका लगा. आंखों में नमी सी महसूस हुई. फिर वह तेजी से सीढि़यां उतरते हुए मन ही मन यह सोच कर मुसकराने लगी कि टेढ़ा है पर मेरा है.

 

पीठ पीछे : दिनेश के सामने कैसा सच सामने आया

दिनेश हर सुबह पैदल टहलने जाता था. कालोनी में इस समय एक पुलिस अफसर नएनए तबादले पर आए हुए थे. वे भी सुबह टहलते थे. एक ही कालोनी का होने के नाते वे एकदूसरे के चेहरे पहचानने लगे थे. आज कालोनी के पार्क में उन से भेंट हो गई. उन्होंने अपना परिचय दिया और दिनेश ने अपना. उन का नाम हरपाल सिंह था. वे पुलिस में डीएसपी थे और दिनेश कालेज में प्रोफैसर.

वे दोनों इधरउधर की बात करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि तभी सामने से आते एक शख्स को देख कर हरपाल सिंह रुक गए. दिनेश को भी रुकना पड़ा. हरपाल सिंह ने उस आदमी के पैर छुए. उस आदमी ने उन्हें गले से लगा लिया.

हरपाल सिंह ने दिनेश से कहा, ‘‘मैं आप का परिचय करवाता हूं. ये हैं रामप्रसाद मिश्रा. बहुत ही नेक, ईमानदार और सज्जन इनसान हैं. ऐसे आदमी आज के जमाने में मिलना मुश्किल हैं.

‘‘ये मेरे गुरु हैं. ये मेरे साथ काम कर चुके हैं. इन्होंने अपनी जिंदगी ईमानदारी से जी है. रिश्वत का एक पैसा भी नहीं लिया. चाहते तो लाखोंकरोड़ों रुपए कमा सकते थे.’’ अपनी तारीफ सुन कर रामप्रसाद मिश्रा ने हाथ जोड़ लिए. वे गर्व से चौड़े नहीं हो रहे थे, बल्कि लज्जा से सिकुड़ रहे थे.

दिनेश ने देखा कि उन के पैरों में साधारण सी चप्पल और पैंटशर्ट भी सस्ते किस्म की थीं. हरपाल सिंह काफी देर तक उन की तारीफ करते रहे और दिनेश सुनता रहा. उसे खुशी हुई कि आज के जमाने में भी ऐसे लोग हैं.

कुछ समय बाद रामप्रसाद मिश्रा ने कहा, ‘‘अच्छा, अब मैं चलता हूं.’’ उन के जाने के बाद दिनेश ने पूछा, ‘‘क्या काम करते हैं ये सज्जन?’’

‘‘एक समय इंस्पैक्टर थे. उस समय मैं सबइंस्पैक्टर था. इन के मातहत काम किया था मैं ने. लेकिन ऐसा बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. चाहता तो आज बहुत बड़ा पुलिस अफसर होता लेकिन अपनी ईमानदारी के चलते इस ने एक पैसा न खाया और न किसी को खाने दिया.’’ ‘‘लेकिन अभी तो आप उन के सामने उन की तारीफ कर रहे थे. आप ने उन के पैर भी छुए थे,’’ दिनेश ने हैरान हो कर कहा.

‘‘मेरे सीनियर थे. मुझे काम सिखाया था, सो गुरु हुए. इस वजह से पैर छूना तो बनता है. फिर सच बात सामने तो नहीं कही जा सकती. पीठ पीछे ही कहना पड़ता है. ‘‘मुझे क्या पता था कि इसी शहर में रहते हैं. अचानक मिल गए तो बात करनी पड़ी,’’ हरपाल सिंह ने बताया.

‘‘क्या अब ये पुलिस में नहीं हैं?’’ दिनेश ने पूछा. ‘‘ऐसे लोगों को महकमा कहां बरदाश्त कर पाता है. मैं ने बताया न कि न किसी को घूस खाने देते थे, न खुद खाते थे. पुलिस में आरक्षकों की भरती निकली थी. इन्होंने एक रुपया नहीं लिया और किसी को लेने भी नहीं दिया. ऊपर के सारे अफसर नाराज हो गए.

‘‘इस के बाद एक वाकिआ हुआ. इन्होंने एक मंत्रीजी की गाड़ी रोक कर तलाशी ली. मंत्रीजी ने पुलिस के सारे बड़े अफसरों को फोन कर दिया. सब के फोन आए कि मंत्रीजी की गाड़ी है, बिना तलाशी लिए जाने दिया जाए, पर इन पर तो फर्ज निभाने का भूत सवार था. ये नहीं माने. तलाशी ले ली. ‘‘गाड़ी में से कोकीन निकली, जो मंत्रीजी खुद इस्तेमाल करते थे. ये मंत्रीजी को थाने ले गए, केस बना दिया. मंत्रीजी की तो जमानत हो गई, लेकिन उस के बाद मंत्रीजी और पूरा पुलिस महकमा इन से चिढ़ गया.

‘‘मंत्री से टकराना कोई मामूली बात नहीं थी. महकमे के सारे अफसर भी बदला लेने की फिराक में थे कि इस आदमी को कैसे सबक सिखाया जाए? कैसे इस से छुटकारा पाया जाए? ‘‘कुछ समय बाद हवालात में एक आदमी की पूछताछ के दौरान मौत हो गई. सारा आरोप रामप्रसाद मिश्रा यानी इन पर लगा दिया गया. महकमे ने इन्हें सस्पैंड कर दिया.

