सुबह टीवी औन कर न्यूज चैनल लगाया तो रिपोर्टर को यह कहते सुन कर कि अपने शोषण के लिए औरतें स्वयं दोषी हैं, मन गुस्से से भर गया. फिर खिन्न मन से टीवी बंद कर दिया. सोचने लगी कि हर समय दोषी औरत की क्यों? आजकल जो भी घटित हो रहा है वह क्या कुछ नया है? न तो बाबा नए हैं न ही आश्रम रातोंरात बन गए. फिर अशांत मन से उठ कर चाय बनाने रसोईघर में घुस गई. पर मन था कि गति पकड़ बैठा और न जाने कब की भूलीबिसरी यादें ताजा हो गईं, फिर सारा दिन मन उन यादों के इर्दगिर्द घूमता रहा. बहुत कोशिश की इन यादों से बाहर आने की पर मन न जाने किस धातु का बना है? लाख साधो, सधता ही नहीं.
कभी लगता है कि नहीं हमारा मन हमारे कहने में है. लेकिन फिर छिटक कर दूर जा बैठता है. जीवन के घेरे में न जाने कितनी बार मन को परे धकेल देते हैं. पर आज तो जैसे इस मन का ही साम्राज्य था.
आज न जाने क्यों मौसी बहुत याद आ रही थीं. हम बच्चे इतना कुछ समझते नहीं थे. कमला मौसी आतीं तो बहुत खुश हो जाते. वे मां की बड़ी बहन थीं. लेकिन मां और मौसी बातें करतीं तो हमें वहां से हटा देती थीं. कहती थीं, ‘‘जाओ बच्चो अपना खेल खेलो.’’
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उन की आधीअधूरी बातें कानों में जाती, तो भी पल्ले नहीं पड़ती थीं. बस जो भी समझ में आता था वह यह था कि मौसी बालविधवा है. शायद उस समय हमें विधवा का अर्थ भी ठीक से नहीं पता था. थोड़ा बड़ा होने पर जब मां से पूछा कि मौसी बालविधवा क्यों हैं, तो मां ने बस इतना ही कहा कि मौसाजी, मौसी को बहुत छोटी उम्र में छोड़ कर, परलोक सिंधार गए थे और फिर कभी कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि वक्त के साथसाथ हम भी बड़े होते चले गए.
मौसी की शादी एक अच्छे घराने में हुई थी. काफी धनदौलत थी. पर मौसाजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. वे अपने मांबाप के अकेले बेटे और मौसी से उम्र में काफी बड़े थे. उन के स्वास्थ्य की सलामती के लिए घर में पूजापाठ चलते रहते. वृंदावन से एक गुरुजी का भी आनाजाना था. वे कुछ दिन वहीं रुकते और सब सदस्य उन के आदेशों का पालन करते. गुरुजी को भगवान जैसा पूजा जाता था. उन के आदेश को सब पत्थर की लकीर मानते थे.
मौसी से जो भी कार्य मौसाजी के स्वास्थ्य के लिए करने को कहा जाता, मौसी पूरे यत्न से करतीं. मुझे याद है एक बार गुरुजी ने कड़ाके की सर्दी में उन्हें रात में मिट्टी की 1001 गौरी की पिंडलियां बनाने के लिए कहा तो इतनी छोटी उम्र में भी मौसी ने नानुकुर किए बिना बना दीं. लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. उन के रत्न भी मौसाजी को नहीं बचा पाए.
किसी ने कहा कि बहुत छोटी है, दूसरा विवाह करा दो, तो किसी ने सती होने की सलाह दी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.
गुरुजी ने कहा कि इसे भगवान की सेवा में लगा दो. सब को वही सही लगा.
एक यक्ष प्रश्न यह भी था कि संतान न होने की वजह से इतनी बड़ी जायदाद को कौन संभालेगा? परिवार वालों ने रिश्तेदारी में से ही एक लड़का गोद ले लिया और अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ससुराल वाले मौसी की तरफ से उदासीन हो गए. घर को वारिस की जरूरत थी. यह जरूरत पूरी होते ही मौसी की हैसियत नौकरानी से कुछ ही ज्यादा रही. फिर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा. वे सिर्फ शांतिपूर्वक रहना चाहती थीं.
