कहानी रबर बैंड की रिव्यू: कंडोम खरीदने वाला छिछोरा नहीं बल्कि जेंटलमैन होता है

रेटिंग: ढाई स्टार

निर्माताः सारिका संजोत

सहनिर्माताः नरेश दुदानी

लेखक व निर्देशकः सारिका संजोत

कलाकारः मनीष रायसिंघन, अविका गोर,प्रतीक गांधी,राजेष जैस,अरूणा ईरानी, पेंटल, गौरव गेरा व अन्य

अवधिः दो घंटे

भारत में आज भी ‘कंडोम’ को टैबू समझा जाता है. हर पुरूष दवा की दुकान से कंडोम खरीदने में  झिझकता है. इस टैबू समझे जाने वाले विषय पर ही महिला फिल्मकार सारिका संजोत ने साहसिक कदम उठाते हुए एक अनूठी कहानी पेष की है.जिसमें मामला अदालत तक पहुॅचता है और नायक जज से पूछता है-‘जिस देष में कंडोम टैबू हो,हर लड़का या पुरूष उसे खरीदने में झिझकता हो,दुकानदार एक कागज मंे लपेटकर बेचता हो,जैसे कि वह स्मगलिंग कर रहा है.ऐसे में कोई इंसान उसकी एक्सपायरी डेट कैसे देखेगा?’तो एक महिला होते हुए भी सारिका संजोत ने महिलाओं की सुरक्षा व उनके स्वास्थ्य के हित को ध्यान में रखकर इस तरह के टैबू वाले विष् ाय पर फिल्म बनायी है.अगर सारिका ने पटकथा लेखन में मेहनत की होती तो इस विषय पर इससे भी बेहतरीन फिल्म बन सकती थी.

कहानीः

फिल्म की कहानी इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने के बाद अपने पिता चैधरी साहब की दुाकन संभालने वाले आकाश (मनीष रायसिंघन) के इर्द गिर्द घूमती है. जिसके दोस्त नन्नो वकालत पास करने के बावजूद पिता की दवा की दुकान पर बैठता है.नन्नो अपनी दुकान पर ‘कंडोम’ को रबरबैंड’ के नाम से बेचता है,जिससे कोई भी लड़का बिना हिचक से खरद सके. आकाष को अपने अमीर पिता के साथ रह रही काव्या (अविका गोर) से प्यार हो जाता है.दोनों की नोकझोंक के बाद दोस्ती, प्यार और फिर शादी होती है.दोनों अभी बच्चा नही चाहते हैं.इस बात से आकाष के माता पिता भी सहमत हैं.अब आकाष सुरक्षा के लिए अपने दोस्त नन्नो की दुकान पर कंडोम खरीदने जाता है,मगर वहां नन्नो की जगह उनके पिता बैठे होते हैं.झिझक के साथ वह कंडोम/ रबरबैंड खरीदकर लाता है.कहानी में मोड़ उस समय आता है,जब आकाश द्वारा कंडोम का इस्तेमाल करने के बावजूद काव्या गर्भवती हो जाती है.क्योंकि कंडोम फट गया था. इससे दोनों की जिंदगी में उथल पुथल मच जाती है.मगर सच जाने बगैर आकाश के मन में शक पैदा होता है कि काव्या के करीबी दोस्त रोहन (रोमिल चैधरी) का इस मामले में हाथ है. आकाश उस पर बेवफाई का इल्जाम लगाता है तो काव्या नाराज होकर और गुस्से में अपने मायके चली जाती है.बाद में जब आकाश को एहसास होता है कि खराब और एक्सपायरी डेट वाला कंडोम होने के कारण वह सुरक्षा देने में सफल नहीं हुआ था,तब आकाश कंडोम बनाने वाली कंपनी ‘वी केअर’ पर अदालत में मुकदमा दर्ज करवाता है. यहां से फिल्म की एकदम नई कहानी शुरू होती है. इस केस को उसका करीबी दोस्त नन्नो (प्रतीक गांधी) ही लड़ता है.जबकि बचाव पक्ष की वकील सबसे विख्यात एडवोकेट करुणा राजदान (अरूणा ईरानी) होती है, जो अब तक एक केस भी नहीं हारी.जहां मजेदार बहस के साथ ही हर इंसान के अंदर एक जागरूकता लाने वाली बहस होती है.आकाष द्वारा अदालत के अंदर जज से पूछे गए सवाल के चलते हर इंसान बहुत कुछ सीख सकेगा .बहरहाल,जज ‘कंडोम’ बनाने वाली कंपनी को दोषी ठहराते हैं.

