किसानों के देश में दम तोड़ता अन्नदाता: खतरों से भरी है खेती

‘अमेजन प्राइम’ पर ‘क्लार्कसंस फार्म’ नाम से 2 सीजन की एक इंगलिश डोक्यूमैंट्री टाइप सीरीज है, जिस में बताया गया है कि दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले खेतीबारी के क्षेत्र में 20 गुना ज्यादा मौतें होती हैं. अकेला किसान अपने खेत में ट्रैक्टर के सहारे कोई बड़ी मशीन चला रहा होता है, जरा सा झटका लगने पर वह गिर जाता है और मशीन के नुकीले लोहे के दांतों में पिस कर खुद ही खेत में खाद बन जाता है.

दरअसल, यह सीरीज एक अमीर आदमी जेरमी क्लार्कसन पर बनी है, जो 59 साल की उम्र में अपनी 1,000 एकड़ जमीन पर खुद खेती करता है और खेतीबारी से जुड़े नियमकानून में बंध कर सीखता है कि खेती करना कोई खालाजी का घर नहीं है, जो मुंह उठाया और चल दिए.

जेरमी क्लार्कसन एक बेहद अमीर किसान है. उस के पास खेतीबारी से जुड़ा हर नया और नायाब उपकरण है. वह ‘लैंबोर्गिनी’ कंपनी का भीमकाय ट्रैक्टर चलाता है, जिस में 8,000 तो बटन लगे हुए हैं. इस के बावजूद अगर वह अपने मुंह से किसान तबके की मौत से जुड़ी हकीकत सब के सामने रखता है, तो समझ लीजिए कि खेतीबारी करने वाले उन किसानों की क्या हालत होती होगी, जो छोटी जोत के हैं और उन की मौत के शायद आंकड़े भी न बनते हों.

जहां तक खेतीबारी में होने वाले खतरों की बात है, तो किसानों को खेत में कुदरत की मार के साथसाथ कई सारे खतरनाक जीवजंतुओं का भी सामना करना पड़ता है. खेत में काम करते समय बिच्छू, सांप, मधुमक्खी के अलावा दूसरे तमाम जहरीले जीवजंतुओं के काटने का बहुत बड़ा खतरा रहता है. किसानों को बहुत भारी और बड़ी मशीनों के साथ काम करना पड़ता है, उन से भी चोट लगने और मौत होने का डर बना रहता है.

भारत जैसे देश में तो किसान और ज्यादा मुसीबत में दिखता है. राजस्थान की रेतीली जमीन का ही उदाहरण ले लें. वहां पानी की कमी है और गरमी इतनी कि खेत में किसान के पसीने के साथसाथ उस का लहू भी चूस ले. इन उलट हालात में अगर फसल लहलहाने भी लगे तो भरोसा नहीं कि वह टिड्डी दलों का ग्रास नहीं बन जाएगी. फिर किसान के घर में भुखमरी का जो तांडव मचता है, वह किसी से छिपा नहीं है.

भारत में किसान आबादी ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं है, लिहाजा वह खेतीकिसानी में इस्तेमाल होने वाले कैमिकलों की मात्रा के बारे में या तो जानती नहीं है या फिर उन्हें अनदेखा कर देती है, तो उस की जान का खतरा बढ़ता ही चला जाता है. थोड़ा पीछे साल 2017 में चलते हैं. महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में 4 महीने

के भीतर तकरीबन 35 किसानों की कीटनाशकों के जहर से मौत हो गई थी. उन में से ज्यादातर कपास और सोयाबीन के खेतों में काम कर रहे थे. उन्होंने खेतों में कीटनाशकों के छिड़काव के दौरान अनजाने में कीटनाशक निगल लिया था. देशभर के किसानों से जुड़े संगठन ‘द अलायंस फौर सस्टेनेबल ऐंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा)’ ने इस सिलसिले में एक जांच

रिपोर्ट जारी की थी और मौतों के लिए मोनोक्रोटोफोस,  इमिडैक्लोप्रिड, प्रोफैनोफोस, फिपरोनिल, औक्सीडैमेटोनमिथाइल, ऐसफिट और साइपरमेथरिन कीटनाशकों और इन के अलगअलग मिश्रणों को जिम्मेदार पाया था. प्रदेश सरकार ने कार्यवाही करते हुए यवतमाल, अकोला, अमरावती और पड़ोसी जिले बुलढाना और वाशिम में 5 कीटनाशकों ऐसफिट के मिश्रण, मोनोक्रोटोफोस, डायफैंथरीन, प्रोफैनोफोस और साइपरमेथरिन व फिपरोनिल और इमीडैक्लोरिड पर 60 दिनों के लिए बैन लगा दिया था.

