Writer- जीतेंद्र मोहन भटनागर
पिछले अंक में आप ने पढ़ा था : जवान होती बेटी महुआ पर उस का बाप बांके अजीब सी निगाह रखता था. उस के ठेकेदार श्याम सुंदर ने महुआ से काम कराने के एवज में 5,000 रुपए दिए. महुआ का दिल तो घसीटा पर आया हुआ था. उसे पुरानी बातें याद आईं, जब वह अपनी सहेली फिरोजा के साथ खुश थी. फिरोजा ने उसे बुरका गिफ्ट करने का वादा किया था… अब पढि़ए आगे…
फिर जब बाजार में आफताब या घसीटा में से कोई टकरा जाता तो फिरोजा और महुआ अपनेअपने चाहने वाले को इशारे से करीब बुलातीं और कहीं सुनसान जगह पर मिलने का प्लान बनातीं.
इस तरह फिरोजा की आफताब से और महुआ की घसीटा से दोस्ती बढ़ी, पर प्यार की पेंगें जिस रफ्तार से बढ़नी चाहिए थीं, वैसी न बढ़ सकीं.
हामिद मियां को शायद भनक लग गई थी कि उन की बेटी फिरोजा का किसी लड़के के इश्क में गिरफ्तार होना शुरू हुआ है, इसलिए उन्होंने फिरोजा के घर से बाहर निकलने पर पूरी तरह रोक लगा दी थी.
उधर बांके ने भी महुआ पर सख्ती कर रखी थी, क्योंकि वह बस्ती के लड़कों की हरकतें देखता रहता था और जानता था कि वह एक पल ही होता है, जब इस उम्र का प्यार कुछ भी करा सकता?है.
महुआ और फिरोजा के दिन ऐसे ही कट रहे थे. उन का मिलना भी कम हो गया था.
बांके रोज सुबह 8 बजे अपना टिफिन का डब्बा ले कर काम पर निकल जाता. उस के बाद चमकी भी झाड़ूबुहारी और पोंछे के काम के लिए उस बस्ती के बाहर कुछ दूर बने फ्लैटों में चली जाती.
उन के जाते ही महुआ अपनी झुग्गी की साफसफाई करना, जूठे बरतन मांजना, बाहर से बालटीबालटी पानी ला कर टंकियों में भरना, सारे घर के कपड़े धोना जैसे कामों में बिजी हो जाती.
4-5 महीने देखते ही देखते निकल गए, पर महुआ और फिरोजा उसी बस्ती में 10 घरों के फर्क से रहते हुए भी नहीं मिल पाईं.
आज कई महीनों के बाद महुआ ने मन में पक्का इरादा कर लिया कि अगर फिरोजा ज्यादा सख्ती के चलते घर से नहीं निकल पा रही है, तो वह तो उस से मिलने जा सकती है.
और आज उसे मौका भी मिल ही गया. बांके के काम पर निकल जाने के कुछ देर बाद जब चमकी भी काम पर चली गई, तो महुआ ने देखा कि सामने से जद्दन बी अपने शौहर के साथ रिकशे पर बैठ कर कहीं जा रही थीं.
महुआ ने उन्हें सलाम किया, फिर पूछ लिया, ‘‘कहां जा रही हैं बूआ?’’
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‘‘फिरोजा के अब्बा को दवाखाना ले जा रही हूं. पता नहीं, कौन सी बीमारी लगा बैठे हैं. दिनभर घर में ही पड़े रहते हैं. तुम तो देखती ही हो कि फिरोजा तो कहीं आतीजाती नहीं, बस मुझे ही हर काम के लिए दौड़ना पड़ता है.’’
उन के दूर जाते ही महुआ ने घर में ताला लगाया और फिरोजा के पास पहुंच गई. फिरोजा की बेचैनी महुआ से छिपी नहीं. उसे ऐसा लगा कि फिरोजा किसी बात को ले कर मन ही मन घुट रही है.
महुआ ने पूछा, ‘‘तुम्हारे अब्बा ने ऐसा क्या कह दिया, जो तुम इतना परेशान हो रही हो?’’
‘‘महुआ, अब्बा का कहा मुझे कभी बुरा नहीं लगा, पर उन्होंने तो मेरी जिंदगी ही बरबाद कर दी और मुझे किसी लायक नहीं छोड़ा,’’ कहते हुए उस ने महुआ को सबकुछ बता दिया.