लेखन व निर्देशनः

फिल्मकार सारिका संजोत की बतौर लेखक व निर्देषक यह पहली फिल्म है.महिला होते हुए भी पहले प्रयास में ही एक बोल्ड विषय को उठाकर उन्होने साहस का परिचय दिया है.मगर इसकी कमजोर कड़ी इसकी पटकथा व संवाद हैं.फिल्म केकुछ संवाद अषेभनीय हैं. मसलन -अदालत के अंदर अपनी वरिष्ठ वकील अरूणा ईरानी से प्रतीक गांधी से बातचीत के संवाद अति अषोभनीय हैं.लेकिन ‘कंडोम खरीदने वाला छिछोरा नहीं बल्कि जेंटलमैन होता है.’अथवा ‘‘काव्या है,तभी तो कांफिडेंस है.‘‘जैसे कुछ संवाद अवष्य फिल्म के संदेष को आगे बढ़ाते हैं.फिल्म की गति काफी धीमी है.मगर उन्होने ‘सुरक्षित सेक्स’ पर चर्चा के महत्व को भी उकेरा है.

पूरी फिल्म बनारस में फिल्मायी गयी हैं.फिल्मसर्जक ने इस फिल्म को वास्तविक अदालत के अंदर ही फिल्माते हुए पूरी तरह से यथार्थपरक ढंग से ही फिल्माया है.इससे दर्षकों को इस बात का अहसास होता है कि छोटे षहरों की अदालतों की हालत कैसी है और वहंा किस ढंग से काम होता है.

महिला निर्देशिक होते हुए भी जिस तरह से उन्होने टैबू समझे जाने वाले व संजीदा विषय को हल्के फुल्के ढंग से पेश किया है. उसके चलते एक बार फिल्म देखी जा सकती है.

फिल्मकार ने दवा कंपनियों ंव डाक्टरांे की मिलीभगत का भी संुदर चित्रण किया है. दवा कंपनियां किस तरह डॉक्टरों को कमीशन देकर आम लोगों की जिंदगी में उथल पुथल लाने व उनकी जिंदगी के साथ खिलवाड़ करती है,इसे हल्के फुल्के ढंग से मगर बेहतरीन तरीके से उकेरा गया है.फिल्म इस बारे में भी बात करती है कि दवा कंपनियां अपना मुनाफा बढ़ाने क ेलिए किस तरह ‘एक्सपायरी डेट’ वाली दवाएं बाजार तक पहुंचाती हैं. इसमें डॉक्टर , मेडिकल स्टोर वाले और दवा कम्पनी से जुड़े लोग किस तरह शामिल होते हैं,इसका बेहतरीन चित्रण है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो न चाहते हुए भी पत्नी के गर्भवती हो जाने पर जिस पीड़ा से आकाष जैसे युवक गुजरते हैं,उसे तथा अपनी पत्नी की व्यथा के चलते जो कुछ आकाष पर गुजरता है, उस मनःस्थिति को ‘ससुराल सिमर का’ फेम अभिनेता मनीष रायसिंघन ने अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है.

आकाष के दोस्त नन्नो के किरदार में प्रतीक गांधी ने एकदम नेचुरल अभिनय किया है. वह अपनी प्रतिभा को लोहा इससे पहले ‘स्कैम 92’ में मनवा चुके हैं.काव्या क ेकिरदार में ‘बालिका वधू’ फेम अविका गोर का अभिनय ठीक ठाक है.अविका और मनीष् ा रायसिंघन की केमिस्ट्री और उनके बीच ट्यूनिंग काफी अच्छी है. अरुणा ईरानी का काम बतौर वकील काबिल ए तारीफ है.

कंडोम को टैबू मानने से होने वाली दिक्कतों पर बात करती है ‘रबरबैंड’- सारिका संजोत

हम सभी अत्याधुनिक जीवन षैली के आदी होते जा रहे हंै. मगर आज भी हमारे देष में ‘कंडोम’ टैबू बना हुआ है. आज भी लोग दुकानदार से ‘कंडोम’ मांगने में झिझकते हैं. जबकि ‘कंडोम’ कोई बुराई नहीं बल्कि जरुरत है. लोगो के बीच जागरूकता लाने व ‘कंडोम’ को टैबू न मानने की बात करने वाली फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’’ 14 अक्टूबर को सिनेमाघरों में प्रदर्षित होने जा रही है.

