सरकारी अस्पतालों की बदहाली, मध्य प्रदेश में तो बुरा हाल

फरवरी महीने के ठंड और गरमी से मिलेजुले दिनों में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक गांव के सरकारी अस्पताल में सुबह 8 बजे से ही मरीजों की काफी भीड़ जमा हो गई थी. भीड़ में मर्दऔरतों का जमावड़ा तो था ही, अपने छोटेछोटे बच्चों को गोद में लिए कुछ नौजवान औरतें भी अपनी बारी के आने का इंतजार कर रही थीं.

10 रुपए काउंटर पर जमा कर के सभी अपने हाथ में ओपीडी की स्लिप पकड़े हुए डाक्टर के आने की बाट जोह रहे थे. सभी आपस में अपने दुखदर्द सा?ा करते हुए अपनीअपनी बीमारी की चर्चा कर रहे थे. ज्यादातर मरीज मौसमी बुखार और सर्दीखांसी से पीडि़त नजर आ रहे थे.

तकरीबन 9 बजे ड्यूटी पर तैनात डाक्टर ओपीडी में आए, तो घंटों लाइन में लगे मरीजों और उन के साथ आए लोगों के चेहरे पर मुसकान फैल गई. डाक्टर ने बारीबारी से मरीजों को देखना शुरू किया और परचे पर दवाएं लिख दीं.

कुछ ही समय में दवा के काउंटर पर भी भीड़ बढ़ने लगी. काउंटर पर तैनात मुलाजिम कुछ दवाएं दे रहा था और कुछ दवाएं मैडिकल स्टोर से खरीदने का बोल रहा था. मरीज इस बात को ले कर परेशान थे कि उन्हें मैडिकल स्टोर से महंगी दवाएं लेनी पड़ेंगी.

अभी कुछ ही मरीजों का इलाज हुआ था कि सड़क हादसे में घायल हुए एक आदमी को कुछ लोग अस्पताल ले कर आए. उन में से एक आदमी ने डाक्टर से कहा, ‘‘डाक्टर साहब, पहले इसे देख लीजिए. इस के सिर में चोट लगी है और खून भी बह रहा है.’’

तकरीबन 5,000 की आबादी वाले इस गांव में नौकरी कर रहे उस एकलौते डाक्टर ने ओपीडी छोड़ कर घायल आदमी की तरफ रुख करते हुए उसे ले कर आए लोगों से कहा, ‘‘अस्पताल में पट्टी नहीं है. जब तक मैं घाव पर मरहम लगाता हूं, तब तक आप बाहर मैडिकल स्टोर से पट्टियां मंगवा लीजिए.’’

एक नौजवान भागते हुए बाहर से पट्टियां खरीद कर ले आया, तो डाक्टर ने प्राथमिक उपचार कर उसे डिस्ट्रिक्ट हौस्पिटल के लिए रैफर कर दिया.

गांव में मेहनतमजदूरी करने वाले लोगों का सुबह से काम पर न जाने से मजदूरी का नुकसान तो हो ही रहा था, ऊपर से उन्हें जेब से कुछ रुपए भी खर्च करने पड़ रहे थे. कुछ नौजवान सरकार को कोस भी रहे थे कि सरकारी अस्पताल में इलाज के माकूल इंतजाम नहीं हैं और सरकार स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने का ढोल पीट रही है.

सरकारी अस्पतालों में बदइंतजामी का नजारा कोई नई बात नहीं है. गांवकसबों के बहुत से अस्पताल तो डाक्टरों के बिना भी चल रहे हैं. सरकार गरीबों के उपचार के लिए ढेर सारी योजनाएं बना रही है, मगर डाक्टर और स्टाफ की कमी से जू?ाते अस्पताल गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों को इलाज मुहैया कराने में नाकाम हो रहे हैं. सरकारी अस्पतालों का सच जानने के लिए देश के अलगअलग हिस्सों का रुख करते हैं.