‘‘केस तो खैर ये जीत गए. फिर अपनी शानदार नौकरी पर आ सकते थे, लेकिन इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी ये आदमी नहीं सुधरा. दूसरे दिन अपने बड़े अफसर से मिल कर कहा कि मैं आप की भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सकता. न ही मैं यह चाहता हूं कि मुझे फंसाने के लिए महकमे को किसी की हत्या का पाप ढोना पड़े. सो मैं अपना इस्तीफा आप को सौंपता हूं.’’ हरपाल सिंह की बात सुन कर रामप्रसाद के प्रति दिनेश के मन में इज्जत बढ़ गई. उस ने पूछा, ‘‘आजकल क्या कर रहे हैं रामप्रसादजी?’’

हरपाल सिंह ने हंसते हुए कहा, ‘‘4 हजार रुपए महीने में एक प्राइवेट स्कूल में समाजशास्त्र के टीचर हैं. इतना नालायक, बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. इस की इन बेवकूफाना हरकतों से एक बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में छोड़ कर आना पड़ा. अब बेचारा आईटीआई में फिटर का कोर्स कर रहा है.

‘‘दहेज न दे पाने के चलते बेटी की शादी टूट गई. बीवी आएदिन झगड़ती रहती है. इन की ईमानदारी पर अकसर लानत बरसाती है. इस आदमी की वजह से पहले महकमा परेशान रहा और अब परिवार.’’ ‘‘आप ने इन्हें समझाया नहीं. और हवालात में जिस आदमी की हत्या कर इन्हें फंसाया गया था, आप ने कोशिश नहीं की जानने की कि वह आदमी कौन था?’’

हरपाल सिंह ने कहा, ‘‘जिस आदमी की हत्या हुई थी, उस में मंत्रीजी समेत पूरा महकमा शामिल था. मैं भी था. रही बात समझाने की तो ऐसे आदमी में समझ होती कहां है दुनियादारी की? इन्हें तो बस अपने फर्ज और अपनी ईमानदारी का घमंड होता है.’’ ‘‘आप क्या सोचते हैं इन के बारे में?’’

‘‘लानत बरसाता हूं. अक्ल का अंधा, बेवकूफ, नालायक, जिद्दी आदमी.’’ ‘‘आप ने उन के सामने क्यों नहीं कहा यह सब? अब तो कह सकते थे जबकि इस समय वे एक प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं और आप डीएसपी.’’

‘‘बुराई करो या सच कहो, एक ही बात है. और दोनों बातें पीठ पीछे ही कही जाती हैं. सब के सामने कहने वाला जाहिल कहलाता है, जो मैं नहीं हूं. ‘‘जैसे मुझे आप की बुराई करनी होगी तो आप के सामने कहूंगा तो आप नाराज हो सकते हैं. झगड़ा भी कर सकते हैं. मैं ऐसी बेवकूफी क्यों करूंगा? मैं रामप्रसाद की तरह पागल तो हूं नहीं.’’

दिनेश ने उसी दिन तय किया कि आज के बाद वह हरपाल सिंह जैसे आदमी से दूरी बना कर रखेगा. हां, कभी हरपाल सिंह दिख जाता तो वह अपना रास्ता इस तरह बदल लेता जैसे उसे देखा ही न हो.

दर्द कवि फुंदीलालजी का: फिर न मिल सका अवार्ड

सुबह के 7 बजे होंगे जब हम अपनी सैर खत्म कर के घर को लौट रहे थे. तभी लुंगीबनियान में दूध की थैलियां घर ले जाते कवि श्री फुंदीलालजी से मुलाकात हो गई. वैसे तो उन के चेहरे पर नूर कभीकभार ही झलकता था यानी कि तब, जब किसी पत्रपत्रिका में उन की कोई रचना छपती थी, लेकिन आज उन का चेहरा कुछ ज्यादा ही बेनूर दिख रहा था.

हमें याद आया कि पिछले साल भी राज्य सरकार द्वारा घोषित साहित्य पुरस्कारों की लिस्ट में उन का नाम नदारद था, तब भी उन के चेहरे पर कई दिनों तक मुर्दनी छाई हुई थी.

वैसे, पिछले साल ही क्या, साल दर साल उन का नाम पुरस्कारों की लिस्ट से नदारद ही रहता है, हालांकि अपने साले की प्रिंटिंग प्रैस से उन के आधा दर्जन कविता संग्रह आ चुके हैं.

नमस्ते करने के साथ हम ने पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न? चेहरा एकदम उदास लग रहा है.’’
‘‘ठीक है, लेकिन पता नहीं क्यों एसिडिटी बहुत हो रही है. पेट में जलन है कल से. थोक में दवा खा चुके हैं, लेकिन ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही है,’’ वे बोले.

फिर अचानक उन्होंने हम से पूछा, ‘‘पता चला आप को कि अपनी गली के कवि फलांजी को ‘साहित्यश्री पुरस्कार’ मिला है?’’

‘‘हां, अच्छा लिखते हैं वे, फिर पिछले साल उन का उपन्यास काफी चर्चा में भी रहा था,’’ हम ने कहना चाहा.

‘‘अरे, काहे का अच्छा लिखता है…’’ इस बार उन्होंने उस साहित्यकार के नाम के साथ कई असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा, ‘‘जानते भी हैं कि कुछ संपादकों से उस की दोस्तीयारी है और कुछेक से रिश्तेदारी है. सो, उस ने अपने उपन्यास की तारीफें छपवा ली हैं.

‘‘सुना तो यह भी है कि पुरस्कार समिति में उस के साले का भी दखल है, सो पुरस्कार तो उसे मिलना ही था.’’

‘‘लेकिन पिछले साल का पड़ोसी प्रदेश का पुरस्कार भी तो…’’ हम ने उन्हें समझाना चाहा.
‘‘वही तो, जुगाड़ लगाना कोई उस से सीखे,’’ फुंदीलालजी कुढ़ते हुए बोले.

