किस्मत ने बनाया कामवाली और मेहनत ने भारत की पहली महिला कौमेडियन

कौमेडियन घरघर में मशहूर है. कहते है हंसने से ‘हैल्थ ठीक रहती है और खून बढ़ता है’ और ये काम भारत के कौमेडियन्स बखूबी करते हैं. इनमें औरतें भी है. इसमें पहला नाम भारती सिंह का आता है जो नेशनल टीवी पर पौपुलर कौमेडियन है लेकिन क्या आप जानते है भारत की पहली लाफ्टर क्वीन कौन थी.
जिनकी हरकतों से लोगों को हंसी छूट जाती थी लेकिन असल जिंदगी में उन्होंने खूब आंसू बहाए.
आज भारत की पहली महिला कौमेडियन के बारे में बताएंगे. जो केवल कौमेडियन ही नहीं, एक्टर और सिंगर भी रही थी. आज उनकी 101वीं जयंती है. नाम है उमा देवी खत्री.

 

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उमा देवी खत्री को टुनटुन के नाम से भी बुलाया जाता था. इनकी लाइफ एक इमोशनल फिल्म से कम नहीं थी. ये ज्यादा बड़े और अमीर परिवार से भी नहीं थी. टुनटुन यूपी के अमरोहा के पास के गांव की थी. भूमि विवाद में उनके परिवार की हत्या कर दी गई. वे छोटी उम्र में ही अनाथ हो गई और उन्हें ऐसे रिश्तेदारों ने पाला जो उन्हें घर परिवार के सदस्य से ज्यादा एक कामवाली समझते थे.

अफसाना लिख रही हूं…से हो गई अमर

23 साल की उम्र में अपने सपनों को पूरा करने के लिए उमा देवी भागकर मुंबई चली आई. उनका नेचर ही हंसने हसाने वाला हुआ करता था, जिस वजह से वे अपने करियर को एक नई पहचान दे पाई. उन्होंने साल 1945 में अपने गाना गाने के जुनून को एक नई उड़ान दी. उमा ने अपना टैलेंट नौशाद अली तक पहुंचाया और उन्होंने औडिशन देने की अनुमति दे दी. जिसके बाद उनका जीवन ही बदल गया और उनकी अवाज को सबने पहचान दी. Lifestyle

दिलीप कुमार के साथ स्क्रीन शेयर करने की पकड़ी जिद्द

इसके बाद उमा ने नौशाद के साथ एक नया काम करने का जुनून दिखाया कि वे अब फिल्म में काम करेंगी, लेकिन तभी जब वे दिलीप कुमार उनके साथ स्क्रीन शेयर करेंगे. दोनों की फिल्म बनीं भी और साल 1950 में बाबुल पर उन्होंने साथ काम किया.

उमा देवी से बनीं टुनटुन

फिल्मों में काम करने के बाद दिलीप कुमार ने उमा को एक नई पहचान दी. उन्होंने उनका नाम टुनटुन रख दिया. क्योंकि उनका नेचर ही मजाकिया था, इसी नाम के साथ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को पहली हास्य नायिका मिली. टुनटुन ने 200 से ज्यादा फिल्मों में हास्य भूमिकाएं निभाईं.

बुढापा में नहीं उठा पाई डौक्टरी खर्च

शशि रंजन के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने दुख जताया और बताया कि उन्होंने अपना पूरी लाइफ उद्योग को दी, लेकिन अंत तक आते आते उद्योग ने उन्हें त्याग दिया. अपने लाइफ के अंत तक वह एक साधारण घर में रहती थीं, खराब रहने की स्थिति और बीमारी से जूझती रहीं, न तो अपना गुजारा कर पाती थीं और न ही सही से डौक्टरी का खर्च उठा पाती थीं.

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