Equality Struggle: दलित नौजवान – अपनी मशाल खुद बनें

Equality Struggle: हर साल 14 अप्रैल को ‘अंबेडकर जयंती’ के मौके पर ‘नीला गमछा’ गले में लटका कर डाक्टर भीमराव अंबेडकर की एक हाथ में संविधान पकड़े और दूसरे हाथ से आसमान को उंगली दिखाती मूर्ति के ‘चरणों’ में झुक कर गुलाब या गेंदे के ‘लालपीले फूल’ चढ़ा देने भर से अगर आप ने काले फ्रेम का चश्मा और कोटपैंट पहने इस इनसान की सोच पकड़ ली है, तो आप गलत दिशा में जा रहे हैं. आप की इस इनसान को ले कर भ्रामक सोच आज भी कायम है.

डाक्टर भीमराव अंबेडकर को सम झने के लिए हमें जातिवाद के उस जहरीले सांप को सम झना होगा, जिस ने अपने अहंकार में आज तक अपनी केंचुली भी नहीं बदली है. हमें समाज की बेकार सोच के उस कूड़ेदान से वह आईना बाहर निकालना होगा, जिस में शूद्रों को उन की परछाईं तक नहीं दिखती है. कितने भयावह हालात हैं न?

एक उदाहरण से समझते हैं. एक समय देश के सब से ज्यादा पढ़ेलिखे लोगों में शुमार डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने संविधान को ले कर अपने एक भाषण में कहा था, ‘मैं यहां पर संविधान की अच्छाइयां गिनाने नहीं जाऊंगा, क्योंकि मु झे लगता है संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह अंतत: बुरा साबित होगा, अगर उसे इस्तेमाल में लाने वाले लोग बुरे होंगे. और संविधान कितना भी बुरा क्यों न हो, वह अंतत: अच्छा साबित होगा, अगर उसे इस्तेमाल में लाने वाले लोग अच्छे होंगे.’

किसी इनसान के अच्छा या बुरा होने की इस से ज्यादा सटीक व्याख्या नहीं हो सकती, क्योंकि यह बात वह आदमी भरी संसद में बोल रहा है, जिसे अपने बचपन से ले कर आज तक जाति के नाम पर दुत्कार, पीड़ा और नफरत ही मिली है. आज भले ही उस ने अपनी पढ़ाईलिखाई से अपने विचारों को ‘शुद्ध’ कर लिया है, पर जब वह यह शिक्षा पा रहा था, तब स्कूल में उसे ‘अशुद्ध’ होने का ‘जातिगत तमगा’ देने वालों ने पूरी ‘श्रद्धा’ से चाहा था कि ब्रह्मा के पैर से जन्मा यह ‘अछूत’ अपने पुश्तैनी काम के बो झ तले दब कर कीड़ेमकोड़े की तरह मरखप जाए.

अब आज की बात करते हैं. इसी साल सितंबर का महीना और जगह उत्तर प्रदेश का बाराबंकी जिला. वहां के मसौली थाना इलाके के मलौली मजरे डापलिन पुरवा के रहने वाले निचली जाति के उदयभान निर्मल के मुताबिक, वह यूपीएसआई (उत्तर प्रदेश पुलिस सबइंस्पैक्टर) की तैयारी कर रहा था और इस के लिए वह चौराहे पर बनी क्वांटम लाइब्रेरी में रोजाना पढ़ने के लिए जाता था.

आरोप है कि रविवार, 21 सितंबर को दोपहर 2 बजे के बाद लंच हुआ और खाना खाने के लिए सभी छात्र एकत्र हुए. इसी बीच उदयभान निर्मल ने गलती से किसी दूसरे छात्र का टिफिन छू दिया. उस ऊंची जाति के प्रदुम्न ने जातिगत नफरत दिखाते हुए टिफिन दूर फेंक दिया.

पीडि़त छात्र उदयभान निर्मल के मुताबिक, प्रदुम्न ने टिफिन फेंकते हुए कहा कि तुम नीची जाति के हो, मेरे साथ बैठ कर खाना नहीं खा सकते. तुम्हारा काम जूतेचप्पल की मरम्मत करना है, पढ़ाईलिखाई करना तुम्हारा काम नहीं है.

