अयोध्या में शिव सेना का ‘संत सम्मान’ और भारतीय जनता पार्टी की ‘धर्म संसद’ खत्म हो चुकी है. इस बीच अयोध्या का जनजीवन पूरी तरह से ठप हो गया था. सब से ज्यादा बुरा असर स्कूली बच्चों पर पड़ा. निजी स्कूलों और कई सरकारी स्कूलों में पढ़ाई बंद रही.
शिव सेना के ‘संत सम्मान’ में उद्धव ठाकरे पूरे परिवार के साथ हावी रहे. अयोध्या में पहली बार शिव सेना प्रमुख आए थे. इस के बाद भी जनता का समर्थन उन को नहीं मिला.
शिव सेना ने हमेशा से ही मुंबई में उत्तर भारतीयों का विरोध किया है. ऐसे में उत्तर प्रदेश के लोगों ने शिव सेना को अपना समर्थन नहीं दिया.
‘धर्म संसद’ का आयोजन वैसे तो विश्व हिंदू परिषद का था, पर इस में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की पूरी ताकत लगी थी. संतों से ज्यादा भाजपा नेताओं और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ऊपर सब की नजर थी.
‘धर्म संसद’ में राम मंदिर को ले कर कोई ठोस बात नहीं हुई. उत्तर प्रदेश की सरकार ने अयोध्या में राम की मूर्ति लगाने का ऐलान किया. ऐसे में राम मंदिर की बात को राम की मूर्ति में बदल दिया गया.
उत्तर प्रदेश सरकार ने 800 करोड़ रुपए की लागत से 221 मीटर ऊंची मूर्ति बनाने की बात कही. इस काम को करने में साढ़े 3 साल का समय बताया गया है.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर को हाशिए पर रखा था, पर देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति लगाने की बात कही थी.
4 साल में गुजरात में सरदार सरोवर बांध के पास वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर ऊंची मूर्ति लगाई गई. राम की मूर्ति इस से भी बड़ी होगी.
बेअसर रही अयोध्या
अयोध्या की जनता इसे बेमकसद की कवायद बताती है. यहां के लोग मानते हैं कि भीड़ जुटाने से कोर्ट के फैसले पर कोई असर नहीं पड़ता है. इस से केवल अयोध्या में रहने वालों को परेशानी होती है.
इसी तरह साल 1992 के पहले कई साल तक कारसेवा के बहाने भीड़ जुटाई जाती थी. अब फिर से मंदिर के नाम पर भीड़ जुटाई जा रही है. इस से अयोध्या के रामकोट महल्ले में रहने वाले लोगों को अपने घरों में आनेजाने में परेशानी का सामना करना पड़ता है.
अयोध्या में रहने वाले व्यापारी भी इस तरह की बंदी से काफी परेशान होते हैं. इन दिनों यहां कारोबार ठप पड़ जाता है. कारोबारी नेता मानते हैं कि अयोध्या के नाम पर पूरे देश में राजनीति होती है, पर इस का बुरा असर केवल अयोध्या के कारोबार पर पड़ता है.
अयोध्या के विनीत मौर्य मानते हैं
कि अयोध्या अब धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक मुद्दा बन कर रह गया है. मंदिर पर राजनीति अब बंद होनी चाहिए.
साफ दिख रहा है कि भाजपा का मकसद मंदिर मुद्दे को साल 2019 के आम चुनावों तक गरम बनाए रखने का है. अयोध्या के बाद ऐसे आयोजन दिल्ली और प्रयाग में भी होंगे.
जनवरी, 2019 में प्रयागराज में कुंभ का आयोजन हो रहा है. यह मार्च, 2019 तक चलेगा. इसी दौरान अदालत में मंदिर मुद्दे की सुनवाई भी चलेगी. इस से समयसमय पर अयोध्या मुद्दा आम लोगों की जिंदगी पर असर करता रहेगा.
हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोग इस का फायदा लेना चाहेंगे, जबकि मंदिर के मुद्दे को देखें तो भाजपा और उस के साथी संगठनों ने मंदिर को ले कर केवल होहल्ला ही मचाया है, कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं.
