Social Story : नशा

Social Story : बड़ा बेटा शंकर शराबी निकला और पत्नी को लकवा मार गया. इस बात से गणपत की कमर टूट गई. घर में बेटी की कमी न हो, तो गणपत ने शंकर का ब्याह करा दिया. पर बहू ललिता पति का प्यार पाने को तरस गई. क्या गणपत के घर में खुशियां लौटीं?

वह तीनों ही टाइम नशे में चूर रहता था. कभीकभी बेहद नशे में उसे देखा जाता था. वह चलने की हालत में नहीं होता था. पूरे शरीर पर मक्खियां भिनभिना रही होती थीं. उसे कोई कुछ नहीं कहता था. न घर वाले खोजखबर लेते थे और न बाहर वालों का उस से कोई मतलब होता था.

शरीर सूख कर ताड़ की तरह लंबा हो गया था. खाने पर कोई ध्यान ही नहीं रहता था उस का. कभी घर आया तो खा लिया, नहीं तो बस दे दारू, दे दारू.

वह सुबह दारू से मुंह धोता तो दोपहर तक दारू पीने का दौर ही चलता रहता था. दोपहर के बाद गांजे का जो दौर शुरू होता, तो शाम तक रुकने का नाम नहीं लेता था.

दोस्त न के बराबर थे. एक था बीरबल, जो उस के साथ देखा जाता था और दूसरा था एक ?ाबरा कुत्ता, जो हमेशा उस के इर्दगिर्द डोलता रहता था.

‘बहिरा दारू दुकान’ उस का मुख्य अड्डा होता था. वहीं से उस की दिन की शुरुआत होती और रात भी वहीं से शुरू होती, जिस का कोई पहर नहीं होता था. लोगों को अकसर ही वह वहीं मिल जाता था.

सुबहसुबह बहिरा भी उस का मुंह देखना नहीं चाहता था, लेकिन ग्राहक देवता होता है, उसे भगा भी नहीं सकता. पीता है तो पैसे भी पूरे दे देता है और बहिरा को तो पैसे से मतलब था. पीने वाला आदमी हो या कुत्ता, उसे क्या फर्क पड़ता?

अब कहोगे कि बिना नाम उसे रबड़ की तरह खींचते जा रहे हो… ऐसा नहीं था कि मांबाप ने उस का नाम नहीं रखा था या नाम रखना भूल गए थे.

मांबाप ने बड़े प्यार से उस का नाम शंकर रखा था, पर उन्हें क्या पता था कि बड़ा हो कर शंकर ऐसा निकलेगा.

कोई बुरा बनता है, तो लोग उसे नहीं, बल्कि उस की परवरिश को गाली देते हैं. किसी बच्चे को अच्छी परवरिश और अच्छी तालीम नहीं मिले, तो वह बिगड़ ही जाता है. मतलब कि बिगड़ने की पूरी गारंटी रहती है.

लेकिन शंकर के साथ ऐसा नहीं था. बचपन में जितना लाड़प्यार उसे मिलना चाहिए था, वह मिला था. जैसी परवरिश और जिस तरह की पढ़ाईलिखाई उसे मिलनी चाहिए थी, उस का भी पूरापूरा इंतजाम किया गया.
जब तक शंकर गांव के स्कूल में पढ़ा, तब तक घर में ट्यूशन पढ़ाने रोजाना शाम को एक मास्टर आया करता था, ताकि पढ़ाई में बेटा पीछे न रहे.

ऐसी सोच रखने वाले मांबाप गांव में कम ही मिलते हैं. जब वह बड़ा हुआ, तो रांची जैसे शहर के एक नामी स्कूल आरटीसी में उस का दाखिला करा दिया और होस्टल में ही उस के रहने का इंतजाम भी कर दिया. यहां भी ट्यूशन का इंतजाम कर दिया गया.

बस, यहीं से शंकर पर से मांबाप का कंट्रोल खत्म होना शुरू हो गया था. हालांकि, हर महीने उस का बाप गणपत उस से मिलने जाता था और घर की बनी ऐरसाठोंकनी रोटी बना कर उस की मां तुलसी देवी बाप के हाथों भिजवा देती थी, ताकि बेटे को कभी घर की कमी महसूस न हो और बाजार की बासी चीजें खाने से भी बचे.

पर न जाने क्या था या शायद समय ठीक नहीं था, शंकर बाहरी चीजें खाने पर ज्यादा जोर देने लगा था. घर की बनी रोटियां उसे उबाऊ लगती थीं और बक्से में पड़ीपड़ी रोटियां सूख कर रोटा हो जाती थीं. बाद में शंकर उसे बाहर फेंक देता था.

यह बात मां को पता चली, तो उसे बड़ा दुख हुआ और तब उस ने घर से कुछ भी भेजना बंद कर दिया.

‘‘खाओ बाजार की चीजें जितनी खानी हों. एक दिन बीमार पड़ोगे, तब समझोगे तुम,’’ तुलसी देवी ने एक दिन झल्ला कर कह दिया था.

शंकर का बाप गणपत एक कंपनी में डोजर औपरेटर था. हर महीने घर में 80-90 हजार रुपए ले कर आता था. वह चाहता था कि इन पैसों से उस का बेटा पढ़लिख कर डाक्टरइंजीनियर बने, बड़ा आदमी बने, तभी उस के पैसे का मान रहेगा, नहीं तो यह पैसा बेकार है उस के लिए, पर बेटे का चालचलन देख कर उस का मन घबरा उठता था.

इसी बीच तुलसी देवी को लकवा मार गया. उसे तत्काल रांची के एक अस्पताल में भरती कराया गया. पूरा शरीर लकवे की चपेट में आ गया था.

शंकर को भी इस की खबर मिली, पर रांची में रहते हुए भी वह मां को देखने तक नहीं आया. इम्तिहान का बहाना बना कर और पहले से तय दोस्तों के संग पिकनिक मनाने हुंडरू फाल चला गया. शाम को होस्टल लौटा, तो नशे में उस के पैर लड़खड़ा रहे थे.

होस्टल इंचार्ज ने जोर से फटकार लगाई, ‘‘पिकनिक मनाने की छुट्टी लोगे और बाहर जो मरजी करोगे, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘सौरी सर, आगे से ऐसा नहीं होगा,’’ शंकर ने कहा. बहकने की यह उस की शुरुआत थी.

लकवाग्रस्त पत्नी के गम में डूबे गणपत की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि उस के घरपरिवार की गाड़ी कैसे चलेगी? घर की देखरेख, खानेपीने का इंतजाम कैसे होगा? आज उसे अपनेआप पर भी कम गुस्सा नहीं आ रहा था.

आज एक बेटी होती तो कम से कम रसोई की चिंता तो नहीं होती उसे. 2 बेटों के बाद ही उस ने पत्नी की नसबंदी करवा दी थी.

बड़ा बेटा शंकर और छोटा बेटा गुलाबचंद था, जो डीएवी स्कूल मकोली में क्लास 6 में पढ़ रहा था.

तुलसी देवी कहती रही, ‘‘कम से कम एक बेटी तो होने देता.’’

गणपत ने तब उस की एक नहीं सुनी थी, ‘‘बहुएं आएंगी, उन्हीं को तुम अपनी बेटी मान लेना.’’

आज गणपत का दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा था. बिस्तर पर लेटी पत्नी को वह बारबार देखता और कुछ सोचने सा लगता.

तभी उसे छोट साढ़ू भाई की कही एक बात याद आई, ‘‘आप की कोई बेटी नहीं है तो क्या हुआ, मेरी 3 बेटियों में से एक आप रख लीजिए. बेटी की कमी भी पूरी हो जाएगी और उस की पढ़ाईलिखाई भी यहां ठीक से हो पाएगी.’

अचानक गणपत ने छोटे साढ़ू को फोन लगा दिया, ‘‘साढ़ू भाई, नमस्कार. आप लोगों को तो मालूम हो ही चुका है कि शंकर की मां को लकवा मार गया है और इस वक्त वह अस्पताल में पड़ी है.’’

‘जी हां, हमें यह जान कर बहुत दुख हुआ. अभी वे कैसी हैं? डाक्टर का क्या कहना है?’

‘‘कुछ सुधार तो है, पर डाक्टर का कहना है कि लंबा इलाज चलेगा. कई साल भी लग सकते हैं. हो सकता कि वह पूरी तरह कभी ठीक न हो पाए, यह भी डाक्टर कहता है…’’

गणपत एक पल को रुका था, फिर बोला, ‘‘साढ़ू भाई, याद है, आप ने एक बार मुझ से कहा था कि आप के 2 बेटे हैं और मेरी 3 बेटियां हैं, मेरी एक बेटी आप अपने पास रख लीजिए, बेटी की कमी भी पूरी हो जाएगी.

‘‘आज मैं सरिता को मांगता हूं. आप मुझे सरिता को दे दीजिए, उस की पढ़ाईलिखाई और शादीब्याह की सारी जिम्मेदारी मेरी. इस समय एक बेटी की मुझे सख्त जरूरत है साढ़ू भाई.’’

‘ठीक है, मैं सरिता की मां से बात करूंगा.’

2 दिन बाद गणपत के साढ़ू भाई का फोन आया, ‘माफ करना साढ़ूजी, सरिता की मां इस के लिए तैयार नहीं हैं.’

‘‘ओह, कोई बात नहीं है साढ़ू भाई. सब समय का फेर है. समस्या मेरी है तो समाधान भी मू?ो ही ढूंढ़ना होगा,’’ यह कह कर गणपत ने फोन काट दिया था.

तुलसी देवी के लकवे की तरह गणपत की सोच को भी उस वक्त लकवा मार गया था, जब शंकर के स्कूल वालों की ओर से एक दिन सुबहसुबह फोन पर कहा गया, ‘आप के बेटे शंकर को स्कूल और होस्टल से निकाल दिया गया है. जितना जल्दी हो सके, आ कर ले जाएं.’

यह सुन कर गणपत को लगा कि उस का संसार ही उजड़ गया है और उस के लहलहाते जीवन की बगिया में आसमानी बिजली गिर पड़ी हो.

गणपत अस्पताल के कौरिडोर से हड़बड़ी में उतरा और सड़क पर पैदल ही स्कूल की ओर दौड़ पड़ा. अपने समय में वह फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी हुआ करता था. अभी जिंदगी उस के साथ फुटबाल खेल रही थी.

स्कूल पहुंच कर गणपत स्कूल वालों के आगे साष्टांग झक गया और बोला, ‘‘बेटे ने जो भी गलती की हो, आखिरी बार माफ कर दीजिए माईबाप. दोबारा ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘आप की सज्जनता को देखते हुए इसे माफ किया जाता है. ध्यान रहे, फिर ऐसा न हो,’’ स्कूल के प्रिंसिपल की ओर से कहा गया.

स्कूल गलियारे में ही गणपत को शंकर के गुनाह का पता चल गया था. स्कूल में होली की छुट्टी की सूचना निकल चुकी थी.

2 दिन बाद स्कूल का बंद होना था. उस के पहले स्कूल होस्टल में एक कांड हो गया, जिस में शंकर भी शामिल था.

दरअसल, लड़के के भेष में बाजार में सड़क किनारे बैठ हंडि़या बेचने वाली 2 लड़कियों को कुछ लड़के चौकीदार की मिलीभगत से होस्टल के अंदर ले आए थे. रातभर महफिल जमी, दारूमुरगे का दौर चला. दो जवान जिस्मों को दारू में डुबो कर उन के साथ खूब मस्ती की गई.

अभी महफिल पूरे उफान पर ही थी कि तभी होस्टल पर प्रबंधन की दबिश पड़ी. होस्टल इंचार्ज समेत 5 लड़के इस कांड में पकड़े गए.

होस्टल इंचार्ज और चौकीदार को तो स्कूल प्रबंधन ने तत्काल काम से हटा दिया और छात्रों के मांबाप को फोन कर हाजिर होने को कहा गया.

गणपत माथे पर हाथ रख कर वहीं जमीन पर बैठ कर रोने लगा. बेटे को ले कर उस ने जो सपना देखा था, वह सब खाक होता दिख रहा था.

फिर भी उस ने शंकर से इतना जरूर कहा, ‘‘अगले साल तुम को मैट्रिक का इम्तिहान देना है, बढि़या से तैयारी करो,’’ और वह अस्पताल लौट आया.

3 महीने बाद तुलसी देवी को अस्पताल के बिस्तर से घर के बिस्तर पर शिफ्ट कर दिया गया.

घर में तुलसी देवी की देखभाल के लिए कोई तो चाहिए? इस सवाल ने गणपत को परेशान कर दिया.

बड़ी भागदौड़ कर के वह प्राइवेट अस्पताल की एक नर्स को मुंहमांगे पैसे देने की बात कर घर ले आया.

तुलसी देवी को अपनी सेवा देते हुए अभी नर्स गीता को 2 महीने ही पूरे हुए थे कि एक दिन उस ने सुबहसुबह गणपत को यह कह कर चौंका दिया, ‘‘अब मैं यहां काम नहीं कर सकूंगी.’’

‘‘क्यों…? किसी ने कुछ कहा क्या या हम से कोई भूल हुई?’’ गणपत ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘नहीं, पर यहां की औरतें अच्छी नहीं हैं.’’

‘‘मैं समझ गया. बगल वाली करेला बहू ने कोई गंदगी फैलाई होगी. ठीक है, तुम जाना चाहती हो, जाओ. मैं रोकूंगा नहीं. कब जाना है, बता देना…’’

गणपत जैसे सांस लेने को रुका था, फिर शुरू हो गया, ‘‘आप को अस्पताल में ‘सिस्टर गीता’ कहते होंगे लोग, और मैं आप को अपनी छोटी बहन समझता हूं…’’ बोलतेबोलते गणपत का गला भर आया और आंखें छलक पड़ीं.

इसी के साथ गणपत तुरंत बाहर चला गया. गीता उसे जाते हुए देखती रह गई.

शंकर ने बेमन से मैट्रिक बोर्ड का इम्तिहान दिया और 3 महीने बाद उस का नतीजा भी आ गया. वह सैकंड डिवीजन से पास हुआ था.

रिजल्ट कार्ड ला कर बाप के हाथ में रखते हुए उस ने कहा, ‘‘इस के आगे मैं नहीं पढ़ूंगा. पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता. यह रिजल्ट आप रख लीजिए,’’ इसी के साथ वह घर से निकल पड़ा. गणपत हैरान सा बेटे को जाते हुए देखता रहा.

एक हफ्ते तक जब शंकर घर नहीं लौटा, तब किसी ने कहा कि वह कोलकाता चला गया है.

गणपत के साथ यह सब क्यों हो रहा था? वह हैरान था. परेशानी के चक्रव्यूह ने चारों तरफ से उसे घेर रखा था और वह रो भी नहीं सकता था, मर्द जो ठहरा.

दोपहर को गणपत काम से घर लौटा. गीता तुलसी देवी को खाना खिला रही थी. साबुनतौलिया लिए वह सीधे बाथरूम में चला गया. नहा कर आया, तो गीता ने खाना लगा दिया.

‘‘इस घर में बहू आ जाएगी, तभी मैं जाऊंगी,’’ गीता बोली.

‘‘बहू…’’ कहते हुए गणपत ने गीता पर नजर डाली और खाना खाने लगा. उस की मरी हुई भूख जाग उठी थी.

खाना खा कर उठा तो गणपत फिर बुदबुदाया, ‘‘बहू…’’ उसे भी लगा कि शंकर को सुधारने का अब एक ही रास्ता है कि उस की शादी करा दी जाए. बहू अच्छेअच्छे नशेबाजों की सवारी करने में माहिर होती है, ऐसा गणपत का मानना था.

शंकर के लिए शादी जरूरी थी या नहीं, पर उस घर को एक बहू की सख्त जरूरत थी. यही सोच कर गणपत ने संगीसाथियों के बीच बात चलाई और एक दिन नावाडीह की पढ़ीलिखी, सुशील और संस्कारी किसान की बेटी ललिता के साथ बेटे की शादी तय कर दी गई.

ललिता बहुत खूबसूरत तो नहीं थी, लेकिन बदसूरत भी नहीं थी. वह किसी के शरीर में उबाल ला सकती है, ऐसी जरूर थी.

एक दिन गणपत ने शंकर से कहा, ‘‘हम ने तुम्हारे लिए एक लड़की पसंद की है, किसी दिन जा कर देख लो और शादी का दिन पक्का कर लो.’’

‘‘आप की पसंद ही मेरी पसंद है,’’ शंकर ने कहा.

शंकर की बरात में उस के साथी नशे में झूम रहे थे. बरात जब दुलहन के दरवाजे पर पहुंची, तो घराती हैरान थे कि न जाने ललिता के लिए यह कैसा दूल्हा पसंद किया है.

शादी का मुहूर्त निकला जा रहा था और शंकर अपने साथियों के साथ डीजे पर अब भी नाच रहा था. वह भूल चुका था कि वह बराती नहीं, बल्कि दूल्हा है और उसे शादी भी करनी है.

तभी वहां शंकर के होने वाले 2 साले आए और चावल की बोरी की तरह शंकर को उठाया और सीधे मंडप में ले जा कर धर दिया. तब भी शंकर का नशा कम नहीं था.

पंडित बैठा विवाह के श्लोक पढ़ रहा था, पर शंकर अपनी ही दुनिया में जैसे मगन था. वह न पंडित की किसी बात को सुन रहा था और न ही उस की तरफ उस का ध्यान था. उसे देख कर लगता नहीं था कि वह शादी करने आया है.

दुलहन विवाह मंडप में लाई गई. तब भी शंकर होश में नहीं था. जब सिंदूरदान की बेला आई, सभी उठ खड़े हुए और जब शंकर को उठने को बोला गया, तो वह बड़ी मुश्किल से उठ खड़ा हुआ था. तभी गणपत आगे बढ़ा और बेटे के हाथ से दुलहन की मांग भरी गई.

बेटी का बाप करीब आ कर गणपत से बोला, ‘‘समधीजी, मैं आप के भरोसे अपनी बेटी दे रहा हूं. देखना कि इसे कोई तकलीफ न हो.’’

‘‘आप निश्चिंत रहें, आप की बेटी हमारे घर में राज करेगी, राज,’’ गणपत ने बेटी के बाप से कहा.
दुलहन के बाप के दिल में ठंडक पड़ी. दोनों एकदूसरे के गले लगे.

घर में बहू आ गई. गणपत ने नर्स गीता को ढेर सारे उपहार दे कर बहन की तरह विदाई करते हुए कहा, ‘‘बहुत याद आओगी, आती रहना.’’

‘‘इस घर को मैं कभी भुला नहीं पाऊंगी,’’ गीता ने कहा.

ललिता को इस घर में आए सालभर हो चुका था, पर और बहुओं की तरह उस की जिंदगी में अभी तक सुहागरात नहीं आई थी. दो दिलों में बहार का आना अभी बाकी था, पर जैसेजैसे समय बीतता गया, शादी उस के लिए एक पहेली बन गई.

देखने के लिए तो पूरा घर और सोचने के लिए खुला आसमान था. काम के नाम पर रातभर तारे गिनना और दिनभर सास की सेवा में गुजार देना होता. परंतु पति का प्यार अभी तक उस के लिए किसी सपने की तरह था. कुलटा बनना उस के संस्कार में नहीं था.

‘घर के बाहर जिस औरत की साड़ी एक बार खुल जाती है, तो बाद में समेटने का भी मौका नहीं मिलता…’ विदा करते हुए बेटी के कान में मां ने कहा था.

सालभर में ही ललिता ने रसोई से ले कर रिश्तों तक को सूंघ लिया था. सास तुलसी देवी को लकवा मारे 2 साल से ऊपर का समय हो चला था. अब करने को कुछ बचा नहीं था.

सासससुर के मधुर संबंधों को भी जैसे लकवा मार गया था. इस कमी को ललिता का ससुर कभी सोनागाछी तो कभी लछीपुर जा कर पूरा कर आता था.

शुरू में तो ललिता को इस पर यकीन ही नहीं हुआ, लेकिन पड़ोस की एक काकी ने एक दिन जोर दे कर कह ही दिया था, ‘‘यह झूठ नहीं है, सारा गांव जानता है.’’

फिर भी ललिता चुप रही. अब उस ने रिश्तों की जमीन टटोलनी शुरू कर दी थी.

शंकर में कोई बदलाव नहीं हुआ था. जैसा पहले था, वैसा ही आज भी था. आज भी उसे नूनतेल और लकड़ी से कोई मतलब नहीं था. पत्नी को वह उबाऊ और बेकार की चीज समझने लगा था.

ललिता रंग की सांवली थी, पर किसी को भी रिझ सकती थी. कमर तक लहराते उस के लंबेलंबे काले बाल किसी का भी मन भटकाने के लिए काफी थे. उस का गदराया बदन पानी से लबालब भरे तालाब की तरह था, लेकिन शंकर था कि वह उस की तरफ देखता तक नहीं था.