मध्य प्रदेश में कटनी जिले की स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी बदहाल है, इस का खुलासा नीति आयोग द्वारा जारी हुई लिस्ट से हुआ है. इस में रीठी स्वास्थ्य केंद्र के हालात काफी खराब बताए गए हैं, जिसे ले कर नीति आयोग ने कटनी सीएमएचओ राजेश आठ्या को चिट्ठी जारी करते हुए उन्हें इंतजाम दुरुस्त करने के निर्देश जारी किए हैं.

कटनी में 6 स्वास्थ्य केंद्र शामिल हैं, जिस के हर केंद्र में 4 से 5 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए गए हैं, लेकिन तमाम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में न तो डाक्टर मिलते हैं, न ही बेहतर इलाज. इन सब बातों की जांच के लिए बाहर से आई टीम ने जिले के सभी ब्लौकों में स्वास्थ्य इंतजामों की जांच की, जिस में सब से खराब हालात रीठी स्वास्थ्य केंद्र में मिले थे.

रीठी ब्लौक का ज्यादातर हिस्सा पहाड़ी इलाकों में शामिल है, जहां गरीब तबके के लोग रहते हैं. हालांकि, क्षेत्र में स्वास्थ्य इंतजामों को दुरुस्त करने के लिए शासन ने लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च किए हैं, लेकिन जमीनी लैवल पर हालात जस के तस बने हुए हैं.

मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के गांवदेहात के इलाकों में नएनए अस्पताल भवन तो बन रहे हैं, लेकिन इन अस्पतालों में न तो डाक्टर हैं और न ही इलाज की जरूरी सुविधाएं हैं. कई अस्पताल ऐसे हैं, जो बंद ही रहते हैं, तो कई अस्पताल कभीकभार खुलते हैं.

गांवदेहात के अस्पतालों की इस बदहाली के चलते मरीज व घायलों को इलाज के लिए ?ालाछाप डाक्टरों के यहां जाना पड़ता है, जहां इलाज कराना न सिर्फ जोखिम भरा है, बल्कि जेब पर भी भारी पड़ता है.

मध्य प्रदेश में गांवकसबों के अस्पताल के अलावा कई शहरों के अस्पताल भी अच्छी हालत में नहीं हैं. शाजापुर का जिला अस्पताल खुद बीमार है. इस अस्पताल में लिफ्ट तो है, लेकिन चलती नहीं. एक्सरे मशीन लगी है, लेकिन रिपोर्ट बनाने के लिए फिल्म नहीं है. मजबूरी में लोग कागज पर एक्सरे की रिपोर्ट निकलवाते हैं और यही रिपोर्ट डाक्टर को दिखा कर अपना इलाज कराते हैं.

जब कोई मरीज काफी पूछताछ करता है, तो रेडियोलौजिस्ट एक ही जवाब देता है कि एक्सरे की फिल्म काफी महंगी आती है और कई साल से सरकार ने इस के लिए बजट ही नहीं दिया है.

सरकारी अस्पताल में सरकार ने जांच के लिए भले ही मशीन लगा दी हो, पर स्टाफ की कमी की वजह से मरीजों को सुविधा कम, परेशानी ज्यादा हो रही है.

राजस्थान के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में मरीजों को सोनोग्राफी कराने के लिए लंबी कतार में लगना पड़ता है. उदयपुर में सोनोग्राफी के लिए मरीजों को एक हफ्ते के बाद आने को कहा जाता है और भीलवाड़ा में 15 से 20 दिन बाद की तारीख मिलती है. अलवर के राजीव गांधी सामान्य अस्पताल में तो मरीजों को सोनोग्राफी जांच के लिए 2 महीने का इंतजार करना पड़ता है.

मजबूरन मरीजों को निजी लैब से सोनोग्राफी करानी पड़ रही है. जब तक परची नहीं कटती, तब तक मरीज को पता नहीं चलता कि उसे सोनोग्राफी की कौन सी तारीख दी जा रही है. प्राइवेट लैब से सोनोग्राफी के लिए 800 से 1,000 रुपए ढीले करने पड़ते हैं.