पीडि़त उदयभान निर्मल आगे ने बताया कि प्रदुम्न ने जातिसूचक अपशब्द और गाली देने के बाद दोस्तों को फोन कर के बुला लिया और उस की बेरहमी से पिटाई कर दी. आगे कुछ कार्रवाई करने पर जान से मारने की धमकी दी.

बेइज्जती और मारपीट से दुखी दलित छात्र उदयभान निर्मल ने मसौली थाने में तहरीर दे कर कार्रवाई की मांग की है.

उदयभान निर्मल का कहना है कि वह प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा है, लेकिन ‘शिक्षा के मंदिर’ (लाइब्रेरी) में भी जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा, जो बेहद दुखद और शर्मनाक है.

उदयभान ने भले ही अपने नाम के आगे ‘निर्मल’ लगा है, पर वह प्रदुम्न जैसे अगड़ी जाति वालों के मन का मैल धो नहीं पा रहा है. लाइब्रेरी, जहां शांत रह कर शिक्षा हासिल की जाती है, वहां भी प्रदुम्न के मन में ‘जातिवाद का शोर’ इतना ज्यादा हावी था कि उसे उदयभान की हलकी सी छुअन भी स्वीकार नहीं हुई.

‘तुम्हारा काम जूतेचप्पल की मरम्मत करना है, पढ़ाईलिखाई करना तुम्हारा काम नहीं है’ वाली यह सोच प्रदुम्न में अचानक से नहीं जन्मी है, बल्कि इसे तो उस के बड़े ने पालपोस कर विरासत में दिया है कि भले ही देश कितनी भी तरक्की कर जाए, संविधान कितना भी मजबूत हो जाए, पर ये दोनों तुम्हारे जूते की नोक पर रहेंगे, क्योंकि तुम ‘बह्मा की श्रेष्ठ संतान’ हो, ‘ब्लू ब्लड’ हो. तुम देश और संविधान से भी ऊपर हो. यह ‘वैचारिक बुल्डोजर’ सदियों से वंचित समाज को रौंदता आया है.

यहां सवाल उठता है कि क्या जातिवाद को खत्म करने के लिए पढ़ाईलिखाई को वंचितों का हथियार बनाया जा सकता है? हां, पर हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि निचली जाति के लोगों में पढ़ाईलिखाई को ले कर सोच क्या बनी हुई है.

पढ़ाई करने से हम देश, समाज और दुनिया के प्रति जागरूक होते हैं, अच्छा रोजगार पाते हैं, चार लोगों में अपने विचार रखने की सोच बना पाते हैं, पर साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि जिस देश और समाज में हम रह रहे हैं, उस पर धार्मिक कट्टरता बहुत ज्यादा हावी हो गई है. हर किसी को अपनेअपने ईश्वर की तलाश सी रहती है. यही वजह है कि वंचित समाज ने भी डाक्टर भीमराव अंबेडकर में अपना ईश्वर तलाशना शुरू कर दिया है. यह मूर्तिपूजा का ही नया रूप है, क्योंकि इस तलाश में भीमराव अंबेडकर के विचार तो दब गए हैं.

पाखंडी पंडेपुजारी तो चाहते हैं कि उन के मंदिरों में वे भक्त ही भेड़ की तरह सिर झुकाए चले आएं, जिन में दानपात्र भरने की ताकत है, फिर चाहे वे किसी भी समाज, समुदाय और जाति के क्यों न हों. फटेहाल दलित अंबेडकर की मूर्ति में उल झे रहें, नीले गमछे के बो झ में दबे रहें, नेता के भाषणों को सुनने वाली भीड़ बने रहें और थोड़ा सा बरगलाने पर ढेर सारे वोट सियासी रहनुमाओं के बैलेट बौक्स में दान स्वरूप चढ़ा दें, यही काफी है. वे बिना सिर के (बेदिमाग) वोटबैंक हैं, जिन्हें सिर्फ चुनाव में चूना लगाया जाता है.