इस फिल्म की खासियत यह है कि इसके लेखन व निर्देषन की जिम्मेदारी किसी पुरूष ने नहीं, बल्कि एक महिला ने संभाली है. जिनका नाम है-सारिका संजोत. सारिका संजोत की बतौर लेखक व निर्देषक यह पहली फिल्म है.पहली बार ही ‘कंडोम’ जैसे टैबू माने जाने वाले विषय पर फिल्म बनाकर सारिका संजोत ने एक साहसिक कदम उठाया है. पर वह इसे सामाजिक जिम्मेदारी मानती हैं.

फिल्म ‘कहानी रबरबैंड की’’ में ‘ससुराल सिमर’ फेम अभिनेता मनीष रायसिंघन व ‘बालिका वधू’ फेम अविका गोर के साथ ही ‘स्कैम 92’ फेम प्रतीक गांधी सहित कई अन्य कलाकारों ने अभिनय किया है.

पेष है सारिका संजोत से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंष…

अब तक की आपकी यात्रा क्या रही है? फिल्मों की तरफ मुड़ने की कोई खास वजह रही?

-मैं गैर फिल्मी बैकग्राउंड से हॅूं. बचपन से फिल्में देखने का षौक रहा है. हर परिवार में मां बाप अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर बनाना चाहता है,वहीं मेरे पिता मुझे फिल्म निर्देषक बनाना चाहते थे. जबकि उनका खुद का इस क्षेत्र से कोई जुड़ाव नहीं था. वह मुझे ढेर सारे सपने दिखाते थे. मुझे हर तरह की फिल्में दिखाते थे. मैने मूक फिल्म ‘राजा हरिष्चंद्र से लेकर अब तक की लगभग हर भारतीय व कई विदेषी फिल्में देखी हैं.

मेरे पिता जी का नियम था कि वह हर षुक्रवार को रिलीज होने वाली फिल्म देखने के लिए मुझे खुद ले जाते थे या मुझे फिल्म देखने के लिए जाने के लिए कहते थे.तो दिन प्रतिदिन मेरे अंदर फिल्मों को लेकर एक उत्साह बढ़ता गया.धीरे धीरे मैने फिल्म तकनीक को लेकर पढ़ना भी षुरू कर दिया और मेरे दिमाग में यह बात आ गयी थी कि मुझे फिल्म निर्देषित करनी है.

मगर बीच में कुछ जिम्मेदारियों का वहन करना था. षादी के बाद पति व बच्चे की भी देखभाल करनी थी. उन जिम्मेदारियों से थोड़ी सी राहत मिलने पर मैने फिल्म के लिए कहानी लिखनी षुरू की. पटकथा लिखी. उसके बाद अब बतौर लेखक व निर्देषक फिल्म ‘‘कहानी रबरबैंड की’’ लेकर आयी हॅूं.

यह फिल्म बहुत ही अलग तरह के विषय पर है. मेरा मकसद लोगों को मनोरंजन के साथ संदेष देना भी है.

फिल्म ‘‘कहानी रबरबैंड’’ की कहानी का बीज कहां से मिला?

-देखिए,फिल्म देखते देखते मेरे अंदर समाज में घट रही घटनाओं में से कहानी तलाषने की स्वतः स्फूर्ति एक आदत सी बन गयी थी.मैने कई घटनाक्रमों पर कई छोटी छोटी कहानियां लिख रखी हैं,जिन्हे फिल्म के अनुरूप विकसित करने की प्रक्रिया कुछ वर्ष पहले षुरू किया था.मैने कई काॅसेप्ट पर काम किया है.

मेरी अगली फिल्म ‘कहानी रबरबैंड की’ से एकदम अलग है.मेरा मानना है कि हमारे आस पास ही कहानियांे का अंबार है.हमारे एक सहेली ने उसके साथ ‘कंडोम’ को लेकर घटी एक घटना का जिक्र किया था,उसी से प्रेरित होकर मंैने ‘कहानी रबरबैंड की’ की कहानी को लिखा.मेरी राय में हमारे आस पास जो कहानियां होती हंै, उनसे हर इंसान रिलेट करता है.मैने अपने अनुभवों से सीखा कि आम कहानियों को किस तरह से ‘खास’ बनाया जाए.हमारी फिल्म‘ कहानी रबरबैंड की’ एक हास्य फिल्म है. मगर हमने इसमें एक गंभीर व संजीदा मुद्दे पर बात की है.

आपने फिल्म का नाम कहानी रबरबैंड कीक्यों रखा?