?ां?ानूं के राजकीय भगवानदास खेतान अस्पताल में सिर्फ एक सोनोग्राफी मशीन है, जिस में रोजाना 40 मरीजों की सोनोग्राफी हो पाती है. बाद में आने वालों को आगे की तारीख दे दी जाती है. यहां पर एक दूसरी सोनोग्राफी मशीन स्टोर में ताले में बंद पड़ी है.

जोधपुर के उम्मेद अस्पताल में इंडोर पेशेंट की इमर्जैंसी के हिसाब से उसी दिन और बाकी की 24 घंटे में सोनोग्राफी होती है और आउटडोर मरीजों को सोनोग्राफी के लिए 20 से 25 दिन का इंतजार करना पड़ता है.

भीलवाड़ा के एमजीएच में 4 सोनोग्राफी मशीन हैं, लेकिन 2 ही डाक्टर होने से 2 मशीन पर ही सोनोग्राफी की जाती है. उदयपुर के आरएनटी मैडिकल कालेज में सोनोग्राफी की तारीख 5 से 7 दिन बाद की मिलती है. गर्भवती महिलाओं और दूसरे मरीजों के लिए अलगअलग व्यवस्था रहती है. गर्भवती महिलाओं को 6 से 7 दिन बाद की तारीख दी जाती है.

शहरी बना रहे हैं नीतियां आज भी देश के ज्यादातर हिस्सों में सरकारी अस्पतालों में इलाज के नाम पर बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं. एंबुलैंस, शव वाहन, जननी ऐक्सप्रैस जैसे वाहन केवल प्रचार का जरीया बने हुए हैं. ओडिशा के कालाहांडी से ले कर छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और मध्य प्रदेश में अस्पताल से मृतक के शव को परिजनों द्वारा कंधे, साइकिल और आटोरिकशा पर लाद कर घर ले जाने की तसवीरें केंद्र और राज्य सरकारों की स्वास्थ्य योजनाओं की पोल खोलती नजर आती हैं.

आजादी के बाद कांग्रेस के राज को कोसने वाली इस सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि 10 सालों में उस ने देश के अंदर स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार में कौन सा बड़ा कदम उठाया है? चौराहों पर लगे बड़ेबड़़े होर्डिंग स्वास्थ्य सुविधाओं का बखान कर देखने में भले ही लोगों का ध्यान खींचते हों, पर जमीनी तौर पर पर इन योजनाओं का असरदार ढंग से पूरा न होने से देश के नागरिकों का हाल बेहाल है. भूखेनंगे गरीबों को इलाज की सुविधा मुहैया नहीं है और आप ऊंचीऊंची मूर्तियों पर पैसा लुटा रहे हैं.

देश में राम मंदिर बनाने से भले ही वोट बटोरे जा सकते हों, पर गरीब के दुखदर्द नहीं मिटाए जा सकते. शायद आप भूल जाते हैं कि देश को मंदिरों की नहीं, बल्कि अस्पतालों की जरूरत ज्यादा है.

जनता अब अच्छी तरह जान गई है कि जुमलों से इनसान के दुखदर्द को दूर करने का झांसा देने वाले धर्म के ठेकेदार कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण के कारण किस तरह मंदिरों में ताले लगा कर मुंह छिपा कर घरों में कैद हो गए थे.

मगर भारत जैसे विकासशील देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बेहद कमजोर है. सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की तादाद बेहद कम है, तो निजी अस्पतालों का महंगा इलाज गरीब के बूते के बाहर है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, तकरीबन 1,000 की आबादी पर एक डाक्टर होना चाहिए, लेकिन इस पैमाने पर देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कहीं नहीं टिकती है. नैशनल हैल्थ प्रोफाइल की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 11,000 से ज्यादा की आबादी पर महज एक सरकारी डाक्टर है.