यह सियासी प्रपंच तब और ज्यादा बढ़ा, जब हर नेता को यह लगा कि दलित समाज डाक्टर अंबेडकर के नाम पर एकजुट हो गया है या हो सकता है. नेताओं ने इसे अपना ‘दलित प्रेम’ बताया पर हकीकत में ऐसा नहीं है. हर दल इस समुदाय से ‘सियासी स्वार्थ’ साध रहा है, इन के घर भोजन करने की नौटंकी कर रहा है, इन्हें ‘सुरक्षित सीट’ से टिकट दे रहा है, पर भला कुछ नहीं कर रहा. खुद इस समाज से निकले नेता भी कागजी शेर बन कर रह गए हैं. अगड़ों का ‘यैसमैन’ कहलाने में इन्हें अलग तरह का सुख मिलता है.

इस बात को इस उदाहरण से सम झते हैं. ‘फौरवर्ड प्रैस’ में कंवल भारती का एक लेख छपा था, जिस में उत्तर प्रदेश में हाथरस जिले की इगलास सुरक्षित सीट से साल 2017 में चुने गए विधायक राजवीर दिलेर का जिक्र किया गया था. इन के पिता किशन लाल भी 5 बार के विधायक और एक बार के सांसद थे. पढ़ाईलिखाई इन की ज्यादा नहीं है.

राजवीर दिलेर के बारे में पत्रकार आलोक शर्मा की एक रिपोर्ट अखबार ‘टाइम्स औफ इंडिया’ में छपी थी, जिस के मुताबिक ये सवर्णों के यहां जमीन पर बैठते हैं, चाय के लिए अपना कप अपने साथ रखते हैं और कहते हैं कि ‘मेरे बाप भी जातिवाद मानते थे, और मैं भी मानता हूं’.

राजवीर दिलेर का सुरक्षित क्षेत्र जाटों का इलाका है, जिन की तादाद 90,000 है. इन्हीं के वोटों पर इस दलित की जीत निर्भर करती है. क्या इस विधायक से दलितों के लिए काम करने की उम्मीद की जा सकती है?

शायद नहीं, क्योंकि ऐसे नेता भी वोटबैंक की ताकत सम झते हैं. इन्हें भले ही ‘सुरक्षित सीट’ मिल जाती है, पर जब तक दूसरी जातियों का हाथ इन के सिर पर नहीं आता है, तब तक इन का जीतना बड़ा मुश्किल होता है.

जब नेताओं का ऐसा गठजोड़ बनता है, तो दलित तबके के गरीब और अनपढ़ लोग तो क्या, अच्छे पढ़ेलिखे और ‘वैल सैटल्ड’ लोग भी तन और मन से हताश हो जाते हैं. हरियाणा में आईपीएस वाई. पूरन कुमार की खुदकुशी का मामला इसी प्रशासनिक और राजनीतिक अंधेरगर्दी का नतीजा है, जहां एक बड़ा अफसर 7 अक्तूबर, 2025 को चंडीगढ़ में गोली मार कर अपनी जिंदगी खत्म कर लेता है.

आईपीएस वाई. पूरन कुमार आंध्र प्रदेश के रहने वाले थे. उन का जन्म 27 अक्तूबर, 1977 को हुआ था. उन्होंने आईआईएम अहमदाबाद से पीजीडीएमसी किया था. इस के बाद उन्होंने यूपीएससी की तैयारी की और ऐग्जाम क्लियर किया. वे साल 2001 बैच के हरियाणा कैडर के आईपीएस अफसर थे.

फिलहाल वाई. पूरन कुमार रोहतक रेंज के आईजी थे. 29 सितंबर, 2025 को ही उन का ट्रांसफर हुआ था. उन्हें अब रोहतक के सुनरिया में पुलिस ट्रेनिंग कालेज में आईजी के तौर पर पोस्टिंग मिली थी.