अपनी कलाई और पैरों पर बांधी गई रस्सियों के निशान दिखाते हुए वह बोली, ‘‘अपनी हवस पूरी करने के लिए वे मेरे हाथपैर तक बांध देते थे और मुंह में कपड़ा ठूंस देते थे,’’ इतना कह कर वह महुआ के सीने से चिपट कर रो पड़ी.
जब महुआ फिरोजा के घर से जाने लगी, तो फिरोजा एक रेशमी नया काला बुरका उसे देते हुए बोली, ‘‘यह मेरी अमानत तुम्हारे लिए.’’
फिरोजा की उस अमानत को अपने सीने से दबाए महुआ फिर आने का वादा कर के घर वापस चली गई. अभी घर के सारे काम बाकी पड़े थे, जिन्हें उसे समय से निबटाना था.
उस के कुछ महीनों बाद ही एक दिन जब महुआ सवेरे उठी तो देखा कि
सामने वाले रेलवे ट्रैक पर लोगों की भीड़ जमा थी.
जब उस ने लोगों से पूछा, तो बस्ती के एक आदमी ने बताया, ‘‘हामिद मियां की बेटी ने रेल से कट कर अपनी जान दे दी…’’
बस्ती वालों की शिनाख्त पर फिरोजा की लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया.
पुलिस ने फिरोजा के घर आ कर भी सूत्र जमा करने शुरू किए. उर्दू में लिखे सुसाइड नोट और पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने फिरोजा के अब्बा को गिरफ्तार कर लिया.
अखबार में छपी पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के आधार पर फिरोजा ने जब सुसाइड किया, उस समय वह पेट से थी.
उस के बाद कई रातों तक महुआ सो नहीं पाई. उसे यही अफसोस होता रहा कि सबकुछ जानते हुए भी वह अपनी पक्की सहेली फिरोजा से उस दिन के बाद से मिल नहीं पाई.
समय अपनी रफ्तार से भागता रहा. फिरोजा के हादसे के बाद महुआ ने अनुभव किया कि किसी के भी नजरों से ओझल हो जाने के बाद आसपास के माहौल में बस 2-3 दिन ही असर रहता है. उस के बाद यह दुनिया पहले की तरह ही सांसें लेने लगती है.
हामिद मियां के जेल जाने के बाद जद्दन बी भी झुग्गी बेच कर अपने भाई के साथ कहीं चली गईं. उन की झुग्गी को जिस ने खरीदा, वह बांके का पिता मुरारी था.
मुरारी का पूरा परिवार फलसब्जी बेच कर गुजारा करता था. मुरारी तो ठेले पर सब्जी सजा कर सवेरे 10 बजे निकल जाता था.
हालांकि मुरारी की फलों की पक्की दुकान थी, पर वह उस ने अपने दोनों लड़कों नवीन और घसीटा को सौंप रखी थी.
नवीन शादीशुदा था और बांके से 6 साल बड़ा था. दुकान पर नवीन ही बैठता था. दोपहर में जब वह खाना खाने घर आता, तो उस की पत्नी कुसुम ही दुकान की गद्दी संभालती थी.
घसीटा को कभी भी दुकान पर बैठने का मौका उस के भैयाभाभी देते ही नहीं थे और यह बात घसीटा को बहुत बुरी लगती थी. उसे तो चकरघिन्नी की तरह पूरे दिन इधर से उधर दौड़ाते ही रहते थे.
मंडी से सब्जी और फल खरीद कर लाने की जिम्मेदारी घसीटा की थी. अपनी साइकिल लिए वह हर तरह की दौड़भाग करता रहता.
इस तरह की जिंदगी से घसीटा ऊब चुका था. मां बचपन में ही गुजर गई थी और पिता बस बड़े भैया और भाभी के मुताबिक ही चलते.
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घसीटा ने एक बार अपने पिता से कहा भी, ‘‘बापू, मुझे भी एक हाथ ठेला दिला दो. मैं भी सब्जी या फल ले कर फेरी पर निकल जाया करूंगा.’’
इस पर मुरारी के कुछ बोलने से पहले उस की भाभी बोल पड़ी, ‘‘अलग से ठेला लगाने की क्या जरूरत है?
इतनी बड़ी फलों की दुकान तुम्हारी ही तो है. उसी में मन लगाओ.’’
इस पर मुरारी बोल पड़ा, ‘‘तुम्हारी भाभी सही तो कह रही है, फिर तुम भी ठेला लगाओगे तो मंडी की दौड़भाग कौन करेगा?’’