उत्तर भारत के राज्यों में हालात बद से बदतर हैं. बिहार में एक सरकारी डाक्टर के कंधों पर 28,391 लोगों के इलाज की जिम्मेदारी है. उत्तर प्रदेश में 19,962, झारखंड में 18,518, मध्य प्रदेश में 17,192, महाराष्ट्र में 16,992 और छत्तीसगढ़ में 15,916 लोगों पर महज एक डाक्टर है.

केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री संसद में बता चुके हैं कि देश में कुल 6 लाख डाक्टरों की कमी है. हाल इतना बुरा है कि देश के 15,700 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ एकएक डाक्टर के भरोसे चल रहे हैं.

इंडियन जर्नल औफ पब्लिक हैल्थ ने अपनी एक स्टडी में कहा है कि अगर भारत को विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानक पर पहुंचना है, तो उसे साल 2030 तक 27 लाख डाक्टरों की भरती करनी होगी. हालांकि, स्वास्थ्य और शिक्षा के बजाय भगवा रंग में रंगी यह सरकार मंदिर बनाने और मूर्तियां लगाने पर पैसा पानी की तरह बहा देगी, लेकिन गरीब जनता की सेहत से उसे कोई सरोकार नहीं है.

दरअसल, एयरकंडीशनर कमरों में बैठ कर नीतियां बनाने वाले शहरी नीतिनिर्धारक अभी भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि गांव वालों के पास इलाज के लिए पैसे नहीं होते. सच तो यह है कि गांव के लोगों के पास इलाज के लिए पैसे होते तो वे सरकारी अस्पताल के चक्कर काटने के बजाय प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराते.

गांवकसबों के लिए सरकारी नीतियां अब विधायक, सांसद नहीं बनाते, बल्कि शहरों के इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ने वाले अफसर बनाते हैं. ये अफसर कंप्यूटर पर 50 पेज का पावर पौइंट प्रैजेंटेशन तैयार कर मीटिंग में मंत्रियों को दिखाते हैं, मगर गांव के हालात से उन्हें कोई मतलब नहीं होता.

सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार कर करोड़ों रुपए की रकम ऐंठने वाले इन अफसरों के गांवकसबों में बड़ेबड़े रिजौर्ट तो बन गए हैं, मगर गांव से इन का कोई सरोकार नहीं है. अफसर और मंत्रियों की काली कमाई से बड़े शहरों में प्राइवेट हौस्पिटल बने हुए हैं, जिन तक गांव के गरीब आदमी की पहुंच ही नहीं है.

स्वास्थ्य सेवाओं में फिसड्डी

मध्य प्रदेश के 51 जिलों में 8,764 प्राथमिक उपस्वास्थ्य केंद्र, 1,157 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 334 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 63 सिविल अस्पताल, 51 जिला अस्पताल हैं, पर कई जिलों में स्वास्थ्य सेवाएं मानो खुद वैंटिलेटर पर हैं. सरकार रोज नई स्वास्थ्य योजनाएं लागू कर रही है, लेकिन फील्ड पर इस के नतीजे निराशाजनक ही रहे हैं.

ज्यादातर सरकारी अस्पताल डाक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं. सरकारी योजनाओं में फैला भ्रष्टाचार भी व्यवस्थाओं को बरबाद करने में अपना अहम रोल निभा रहा है.

भोपाल और इंदौर जैसे बड़े शहरों के बड़ेबड़े सरकारी अस्पताल बदहाल हैं. ऐसे में छोटे जिलों, तहसीलों, कसबों और गांवदेहात के इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

मध्य प्रदेश के गांवदेहात के इलाकों के हालात बद से बदतर हैं. मनकवारा गांव के सुखराम कुशवाहा कहते हैं, ‘‘गांवकसबों में संविदा पर नियुक्त स्वास्थ्य कार्यकर्ता हफ्ते में एक दिन जा कर पंचायत भवन या स्कूल में घंटे 2 घंटे बैठ कर बच्चों को टीका लगा कर मरीजों को नीलीपीली गोलियां बांट कर अपने काम से पल्ला झाड़ लेते हैं.’’

