सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) यानी गरीब सवर्ण तबके के आरक्षण को बरकरार रखने का फैसला देते हुए आरक्षण के मामले में 50 फीसदी की सीमा रेखा को पार करने को जायज ठहरा दिया है, जबकि ओबीसी वर्ग को 50 फीसदी सीमा पार करने की जब बात होती है, तब सुप्रीम कोर्ट इस सीमा को संवैधानिक सीमा मान लेता है.
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से साल 1993 के अपने ही उस फैसले को पलट दिया है, जिस में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की पीठ ने 27 फीसदी पिछड़े वर्ग, 15 फीसदी दलित वर्ग और 7.5 फीसदी अतिदलित वर्ग के कुल योग 49.5 फीसदी आरक्षण से आगे बढ़ाने से मना कर दिया था.अब सवर्ण गरीबों के 10 फीसदी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट से भी हरी ?ांडी मिलने के बाद आरक्षण 50 फीसदी की सीमा रेखा को लांघ कर 59.5 फीसदी पर पहुंच गया है. 7 नवंबर, 2022 को ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट के सवर्ण जजों ने सवर्णों के हक में स्वर्णिम फैसला सुना कर मोदी सरकार द्वारा साल 2019 में संविधान में संशोधन कर ईडब्ल्यूएस सवर्णों को जो 10 फीसदी आरक्षण दिया था, उस को जायज करार दे दिया.
मतलब, अब देश में 60 फीसदी आरक्षण हो गया है, जबकि इसी सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में, जब मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुसार ओबीसी को उस की आबादी के अनुपात में 52 फीसदी आरक्षण दिया जाना था, ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला सुनाया था कि देश में कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए, क्योंकि एससीएसटी का 22-50 फीसदी आरक्षण पहले से ही था. इस का मतलब हुआ कि कुल 110 स्थानों में जहां पहले पिछड़ों और दलितों के 55 स्थान होते थे, अब 50 ही रह जाएं.
देश में ओबीसी विधायकों और सांसदों की संख्या 1,500 से भी ज्यादा है, लेकिन दुख की बात है कि ये नेता विधानसभाओं और लोकसभा में कभी भी ओबीसी के अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ते. कमोबेश यही हालत एससीएसटी विधायकसांसदों की है.
देश के ओबीसी अब यह अच्छी तरह सम?ा लें कि उन के अधिकारों की लड़ाई कोई राजनीतिक दल या उन के समाज के विधायकसांसद न कभी पहले लड़े थे और आगे भी कभी नहीं लड़ेंगे. जिस तरह एससीएसटी के लोगों ने अपने ऐट्रोसिटी ऐक्ट को बचाने के लिए 2 अप्रैल, 2018 को बिना किसी नेता और राजनीतिक दल के पूरे देश में सड़कों पर उतर कर आंदोलन किया था और जिस के बाद मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए मजबूर होना पड़ा था और संविधान में संशोधन कर ऐट्रोसिटी ऐक्ट को बहाल किया था, वैसा ही अब कुछ करना होगा.
देखा जाए तो कुल जनसंख्या अनुपात में ओबीसी का आंकड़ा बड़ा है. भारत में समाज कल्याण की जितनी भी योजनाएं फेल हो रही हैं, उस का मुख्य कारण भी यही है कि ओबीसी समाज के पास जातिगत जनसंख्या का कोई आंकड़ा नहीं है. केंद्र में ओबीसी के लिए मंत्रालय बना है, ओबीसी आयोग बना है, विभिन्न राज्यों में ओबीसी मंत्रालय, विभाग व आयोग बने हुए हैं, मगर ओबीसी का आंकड़ा उपलब्ध न होने के कारण कम फंड जारी होता है, और जो जारी होता है वह या तो विभागों के वेतन पर ही खर्च हो जाता है या केंद्र का फंड राज्य के लिए उपयोग में ले लेते हैं, क्योंकि जनसंख्या का आंकड़ा उपलब्ध न होने का बहाना जरूर उपलब्ध है.