दिन बीतते चले गए और लोगों का व्यवहार मौसी से बदलता चला गया. एक दिन वृंदावन से गुरुजी ने संदेश भिजवाया कि बहू को गुरुसेवा के लिए वृंदावन भेज दो, पुण्य मिलेगा.
घर के सभी सदस्यों ने बिना सोचविचार किए उन्हें वृंदावन भेज दिया. हमेशा की तरह मौसी ने भी बिना कुछ कहे बड़ों की आज्ञा का पालन किया. वैसे भी एक हकीकत यह भी है कि आज भी बहुत सी विधवाओं को वृंदावन में भीख मांगते देखा जा सकता है. पर मौसी को एक आश्रम में आश्रय मिल गया. अब मौसी कुछ दिन वृंदावन और कुछ दिन अपने घर रहतीं.
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रुपएपैसों की कोई कमी नहीं थी. इसलिए गुरुजी के कहने पर वृंदावन में एक बड़ा सा आश्रम बनवा दिया गया. धीरेधीरे मौसी का वृंदावन से आना बंद हो गया और वे उसी आश्रम में एक कमरा बनवा कर रहने लगीं. कहीं न कहीं लोगों का बदलता व्यवहार और नजरिया इस का एक बड़ा कारण रहा.
कभीकभी मम्मी की और मौसी की फोन पर बात हो जाती. पर बात करने के बाद मां बहुत दुखी रहती थीं. एक दिन में पस्थितियां कुछ ऐसी बन गई कि मां ने गुस्से में वृंदावन जाने का निश्चय कर लिया और फिर घर से चल दीं. पर भाई ने उन्हें अकेले नहीं जाने दिया और वह भी उन के साथ कुछ दिनों के लिए वृंदावन चला गया. मां को मौसी से मिल कर बहुत खुशी हुई. पर मौसी ने उन्हें यहां 2 दिन से ज्यादा रुकने नहीं दिया.
मौसी ने कहा, ‘‘इस तरह से नाराजगी में घर छोड़ कर तूने सही नहीं किया, सुधा. मेरी बात कड़वी लगेगी पर स्त्री को हमेशा एक संरक्षण की जरूरत पड़ती है. शादी से पहले पिता और भाई, शादी के बाद पति और बुढ़ापे में बेटा. समाज में इस से इतर स्त्री को सम्मानपूर्वक जीने का हक नहीं मिलता. आगे से यह गलती दोबारा मत दोहराना. अकेली औरत का दर्द मुझ से ज्यादा कौन समझ सकता है?’’
वापसी में मां ने भाई से कहा, ‘‘बेटा, मौसी के चरणस्पर्श करो.’’
मगर भाई ने पैर छूने से इनकार कर दिया. मां को बहुत बुरा लगा. मौसी ने यह कह कर कि बच्चा है भाई के सिर पर हाथ रखा. लेकिन भाई ने उन का हाथ झटक दिया. शायद मौसी भाई की आंखों में अपने लिए नफरत साफ देख पा रही थीं. इसलिए उन्होंने मां को गुस्सा करने नहीं दिया. शांत रहने का आदेश दे कर बिदा करा.
घर आ कर मां और भाई में बहुत कहासुनी हुई. मां मौसी के खिलाफ कुछ सुनना नहीं
चाहती थीं, पर भाई था कि एक ही बात की रट लगाए हुए था, ‘‘वह मौसी नहीं वेश्या है, वेश्या?’’
यह सुनते ही मां ने तड़ाक से एक थप्पड़ जड़ दिया.
इस पर भाई ने गुस्से में कहा, ‘‘आप चाहे कुछ भी कहो, मारो, लेकिन यह एक कड़वी हकीकत है, जिसे आप झुठला नहीं सकतीं. वह वेश्याओं का अड्डा है. वहां सब तरह का धंधा होता है.’’
मां ने चीख कर कहा, ‘‘बस…बहन है वह मेरी. मां समान है. मैं उस के खिलाफ एक शब्द नहीं सुनना चाहूंगी.’’
इस पर भाई ने कहा, ‘‘इन 2 दिनों में मैं ने वहां जो देखा या मुझे बताया गया, तो क्या वह सब झूठ है?’’