ऐसे में जब शंकर घर से जाने लगता, तो ललिता उस का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती और कहती, ‘‘कहां चले, अब कहीं नहीं जाना है, घर में रहिए.’’

‘‘देखो, तुम मुझे रोकाटोका मत करो, खाओ और चुपचाप सो जाओ.

तुम मुझ से ऐसी कोई उम्मीद न करना, जो मैं दे न सकूं. नाहक ही तुम को तकलीफ होगी.’’

इस के बाद शंकर घर से निकल जाता, तो लौटने में कभी 10-11 बज जाते, तो कभी आधी रात निकल जाती थी. ललिता छाती पर हाथ रख कर सो जाती. आंसू उस का तकिया भिगोते रहते. कैसा होता है पहला चुंबन और कैसा होता है उभारों का पहला छुअन… उन का मसला जाना. उस की सारी इच्छाएं अधूरी थीं.

छुट्टी के दिन गणपत घर से बाहर निकल रहा था कि ललिता ने टोक दिया, ‘‘हर हफ्ते जिस जगह आप जाते है, वहां नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘बहू, इस तरह टोकने और कहने का क्या मतलब है…?’’ गणपत ठिठक कर खड़ा हो गया.

‘‘मैं सब जान चुकी हूं. सास को लकवा मारना और हर हफ्ते आप का बाहर जाना, यह इत्तिफाक नहीं है. उसे जरूरत का नाम दिया जा सकता है. पर जरा सोचिए, जो बात आज सारा गांव जान रहा है, कल वही बात छोटका बाबू गुलाबचंद को मालूम होगी, तब उस पर क्या गुजरेगी, इस पर कभी सोचा है आप ने?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है, जैसा तुम समझ रही हो बहू.’’

‘‘आप को नहीं मालूम कि गांव में कैसी चर्चा है. सब बोलते हैं कि पैसे ने बापबेटे का चालचलन बिगाड़ दिया है. बेटा नशेबाज है और बाप औरतबाज.’’

‘‘बहू…’’ गणपत चीख उठा था, ‘‘कौन है, जो इस तरह बोलता है? किस ने तुम से यह बात कही? मुझे बताओ…’’

‘‘इस से क्या होगा? गंदगी से गुलाब की खुशबू नहीं आएगी… बदबू ही फैलेगी.’’

सालभर में ऐसा पहली बार हुआ था, जब छुट्टी के दिन गणपत कहीं बाहर नहीं गया. बहू की बातों ने उसे इस कदर झकझोर डाला कि वह सोच में पड़ गया. वापस कमरे में पहुंचा और कपड़े बदल कर सो गया, पर बहू की बातों ने यहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ा, ‘बेटा नशेबाज और बाप औरतबाज…’

लेटेलेटे गणपत को झपकी आ गई और वह सो गया. दोपहर को उसे जोर से प्यास लगी. उस ने बहू को आवाज दी. वह पानी ले कर आई.

गणपत ने गटागट पानी पी लिया. ललिता जाने लगी, तो उस ने कहा, ‘‘तुम्हारा कहा सही है, मैं जो कर रहा था गलत है, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’

ललिता के मुंह से भी निकल गया, ‘‘मैं यह मानती हूं कि आप अभी भरपूर जवान हैं, बूढ़े नहीं हुए हैं. आप का शरीर जो मांगता है, उसे मिलना चाहिए. लेकिन, आप जिस जगह जा रहे हैं, वह जगह सही नहीं है.’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो बहू.’’

‘‘आप बाहर की दौड़ लगाना छोडि़ए और घर में रहिए. आप को किसी चीज की कमी नहीं होगी,’’ कहते हुए ललिता अपने कमरे में चली गई.

गणपत पहली बार ललिता को गौर से देख रहा था और उस की कही बातों का मतलब निकाल रहा था.

उस दिन के बाद से गणपत ने बाहर जाना छोड़ दिया. छुट्टी के दिन वह या तो घर में रहता या फिर किसी रिश्तेदार के यहां चला जाता. इस बदलाव से खुद तो वह खुश था ही, भूलते रिश्तों को भी टौनिक मिल गया था.

उस दिन भी गणपत घर में ही था. दोपहर का समय था. पत्नी के कमरे में बैठा उस की देह सहला रहा था. मुद्दतों के बाद तुलसी देवी पति का साथ पा कर बेहद खुश थी.

कमरा शांत था. किसी का उधर आने का भी कोई चांस नहीं था. शंकर अपनी मां के कमरे में कभी आता नहीं था. अपनी मां को कब उस ने नजदीक से देखा है, उसे याद नहीं. ललिता अपने कमरे में लेटी ‘सरिता’ पत्रिका पढ़ रही थी. पत्रिका पढ़ने की उस की यह आदत नई थी. उस वक्त तुलसी देवी का हाथ पति की जांघ पर था.

उसी पल खाना ले कर ललिता कमरे में दाखिल हुई. अंदर का नजारा देख कर वह तुरंत बाहर जाने लगी. तभी उसे ससुर की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘रुको, सास को खाना खिलाओ, मैं बाहर जा रहा हूं.’’

रात के 10 बज चुके थे. ललिता ने सास को खाना और दवा खिला कर सुला दिया था. ससुर को खाना देने के लिए बहू बुलाने गई, तो उन्हें कमरे के बाहर बेचैन सा टहलते पाया. बहू ललिता बोली, ‘‘खाना खा लेते, रोटी ठंडी हो जाएगी.’’

‘‘खाने की इच्छा नहीं है. तुम जाओ और खा कर सो जाओ…’’

‘‘आप को क्या खाने की इच्छा है, बोलिए, बना दूंगी.’’

‘‘कुछ भी नहीं, मेरा मन ठीक नहीं है,’’ कह कर गणपत अपने कमरे में जाने लगा. तभी ललिता की आवाज सुनाई दी, ‘‘आप का मन अब मैं ही ठीक कर सकती हूं. मैं ने एक दिन आप से कहा था कि जब घर में खाने के लिए शुद्ध और स्वादिष्ठ भोजन रखा हो, तो खाने के लिए बाहर नहीं जाना चाहिए. वह घड़ी आ चुकी है,’’ कह कर ललिता अपने कमरे की तरफ मुड़ गई. उस की चाल में एक नशा था.

गणपत बड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा. नहीं… नहीं… ऐसा ठीक नहीं होगा, दुनिया क्या कहेगी… रिश्तों का क्या होगा… समाज जानेगा… उस का कौन जवाब देगा… देखो, घर की बात है और दोनों को एकदूसरे की जरूरत भी है…

आगे बढ़ने के लिए जैसे कोई उसे उकसा रहा था, पीछे से धकिया रहा था… आगे बढ़ो… आगे बढ़ो… दुनिया जाए भाड़ में…

अंदर से कमरे का दरवाजा बंद कर गणपत ने सामने देखा, अंगड़ाई लेता हुआ एक जवां जिस्म बांहें फैलाए खड़ा था.

गणपत बेकाबू हो चुका था. शायद वह भी इसी पल के इंतजार में था. वह ललिता के कमरे में चला गया.

थोड़ी देर के बाद शंकर ने घर में कदम रखा. पहले वह रसोई में गया. उस ने 2 रोटी खाई और अपने कमरे की ओर बढ़ा. दरवाजा अंदर से बंद था. धक्का दिया, पर खुला नहीं.

शंकर बाहर जाने को मुड़ा कि तभी अंदर से हलकीहलकी आवाजें सुनाई पड़ीं.

‘‘तुम दोनों कभी मिले नहीं थे क्या?’’ गणपत ललिता से पूछ रहा था.

‘‘नहीं… आह… आप तो बुलडोजर चला रहे हैं,’’ ललिता बोली.

‘‘अब तो यह बुलडोजर हर दिन चलेगा.’’

‘‘और शंकर का क्या होगा?’’

‘‘अब तुम उस के बारे में सोचना छोड़ दो.’’

‘‘फिर मैं किस की रहूंगी?’’

‘‘अभी किस की हो?’’

‘‘आप को क्या कहूंगी? ससुर या शाहजहां?’’

‘‘शाहजहां… आज से तुम मेरी और मैं तुम्हारा. अब से तुम्हारी सारी जिम्मेदारी मेरी.’’

बाहर खड़े शंकर ने अंदर की सारी बातें सुनीं. इस से पहले कि कोई उसे वहां देख ले, दबे पैर वह घर से जो निकला, लौट कर फिर कभी उस घर में नहीं आया.

गणपत की बगिया में ललिता ने अपना घोंसला बना लिया था.

लेखक – श्यामल बिहारी महतो

Family Story : मुखियाजी की छोटी पतोहू

Family Story : 70 साल के मुखियाजी दिलफेंक इनसान थे. वे अपने कुएं पर पानी भरने आई औरतों को खूब ताड़ते थे. निचली जाति की रामकली पर तो वे फिदा थे. एक दिन रामकली के पति रामलाल को पुलिस पकड़ कर ले गई. रामकली मुखियाजी के पास गई. आगे क्या हुआ.

मुखियाजी थे तो 70 साल के, लेकिन उन का कलेजा किसी जवान छोकरे जैसा ही जवान था. उन के कुएं पर पानी भरने के लिए जब औरतें आतीं, तब वे हुक्का पीते रहते और उन को निहारते रहते.

मुखियाजी को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि कौन सी औरत उन के बारे में क्या सोच रही है. वे किसी औरत को कभी कनखियों से भी देखते थे. उन की नजर हमेशा गांव की औरतों के घूंघट पर ही रहती थी.

मुखियाजी हमेशा इस ताक में रहते थे कि कब पानी खींचने में घूंघट खिसके और वे उस औरत का चेहरा अच्छी तरह से देख कर तर हो जाएं. वे इस बात को जानते थे कि कोई औरत उन पर इस उम्र में दिलफेंक होने का लांछन नहीं लगाएगी.

अगर पानी भरने वाली औरत किसी निचली जाति की होती, तब तो मुखियाजी चहक उठते. सोचते, ‘भला इस की क्या मजाल, जो मेरे बारे में कुछ भी कह सके.’ अगर उस समय कुएं पर कोई और नहीं होता, तब वे तुरंत उस औरत के साथ बालटी की रस्सी खींचना शुरू कर देते. वे बोलते, ‘‘अरी रामलाल
की बहुरिया, तू इतनी बड़ी बालटी नहीं खींच सकती. रामलाल से कह कर छोटी बालटी मंगवा लेना. लेकिन वह क्यों लाएगा? वह तो अभी तक सो रहा होगा.’’

तब रामलाल की बहुरिया रामकली लाज के मारे सिकुड़ जाती थी, लेकिन वह रस्सी छोड़ भी नहीं सकती थी, क्योंकि मुखियाजी रस्सी को इसलिए नहीं पकड़ते थे कि वह उस रस्सी को छोड़ दे, वरना बालटी कुएं में गिरने का डर था.

रामकली लजा कर उस कुएं से पानी भर ले जाती. फिर सोचती कि अब यहां से पानी नहीं ले जाएगी, लेकिन बेचारी करती भी क्या? लाचार थी. उस गांव में दूसरा कुआं ऐसा नहीं था, जिस का पानी मीठा हो.

मुखियाजी रोज रामकली की बाट जोहते. रामकली सुबहसवेरे जल्दी आ कर पहले पानी भर लाती. फिर झाड़ूबुहारी करती और तब पति को जगाती.

रामकली सोचती कि सवेरेसवेरे कुएं पर मुखियाजी आ जाते हैं, इसलिए घर की झाड़ूबुहारी बाद में कर लिया करेगी, पानी पहले लेती आएगी.

अगले दिन जब रामकली भोर में मुखियाजी के कुएं पर पानी लाने गई, तब मुखियाजी हुक्का छोड़ कर उस के पास जा पहुंचे और बोले, ‘‘रामकली, आजकल तुम बड़ी देर से आती हो. रामलाल तुम को देर तक नहीं छोड़ता है क्या?’’ और फिर उन्होंने उस का हाथ पकड़ लिया.

रामकली लजा गई. वह धीरे से बोली, ‘‘बाबाजी, यह क्या कर रहे हो, कुछ तो शर्मलिहाज करो.’’

फिर भी मुखियाजी नहीं हटे. वे किसी बेहया की तरह बोले, ‘‘रामकली, तेरा दुख मुझ से अब नहीं देखा जाता है.

तू इतनी ज्यादा मेहनत करती है, जबकि रामलाल घर में पड़ा रहता है.’’

तकरीबन 35 साल पहले मुखियाजी की घरवाली 3 बेटों को छोड़ कर चल बसी थी. उस के बाद मुखियाजी ने किसी तरह जवानी काट दी. 2 बेटों को पुलिस महकमे में जुगाड़ लगा कर भरती करा दिया. एक बेटा शहर का कोतवाल बन गया था, जबकि दूसरा छोटा बेटा थानेदार था और तीसरा बेटा गांव में खेतीबारी करता था.

एक दिन मुखियाजी रामकली से बोले, ‘‘कोतवाल की अम्मां से तेरा चेहरा पूरी तरह मिलता है. तेरी ही उम्र में तो वह चली गई थी. जब मैं तुझे देखता हूं, तब मुझे कोतवाल की अम्मां याद आ जाती है.’’

सचाई यह थी कि कोतवाल की अम्मां काले रंग की थी. वह मुखियाजी को कभी पसंद नहीं आई थी, जबकि रामकली गोरीचिट्टी और खूबसूरत होने के चलते उन को खूब अच्छी लगती थी.

जब रामकली कुएं के पास आती, तब मुखियाजी अपनी घोड़ी के पास पहुंच कर कहते, ‘‘आज तो तेरे ऊपर सवारी करूंगा.’’

मुखियाजी इसी तरह के और भी फिकरे कसते थे. तब बेचारी रामकली लाज के मारे सिकुड़ जाती. वह सोचती कि बूढ़ा पागल हो गया है.

एक दिन रामकली ने सहम कर अपने पति रामलाल से कहा, ‘‘सुनोजी, ये मुखियाजी कैसे आदमी हैं? हर समय मुझे ही निहारते रहते हैं.’’

तब रामलाल खड़ा हो गया और बौखला कर बोला, ‘‘देख रामकली, तू अपनेआप को बड़ी सुंदरी समझती?है, बडे़बूढ़ों पर भी आरोप लगाने से नहीं चूकती है. आगे से कभी ऐसी बात कही तो समझ लेना…’’

मुखियाजी के पास तो इलाके के दारोगाजी, तहसीलदार सभी आते थे. गांव वालों का काम उन दोनों के दफ्तरों से पड़ता है. अपना काम निकलवाने के लिए मुखियाजी सिपाही को भी ‘दारोगाजी’ कहते थे.

कोतवाल के बाप से ‘दारोगाजी’ सुन कर सिपाही फूले न समाते थे. मुखियाजी का हुक्म मानने में वे तब भी नहीं हिचकिचाते थे.

रामकली को देख कर मुखियाजी के दिमाग में एक कुटिल बात आई, ‘क्यों न रामलाल को किसी केस में फंसा दिया जाए? जब रामलाल जेल में होगा, तब रामकली मदद के लिए मेरे पास खुद ही चली आएगी.’

मुखियाजी ने उन सिपाहियों को समझाया, ‘‘रामलाल देर रात कहीं से लौट कर आता है. ऐसा मालूम पड़ता है कि यह बदमाशों से मेलजोल बढ़ा रहा है. काम कुछ नहीं करता है, फिर भी उन सब का खानापीना ठीक चल रहा है.’’

यह सुन कर सिपाही चहक उठे. उन्होंने सोचा कि मुखियाजी कोतवाल साहब से इनाम दिलवाएंगे. अगर मौका लग गया, तो तरक्की दिलवा कर हवलदार भी बनवा देंगे.

अंधियारी रात में चौपाल से लौटते समय रामलाल को पकड़ कर सिपाही थाने ले गए. सुबह सारी बात मालूम होने पर रामकली मुखियाजी के पास आई और पूरी बात बताई.

तब अनजान बने मुखियाजी ने गौर से सारी बातें सुनीं. वे बोले, ‘‘ठीक है, ठीक है, आज मैं बड़े दारोगाजी के पास जाऊंगा. तू 2 घंटे बाद कुछ खर्चेपानी के लिए रुपए लेती आना.’’

2 घंटे बाद रामकली 300 रुपए ले कर मुखियाजी के पास आई, तब वे बोले, ‘‘आजकल 300 रुपए को कौन पूछता है? कम से कम 1,000 रुपए तो चाहिए.’’

थोड़ी देर रुकने के बाद मुखियाजी बोले, ‘‘कोई बात नहीं, एक बात सुन…’’ और फिर घर की दीवार की ओट में मुखियाजी ने रामकली का हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘तू बिलकुल कोतवाल की अम्मां जैसी लगती है.’’

उसी समय मुखियाजी की पतोहू दूध का गिलास ले कर उन की तरफ धीरे से आई. अपने बूढ़े ससुर को जवान रामकली का हाथ पकड़े देख कर वह हैरान रह गई. उस के हाथ से दूध का गिलास छूट गया. रामकली की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

मुखियाजी ने पलटा खाया और बोले, ‘‘मेरे छोटे बेटे की तो 4 बेटियां ही हैं. उस का भी तो खानदान चलाना है. मैं तो अपने बेटे का दूसरा ब्याह करूंगा.’’

‘‘रामकली…’’ मुखियाजी बोले, ‘‘तू बिलकुल चिंता मत कर. तेरा रामलाल आएगा और आज ही आएगा, चाहे 1,000 रुपए मुझे ही क्यों न देने पड़ें. मेरे रहते पुलिस की क्या मजाल, जो रामलाल को पकड़ कर ले जाए. मैं तो तुझे देख रहा था, तू तो इस गांव की लाज है.’’

कुछ घंटे बाद मुखियाजी रामलाल को छुड़ा लाए. रामलाल और रामकली दोनों मुखियाजी के सामने सिर झुका कर खड़े थे. वे अहसानों तले दबे थे.

कुछ दिनों के बाद मुखियाजी ने अपने छोटे बेटे की सगाई पड़ोस के गांव के लंबरदार की बेटी से कर दी. बरात विदा हो रही थी. बरातियों में चर्चा थी, ‘मुखियाजी को अपने छोटे बेटे का वंश भी चलाना है.’

दूसरी तरफ अंदर कोठे में छोटे थानेदार की बहुरिया टपटप आंसू बहा कर अपने कर्मों को कोस रही थी. उस की चारों बेटियां अपनी सौतेली मां के आने का इंतजार डरते हुए कर रही थीं.

लेखक – बृजबाला

Social Story : गलत रास्ता

Social Story : ‘‘अरे निपूती, कब तक सोती रहेगी… चाय के लिए मेरी आंखें तरस गई हैं और ये महारानी अभी तक बिस्तर में घुसी है. न बाल, न बच्चे… ठूंठ को शर्म भी नहीं आती,’’ कमला का अपनी बहू सलोनी को ताने देना जारी था.

अब क्या ही करे, सलोनी को तो कुछ समझ ही नहीं आता था. सुबह जल्दी उठ जाए तो सुनती कि सुबहसुबह बांझ का मुंह कौन देखे. देर से उठे तो भी बवाल. अब ये ताने सलोनी की जिंदगी का हिस्सा थे.

पति राकेश के होते भी सलोनी की विधवा जैसी जिंदगी थी. राकेश मुंबई में रहता था और सलोनी ससुराल में सास और देवर महेश के साथ रहती थी. बेचारी पति के होते हुए भी अब तक कुंआरी थी.

शादी की पहली रात को ही सलोनी को माहवारी आ गई थी, फिर उस की सास ने उसे अलग कोठरी में डाल दिया था. 7 दिन बाद जब उसे कोठरी से निकाला गया, तो राकेश मुंबई जाने की तैयारी कर रहा था.
दूसरी बार जब राकेश नए घर आया, तो उस के आते ही उसे मायके भेज दिया गया था.

ऐसे ही सालभर का समय निकल गया था. सलोनी का राकेश के साथ कोई रिश्ता बन ही नहीं पाया था. उस के बाद भी निपूती और बांझ का कलंक झेलना, सो अलग.

अब सलोनी ने सोचा कि राकेश से बात करे, पर राकेश के हिसाब से तो मां बिलकुल भी गलत नहीं हैं. शादी के बाद तो बच्चा होना ही चाहिए. अब उसे कौन समझाए कि बच्चा शादी करने भर से नहीं हो सकता, उस के लिए साथ में सोना भी पड़ता है.

धीरेधीरे सलोनी को पता चला कि राकेश नामर्द है और उस के साथ सो कर भी वह बच्चा पैदा नहीं कर
सकती. शायद इसीलिए वह उस से दूर भागता है और अपनी मां के साथ मिला हुआ है.

अब सलोनी को कोई हल नजर नहीं आ रहा था. मायके में मां नहीं थीं. पिता से क्या कहे. एक भाई था, वह भी काफी छोटा था. उस से भी कुछ नहीं कहा जा सकता था.