कितने हैरत की बात है कि भारत में हर साल तकरीबन 10,000 कीटनाशक विषाक्तता के मामले सामने आते हैं. साल 2005 में सीएसई ने पंजाब के किसानों पर एक स्टडी की थी, जिस में किसानों के खून में अलगअलग कीटनाशकों के अंश पाए गए थे. सब से बड़ी समस्या यह है कि किसानों को कीटनाशकों के वैज्ञानिक मैनेजमैंट के लिए कोई जानकारी नहीं देता है. कीटनाशक बनाने वाले और सरकार इस के लिए कोई ठोस समाधान नहीं पेश करते हैं. किसान अपनी फसल को किसी भी तरह से बचाना चाहते हैं और खेत के मजदूर कीटनाशक छिड़काव के मौसम में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं. कम जगह में अच्छी उपज पाने और पैसा व समय बचाने के लिए ज्यादातर किसान कीटनाशकों के मिश्रण का अंधाधुंध इस्तेमाल करते हैं.

इस के अलावा भारत में कई फसलों पर ऐसे कीटनाशक भी इस्तेमाल किए जाते हैं, जो प्रमाणित नहीं हैं. यह समस्या काफी समय से बनी हुई है और किसानों के लिए जानलेवा साबित होती है. चलो, कैमिकल का गलत इस्तेमाल किसानों की लापरवाही या नासमझी की वजह से उन्हें मौत के मुंह में ले जाता है, पर अगर कोई किसान मौसम की मार से अपनी जिंदगी गंवा बैठे, तो इस की कौन जिम्मेदारी लेगा?

दिसंबर, 2022 की कड़कड़ाती ठंड में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले की ग्राम पंचायत देवाराकलां के गांव लालताखेड़ा मजरे का रहने वाला 52 साल का नन्हा लोधी रात को अपने खेत में फसल की रखवाली करने गया था, जहां अचानक उस की मौत हो गई.

नन्हा लोधी के परिवार वालों ने सर्दी लगने से मौत की वजह बताते हुए पुलिस और राजस्व विभाग के अफसरों को सूचना दी, जिस के बाद जिम्मेदार अफसर सर्दी से मौत होने के मामले को दबाने और मौत की वजह टीबी को बताने में जुट गए थे.

मौडर्न मशीनें भी किसानों पर कम कहर नहीं बरपाती हैं. हरियाणा में पानीपत जिले के खंड मतलौडा के गांव वेसर में खेत जोतते समय एक किसान रोटावेटर मशीन के नीचे आ गया, जिस से उस की मौत हो गई.

यह हादसा अक्तूबर, 2022 का है. गांव वालों ने बताया कि 40 साल का राजेश ट्रैक्टर और रोटावेटर से खेत जोत रहा था. इसी दौरान ट्रैक्टर के पीछे बंधे रोटावेटर से कुछ आवाज आने लगी. राजेश रोटावेटर चैक करने के लिए नीचे उतरा और रोटावेटर के पास बैठ कर आवाज चैक करने लगा.

इसी दौरान राजेश के शरीर का कोई कपड़ा रोटावेटर में फंस गया और देखतेदेखते रोटावेटर ने राजेश को अंदर खींच लिया, जिस से उस की मौत हो गई.

हादसे चाहे कुदरती हों या फिर इनसानी लापरवाही के चलते किसी किसान की जान जाए, उस के परिवार पर मुसीबतें बादल फटने जैसी बड़ी और खतरनाक होती हैं. पर अगर किसान खुदकुशी करने लगें तो फिर किस का माथा फोड़ा जाए? इस खुदकुशी की जड़ में कुदरती आपदाएं, बढ़ती कृषि लागत, पढ़ाईलिखाई की कमी, परंपराएं और संस्कृति होती है.

यह जो परंपरा और संस्कृति का बाजा है न, यह गरीब किसानों का सब से ज्यादा बैंड बजाता है. उसे खेतों से दूर करने के लिए पंडेपुजारियों द्वारा धर्मकर्म के दकियानूसी कामों में इस कदर उलझा दिया जाता है कि वह खेत का रास्ता ही भूल जाता है.

महिला किसान तो रीतिरिवाजों के जाल में इस तरह उलझा दी जाती हैं कि वे जो मेहनत खेत में कर सकती हैं उसे सिर पर पूजा का मटका ले कर मंदिर आनेजाने में ही बरबाद कर देती हैं.

फिर लदता है किसान पर कर्ज का बोझ. ऊपर से दूसरे क्षेत्रों में बढ़ती कमाई और भारत में कृषि सुधार बेहद धीमा होने के चलते वह खेत में दाने तो उगा लेता है, पर खुद दानेदाने को तरस जाता है. कोढ़ पर खाज यह कि खेतीबारी से जुड़े रोजगार के नए मौके नहीं बन पा रहे हैं और खेतीबारी से जुड़े जोखिमों में कमी नहीं आ पाई है.