आज तो ओबीसी नेताओं और ओबीसी के जातीय संगठनों का हाल यह है कि वे ऊंचे वर्ग के सामने पूरी तरह से समर्पण कर चुके हैं और जो न्यायपूर्ण तरीके से 27 फीसदी आरक्षण मिला था, उस को भी नहीं बचा पा रहे हैं. ओबीसी का बुद्धिजीवी वर्ग सचाई लिखता तो है, मगर कोई सम?ाने या लड़ने वाला नहीं है. उस के वर्ग के अफसर बहुत हैं, पर वे हकों के लिए लड़ने को तैयार नहीं हैं.
ब्राह्मणवाद के शिकंजे में पिछड़ा समाज
साल 2011 की जनगणना में ओबीसी की गिनती को ले कर लालू प्रसाद यादव ने दबाव बनाया था और गिनती हुई भी, लेकिन उस को जारी नहीं किया गया. उस के बाद लालू प्रसाद यादव को कई केसों में फंसा दिया गया. बाद में राजद के दबाव में नीतीश सरकार ने ओबीसी की जनगणना का प्रस्ताव बिहार विधानसभा में पास कर के भेजा, लेकिन उस के बाद की प्रक्रिया पर विचारविमर्श बंद कर दिया गया.
अब पिछले दिनों केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि ओबीसी की जनगणना के आंकड़े साल 2021 के सैंसैक्स में शामिल नहीं किए जाएंगे. ऊंचे वर्गों की सरकारें ओबीसी समुदाय को पढ़ाई और सरकारी नौकरी के हकों में शामिल नहीं करना चाहती हैं, जबकि धर्मों की दुकानों में जाने के रास्ते खुले हैं.
अंगरेजों ने साल 1881 में जाति आधारित जनगणना की शुरुआत की थी और उन आंकड़ों से जो सचाई सामने आई, उन को आधार बना कर महात्मा ज्योतिबाराव फुले ने सब से पहले विभिन्न जातियों को आबादी में उन के हिस्से के मुताबिक सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिए जाने की मांग उठाई थी.
आंकड़ों से साफ हो गया था कि सरकारी नौकरियों में जाति विशेष का एकछत्र कब्जा है. उन्होंने इस बारे में अपनी पुस्तक ‘शेतकर्याचा असुड़’ (किसान का चाबुक, 1883) में लिखा है.
साल 1901 की जनगणना को आधार बना कर कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज ने साल 1902 में अपने राज्य में 50 फीसदी आरक्षण लागू किया था, जिस के लिए उन्हें ब्राह्मणों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था. कांग्रेस के कद्दावर ब्राह्मण नेता बाल गंगाधर तिलक ने भी उन का विरोध किया था.
जाति आधारित जनगणना अंतिम बार साल 1931 में हुई थी और उस के अनुसार भारत में ओबीसी की संख्या
52 फीसदी थी. साल 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जनसंख्या का विवरण अटक गया और आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई, मगर जाति आधारित जनगणना छोड़ दी गई.
भीमराव अंबेडकर ने संविधान में अनुच्छेद-340 के तहत ओबीसी के उत्थान का प्रावधान किया था, जिस के तहत सरकार को संविधान लागू करने के एक साल के भीतर ओबीसी आयोग का गठन करना था.
साल 1951 में जाति आधारित जनगणना न करने व ओबीसी आयोग का गठन न करने के कारण दुखी हो कर अंबेडकर ने 10 अक्तूबर, 1951 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था.
नेहरू सरकार ने दबाव में आ कर 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में ओबीसी आयोग का गठन किया व इस आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट दी. कांग्रेस के ब्राह्मण नेताओं, हिंदू महासभा आदि ने यह कह कर इस को लागू करने से रोक दिया कि ओबीसी जनसंख्या के आंकड़े साल 1931 के हैं.