गरीब दलित और पिछड़े परिवारों का एक बड़ा तबका बीमारी में सरकारी अस्पतालों की ओर ही भागता है. रोजाना 250-300 रुपए मजदूरी से कमाने वाला गरीब प्राइवेट डाक्टरों की भारीभरकम फीस और दवाओं का खर्च नहीं उठा पाता.

सरकारी अस्पतालों की बदहाली के शिकार गरीब आदमी बीमार होने पर मन मसोस कर सरकारी अस्पतालों में जाते हैं, जहां उसे रोगी कल्याण समिति के नाम पर 10 रुपए, जांच शुल्क के नाम पर 30 रुपए और भरती होने पर 50 रुपए की रसीद कटवानी पड़ती है. एएनएम और नर्सों द्वारा उन का इलाज किया जाता है.

किसी तरह की अव्यवस्था की शिकायत गरीब डर की वजह से नहीं कर पाता है और कभी उस ने किसी विभागीय टोल फ्री नंबर पर औनलाइन शिकायत कर भी दी, तो विभागीय कर्मचारियों द्वारा शिकायत करने वाले को डरायाधमकाया जाता है. सरकारी पोर्टल पर गोलमोल जवाब डाल कर शिकायत का निबटान कर दिया जाता है.

गरीब के पास वोटरूपी हथियार होता है. कभी व्यवस्था से नाराज हो कर वह सरकार बदलने का कदम उठाता भी है तो अगली सरकार का रवैया भी ढाक के तीन पात के समान ही रहता है. ऐसे में लाचार गरीब सरकारी अस्पतालों में मिल रही आधीअधूरी सुविधाओं से काम चला लेने में ही अपनी भलाई समझाता है.

सरकारी योजनाओं की लूट

मध्य प्रदेश के ज्यादातर प्राइवेट अस्पताल राजनीतिक रसूख रखने वाले डाक्टरों के हैं, जिन में सरकारी योजनाओं के तहत मरीजों का इलाज किया जाता है और सरकार से लाखों रुपए के क्लेम की बंदरबांट की जाती है.

आयुष्मान योजना केंद्र सरकार ने गरीब मरीजों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के मकसद से शुरू की थी, लेकिन निजी अस्पतालों के लिए यह योजना पैसा कमाने का जरीया बन गई.

फर्जीवाड़ा कर रहे डाक्टर सामान्य बीमारी वाले मरीजों या स्वस्थ लोगों को गंभीर रोगों से पीडि़त बता कर उन के इलाज के नाम पर सरकारी पैसा लूट रहे हैं. यह रकम थोड़ीबहुत नहीं, बल्कि लाखों रुपए में होती है.

होटल वेगा में भरती मरीजों के बारे में जान कर आप को भी पता चलेगा कि किस तरह आयुष्मान योजना में भ्रष्टाचार किया जाता है.

जबलपुर पुलिस की टीम ने स्वास्थ्य विभाग के साथ मिल कर 26 अगस्त, 2022 को सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में छापा मारा था. उस समय अस्पताल के अलावा होटल वेगा में भी छापा मारा गया था.

जांच के दौरान होटल वेगा और अस्पताल में आयुष्मान कार्डधारी मरीज भरती पाए गए थे. अस्पताल संचालक दुहिता पाठक और उन के पति डाक्टर अश्विनी कुमार पाठक ने कई लोगों को फर्जी मरीज बना कर यहां रखा था. होटल के कमरे में 3-3 लोग भरती पाए गए थे. इस के बाद पुलिस ने डाक्टर दंपती के खिलाफ विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया था और डाक्टर दंपती को जेल की हवा खानी पड़ी थी.

इस मामले की जांच के लिए एसआईटी का गठन किया गया था. एसआईटी की जांच में यह खुलासा हुआ था कि आयुष्मान भारत योजना के तहत सैंट्रल इंडिया किडनी हौस्पिटल में पिछले 2 से ढाई साल में तकरीबन 4,000 मरीजों का इलाज हुआ था, जिस के एवज में सरकार द्वारा तकरीबन साढ़े 12 करोड़ रुपए का भुगतान अस्पताल को किया गया था. इस के साथ ही इस बात के भी दस्तावेज मिले हैं कि

दूसरे राज्यों के मरीजों का उपचार भी सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में हुआ था, जो गैरकानूनी है.