‘‘हां, सब झूठ है. होगा सच औरों के लिए पर मेरी मां समान बहन के लिए नहीं. अगर आज के बाद उन के लिए एक भी शब्द बोला, तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’
उन दोनों के बीच की कहासुनी सुन कर हम लोगों को बहुत डर लग रहा था. पर जैसे भाईर् भी जिद पर उतर आया था. उस ने कहा, ‘‘आप के लिए होगी मां. मेरे लिए तो…’’
मां बीच में ही बोल पड़ीं, ‘‘बस चुप रहो. मैं एक भी शब्द नहीं सुनना चाहती.’’
भाई गुस्से से वहां से चला गया. झगड़ा खत्म नहीं हो रहा था. मां ने कई बार उसे समझाना चाहा, लेकिन वह भी जिद पर अड़ा रहा. शायद उस के मानसपटल पर सबकुछ चिह्नित हो गया था. मां ने एक बार फिर उसे समझाने की नाकाम कोशिश की.
इस पर उस ने कहा, ‘‘चलो अब बात छोड़ो. अभी मेरे साथ वृंदावन चलो. मैं आप को उन सब लोगों से मिलवाता हूं, जिन्होंने मुझे ये सब बताया.’’
तभी अचानक मौसी का फोन आ गया. मां के सवाल करने पर मौसी रो पड़ीं और फिर बोलीं, ‘‘जब मुझे भेजने का निर्णय लिया गया था तब किसी ने भी नहीं रोका. तब कहां थे सब? यह निर्णय तो समाज का ही था. जितने मुंह उतनी बातें. एक अकेली औरत को क्या नहीं सहना पड़ता? सब का सामना करना आसान नहीं है?’’
‘‘इस जीवन से तो अच्छा मरना है, जीजी,’’ मां ने कहा.
‘‘क्या मरना इतना आसान है सुधा?’’ मौसी ने पूछा.
कुछ देर चुप्पी छाई रही, फिर मौसी ने ही चुप्पी को तोड़ा और कहा, ‘‘सुधा, इस बात की वजह से अपने घर में क्लेश मत रखना. हां, यहां दोबारा मत आना और न ही कोई पत्र व्यवहार करना.’’
‘‘पर… जीजी…’’ अभी मां कुछ पूछतीं उस से पहले ही मौसी ने कहा, ‘‘तुझे मेरा वास्ता.’’
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शायद मां में इतनी हिम्मत नहीं थी कि मां समान बहन की बात न मानें. खैर, बात आईगई हो गई. महीनों या कहो सालों तक न तो मां ने ही फोन करना ठीक समझा और न ही मौसी का फोन आया.
कुछ सालों बाद एक पत्र से पता चला कि मौसी बहुत बीमार हैं और इलाज के लिए दिल्ली गई हैं. तब मां से रहा नहीं गया और उन्होंने भाई के सामने मौसी से मिलने की इच्छा जताई. भाई खुद मां को मौसी से मिलवाने के लिए दिल्ली ले गया. मौसी और मां मिल कर बहुत रोईं. मौसी को कैंसर बताया गया था और वह भी लास्ट स्टेज का.
मौसी की हालत देख मां रोए जा रही थीं. तब कमला मौसी ने नर्स को कमरे में बाहर जाने को कहा और मां से बोलीं, ‘‘सुधा, पूछ क्या पूछना चाहती थी?’’
मां की रूलाई फूट गई. शब्द नहीं निकल रहे थे. मौसी ने अपने जर्जर शरीर से बैठना चाहा पर नाकामयाब रहीं. भाई दूर खड़ा सब देख रहा था. उस ने आगे बढ़, मौसी को सहारा दे कर बैठाया. कमला मौसी ने हाथ से इशारा करते हुए कहा, ‘‘आशू बैठ. नाराज है न मौसी से? सुधा तेरे सभी सवालों के आज जवाब मिल जाएंगे. तू जानना चाहता है न कि कितनी सचाई है इस आशू की बातों में?’’ उन की सांस उखड़ने लगी थी.
मां ने कहा भी, ‘‘मुझे कुछ नहीं जानना. आप शांत रहो.’’
मौसी ने कहा, ‘‘अकेली स्त्री का दर्द बहुत बड़ा होता है. हां मैं अछूती नहीं… सुधा कड़वी सचाई यह है कि यह जो इज्जत, शीलशुचिता, शब्द हैं न, जिन की वजह से बारबार स्त्रियों को कमजोर किया जाता है असल में औरतों के शोषण की सब से बड़ी वजह शायद यही हैं.
