‘अमेजन प्राइम’ पर ‘क्लार्कसंस फार्म’ नाम से 2 सीजन की एक इंगलिश डोक्यूमैंट्री टाइप सीरीज है, जिस में बताया गया है कि दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले खेतीबारी के क्षेत्र में 20 गुना ज्यादा मौतें होती हैं. अकेला किसान अपने खेत में ट्रैक्टर के सहारे कोई बड़ी मशीन चला रहा होता है, जरा सा झटका लगने पर वह गिर जाता है और मशीन के नुकीले लोहे के दांतों में पिस कर खुद ही खेत में खाद बन जाता है.
दरअसल, यह सीरीज एक अमीर आदमी जेरमी क्लार्कसन पर बनी है, जो 59 साल की उम्र में अपनी 1,000 एकड़ जमीन पर खुद खेती करता है और खेतीबारी से जुड़े नियमकानून में बंध कर सीखता है कि खेती करना कोई खालाजी का घर नहीं है, जो मुंह उठाया और चल दिए.
जेरमी क्लार्कसन एक बेहद अमीर किसान है. उस के पास खेतीबारी से जुड़ा हर नया और नायाब उपकरण है. वह ‘लैंबोर्गिनी’ कंपनी का भीमकाय ट्रैक्टर चलाता है, जिस में 8,000 तो बटन लगे हुए हैं. इस के बावजूद अगर वह अपने मुंह से किसान तबके की मौत से जुड़ी हकीकत सब के सामने रखता है, तो समझ लीजिए कि खेतीबारी करने वाले उन किसानों की क्या हालत होती होगी, जो छोटी जोत के हैं और उन की मौत के शायद आंकड़े भी न बनते हों.
जहां तक खेतीबारी में होने वाले खतरों की बात है, तो किसानों को खेत में कुदरत की मार के साथसाथ कई सारे खतरनाक जीवजंतुओं का भी सामना करना पड़ता है. खेत में काम करते समय बिच्छू, सांप, मधुमक्खी के अलावा दूसरे तमाम जहरीले जीवजंतुओं के काटने का बहुत बड़ा खतरा रहता है. किसानों को बहुत भारी और बड़ी मशीनों के साथ काम करना पड़ता है, उन से भी चोट लगने और मौत होने का डर बना रहता है.
भारत जैसे देश में तो किसान और ज्यादा मुसीबत में दिखता है. राजस्थान की रेतीली जमीन का ही उदाहरण ले लें. वहां पानी की कमी है और गरमी इतनी कि खेत में किसान के पसीने के साथसाथ उस का लहू भी चूस ले. इन उलट हालात में अगर फसल लहलहाने भी लगे तो भरोसा नहीं कि वह टिड्डी दलों का ग्रास नहीं बन जाएगी. फिर किसान के घर में भुखमरी का जो तांडव मचता है, वह किसी से छिपा नहीं है.
भारत में किसान आबादी ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं है, लिहाजा वह खेतीकिसानी में इस्तेमाल होने वाले कैमिकलों की मात्रा के बारे में या तो जानती नहीं है या फिर उन्हें अनदेखा कर देती है, तो उस की जान का खतरा बढ़ता ही चला जाता है. थोड़ा पीछे साल 2017 में चलते हैं. महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में 4 महीने
के भीतर तकरीबन 35 किसानों की कीटनाशकों के जहर से मौत हो गई थी. उन में से ज्यादातर कपास और सोयाबीन के खेतों में काम कर रहे थे. उन्होंने खेतों में कीटनाशकों के छिड़काव के दौरान अनजाने में कीटनाशक निगल लिया था. देशभर के किसानों से जुड़े संगठन ‘द अलायंस फौर सस्टेनेबल ऐंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा)’ ने इस सिलसिले में एक जांच
रिपोर्ट जारी की थी और मौतों के लिए मोनोक्रोटोफोस, इमिडैक्लोप्रिड, प्रोफैनोफोस, फिपरोनिल, औक्सीडैमेटोनमिथाइल, ऐसफिट और साइपरमेथरिन कीटनाशकों और इन के अलगअलग मिश्रणों को जिम्मेदार पाया था. प्रदेश सरकार ने कार्यवाही करते हुए यवतमाल, अकोला, अमरावती और पड़ोसी जिले बुलढाना और वाशिम में 5 कीटनाशकों ऐसफिट के मिश्रण, मोनोक्रोटोफोस, डायफैंथरीन, प्रोफैनोफोस और साइपरमेथरिन व फिपरोनिल और इमीडैक्लोरिड पर 60 दिनों के लिए बैन लगा दिया था.