सलोनी का देवर महेश अपने भाई और मां के बरताव के बारे में सबकुछ जानता था. उस के मन में कई बार आता कि मां को खरीखोटी सुना दे, पर वह चुप रह जाता था.

आखिर एक दिन जब राकेश घर आया, उस दिन काफी देर तक पतिपत्नी में नोकझोंक हुई. उस बातचीत के कुछ हिस्से महेश के कानों में भी पड़े, पर वह चुप ही रहा.

2-3 दिन रह कर राकेश वापस मुंबई लौट गया था. सलोनी की सास अपनी बहन के घर गई थी. घर पर सलोनी और महेश ही थे.

अचानक सलोनी ने देखा कि महेश उस के कमरे में आ कर चुपचाप उस के पास खड़ा हो गया था. उस ने अपनी भाभी से कहा, ‘‘तुम इस घर से भाग जाओ.’’

सलोनी ने कहा, ‘‘मैं अब कहां जाऊंगी. पिताजी ने बड़ी मुश्किल से मेरी शादी की है. मैं वापस जा कर उन का दुख नहीं बढ़ा सकती.’’

सलोनी ने अब अपने पैरों पर खड़ा होने की ठान ली. हालांकि वह सिर्फ 12वीं जमात पास थी. उस ने एक औनलाइन शौपिंग कंपनी की पार्सल डिलीवरी का काम शुरू किया. लड़की होने की वजह से उसे यह काम आसानी से मिल गया.

शुरूशुरू में सलोनी पास के एरिया में ही डिलीवरी के लिए जाती थी, बाद में उस ने एक स्कूटी खरीद ली और दूरदूर तक पार्सल डिलीवर करने के लिए जाने लगी.

पैसा आने और लोगों से मिलनेजुलने से सलोनी में एक अलग तरह का आत्मविश्वास आने लगा, जिस से उस की रंगत बहुत ही निखर गई. अब उस की सास भी उसे कम ताने देती थी, पर उसे बांझ कहने से नहीं चूकती थी.

एक रविवार की दोपहर को सलोनी आराम कर के उठी, तो उस ने देखा कि महेश चोर नजरों से उसे ही देख रहा था.

सलोनी ने सोचा कि अपने पैरों पर तो वह खड़ी हो गई है, अब उसे अपने माथे पर लगे कलंक को भी धोना है. उस ने मौका देख कर एक दिन महेश से कहा, ‘‘तुम मुझे एक बच्चा दे दो.’’

महेश सोच में पड़ गया. उसे लगा कि यह पाप है. उसे सोच में देख कर सलोनी बोली, ‘‘देवरजी, इस पाप के साथ ही मैं अपने माथे पर लगे कलंक को धो सकती हूं. यही मेरे लिए सब से बड़ा पुण्य है.

‘‘मैं उस अपराध की सजा क्यों भुगतूं, जो मैं ने किया ही नहीं है. इस से तो अच्छा होगा कि मैं पाप कर के अपने माथे पर लगे बांझ वाले कलंक को धो दूं.’’

अब कमरे में पाप हो रहा था, जिस से एक कलंक को धुलना था. महेश की बांहों में समाते हुए सलोनी सोच रही थी, पाप और पुण्य की नई परिभाषा.

धीरेधीरे सलोनी अपने देवर महेश से वह सुख हासिल करने लगी, जो उसे पति ने कभी नहीं दिया था और महेश और उस पर कोई उंगली न उठा सके, इस के लिए सलोनी ने अपने देवर की शादी एक बिना पढ़ीलिखी गरीब लड़की से करा दी.

सास सब समझती, इसलिए वह अपनी छोटी बहू को रीतिरिवाज और पूजापाठ के बहाने अकसर घर से दूर ही रखती थी, जिस से उसे अपने पति और जेठानी के बीच के नाजायज रिश्ते की कोई भनक तक नहीं लगे.

समय के साथसाथ सलोनी एक बच्चे की मां बन गई और उस की नौकरी भी अब पक्की हो गई थी. राकेश सब जानतेसमझते हुए भी चुप ही रहता था और अब तो वह सामाजिक रूप से एक बच्चे का पिता भी बन गया था.

सलोनी ने अपनी जिंदगी से भागने का रास्ता नहीं चुना, बल्कि उसी ससुराल में डट कर मुकाबला किया और अब बड़े ही सुकून से रह रही थी. कभीकभी गलत रास्ता भी जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर ला देता है.

Family Story : नसबंदी

Family Story : साल 1976 की बात रही होगी, उन दिनों मैं मैडिकल कालेज अस्पताल के सर्जरी विभाग में सीनियर रैजिडैंट के पद पर काम कर रहा था. देश में इमर्जैंसी का दौर चल रहा था. नसबंदी आपरेशन का कुहराम मचा हुआ था. हम सभी डाक्टरों को नसबंदी करने का टारगेट दे दिया गया था और इसे दूसरे सभी आपरेशनों के ऊपर प्राथमिकता देने का भी निर्देश था. टारगेट पूरा नहीं होने पर तनख्वाह और प्रमोशन रोकने की चेतावनी दे दी गई थी.

हम लोगों की ड्यूटी अकसर गांवों में कराए जा रहे नसबंदी कैंपों में भी लग जाती थी. कैंप के बाहर सरकारी स्कूलों के मुलाजिमों की भीड़ लगी रहती थी. उन्हें लोगों को नसबंदी कराने के लिए बढ़ावा देने का काम दिया गया था और तय कोटा नहीं पूरा करने पर उन की नौकरी पर भी खतरा था. कोटा पूरा करने के मकसद से वे बूढ़ों को भी पटा कर लाने में नहीं हिचकते थे. वहां लाए गए लोग कुछ तो बहुत कमउम्र के नौजवान रहते थे, जिन का आपरेशन करने में गड़बड़ी हो जाने का डर बना रहता था.

कैंप इंचार्ज आमतौर पर सिविल सर्जन रहा करते थे. मरीजों से हमारी पूछताछ उन्हें अच्छी नहीं लगती थी. बुजुर्ग मुलाजिमों की हालत बहुत खराब थी. उन से यह काम नहीं हो पाता था, लेकिन रिटायरमैंट के पहले काम न कर पाने के लांछन से अपने को बचाए रखना भी उन के लिए जरूरी रहता था. वे इस जुगाड़ में रहते थे कि अगर कोई मरीज खुद स्वयं टपक पड़े, तो उस के प्रेरक के रूप में अपना नाम दर्ज करवा लें या कोटा पूरा कर चुके दूसरे मुलाजिम की मिन्नत करने से शायद काम बन जाए.

एक दिन एक देहाती बुजुर्ग एक नौजवान को दिखाने लाए. उस नौजवान का नाम रमेश था और उम्र 20-22 साल के आसपास रही होगी. उसे वे बुजुर्ग अपना भतीजा बता रहे थे. उसे हाइड्रोसिल की बीमारी थी. यह बीमारी बड़ी तो नहीं थी, लेकिन आपरेशन किया जा सकता था.

वे बुजुर्ग आपरेशन कराने पर बहुत जोर दे रहे थे, इसलिए यूनिट इंचार्ज के आदेशानुसार उसे भरती कर लिया गया.

आपरेशन से पहले की जरूरी जांच की प्रक्रिया पूरी की गई और 4 दिनों के बाद उस के आपरेशन की तारीख तय की गई. इस तरह के छोटे आपरेशनों की जिम्मेदारी मेरी रहती थी.

आपरेशन के 2 दिन पहले वे बुजुर्ग चाचा मुझे खोजते हुए मेरे घर तक पहुंच गए. मिठाई का एक पैकेट भी वे अपने साथ लाए थे, जिसे मैं ने लेने से साफतौर पर मना कर दिया और उन्हें जाने को कहा. फिर भी वे बैठे रहे. फिर उन्होंने धीरे से कहा, ‘‘रमेश को 3 बच्चे हो चुके हैं, इसलिए वे नसबंदी करवा देना चाहते हैं.’’

जातेजाते उन्होंने रमेश से इस बात का जिक्र नहीं करने की बात कही. वजह, उसे नसबंदी से डर लगता है.

मेरे यह कहने पर कि इजाजत के लिए तो उसे दस्तखत करना पड़ेगा, तो उन्होंने कहा कि कागज उन्हें दे दिया जाए, वे उसे समझा कर करा लेंगे. आपरेशन कामयाब होने पर वे मेरी सेवा से पीछे नहीं हटेंगे.
मैं ने उन्हें घर से बाहर करते हुए दरवाजा बंद कर दिया.

एक दिन रात को अस्पताल से लौटते समय रास्ते में मुझे रमेश सिगरेट पीता हुआ दिखाई दे गया. देखते ही उस ने सिगरेट फेंक दी.

सिगरेट न पीने की नसीहत देने के खयाल से मैं ने उसे सिगरेट से होने वाले नुकसानों को बताते हुए कहा कि अपने तीनों बच्चों का खयाल करते हुए वह इस लत को तुरंत छोड़ दे.

हैरान होते हुए उस ने पूछा, ‘‘कौन से 3 बच्चे…?’’

‘‘तुम्हारे और किस के?’’

मेरे इस जवाब को सुन कर वह हैरान रह गया और फिर बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है, फिर बच्चे कहां से आ गए? अभी तो छेका हुआ है और 6 महीने बाद शादी होने वाली है, इसीलिए चाचा को मैं ने अपनी बीमारी के बारे बताया था तो वे यहां लेते आए.’’

अब मेरे चौंकने की बारी थी. उस की बातों को सुन कर मुझे दाल में कुछ काला लगा और इस राज को जानने की इच्छा होने लगी.

मेरे पूछने पर रमेश ने अपने परिवार का पूरा किस्सा सुनाया.

वे लोग गांव के बड़े किसान हैं. उन लोगों की तकरीबन 20 एकड़ जमीन है. ये चाचा उस के पिता के, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, सब से बड़े भाई?हैं. बीच में 4 बुआ भी हैं, जो अपनेअपने घर में हैं. चाचा के 4 लड़के हैं. सब की शादी, बालबच्चे सब हैं.

रमेश अपने पिता की अकेली औलाद है. बचपन में ही उस के पिता ट्रैक्टर हादसे में मारे गए थे. वे सभी संयुक्त परिवार में रहते हैं. चाचा और चाची उसे बहुत मानते हैं. पढ़ालिखा कर मजिस्ट्रेट बनाना चाहते थे, लेकिन इम्तिहान में 2 बार फेल हो जाने के बाद उस ने पढ़ाई छोड़ दी और खेतीबारी में जुट गया.

चाचा ही घर के मुखिया हैं. गांव में उन की धाक है.

पूरी बात सुन कर मेरा कौतूहल और बढ़ गया कि आखिर इस लड़के की वे शादी के पहले ही नसबंदी क्यों कराना चाहते हैं?

कुछ सोचते हुए मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे हिस्से में कितनी जमीन आएगी?’’

थोड़ा सकपकाते हुए उस ने बताया, ‘‘तकरीबन 10 एकड़.’’

पूछने में मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था, लेकिन फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘मान लो, तुम्हें बालबच्चे न हों और मौत हो जाए तो वह हिस्सा कहां जाएगा?’’

थोड़ी देर सोचने के बाद वह बोला, ‘‘फिर तो वह सब चाचा के ही हिस्से में जाएगा.’’

मेरे सवालों से वह थोड़ा हैरान था और जानना चाहता था कि यह सब क्यों पूछा जा रहा है.

बात टालते हुए सवेरे अस्पताल के अपने कमरे में अकेले आने को कहते हुए मैं आगे बढ़ गया.

रोकते हुए उस ने कहा, ‘‘चाचा जरूरी काम से गांव गए हैं. वजह, गांव में झगड़ा हो गया है. मुखिया होने के नाते उन्हें वहां जाना जरूरी था. कल शाम तक वे आ जाएंगे. अगर कोई खास बात है, तो उन के आने का इंतजार मैं कर लूं क्या?’’

‘‘तब तो और भी अच्छी बात है. तुम्हें अकेले ही आना है,’’ कहते हुए मैं चल पड़ा.

इस पूरी बातचीत से मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि इस के चाचा ने एक गंदे खेल की योजना बना ली है. वह इसे बेऔलाद बना कर आने वाले दिनों में इस के हिस्से की जायदाद को अपने बेटों के लिए रखना चाहता है. मैं ने ठान लिया कि मुझे इस नाइंसाफी से इसे बचाना होगा, साथ ही मैं इस संयुक्त परिवार में एक नए महाभारत का सूत्रपात भी नहीं होने देना चाहता था.

सवेरे अस्पताल में मेरे कमरे के आगे रमेश मेरे इंतजार में खड़ा था. मैं ने दोबारा जांच का नाटक करते हुए उसे बताया, ‘‘अभी तुम्हें आपरेशन की कोई जरूरत नहीं है. इस में नस इतनी सटी हुई है कि आपरेशन करने में उस के कट जाने का खतरा है. साथ ही, तुम्हारे खून की रिपोर्ट के मुताबिक खून ज्यादा बहने का भी खतरा है. इतना छोटा हाइड्रोसिल दवा से ठीक हो जाएगा और अगर तुम्हारे चाचा आपरेशन कराने के लिए फिर किसी दूसरे अस्पताल में तुम्हें ले जाएं, तो हरगिज मत जाना. इस नसबंदी के दौर में तुम्हारा भी शिकार हो जाएगा.’’

झूठ का सहारा लेते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘शादी के बाद भी कई बार छोटा हाइड्रोसिल अपनेआप ठीक हो जाता है. दवा का यह पुरजा लो और चुपचाप तुरंत भाग जाओ. बस से तुम्हारे गांव का 2 घंटे का रास्ता है.’’

उसे जाते हुए देख कर मुझे तसल्ली हुई.

बात आईगई हो गई. प्रमोशन पाते हुए विभागाध्यक्ष के पद से साल 2003 में रिटायर होने के बाद मैं अपने निजी अस्पताल के जरीए मरीजों की सेवा में जुड़ गया था.

एक दिन एक बूढ़े होते आदमी एक बूढ़ी औरत को दिखाने के लिए मेरे कमरे में दाखिल हुआ. बूढ़ी औरत सफेद कपड़ों में, तुलसी की माला पहने हुए, साध्वी सी लग रही थी.

अपना परिचय देते हुए उस आदमी ने 28 साल पहले की घटना को याद दिलाया.

सारा घटनाक्रम मेरी आंखों के सामने तैर गया और आगे की घटना जानने की उत्सुकता जाग गई.

रमेश ने बताया कि अस्पताल से जाने के बाद चाचा ने उस का आपरेशन कराने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन नहीं करवाने की उस की जिद के आगे उन की एक न चली. चाचा उस को बराबर अपने साथ रखते थे. शादी के पहले उस के ऊपर जानलेवा हमला भी हुआ था. भाग कर उस ने किसी तरह जान बचा ली.

हल्ला था कि यह हमला चाचा ने ही करवाया था. 4 साल बाद ही चाचा की किसी ने हत्या कर दी थी. वे राजनीति में बहुत उलझ गए थे. उन्होंने बहुतों से दुश्मनी मौल ले ली थी.’’

उन दिनों उस गांव में लगने वाले नसबंदी कैंपों में मुझे कई बार जाने का मौका मिला था. मुझे वह गांव बहुत अच्छा लगता था. खुशहाल किसानों की बस्ती थी. खूब हरियाली थी. सारे खेत फसलों से लहलहाते रहते थे, इसलिए मैं ने रमेश से वहां का हाल पूछा.

उस ने कहना शुरू किया, ‘‘वह अब गांव नहीं रहा. छोटामोटा शहर बन गया है. पहले बारिश अनुकूल रहती थी. अब मौसम बदल गया है. सरकारी सिंचाई की कोई व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है. पंप है तो बिजली नहीं. जिस किसान के पास अपना जनरेटर पंप जैसे सभी साधन हैं, उस की पैदावार ठीक है. खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते, सब गांव छोड़ रहे हैं. उग्रवाद का बोलबाला हो गया है. उन के द्वारा तय लेवी दे कर छुटकारा मिलता है. जो थोड़े अमीर हैं, वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए बाहर भेज देते हैं और फिर वे किसी शहर में भले ही छोटीमोटी नौकरी कर लें, लेकिन गांव आना नहीं चाहते.’’

हैरानी जताते हुए मैं ने कहा, ‘‘मुझे तो तुम्हारा गांव इतना अच्छा लगा था कि मैं ने सोचा था कि रिटायरमैंट के बाद वहीं जा कर बसूंगा.’’

यह सुनते ही रमेश चेतावनी देने की मुद्रा में बोला, ‘‘भूल कर भी ऐसा नहीं करें सर. डाक्टरों के लिए वह जगह बहुत ही खतरनाक है. ब्लौक अस्पताल तो पहले से था ही, बाद में रैफरल अस्पताल भी खुल गया.

शुरू में सर्जन, लेडी डाक्टर सब आए थे, पर माहौल ठीक नहीं रहने से अब कोई आना नहीं चाहता है. जो भी डाक्टर आते हैं, 2-4 महीने में बदली करवा लेते हैं या नौकरी छोड़ कर चल देते हैं.

‘‘सर्जन लोगों के लिए तो फौजदारी मामला और भी मुसीबत है. इंजरी रिपोर्ट मनमाफिक लिखवाने के लिए उग्रवादी डाक्टर को ही उड़ा देने की धमकी देते हैं. वहां ढंग का कोई डाक्टर नहीं है. 2 झोलाछाप डाक्टर हैं, जो अंगरेजी दवाओं से इलाज करते हैं.

‘‘हम लोगों को तब बहुत खुशी हुई थी, जब हमारे गांव के ही एक परिवार का लड़का डाक्टरी पढ़ कर आया था. उस की पत्नी भी डाक्टर थी. दोनों में ही सेवा का भाव बहुत ज्यादा था. सब से ज्यादा सुविधा औरतों को हो गई थी.

2 साल में ही उन का बहुत नाम हो गया था. मां तो उन की पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं और बाद में पिता भी नहीं रहे. जमीन बेच कर अपने मातापिता की याद में एक अस्पताल भी बनवा रहा था. लेकिन उन से भी लेवी की मांग शुरू हो गई, तो वे औनेपौने दाम में सब बेच कर विदेश चले गए.’’

शहर के नजदीक इतने अच्छे गांव को भी चिकित्सा सुविधा की कमी का दंश झेलने की बात सुन कर सिवा अफसोस के मैं और कर क्या सकता था? बात बदलते हुए मैं ने कहा, ‘‘अच्छा, घर का हाल बताओ.’’

उस ने बताया, ‘‘चाचा के जाने के बाद घर में कलह बहुत बढ़ गई थी. हम लोगों के हिस्से की कमाई भी वे ही लोग उठा रहे थे, इसलिए वे जायदाद का बंटवारा नहीं चाहते थे.

‘‘मेरे मामा वकील हैं. उन के दबाव से बंटवारा हुआ. चाचा ने धोखे से मां के दस्तखत के कुछ दस्तावेज भी बनवा लिए थे. उस के आधार पर मेरे हिस्से में कम जायदाद आई.’’

मां अब तक आंखें बंद कर के सुन रही थीं, लेकिन अब चुप्पी तोड़ते हुए वे बोलीं, ‘‘हां डाक्टर साहब, वे मेरे पिता के समान थे. वे भी बेटी की तरह मानते थे. बैंक के कागज, लगान के कागज, तो कभी कोई सरकारी नोटिस आता रहता था. मैं मैट्रिक पास हूं, फिर भी मैं उन की इज्जत करते हुए, जहां वे कहते दस्तखत कर देती थी. कब उन्होंने उस दस्तावेज पर दस्तखत करवा लिए, पता नहीं.

‘‘मैं ने अपने बेटे को उस समय शांत रखा, नहीं तो कुछ भी हो सकता था. उसे बराबर समझाती थी कि संतोष धन से बड़ा कुछ नहीं होता है. है तो वह मेरा ही परिवार, लेकिन कहने में दुख लगता है कि चारों बेटे थोड़े भी सुखी नहीं हैं. पूरे परिवार में दिनरात कलह रहती है. उन में भी आपस में बंटवारा हो गया है. उन की खेतीगृहस्थी सब चौपट हो गई है. उन का कोई बालबच्चा भी काम लायक नहीं निकला.

‘‘एक पोता राशन की कालाबाजारी के आरोप में जेल में है, वहीं एक घर से भाग कर उग्रवादी बन गया है. कहने में शर्म आती है कि एक पोती भी घर से भाग गई. मुझे कोई बैर नहीं है उन से. मैं उन के परिवार के अभिभावक का फर्ज निभाती हूं. जो बन पड़ता है, हम लोग बराबर मदद करते रहते हैं. सब से छोटा बेटा, जो रमेश से 2 साल बड़ा है, हम लोगों से बहुत सटा रहता था. वह बीए तक पढ़ा भी. उस को हम लोगों ने खेतीबारी के सामान की दुकान खुलवा दी है.’’

फिर उन्होंने मुझे नसीहत देते हुए कहा, ‘‘डाक्टर साहब, सुखी रहने के लिए 3 बातों पर ध्यान देना जरूरी है. कभी भी किसी का हक नहीं मारना चाहिए. दूसरे का सुख छीन कर कभी कोई सुखी नहीं हो सकता.

