जातिवाद के नाम पर हुई जनगणना

ऊंची जातियों, खासतौर पर ब्राह्मणों को एक परेशानी यह रहती है कि हिंदू समाज में चतुर्वर्ण के नाम से जानी जाने वाली 4 जातियों के लोग कितने मिलते हैं, यह न पता चले. 1872 से जब से अंगरेजों ने जनगणना शुरू की थी, उन्होंने जाति के हिसाब से ही लोगों की गिनती शुरू की थी. उन्होंने तो धर्म को भी बाहर कर दिया था.

1949 में जब कांग्रेस सरकार आई तो वह मोटेतौर पर कट्टर तौर पर ब्राह्मणों की सरकार थी या उन की थी जो ब्राह्मणों के बोल को अपना भाग समझते थे. वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद जैसे नेता घोर जातिवादी थे. जवाहर लाल नेहरू ब्राह्मणवादी न होते हुए भी ब्राह्मण लौबी को मना नहीं पाए और भीमराव अंबेडकर की वजह से शैड्यूल कास्ट और शैड्यूल ट्राइबों की गिनती तो हुई पर बाकी ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों व शूद्रों यानी पिछड़ों की जातियों की गिनती नहीं हुई. कांग्रेस ने 1951, 1961, 1971, 1981, 1991, 2001 (वाजपेयी), 2011 में जनगणना में जाति नहीं जोड़ी.

नरेंद्र मोदी की 2021 (जो टल गई) में तो जाति पूछने का सवाल ही नहीं उठता था. इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौंकाने वाला फैसला लिया कि वे अलग से एक माह में बिहार में जातियों के हिसाब से गिनती कराएंगे.

गिनती इसलिए जरूरी है कि पिछड़े जो एक अंदाजे से हिंदू आबादी के 60 फीसदी हैं, सरकारी नौकरियों, पढ़ाई, प्राइवेट नौकरियों में मुश्किल से 10 फीसदी हैं. जनता की 3 फीसदी ऊंची ब्राह्मण जातियों ने सरकारी रुतबे वाले ओहदों में से 60-70 फीसदी पर कब्जा कर रखा है. प्राइवेट सैक्टर का 60-70 फीसदी 3 फीसदी बनियों के पास है. 60-70 फीसदी पिछड़ों और 20 फीसदी शैड्यूल कास्टों के पास निचले मजदूरी, किसानी, घरों में नौकरी करने, सेना में सिपाही बनने, पुलिस में कांस्टेबल, सफाई, ढुलाई, मेकैनिक बनने जैसे काम हैं. उन्हें शराब व धर्म का नशा बहकाता है और इसी के बल पर पहले कांग्रेस ने राज किया और अब भाजपा कर रही है.

पढ़ाई के दरवाजे खोलने और सरकारी रुतबों वाली नौकरियां देने के लिए रिजर्वेशन एक अच्छा और अकेला तरीका है और सही रिजर्वेशन तभी दिया जा सकता है जब पता रहे कि कौन कितने हैं. जाति की गिनती का काम इसलिए जरूरी है कि देश के पंडों ने ही हिंदुओं को जातियों में बांट रखा है और अब थोड़ी मुट्ठीभर सस्ती पढ़ाई की सीटें या रुतबे वाली कुरसियां हाथ से निकल रही हैं तो वे ‘जाति नहीं’ है का हल्ला मचा रहे हैं.

आज किसी युवक या युवती का शादी के लिए बायोडाटा देख लो. उस में जाति, उपजाति, गौत्र सब होगा. क्यों? अगर जाति गायब हो गई है तो लोग क्यों एक ही जाति में शादी करें. अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शादियां आपस में कर लें तो इसे अंतर्जातीय शादियां नहीं कहा जा सकता. समाज ब्राह्मण युवती के साथ जाट युवक और क्षत्रिय युवक के साथ शैड्यूल कास्ट युवती की शादी को जब तक आम बात न मान ले तब तक देश में जाति मौजूद है, माना जाएगा.

रिजर्वेशन के लिए जाति गणना जरूरी है पर यह सामाजिक बुराई दूर करने की गारंटी नहीं है. लोगों के दफ्तरों में जाति गुट बना लिए. छात्रों ने स्कूलों और कालेजों में बना लिए हैं. नीतीश कुमार के पास इस मर्ज की कोई वैक्सीन है क्या? रिजर्वेशन सरकारी शिक्षा की सीटें और पावर की सीटों पर छोटा सा हिस्सा देने के लिए ऐसा ही है जैसे कोविड के लिए डोलो, पैरासीटामोल (क्रोसीन) लेना, इस से ज्यादा नहीं. यह बीमारी से नहीं लड़ने की ताकत देती है, बीमार को राहत देती है. पर जब तक वैक्सीन न बने, यही सही.

 

छत्तीसगढ़: राज भवन का राज हट

कभी राज हट, बाल हट और स्त्री हट के बारे में कहा जाता था कि इन्हें शांत करना बहुत कठिन होता है . आजकल आदिवासी राज्य छत्तीसगढ़ में राजभवन का राज हट चर्चा का विषय बना हुआ है. यहां राज्यपाल के रूप में अनुसूचित जनजाति से अनुसुइया उईके राज्यपाल की भूमिका का निर्वहन कर रही है और आरक्षण के मसले पर उनका हट चर्चा में है. छत्तीसगढ़ में सरकार और राजभवन में एक ऐसी खींचतान चल रही है जिसकी मिसाल शायद देश में नहीं मिल सकती. ऐसा लगता है मानो सविधान का कोई सम्मान राजभवन नहीं करना चाहता और एक हेटी के चक्कर में आरक्षण का मुद्दा एक दावानल की तरह प्रदेश की फिजाओं में धड़क रहा है. छत्तीसगढ़ आदिवासी बाहुल्य प्रदेश है इसीलिए यहां अक्सर छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग जोर पकड़ती रही है अगर हम कथित रूप से प्रथम मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी को छोड़ दें तो विगत 22 वर्षों में छत्तीसगढ़ को आदिवासी मुख्यमंत्री तो नहीं मिला है आरक्षण का जो अधिकार था उस पर भी ग्रहण लगा हुआ है.

