शूद्र को शूद्र ही रहने दो…उसके पांव न पड़ो

एक गांधी जी थे जिन्हें महात्मा बनने का बड़ा शौक था शौक क्या था लगभग एब था. फिर कल तक जो देश में मोहनदास करमचंद गांधी और विदेश में एमके गांधी कहे जाते थे वे देखते ही देखते राष्ट्रपिता हो गए. आजादी की लड़ाई के चक्कर में वे पूरा हिंदुस्तान घूमे तो दरिद्र नारायनों यानि दलितों की दुर्दशा देख उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया कि गुलामी की असल वजह वर्ण व्यवस्था है सो उन्होंने कहा, रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम…

सीधे मर्यादा पुरुषोत्तम से शूद्रों का कनेकशन जोड़ते इस भजन मात्र से छुआछूत की समस्या तो हल नहीं हुई, लेकिन उनके झांसे में आ गए दलित समुदाय ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा लिए. तब अंग्रेजों को समझ आया कि वे यहां व्यापार करने आए थे जो पूरा हो चुका है सो अपना बोरिया बिस्तर समेट कर वे चलते बने, पर जाते जाते वे देश को दो टुकड़ों में बांट गए.

कहने को देश आजाद हो गया और कथित दलित प्रेमी गांधी जी को गोली मार दी गई क्योंकि उनका भी काम पूरा हो गया था. जब बंटवारे का हो हल्ला खतम हो गया तो लोगों ने देखा कि कुछ नहीं बदला है, लोकतंत्र की कथित स्थापना के बाद भी राज सवर्णों का ही है क्योंकि वे ब्रह्मा के मुंह और छाती से पैदा हुये हैं लिहाजा राज पाट वही देखेंगे. पेट से पैदा हुये वैश्यों को भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा, वे पूर्ववत खेती किसानी और व्यापार करने के अपने पुश्तैनी धंधे में लग गए और दलित यानि पैर से पैदा हुये शूद्र ने भी आंखे मलते हुये मल ढोने, मरे मवेशी उठाने और झाड़ू बुहारी करने का काम शुरू कर दिया.

गांधी वध क्यों, नाम की पुस्तक में नाथूराम गोडसे जिसकी आजकल पूजा भी की जाने लगी है ने ईमानदारी से बताने की कोशिश की है कि उसने गांधी को क्यों मारा. अगर आप दिमाग खाली कर यह किताब पढ़ेंगे तो निश्चित ही यह कहेंगे कि हिन्दू हितों को मद्देनजर गोडसे ने वही किया जो किसी भी सच्चे हिन्दू को करना चाहिए था. गांधी जी नमाज पढ़ने लगे थे, उन्होंने करोड़ों रुपये पाकिस्तान को दिलवाए थे, जैसी बातें या दलीलें किसी सबूत की मोहताज आज भी नहीं हैं. गोडसे आरएसएस का था या हिंदू महासभा का था इन बातों का न तब कोई खास मतलब था न आज है. मतलब तो बस इतना कि वह गांधी की तरह ही सनकी लेकिन कट्टर हिंदूवादी था, जिसे गांधी का मुस्लिम और दलित प्रेम रास नहीं आया था.

कट्टरवादियों की एक ही खामी या खूबी कुछ भी कह लें यह होती है कि वे धर्म ग्रन्थों से इतर कुछ भी सोचना या समझना नहीं चाहते. देखा जाये तो गांधी दरअसल में दलितों को स्वीकृत तरीके से सवर्णों की पालकी ढोने तैयार कर रहे थे, क्योंकि खुद गांधी वैश्य होने के नाते ब्राह्मणों को पूज्य मानते थे. उनकी आपत्ति बस इतनी भर थी कि दलितों को बिलकुल ही जानवर मत समझो. लेकिन ब्राह्मण समुदाय को धार्मिक निर्देशों में यह मामूली फेरबदल भी स्वीकार्य नहीं था.

दिनांक 24 फरवरी 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सफाईकर्मी महिला के पांव धोकर महानता की तरफ अपना एक कदम और बढ़ा दिया है. यह नोटबंदी से कमतर ऐतिहासिक घटना नहीं है. निश्चित रूप से इसके दूरगामी तो नहीं लेकिन तात्कालिक परिणाम होंगे. इसके लिए पहले यह तय करना जरूरी है कि वाकई मोदी का दिल भी दलितों के लिए गांधी की तरह द्रवित होने लगा है या उन्हें सिर्फ लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उनके वोटों की खातिर एक शूद्र महिला के पांव धोने पड़े. अधिकांश का जबाब या राय यही होगी और है भी कि उन्हें सिर्फ दलित वोटों से और सत्ता से मतलब है और इसके लिए पांव धोना तो बहुत छोटा ड्रामा है, अगर दलितों के पांव धोकर पानी भी पीना पड़े तो सौदा घाटे का नहीं.