दूसरी बात, किसी दूसरे का न तो बुरा सोचो और न बुरा करो. और तीसरी बात है स्वस्थ जीवनचर्या का पालन. सेहतमंद आदमी ही अपने लिए, समाज के लिए और देश के लिए कुछ कर सकता है…’’ इतना कह कर वे चुप हो गईं.

हाइड्रोसिल के आपरेशन के बारे में मेरे पूछने पर रमेश ने बताया कि अभी तक उस ने नहीं करवाया?है, लेकिन अब करवाना चाहता है. पहले धीरेधीरे बढ़ रहा था, लेकिन पिछले 2 साल में बहुत बड़ा हो गया है.

उस के 3 बच्चे भी हैं. 1 बेटा और 2 बेटी. सभी सैटल कर चुके हैं. बेटा एग्रीकल्चर पास कर के उन्नत वैज्ञानिक खेती में जुट गया है. पत्नी का बहुत पहले ही आपरेशन हो चुका है. फिर हंसते हुए वह बोला, ‘‘अब नस कट जाने की भी कोई चिंता नहीं है.’’

मैडिकल कालेज अस्पताल से मेरे बारे में जानकारी ले कर अपनी मां को दिखाने वह यहां तक पहुंच पाया है. उस की मां तकरीबन 70 साल की थीं. उन्हें पित्त में पथरी थी, जिस का आपरेशन कर दिया गया.

छुट्टी होने के बाद मांबेटा धन्यवाद देने मेरे कमरे में दाखिल हुए. रमेश ने अपने आपरेशन के लिए समय तय किया. फिर उस समय आपरेशन न करने और उस तरह की कड़ी हिदायत देने की वजह जानने की जिज्ञासा प्रकट की.

मैं ने कहा, ‘‘तो सुनो, तुम्हारे चाचा उस आपरेशन के साथ तुम्हारी नसबंदी करने के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे थे. काफी पैसों का लालच भी दिया था. उन्होंने मुझे गलत जानकारी दी थी कि तुम्हारे 3 बच्चे हैं.

उस शाम तुम से बात होने के बाद मुझे अंदाजा हो गया था कि उन की नीयत ठीक नहीं थी. वे तुम्हें बेऔलाद बना कर तुम्हारे हिस्से की जायदाद को हड़पने की योजना बना रहे थे.’’

मेरी बात सुन कर दोनों ही सन्न रह गए. माताजी तो मेरे पैरों पर गिर पड़ीं, ‘‘डाक्टर साहब, आप ने मेरे वंश को बरबाद होने से बचा लिया.’’

मैं ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘बहनजी, आप मेरे से बहुत बड़ी हैं. पैर छू कर मुझे पाप का भागी न बनाएं. मुझे खुशी है कि एक डाक्टर की सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का मुझे मौका मिला और आप के आशीर्वाद से मैं कामयाब हो पाया.’’

लेखक – डा. मधुकर एस. भट्ट

Family Story : निकम्मा बाप

Family Story : जसदेव जब भी अपने गांव के बाकी दोस्तों को दूसरे शहर में जा कर नौकरी कर के ज्यादा पैसे कमाते हुए देखता तो उस के मन में भी ऐसा करने की इच्छा होती.

एक दिन जसदेव और शांता ने फैसला कर ही लिया कि वे दोनों शहर जा कर खूब मेहनत करेंगे और वापस अपने गांव आ कर अपने लिए एक पक्का घर बनवाएंगे.

शांता और जसदेव अभी कुछ ही महीने पहले शादी के बंधन में बंधे थे. जसदेव लंबीचौड़ी कदकाठी वाला, गोरे रंग का मेहनती लड़का था. खानदानी जायदाद तो थी नहीं, पर जसदेव की पैसा कमाने के लिए मेहनत और लगन देख कर शांता के घर वालों ने उस का हाथ जसदेव को दे दिया था.

शांता भी थोड़े दबे रंग की भरे जिस्म वाली आकर्षक लड़की थी.

अपने गांव से कुछ दूर छोटे से शहर में पहुंच कर सब से पहले तो जसदेव के दोस्तों ने उसे किराए पर एक कमरा दिलवा दिया और अपने ही मालिक ठेकेदार लखपत चौधरी से बात कर मजदूरी पर भी रखवा लिया. अब जसदेव और शांता अपनी नई जिंदगी की शुरुआत कर चुके थे.

थोड़े ही दिनों में शांता ने अपनी पहली बेटी को जन्म दिया. दोनों ने बड़े प्यार से उस का नाम रवीना रखा.

मेहनतमजदूरी कर के अपना भविष्य बनाने की चाह में छोटे गांवकसबों से आए हुए जसदेव जैसे मजदूरों को लूटने वालों की कोई कमी नहीं थी.

ठेकेदार लखपत चौधरी का एक बिगड़ैल बेटा भी था महेश. पिता की गैरहाजिरी में बेकार बैठा महेश साइट पर आ कर मजदूरों के सिर पर बैठ जाता था.

सारे मजदूर महेश से दब कर रहते थे और ‘महेश बाबू’ के नाम से बुलाया करते थे, शायद इसलिए क्योंकि महेश एक निकम्मा इनसान था, जिस की नजर हमेशा दूसरे मजदूरों के पैसे और औरतों पर रहती थी.

जसदेव की अपने काम के प्रति मेहनत और लगन को देख कर महेश ने अब उसे अपना अगला शिकार बनाने की ठानी. महेश ने उसे अपने साथ बैठा कर शराब और जुए की ऐसी लत लगवाई कि पूछो ही मत. जसदेव भी अब शहर की चमकधमक में रंग चुका था.

महेश ने धोखे से 1-2 बार जसदेव को जुए में जितवा दिया, ताकि लालच में आ कर वह और ज्यादा पैसे दांव पर लगाए.

महेश अब जसदेव को साइट पर मजदूरी नहीं करने देता था, बल्कि अपने साथ कार में घुमाने लगा था.

शराब और जुए के अलावा अब एक और चीज थी, जिस की लत महेश जसदेव को लगवाना चाहता था ‘धंधे वालियों के साथ जिस्मफरोशी की लत’, जिस के लिए वह फिर शुरुआत में अपने रुपए खर्च करने को तैयार था.

महेश जसदेव को अपने साथ एक ऐसी जगह पर ले कर गया, जहां कई सारी धंधे वालियां जसदेव को अपनेअपने कमरों में खींचने को तैयार थीं, पर जसदेव के अंदर का आदर्श पति अभी बाकी था और शायद इसी वजह से उस ने इस तोहफे को ठुकरा दिया.

महेश को चिंता थी कि कहीं नया शिकार उस के हाथ से निकल न जाए, यही सोच कर उस ने भी जसदेव पर ज्यादा दबाव नहीं डाला.

उस रात घर जा कर जसदेव अपने साथ सोई शांता को दबोचने की कोशिश करने लगा कि तभी शांता ने उसे खुद से अलग करते हुए कहा, ‘‘आप भूल गए हैं क्या? मैं ने बताया था न कि मैं फिर पेट से हूं और डाक्टर ने अभी ऐसा कुछ भी करने को मना ही किया है.’’

जसदेव गुस्से में कंबल ताने सो गया.

अगले दिन जसदेव फिर महेश बाबू के पास पहुंचा और कल वाली जगह पर चलने को कहा.

महेश मन ही मन खुश था. एक बार धंधे वाली का स्वाद चखने के बाद जसदेव को अब इस की लत लग चुकी थी. इस बीच महेश बिचौलिया बन कर मुनाफा कमा रहा था.

जसदेव की तकरीबन ज्यादातर कमाई अपनी इस काम वासना में खर्च हो जाती थी और बाकी रहीसही जुए और शराब में.

जसदेव के दोस्तों को महेश बाबू की आदतों के बारे में अच्छी तरह से मालूम था. उन्होंने जसदेव को कई बार सचेत भी किया, पर महेश बाबू की मीठीमीठी बातों ने जसदेव का विश्वास बहुत अच्छी तरह से जीत रखा था.

पैसों की कमी में जसदेव और शांता के बीच रोजाना झगड़े होने लगे थे. शांता को अब अपना घर चलाना था, अपने बच्चों का पालनपोषण भी करना था.

10वीं जमात में पढ़ने वाली रवीना के स्कूल की फीस भी कई महीनों से नहीं भरी गई थी, जिस के लिए उसे अब जसदेव पर निर्भर रहने के बजाय खुद के पैरों पर खड़ा होना ही पड़ा.

शांता ने अपनी चांदी की पायल बेच कर एक छोटी सी सिलाई मशीन खरीद ली और अपने कमरे में ही एक छोटा सा सिलाई सैंटर खोल दिया. आसपड़ोस की औरतें अकसर उस से कुछ न कुछ सिलवा लिया करती थीं, जिस के चलते शांता और उस के परिवार की दालरोटी फिर से चल पड़ी.

जसदेव की आंखों में शांता का काम करना खटकने लगा. वह शांता के बटुए से पैसे निकाल कर ऐयाशी करने लगा और कभी शांता के पैसे न देने पर उसे पीटपीट कर अधमरा भी कर दिया करता था.

शांता इतना कुछ सिर्फ अपनी बेटी रवीना की पढ़ाई पूरी करवाने के लिए सह रही थी, क्योंकि शांता नहीं चाहती थी कि उस की बेटी को भी कोई ऐसा पति मिल जाए जैसा उसे मिला है.

बेटी रवीना के स्कूल की फीस पिछले 10 महीनों से जमा नहीं की गई थी, जिस के चलते उस का नाम स्कूल से काट दिया गया.

स्कूल छूटने के गम और जसदेव और शांता के बीच रोजरोज के झगड़े से उकताई रवीना ने सोच लिया कि अब वह अपनी मां को अपने बापू के साथ रहने नहीं देगी.

अभी जसदेव घर पर नहीं आया था. रवीना ने अपनी मां शांता से अपने बापू को तलाक देने की बात कही, पर गांव की पलीबढ़ी शांता को छोटी बच्ची रवीना के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगीं.

शांता ने रवीना को समझाया, ‘‘तू अभी पाप की इन बातों पर ध्यान मत दे. वह सब मैं देख लूंगी. भला मुझे कौन सा इस शहर में जिंदगीभर रहना है. एक बार तू पढ़लिख कर नौकरी ले ले, फिर तो तू ही पालेगी न अपनी बूढ़ी मां को…’’

‘‘मैं अब कैसे पढ़ूंगी मां? स्कूल वालों ने तो मेरा नाम भी काट दिया है. भला काटे भी क्यों न, उन्हें भी तो फीस चाहिए,’’ रवीना की इस बात ने शांता का दिल झकझोर दिया.

रात के 11 बजे के आसपास अभी शांता की आंख लगी ही थी कि किसी ने कमरे के दरवाजे को पकड़ कर जोरजोर से हिलाना शुरू कर, ‘‘शांता, खोल दरवाजा. जल्दी खोल शांता… आज नहीं छोड़ेंगे मुझे ये लोग शांता…’’

दरवाजे पर जसदेव था. शांता घबरा गई कि भला इस वक्त क्या हो गया और कौन मार देगा.

शांता ने दरवाजे की सांकल हटाई और जसदेव ने फौरन घर में घुस कर अंदर से दरवाजे पर सांकल चढ़ा दी और घर की कई सारी भारीभरकम चीजें दरवाजे के सामने रखने लगा.

जसदेव के चेहरे की हवाइयां उड़ी हुई थीं. वह ऊपर से नीचे तक पसीने में तरबतर था. जबान लड़खड़ा रही थी, मुंह सूख गया था.

‘‘क्या हुआ? क्या कर दिया? किस की जेब काटी? किस के गले में झपट्टा मारा?’’ शांता ने एक के बाद एक कई सवाल दागने शुरू कर दिए.

जसदेव पर शांता के सवालों का कोई असर ही नहीं हो रहा था, वह तो सिर्फ अपनी गरदन किसी कबूतर की तरह इधर से उधर घुमाए जा रहा था, मानो चारदीवारी में से बाहर निकलने के लिए कोई सुरंग ढूंढ़ रहा हो.

‘‘क्या हुआ? बताओ तो सही? और कौन मार देगा?’’ शांता ने चिंता भरी आवाज में पूछा.

जसदेव ने शांता के मुंह पर अपना हाथ रख कर उसे चुप रहने को कहा.

शांता को इस से पहले कि कुछ समझ में आता, इस बार कई सारे आदमी शांता के दरवाजे को उखाड़ने की कोशिश में लग गए. उन की बातों से यह तो साफ था कि वह जसदेव को अपने साथ उठा ले जाने आए थे या फिर मारने.

दरवाजे की सांकल टूट गई, पर उस के आगे रखे ढेर सारे भारीभरकम सामान ने अभी तक दरवाजे को थामा हुआ था और शायद जसदेव की सांसों को भी.

जसदेव को कुछ समझ में नहीं आया कि शांता से क्या बताए, ऊपर से इतना शोर सुन कर उसे अपना हर एक पल अपना आखिरी पल दिखाई पड़ने लगा.

‘‘अरे, बता न क्या कर के आया है आज? इतने लोग तेरे पीछे क्यों पड़े हैं?’’ अब शांता की आवाज में गुस्सा और चिंता दोनों दिखाई पड़ रही थी, जिस के चलते जसदेव ने अपना मुंह खोला, ‘‘मैं ने कुछ नहीं… मैं ने कुछ नहीं किया शांता, मुझे क्या पता था कि वह…’’ जसदेव फिर चुप हो गया.

अब शांता जसदेव का गरीबान पकड़ कर झकझोरने लगी, ‘‘कौन है वह?’’

शांता पति से बात करने का अब अदब भी भूल चुकी थी.

‘‘आज जब मैं महेश बाबू के यहां जुआ खेलने बैठा था कि एक लड़की मुझे जबरदस्ती शराब पिलाने लगी. मैं नशे में धुत्त था कि इतने में उस लड़की ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया.

‘‘मैं कुछ समझ न पाया और बहाना बना कर जुए के अड्डे से उठ गया और सीधा उस लड़की के पास चला गया.

‘‘वह मेरा हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गई और नंगधड़ंग हो कर मुझ से सारे पाप करवा डाले, जिस का अंदाजा तुम लगा सकती हो.’’

‘‘फिर…?’’ शांता ने काफी गुस्से में पूछा.

‘‘उसी वक्त न जाने कहां से महेश बाबू उस कमरे में आ गए और गेट खटखटाना शुरू कर दिया.

‘‘जल्दी दरवाजा न खुलने की वजह से उन्होंने लातें मारमार कर दरवाजा तोड़ दिया.

‘‘दरवाजा खुलते ही वह लड़की उन से जा लिपटी और मेरे खिलाफ इलजाम लगाने लगी. मैं किसी तरह से अपनी जान बचा कर यहां आ पाया, पर शायद अब नहीं बचूंगा.’’

शांता को अब जसदेव की जान की फिक्र थी. उस ने जसदेव को दिलासा देते हुए कहा, ‘‘तुम पीछे के रास्ते से भाग जाओ और अब यहां दिखना भी मत.’’

‘‘तेरा, रवीना और तेरे पेट में पल रहे इस मासूम बच्चे का क्या…? मैं नहीं मिला, तो वे तुम लोगों को मार डालेंगे,’’ जसदेव को अब अपने बीवीबच्चों की भी फिक्र थी.

शांता ने फिर जसदेव पर गरजते हुए कहा, ‘‘तुम पागल मत बनो. वे मुझ औरत को कितना मारेंगे और मारेंगे भी तो जान से थोड़े ही न मार देंगे. अगर तुम यहां रहोगे, तो हम सब को ले डूबोगे.’’

जसदेव पीछे के दरवाजे से चोरीछिपे भाग निकला. जसदेव भाग कर कहां गया, इस का ठिकाना तो किसी को नहीं पता.

तकरीबन 2 साल बीत चुके थे. जसदेव को अब अपने बीवीबच्चों की फिक्र सताने लगी थी. उस ने सोचा कि काफी समय हो गया है और अब तक तो मामला शांत भी हो गया होगा और जो रहीसही गलतफहमी होगी, वह महेश बाबू के साथ बैठ कर सुलझा लेगा.

जसदेव ने 2 साल से अपनी दाढ़ी नहीं कटवाई थी और बाल भी काफी लंबे हो चुके थे. जसदेव ने इसे अपना नया भेष सोच कर ऐसे ही अपनी शांता और रवीना के पास जाने की योजना बनाई.

जसदेव ने शहर पहुंच कर कुछ मिठाइयां साथ ले लीं. सोचा कि बच्चों और शांता से काफी दिन बाद मिल रहा है, खाली हाथ कैसे जाए और अब तो वे नन्हा मेहमान भी राह देख रहा होगा उस की.

जसदेव ने अपने दोनों हाथों में मिठाइयों का थैला पकड़े शांता का दरवाजा खटखटाया. कमरे के बाहर नया पेंट और सजावट देख कर उसे लगा कि शांता अब अच्छे पैसे कमाने लगी है शायद.

हलका सा दरवाजा खुला और एक अनजान औरत दरवाजे से मुंह बाहर निकाल कर जसदेव से सवाल करने लगी, ‘‘आप कौन…?’’

‘‘जी, मुझे शांता से मिलना था. वह यहां रहती है न?’’ जसदेव ने पूछा.

‘‘शांता, नहीं तो भाई साहब, यहां तो कोई शांता नहीं रहती. हम तो काफी दिनों से यहां रह रहे हैं,’’ उस औरत ने हैरानी से कहा.

‘‘बहनजी, आप यहां कब आई हैं?’’ जसदेव ने उस औरत से पूछताछ करते हुए पूछा.

‘‘तकरीबन 2 साल पहले.’’

जसदेव वहां से उलटे पैर निकल गया. उस के मन में कई बुरे विचार भी आए, पर अपनेआप को तसल्ली देते हुए खुद से ही कहता रहा कि शायद शांता गांव वापस चली गई होगी. जसदेव शांता की खबर लेने शहर में रह रहे अपने दोस्तों के पास पहुंचा.

पहली नजर में तो जसदेव के बचपन का दोस्त फगुआ भी उसे पहचान नहीं पाया था, पर आवाज और कदकाठी से उसे पहचानने में ज्यादा देर नहीं लगी.

जसदेव ने समय बरबाद करना नहीं चाहा और सीधा मुद्दे पर आ कर फगुआ से शांता के बारे में पूछा, ‘‘मेरी शांता कहां है? मुझे सचसच बता.’’

फगुआ ने उस से नजरें चुराते हुए चुप रहना ही ठीक समझा. पर जसदेव के दवाब डालने पर फगुआ ने उसे अपने साथ आने को कहा. फगुआ अंदर से चप्पल पहन कर आया और जसदेव उस के पीछेपीछे चलने लगा.

कुछ दूरी तक चलने के बाद फगुआ ने जसदेव को देख कर एक घर की तरफ इशारा किया, फिर फगुआ वापस चलता बना.

फगुआ ने जिस घर की ओर इशारा किया था, वह वही कोठा था, जहां जसदेव पहले रोज जाया करता था. पर जसदेव को समझ में नहीं आया कि फगुआ उसे यहां ले कर क्यों आया है.

अगले ही पल उस ने जो देखा, उसे देख कर जसदेव के पैरों तले जमीन खिसक गई. कोठे की सीढि़यों से उतरता एक अधेड़ उम्र का आदमी रवीना की बांहों में हाथ डाले उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बैठ कर कहीं ले जाने की तैयारी में था. जसदेव भाग कर गया और रवीना को रोका. वह नौजवान मोटरसाइकिल चालू कर उस का इंतजार करने लगा.

रवीना ने पहले तो अपने बापू को इस भेष में पहचाना ही नहीं, पर फिर समझाने पर वह पहचान ही गई.

उस ने अपने बापू से बात करना भी ठीक नहीं समझा. रवीना के दिल में बापू के प्रति जो गुस्सा और भड़ास थी, उस का ज्वालामुखी रवीना के मुंह से फूट ही गया.

रवीना ने कहा, ‘‘यह सबकुछ आप की ही वजह से हुआ है. उस दिन आप तो भाग गए थे, पर उन लोगों ने मां को नोच खाया, किसी ने छाती पर झपट्टा मारा, किसी ने कपड़े फाड़े और एकएक कर मेरे सामने ही मां के साथ…’’ रवीना की आंखों से आंसू आ गए.

‘‘मां कहां है बेटी?’’ जसदेव ने चिंता भरी आवाज में पूछा.

‘‘मां तो उस दिन ही मर गईं और उन के पेट में पल रहा आप का बच्चा भी…’’ रवीना ने कहा, ‘‘मां ने मुझे भागने को कहा, पर उस से पहले ही आप के महेश बाबू ने मुझे इस कोठे पर बेच दिया.’’

रवीना इतना ही कह पाई थी कि मोटरसाइकिल वाला ग्राहक रवीना को आवाज देने लगा और जल्दी आने को कहने लगा.