साल 1955 से ले कर साल 1977 तक जनगणना के समय जाति आधारित गिनती का यह कह कर विरोध करते रहे कि इस से देश कमजोर होगा व ओबीसी को हक देने की बात आती तो यह कह कर विरोध करने लग जाते कि नवीनतम आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए लागू नहीं किया जा सकता.
साल 1977 में समाजवादियों के दबाव में वीपी मंडल की अध्यक्षता में दोबारा ओबीसी आयोग बनाया और उठापटक के बीच साल 1980 में रिपोर्ट देते हुए मंडल ने कहा कि मैं यह रिपोर्ट विसर्जित कर रहा हूं.उन को अंदेशा था कि कुछ होगा नहीं, मगर साल 1989 में वीपी सिंह की सरकार बनी और समाजवादियों के दबाव में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का आदेश दे दिया गया.
मंडल के खिलाफ ब्राह्मण वर्ग ने कमंडल आंदोलन शुरू कर दिया और 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के आंकड़ों का हवाला देते हुए 27 फीसदी तक आरक्षण सीमित कर दिया और ऊपर से क्रीमीलेयर थोप दिया गया. सब से बड़ा खेल यह किया गया कि ओबीसी आरक्षण को महज सरकारी नौकरियों तक सीमित कर दिया गया.
कम्यूनिस्ट पार्टियों का इन आंकड़ों से कोई लेनादेना ही नहीं है, क्योंकि वे जाति संबंधी मुद्दों को नजरअंदाज करने का ढोंग करती आई हैं. एक तरह से मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अभियान में कांग्रेस व भाजपा के साथ उन के ज्यादातर नेता ब्राह्मण वर्ग के ही थे. आरएसएस व सभी हिंदू समूह और ब्राह्मण सभाएं मंडल विरोधी आंदोलन की अगली लाइन में थीं.
एससीएसटी वर्ग के लोग जितने मंडल आयोग के समर्थन में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे, वे अब ओबीसी की जनगणना को ले कर उतने मुखर नजर नहीं आते हैं. इस के 2 कारण हो सकते हैं. पहला तो एससीएसटी की जनसंख्या की गणना होती है व दूसरा मंडल आयोग के समर्थन से जो ओबीसी नेताओं से उम्मीद थी, वह धूमिल हुई है.
नजरअंदाज ओबीसी की सरकार में भागीदारी
आंकड़ों के अनुसार, केंद्रीय मंत्रालयों में अवर सचिव से ले कर सचिव व निदेशक स्तर के 747 अफसरों में महज 60 अफसर एससी, 24 अफसर एसटी व 17 अफसर ओबीसी समुदाय के हैं यानी ऊंचे सरकारी पदों पर दलितों का प्रतिनिधित्व महज 15 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग से तकरीबन 85 फीसदी अफसर इन पदों पर कार्यरत हैं और ओबीसी समुदाय तो कहीं नजर ही नहीं आता है.
केंद्र सरकार में सचिव रैंक के
81 अधिकारी हैं, जिस में केवल 2 अनुसूचित जाति के और 3 अनुसूचित जनजाति के हैं व ओबीसी शून्य. 70 अपर सचिवों में केवल 4 अनुसूचित जाति के और 2 अनुसूचित जनजाति के हैं व 3 ओबीसी के हैं. 293 संयुक्त सचिवों में केवल 21 अनुसूचित जाति के और 7 अनुसूचित जनजाति के व 11 ओबीसी के हैं. निदेशक स्तर पर 299 अफसरों में 33 अनुसूचित जाति के और 13 अनुसूचित जनजाति के और 22 ओबीसी के अधिकारी हैं.
केंद्र सरकार की ग्रुप ए की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 12.06 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 8.37 फीसदी है. सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 74.48 फीसदी है. गु्रप बी की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 15.73 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी का 10.01 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 68.25 फीसदी है. गु्रप सी की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 17.30 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी का 17.31 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 57.79 फीसदी है.