‘‘आज बंगलादेश से क्रिकेट मैच है अपना,’’ हम ने मुद्दा बदलने की गरज से कहा, मगर उन का ‘जिया जले… जान जले… पुरस्कारों की लिस्ट तले’ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था, सो वे बोले, ‘‘आज अपने प्रदेश के पुरस्कार भी घोषित हुए हैं और उस के कविता संग्रह को भी…’’ वे फिर कुछ असंसदीय शब्द हमारे कान में उड़ेलते हुए बोले.

‘‘होता है फुंदीलालजी, फिर अभी आप ने बताया तो कि पुरस्कार समिति में उन के साले का दखल है,’’ हम ने उन्हें फौरी राहत पहुंचाने की गरज से कहा, ताकि उन की एसिडिटी कुछ कम हो.

‘‘पुरस्कार समिति के शर्माजी और दुबेजी से तो हमारी भी अच्छी बनती है. अभी पिछले महीने ही हम किसी काम से उन की कालोनियों में गए थे, तब अपनी किताब दोनों को दे आए थे, मगर हमें क्या पता था कि किताब के साथ…’’ उन्होंने बात आधी छोड़ दी.

‘‘सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यों है…’ यह गजल शायद उन्हीं की तरह किसी पुरस्कार वंचित कवि के लिए लिखी गई होगी,’ हमारे दिमाग में अचानक यह खयाल आया.

हम समझ नहीं पा रहे थे कि पुरस्कार से वंचित किसी कवि को दिलासा कैसे दी जाए, सो हम ने पिछले दिनों उन के द्वारा सोशल मीडिया पर हमें भेजी किसी अनियतकालीन पत्रिका में छपी उन की रचना की बात छेड़ी और कहा, ‘‘बढि़या रचना थी आप की.’’

‘‘आप जैसे कदरदान हमारी रचनाओं की तारीफ करते हैं, हमारे लिए तो यही राज्य पुरस्कार और यही ज्ञानपीठ पुरस्कार है…’’ वे कुछकुछ राहत महसूस करते हुए बोले, ‘‘बहुत दिनों बाद मिले आप, वैसे किसी अपने से बात कर लो तो बहुत अच्छा लगता है.’’

‘‘जी, वह तो है,’’ हमें अच्छा लगा कि हमारे शाब्दिक मरहम से वे अपने दुख से उबर रहे थे.
‘‘लेकिन इतना अच्छा लिखने के बाद भी पुरस्कार दूसरे ले जाते हैं, तब तकलीफ तो होती ही है न,’’ वे फिर पुरस्कार न मिलने के दुख के सागर में गोता खाने लगे थे.

तभी हमारी कालोनी के गुप्ताजी और श्रीवास्तवजी वहां से गुजरे, जिन्हें फुंदीलालजी ने रोक लिया और कहा, ‘‘आप को पता चला कि अपनी गली के उस फलां को ‘साहित्यश्री पुरस्कार’ मिला है…’’

फुंदीलालजी को रोने के लिए नए कंधे मिल गए थे, सो हम ने मन ही मन गुप्ताजी और श्रीवास्तवजी से कहा कि ‘अब तुम्हारे हवाले पुरस्कार वंचित कवि साथियो’… और फिर हम वहां से खिसक लिए.

 

विकास और विनाश : कौन था एड्स का मरीज

विकास था विवेक और विचार का एक प्रकाश पुंज. जैसे उस के विचार, वैसे ही उस के संस्कार. जब संस्कार वैसे हों, तो उस के बरताव में झलकना लाजिमी है.

विकास की दिनचर्या नपीतुली थी. भगवत प्रेमी, शुद्ध शाकाहार. रोजाना सुबह के जरूरी काम पूरे करने के बाद मंदिर में पूजाअर्चना करना.

विकास का मनोयोग उस के मनोभोग से हमेशा ऊपर रहा, इसीलिए संतमहात्माओं के सत्संग और उन के प्रवचन सुन कर उस ने अपने संयुक्त परिवार में एकांत ध्यानयोग को चुन लिया. अपनी शांति के साथसाथ पूरी दुनिया की शांति की कामना करने वाला 7 साल का बालक आज 17 साल का हो गया.

विकास बालिग होने में एक साल दूर था, पर वह अपनी कर्तव्यनिष्ठा के लिए मशहूर था. बाहरी दुनिया से सरोकार के बगैर भीतरी दुनिया में रमा हुआ बालक रोजाना सुबह घर से मंदिर तक की दूरी पैदल ही तय करता. रास्ते में झाड़ियों से जंगल में हलकीफुलकी उठने वाली हलचल भी उस के ध्यान को नहीं भेद पाती.

वह विकास इसलिए था, क्योंकि उस ने अपनी इंद्रियों को वश में कर के ब्रहृचर्य के विकास में सबकुछ लगा दिया था. उस की निगाहें पाक हो गई थीं, विवेक जाग चुका था और मन शांत और स्वच्छ.

पर यह क्या. आज मंदिर जाने के रास्ते मे विकास की नजर चकरा क्यों गई? उस ने रुक कर  झाड़ियों की ओर देखा. एक जोड़ा इश्क में डूबा एकदूसरे का दीदार कर रहा था. उस ने यह घटना अपनी जिंदगी में पहली बार देखी थी.

विकास ने अपनी आंखों को सम झाया, ‘चलो, मुझे उधर नहीं देखना चाहिए. यह मेरी नजरों का वहम भी हो सकता है,’ ऐसा विचार कर के उस ने अपने कदम मंदिर की ओर बढ़ा दिए.

अगले दिन सुबह जब विकास घर से मंदिर की ओर चला, तो बरबस उसी जगह पर  झाड़ियों के बीच जोड़े को फुसफुसाते हुए देखा. इस बार वह अपनी नजर को न समझा पाया, क्योंकि उस पर उस की बुद्धि हावी हो चुकी थी. उस ने खुद से कहा, ‘जरा, चल कर देखते हैं.’