रवीना उस की मोटरसाइकिल पर उस से लिपट कर निकल गई और एक बार भी जसदेव को मुड़ कर नहीं देखा.

जसदेव का पूरा परिवार ही खत्म हो चुका था और यह सब महेश बाबू की योजना के मुताबिक हुआ था, इसे समझने में भी जसदेव को ज्यादा समय नहीं लगा. बीच रोड से अपनी कीमती कार में महेश बाबू को जब उस लड़की के साथ जाते हुए देखा, जिस ने उसे फंसाया था, तब जा कर जसदेव को सारा माजरा समझ में आया कि यह महेश बाबू और इस लड़की की मिलीभगत थी, पर अब बहुत देर हो चुकी थी और कुछ
भी वापस पहले जैसा नहीं किया जा सकता था.

लेखक – हेमंत कुमार

Love Story : लव इन मालगाड़ी

Love Story : देश में लौकडाउन का ऐलान हो गया, सारी फैक्टरियां बंद हो गईं, मजदूर घर पर बैठ गए. जाएं भी तो कहां. दिहाड़ी मजदूरों की शामत आ गई. किराए के कमरों में रहते हैं, कमरे का किराया भी देना है और राशन का इंतजाम भी करना है. फैक्टरियां बंद होने पर मजदूरी भी नहीं मिली.

मंजेश बढ़ई था. उसे एक कोठी में लकड़ी का काम मिला था. लौकडाउन में काम बंद हो गया और जो काम किया, उस की मजदूरी भी नहीं मिली.

मालिक ने बोल दिया, ‘‘लौकडाउन के बाद जब काम शुरू होगा, तभी मजदूरी मिलेगी.’’

एक हफ्ते घर बैठना पड़ा. बस, कुछ रुपए जेब में पड़े थे. उस ने गांव जाने की सोची कि फसल कटाई का समय है, वहीं मजदूरी मिल जाएगी. पर समस्या गांव पहुंचने की थी, दिल्ली से 500 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के सीतापुर के पास गांव है. रेल, बस वगैरह सब बंद हैं.

तभी उस के साथ काम करने वाला राजेश आया, ‘‘मंजेश सुना है कि आनंद विहार बौर्डर से स्पैशल बसें चल रही हैं. फटाफट निकल. बसें सिर्फ आज के लिए ही हैं, कल नहीं मिलेंगी.’’

इतना सुनते ही मंजेश ने अपने बैग में कपड़े ठूंसे, उसे पीठ पर लाद कर राजेश के साथ पैदल ही आनंद विहार बौर्डर पहुंच गया.

बौर्डर पर अफरातफरी मची हुई थी. हजारों की तादाद में उत्तर प्रदेश और बिहार जाने वाले प्रवासी मजदूर अपने परिवार के संग बेचैनी से बसों के इंतजार में जमा थे.

बौर्डर पर कोई बस नहीं थी. एक अफवाह उड़ी और हजारों की तादाद में मजदूर सपरिवार बौर्डर पर जमा हो गए. दोपहर से शाम हो गई, कोई बस नहीं आई. बेबस मजदूर पैदल ही अपने गांव की ओर चल दिए.

लोगों को पैदल जाता देख मंजेश और राजेश भी अपने बैग पीठ पर लादे पैदल ही चल दिए.

‘‘राजेश, सीतापुर 500 किलोमीटर दूर है और अपना गांव वहां से 3 किलोमीटर और आगे, कहां तक पैदल चलेंगे और कब पहुंचेंगे…’’ चलतेचलते मंजेश ने राजेश से कहा.

‘‘मंजेश, तू जवान लड़का है. बस 10 किलोमीटर के सफर में घबरा गया. पहुंच जाएंगे, चिंता क्यों करता है. यहां सवारी नहीं है, आगे मिल जाएगी. जहां की मिलेगी, वहां तक चल पड़ेंगे.’’

मंजेश और राजेश की बात उन के साथसाथ चलते एक मजदूर परिवार ने सुनी और उन को आवाज दी, ‘‘भैयाजी क्या आप भी सीतापुर जा रहे हैं?’’

सीतापुर का नाम सुन कर मंजेश और राजेश रुक गए. उन के पास एक परिवार आ कर रुक गया, ‘‘हम भी सीतापुर जा रहे हैं. किस गांव के हो?’’

मंजेश ने देखा कि यह कहने वाला आदमी 40 साल की उम्र के लपेटे में होगा. उस की पत्नी भी हमउम्र लग रही थी. साथ में 3 बच्चे थे. एक लड़की तकरीबन 18 साल की, उस से छोटा लड़का तकरीबन 15 साल का और उस से छोटा लड़का तकरीबन 13 साल का.

‘‘हमारा गांव प्रह्लाद है, सीतापुर से 3 किलोमीटर आगे है,’’ मंजेश ने अपने गांव का नाम बताया और उस आदमी से उस के गांव का नाम पूछा.

‘‘हमारा गांव बसरगांव है. सीतापुर से 5 किलोमीटर आगे है. हमारे गांव आसपास ही हैं. एक से भले दो. बहुत लंबा सफर है. सफर में थोड़ा आराम रहेगा.’’

‘‘चलो साथसाथ चलते हैं. जब जाना एक जगह तो अलगअलग क्यों,’’ मंजेश ने उस से नाम पूछा.

‘‘हमारा नाम भोला प्रसाद है. ये हमारे बीवीबच्चे हैं.’’

मंजेश की उम्र 22 साल थी. उस की नजर भोला प्रसाद की बेटी पर पड़ी और पहली ही नजर में वह लड़की मंजेश का कलेजा चीर गई. मंजेश की नजर उस पर से हट ही नहीं रही थी.

‘‘भोला अंकल, आप ने बच्चों के नाम तो बताए ही नहीं?’’ मंजेश ने अपना और राजेश का नाम बताते हुए पूछा.

‘‘अरे, मंजेश नाम तो बहुत अच्छा है. हमारी लड़की का नाम ममता है. लड़कों के नाम कृष और अक्षय हैं.’’

मंजेश को लड़की का नाम जानना था, ममता. बहुत बढि़या नाम. उस का नाम भी म से मंजेश और लड़की का नाम भी म से ममता. नाम भी मैच हो गए.

मंजेश ममता के साथसाथ चलता हुआ तिरछी नजर से उस के चेहरे और बदन के उभार देख रहा था. उस के बदन के आकार को देखता हुआ अपनी जोड़ी बनाने के सपने भी देखने लगा.

मंजेश की नजर सिर्फ ममता पर टिकी हुई थी. ममता ने जब मंजेश को अपनी ओर निहारते देखा, उस के दिल में भी हलचल होने लगी. वह भी तिरछी नजर से और कभी मुड़ कर मंजेश को देखने लगी.

मंजेश पतले शरीर का लंबे कद का लड़का है. ममता थोड़े छोटे कद की, थोड़ी सी मोटी भरे बदन की लड़की थी. इस के बावजूद कोई भी उस की ओर खिंच जाता था.

चलतेचलते रात हो गई. पैदल सफर में थकान भी हो रही थी. सभी सड़क के किनारे बैठ गए. अपने साथ घर का बना खाना खाने लगे. कुछ देर के लिए सड़क किनारे बैठ कर आराम करने लगे.

जब दिल्ली से चले थे, तब सैकड़ों की तादाद में लोग बड़े जोश से निकले थे, धीरेधीरे सब अलगअलग दिशाओं में बंट गए. कुछ गिनती के साथी अब मंजेश के साथ थे. दूर उन्हें रेल इंजन की सीटी की आवाज सुनाई दी. मंजेश और राजेश सावधान हो कर सीटी की दिशा में कान लगा कर सुनने लगे.

‘‘मंजेश, रेल चल रही है. यह इंजन की आवाज है,’’ राजेश ने मंजेश से कहा.

‘‘वह देख राजेश, वहां कुछ रोशनी सी है. रेल शायद रुक गई है. चलो, चलते हैं,’’ सड़क के पास नाला था, नाला पार कर के रेल की पटरी थी, वहां एक मालगाड़ी रुक गई थी.

‘‘राजेश उठ, इसी रेल में बैठते हैं. कहीं तो जाएगी, फिर आगे की आगे सोचेंगे. भोला अंकल जल्दी करो. अभी रेल रुकी हुई है, पकड़ लेते हैं,’’ मंजेश के इतना कहते ही सभी गोली की रफ्तार से उठे और रेल की ओर भागे. उन को देख कर आतेजाते कुछ और मजदूर भी मालगाड़ी की ओर लपके. जल्दबाजी में सभी नाला पार करते हुए मालगाड़ी की ओर दौड़े, कहीं रेल चल न दे.

ममता नाले का गंदा पानी देख थोड़ा डर गई. मंजेश ने देखा कि कुछ दूर लकड़ी के फट्टों से नाला पार करने का रास्ता है. उस ने ममता को वहां से नाला पार करने को कहा. लकड़ी के फट्टे थोड़े कमजोर थे, ममता उन पर चलते हुए डर रही थी.

मंजेश ने ममता का हाथ पकड़ा और बोला, ‘‘ममता डरो मत. मेरा हाथ पकड़ कर धीरेधीरे आगे बढ़ो.’’

मंजेश और ममता एकदूसरे का हाथ थामे प्यार का एहसास करने लगे.

राजेश, ममता का परिवार सभी तेज रफ्तार से मालगाड़ी की ओर भाग रहे थे. इंजन ने चलने की सीटी बजाई. सभी मालगाड़ी पर चढ़ गए, सिर्फ ममता और मंजेश फट्टे से नाला पार करने के चलते पीछे रह गए थे. मालगाड़ी हलकी सी सरकी.

‘‘ममता जल्दी भाग, गाड़ी चलने वाली है,’’ ममता का हाथ थामे मंजेश भागने लगा. मालगाड़ी की रफ्तार बहुत धीमी थी. मंजेश मालगाड़ी के डब्बे पर लगी सीढ़ी पर खड़ा हो गया और ममता का हाथ पकड़ कर सीढ़ी पर खींचा.

एक ही सीढ़ी पर दोनों के जिस्म चिपके हुए थे, दिल की धड़कनें तेज होने लगीं. दोनों धीरेधीरे हांफने लगे.

तभी एक झटके में मालगाड़ी रुकी. उस झटके से दोनों चिपक गए, होंठ चिपक गए, जिस्म की गरमी महसूस करने लगे. गाड़ी रुकते ही मंजेश

सीढ़ी चढ़ कर डब्बे की छत पर पहुंच गया. ममता को भी हाथ पकड़ कर ऊपर खींचा.

मालगाड़ी धीरेधीरे चलने लगी. मालगाड़ी के उस डब्बे के ऊपर और कोई नहीं था. राजेश और ममता के परिवार वाले दूसरे डब्बों के ऊपर बैठे थे.

भोला प्रसाद ने ममता को आवाज दी. ममता ने आवाज दे कर अपने परिवार को निश्चित किया कि वह पीछे उसी मालगाड़ी में है.

मालगाड़ी ठीकठाक रफ्तार से आगे बढ़ रही थी. रात का अंधेरा बढ़ गया था. चांद की रोशनी में दोनों एकदूसरे को देखे जा रहे थे. ममता शरमा गई. उस ने अपना चेहरा दूसरी ओर कर लिया.

‘‘ममता, दिल्ली में कुछ काम करती हो या फिर घर संभालती हो?’’ एक लंबी चुप्पी के बाद मंजेश ने पूछा.

‘‘घर बैठे गुजारा नहीं होता. फैक्टरी में काम करती हूं,’’ ममता ने बताया.

‘‘किस चीज की फैक्टरी है?’’

‘‘लेडीज अंडरगारमैंट्स बनाने की. वहां ब्रापैंटी बनती हैं.’’

‘‘बाकी क्या काम करते हैं?’’

‘‘पापा और भाई जुराब बनाने की फैक्टरी में काम करते हैं. मम्मी और मैं एक ही फैक्टरी में काम करते हैं. सब से छोटा भाई अभी कुछ नहीं करता है, पढ़ रहा है. लेकिन पढ़ाई में दिल नहीं लगता है. उस को भी जुराब वाली फैक्टरी में काम दिलवा देंगे.

‘‘तुम क्या काम करते हो, मेरे से तो सबकुछ पूछ लिया,’’ ममता ने मंजेश से पूछा.

‘‘मैं कारपेंटर हूं. लकड़ी का काम जो भी हो, सब करता हूं. अलमारी, ड्रैसिंग, बैड, सोफा, दरवाजे, खिड़की सब बनाता हूं. अभी एक कोठी का टोटल वुडवर्क का ठेका लिया है, आधा काम किया है, आधा पैंडिंग पड़ा है.’’

‘‘तुम्हारे हाथों में तो बहुत हुनर है,’’ ममता के मुंह से तारीफ सुन कर मंजेश खुश हो गया.

चलती मालगाड़ी के डब्बे के ऊपर बैठेबैठे ममता को झपकी सी आ गई और उस का बदन थोड़ा सा लुढ़का, मंजेश ने उस को थाम लिया.

‘‘संभल कर ममता, नीचे गिर सकती हो.’’

मंजेश की बाहों में अपने को पा कर कुछ पल के लिए ममता सहम गई, फिर अपने को संभालती हुई उस ने नीचे झांक कर देखा ‘‘थैंक यू मंजेश, तुम ने बांहों का सहारा दे कर बचा लिया, वरना मेरा तो चूरमा बन जाता.’’

‘‘ममता, एक बात कहूं.’’

‘‘कहो.’’

‘‘तुम मुझे अच्छी लग रही हो.’’

मंजेश की बात सुन कर ममता चुप रही. वह मंजेश का मतलब समझ गई थी. चुप ममता से मंजेश ने उस के दिल की बात पूछी, ‘‘मेरे बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’’

ममता की चुप्पी पर मंजेश मुसकरा दिया, ‘‘मैं समझ गया, अगर पसंद नहीं होता, तब मना कर देती.’’

‘‘हां, देखने में तो अच्छे लग रहे हो.’’

‘‘मेरा प्यार कबूल करती हो?’’

‘‘कबूल है.’’

मंजेश ने ममता का हाथ अपने हाथों में लिया, आगे का सफर एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले कट गया.

लखनऊ स्टेशन पर मंजेश, ममता, राजेश और ममता का परिवार मालगाड़ी से उतर कर आगे सीतापुर के लिए सड़क के रास्ते चल पड़ा.

सड़क पर पैदल चलतेचलते मंजेश और ममता मुसकराते हुए एकदूसरे को ताकते जा रहे थे.

ममता की मां ने ममता को एक किनारे ले जा कर डांट लगाई, ‘‘कोई लाजशर्म है या बेच दी. उस को क्यों घूर रही है, वह भी तेरे को घूर रहा?है. रात गाड़ी के डब्बे के ऊपर क्या किया?’’

‘‘मां, कुछ नहीं किया. मंजेश अच्छा लड़का है.’’

‘‘अच्छा क्या मतलब?’’ ममता की मां ने उस का हाथ पकड़ लिया.

ममता और मां के बीच की इस बात को मंजेश समझ गया. वह भोला प्रसाद के पास जा कर अपने दिल की बात कहने लगा, ‘‘अंकल, हमारे गांव आसपास हैं. आप मेरे घर चलिए, मैं अपने परिवार से मिलवाना चाहता हूं.’’

मंजेश की बात सुन कर भोला प्रसाद बोला, ‘‘वह तो ठीक है, पर क्यों?

‘‘अंकल, मुझे ममता पसंद है और मैं उस से शादी करना चाहता हूं. हमारे परिवार मिल कर तय कर लें, मेरी यही इच्छा है.’’

मंजेश की बात सुन कर ममता की मां के तेवर ढीले हो गए और वे मंजेश के घर जाने को तैयार हो गए.

लौकडाउन जहां परेशानी लाया है, वहीं प्यार भी लाया है. मंजेश और ममता का प्यार मालगाड़ी में पनपा.

सभी पैदल मंजेश के गांव की ओर बढ़ रहे थे. ममता और मंजेश हाथ में हाथ डाले मुसकराते हुए एक नए सफर की तैयारी कर रहे थे.

Family Story : नरगिस

लेखक – मनोज शर्मा, Family Story : घर की दहलीज पर चांदनी हाथ बांधे खड़ी थी. सामने आतेजाते लोगों में अपनी शाम ढूंढ़ रही थी. कोई दूर से देख लेता तो एक पल के लिए दिल मचल जाता, पर उसे वापस लौटते देखते ही सारी उम्मीदें टूट जातीं.

लौकडाउन से पहले ही आखिरी बार कोई आया था शायद…वह बंगाली, जिस के पास पूरे पैसे तक नहीं थे, फिर अगली बार रुपए देने का वादा कर के सिर्फ 50 का नोट ही थमा गया था.

उस रोज ही नहीं, बल्कि उस से पहले से ही लगने लगा था कि अब इस धंधे में भी चांदनी जैसी अधेड़ औरतों के लिए कुछ नहीं रखा, पर उम्र के इस पड़ाव पर कहां जाएं? उम्र का एकतिहाई हिस्सा तो यहीं निकल गया. सारी जवानी, सारे सपने इसी धंधे में खाक हो चुके हैं. अब तो यही नरक उस का घर है.

कभी जब चांदनी कुछ खूबसूरत थी, सबकुछ जन्नत लगता था. हर कोई उस की गदराई जवानी पर मचल जाता था. पैसे की चाह में सब की रात रंगीन करना कितना अच्छा लगता था.

पर, अब तो जिंदगी जहन्नुम बन चुकी है. लौकडाउन में पहले कुछ दिन बीते, फिर हफ्ते और अब तो महीने. यहां कई दिनों से फांके हैं. कैसे जी रही है, चांदनी खुद ही जानती है. सरकार कुछ नहीं करती इस के लिए. न अनाज का दाना है अब और न ही फूटी कौड़ी. कोई फटकता तक नहीं है अब.

जब चांदनी नईनई आई थी, तब बात ही अलग थी. 12 साल पहले, पर ठीक से याद नहीं. वे भी क्या दिन थे, जब दर्जनों ड्रैस और हर ड्रैस एक से बढ़ कर एक फूलों से सजी. कभी गुलाबी, कभी सुनहरी और कभी लाल. कभी रेशमी साड़ी या मखमली लाल चमकीला गाउन.

रोजरोज भोजन में 3 किस्म की तरकारी, ताजा मांस, बासमती पुलाव, पूरीनान. क्या स्वाद था, क्या खुश थी. घर पर पैसा पहुंचता था, तो वहां भी चांदनी की तूती बोलती थी. नएनए कपड़े, साजोसामान के क्या कहने थे. बस राजकुमारी सी फीलिंग रहती थी.

हर ग्राहक की पहली पसंद उन दिनों चांदनी ही थी और दाम भी मनचाहा. जितना मांगो उतना ही. और कई बार तो डबल भी. हर शिफ्ट में लोग उस का ही साथ मांगते थे. सोने तक नहीं देते थे रातभर. और वह बूढ़ा तो सबकुछ नोच डालता था और फिर निढाल हो कर पड़ जाता था. वे कालेज के लड़के तो शनिवार की शाम ही आते थे, पर मौका पाते ही चिपट जाते थे. हां, पर एक बात तो थी, अगर शरीर चाटते थे तो पैसा भी मिलता था और फिर कुछ घंटों में ही हजारों रुपए.

आज देह भी काम की नहीं रही और एक धेला तक साथ में नहीं. शक्ल ही बदल गई, जैसे कोई पहचानता ही न हो. बूढ़ा बंगाली या गुटका खाता वह ट्रक ड्राइवर या 2-4 और उसी किस्म के लोग, बस वही दोचार दिनों में. सब मुफ्तखोर हैं. मुफ्त में सब चाहते हैं. अब यहां कुछ भी नहीं बचा. यह तो जिंदगी का उसूल है कि जब तक किसी से कोई गर्ज हो, फायदा हो, तभी तक उस से वास्ता रखते हैं, वरना किसी की क्या जरूरत.

अब तो कालेज के छोकरे चांदनी की सूरत देखते ही फूहड़ता से हंसने लगते हैं, पास आना तो दूर रहा. 100-50 में भी शायद अब कोई इस शरीर को सूंघे. आंखें यह सब सोचते हुए धरती में गढ़ गईं. चांदनी रेलिंग पर हथेली टिकाए सुनसान सड़क को देखती रहती है.

कितना बड़ा घर था, पर अब समय के साथसाथ इसे छोटा और अलहदा छोड़ दिया गया है. कभी यह बीच में होता था. जब सारी आंखें चांदनी को हरपल खोजती थीं, पर अब इसे काट कर या मरम्मत कर एक ओर कर दिया है, ताकि चांदनी जवान और पैसे वाले ग्राहकों के सामने न आ सके, शायद ही कभीकभार कोई आंखें इस ओर घूरती हैं.