-देखिए,हमारी फिल्म का विषय समाज में टैबू समझे जाने वाले ‘कंडोम’ पर है. लोग ‘कंडोम’ खरीदने वाले को अजीब सी नजर से देखते हैैं.जबकि ‘कंडोम’ हर मर्द और औरत की जरुरत है.सिर्फ परिवार नियोजन के ही दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी ‘कंडोम’ अत्यावष्यक है.मगर लोगों को दुकान पर जाकर ‘कंडोम’ मांगने में षर्म आती है.या यॅूं कहंे कि संकोच होता है.तो हमने सोचा कि क्यांे न इसे एक ऐसा नाम दिया जाए,जिसे लोग सहजता से ले सके.तो हमने इसे ‘रबरबैंड’ नाम दे दिया.‘रबरबैंड’ बोलने में किसी को भी न संकोच होगा और न ही षर्म आएगी. जब नाम यानी कि षब्द ‘सहज’ होगा,तो दुकानदार से मंागना भी सहज हो जाएगा.इतना ही नहीं हमने इसके पीछे पूरी एक कहानी गढ़ी है.इसलिए हमने इसे नाम दिया ‘कहानी रबर बैंड की’.तो फिल्म के ेनाम में ही कहानी है.मेरे पापा कहा करते थे कि हर सवाल में जवाब निहित होता है.देखिए,‘कंडोम’ को लेकर समस्या तो है.यह षब्द ही अपने आप मंे ‘टैबू’ है.

क्या आपने इस बात पर षोध किया कि हमारे देष में कंडोमटैबू क्यों बना हुआ है?

-देखिए,जब हम छोटे हुआ करते थे,तब हमने एक विज्ञापन देखा था- ‘हम दो हमारे दो’.बहुत ही सिंपल विज्ञापन था.यह विज्ञापन मुझे आज भी याद है.एकदम सरल व सटीक.इस विज्ञापन में कहीं कोई अष्लीलता नही थी.कुछ भी गलत नहीं था.मगर यदि बेडरूम की बात बेडरूम से बाहर आती है, मतलब बेडरूम की गतिविधि को आप बाहर लाते हैं,तो वह अष्लील है,गलत है.फिर आप कहेंगे कि ऐसे मंेे आप ‘कंडोम’ की बात क्यों कर रही हैं.तो इसलिए जैसा कि मैने पहले ही कहा कि ‘कंडोम’ जरुरत है.‘कंडोम’ टैबू नही बल्कि एक दवा है.हमें अपने बच्चांे का मुंॅह ‘कंडोम’ की तरफ से मोड़ने की बजाय उन्हे बताना चाहिए कि यह बड़े लोगों की दवा है.कुछ लोग इसे सही ढंग से बताने की बजाय काॅमेडी बना देते हैं,तब वह अष्लील हो जाता है.दूसरी दवाओं की ही तरह ‘कंडोम’ भी एक दवा है.इस बात को समझना होगा.हर पुरुष के पास पत्नी या गर्लफ्रेंड है.इतना ही नही हम मानते हैं कि हमारा देष तरक्की कर रहा है,काफी आगे जा रहा है.हम आधुनिक हो रहे हैं.फिर भी ‘कंडोम’ खरीदना ‘टैबू’ है. मैं इस बात से इंकार नहीं करती कि हमारा देष आगे बढ़ रहा है.हमारे बच्चों की सोच भी बढ़ी है.हमारे बच्चे कितने तरह के गेम खेलने लगे हैं.वह यूट्यूब व सोषल मीडिया पर बहुत कुछ देख व पढ़ रहे हैं.यदि हम पहले से उन्हे बताएंगे कि यह बड़ो की दवा है,तो युवावस्था में उन्हें दुकानदार से ‘कंडोम’ मांगने में षर्म महसूस नहीं होगी.अब जिस तरह से लड़कियों के लिए ‘सैनेटरी पैड’ उपयोगी है,उसी तरह ‘कंडोम’ भी उपयोगी है.

फिल्म ‘‘कहानी रबरबैंड की’’ की कहानी को लेकर क्या कहना चाहेंगी?

