लूटकेस: रबर की तरह खींची गयी कहानी

रेटिंग: 2 स्टार

निर्माता: फॉक्स स्टार स्टूडियो

निर्देशक: राजेश कृष्णन

कलाकार: कुणाल केमू , रसिका दुग्गल, गजराज राव, विजय राज, रणवीर शोरी,आकाश दभाड़े, मनुज शर्मा, नीलेश दिवाकर, प्रीतम जायसवाल व अन्य

अवधि: 2 घंटे 12 मिनट

ओटीटी प्लेटफॉर्म: डिजनी हॉटस्टार

नेताओं और अपराधियों के गठजोड़ के बीच एक आम इंसान के फंस जाने पर क्या स्थिति होती है, उसके साथ साथ यदि हर दिन आर्थिक हालात के संकट से जूझ रहे आम इंसान के हाथ 10 करोड़ रुपए लग जाए तो वह क्या करेगा? इसी के इर्द गिर्द घूमने वाली हास्य व अपराध कथा वाली फिल्म ‘लूटकेस’ फिल्मकार राजेश कृष्णन लेकर आए हैं. अफसोस इस कहानी को रबर की तरह इतना खींचा गया है कि दर्शक को हंसी नहीं आती .बल्कि वह बोर होकर अपने सिर के बाल नोचने लगता है.

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कहानी :

कहानी शुरू होती है एक अपराधी जमील की हत्या से. इससे उमर और बाला राठौर (विजय राज) आमने सामने आ जाते हैं .उमर को राज्य के मंत्री पाटिल (गजराज राज) का वरद हस्त हासिल है.एक दिन पाटिल, उमर को बुला कर उसे 10 करोड़ रुपए और एक फाइल से भरे लाल रंग के सूटकेस को संशाधन मंत्री त्रिपाठी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी देते हैं. बाला राठौर अपने गुर्गे राजन को आदेश देता है कि वह उमर से यह सूटकेस हासिल कर ले. घाटकोपर में पाइप लाइन के पास दोनों गुट के बीच गोलीबारी शुरू होती है, तभी पुलिस आ जाती है. उमर के आदमी उस सूटकेस को वहीं छिपाकर कर भाग खड़े होते हैं .

एक प्रिंटिंग प्रेस में कार्य करने वाला आम इंसान नंदन (कुणाल केमू) अपनी पत्नी लता (रसिका दुग्गल) और बेटे आयुष के साथ रहता है. आर्थिक संकट है. मकान का किराया भी नहीं दे पा रहा है. रात में दो बजे नौकरी से लौटते समय नंदन के हाथ यह सूटकेस लग जाता है. वह सूटकेस को अपने घर ले आता है . पत्नी से सच छिपाता है. सूटकेस के पैसे कई जगह छिपाकर रख देता है.अब  जिंदगी सही गुजरने लगती है.

उधर मंत्री पाटिल परेशान होकर पुलिस इंस्पेक्टर कोलटे (रणवीर शोरी) को सूटकेस की तलाश करने की जिम्मेदारी सौंपते हैं . बाला राठौड़ अब कोलटे के पीछे अपने आदमी लगा देते हैं . कोलटे,  नंदन तक पहुंच जाता है मगर घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. कोलटे ,उमर व बाला सभी मारे जाते हैं. नंदन को फिर से सूटकेस व पूरी रकम मिल जाती है.

लेखन निर्देशन:

यदि इंसान के अंदर लेखन और निर्देशन की क्षमता का अभाव हो, तो वह किस तरह बेहतरीन कथानक का भी सत्यानाश कर देता है, इसी का उदाहरण है राजेश कृष्णन की यह फिल्म ‘लूटकेस’ .एक आम इंसान के हाथ 10 करोड़ रुपए लगने के बाद उसकी कार्यशैली से हास्य के बेहतरीन पल गढ़े जा सकते थे, पर निर्देशक बुरी तरह से मात खा गए. फिल्म में राजनीति और अपराधियों के गठजोड़ को भी ठीक से चित्रित नहीं किया गया.एक काबिल  पुलिस इंस्पेक्टर किस तरह मंत्री के हाथ खिलौना बन कर रह जाता है,इसे भी सही ढंग से उभारने में वह असफल रहे. बल्कि बेवजह के घटनाक्रमों से फिल्म को इतना खींचा गया कि दर्शक बोर हो जाता है .इसे एडिटिंग टेबल पर  कसने की भी जरूरत थी. क्लाइमेक्स भी प्रभावित नहीं करता.

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अभिनय :

लेखक और निर्देशक के बाद कुणाल केमू इसकी सबसे कमजोर कड़ी हैं. कुणाल केमू ने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि वह मल्टीस्टारर फिल्म में ही ठीक है.आम इंसान के आर्थिक संकट से जूझने और फिर करोड़ों रुपए हाथ आ जाने पर जिस तरह के हाव-भाव होने चाहिए थे, उसे वह अपने अभिनय से नहीं ला पाते. रसिका दुग्गल एक सशक्त अदाकारा हैं, मगर इस फिल्म में उनकी प्रतिभा को जाया किया गया है.  कुटिल व कपटी मंत्री पाटिल के किरदार में गजराज राव ने शानदार अभिनय किया है. विजय राज एक नए अवतार में हैं, मगर उनके चरित्र को ठीक से लिखा नहीं गया, इसलिए वह प्रभाव नहीं डाल पाते. रणवीर शोरी भी निराश करते हैं.

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