और फिर गलती से यहां कोई पहुंच भी जाता है तो आधे पैसे तो दलाल ले जाता है. वह मुच्छड़ वरदी वाला या वह टकला वकील और छोटेमोटे व्यवसायी या दूरदराज से आए नौकरीपेशा लोग ही यहां आते हैं. इस शरीर की इतनी कम कीमत, यह सोच कर ही मन सहम जाता है.

टैलीविजन का स्विच औन करते हुए चांदनी खिड़की से बाहर सुनसान सड़क पर देखती है. 2-1 पियक्कड़ इस ओर घूर रहे हैं. जाने कभी आए हों यहां किसी रोज. अब तो याद भी नहीं.

आज चांदनी का उदास चेहरा और अलसाई सी आंखें उन्हें खींचने में पूरी तरह नाकाम हैं. शायद भूखा पेट किसी की हवस को पूरा करने में अब नाकाम है और शरीर का गोश्त भी ढल चुका है.

चांदनी ने चैनल बदलतेबदलते किसी न्यूज चैनल पर टीवी पर कोरोना के बढ़ते प्रकोप को देखा. मर्तबान से मुट्ठीभर चने निकाल कर धीरेधीरे चबाने लगी. कुछ ही देर में टैलीविजन बंद कर के वह पलंग पर लेट गई. उस की खुली आंखें छत पर घूमतेरेंगते पंखे की ओर कुछ देर देखती रहीं और फिर वह गहरी नींद में खो गई.

सुबह कमरे के बाहर से चौधरी के चीखने की सी आवाज सुनाई पड़ी. रात की चुप्पी कहीं खो गई और सुबह का शोर चल पड़ा.

जाने क्यों लगा, सींखचों से कोई कमरे में झांक रहा है. आवाज बढ़ने लगी और गहराती गई.

‘‘3 महीने हो गए भाड़ा दिए हुए…’’ चौधरी के स्वर कानों में पड़ने लगे, ‘‘तुम्हारे बाप का घर है? मुझे शाम तक भाड़ा चाहिए, कैसे भी दो.’’

वही पुरानी तसवीर, जो 10-12 बजे के आसपास 2-3 महीनों में अकसर उभरती है.

चांदनी ने सींखचों से झांक कर देखा चौधरी का रौद्र रूप. लंबातगड़ा गंजा आदमी, सफेद कमीज पर तहमद बांधे मूंछों पर ताव देता गुस्से में चीख रहा था. वह बारीबारी से हर बंद कमरे की ओर देख कर दांत पीसता और आंखें तरेरता.

उस के सामने कुरसी रख दी गई, पर वह खड़ा ही खड़ा सब को आतंकित करता रहा.

‘‘अरे चौधरी साहब, बैठ भी जाइए अब,’’ अमीना बानो ने कुरसी पर बैठने के लिए दोबारा इशारा किया.

एक बनावटी हंसी लिए अमीना कितने ही दिनों से चौधरी को फुसला रही है, ‘‘अच्छा बताइए, आप चाय लेंगे या कुछ और?’’

‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, केवल भाड़ा चाहिए.’’

8-9 साल की लड़की के कंधे को मसलते हुए अमीना ने चौधरी के लिए चाय बनवा कर लाने को बोला.

‘‘नहींनहीं, मैं यहां चाय पीने नहीं आया हूं. अपना भाड़ा लेने आया हूं.’’

छोटी लड़की झगड़ा देखते हुए तीसरे कमरे में घुस जाती है.

उसी कमरे के बाहर झड़ते पलस्तर की ओर देखते हुए चौधरी ने कहा, ‘‘घर को कबाड़खाना बना कर रख दिया है अमीना तुम लोगों ने… न साफसफाई, न लिपाईपुताई. देखो, हर तरफ बस कूड़ाकरकट और जर्जर होती दीवारें. सोचा था कि इस बार इस घर की मरम्मत करा दूंगा, पर यहां तो भाड़ा तक नहीं मिलता कभी टाइम से.

‘‘मैं 10 तारीख को फिर आऊंगा. मुझे भाड़ा चाहिए जैसे भी दो. घर से पैसा मंगवाओ या कहीं और से, मुझे
नहीं मालूम.’’

‘‘अरे चौधरी साहब, इन दिनों कोई नहीं आता यहां,’’ दूसरी कुरसी करीब सरका कर चौधरी को समझाने की कोशिश करते हुए अमीना ने कहा.

‘‘आप का भाड़ा क्यों नहीं देंगे… हाथ जोड़ कर देंगे. बहुत जल्दी सब ठीक हो जाएगा, टैंशन न लो आप. आप के चलते ही तो हम सब हैं यहां, वरना इस धरती पर हमारा कोई वजूद कहां.’’

सामने एक कमरे से एक जवान होती लड़की उठी. दरवाजा खोल कर अमीना के पास आई और ऊंघने लगी, ‘‘अम्मां क्या हुआ? कौन है ये बाबू? क्या कह रहे हैं?’’

इतना कह कर चौधरी की तरफ देख कर वह जबान पर जीभ फिरा कर हंसने लगी. उस लड़की की शक्लोसूरत पर अजीब सी मासूमियत है, पर उस की छाती पूरी भरी है, जिस पर इस अल्हड़ लड़की को खास गुमान है. उस के बदन पर एक टाइट मैक्सी है.

चेहरे पर गिरी जुल्फें उसे और खूबसूरत बना रही हैं. चौधरी की नजरें अमीना से हट कर उस ओर चली गईं और रहरह कर उस के गदराए बदन पर टिक जाती हैं.

अमीना की तरफ देखते हुए चौधरी बोला, ‘‘कौन है यह? नई आई है क्या? पहले तो इसे कभी नहीं देखा?’’

लड़की अपनी उंगलियों से बालों की लटों के गोले बनाती रही.

‘‘हां, यह कुछ दिन पहले ही यहां आई है. मुस्तफाबाद की जान है. अभी 17 की होगी, शायद दिसंबर में.’’

‘‘क्या नाम है तेरा?’’ लड़की को देखते हुए चौधरी बोला.

लड़की चुप रही, पर मुसकराती रही.

अमीना ने लड़की की कमर सहलाते हुए कहा, ‘‘बेटी, नाम बताओ अपना. ये चौधरी साहब हैं अपने. यह पूरा घर इन्हीं का है.’’

चौधरी किसी रसूखदार आदमी की तरह अपने गालों पर उंगली फिराने लगा.

लड़की गौर से देखती रही, कभी अमीना को तो कभी चौधरी को.

‘‘नरगिस है यह. नमस्ते तो करो साहब को.’’

लड़की हंसते हुए दोनों हथेलियां जोड़ कर सीने तक ले आई, पर चौधरी की आंखें अभी भी नरगिस के सीने पर थीं.

‘‘ओह नरगिस, कितना अच्छा नाम है,’’ एक भौंड़ी मुसकराहट लिए चौधरी बोला.

नरगिस अपनी तारीफ सुन कर चहकने लगी और अमीना की एक बांह पर लहर गई.

घड़ी में समय देखते हुए चौधरी कुछ सोचते हुए कुरसी से उठा. पहले इधरउधर देखा, पर जल्दी ही लौटने की बात कहता हुआ देहरी की ओर बढ़ने लगा.

अमीना ने कहा, ‘‘चाय की एक प्याली तो ले ही लेते?’’

मुंह पर मास्क लगाते हुए चौधरी ने नरगिस को भी मास्क लगाने की सलाह दी, ‘‘फिर आऊंगा. सब अपना खयाल रखना.’’

नरगिस के सीने पर नजर रखता और जबान पर होंठ फिराता हुआ चौधरी चला गया.

एकएक कर के कमरों की सांकलें खुलने लगीं. भूखेअलसाए चेहरे, जो अभी तक कमरों में बंद थे, बाहर दालान में इकट्ठा हो गए मानो किसी खास बात पर जिरह करनी हो.

‘‘कौन था? चौधरी?’’ एक अधेड़ उम्र की धंधे वाली ने अमीना से पूछा.

‘‘हां, चौधरी ही लग रहा था,’’ दूसरी ने बेमन से कहा.

‘‘और क्या हुआ तेरे सेठ का? कल भी नहीं आया क्या?’’ रोशनी की तरफ देखते हुए एक ने पूछा.

‘‘नहीं. लौकडाउन है न. फोन पर ही मजा लेता रहा, पर मैं ने भी पेटीएम से 500 रुपए झाड़ ही लिए.’’

‘‘अरे, यहां तो कोई ऐसा भी नहीं,’’ एक बोली और फिर वे एकदूसरे को देखते हुए बतियाने लगीं.

‘‘जैसे भी हो, अपनेअपने ग्राहकों को बुलाओ, नहीं तो चौधरी यहां से निकाल देगा,’’ अमीना ने नेता भाव से सब को इकट्ठा कर के कहा.

‘‘3 महीने हो गए हैं, एक धेला तक नहीं दे पाए उन को. वह महारानी कहां है? उसे यह सब दिखता नहीं क्या?’’ चांदनी के कमरे की तरफ देख कर अमीना ने आवाज दी, ‘‘चांदनी, ओ चांदनी.’’

चांदनी जैसे सपने से जाग गई हो.

एक बार तो दिल ने चाहा कि सांकल खोल कर सब की जबान पर लगाम लगा दे कि एक वक्त था, जब सारे उस की आमदनी पर जीते थे, पर आज मुश्किल घड़ी में ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं और यह चौधरी जब मूड करता था आ जाता था मुंह मारने, पर देखो तो आज कैसे सुर बदल गए हैं इस मरदूद के.

बाहर दालान में कुछ देर की बहस हुई. सब एकदूसरे को देखती रहीं, पर नतीजा कुछ नहीं निकला. सब को लगा कि अब नए सिरे से शुरुआत करनी होगी.

सुरैया पास ही खड़ी थी. चांदनी की रोंआसी सूरत देख और करीब आ गई. उस की ठुड्डी को सहलाते हुए बोली, ‘‘चांदनी दीदी, सब ठीक हो जाएगा.’’

सब अपनेअपने कमरे में लौट गईं. सुरैया न केवल शक्लोसूरत से खूबसूरत थी, बल्कि अच्छा गाती भी थी.

लौकडाउन से पहले सब से ज्यादा ग्राहक इसी के होते थे. कुछ तो केवल गायकी के फन को तराशने आते थे और 2-1 ने तो गाने के लिए बुलावा भी भेजा. जिस्म तो यहां सभी बेचती हैं, पर उस के सुर की बात ही अलग है. अगर वह यहां न आती और गायकी पर फोकस रखती तो जरूर ही नाम कमाती.

वह खाकी वरदी वाला रोज नई उम्मीद की किरण दे कर मुफ्त में सुरैया को नोच जाता है. बेचारी पढ़ीलिखी है. 10वीं तक स्कूल गई है, पर यहां आ कर सब एकसमान हो जाते हैं. आई तो यहां बाप के साथ कुछ बनने, पर इस खाकी वरदी वाले ने झूंठा झांसा दे कर इस धंधे में उतार दिया. अब खुद तो आता है 2-4 और भी आ जाते हैं. सुरैया न सही, मेरे जैसी अधेड़ ही मिल जाए.

सुरैया चांदनी का हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गई.

‘‘क्या हुआ? रो क्यों रही हो?’’ सुरैया ने चांदनी के बालों में उंगलियां फिराते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं बस ऐसे ही. परसों देर रात तक तुम्हारे कमरे से आवाजें आ रही थीं,’’ चांदनी ने सुरैया से पूछा.

‘‘कब? अच्छा, परसों? वही वरदी वाला आया था. 3 और भी थे. मुंह पर मास्क बांधे थे. मैं ने जब पूछा कि दारोगा साहब कुछ बात बनी, मेरे गाने की तो वह हंसने लगा और मेरे सीने को छूने लगा. मैं ने उस से कुछ पैसे मांगे तो गाली देने लगा, पर एक धेला तक नहीं दिया…

‘‘उस का मुंह सूखे पान से भरा था. बीड़ी की राख फेंकते हुए बोला, ‘रानी, हो जाएगा सब. देखती नहीं कि अभी सब बंद है.’

‘‘और पीछे से उस ने आगोश में भर लिया. मैं ने कहा कि अच्छा दारोगा साहब थोड़े पैसे ही दे दो?’’

यह सुन कर उस का सारा नशा जाता रहा और गालीगलौज करने लगा.

‘‘चांदनी दीदी, आप ही बताओ कि अब कैसे चलेगा? सब मुफ्त में मजा चाहते हैं. कुत्ते कहीं के.’’

सुरैया बोलती रही, चांदनी सब ध्यान से सुनती रही.

‘‘पर, अब चारा भी क्या है. जब पेट की प्यास बुझाने को पैसा नहीं तो कोई क्या देह को दिखाए. वह रातभर के लिए अपने कमरे पर ले जाना चाहता था. बोलता था, ‘मेरी रानी, ऐश करवा दूंगा, चल तो बस एक बार.’

‘‘जब मैं ने मना किया तो मुझे घसीटने लगा. अमीना मैम ने समझाबुझा कर उसे चलता किया.’’

‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं मुझे?’’ चांदनी बोली.

‘‘चांदनी दीदी, अब क्या किसी को तंग करूं. तुम्हें मैं अपना मानती हूं, फिर यह सब देख कर तुम और ज्यादा दुखी होगी.’’

सुरैया की रोती आंखें चांदनी को देखती रहीं, कुछ देर तक वे दोनों चुप रहीं.

‘‘सुरैया एक काम करोगी मेरे लिए?’’

‘‘हांहां, कहो न?’’

‘‘नरगिस… जो अभी नई लड़की आई है न…’’

‘‘हां…’’

‘‘उसे यहां से कहीं दूर भेज दो, जहां वह जिस्मबाजारी न कर सके.’’

‘‘अभी तो वह बच्ची है. मैं उस में अपनी सूरत देखती हूं. इस जुम्मेरात जब अमीना बाई 1-2 घंटे के लिए बाहर जाए, तब किसी भी तरह उसे वापस भिजवा दो. तुम्हारा एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी या तुम 500-600 रुपए का इंतजाम कर दो, मैं ही उसे घर छोड़ आऊंगी सुरैया.’’

‘‘अरे दीदी, अभी सब बंद है. तुम कैसे जाओगी? और उस लड़की को भी तो समझाना होगा. वह तो अभी नासमझ है. देह ही निखरी है अभी, दिमाग से तो नादान ही है?’’

‘‘मैं जानती हूं, पर मौका पाते ही उसे भी समझा दिया जाएगा. वह चौधरी ही कहीं 1-2 दिन में… उस की नजर ही गंदी है. अब तो उस का वह छोकरा भी…’’

‘‘नहींनहीं दीदी, ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘सुनो, एक बात बताऊं. यहां पास ही कालेज है. उस में पढ़ने वाला एक शरीफ लड़का है. उस से फोन पर बात करती हूं. वह कोई पढ़ाई कर रहा है धंधे वाली औरतों की जिंदगी पर. शायद, वह कुछ मदद कर दे.

‘‘जैसे भी हो, हम सब तो यहां बरबाद हो गईं अब और किसी नई को यहां न खराब होने दें.’’

‘‘ठीक है दीदी. आज दोपहर जब सब सोए होंगे, तब बात करते हैं. अच्छा, मैं भी अब चलती हूं. तुम से बतिया कर सच में सुकून पाती हूं. बहुत उम्मीद है तुम से.’’

‘‘अरे दीदी, ये बिसकुट तो खाती जाओ.’’

‘‘नहींनहीं, बस.’’

कमरे में लौट कर मानो चांदनी सब भूल गई. काम हो जाए. हमारा तो अब कोई नहीं हो सकता, पर उस की तो पूरी जिंदगी बन जाएगी. वह लड़का जरूर कुछ करेगा.

आज ही उस लड़के का फोन भी आना है. मेरी जिंदगी पर कुछ लिख रहा है वह. हां, रिसर्च कर रहा है. ये लोग काफी पढ़ेलिखे हैं, जरूर हमारी कुछ न कुछ मदद करेंगे.

चांदनी का दिल कहता है कि वह लड़का नरगिस के लिए कुछ करेगा. क्या नाम था उस का…?

जो भी हो, इस जहन्नुम भरी जिंदगी से इस लड़की को भेजना ही पहला काम होगा. सरकार और ग्राहकों के भरोसे भी कब तक बैठे रह सकते हैं. कोई किसी का नहीं इस नरक में.

अभी लौट गई तो कोई अपना भी लेगा. नहीं तो यह भी दूसरी धंधे वालियों जैसी हो जाएगी. जरूर कुछ होगा. अच्छा होगा, यकीनन.

3 महीने बाद…

‘‘ओह, कितना अच्छा लग रहा है आज 3 महीने बाद. नरगिस कैसी होगी? सुरैया, बात हुई कोई?’’

‘‘हां दीदी, कल रात हुई थी,’’ सुरैया चहकते हुए बोली.

चांदनी जैसे खुशी से झूम गई.

‘‘यह नया सूट कब लाई सुरैया? पहले तो कभी न देखा इस में.’’

‘‘दीदी, यह सूट उस पढ़ने वाले साहब ने दिया है. बहुत अच्छे हैं ये पढ़ने वाले लोग. हमारे जज्बात समझते हैं. कभी छुआ तक नहीं, पर हरमुमकिन मदद देते हैं. आप की बहुत तारीफ करता है वह.’’

‘‘कौन सा…?’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘अरे वही, जिस ने नरगिस को यहां से उस के घर तक भिजवाया था. और न केवल भिजवाया था, बल्कि उस के घर वालों को अच्छे से समझाया भी था.’’

‘‘अच्छा…’’

‘‘हां, दीदी…’’

‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘कहो न…’’

‘‘वे प्रोफैसर बन जाएंगे, कालेज में जल्दी ही.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘हां, वे बोलते हैं कि मेरे साथ घर बसाएंगे.’’

‘‘अरे वाह सुरैया, तेरा सपना अब पूरा हो जाएगा.’’

‘‘दीदी आप बहुत अच्छी हो, सब तुम्हारी बदौलत ही मुमकिन हुआ है. तुम सच में महान हो.’’

‘‘अरे नहीं सुरैया, मैं इस लायक कहां.’’

‘‘दीदी, अगर उन की किताब छप गई न, तो वे तुम्हें भी तुम्हारे घर पर भिजवा देगा.’’

‘‘अरे नहीं सुरैया, मेरा तो यही है सब स्वर्ग या नरक.’’

इस के बाद वे दोनों चहकते हुए घंटों तक बतियाती रहीं.

Short Story : मोम की गुड़िया

Short Story : जिंदगी में सबकुछ तयशुदा नहीं होता. कभी कुछ ऐसा भी हो जाता है, जिस की आप ने ख्वाब में भी उम्मीद नहीं की होती है. हालांकि अब मैं उस बुरे ख्वाब से जाग गई हूं. राशिद ने मेरी तकदीर को बदलना चाहा था. मु झे मोम की गुडि़या समझ कर अपने सांचे में ढालना चाहा था.

यों तो राशिद मेरी जिंदगी में दबे पैर चला आया था. वह मेरी बड़ी खाला का बेटा था. पहली बार वह तरहतरह के सांचे में ढली मोमबत्तियां ले कर आया था और एक दिन मु झ से कहा था, ‘‘इनसान को मोम की तरह होना चाहिए. वक्त जब जिस सांचे में ढालना चाहे, इनसान को उसी आकार में ढल जाना चाहिए.’’

राशिद का मोमबत्ती बनाने का बहुत पुराना कारोबार था. हमारे शहर में भी राशिद की बनाई मोमबत्तियों की काफी मांग बढ़ गई थी. अब वह दिल्ली से कुछ नए सांचे ले कर आया, तो हमारे ही घर पर रुका.

राशिद ने मेरे सामने मोम पिघला कर सांचे से मोमबत्तियां बनाईं. तब मु झे भी अपना वजूद मोम की तरह पिघला महसूस हुआ. मैं सोचने लगी, ‘काश, मु झे भी कोई पसंदीदा सांचा मिल जाता, जिस में मैं मनमुताबिक ढल जाती.’

एक दिन तपती दोपहर में राशिद ने मेरे दोनों बाजुओं को अपने हाथों से ऐसे जकड़ लिया मानो मैं मोम हूं और वह जैसे चाहेगा, मुझे सांचे में ढाल देगा.

राशिद बड़ी मासूमियत भरे अंदाज में फुसफुसाया, ‘‘मैं तुम से बेहद मुहब्बत करता हूं.’’

वह मेरे जवाब के इंतजार में था और मैं सोच में पड़ गई. उस ने फिर फुसफुसाना शुरू किया, ‘‘जेबा, तुम्हारे बगैर सुबह सूनी, दोपहर वीरान और शाम उदास नजर आती है.’’

मैं इतना सुनते ही न जाने क्यों बेतहाशा हंसने लगी और हंसतेहंसते मेरी आंखें भर आईं. राशिद हैरान सा मेरी ओर देखने लगा.