वहीं केंद्र सरकार के उपक्रमों की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 18.14 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 28.53 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 53.33 फीसदी है. यूजीसी के आरटीआई द्वारा मिले जवाब के मुताबिक, देशभर में कुल 496 कुलपति हैं. इन 496 में से केवल
6 एससी, 6 एसटी और 36 ओबीसी कुलपति हैं. इस के अलावा बाकी बचे सभी 448 कुलपति सामान्य वर्ग के हैं. मतलब, देश की 85 फीसदी आबादी (एससी, एसटी और ओबीसी) से 48 कुलपति और 11 फीसदी आबादी (सामान्य) से 448 कुलपति. प्रधानमंत्री के कार्यालय में एक भी ओबीसी अधिकारी नहीं है. जहां से पूरे देश के लिए नीति निर्माण के फैसले होते हैं, वहां देश की 65 आबादी का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है. न्यायपालिका आजादी के समय ही दूर चली गई थी. सोशल जस्टिस की लड़ाई को धार्मिक ?ांडों के हवाले कर दिया गया है.
गरीबी का दोहरा मापदंड क्यों
जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने ईडब्ल्यूएस के 10 फीसदी आरक्षण को बरकरार रखने के अपने फैसले में कहा कि आरक्षण गैरबराबरी वालों को बराबरी पर लाने का लक्ष्य हासिल करने का एक औजार है. इस के लिए न सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है, बल्कि किसी और कमजोर क्लास को भी शामिल किया जा सकता है. जानकारों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के ईडब्ल्यूएस के पक्ष में फैसले और खासकर जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की टिप्पणी के बाद आने वाले दिनों में अन्य जातियां भी खुद को आरक्षण के दायरे में लाने की मांग करने लगेंगी और मुमकिन है कि इन में से कुछ नए वर्गों को आरक्षण के दायरे में लाने का रास्ता साफ हो, क्योंकि सरकार को अपनी वोट बैंक की राजनीति करनी है और इस के लिए वह किसी भी ऐसे तबके को नाराज नहीं करना चाहेगी, जिस का वोट बैंक किसी राज्य में हार या जीत तय करने की ताकत रखता हो. मसलन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में जाट इस निर्णायक भूमिका में रहते हैं.
केंद्र सरकार के सामने बड़ी चुनौती
अब आने वाले दिनों में आरक्षण के बंटवारे को ले कर देश में एक बड़ा विवाद छिड़ सकता है, जिसे शांत करने में सरकार के पसीने छूटेंगे, क्योंकि हर तबके के लोग अपने हिस्से की नौकरियों में किसी दूसरे तबके का किसी भी हालत में दखल नहीं चाहते हैं, इसलिए हर जाति और तबके के लोग अपनेअपने लिए आरक्षण की मांग सरकार से करते रहे हैं.
इस में कोई दोराय नहीं है कि आज पूरे देश में धर्म और जाति की राजनीति हो रही है, ऊपर से हर जाति के लोग अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं. ऐसे में सवर्णों के इस 10 फीसदी आरक्षण ने आग में घी का काम किया है, जिस के नतीजे अच्छे तो नहीं होने वाले, क्योंकि अगर आप को याद हो, तो ओबीसी आरक्षण लागू होने के समय को याद कीजिए, जब सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में ओबीसी आरक्षण की
52 फीसदी की मांग को घटा कर खुद 27 फीसदी किया था और कहा था कि आरक्षण को 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता. आज यही आरक्षण 50 फीसदी के पार जा कर 59.5 फीसदी पर पहुंच चुका है. ऐसे में जाहिर है कि इस से अब आरक्षण को ले कर नएनए विवाद पैदा होंगे और बहुत सी जातियों के लोग, जिन्होंने अब तक अलग आरक्षण की मांग नहीं की है, सब के सब अब अलगअलग आरक्षण की मांग कर सकते हैं, जिस का असर आगामी आम चुनाव में साफसाफ दिखाई देगा.