वाई. पूरन कुमार कई सालों से सिस्टम से परेशान थे. मई, 2021 में उन्होंने अंबाला के एसपी के सामने तब के डीजीपी मनोज यादव के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी. उन का आरोप था कि उन्हें उन की जाति के चलते परेशान और सताया जाता है.

नवंबर, 2023 में वाई. पूरन कुमार ने तब के मुख्य सचिव संजीव कौशल से उस समय के गृह सचिव टीवीएसएन प्रसाद के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की इजाजत मांगी थी. उन्होंने आरोप लगाया था कि उन की जाति के चलते उन्हें गैर कैडर पद पर तैनात किया गया था.

पिछले साल अप्रैल में वाई. पूरन कुमार ने साल 2024 के हरियाणा विधानसभा चुनावों से ठीक पहले चुनाव आयोग के सामने एक शिकायत दर्ज कराई थी, जिस में उन्होंने आरोप लगाया था कि आचार संहिता लागू होने के बाद 2 एजीजीपी को डीजीपी और 2 आईजी को एडीजीपी के तौर पर प्रमोट किया गया था.

अपने सुसाइड नोट में आपीएस वाई. पूरन कुमार ने 8 आईपीएस और 2 आईएएस अफसरों पर आरोप लगाए थे. उन्होंने जिन पर आरोप लगाया था, उन में 8 आईपीएस अमिताभ ढिल्लों, मनोज यादव, पीके अग्रवाल, संदीप खिरवार, सिबास कविराज, संजय कुमार, पंकज नैन और डाक्टर रवि किरण आदि के नाम शामिल हैं. इन के अलावा 2 रिटायर्ड आईएएस राजीव अरोड़ा और टीवीएसएन प्रसाद का नाम भी है.

अब आप सोचिए कि इतने बड़े रैंक का बड़ा सरकारी अफसर, जिस पर अपने इलाके में शांति और भाईचारा बनाने का दबाव रहता है, वह अपनी जाति की हीनता के बो झ तले दबाया जा रहा था. वह भी ऐसे लोगों द्वारा जो उसी के ‘प्रशासनिक भाईबंधु’ थे.

तो क्या जातिवाद का यह जहरीला सांप कभी भी केंचुली नहीं उतरेगा? चूंकि हमारे समाज में जातपांत बहुत गहरे तक पैठ जमाए हुए है, तो लगता है कि फिलहाल यह दूर की कौड़ी है, पर यहां एक बात जो बहुत ज्यादा अहम है, वह है इस बहुजन समाज की आपसी एकता, जिसे पढ़ाईलिखाई से और ज्यादा मजबूत किया जा सकता है.

दूसरा तरीका यह है कि जहां आप रहते हैं, उस घर, गली, महल्ले को व्यवस्थित करें. लोगों को यह मत सोचने दें कि उन का गंदगी या गरीबी में रहना पिछले जन्म का पाप है, जिसे वे आज इस जन्म में भोग रहे हैं. दुनिया की कोई भी ताकत आप को साफसुथरा और आप के आसपास की जगह को ‘नीट एंड क्लीन’ बनाने से रोक नहीं सकती है.

तीसरा, अपने आसपास के लोगों में फैली सामाजिक बुराइयों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाएं. आप कोई बड़े अफसर बने हैं, तो यह मत सम झें कि अब निकलो इस नरक से जहां हमारी पुरानी पीढि़यां जानवर से बदतर जिंदगी गुजार कर मरखप गईं. इस उलट आप की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि समाज के इस हिस्से को कैसे अंधविश्वास, नशाखोरी, बेरोजगारी, आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने से रोका जाए.

रास्ता दिखाने के लिए एक के हाथ में ही मशाल होना काफी है. अपनी मशाल खुद बनें. जातिवाद के अंधेरे से निबटने का यही एकमात्र रास्ता है. Equality Struggle

Modern Society: नया जोड़ा नई आजादी चाहे

Modern Society: आज से तकरीबन 3 साल पहले हरियाणा में जींद शहर के रहने वाले नवीन की नौकरी गुड़गांव में लगी थी. चूंकि नवीन इंजीनियर था, तो गुड़गांव में नौकरी करने का एक फायदा यह था कि वह शुक्रवार की रात को अपने घर जींद चला जाता था और सोमवार को सुबह की पहली बस पकड़ कर वापस गुड़गांव लौट आता था.