मैं ने अपनी बांहें छुड़ा कर राशिद से कहा, ‘‘मर्द की फितरत अजीब होती है. जब तक वह किसी चीज को पा नहीं लेता, उस पर जान छिड़कता है. मगर उसे पा लेने के बाद वह उसे भूल जाता है. मर्द हमेशा उस पहाड़ की चोटी पर चढ़ना चाहता है, जिसे अभी तक किसी ने छुआ न हो, मगर चोटी पर चढ़ने के बाद वह आगे बढ़ जाता है दूसरी अजेय पहाड़ की चोटी को जीतने के लिए.’’

राशिद न तो स्कूली तालीम ज्यादा ले पाया था और न ही जिंदगी की पाठशाला में होनहार था, जबकि मैं जिंदगी की पाठशाला में काफीकुछ सीख चुकी थी.

मर्द के सामने पूरी तरह खुल जाना औरत की बेवकूफी होती है. उसे हमेशा राज का परदा सा बनाए रखना चाहिए. ऐसी औरत मर्द को ज्यादा अपनी तरफ खींचती है. यह बात जिंदगी की पाठशाला में मैं सीख चुकी थी.

2 साल पहले मैं 12वीं जमात पास करने के बाद घर बैठ गई थी. मेरा आगे पढ़ने का मन ही नहीं हुआ. दुनिया बेरौनक सी लगती थी. कहीं किसी काम में मन नहीं लगता था. जी चाहता था कि दुनिया से छिप कर किसी अंधेरी कोठरी में बैठ जाऊं, जहां मु झे कोई देख न पाए.

फिर पता नहीं क्यों मेरे दिल ने एक करवट सी ली. मैं ने एक दिन अम्मी से आगे पढ़ने की बात की. वे खुश हो गईं. औरत ही औरत के दर्द को पहचान पाती है. वे चाहती थीं कि मैं पढ़ने में मन लगाऊं और खुश रहूं. मैं भी अब खुशीखुशी स्कूल से कालेज में पहुंची. बीएससी में जीव विज्ञान मेरा पसंदीदा विषय रहा. इनसान के भीतर देखने की चाह ने इस विषय में मेरी और दिलचस्पी पैदा कर दी थी. अब विषय के साथसाथ और भी बहुतकुछ बदल गया था.

जमात बढ़ने के साथसाथ स्टूडैंट में भी काफीकुछ बढ़ोतरी हो जाती है. दिमाग के जाले साफ हो जाते हैं. पुराने दोस्त काफी पीछे रह जाते हैं. नया माहौल, नए दोस्त हवा में नई खुशबू सी घोल देते हैं.

एक दिन मैं बायोलौजी का प्रैक्टिकल कर के घर पहुंची, तो घर में कुछ ज्यादा ही चहलपहल नजर आई. बड़ी खाला, खालू और राशिद घर पर दिखाई दिए. खाला, खालू को सलाम कर मैं अंदर अपने कमरे में चली गई.

रात का खाना खाने के वक्त मैं ने एक बात नोट की कि राशिद मु झे एक अलग तरह की मुसकान से देख रहा था.

खाना खाने के बाद मौका मिलने पर राशिद मेरे पास आया और बोला, ‘‘जेबा, अब वक्त आ गया है तुम्हें मेरे सांचे में ढलना होगा. तुम्हें तो मालूम है कि मेरे पास कितने सांचे हैं. मैं जब जिस सांचे में चाहूं, मोम पिघला कर नई शक्ल दे देता हूं.’’

मैं राशिद की सोच से काफी आगे बढ़ चुकी थी. उसे जवाब देना मैं ने मुनासिब नहीं सम झा.

सुबह कालेज जाते वक्त अम्मी मेरे पास आईं. कुछ देर तक वे मु झे देखती रहीं, फिर धीरे से बोलीं, ‘‘जेबा, बाजी तेरा रिश्ता मांगने आई हैं. तेरे अब्बा तो खामोश हैं, तू ही कि बता क्या जवाब दूं?’’

मैं ने अम्मी की तरफ देखा. वे अजीब से हालात में थीं. एक तरफ उन की बहन थी, तो वहीं दूसरी तरफ बेटी.

मैं ने अब अपनी जबान खोलना वक्त का तकाजा सम झा. मैं ने कहा, ‘‘अम्मी, अब वक्त काफी आगे बढ़ चुका है और ये लोग पुराने वक्त पर ही ठहरे हुए हैं. आप खुद बताइए कि क्या राशिद मेरे लायक है? वैसे भी मु झे आगे पढ़ना है, काफी आगे जाना है. मेरे अपने सपने हैं, जो मु झे पूरे करने हैं.

‘‘मैं पिंजरे में बंद मजबूर बेसहारा पक्षी की तरह नहीं हूं, जिस का कोई भी मोलभाव कर ले. मैं खुले आसमान में उड़ने वाला वह पक्षी हूं, जो अपनी मंजिल खुद तय करता है.’’

मेरे इनकार के बाद मुझ पर मेरे ही घर में राशिद ने तेजाब का एक भरा हुआ मग फेंका था. वह तो मैं समय पर पलट गई थी और सारा तेजाब मेरी पीठ और हाथ पर ही गिर सका था.

घर में कुहराम मच गया था. अब्बा घर पर नहीं थे. अम्मी ही फौरन मुझे अस्पताल ले गई थीं. एक महीने के इलाज के बाद मैं बेहतर हो सकी थी. मैं अपने विचारों में, इरादों में पहले से भी ज्यादा मजबूत हो गई थी.

राशिद को तो उस के किए की सजा मिली ही, मगर मैं ने भी अपनी जीने की इच्छा को जिंदा रखा और आज एक कामयाब टीचर के तौर पर अपने पैरों पर खड़ी हूं.

Family Story : महक वापस लौटी

Family Story : सुमि को रोज 1-2 किलोमीटर पैदल चलना बेहद पसंद था. वह आज भी बस न ले कर दफ्तर के बाद अपने ही अंदाज में मजेमजे से चहलकदमी करते हुए, तो कभी जरा सा तेज चलती हुई दफ्तर से लौट रही थी कि सामने से मनोज को देख कर एकदम चौंक पड़ी.

सुमि सकपका कर पूछना चाहती थी, ‘अरे, तुम यहां इस कसबे में कब वापस आए?’

पर यह सब सुमि के मन में ही कहीं रह गया. उस से पहले मनोज ने जोश में आ कर उस का हाथ पकड़ा और फिर तुरंत खुद ही छोड़ भी दिया.

मनोज की छुअन पा कर सुमि के बदन में जैसे कोई जादू सा छा गया हो. सुमि को लगा कि उस के दिल में जरा सी झन झनाहट हुई है, कोई गुदगुदी मची है.

ऐसा लगा जैसे सुमि बिना कुछ बोले ही मनोज से कह उठी, ‘और मनु, कैसे हो? बोलो मनु, कितने सालों के बाद मिले हो…’

मनोज भी जैसे सुमि के मन की बात को साफसाफ पढ़ रहा था. वह आंखों से बोला था, ‘हां सुमि, मेरी जान. बस अब जहां था, जैसा था, वहां से लौट आया, अब तुम्हारे पास ही रहूंगा.’

अब सुमि भी मन ही मन मंदमंद मुसकराने लगी. दिल ने दिल से हालचाल पूछ लिए थे. आज तो यह गुफ्तगू भी बस कमाल की हो रही थी.

पर एक सच और भी था कि मनोज को देखने की खुशी सुमि के अंगअंग में छलक रही थी. उस के गाल तक लाल हो गए थे.

मनोज में कोई कमाल का आकर्षण था. उस के पास जो भी होता उस के चुंबकीय असर में मंत्रमुग्ध हो जाता था.

सुमि को मनोज की यह आदत कालेज के जमाने से पता थी. हर कोई उस का दीवाना हुआ करता था. वह कुछ भी कहां भूली थी.

अब सुमि भी मनोज के साथ कदम से कदम मिला कर चलने लगी. दोनों चुपचाप चल रहे थे.

बस सौ कदम चले होंगे कि एक ढाबे जैसी जगह पर मनोज रुका, तो सुमि भी ठहर गई. दोनों बैंच पर आराम से बैठ गए और मनोज ने ‘2 कौफी लाना’ ऐसा कह कर सुमि से बातचीत शुरू कर दी.

‘‘सुमि, अब मैं तुम से अलग नहीं रहना चाहता. तुम तो जानती ही हो, मेरे बौस की बरखा बेटी कैसे मुझे फंसा कर ले गई थी. मैं गरीब था और उस के जाल में ऐसा फंसा कि अब 3 साल बाद यह मान लो कि वह जाल काट कर आ गया हूं.’

यह सुन कर तो सुमि मन ही मन हंस पड़ी थी कि मनोज और किसी जाल में फंसने वाला. वह उस की नसनस से वाकिफ थी.

इसी मनोज ने कैसे अपने एक अजीज दोस्त को उस की झगड़ालू पत्नी से छुटकारा दिलाया था, वह पूरी दास्तान जानती थी. तब कितना प्रपंच किया था इस भोले से मनोज ने.

दोस्त की पत्नी बरखा बहुत खूबसूरत थी. उसे अपने मायके की दौलत और पिता के रुतबे पर ऐश करना पसंद था. वह हर समय पति को मायके के ठाठबाट और महान पिता की बातें बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करती थी.

मनोज का दोस्त 5 साल तक यह सहन करता रहा था, पर बरखा के इस जहर से उस के कान पक गए थे. फिर एक दिन उस ने रोरो कर मनोज को आपबीती सुनाई कि वह अपने ही घर में हर रोज ताने सुनता है. बरखा को बातबात पर पिता का ओहदा, उन की दौलत, उन के कारनामों में ही सारा बह्मांड नजर आता है.
तब मनोज ने उस को एक तरकीब बताई थी और कहा था, ‘यार, तू इस जिंदगी को ऐश कर के जीना सीख. पत्नी अगर रोज तु झे रोने पर मजबूर कर रही है, तो यह ले मेरा आइडिया…’

फिर मनोज के दोस्त ने वही किया. बरखा को मनोज के बताए हुए एक शिक्षा संस्थान में नौकरी करने का सु झाव दिया और पत्नी को उकसाया कि वह अपनी कमाई उड़ा कर जी सकती है. उस को यह प्रस्ताव भी दिया कि वह घर पर नौकर रख ले और बस आराम करे.

दोस्त की मनमौजी पत्नी बरखा यही चाहती थी. वह मगन हो कर घर की चारदीवारी से बाहर क्या निकली कि उस मस्ती में डूब ही गई.

वह दुष्ट अपने पति को ताने देना ही भूल गई. अब मनोज की साजिश एक महीने में ही काम कर गई. उस संस्थान का डायरैक्टर एक नंबर का चालू था. बरखा जैसी को उस ने आसानी से फुसला लिया. बस 4 महीने लगे और मनोज की करामात काम कर गई.

दोस्त ने अपनी पत्नी को उस के बौस के साथ पकड़ लिया और उस के पिता को वीडियो बना कर भेज दिया.

कहां तो दोस्त को पत्नी से 3 साल अपने अमीर पिता के किस्सों के ताने सुनने पड़े और कहां अब वह बदनामी नहीं करने के नाम पर उन से लाखों रुपए महीना ले रहा था.

ऐसा था यह धमाली मनोज. सुमि मन ही मन यह अतीत याद कर के अपने होंठ काटने लगी. उस समय वह मनोज के साथ ही नौकरी कर रही थी. हर घटना उस को पता थी.

ऐसा महातिकड़मी मनोज किसी की चतुराई का शिकार बनेगा, सुमि मान नहीं पा रही थी.

मगर मनोज कहता रहा, ‘‘सुमि, पता है मुंबई मे ऐश की जिंदगी के नाम पर बौस ने नई कंपनी में मु झे रखा जरूर, मगर वे बापबेटी तो मु झे नौकर सम झने लगे.’’

सुमि ने तो खुद ही उस बौस की यहां कसबे की नौकरी को तिलांजलि दे दी थी. वह यों भी कुछ सुनना नहीं चाहती थी, मगर मजबूर हो कर सुनती रही. मनोज बोलता रहा, ‘‘सुमि, जानती हो मु झ से शादी तो कर ली, पद भी दिया, मगर मेरा हाथ हमेशा खाली ही रहता था. पर्स बेचारा शरमाता रहता था. खाना पकाने, बरतन मांजने वाले नौकरों के पास भी मु झ से ज्यादा रुपया होता था.

‘‘मुझे न तो कोई हक मिला, न कोई इज्जत. मेरे नाम पर करोड़ों रुपया जमा कर दिया, एक कंपनी खोल दी, पर मैं ठनठन गोपाल.

‘‘फिर तो एक दिन इन की दुश्मन कंपनी को इन के राज बता कर एक करोड़ रुपया इनाम में लिया और यहां आ गया.’’

‘‘पर, वे तुम को खोज ही लेंगे,’’ सुमि ने चिंता जाहिर की.

यह सुन कर मनोज हंसने लगा, ‘‘सुमि, दोनों बापबेटी लंदन भाग गए हैं. उन का धंधा खत्म हो गया है. अरबों रुपए का कर्ज है उन पर. अब तो वे मु झ को नहीं पुलिस उन को खोज रही है. शायद तुम ने अखबार नहीं पढ़ा.’’

मनोज ने ऐसा कहा, तो सुमि हक्कीबक्की रह गई. उस के बाद तो मनोज ने उस को उन बापबेटी के जोरजुल्म की ऐसीऐसी कहानियां सुनाईं कि सुमि को मनोज पर दया आ गई.

घर लौटने के बाद सुमि को उस रात नींद ही नहीं आई. बारबार मनोज ही खयालों में आ जाता. वह बेचैन हो जाती.

आजकल अपने भैयाभाभी के साथ रहने वाली सुमि यों भी मस्तमौला जिंदगी ही जी रही थी. कालेज के जमाने से मनोज उस का सब से प्यारा दोस्त था, जो सौम्य और संकोची सुमि के शांत मन में शरारत के कंकड़ गिरा कर उस को खुश कर देता था.

कालेज पूरा कर के दोनों ने साथसाथ नौकरी भी शुरू कर दी. अब तो सुमि के मातापिता और भाईभाभी सब यही मानने लगे थे कि दोनों जीवनसाथी बनने का फैसला ले चुके हैं.

मगर, एक दिन मनोज अपने उसी बौस के साथ मुंबई चला गया. सुमि को अंदेशा तो हो गया था, पर कहीं उस का मन कहता जरूर कि मनोज लौट आएगा. शायद उसी के लिए आया होगा.

अब सुमि खुश थी, वरना तो उस को यही लगने लगा था कि उस की जिंदगी जंगल में खिल रहे चमेली के फूल जैसी हो गई है, जो कब खिला, कैसा खिला, उस की खुशबू कहां गई, कोई नहीं जान पाएगा.

अगले दिन सुमि को अचानक बरखा दिख गई. वह उस की तरफ गई.

‘‘अरे बरखा… तुम यहां? पहचाना कि नहीं?’’

‘‘कैसी हो? पूरे 7 साल हो गए.’’ कहां बिजी रहती हो.

‘‘तुम बताओ सुमि, तुम भी तो नहीं मिलतीं,’’ बरखा ने सवाल का जवाब सवाल से दिया.

दोनों में बहुत सारी बातें हुईं. बरखा ने बताया कि मनोज आजकल मुंबई से यहां वापस लौट आया है और उस की सहेली की बहन से शादी करने वाला है.

‘‘क्या…? किस से…?’’ यह सुन कर सुमि की आवाज कांप गई. उस को लगा कि पैरों तले जमीन खिसक गई.

‘‘अरे, वह थी न रीमा… उस की बहन… याद आया?’’

‘‘मगर, मनोज तो…’’ कहतेकहते सुमि रुक गई.

‘‘हां सुमि, वह मनोज से तकरीबन 12 साल छोटी है. पर तुम जानती हो न मनोज का जादुई अंदाज. जो भी उस से मिला, उसी का हो गया.

‘‘मेरे स्कूल के मालिक, जो आज पूरा स्कूल मु झ पर ही छोड़ कर विदेश जा बसे हैं, वे तक मनोज के खास दोस्त हैं.’’

‘‘अच्छा?’’

‘‘हांहां… सुमि पता है, मैं अपने मालिक को पसंद करने लगी थी, मगर मनोज ने ही मु झे बचाया. हां, एक बार मेरी वीडियो क्लिप भी बना दी.

‘‘मनोज ने चुप रहने के लाखों रुपए लिए, लेकिन आज मैं बहुत ही खुश हूं. पति ने दूसरी शादी रचा ली है. मैं अब आजाद हूं.’’

‘‘अच्छा…’’ सुमि न जाने कैसे यह सब सुन पा रही थी. वह तो मनोज की शादी की बात पर हैरान थी. यह मनोज फिर उस के साथ कौन सा खेल खेल रहा था.

सुमि रीमा का घर जानती थी. पास में ही था. उस के पैर रुके नहीं. चलती गई. रीमा का घर आ गया.

वहां जा कर देखा, तो रीमा की मां मिलीं. बताया कि मनोज और खुशी तो कहीं घूमने चले गए हैं.

यह सुन कर सुमि को सदमा लगा. खैर, उस को पता तो लगाना ही था कि मनोज आखिर कर क्या रहा है.

सुमि ने बरखा से दोबारा मिल कर पूरी कहानी सुना दी. बरखा यह सुन कर खुद भौंचक सी रह गई.

सुमि की यह मजबूरी उस को करुणा से भर गई थी. वह अभी इस समय तो बिलकुल सम झ नहीं पा रही थी कि कैसे होगा.

खैर, उस ने फिर भी सुमि से यह वादा किया कि वह 1-2 दिन में जरूर कोई ठोस सुबूत ला कर देगी.

बरखा ने 2 दिन बाद ही एक मोबाइल संदेश भेजा, जिस में दोनों की बातचीत चल रही थी. यह आडियो था. आवाज साफसाफ सम झ में आ रही थी.

मनोज अपनी प्रेमिका से कह रहा था कि उस को पागल करार देंगे. उस के घर पर रहेंगे.

सुमि यह सुन कर कांपने लगी. फिर भी सुमि दम साध कर सुन रही थी. वह छबीली लड़की कह रही थी कि ‘मगर, उस को पागल कैसे साबित करोगे?’

‘अरे, बहुत आसान है. डाक्टर का सर्टिफिकेट ले कर?’

‘और डाक्टर आप को यह सर्टिफिकेट क्यों देंगे?’

‘अरे, बिलकुल देंगे.’ फिक्र मत करो.

‘महिला और वह भी 33 साल की, सोचो है, न आसान उस को उल्लू बनाना, बातबात पर चिड़चिड़ापन पैदा करना कोई मुहिम तो है नहीं, बस जरा माहौल बनाना पड़ेगा.

‘बारबार डाक्टर को दिखाना पड़ेगा. कुछ ऐसा करूंगा कि 2-4 पड़ोसियों के सामने शोर मचा देगी या बरतन तोड़ेगी पागलपन के लक्षण यही तो होते हैं. मेरे लिए बहुत आसान है. वह बेचारी पागलखाने मत भेजो कह कर रोज गिड़गिड़ा कर दासी बनी रहेगी और यहां तुम आराम से रहना.’

‘मगर ऐसा धोखा आखिर क्यों? उस को कोई नुकसान पहुंचाए बगैर, इस प्रपंच के बगैर भी हम एक हो सकते हैं न.’

‘हांहां बिलकुल, मगर कमाई के साधन तो चाहिए न मेरी जान. उस के नाम पर मकान और दुकान है. यह मान लो कि 2-3 करोड़ का इंतजाम है.

‘सुमि ने खुद ही बताया है कि शादी करते ही यह सब और कुछ गहने उस के नाम पर हो जाएंगे. अब सोचो, यह इतनी आसानी से आज के जमाने में कहां मिल पाता है.

‘यह देखो, उस की 4 दिन पहले की तसवीर, कितनी भद्दी. अब सुमि तो बूढ़ी हो रही है. उस को सहारा चाहिए. मातापिता चल बसे हैं. भाईभाभी की अपनी गृहस्थी है.

‘मैं ही तो हूं उस की दौलत का सच्चा रखवाला और उस का भरोसेमंद हमदर्द. मैं नहीं करूंगा तो वह कहीं और जाएगी, किसी न किसी को खोजेगी.

‘मैं तो उस को तब से जानता हूं, जब वह 17 साल की थी. सोचो, किसी और को पति बना लेगी तो मैं ही कौन सा खराब हूं.’

रिकौर्डिंग पूरी हो गई थी. सुमि को बहुत दुख हुआ, पर वह इतनी भी कमजोर नहीं थी कि फूटफूट कर रोने लगती.

सुमि का मन हुआ कि वह मनोज का गला दबा दे, उस को पत्थर मार कर घायल कर दे. लेकिन कुछ पल बाद ही सुमि ने सोचा कि वह तो पहले से ही ऐसा था. अच्छा हुआ पहले ही पता लग गया.

कुछ देर में ही सुमि सामान्य हो गई. वह जानती थी कि उस को आगे क्या करना है. मनोज का नाम मिटा कर अपना हौसला समेट कर के एक स्वाभिमानी जिद का भरपूर मजा उठाना है.

