लेखक- विजय माथुर/कैलाश चंदेल
अगले दिन डा. सुदीप गुप्ता ने रिसैप्शन पर एक अजनबी और मोहक चेहरे को देखा तो थोड़ा आश्चर्य हुआ. दीपा ने जब एक अनजान व्यक्ति को अपनी तरफ अपलक निहारते हुए देखा तो हड़बड़ा गई. लेकिन यह सोच कर कि शायद कोई क्लायंट होगा, उस ने चेहरे पर सुलभ मुसकान लाते हुए पूछा, ‘‘यस सर, व्हाट कैन आई डू फौर यू?’’
‘‘यू कैन डू एवरीथिंक फौर मी...’’ कहते हुए डा. सुदीप ने हंस कर जवाब दिया, ‘‘आई एम डा. सुदीप गुप्ता...आई थिंक माई इंट्रोडक्शन इज सफिशिएंट फौर यू?’’
‘‘सौरी सर, मुझे मालूम नहीं था.’’ कहते हुए दीपा संकोच से सिकुड़ती हुई हड़बड़ा कर रह गई.
‘‘कोई बात नहीं,’’ डा. सुदीप ने लापरवाही दर्शाते हुए कहा, ‘‘होता है ऐसा...’’
डा. सुदीप की आंखों की चमक बता रही थी कि दीपा की खूबसूरती उन के दिल में उतर गई थी.
रात को जब डाक्टर दंपति घर लौट रहे थे, तब सीमा ने खबरिया लहजे में डा. सुदीप को बताया, ‘‘मैं ने एक रिसैप्शनिस्ट रख ली है.’’
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कार ड्राइव करते हुए सुदीप ने पत्नी से बड़े सहज भाव से कहा, ‘‘तुम ने जो किया, अच्छा ही किया होगा.’’
असल में दीपा से मिलने के बाद डा. सुदीप उतना सहज नहीं थे, जितना प्रदर्शित कर रहे थे. श्री राम अस्पताल की बागडोर पूरी तरह डा. सीमा के हाथ में थी. सरकारी नौकरी में होने के नाते डा. सुदीप सिर्फ शाम को दोढाई घंटे क्लिनिक में बैठते थे. उन की सिटिंग में नियमितता कतई नहीं थी.
लेकिन दीपा को देखने के बाद डा. सुदीप को एक मकसद मिल गया था. दीपा को देखने के बाद गंभीर रहने वाले डा. सुदीप के चेहरे पर मुसकान तैरने लगी थी. उन की हौस्पिटल सिटिंग भी बढ़ गई थी.
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