एसआईटी ने सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में काम कर रहे मुलाजिमों से भी पूछताछ की, जिस में कई मुलाजिमों ने बताया कि वे अस्पताल में आयुष्मान हितग्राही को भरती करवाते थे, तो अस्पताल संचालक दुहिता पाठक और उन के पति डाक्टर अश्विनी पाठक बतौर कमीशन 5,000 रुपए देते थे.

कमीशन लेने के लिए मुलाजिमों ने कई बार एक ही परिवार के लोगों को अलगअलग तारीख में भरती किया था. उन के नाम पर अस्पताल द्वारा आयुष्मान योजना के फर्जी बिल लगा कर लाखों रुपए की वसूली की गई थी.

इसी तरह टीला जमालपुरा में बनी हाउसिंग बोर्ड कालोनी में रहने वाले 28 साल के खालिद अली ने नवंबर, 2021 में अपने 3 महीने के बेटे जोहान के सर्दीजुकाम के इलाज के लिए भोपाल के मैक्स केयर अस्पताल में भरती कराया था. बाद में डाक्टरों द्वारा बताया गया कि उस बच्चे को निमोनिया हो गया है.

3 महीने तक मासूम को हौस्पिटल में भरती रखा गया, जिस में कई बार में दवाओं और इलाज के नाम पर 3 लाख से ज्यादा रुपए वसूल लिए गए. खालिद अली जब भी बिल मांगता, अस्पताल मैनेजमैंट उसे टका सा जबाव दे देता कि मरीज के डिस्चार्ज होने के समय पूरे बिल दे दिए जाएंगे, आप चिंता न करें.

जनवरी, 2022 में आखिरकार मासूम जोहान की मौत हो गई और बाद में पता लगा कि अस्पताल की ओर से आयुष्मान कार्ड से भी बच्चे के इलाज के नाम पर रकम सरकारी खजाने से ली गई है, जबकि खालिद अली के परिवार को इस की जानकारी नहीं दी गई थी. सब से पहले इस फर्जीवाड़े की शिकायत पुलिस थाने में की तो सुनवाई नहीं हुई. तब जा कर कोर्ट में परिवाद दायर किया.

खालिद अली ने बताया कि मैक्स केयर हौस्पिटल का संचालक डाक्टर अल्ताफ मसूद सरकारी योजनाओं में जम कर भ्रष्टाचार कर रहे हैं और उन के खिलाफ शिकायतें भी हो रही हैं, मगर अपनी राजनीतिक पहुंच के चलते उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती है.

अभी भी मैक्स केयर हौस्पिटल की ओपीडी में डाक्टर अल्ताफ मसूद मरीजों का इलाज कर रहे हैं और पुलिस जांच के नाम पर खानापूरी कर यह बता रही है कि वे हास्पिटल में नहीं हैं.

चिंताजनक बात यह है कि देश के दूरदराज के इलाकों में लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. बड़ेबड़े सरकारी अस्पतालों में एंबुलैंस नहीं हैं और जो हैं उन के अस्थिपंजर ढीले पड़ गए हैं. देश के जनसेवक इन सब पर ध्यान देने के बजाय करोड़ों रुपए खर्च कर हवाईजहाज खरीद रहे हैं और जुमले उछाल कर लोगों का मन बहला रहे हैं.

आजादी के 7 दशकों के बाद भी हम गरीबों के लिए कोई खास सुविधाएं नहीं जुटा पाए हैं. जब देश के रहनुमा कोरोना की जंग लड़ने के लिए जुमलों के साथ ताली और थाली बजाने व दीया जलाने को रोग भगाने का टोटका सम?ाते हों, हौस्पिटल में स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने के बजाय भव्य मंदिर और ऊंचीऊंची मूर्तियों के बनाने को विकास समझते हों, ऐसे शासकों से आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है?

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