कितने हैरत की बात है कि भारत में हर साल तकरीबन 10,000 कीटनाशक विषाक्तता के मामले सामने आते हैं. साल 2005 में सीएसई ने पंजाब के किसानों पर एक स्टडी की थी, जिस में किसानों के खून में अलगअलग कीटनाशकों के अंश पाए गए थे. सब से बड़ी समस्या यह है कि किसानों को कीटनाशकों के वैज्ञानिक मैनेजमैंट के लिए कोई जानकारी नहीं देता है. कीटनाशक बनाने वाले और सरकार इस के लिए कोई ठोस समाधान नहीं पेश करते हैं. किसान अपनी फसल को किसी भी तरह से बचाना चाहते हैं और खेत के मजदूर कीटनाशक छिड़काव के मौसम में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं. कम जगह में अच्छी उपज पाने और पैसा व समय बचाने के लिए ज्यादातर किसान कीटनाशकों के मिश्रण का अंधाधुंध इस्तेमाल करते हैं.
इस के अलावा भारत में कई फसलों पर ऐसे कीटनाशक भी इस्तेमाल किए जाते हैं, जो प्रमाणित नहीं हैं. यह समस्या काफी समय से बनी हुई है और किसानों के लिए जानलेवा साबित होती है. चलो, कैमिकल का गलत इस्तेमाल किसानों की लापरवाही या नासमझी की वजह से उन्हें मौत के मुंह में ले जाता है, पर अगर कोई किसान मौसम की मार से अपनी जिंदगी गंवा बैठे, तो इस की कौन जिम्मेदारी लेगा?
दिसंबर, 2022 की कड़कड़ाती ठंड में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले की ग्राम पंचायत देवाराकलां के गांव लालताखेड़ा मजरे का रहने वाला 52 साल का नन्हा लोधी रात को अपने खेत में फसल की रखवाली करने गया था, जहां अचानक उस की मौत हो गई.
नन्हा लोधी के परिवार वालों ने सर्दी लगने से मौत की वजह बताते हुए पुलिस और राजस्व विभाग के अफसरों को सूचना दी, जिस के बाद जिम्मेदार अफसर सर्दी से मौत होने के मामले को दबाने और मौत की वजह टीबी को बताने में जुट गए थे.
मौडर्न मशीनें भी किसानों पर कम कहर नहीं बरपाती हैं. हरियाणा में पानीपत जिले के खंड मतलौडा के गांव वेसर में खेत जोतते समय एक किसान रोटावेटर मशीन के नीचे आ गया, जिस से उस की मौत हो गई.
यह हादसा अक्तूबर, 2022 का है. गांव वालों ने बताया कि 40 साल का राजेश ट्रैक्टर और रोटावेटर से खेत जोत रहा था. इसी दौरान ट्रैक्टर के पीछे बंधे रोटावेटर से कुछ आवाज आने लगी. राजेश रोटावेटर चैक करने के लिए नीचे उतरा और रोटावेटर के पास बैठ कर आवाज चैक करने लगा.
इसी दौरान राजेश के शरीर का कोई कपड़ा रोटावेटर में फंस गया और देखतेदेखते रोटावेटर ने राजेश को अंदर खींच लिया, जिस से उस की मौत हो गई.
हादसे चाहे कुदरती हों या फिर इनसानी लापरवाही के चलते किसी किसान की जान जाए, उस के परिवार पर मुसीबतें बादल फटने जैसी बड़ी और खतरनाक होती हैं. पर अगर किसान खुदकुशी करने लगें तो फिर किस का माथा फोड़ा जाए? इस खुदकुशी की जड़ में कुदरती आपदाएं, बढ़ती कृषि लागत, पढ़ाईलिखाई की कमी, परंपराएं और संस्कृति होती है.
यह जो परंपरा और संस्कृति का बाजा है न, यह गरीब किसानों का सब से ज्यादा बैंड बजाता है. उसे खेतों से दूर करने के लिए पंडेपुजारियों द्वारा धर्मकर्म के दकियानूसी कामों में इस कदर उलझा दिया जाता है कि वह खेत का रास्ता ही भूल जाता है.
महिला किसान तो रीतिरिवाजों के जाल में इस तरह उलझा दी जाती हैं कि वे जो मेहनत खेत में कर सकती हैं उसे सिर पर पूजा का मटका ले कर मंदिर आनेजाने में ही बरबाद कर देती हैं.
फिर लदता है किसान पर कर्ज का बोझ. ऊपर से दूसरे क्षेत्रों में बढ़ती कमाई और भारत में कृषि सुधार बेहद धीमा होने के चलते वह खेत में दाने तो उगा लेता है, पर खुद दानेदाने को तरस जाता है. कोढ़ पर खाज यह कि खेतीबारी से जुड़े रोजगार के नए मौके नहीं बन पा रहे हैं और खेतीबारी से जुड़े जोखिमों में कमी नहीं आ पाई है.