विकास  झाड़ी के थोड़ा पास गया, तो देखा कि एक लड़का एक लड़की के साथ जिस्मानी संबंध बना रहा था.

विकास ने दोबारा खुद को सम झाया, ‘यह क्या देख रहा हूं?’ उस का मन चुप था, पर बुद्धि बोल रही थी, ‘यही तो दुनिया है. कलियुग का प्यार है, जिस में मजा है,’ उस की बुद्धि ने विचार को कुरेदा. उस ने जैसेतैसे अपने पैरों को मंदिर की ओर बढ़ाया.

जब विकास घर लौटा, तो उस का मन चंचल हो उठा. उस की बुद्धि ने उस के विचार को आह में बदल दिया.  झाडि़यों के सीन उस की आंखों के आगे आने लगे. उस की सारी इंद्रियां ढीली पड़ने लगीं. ब्रह्मचर्य बस में न रहा.

विकास सोचने लगा, ‘क्या है इस दुनिया में? मौजमस्ती ही तो है. वह भी तो इनसान था और मैं भी तो इनसान हूं, तो यह बंधन कैसा?’

अगले दिन विकास पक्का मन कर के मंदिर की ओर चला. इस बार उस ने खुद को रोका ही नहीं और उस ओर मोड़ लिया, जहां पिछले दिन वह जोड़ा जिस्मानी संबंध बनाने में रमा था.

वह जोड़ा आज भी वहीं था. एकाएक अपने सामने विकास को देख कर दोनों अलगअलग दिशा की ओर भागे.

तभी विकास ने दौड़ कर उस लड़की का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘यह जो तुम उस लड़के के साथ मस्ती कर रही हो, क्या मेरे साथ करोगी?’’

लड़की ने हंस कर जवाब दिया, ‘‘क्यों नहीं…’’

इस के बाद वह लड़की विकास के साथ जिस्मानी संबंध बनाने लगी. विकास को इस में काफी मजा आने लगा. अब वह हर रोज घर से मंदिर की ओर निकलता, पर मंदिर न जा कर झाड़ियों में उस लड़की के साथ जिस्मानी संबंध बनाता.

लड़की पेशे से धंधेवाली थी. उसे रोज पैसे चाहिए थे और विकास को मजा.

विकास ने उस लड़की के चक्कर में घर का काफी सारा पैसा बरबाद कर दिया. संयुक्त परिवार के दूसरे सदस्यों को यह बात पसंद नहीं आई, तो उन्होंने गुस्से में विकास के मातापिता को परिवार से अलग कर दिया और मातापिता ने विकास को अपने से.

आज विकास का सबकुछ लुट चुका था. अब वह सड़क पर आ चुका था. वह लड़की तो कई लोगों से जिस्मानी संबंध बनाने के चलते एड्स की बीमारी से मर गई और विकास अब एड्स का मरीज बन कर तड़प रहा है. लोग अब उसे विकास के नाम से नहीं, बल्कि विनाश के नाम से पुकारते हैं.

बकरा: मालिक के चंगुल में मोहन

ठेले वाले ने चिल्ला कर कहा, ‘‘मोहन, माल आ गया है.’’ मोहन ने किराने की दुकान से झांक कर देखा. ठेले पर आटे, चावल और दाल की बोरियां रखी थीं.किराने की दुकान का मालिक दिलीप साव खाते का हिसाबकिताब करने में मशगूल था. उस ने खाते का हिसाब करते हुए कहा,

‘‘मोहन, माल उतार लो.’’दुकान पर 2-3 ग्राहक थे, जिन्हें निबटा कर मोहन बोरियां उतारने लगा. ठेले वाले ने भी बोरियां उतारने में उस की मदद कर दी.बड़ी सड़क के किनारे ही दिलीप साव की किराने की दुकान थी. मोहन उस की दुकान पर काम करता था. वह सीधासादा नौजवान था.

वह अपने काम से मतलब रखता था. दुकान से महीने की तनख्वाह मिल जाती थी. उस से वह गुजारा कर लेता था.दिलीप साव की किराने की दुकान अच्छी चलती थी, जिस से वह खुशहाल जिंदगी जी रहा था. एक साल पहले उस की शादी दीपा से हुई थी.दीपा बेहद खूबसूरत थी.

वह काफी गोरीचिट्टी थी. उस की आंखें हसीन थीं. उस की काली जुल्फें मदहोश कर देती थीं. उस के पतले होंठों पर मुसकान खिली रहती थी. वह एक ताजा कली के समान थी.दिलीप साव का एक छोटा भाई था सुजीत. वह कालेज में पढ़ता था.

दीपा का दिल उस से बहल जाता था. वह अपने देवर के साथ हंसीमजाक कर के मजे से दिन गुजार लेती थी.रात तो दीपा की अपनी थी ही. जब दुकान बढ़ा कर रात को दिलीप साव घर लौटता तब दीपा पति के साथ मौजमस्ती करती थी. वह भी दीपा जैसी पत्नी पा कर बेहद खुश था.

उस की तो मजे से जिंदगी कट रही थी.मोहन किराने की दुकान का काम खत्म कर के घर लौट रहा था. रास्ते में उस का एक दोस्त बिरजू मिल गया. बिरजू नाविक था.