इस बार मंदिर मुद्दे पर विरोधी दलों की राजनीति बदली हुई है. वे खामोश रह कर भाजपा की शतरंजी चालों को देख रहे हैं.
साल 1998 के बाद भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी 2 बार देश के प्रधानमंत्री बने थे. उन के समय में भी मंदिर बनाने की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ था. उस समय भाजपा ने कहा था कि अटल सरकार बहुमत की सरकार नहीं है, इसलिए मंदिर बनवाने की दिशा में कोई कानून नहीं बनाया जा सकता.
लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी की अगुआई में तो केंद्र में भाजपा की बहुमत वाली सरकार बन गई है. इस के बाद भी 4 साल से ज्यादा का समय बीत चुका है और अब जब 2019 के लोकसभा चुनाव आने वाले हैं तो उसे राम मंदिर की याद आई है. उस ने राम मंदिर बनाने की जगह पर फैजाबाद जिले का नाम बदल कर अयोध्या कर दिया. अब वह राम मंदिर से दूर सरयू नदी के किनारे राम की मूर्ति लगानेकी बात कर रही है. ऐसे में साफ दिखता है कि भाजपा के लिए राम मंदिर एक चुनावी मुद्दे से ज्यादा कुछ नहीं है.
मंदिर और अदालत
राजनीतिक फायदे की नजर से अयोध्या राजनीति के केंद्र में है. भाजपा मंदिर मुद्दे पर जनता को ऐसा बताती है कि जैसे सुप्रीम कोर्ट में यह मुकदमा मंदिर बनाने के लिए है. कोर्ट में मंदिर को ले कर केवल हिंदूमुसलिम ही आमनेसामने हैं.
यह सच नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का मुकदमा इस बात के लिए है कि विवादित जगह किस की है.
दरअसल, इस मुकदमे के 3 पक्षकार हैं. इन में से 2 पक्षकार रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़ा हिंदुओं की पार्टी है. मुकदमे की तीसरी पक्षकार सुन्नी वक्फ बोर्ड ही मुसलिम पक्षकार है.
सुप्रीम कोर्ट का जो भी फैसला होगा, वह इन तीनों पक्षकारों में से ही किसी के हक में होगा. अगर मंदिर के पक्ष में भी फैसला हो गया तो 2 हिंदू पक्षकारों को राजी करना होगा.
समझने वाली बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी या विश्व हिंदू परिषद ने साल 2010 में हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद भी रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़े से बात करने की कोशिश नहीं की है.
अगर हालिया केंद्र सरकार दोनों हिंदू पक्षकारों से ही बात कर उन्हें एकजुट कर लेती तो भी लगता कि मंदिर बनाने की दिशा में उस ने सही कदम उठाया है.
भाजपा जिस संत समाज की बात कर रही है उस में भी बड़ी तादाद ऐसे संतों की है जो विश्व हिंदू परिषद के विरोधी हैं. ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि मंदिर बनाने में भाजपा का क्या रोल होगा?
60 साल की कानूनी लड़ाई के बाद अयोध्या में राम मंदिर का फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने 30 सितंबर, 2010 को सुनाया था. यह फैसला 3 जजों की स्पैशल बैंच द्वारा 8189 पन्नों में सुनाया गया था. फैसला देने वालों में जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एसयू खान और जस्टिस धर्मवीर शर्मा शामिल थे.
सब से बड़ा फैसला जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने सुनाया था. 5238 पन्नों के फैसले में उन्होंने कहा था, ‘विवादित ढांचे का मध्य गुंबद हिंदुओं की आस्था और विश्वास के अनुसार राम का जन्मस्थान है. यह पता नहीं चल सका कि मसजिद कब और किस ने बनाई लेकिन यह मसजिद इसलाम के मूल सिद्धांतों के खिलाफ बनी है, लिहाजा मसजिद का दर्जा नहीं दिया जा सकता.’
2666 पन्नों के फैसले में जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने कहा था, ‘पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के नतीजों से साफ है कि विवादित ढांचा पुराने निर्माण को गिरा कर बनाया गया था. एएसआई ने साबित किया है कि यहां पर पहले हिंदुओं का बड़ा धार्मिक ढांचा रहा है यानी यहां हिंदुओं का कोई बड़ा निर्माण था.’