बहरहाल, विदेश का 1,000 एकड़ जमीन का मालिक अमीर किसान जेरमी क्लार्कसन हो या भारत का 2 बीघे वाला कोई फटेहाल होरी, खेत में दोनों बराबर पसीना बहाते हैं. वे कुदरत के कहर से डरते हैं और उन की नजर अपने मुनाफे पर ही रहती है. थक कर दोनों खेत में ही जमीन पर बैठ कर अपना पेट भरते हैं, पर दोनों में फर्क उन सुविधाओं का है, जो क्लार्कसन के पास तो हैं, पर होरी ने उन्हें कभी देखा तक नहीं है. अगर यह फर्क मिट जाए, तो गरीब से गरीब किसान भी असली अन्नदाता कहलाने का हकदार हो जाएगा.
जाति के जंजाल में किसान
भारत में किसान तबका जाति के जंजाल में इस तरह उलझा हुआ है या उलझाया गया है कि छोटी जाति वाले अपने खेत के सपने ही देख पाते हैं वरना तो वे दूसरे के खेतों में मजदूर बन कर ही जिंदगी गुजार देते हैं.
साल 2015-16 में की गई कृषि जनगणना की जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दलित (अनुसूचित जाति) इस बड़ी जमीन के सिर्फ 9 फीसदी से भी कम पर खेती का काम करते हैं. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, गांवदेहात के इलाकों में उन की आबादी का हिस्सा 18.5 फीसदी है. ज्यादातर दलित असल में भूमिहीन हैं.
अनुसूचित जनजाति के किसान भूमि के तकरीबन 11 फीसदी हिस्से पर खेती से जुड़ा काम करते हैं, जो गांवदेहात के इलाकों में उन की आबादी की हिस्सेदारी के बराबर है. लेकिन इन में से ज्यादातर भूमि मुश्किल भरे दूरदराज वाले इलाके में है. इस भूमि के लिए सिंचाई का कोई इंतजाम नहीं है और वहां सड़कें भी नहीं पहुंची हैं.
तकरीबन 80 फीसदी कृषि भूमि का संतुलन ‘अन्य’ जातियों द्वारा संचालित होता है जो तथाकथित ऊंची जातियों या ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ से हैं.
हरियाणा, पंजाब और बिहार जैसे राज्यों में दलितों के बीच भूमिहीनता विशेष रूप से गंभरी है, जहां 85 फीसदी से ज्यादा दलित परिवारों के पास उस भूखंड के अलावा कोई जमीन नहीं है, जिस पर वे रहते हैं. तमिलनाडु, गुजरात, केरल, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में 60 फीसदी से ज्यादा दलित परिवार भूमिहीन हैं.
सितंबर, 1954 में अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की साल 1953 की रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने सदन का ध्यान जमीन के सवाल पर खींचा था. सवाल सरकार द्वारा दलितों को जमीन देने का था.
तब डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने 3 सवाल किए थे. पहला, क्या दलितों को देने के लिए जमीन मुहैया है? दूसरा, क्या सरकार दलितों को जमीन देने के लिए भूस्वामियों से जमीन लेने की ताकत रखती है? तीसरा, अगर कोई दलितों को जमीन बेचना चाहता है, तो क्या सरकार उसे खरीदने के लिए पैसा देगी? उन्होंने कहा था कि यही 3 तरीके हैं, जिन से दलितों को जमीन मिल सकती है.
डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने यह भी कहा था कि या तो सरकार यह कानून बनाए कि कोई भी भूस्वामी एक निश्चित सीमा से ज्यादा जमीन अपने पास नहीं रख सकता और सीमा तय हो जाने के बाद, जितनी फालतू जमीन बचती है, उसे वह दलितों को मुहैया कराए. अगर सरकार यह नहीं कर सकती, तो वह दलितों को पैसा दे, ताकि अगर कोई जमीन बेचता है, तो वे उसे खरीद सकें.
डाक्टर भीमराव अंबेडकर के 3 सवाल आज भी मुंह बाए खड़े हैं, पर उन का तोड़ कोई नहीं निकाल पाया है. जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार इस देश पर काबिज हुई है, तब से तो यहां ‘रामचरितमानस’ की चौपाइयों को ही संविधान बना देने की होड़ मचने लगी है. दलितों को खेती के लिए जमीन नहीं, बल्कि ‘भगवान’ दिए जा रहे हैं, जो उन्हें अन्न का एक दाना नहीं दे पा रहे हैं.