मूर्ति के माने

मोदी सरकार ने 2,989 करोड़ रुपए खर्च कर के सरदार वल्लभभाई पटेल की जो विशाल मूर्ति बनवाई है, उस का एक परोक्ष लाभ होगा. अब तक देशभर में जो विशाल मूर्तियां बनती रही हैं, वे पूजास्थल बन जाती हैं और उन के इर्दगिर्द पंडों की दुकानें खुल जाती हैं. जो विशाल अक्षरधाम मंदिर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी बने हैं, वहां जम कर धर्म और पाखंड का व्यापार होता है. शिरडी के फकीर की स्वर्णमंडित मूर्तियों को पंडे जम कर बेच रहे हैं.

सरकारों, खासतौर पर भाजपा सरकारों को करोड़ों रुपए इन सब मंदिरों के रखरखाव, प्रबंध, वहां तक पहुंचने वाली सड़कों, बिजली, पानी, सीवर पर खर्च करने पड़ते हैं. ये सब मूर्तियां सरदार पटेल की मूर्ति से चाहे छोटी हों पर खर्च बहुत कराती हैं.

सरदार पटेल की मूर्ति से ये सब मूर्तियां बच जाएंगी. पटेल कांग्रेसी नेता थे, इसलिए मोदी के बाद भाजपाई उन से ऊब जाएंगे और सिवा गुजरात सरकार के, यदि भाजपा की रही तो, कोई परिंदा तक वहां न जाएगा. कुछ भूलेबिसरे यात्री वहां तक जाने की जहमत उठाएंगे वह भी इसलिए कि मूर्ति की लिफ्ट में चढ़ कर कुछ आनंद ले सकें. पर चाहे जितना गुणगान किया जाए, वहां का दृश्य कुछ अजूबा नहीं है. दिल्ली की कुतुबमीनार पर जब तक चढ़ने दिया जाता था, तब भी लोग कतारों में नहीं लगते थे.

इस मूर्ति का महत्त्व महज एक और कुतुबमीनार की तरह का रह जाएगा. आसपास केवल उस की देखभाल करने वाले होंगे. जैसे अहमदाबाद में साबरमती के किनारे महात्मा गांधी का आश्रम सुनसान पड़ा रहता है वैसा ही सरदार पटेल की मूर्ति के साथ होगा. मोदी के बाद न भाजपा, न कांग्रेस, न आम गुजराती, न औसत भारतीय इस मूर्ति में रुचि दिखाएंगे.

मूर्तियां बनाने का पागलपन अब कम होगा, क्योंकि इस से छोटी मूर्तियां बना कर अब कोई विशालता का सुबूत तो नहीं दे सकता. नरेंद्र मोदी ने यदि यह सोच कर पटेल की मूर्ति बनाई हो कि कभी इस से ऊंची उन की खुद की मूर्ति बनेगी, तो बात दूसरी है.

गनीमत है कांग्रेस ने गांधी, नेहरू, इंदिरा और राजीव की बड़ी मूर्तियां नहीं बनवाईं. हां, अंबेडकर एक ऐसे उम्मीदवार अभी अवश्य हैं. उन के समर्थकों को यदि सत्ता मिली तो वे अवश्य 300 मीटर ऊंची मूर्ति बनाएंगे चाहे लखनऊ में अंबेडकर व कांशीराम की मूर्तियों को देखने कोई जाता हो या न हो.

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