वह सोन नदी में नाव चलाता था. सोन नदी इस इलाके से महज आधा किलोमीटर दूर बहती थी. बिरजू नाव से लोगों को सोन नदी पार कराने का काम करता था.मोहन ने पूछा, ‘‘कैसे हो बिरजू?’’‘‘ठीक हूं. तुम अपनी सुनाओ?’’ बिरजू ने कहा.‘‘कुछ खास नहीं, बस…’’ मोहन ने धीरे से कहा.‘‘कब तक सीधेसादे बने रहोगे. चलो, तुम्हें कोलकाता घूमा दूं,’’ बिरजू ने कहा.‘‘वहां क्यों?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘अरे यार, मैं तुम्हें कोलकाता के सोनागाछी इलाके में ले चलूंगा. उस इलाके में खूबसूरत लड़कियां इशारे कर के बुलाती हैं. उन के नजदीक चले जाओ, फिर मजा ही मजा लूटो.’’मोहन झेंप कर बोला, ‘‘कभी और देखा जाएगा यार.’’‘‘हां, तब तक भोलाभाला बने रहो. देखना एक दिन औरतें और लड़कियां तुझे बुद्धू बना देंगी,’’ बिरजू ने झल्ला कर कहा.मोहन हंसते हुए घर चला गया.

दिलीप साव किराने की दुकान से रात को लौटा था. वह अपने कमरे के पलंग पर लेटा हुआ था. दीपा भी उस के साथ लेटी हुई थी. बत्ती बुझी हुई थी. कमरे में अंधेरा था. अंधेरे कमरे में वे दोनों एकदूसरे को चूमने लगे थे. बदन की आग धीमेधीमे सुलगने लगी थी.

दीपा के उभार उस पर कहर बरपा रहे थे. दोनों ने एकदूसरे को अपनी बांहों में जकड़ लिया था.दिलीप साव ने तकिए के नीचे से कंडोम निकाला और अपने अंग पर पहन लिया.‘‘आप कब तक बच्चा नहीं चाहते हैं?’’ दीपा ने धीमे से पूछा. ‘‘अभी तो हमारी शादी को एक साल ही हुआ है.

मुझे 3 साल के बाद बच्चा चाहिए,’’ दिलीप साव धीमे से बोला.‘‘आप तो परिवार नियोजन के पक्के हिमायती हैं.’’‘‘हां, बिलकुल हूं,’’ दिलीप साव ने कहा.दीपा ने प्यार से हलकी चपत उस के गाल पर लगाई. हलकी चपत लगते ही वे दोनों सैक्स करने लगे. कुछ देर में पतिपत्नी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे. शरीर की भूख मिट जाने के बाद वे दोनों गहरी नींद में सो गए थे.

अगले दिन दिलीप साव के किराने की दुकान पर ग्राहकों की भीड़ थी. मोहन ने सारे ग्राहकों को जरूरत के मुताबिक सामान दे दिया था. दिलीप साव ने अभी गल्ले में रखे रुपयों की गिनती की थी.‘20,000 रुपए,’ दिलीप साव ने मन ही मन सोचा.‘‘ये लो 20,000 रुपए. मालकिन को जा कर दे दो,’’ दिलीप साव ने मोहन से कहा.मोहन रुपए का थैला ले कर मालकिन के पास जा पहुंचा और बोला, ‘‘ये 20,000 रुपए हैं. मालिक ने दिए हैं.’’‘‘ठीक है,’’ दीपा ने रुपए ले लिए और अपने कमरे में चली गई.

दीपा ने कमरे का परदा हटाया तो वहां से उस का देवर सुजीत अपने कमरे की तरफ भागा. मोहन को शक हुआ कि दीपा के कमरे में सुजीत क्या कर रहा है? उसे दाल में काला नजर आाया.अमूमन कालेज के लड़के अपने कमरे में पढ़ते हैं. भाभी के कमरे में जा कर वह कौन सी पढ़ाई पढ़ता है?

लेकिन मोहन चुप लगा गया. उसे दिलीप साव के किराने की दुकान पर नौकरी जो करनी थी. वह वहां से सीधा दुकान पर चला आया.जाड़े के दिन आ गए थे.

शाम को ठंड बढ़ जाती थी, जिस से दिलीप साव को दुकान पर ठंड लगती थी. उस ने घर के स्टोर में एक हीटर रखा हुआ था.‘‘मोहन, मालकिन से हीटर मांग कर लेते आओ. ठंड बढ़ गई है,’’ दिलीप साव ने कहा.‘‘अभी जा कर ले आता हूं,’’ कह कर मोहन हीटर लाने चला गया.

मोहन मालिक के घर पहुंचा. घर का दरवाजा दीपा ने अंदर से बंद कर रखा था. मोहन ने आवाज लगाई, ‘‘मालकिन, दरवाजा खोलिए. मालिक ने हीटर मंगाया है.’’लेकिन दीपा ने दरवाजा नहीं खोला. शायद उस ने सुना ही नहीं था. तब मोहन ने दरवाजे के सुराख से अंदर झांक कर देखा.दीपा के कमरे का दरवाजा खुला था. वह पलंग पर लेटी हुई थी.

सुजीत उसे बांहों में भर कर चूम रहा था. पलभर में दीपा ने अपने कपड़े उतार दिए. उस के उभार देख कर सुजीत उस पर झपट पड़ा और वे दोनों सैक्स करने लगे.मोहन यह देख कर हैरान रह गया. इस सीन में उसे भी मजा आने लगा था. कुछ देर तक दोनों देवरभाभी सैक्स का मजा लेते रहे, फिर संतुष्ट हो कर अलग हो गए.

दीपा ने झटपट कपड़े पहन लिए. अपने बिखरे बालों को ठीक किया. सुजीत अपने कमरे में जा कर किताबें उलटनेपुलटने लगा.

तब मोहन ने फिर से दरवाजा खटखटाया. इस बार दीपा ने दरवाजा खोल दिया.मोहन ने अभी जोकुछ देखा था, उस से वह अनजान ही बना रहा.