हद तो तब हो गई है, जब विधानसभा में कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने आरक्षण हेतु विशेष सत्र 2 और 3 दिसंबर 20220 को बुलाकर आरक्षण का विधेयक पास कर दिया. मगर अब राज्यपाल अनुसुइया उइके ने प्रश्नों की झड़ी लगा कर के एक ऐसी हठधर्मिता देश को दिखाई है जो आज तक किसी राज्यपाल ने छत्तीसगढ़ में कम से कम नहीं दिखाई थी. इस मसले को लेकर के एक तरह से सरकार और राज्य भवन में ठन गई है इसमें न तो केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार कोई पहल कर रही है और ना ही देश की उच्चतम न्यायालय ने अभी तक कोई संज्ञान लिया है. परिणाम स्वरूप 30 दिन से ज्यादा हो जाने के बावजूद राजभवन में आरक्षण विधेयक धूल खा रहा है और प्रदेश में आदिवासी समाज में इसको लेकर के राज्यपाल अनुसुइया उइके के विरोध में अब आवाजें उठने लगी हैं और राजभवन को घेरने भी घटना भी घटित हो चुकी है.

सरकार और राजभवन अब खुलकर आमने- सामने

विधानसभा के शीतकालीन सत्र की कार्यवाही शुरू होते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्यपाल अनुसूईया उइके पर खुलकर हमला किया. आरक्षण विधेयक पर मचे घमासान के बीच उन्होंने सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री ने लिखा-“अगर ये तुम्हारी चुनौती है तो मुझे स्वीकार है, लेकिन तुम्हारे लड़ने के तरीके पर धिक्कार है.”

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल यहीं नहीं रुके. उन्होंने लिखा-” सनद रहे ! – भले ‘संस्थान’ तुम्हारा हथियार हैं, लड़कर जीतेंगे! वो भीख नहीं आधिकार है। फिर भी एक निवेदन स्वीकार करो-कायरों की तरह न तुम छिपकर वार करो, राज्यपाल पद की गरिमा मत तार-तार करो.” ‌ एक दिन पहले कांग्रेस ने रायपुर के साइंस कॉलेज मैदान में जन अधिकार महारैली का आयोजन किया जिसमें पचास हजार से ज्यादा कांग्रेसियों ने भागीदारी की और यह संदेश दिया कि राजभवन और भारतीय जनता पार्टी जो कर रही है वह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा-, छत्तीसगढ़ में दो-चार बंधुआ लोगों को छोड़कर सभी लोग आरक्षण विधेयक का समर्थन कर रहे हैं. राज्यपाल ने उस विधेयक को रोक रखा है.” मुख्यमंत्री ने आगे कहा, -”

मैने पहले भी आग्रह किया है, फिर कर रहा हूं कि राज्यपाल हठधर्मिता छोड़ें. या तो वे विधेयक पर दस्तखत करें या फिर उसे विधानसभा को लौटा दें. राज्यपाल न विधेयकों पर दस्तखत कर रही हैं और न विधानसभा को लौटा रही हैं, सवाल सरकार से कर रही हैं. मुख्यमंत्री ने रैली में कहा था, उच्च न्यायालय के एक फैसले की वजह से छत्तीसगढ़ में आरक्षण खत्म हो चुका है. भाजपा का आरक्षण विरोधी चरित्र है वह नहीं चाहती है कि अनुसूचित जनजाति को आरक्षण मिले. इसी वजह से केंद्र सरकार 14 लाख पद खाली होने के बाद भी नई भर्ती नहीं कर रही है. सार्वजनिक उपक्रमों को बेचा जा रहा है ताकि आरक्षण का लाभ न देना पड़े. छत्तीसगढ़ सरकार लोगों को नौकरी देना चाहती है.”
यहां यह भी बताते चलें कि अनुसुइया उइके स्वयं अनुसूचित जनजाति से हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री बघेल के समक्ष पहले पहल की थी कि अगर आरक्षण पर विधेयक सरकार लाएगी तो वह तत्काल हस्ताक्षर कर देंगी .
इस संपूर्ण वाद विवाद में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि राज्यपाल अनुसूया सरकार से लगातार प्रश्न कर रही है आरक्षण के परीक्षण की बात कर रही हैं जबकि विधि विशेषज्ञों का मानना है कि या उनके अधिकार क्षेत्र में ही नहीं है.
मुख्यमंत्री ने जन अधिकार महारैली में कहा था, मंत्रिमंडल राज्यपाल को सलाह देने के लिए होता है. लेकिन विधानसभा उन्हें सलाह देने के लिए नही है. मंत्रिमंडल सलाह देगी, जो जानकारी मांगेंगी वह देंगे, लेकिन जो संपत्ति विधानसभा की है उसका है जवाब सरकार नहीं देती. इसकी वजह है कि विधायिका का काम अलग है, कार्यपालिका का काम अलग है. कुल मिलाकर के आने वाले समय में यह मामला और भी गर्माहट भरा होगा.

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