चूंकि नवीन कुंआरा था, तो ऐसा करना उस के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं था. घर और नौकरी में बढि़या तालमेल था. पर पिछले 4 महीने से नवीन की जिंदगी में बहुत ज्यादा बदलाव आया है. खुशी की बात यह है कि उस की शादी हो गई है और दुख की बात भी यही है कि उस की शादी हो गई है. आप पूछेंगे कि यह क्या माजरा है?

इसे कुछ इस तरह से समझते हैं. नवीन इंजीनियर है और उस की पत्नी आरती भी इसी पेशे में है. नवीन ने अपने मांबाप को पहले ही बता दिया था कि आरती भी गुड़गांव में नौकरी करेगी और वे दोनों वहीं रहेंगे.

हफ्ते या 15 दिन में एक बार उन से मिलने जींद आ जाएंगे.

तब तो नवीन के मांबाप मान गए और शादी के एक महीने के बाद ही नवीन ने गुड़गांव में एक किराए के घर में अपनी गृहस्थी बसा ली. चूंकि वे दोनों नौकरी कर रहे थे, तो गुड़गांव में रहने का खर्च निकालना आसान हो गया और उन दोनों की शादीशुदा जिंदगी भी मजे से कटने लगी.

कुछ दिन तो ठीक रहा, पर उस के बाद नवीन की मां ने अकेलेपन का हवाला दे कर नवीन से कह दिया कि वह आरती को यहीं छोड़ दे.

यह सुन कर आरती बिदक गई और उस ने साफ कह दिया कि वह नौकरी छोड़ कर घर नहीं बैठेगी. अब नवीन की जान आफत में. वह मां को समझाता तो वे बुरा मान जातीं और अगर आरती को कुछ कहता तो वह आंखें दिखाती.

आरती का कहना सही था कि वह नौकरी छोड़ कर क्यों घर बैठे? क्या इसी दिन के लिए उस ने इंजीनियरिंग की थी? फिर शादी के बाद भी अगर पतिपत्नी को अलगअलग रहना पड़े, तो शादी करने का फायदा ही क्या?

नवीन को पता था कि अब अगर उसे अकेले गुड़गांव रहना पड़ा तो उस की जिंदगी जहन्नुम बन जाएगी. पहले तो वह दोस्तों के साथ समय बिता लिया करता था, पर अब सब अपनीअपनी जिंदगी में सैट हो चुके हैं. कब तक वे उस की खातिरदारी करेंगे? और जब अपनी बीवी है, तो फिर वह क्यों किसी के दर पर भटके?

गांवदेहात हो या छोटे शहर, आज बहुत से जोड़ों की यह बहुत बड़ी समस्या है कि शादी के बाद भी वे साथ नहीं रह पाते हैं और अपनी आजादी का मजा नहीं ले पाते हैं.

नवीन और आरती अब एक अनचाहे डिप्रैशन से जूझ रहे हैं, जबकि नवीन के मांबाप आज भी उसी सोच में जी रहे हैं कि बेटे का काम है पैसा कमाना और बहू का फर्ज है अपने सासससुर की सेवा करना.

नवीन की मां को इस बात की बिलकुल भी परवाह नहीं है कि आरती की कमाई नवीन के बराबर है और जब कल को वे दादी बनेंगी, तब यही बचत नवीन और आरती के काम आएगी. उन की जिद बहूबेटे की खुशी से बड़ी है.

बात पैसे और आरती के कैरियर के साथसाथ नवीन और आरती की सैक्स लाइफ से भी जुड़ी है. उन की शादी को दिन ही कितने हुए हैं. उन्हें साथ रहने का हक है और शादी के शुरुआती दिनों में ही उन का एकदूसरे के लिए तड़पना नाइंसाफी है.