285 पन्नों के फैसले में जस्टिस एसयू खान ने कहा, ‘जमीन पर हिंदू, मुसलमान और निर्मोही अखाड़े का बराबर हक है. इसे तीनों में बराबर बांटा जाना चाहिए. अगर किसी पार्टी का हिस्सा कम पड़ता है तो उस की भरपाई केंद्र सरकार द्वारा अधिगृहीत जमीन से दे कर करनी चाहिए.’
अदालत के फैसले के बाद रामलला विराजमान पक्ष को अधिकार मिला कि रामलला जहां पर हैं वहीं विराजमान रहेंगे. जहां रामलला की पूजाअर्चना हो रही है वह स्थल राम जन्मभूमि है. रामलला को एकतिहाई जमीन भी दी गई.
निर्मोही अखाड़े को रामचबूतरा और सीता रसोई दी गई. साथ ही, एकतिहाई जमीन भी दी गई.
इसी तरह मुकदमे के तीसरे पक्ष सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी एकतिहाई जमीन दी गई है. कोर्ट ने सुन्नी वक्फ बोर्ड की अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि 1949 में जब मूर्तियां वहां पर रखी गईं, तब मुकदमा दाखिल क्यों नहीं किया गया?
अयोध्या का यह फैसला जितना रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिए अहम है उस से ज्यादा अहम राजनीतिक दलों के लिए भी है. ऐसे में चुनाव के समय यह राजनीतिक मुद्दा बन जाता है.
अयोध्या मामला: एक नजर में
1528: मुगल बादशाह बाबर ने मसजिद बनवाई. हिंदुओं का दावा है कि इस जगह पर पहले राम मंदिर था.
1859: ब्रिटिश अफसरों ने एक अलग बोर्ड बना कर पूजा स्थलों को अलगअलग कर दिया. अंदर का हिस्सा मुसलिमों को और बाहर का हिस्सा हिंदुओं को दिया.
1885: महंत रघुवर दास ने याचिका दायर कर राम चबूतरे पर छतरी बनवाने की मांग की.
1949: मसजिद के भीतर राम की प्रतिमा प्रकट हुई. मुसलिमों का कहना है कि प्रतिमा हिंदुओं ने रखी. सरकार ने उस जगह को विवादित बता कर ताला लगा दिया.
1950: मालिकाना हक के लिए गोपाल सिंह विशारद ने पहला मुकदमा दायर किया. अदालत ने प्रतिमा को हटाने पर रोक लगा कर पूजा की इजाजत दी.
1959: निर्मोही अखाड़े ने भी मुकदमा दाखिल किया. उस ने सरकारी रिसीवर हटाने और खुद का मालिकाना हक देने की बात कही.
1961: उत्तर प्रदेश सुन्नी सैंट्रल बोर्ड औफ वक्फ भी विवाद में शामिल हुआ.
1986: फैजाबाद जिला अदालत ने मसजिद के फाटक खोलने और राम दर्शन की इजाजत दी. मुसलिमों ने बाबरी मसजिद ऐक्शन कमेटी बनाई.
1989: विश्व हिंदू परिषद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर मालिकाना हक राम के नाम पर ऐलान करने की गुजारिश की. फैजाबाद जिला कोर्ट में चल रहे सारे मामले इलाहाबाद हाईकोर्ट भेजे गए.
इसी साल विश्व हिंदू परिषद ने विवादित जगह के पास ही राम मंदिर का शिलान्यास किया.
1990: विश्व हिंदू परिषद की अगुआई में कारसेवकों ने विवादित जगह पर बने राम मंदिर में तोड़फोड़ की. मुलायम सरकार ने गोलीबारी की.
1992: विवादित जगह पर कारसेवकों ने तीनों गुंबद ढहा दिए.
2002: अदालत ने एएसआई को खुदाई कर यह पता लगाने के लिए कहा कि विवादित जगह के नीचे मंदिर था या नहीं. इसी साल हाईकोर्ट के 3 जजों ने मामले की सुनवाई शुरू की.
2010: इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने विवादित जगह को 3 हिस्सों में बांटने का आदेश दिया.