Family Story : टकराती जिंदगी

Family Story

लेखक- एच. भीष्मपाल

जिंदगी कई बार ऐसे दौर से गुजर जाती है कि अपने को संभालना भी मुश्किल हो जाता है. रहरह कर शकीला की आंखों से आंसू बह रहे थे. वह सोच भी नहीं पा रही थी कि अब उस को क्या करना चाहिए. सोफे पर निढाल सी पड़ी थी. अपने गम को भुलाने के लिए सिगरेट के धुएं को उड़ाती हुई भविष्य की कल्पनाओं में खो जाती. आज वह जिस स्थिति में थी, इस के लिए वह 2 व्यक्तियों पर दोष डाल रही थी. एक थी उस की छोटी बहन बानो और दूसरा था उस का पति याकूब.

‘मैं क्या करती? मुझे उन्होंने पागल बना दिया था. यह वही व्यक्ति था जो शादी से पहले मुझ से कहा करता था कि अगर मैं ने उस से शादी नहीं की तो वह खुदकुशी कर लेगा. आज उस ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि मैं अपना शौहर, घर और छोटी बच्ची को छोड़ने को मजबूर हो गई हूं. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि मैं अब क्या करूं,’ शकीला मन ही मन बोली.

‘मैं ने याकूब को क्या नहीं दिया. वह आज भूल गया कि शादी से पहले वह तपेदिक से पीडि़त था. मैं ने उस की हर खुशी को पूरा करने की कोशिश की. मैं ने उस के लिए हर चीज निछावर कर दी. अपना धन, अपनी भावनाएं, हर चीज मैं ने उस को अर्पण कर दी. सड़कों पर घूमने वाले बेरोजगार याकूब को मैं ने सब सुख दिए. उस ने गाड़ी की इच्छा व्यक्त की और मैं ने कहीं से भी धन जुटा कर उस की इच्छा पूरी कर दी. मुझे अफसोस इस बात का है कि उस ने मेरे साथ यह क्यों किया. मुझे इस तरह जलील करने की उसे क्या जरूरत थी? अगर वह एक बार भी कह देता कि वह मेरे से ऊब गया है तो मैं खुद ही उस के रास्ते से हट जाती. जब मेरे पास अच्छी नौकरी और घर है ही तो मैं उस के बिना भी तो जिंदगी काट सकती हूं.

‘बानो मेरी छोटी बहन है. मैं ने उसे अपनी बेटी की तरह पाला है, पर उसे मैं कभी माफ नहीं कर सकती. उस ने सांप की तरह मुझे डंस लिया. पता नहीं मेरा घर उजाड़ कर उसे क्या मिला? मुझे उस के कुकर्मों का ध्यान आते ही उस पर क्रोध आता है.’ बुदबुदाते हुए शकीला सोफे से उठी और बाहर अपने बंगले के बाग में घूमने लगी.

20 साल पहले की बात है. शकीला एक सरकारी कार्यालय में अधिकारी थी. गोरा रंग, गोल चेहरा, मोटीमोटी आंखें और छरहरा बदन. खूबसूरती उस के अंगअंग से टपकती थी. कार्यालय के साथी अधिकारी उस के संपर्क को तरसते थे. गाने और शायरी का उसे बेहद शौक था. महफिलों में उस की तारीफ के पुल बांधे जाते थे.

याकूब उत्तर प्रदेश की एक छोटी सी रियासत के नवाब का बिगड़ा शहजादा था. नवाब साहब अपने समय के माने हुए विद्वान और खिलाड़ी थे. याकूब को पहले फिल्म में हीरो बनने का शौक हुआ. वह मुंबई गया पर वहां सफल न हो सका. फिर पेंटिंग का शौक हुआ परंतु इस में भी सफलता नहीं मिली. उस के पिता ने काफी समझाया पर वह कुछ समझ न सका. गुस्से में उस ने घर छोड़ दिया. दिल्ली में रेडियो स्टेशन पर छोटी सी नौकरी कर ली. कुछ दिन के बाद वह भी छोड़ दी. फिर शायरी और पत्रकारिता के चक्कर में पड़ गया. न कोई खाने का ठिकाना न कोई रहने का बंदोबस्त. यारदोस्तों के सहारे किसी तरह से अपना जीवन निर्वाह कर रहा था. शरीर, डीलडौल अवश्य आकर्षक था. खानदानी तहजीब और बोलने का लहजा हर किसी को मोह लेता था.

और फिर एक दिन इत्तेफाक से उसे शकीला से मिलने का मौका मिला. एक इंटरव्यू लेने के सिलसिले में वह शकीला के कार्यालय में गया. उस के कमरे में घुसते ही उस ने ज्यों ही शकीला को देखा, उस के तनबदन में सनसनी सी फैल गई. कुछ देर के लिए वह उसे खड़ाखड़ा देखता रहा. इस से पहले कि वह कुछ कहे, शकीला ने उस से सामने वाली कुरसी पर बैठने का अनुरोध किया. बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. शकीला भी उस की तहजीब और बोलने के अंदाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी. इंटरव्यू का कार्य खत्म हुआ और उस से फिर मिलने की इजाजत ले कर याकूब वहां से चला गया.

याकूब के वहां से चले जाने के बाद शकीला काफी देर तक कुछ सोच में पड़ गई. यह पहला मौका था जब किसी के व्यक्तित्व ने उसे प्रभावित किया था. कल्पनाओं के समुद्र में वह थोड़ी देर के लिए डूब गई. और फिर उस ने अपनेआप को झटक दिया और अपने काम में लग गई. ज्यादा देर तक उस का काम में मन नहीं लगा. आधे दिन की छुट्टी ले कर वह घर चली गई.

शकीला उत्तर प्रदेश के जौनपुर कसबे के मध्य-वर्गीय मुसलिम परिवार की कन्या थी. उस की 3 बहनें और 2 भाई थे. पिता का साया उस पर से उठ गया था. 2 भाइयों और 2 बहनों का विवाह हो चुका था और वे अपने परिवार में मस्त थे. विधवा मां और 7 वर्षीय छोटी बहन बानो के जीवननिर्वाह की जिम्मेदारी उस ने अपने ऊपर ले रखी थी. उस की मां को अपने घर से विशेष लगाव था. वह किसी भी शर्त पर जौनपुर छोड़ना नहीं चाहती थी. उस की गुजर के लिए उस का पिता काफी रुपयापैसा छोड़ गया था. घरों का किराया आता था व थोड़ी सी कृषि भूमि की आय भी थी.

शकीला के सामने समस्या बानो की पढ़ाई की थी. शकीला की इच्छा थी कि वह अच्छी और उच्च शिक्षा प्राप्त करे. वह उसे पब्लिक स्कूल में डालना चाहती थी जो जौनपुर में नहीं था. आखिरकार बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी मां को रजामंद कर लिया और वह बानो को दिल्ली ले आई. शकीला बानो से बेहद प्यार करती थी. बानो को भी अपनी बड़ी बहन से बहुत प्यार था.

याकूब और शकीला के परस्पर मिलने का सिलसिला जारी रहा. कुछ दिन कार्यालय में औपचारिक मिलन के बाद गेलार्ड में कौफी के कार्यक्रम बनने लगे. शकीला ने न चाह कर भी हां कर दी. बानो के प्रति अपनी जिम्मेदारी महसूस करते हुए भी वह याकूब से मिलने के लिए और उस से बातचीत करने के लिए लालायित रहने लगी. उन दोनों को इस प्रकार मिलते हुए एक साल हो गया. प्यार की पवित्रता और मनों की भावनाओं पर दोनों का ही नियंत्रण था. परस्पर वे एकदूसरे के व्यवहार, आदतों और इच्छाओं को पहचानने लगे थे.

एक दिन याकूब ने उस के सामने हिचकतेहिचकते विवाह का प्रस्ताव रखा. यह सुन कर शकीला एकदम बौखला उठी. वह परस्पर मिलन से आगे नहीं बढ़ना चाहती थी. यह सुन कर वह उठी और ‘ना’ कह कर गेलार्ड से चली गई. घर जा कर वह अपने लिहाफ में काफी देर तक रोती रही. वह समझ नहीं पा रही थी कि वह जिंदगी के किस दौर से गुजर रही है. वह क्या करे, क्या न करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी.

इस घटना का याकूब पर बहुत बुरा असर पड़ा. वह शकीला की ‘ना’ को सुन कर तिलमिला उठा. इस गम को भुलाने के लिए उस ने शराब का सहारा लिया. अब वह रोज शराब पीता और गुमसुम रहने लगा. खाने का उसे कोई होश न रहा. उस ने शकीला से मिलना बिलकुल बंद कर दिया. शकीला के इस व्यवहार ने उस के आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंचाई.

उधर शकीला की हालत भी ठीक न थी. बानो के प्रति अपने कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए वह याकूब को ‘ना’ तो कह बैठी, परंतु वह अपनी जिंदगी में कुछ कमी महसूस करने लगी. याकूब के संपर्क ने थोडे़ समय के लिए जो खुशी ला दी थी वह लगभग खत्म हो गई थी. वह खोईखोई सी रहने लगी. रात को करवटें बदलती और अंगड़ाइयां लेती परंतु नींद न आती. शकीला ने सोने के लिए नींद की गोलियों का सहारा लेना शुरू किया. चेहरे की रौनक और शरीर की स्फूर्ति पर असर पड़ने लगा. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे. वह इसी सोच में डूबी रहती कि बानो की परवरिश कैसे हो. यदि वह शादी कर लेगी तो बानो का क्या होगा?

अत्यधिक शराब पीने से याकूब की सेहत पर असर पड़ने लगा. उस का जिगर ठीक से काम नहीं करता था. खाने की लापरवाही से उस के शरीर में और कई बीमारियां पैदा होने लगीं. याकूब इस मानसिक आघात को चुपचाप सहे जा रहा था. धीरेधीरे शकीला को याकूब की इस हालत का पता चला तो वह घबरा गई. उसे डर था कि कहीं कोई अप्रिय घटना न घट जाए. वह याकूब से मिलने के लिए तड़पने लगी. एक दिन हिम्मत कर के वह उस के घर गई. याकूब की हालत देख कर उस की आंखों से आंसू बहने लगे. याकूब ने फीकी हंसी से उस का स्वागत किया. कुछ शिकवेशिकायतों के बाद फिर से मिलनाजुलना शुरू हो गया. अब जब याकूब ने उस से प्रार्थना की तो शकीला से न रहा गया और उस ने हां कर दी.

शादी हो गई. शकीला और याकूब दोनों ही मजे से रहने लगे. हर दम, हर पल वे साथ रहते, आनंद उठाते. 3 वर्ष देखते ही देखते बीत गए. बानो भी अब जवान हो गई थी. उस ने एम.ए. कर लिया था और एक अच्छी फर्म में नौकरी करने लगी थी.

शकीला ने बानो को हमेशा अपनी बेटी ही समझा था. शादी से पहले शकीला और याकूब ने आपस में फैसला किया था कि जब तक बानो की शादी नहीं हो जाती वह उन के साथ ही रहेगी. याकूब ने उसे बेटी के समान मानने का वचन शकीला को दिया था. शकीला ने कभी अपनी संतान के बारे में सोचा भी नहीं था. वह तो बानो को ही अपनी आशा और अपने जीवन का लक्ष्य समझती थी.

याकूब कुछ दिनों के बाद उदास रहने लगा. यद्यपि बानो से वह बेहद प्यार करता था परंतु उसे अपनी संतान की लालसा होने लगी. वह शकीला से केवल एक बच्चे के लिए प्रार्थना करने लगा. न जाने क्यों शकीला मां बनने से बचना चाहती थी परंतु याकूब के इकरार ने उसे मां बनने पर मजबूर कर दिया. फिर साल भर बाद शकीला की कोख से एक सुंदर बेटी ने जन्म लिया. प्यार से उन्होंने उस का नाम जाहिरा रखा.

शकीला और याकूब अपनी जिंदगी से बेहद खुश थे. जाहिरा ने उन की खुशियों को और भी बढ़ा दिया था. जाहिरा जब 3 वर्ष की हुई तो याकूब के पिता नवाब साहब आए और उसे अपने साथ ले गए. जाहिरा को उन्होंने लखनऊ के प्रसिद्ध कानवेंट में भरती कर दिया. याकूब और शकीला दोनों ही इस व्यवस्था से प्रसन्न थे.

कार्यालय की ओर से शकीला को अमेरिका में अध्ययन के लिए भेजने का प्रस्ताव था. वह बहुत प्रसन्न हुई परंतु बारबार उसे यही चिंता सताती कि बानो के रहने की व्यवस्था क्या की जाए. उस ने याकूब केसामने इस समस्या को रखा. उस ने आश्वासन दिया कि वह बानो की चिंता न करे. वह उस का पूरा ध्यान रखेगा. इन शब्दों से आश्वस्त हो कर शकीला अमेरिका के लिए रवाना हो गई.

शकीला एक साल तक अमेरिका में रही और जब वापस दिल्ली के हवाई अड्डे पर उतरी तो याकूब और बानो ने उस का स्वागत किया. कुछ दिन बाद शकीला ने महसूस किया कि याकूब कुछ बदलाबदला सा नजर आता है. वह अब पहले की तरह खुले दिल से बात नहीं करता था. उस के व्यवहार में उसे रूखापन नजर आने लगा. उधर बानो भी अब शकीला से आंख मिलाने में कतराने लगी थी. शकीला को काफी दिन तक इस का कोई भान नहीं हुआ परंतु इन हरकतों से वह कुछ असमंजस में पड़ गई. याकूब को अब छोटीछोटी बातों पर गुस्सा आ जाता था. अब वह शकीला के साथ बाहर पार्टियों में भी न जाने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ लेता. वह ज्यादा से ज्यादा समय तक बानो के साथ बातें करता.

एक दिन शकीला को कार्यालय में देर तक रुकना पड़ा. जब वह रात को अपने बंगले में पहुंची तो दरवाजा खुला था. वह बिना खटखटाए ही अंदर चली आई. वहां उस ने जो कुछ देखा तो एकदम सकपका गई. बानो का सिर याकूब की गोदी में और याकूब के होंठ बानो के होंठों से सटे हुए थे. शकीला को अचानक अपने सामने देख कर वे एकदम हड़बड़ा कर उठ गए. उन्हें तब ध्यान आया कि वे अपनी प्रेम क्रीड़ाओं में इतने व्यस्त थे कि उन्हें दरवाजा बंद करना भी याद न रहा.

शकीला पर इस हादसे का बहुत बुरा असर पड़ा. वह एकदम गुमसुम और चुप रहने लगी. याकूब और बानो भी शकीला से बात नहीं करते थे. शकीला को बुखार रहने लगा. उस का स्वास्थ्य खराब होना शुरू हो गया. उधर याकूब और बानो खुल कर मिलने लगे. नौबत यहां तक पहुंची कि अब बानो ने शकीला के कमरे में सोना बंद कर दिया. वह अब याकूब के कमरे में सोने लगी. दफ्तर से याकूब और बानो अब देर से साथसाथ आते. कभीकभी इकट्ठे पार्टियों में जाते और रात को बहुत देर से लौटते. शकीला को उन्होंने बिलकुल अलगथलग कर दिया था. शकीला उन की रंगरेलियों को देखती और चुपचाप अंदर ही अंदर घुटती रहती. 1-2 बार उस ने बानो को टोका भी परंतु बानो ने उस की परवा नहीं की.

शकीला की सहनशक्ति खत्म होती जा रही थी. रहरह कर उस को अपनी मां की बातें याद आ रही थीं. उस ने कहा था, ‘बानो अब बड़ी हो गई है. वह उसे अपने पास न रखे. कहीं ऐसा न हो कि वह उस की सौत बन जाए. मर्द जात का कोई भरोसा नहीं. वह कब, कहां फिसल जाए, कोई नहीं कह सकता.’

इस बात पर शकीला ने अपनी मां को भी फटकार दिया था, पर वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी कि याकूब इस तरह की हरकत कर सकता है. वह तो उसे बेटी के समान समझता था. शकीला को बड़ा मानसिक कष्ट  था, पर समाज में अपनी इज्जत की खातिर वह चुप रहती और मन मसोस कर सब कुछ सहे जा रही थी.

बानो के विवाह के लिए कई रिश्तों के प्रस्ताव आए. शकीला की दिली इच्छा थी कि बानो के हाथ पीले कर दे परंतु जब भी लड़के वाले आते, याकूब कोई न कोई कमी निकाल देता और बानो उस प्रस्ताव को ठुकरा देती. आखिर शकीला ने एक दिन याकूब से साफसाफ पूछ लिया. यह उन की पहली टकराहट थी. तूतू मैंमैं हुई. याकूब को भी गुस्सा आ गया. गुस्से के आवेश में याकूब ने शकीला को बीते दिनों की याद दिलाते हुए कहा, ‘‘शकीला, मैं यह जानता था कि तुम ने पहले रिजवी से निकाह किया था. जब वह तुम्हारे नाजनखरे और खर्चे बरदाश्त नहीं कर सका तो वह बेचारा बदनामी के डर से कई साल तक इस गम को सहता रहा. तुम ने मुझे कभी यह नहीं बताया कि तुम्हारे एक लड़के को वह पालता रहा. आज वह लड़का जवान हो गया है. तुम ने उस के साथ जैसा क्रूर व्यवहार किया उस को वह बरदाश्त नहीं कर सका. कुछ अरसे बाद सदा के लिए उस ने आंखें मूंद लीं.

‘‘तुम्हें याद है जब मैं ने तुम्हें उस की मौत की खबर सुनाई थी तो तुम केवल मुसकरा दी थीं और कहा था कि यह अच्छा ही हुआ कि वह अपनी मौत खुद ही मर गया, नहीं तो शायद मुझे ही उसे मारना पड़ता.’’

शकीला की आंखों से आंसू बहने लगे. फिर वह तमतमा कर बोली, ‘‘यह झूठ है, बिलकुल झूठ है. उस ने मुझे कभी प्यार नहीं किया. वह निकाह मांबाप द्वारा किया गया एक बंधन मात्र था. वह हैवान था, इनसान नहीं, इसीलिए आज तक मैं ने किसी से इस का जिक्र तक नहीं किया. फिर इस की तुम्हें जरूरत भी क्या थी? तुम ने मुझ से, मेरे शरीर से प्यार किया था न कि मेरे अतीत से.’’

‘‘शकीला, जब से मैं ने तुम्हें देखा, तुम से प्यार किया और इसीलिए विवाह भी किया. तुम्हारे अतीत को जानते हुए भी मैं ने कभी उस की छाया अपने और तुम्हारे बीच नहीं आने दी. आज तुम मेरे ऊपर लांछन लगा रही हो पर यह कहां तक ठीक है? तुम एक दोस्त हो सकती हो परंतु बीवी बनने के बिलकुल काबिल नहीं. मैं तुम्हारे व्यवहार और तानों से तंग आ चुका हूं. तुम्हारे साथ एक पल भी गुजारना अब मेरे बस का नहीं.’’

याकूब और शकीला में यह चखचख हो ही रही थी कि बानो भी वहां आ गई. बानो को देखते ही शकीला बिफर गई और रोतेरोते बोली, ‘‘मुझे क्या मालूम था कि जिसे मैं ने बच्ची के समान पाला, आज वही मेरी सौत की जगह ले लेगी. मां ने ठीक ही कहा था कि मैं जिसे इतनी आजादी दे रही हूं वह कहीं मेरा घर ही न उजाड़ दे. आज वही सबकुछ हो रहा है. अब इस घर में मेरे लिए कोई जगह नहीं.’’

बानो से चुप नहीं रहा गया. वह भी बोल पड़ी, ‘‘आपा, मैं तुम्हारी इज्जत करती हूं. तुम ने मुझे पालापोसा है पर अब मैं अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हूं. छोटी बहन होने के नाते मैं तुम्हारे भूत और वर्तमान से अच्छी तरह वाकिफ हूं. तुम्हारे पास समय ही कहां है कि तुम याकूब की जिंदगी को खुशियों से भर सको. तुम ने तो कभी अपनी कोख से जन्मी बच्ची की ओर भी ध्यान नहीं दिया. आराम और ऐयाशी की जिंदगी हर एक गुजारना चाहता है परंतु तुम्हारी तरह खुदगर्जी की जिंदगी नहीं. याकूब परेशान और बीमार रहते हैं. उन्हें मेरे सहारे की जरूरत है.’’

बानो के इस उत्तर को सुन कर शकीला सकपका गई. अब तक वह याकूब को ही दोषी समझती थी परंतु आज तो उस की बेटी समान छोटी बहन भी बेशर्मी से जबान चला रही थी. अगले दिन ही उस ने उन के जीवन से निकल जाने का निर्णय कर लिया.

शकीला जब अगले दिन अपने कार्यालय में पहुंची तो उस की मेज पर एक कार्ड पड़ा था. लिखा  था, ‘शकीला, हम साथ नहीं रह सकते.

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