‘‘मालिक ने हीटर मांगा है,’’ मोहन ने कहा.‘‘अभी लाती हूं,’’ कह कर दीपा ने स्टोर से हीटर ला कर दे दिया. मोहन हीटर ले कर किराने की दुकान पर पहुंचा.

‘‘यह लीजिए हीटर,’’ कह कर मोहन ने दिलीप साव को हीटर दे दिया.मोहन किराने की दुकान पर ग्राहकों को सामान देने लगा. वह मन ही मन सोचता रहा कि दीपा और सुजीत की कारगुजारी दिलीप साव को नहीं बताएगा, नहीं तो वह उसे दुकान से निकाल देगा.जाड़े की कंपकंपाती ठंड पड़ रही थी.

आधी रात को दीपा दिलीप साव की बांहों में थी. दोनों में सैक्स की भूख जगी थी. सैक्स करने से पहले दिलीप साव ने तकिए के नीचे से कंडोम निकाल कर अपने अंग पर पहना.तब दीपा ने थोड़ा विरोध किया, ‘‘कब तक इसे पहनाते रहेंगे?’’‘‘अभी हम बच्चा नहीं चाहते हैं. प्यार ऐसे ही चलता रहेगा,

’’ दिलीप साव ने कहा.दीपा यह दिलीप साव जवाब सुन कर मुसकरा दी. वह कंडोम पहन कर ही सैक्स करने लगा. संतुष्ट होने के बाद थक कर दोनों सो गए.दिन बीत रहे थे. दीपा की सुजीत के साथ प्रेमलीला बददस्तूर जारी थी.

दीपा दिन में सुजीत के साथ और रात में दिलीप साव के साथ मजे ले रही थी.इस बीच एक दिन जब रात को दुकान बढ़ाने के बाद दिलीप साव घर लौटा, तब दीपा ने उसे खुशखबरी सुनाई, ‘‘मैं मां बनने वाली हूं.’’यह खुशखबरी सुनते ही दिलीप साव के पैरों के तले की जमीन खिसक गई.

‘‘मैं तो कंडोम इस्तेमाल करता था, फिर बच्चा कैसे ठहर गया?’’ दिलीप साव ने दीपा से पूछा.‘‘बच्चा आप का ही है. बेवजह शक मत कीजिए,’’ दीपा ने जोर दे कर कहा. दिलीप साव माथा पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.‘‘मैं ने सोचा कि आप को पता चलेगा तो आप खुश होंगे, लेकिन यहां आप ही मुझ पर इलजाम लगाने लगे,’’ दीपा सुबक कर रोने लगी.दिलीप साव चुप लगा गया.

अगले दिन वह दुकान पर उदास बैठा था. उस के दिल और दिमाग में दीपा की बात गूंज रही थी, ‘मैं मां बनने वाली हूं.’‘आखिर यह किस की करतूत हो सकती है? मेरा भाई सुजीत तो ऐसा नहीं है,’ दिलीप साव गहरी सोच में डूबा था.मोहन ग्राहक को सामान देने में मशगूल था.

दिलीप साव के शक की सूई मोहन पर आ कर ठहर गई.‘‘हां, यही तो रुपए पहुंचाने दीपा के पास जाता था. मुझ से ही गलती हो गई. मैं ही मोहन को घर भेजता था,’’ दिलीप साव बड़बड़ाया.दिलीप साव को अब मोहन पर बेहद गुस्सा आ रहा था. शक की वजह से मोहन उसे बुरा लगने लगा था.‘क्यों नहीं मोहन को दुकान से निकाल दूं?’

दिलीप साव मन ही मन सोच रहा था.तभी मोहन ने कहा, ‘‘मालिक, मुझे 2,000 रुपए एडवांस चाहिए थे. मोबाइल खरीदना है.’’‘‘मोबाइल का क्या करोगे?’’ दिलीप साव ने गुस्से को दबाते हुए पूछा.‘‘मेरा दोस्त बिरजू है न, उस से बात करूंगा. मालकिन को भी घर पर कोई काम रहेगा तो वे मुझे फोन कर देंगी,’’ मोहन निश्छल भाव से बोला.दिलीप साव का शक और भी पुख्ता होने लगा.

‘एक बार तो मोहन मुझे बेवकूफ बना चुका है, अब दीपा से बात कर के वह मजे लेता रहेगा,’ दिलीप साव कुछ सोच कर बोला, ‘‘2-3 दिन बाद रुपए दे दूंगा.’’‘‘अच्छा मालिक,’’ कह कर मोहन अपने काम में लग गया. 2-3 दिन में दिलीप साव एक खतरनाक साजिश का तानाबाना बुन चुका था.

उस समय किराना दुकान पर कोई ग्राहक नहीं था. मोहन इतमीनान से बैठा था. इधरउधर ताक कर दिलीप साव ने मोहन से कहा, ‘‘सोन नदी के उस पार के बाजार से 3-4 बोरियां बासमती चावल लाना है. वहां चावल सस्ता मिलता है. मुनाफा अच्छा मिलेगा.‘‘ये लो 7,000 रुपए हैं. 5,000 रुपए चावल के लिए और 2,000 तुम्हारे एडवांस के रुपए.’’मोहन ने 7,000 रुपए मालिक से ले लिए. वह एडवांस के रुपए पा कर खुश हो गया था. वह अब मोबाइल खरीद सकेगा.‘‘अच्छा, चलता हूं,’’

कह कर मोहन जाने लगा. मोहन जैसे ही जाने लगा तभी एक शख्स लुंगी और ढीलाढाला कुरता पहने किराने की दुकान पर आया.‘‘अरे, रुको मोहन,’’ दिलीप साव ने आवाज लगाई.मोहन रुक गया.‘‘यह माधव है. नाव चलाता है. नाव से तुम्हें सोन नदी पार करा देगा,’’ दिलीप साव ने उस शख्स का परिचय मोहन से कराया.मोहन ने नजर उठा कर ध्यान से माधव को देखा.