-हम विस्तार से सब कुछ बता देंगंे, तो फिर दर्षकों की फिल्म देखने की उत्सुकता ही खत्म हो जाएगी.देखिएचूक तो हर इंसान से होती है.हमारी फिल्म के ेनायक से भी चूक होती है.वह जब दुकानदार से इषारे में ‘कंडोम’ खरीदा और दुकानदार ने भी उसे कागज मंे लपेटकर पकड़ा दिया.वह चुपचाप घर आ गया.उसने उसकी एक्सपायरी की तारीख या कीमत कुछ भी चेक नही किया.पर इसी चूक की वजह से उसके परिवार में किस तरह की समस्याएं आती हैं.लड़की यानी कि उसकी पत्नी की जिंदगी मंे किस तरह की समस्याएं आती हैं.उसी का इसमंे चित्रण है. चोरी करने वाले को सजा मिलती है.पर यहां चोर कौन हैं? गलती किसकी है और जिसकी गलती है,उसे साबित कैसे किया जाए? फिल्म में हमारा नायक जिस ‘कंडोम’ को खरीदकर लाता है,वह फट जाता है,जिससे समस्याएं पैदा होती हैं. स्वाभाविक तौर पर दुकानदार ने सस्ता या एक्सपायरी वाला ‘कंडोम’ दिया था.पर सवाल है कि इस बात को अदालत में कैसे साबित क्या जाए?

लेकिन कंडोमपर ही कुछ समय पहले फिल्म जनहित में जारी आयी थी, जिसे लोगों ने पसंद नहीं किया था?

-देखिए,हर फिल्मकार अपने हिसाब से अच्छी फिल्म ही बनाता है.हर फिल्मकार चाहता है कि उसकी फिल्म को ज्यादा से ज्यादा दर्षक देखें.मगर ‘जनहित में जारी’ के फिल्मकार का संदेष अलग था और मेरी अपनी फिल्म ‘कहानी रबरबैंड की’ का संदेष अलग है.हम किसी एक जेंडर को सहज नही करना चाहते.हम हर इंसान को ‘कंडोम’ के संदर्भ में सहज करना चाहते हैं.देखिए,हम किसी लड़की से कहेंगे कि वह ‘कंडोम’ बेचकर आए,तो इससे बदलाव आएगा.जी नहीं…इसेस टैबू खत्म होगा,जी नहीं..हमें बैठकर बड़ी सरलता से हर बच्चे को ‘ंकडोम’ को दवा के रूप में बताना होगा.जब तक हम अपने बच्चों से कहेंगे कि ‘बेटा,उधर से मंुॅह मोड़ ले’या उधर मत ेदेख,तब तक ‘कंडोम’ टैबू बना रहेगा.हम जब अपने बच्चों से कहते हैं कि उधर मत देखो,तभी हम अपने बच्चांे के मन में गलत बात डाल देते हैं.मैं यह भी नही कहती कि आप उपयोग किया हुआ या बिना उपयोग किया हुआ ‘कंडोम’ख्ुाले आम सड़क पर फंेक दो,पर यदि कहीं ‘कंडोम’ कहीं रखा है,तो उसे बच्चे न देखेें,यह सोच गलत है.हम यह बताकर कि यह बड़ांे की दवा है,सब कुछ सहज कर सकते हैं.हम अपनी फिल्म के माध्यम से टैबू को खत्म करने की बात कर रहे हैं. हमारी फिल्म की कहानी ‘कंडोम’ को ‘टैबू’ मानने की वजह से होने वाली समस्याओं पर बात करती है.हमारी फिल्म किसी लड़की से कंडोम बेचकर पैसा कमाने की बात नही कर रही.हमारी फिल्म में यह कहीं नही है कि किसी के पास थोक में ‘कंडोम’ आ गए हैं,तो अब वह सोच ेमें है कि इन्हें कैसे बेचा जाए? तो ‘जनहित में जारी के फिल्मकार का कहानी व समस्या को देखने का नजरिया अलग था. मेरा अपना एक अलग नजरिया है.यदि कोई भी लड़का या लड़की 14 वर्ष का होगा,तो उसे मेरी फिल्म की बात समझ में आएगी. दूसरी बात मेरा मानना है कि ‘कंडोम’ खरीदने की जो झिझक है,वह एक दिन में नहीं जाने वाली है.हमें बच्चों के साथ बैठकर मीठी मीठी बातें करते हुए उन्हे यह समझाकर की यह बड़ांे की दवा है,उनके मन से झिझक को दूर करना होगा.

फिल्म के प्रदर्षन के बाद किस तरह के बदलाव की उम्मीद करती हैं?

-मुझे उम्मीद है कि ‘कंडोम’ टैबू नही रह जाएगा.कंडोम को लेकर समाज में जो हालात हैं,वह बदलेंगें.लोगों के मन से झिझक दूर होगी.लोग इस पर ख्ुालकर बात करंेगंे और अपने बच्चों को भी ‘कंडोम’ को बड़ांे की दवा के रूप में बताना षुरू करेंगें.

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