घाटे का इसलिए नहीं कि वर्ण व्यवस्था वाला लोकतांत्रिक राज अभी और कायम रखना है. साल 2014 में भाजपा और आरएसएस ने एक बड़ा जोखिम उठाते कामयाब जुआ या दांव मोदी के नाम पर खेला था. यह हिंदूवादी राजनीति का एक बड़ा प्रयोग था कि एक छोटी जाति वाले नेता को बतौर प्रधानमंत्री पेश किया गया था. प्रयोग सफल रहा और सरकार नागपुर से चलती रही. अभी भी कोई शंकराचार्य, महामंडलेश्वर महंत या कोई दूसरा ब्राह्मण किसी सफाईकर्मी महिला के पांव नहीं धो रहा है इस लिहाज या वास्तविकता से नरेंद्र मोदी के इस कृत्य को ढोंग या पाखंड कहना कतई हर्ज की बात नहीं क्योंकि जंग, मोहब्बत और सियासत में सब जायज होता है.

बात या हरकत बिलकुल नई नहीं है, 2014 के बाद से भाजपा और आरएसएस दोनों दलितों को गले लगाने का स्वांग रचते रहे हैं. यह और बात है कि हर बार अलग होने पर दलित को अपनी पीठ पर गरमागरम कुछ बहता महसूस हुआ है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने खूब दलितों के घर जाकर उनकी थाली में खाना खाया है, उज्जैन कुंभ में भी उन्होंने दलित संतों के साथ क्षिप्रा नदी में डुबकी लगाई थी. लेकिन इससे कोई क्रांति नहीं आ गई. दलित बेचारा दलित ही है, उसके दलितपने का सूचकांक ज्यों का त्यों है उल्टे मोदी राज में दलित अत्याचारों में बढ़ोत्तरी ही हुई है.

इस ड्रामे को दूसरे यानि गांधीवादी नजरिए से देखें तो भी बात गले उतरने वाली नहीं है.  देश का श्रेष्ठिवर्ग शायद ही मोदी के दलित महिला के पांव धोने को साफ सुथरे या प्रगतिवादी नजरिए से देखने की जहमत उठाएगा. तीन हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा के सत्ता से बेदखल होने की एक प्रमुख वजह एटरोसिटी एक्ट पर मोदी सरकार का संसद में झुकना गलत नहीं आंकी जा रही. अब मोदी सरेआम झुके हैं तो कैसे सवर्ण भाजपा को वोट देगा समझना वाकई मुश्किल है.

झुकने के इस मसले को जातिवादी नजरिए से देखने पर एतराज जताने वालों को खबर को गौर से पढ़ना या देखना चाहिए. महिला सफाईकर्मी यानि दलित थी, यही विशेषण बताता है कि मकसद तस्वीर बदलने की नहीं बल्कि हंगामा मचाने भर की थी. किसी को केवट याद आया तो किसी को शबरी वाला प्रसंग याद आया. ऐसे मौकों पर हमारे पास याद करने लायक कुछ और है भी नहीं. एक गांधी थे तो उनके पुतलों पर भी गोलियां चलाई जा रहीं हैं.

नरेंद्र मोदी ऊंची जाति वालों का प्रतिनिधित्व भी करते हैं या नहीं यह दिलचस्प पहेली लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजे बताएंगे, लेकिन नरेंद्र मोदी ऊंची जाति वालों के इशारे पर नाचते थे, यह साबित करने कहीं जाने की जरूरत नहीं. जरूरी यह भी नहीं कि हर बार गांधी गुजरात से ही पैदा हो. वैसे भी अब किसी गांधी की जरूरत को भाजपा खारिज करने लगी है, पर यह देश का आम आदमी तय करेगा कि उसे किसकी जरूरत है. रही बात दलितों की तो वे इन नए नए ड्रामों से आजिज़ आने लगे हैं. कभी उनके यहां खाना खाकर उन्हें मुख्यधारा में होने का धोखा दिया जाता है तो कभी उनके संतों के साथ स्नान करके उन्हें बरगलाया जाता है और अब पांव तक धोये जाने लगे हैं. कल को चरणामृत भी पिया जा सकता है.

इससे हुआ क्या है और होगा क्या यह लुटापिटा दलित समुदाय शायद ही तय कर पाये.

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