एक अनजान सा खुरदरा चेहरा, जिसे उस ने कभी इस इलाके में नहीं देखा था.‘‘अच्छा, हम लोग जाते हैं,’’ मोहन ने कहा. वे दोनों साथसाथ चल दिए. दिलीप साव के होंठों पर एक जहरीली मुसकान खेल गई.वे दोनों सोन नदी के किनारे पहुंचे. किनारे पर माधव की नाव लगी थी.

सोन नदी अपनी मस्त चाल में बह रही थी.‘‘बैठो,’’ माधव खूंटे से बंधी नाव की रस्सी खोलने लगा. मोहन नाव पर बैठ गया.माधव चप्पू के सहारे नाव आगे बढ़ाने लगा. नाव थोड़ी दूर आगे बढ़ी, तब केवल पानी ही पानी नजर आने लगा. पानी का बहाव भी तेज होने लगा.

माधव सधे नाविक की तरह नाव चला रहा था. मोहन सोन नदी के खूबसूरत नजारों में खोया नाव पर बैठा हुआ था.अब नाव सोन नदी के बीच में पहुंच गई थी. पानी के बहाव में और तेजी आ गई थी. माधव दबे पैर उठा और मोहन को जोर से धक्का दे दिया. मोहन सोन नदी की बहती धार में गिर गया. पानी में गिरते ही उस ने नाव को पकड़ना चाहा. लेकिन माधव ने चप्पू को तेज चला कर नाव को उस की पकड़ से दूर कर दिया.‘‘बचाओ… बचाओ…’’ डर के मारे मोहन चिल्लाने लगा.

माधव चप्पू को तेजी से चला कर नाव को भगाने लगा. मोहन से नाव दूर निकल गई.मोहन पानी में हाथपैर मार कर बचने की कोशिश करने लगा, लेकिन वह डूबने लगा था. तभी पानी के बहाव में उसे एक पेड़ की टहनी बहती हुई मिली. उस ने वह टहनी जोर से पकड़ ली और वह टहनी के साथ बहने लगा.

तभी कुछ दूर एक नाव उसे आती हुई दिखी.‘‘बचाओ… बचाओ…’’ मोहन जोर से चिल्लाने लगा. उस की आवाज सन्नाटे को चीरती हुई नाविक तक पहुंच गई. नाव चलाने वाला मोहन का दोस्त बिरजू था.किसी डूबते आदमी को बचाने के लिए उस ने नाव तेजी से चलाई.

वह जल्दी ही मोहन तक पहुंच गया.‘‘अरे, मोहन तुम…’’ बिरजू चिल्लाया. उस ने मोहन को पानी से नाव पर खींच लिया. मोहन बेहद डरा हुआ था.‘‘आखिर, तुम यहां कैसे आए?’’ बिरजू ने मोहन को झकझोरते हुए पूछा.‘‘मालिक ने नदी के उस पार के बाजार से मुझे बासमती चावल लाने भेजा था.

जिस नाव पर मैं सवार था, उसे माधव नाम का नाविक चला रहा था. बीच मझधार में उस ने मुझे धक्का दे कर नदी में गिरा दिया.‘‘मैं डूबने लगा था कि तभी पेड़ की एक टहनी को पकड़ कर कुछ दूर नदी के बहाव के साथ बहा, फिर अपनी ओर एक नाव को आते देखा.

‘‘अगर बिरजू तुम नहीं मिलते तो शायद…,’’ मोहन का गला रुंध गया. बिरजू चप्पू को तेज रफ्तार से चला कर नाव को किनारे तक ले आया.‘‘माधव को तुम पहचानते थे?’’ बिरजू ने पूछा. ‘‘नहीं, मेरा मालिक उसे जानता था,’’ मोहन ने कहा.‘‘अब समझा. माधव भाड़े का अपराधी था. मालिक के इशारे पर तुम्हें नदी में डुबो कर मारना चाहता था,’’ बिरजू ने कहा.‘‘लेकिन मालिक ने ऐसा क्यों किया?’’

मोहन ने मासूमियत से पूछा.‘‘शायद किसी बात के शक में उस ने यह खतरनाक कदम उठाया होगा,’’ बिरजू ने कहा.‘‘किस बात का शक? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है,’’ मोहन ने कहा.‘‘वह अपनी बीवी और तुम्हारे बीच नाजायज संबंध को ले कर शक कर रहा होगा,’’ बिरजू घटना की तह तक जाने लगा.‘‘मोहन, तुम दिलीप साव के घर जाते थे न? कोई नजदीकी आदमी ने उस की बीवी के साथ संबंध बनाया होगा.

उस की बीवी पेट से रह गई होगी और वह तुम पर शक कर बैठा,’’ बिरजू ने अंधेरे में तीर चलाया.‘‘अरे हां, मालिक का भाई सुजीत अपनी भाभी के साथ गलत संबंध बनाता था. मैं ने किवाड़ की सुराख से छिप कर देवरभाभी को मजे लेते अपनी आंखों से देखा था,’’

जैसे मोहन नींद से जागा हो.‘‘मोहन, तुझे दिलीप साव ने बलि का बकरा बना दिया,’’ बिरजू ने हंस कर कहा.‘‘अब हम क्या करें?’’ मोहन खौफ में था.‘‘मालिक को कुछ मत बताना, नहीं तो तबाही की सूनामी आ जाएगी.‘‘देखो, कोई बहाना बना देना. नाव से अचानक नदी में गिर गया था.