आज से 40-50 साल पहले की बात अलग थी जब पति शहर में और पत्नी गांव में अपने सासससुर के लिए खप रही होती थी. तब लड़की नौकरी को इतनी ज्यादा अहमियत नहीं देती थी या फिर अगर पति सेना में होता था, तो वहां अपने कैंट में पति को सुविधाएं भी अच्छी मिल जाती थीं. आसपास माहौल भी अच्छा होता था और अनुशासन में रहते हुए उस का समय आसानी से बीत ही जाता था.

पर आज जब गांव के लड़के शहर में नौकरी करने आते हैं, तो जरूरी नहीं कि वे नवीन की तरह इंजीनियर ही हों. बहुत से तो दड़बेनुमा छोटे कमरों में शेयरिंग के हिसाब से रहते हैं और शादी के बाद बिना पत्नी के रहना उन के अकेलेपन को बढ़ा देता है.

बहुत सी जगह तो शनिवार की छुट्टी नहीं होती है, तो जल्दीजल्दी गांव जाने में भी दिक्कत होती है. वे किसी तरह पत्नी को साथ रखना चाहते हैं और चूंकि पत्नी भी पढ़ीलिखी होती है, तो उन्हें शहर में उस की नौकरी लगने की ज्यादा उम्मीद रहती है.

पर मांबाप यह मजबूरी नहीं समझ पाते हैं या समझना नहीं चाहते हैं. उन्हें बहू तो पढ़ीलिखी चाहिए, पर नौकरी न करे. उन की यही सोच नए जोड़ों को अपनी आजादी में खलल लगती है. उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता है.

इस का नतीजा होता है घर में क्लेश, क्योंकि जब भी लड़का गांव जाता है, तो अपनी पत्नी की शिकायतों से तंग आ जाता है या फिर खुद को इतना मजबूर समझता है कि छाती ठोंक कर पत्नी को शहर लाने की हिम्मत नहीं दिखा पाता है. यहीं से जिंदगी नरक हो जाती है.

तो इस समस्या का हल क्या है? हल यही है कि सासससुर को समझना चाहिए कि जिस तरह वे दोनों सारी उम्र एकसाथ रहे हैं, उसी तरह उन के बहूबेटे को भी साथ रहने का हक है. वे दोनों साथ में शहर रहेंगे, तो उन्हें अपनी गृहस्थी बसाने में आसानी होगी, आमदनी बढ़ेगी सो अलग. यही तो नए जोड़े की सच्ची आजादी है. Modern Society

धार्मिक माहौल का बढ़ता दबदबा

पिछले कुछ सालों से खासकर कोरोना महामारी के तांडव के बाद दुनिया में एक बहुत बड़ा बदलाव आया है. यह बदलाव कोरोना से जीत हासिल करने की खुशी नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में धर्म का असर साफतौर पर दिखने लगा है. इस की सब से बड़ी वजह हताशा है. तमाम उदाहरण ऐसे हैं, जिन से पता चलता है कि हताशा में घिरा इनसान धर्म की शरण में चला जाता है.

एक समय था, जब कोरोना महामारी के चक्रव्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था. भारत में थाली बजाने, दीपक जलाने, ताली बजाने जैसे कामों के साथ ‘गो कोरोना गो’ जैसा माहौल बनाया गया. हताशा का माहौल यह था कि गिलोय जैसे खरपतवार का इतना ज्यादा इस्तेमाल हुआ कि बाद में इस के असर से पेट की तमाम बीमारियां हो गईं.

रामदेव ने अपनी एक दवा पेश की, जिस के बारे में कहा कि यह उन लोगों को भी फायदा देगी, जिन्हें कोरोना हो गया है और उन को भी कोरोना से बचाएगी, जिन्हें कोरोना नहीं हुआ है.

दुनिया में कोई ऐसी दवा नहीं होती, जो बचाव और इलाज दोनों करे. बुखार की दवा इलाज कर सकती है, लेकिन लक्षण दिखने के पहले इस का इस्तेमाल किया जाए तो वह बुखार को रोक नहीं सकती. बीमारी को रोकने के लिए अलग दवा का इस्तेमाल होता है और इलाज के लिए दूसरी दवा का इस्तेमाल होता है.