‘‘आज भी वह इस तथाकथित चारित्रिक बंधन से मुक्त नहीं हो पाई है. जब मैं जा रही थी, तो किसी ने मुझे हक से रोका भी तो नहीं था. कोई कहता तो सही कि हम मर गए हैं क्या? तुम कैसे जा सकती हो, अपना घर छोड़ कर? लेकिन ऐसा नहीं हुआ. किसी ने भी तो मेरे लिए दरवाजे नहीं खोले. मैं एकदम इतनी पराई हो गई सब के लिए. यह शायद मेरे औरत होने की सजा थी.’’
कुछ देर सुबकने के बाद वे फिर बोलीं, ‘‘आज सब मुझ पर ऊंगलियां उठा रहे हैं. जिन लोगों ने, जिस समाज ने भेजा, वही पीठ पीछे हंसता था, बातें बनाता था. पता है एक महिला अपने चरित्र पर उठती ऊंगली आज भी बरदाश्त नहीं कर पाती और शायद यहीं वह चूक जाती है. यही वजह उस के मानसिक और शारीरिक शोषण का कारण होती है.
‘‘हां, आश्रम में सबकुछ होता है. लेकिन मेरे लिए यह वेश्यालय नहीं. वह आश्रम तो मुझ जैसी और भी कई औरतों के लिए एक आश्रय है. मैं ने उन्हें गुरु माना है. वही मेरे सबकुछ हैं. बहुत सी बार स्थितियोंवश जब 2 लोग जुड़ते हैं तब उस समय एक भावनात्मक संबंध जुड़ता है जो शारीरिक संबंध का रूप ले लेता है. वैसे भी अपनों ने तो मुंह मोड़ लिया था. कहां जाती? ससुराल वालों ने पीछा छुड़ाना चाहा तो मायके वालों का भी तो साथ नहीं मिला… किस ने ढोना चाहा इस बोझ को? बोलो? ऐसे में गुरुजी ने ही सहारा दिया, आश्रय दिया.
‘‘सहारा देने वाला ही मेरे लिए सबकुछ होता होगा. आश्रम में मेरे जैसी न जाने कितनी बेसहारा औरतों को संरक्षण तो मिल जाता है. पति की मृत्यु के बाद तो कुछ लोगों ने कहा कि इस लड़की को मर जाना चाहिए. अब यह जी कर क्या करेगी? पर… मेरे अंदर इतनी शक्ति नहीं थी, जो मैं अपने प्राण त्याग देती. कहना बहुत आसान होता है पर करना बहुत मुश्किल. अपनेअपने गरीबान में झांक कर देखो सब,’’ कहतेकहते फफक कर रो पड़ीं.
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फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद आगे बोलीं, ‘‘सत्य की भूख तो सब को होती है, लेकिन जब यह परोसा जाता है, तो बहुत कम लोग इसे पचा पाते हैं, सुधा. अकेली औरत को हजारों बुनियादी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और इसी कारण उसे कई अत्याचारों, शोषण और प्रतिरोध करने पर दमन का शिकार होना पड़ता है.
‘‘मुझे मालूम है पति के साए से दूर औरत को वेश्या ही समझा जाता है. आखिरकार इस पुरुषप्रधान समाज में स्त्री को एक देह से अलग एक स्त्री के रूप में देखता ही कौन है? यहां तो, स्त्री के कपड़ों के भीतर से नग्नता को खींचखींच कर बाहर लाने की परंपरा है. नग्नता और शालीनता के मध्य की बारीक रेखा समाज स्वयं बनाता और स्वयं बिगाड़ता है. हर औरत इस दलदल में हमेशा फंसा महसूस करती है. स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है? मेरी जिंदगी क्या है? मैं तो एक टूटा हुआ पत्ता हूं. न मेरा कोई आगे, न पीछे. क्या पता एक हवा का झोंका कहां फेंक दे?’’
उस दिन मां और मौसी घंटों रोती रही थीं. भाई को भी अपने कहे शब्दों पर बहुत अफसोस हुआ था. मां से इस मुलाकात के बाद मौसी का मन हलका हो गया था शायद इतना हलका कि उस के बाद उन की सांसें हमेशा के लिए गईं.