जान बच गई, बस,’’ बिरजू ने समझाया.‘‘और अपराधी माधव के बारे में?’’ मोहन ने आगे पूछा.‘‘कह देना कि माधव को पता नहीं चला कि मैं नदी में गिर गया था. वह नाव ले कर कहीं दूर निकल गया,’’ बिरजू बोला.‘‘अब मैं दिलीप साव के किराने की दुकान पर काम नहीं करूंगा,’’

मोहन ने अपना फैसला सुनाया.‘‘इस महीने तक काम कर लो, मगर मालिक से सावधान रहना. इस महीने की तनख्वाह ले कर काम छोड़ देना,’’ बिरजू ने कहा.‘‘उस के बाद मैं क्या करूंगा?’’ मोहन ने पूछा.‘‘मेरे चाचा का ढाबा कोलकाता में है. वहीं चले जाना.

ढाबे पर एक आदमी की जरूरत है,’’ बिरजू ने कहा.मोहन और बिरजू बातें करते हुए अपने घर चले गए.दूसरे दिन मोहन किराने की दुकान पर पहुंचा.

दिलीप साव उसे जिंदा देख कर घबरा गया. माधव ने तो उसे नदी में डुबा दिया था.दिलीप साव ने संभल कर पूछा, बासमती चावल का क्या हुआ?’’‘‘मैं नदी में गिर गया था. बस, जान बच गई. ये लीजिए, आप के 5,000 रुपए,’’ मोहन ने रुपए दे दिए.‘‘अरे बाप रे, बड़ी घटना घट जाती तो… चलो, जान तो बच गई,’’ दिलीप साव के बोल बड़े मीठे थे.

तब तक दुकान पर 1-2 ग्राहक आ गए थे. मोहन उन्हें सामान देने लगा.रात को दिलीप साव दुकान बढ़ा कर घर पहुंचा. वह पलंग पर दीपा के साथ लेटा हुआ था. वह सोना चाहता था, लेकिन उस की आंखों से नींद गायब थी. मोहन का जिंदा वापस लौट आना उस की चिंता का सबब था.दीपा ने बांहों में भर कर दिलीप साव को चूम लिया. ‘‘चलो हटो, मुझे सोने दो,’’ दिलीप साव ने बेरूखी से कहा.‘‘मुझ से नाराज लग रहे हैं,’’ दीपा ने उसे अपने ऊपर खींच लिया,

‘‘हां, अब तो अपना काम कर के सोओ,’’ उस ने प्यार से कहा.दिलीप साव ने इस बार तकिए के नीचे से कंडोम नहीं निकाला. अब इस की जरूरत ही कहां थी.

वह सैक्स करने लगा. दोनों संतुष्ट हो कर गहरी नींद में सो गए.महीना बीत चुका था. आज पहली तारीख थी. मोहन ने दिलीप साव से महीने की तनख्वाह मांगी.‘‘मालिक, आज एक तारीख है. महीने की तनख्वाह चाहिए थी,’’ मोहन ने मालिक से खुशामद की.

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ दिलीप साव ने गल्ले से रुपए निकाल कर मोहन को दे दिए. उस ने अपनी तनख्वाह संभाल कर रख ली.‘‘मालिक, आज रात मेरी कोलकाता जाने की ट्रेन है. टिकट हो गया है,’’ मोहन ने कहा.‘‘तुम कोलकाता क्यों जा रहे हो?’’ मालिक ने पूछा.‘‘मेरी कोलकाता में नौकरी लगी है. कमाने जा रहा हूं.’’ मोहन ने कहा.‘‘तब यहां दुकान में कौन काम करेगा?’’

मालिक घबरा कर बोला.‘‘यह सब मैं क्या जानूं. यह अब आप को समझना है.’’इतना कह कर मोहन किराने की दुकान से बाहर निकल गया. मालिक ठगा सा उसे जाते देखता रह गया.रात में मोहन को रेलवे स्टेशन पर छोड़ने बिरजू आया था. कोलकाता जाने वाली टे्रन स्टेशन पर लगी हुई थी. थोड़ी देर में टे्रन ने जोरदार सीटी बजाई.ट्रेन धीमी रफ्तार से स्टेशन पर आगे बढ़ने लगी.

बिरजू ने ट्रेन की खिड़की के पास बैठे मोहन को समझाया, ‘‘कोलकाता में भोलाभाला बन कर मत रहना, नहीं तो कोई भी लड़की, औरत तुझे बुद्धू बना देगी. फिर बिरजू क्या करेगा…’’मोहन और बिरजू ठहाका लगा कर हंसने लगे.हंसतेहंसते बिरजू स्टेशन पर अकेला रह गया. ट्रेन स्टेशन से चली गई थी. वह उदास दिल से घर लौट आया.

दिलीप साव अकेले किराने की दुकान संभालने लगा था. उस की परेशानी तब बढ़ जाती थी, जब वह ग्राहकों की भीड़ में घिर जाता था. तब उसे मोहन खूब याद आता था.इस तरह 9 महीने बीत गए. आज दिलीप साव के घर खुशियां लौटी थीं.

दीपा ने एक खूबसूरत बच्चे को जन्म दिया था.‘‘यह लीजिए, आप का खूबसूरत बेटा,’’ दीपा ने बच्चे को दिलीप साव के गोद में दे दिया. उस ने बच्चे को प्यार से चूम लिया. बच्चे का चेहरा उस के छोटे भाई सुजीत से हूबहू मिल रहा था.दिलीप साव के चेहरे पर एक अनकहा दर्द उभर आया.

उस ने मोहन पर बेवजह शक किया. यह तो सुजीत की करतूत निकली. दिलीप साव की आंखों में बेबसी के आंसू भर आए.सुजीत भाभी के साथ खुशियां मना रहा था. अब दिलीप साव कर भी क्या सकता था. वह भी बुझे मन से सब के साथ खुशियों में शामिल हो गया.

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