रामदेव ने अपनी दवा की खासीयत बताई कि वह बचाव और इलाज दोनों करेगी. हताशा में फंसे लोगों ने इस पर यकीन भी कर लिया.

कोरोना के बाद कई तरह की रिसर्च बताती हैं कि कोरोना की हताशा ने लोगों के मन में धर्म का असर बढ़ाने का काम किया. कोरोना के दौरान पूजास्थल भले ही बंद थे या सीमित कर दिए गए थे, लेकिन लोगों की धर्म के प्रति भावना बढ़ी थी.

नाकामी में फंसे लोग ज्यादा धार्मिक

भारत में इस बीच लोगों में धर्म का असर काफी बढ़ गया. धर्म का ही असर था कि लोगों में दानपुण्य की चाहत बढ़ गई. इस के अलगअलग रूप देखने को मिले. भूखे को खाना और प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है. लोग मंदिरों के दर्शन के साथ ही साथ इन कामों में लग गए, जहां सामान्य दिनों में खानापानी बेचने का काम होता था.

कोरोना में लोग मुफ्त यह काम करने लगे. उन के मन में यह डर था कि कोरोना में जिंदगी रहेगी या नहीं, कुछ पता नहीं. ऐसे में सेवा कर के पुण्य कमा सकते हैं. डाक्टर, दवाएं और पैसा होते हुए भी लोगों की जान जा रही थी. इस हताशा भरे दौर में उस की आस्था ही सहारा बन रही थी. कुंडली दिखाना, हाथों की उंगली में रत्न पहनना, जादूटोना कराना ऐसे तमाम जरीए हैं, जिन से लोग अपनी हताशा से बाहर निकलने का काम करते हैं.

मंदिरों में जाने वाले ज्यादातर लोग वे हैं, जो कुछ न कुछ मांगने जाते हैं. आज का नौजवान तबका इतना धार्मिक इसलिए होता जा रहा है, क्योंकि उस के पास नौकरी नहीं है, काम करने के लिए नहीं है. आपस में होड़ बढ़ गई है.

पड़ोसी का बच्चा सरकारी नौकरी पा गया, तो उस का अलग दबाव बढ़ जाता है. वह निराश भाव से धर्म की शरण में जाता है. तमाम मंदिर ऐसे हैं, जिन के बारे में कहा जाता है कि यहां मनौती मांगने से चाहत पूरी होती है.

मुकदमा चल रहा हो तो लोग यहां आते हैं, बीमार हैं तो मनौती मांगने आते हैं कि बीमारी ठीक हो जाए. हर काम की आस धर्म, पूजा, मंदिर पर टिकी होती है.

बड़ेबड़े अमीर लोग भी अपनी दुकान के आगे नीबूमिर्ची लगवाते हैं, जिस से उन की दुकान पर किसी की नजर न लगे.

डाक्टरों के आपरेशन थिएटर में भगवान की मूर्ति या फोटो होती है. ड्राइवर अपनी गाड़ी के आगे भगवान की मूर्ति रखते हैं, जिस से कोई हादसा न हो.

धर्म और आस्था ने इतनी गहराई तक पैठ बना ली है कि हताशा और निराशा का इलाज कराने के लिए मैंटल हैल्थ वाले अस्पताल और डाक्टर के पास इलाज की जगह पूजापाठ और मंदिरों में जाते हैं. वे दवा की जगह अंगूठी और रत्नों में इलाज खोजने लगते हैं.

जैसेजैसे बेरोजगारी बढ़ेगी, कामधंधे नहीं होंगे, बीमारियां बढ़ेंगी, मुकदमे झगड़े होंगे, हताशा और निराशा बढ़ेगी, वैसेवैसे लोग धर्म के प्रति आस्था की ओर लोग धकेले जाएंगे. निराशहताश लोगों को यही हल दिखाई देगा. वे मंदिरमंदिर भटकेंगे और भगवान से आशीर्वाद में अपनी और अपने परिवार की तरक्की मांगेंगे.

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