बहरहाल, विदेश का 1,000 एकड़ जमीन का मालिक अमीर किसान जेरमी क्लार्कसन हो या भारत का 2 बीघे वाला कोई फटेहाल होरी, खेत में दोनों बराबर पसीना बहाते हैं. वे कुदरत के कहर से डरते हैं और उन की नजर अपने मुनाफे पर ही रहती है. थक कर दोनों खेत में ही जमीन पर बैठ कर अपना पेट भरते हैं, पर दोनों में फर्क उन सुविधाओं का है, जो क्लार्कसन के पास तो हैं, पर होरी ने उन्हें कभी देखा तक नहीं है. अगर यह फर्क मिट जाए, तो गरीब से गरीब किसान भी असली अन्नदाता कहलाने का हकदार हो जाएगा.

 जाति के जंजाल में किसान

भारत में किसान तबका जाति के जंजाल में इस तरह उलझा हुआ है या उलझाया गया है कि छोटी जाति वाले अपने खेत के सपने ही देख पाते हैं वरना तो वे दूसरे के खेतों में मजदूर बन कर ही जिंदगी गुजार देते हैं.

साल 2015-16 में की गई कृषि जनगणना की जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दलित (अनुसूचित जाति) इस बड़ी जमीन के सिर्फ 9 फीसदी से भी कम पर खेती का काम करते हैं. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, गांवदेहात के इलाकों में उन की आबादी का हिस्सा 18.5 फीसदी है. ज्यादातर दलित असल में भूमिहीन हैं.

अनुसूचित जनजाति के किसान भूमि के तकरीबन 11 फीसदी हिस्से पर खेती से जुड़ा काम करते हैं, जो गांवदेहात के इलाकों में उन की आबादी की हिस्सेदारी के बराबर है. लेकिन इन में से ज्यादातर भूमि मुश्किल भरे दूरदराज वाले इलाके में है. इस भूमि के लिए सिंचाई का कोई इंतजाम नहीं है और वहां सड़कें भी नहीं पहुंची हैं.

तकरीबन 80 फीसदी कृषि भूमि का संतुलन ‘अन्य’ जातियों द्वारा संचालित होता है जो तथाकथित ऊंची जातियों या ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ से हैं.

हरियाणा, पंजाब और बिहार जैसे राज्यों में दलितों के बीच भूमिहीनता विशेष रूप से गंभरी है, जहां 85 फीसदी से ज्यादा दलित परिवारों के पास उस भूखंड के अलावा कोई जमीन नहीं है, जिस पर वे रहते हैं. तमिलनाडु, गुजरात, केरल, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में 60 फीसदी से ज्यादा दलित परिवार भूमिहीन हैं.

सितंबर, 1954 में अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की साल 1953 की रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने सदन का ध्यान जमीन के सवाल पर खींचा था. सवाल सरकार द्वारा दलितों को जमीन देने का था.

तब डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने 3 सवाल किए थे. पहला, क्या दलितों को देने के लिए जमीन मुहैया है? दूसरा, क्या सरकार दलितों को जमीन देने के लिए भूस्वामियों से जमीन लेने की ताकत रखती है? तीसरा, अगर कोई दलितों को जमीन बेचना चाहता है, तो क्या सरकार उसे खरीदने के लिए पैसा देगी? उन्होंने कहा था कि यही 3 तरीके हैं, जिन से दलितों को जमीन मिल सकती है.

डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने यह भी कहा था कि या तो सरकार यह कानून बनाए कि कोई भी भूस्वामी एक निश्चित सीमा से ज्यादा जमीन अपने पास नहीं रख सकता और सीमा तय हो जाने के बाद, जितनी फालतू जमीन बचती है, उसे वह दलितों को मुहैया कराए. अगर सरकार यह नहीं कर सकती, तो वह दलितों को पैसा दे, ताकि अगर कोई जमीन बेचता है, तो वे उसे खरीद सकें.

डाक्टर भीमराव अंबेडकर के 3 सवाल आज भी मुंह बाए खड़े हैं, पर उन का तोड़ कोई नहीं निकाल पाया है. जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार इस देश पर काबिज हुई है, तब से तो यहां ‘रामचरितमानस’ की चौपाइयों को ही संविधान बना देने की होड़ मचने लगी है. दलितों को खेती के लिए जमीन नहीं, बल्कि ‘भगवान’ दिए जा रहे हैं, जो उन्हें अन्न का एक दाना नहीं दे पा रहे हैं.

 

खेती के कचरे को बनाएं कमाई का जरीया

चावल निकालने के बाद बची धान की भूसी पहले भड़भूजों की भट्ठी झोंकने में जलावन के काम आती थी, लेकिन अब मदुरै, तिरूनवैल्ली और नमक्कन आदि में उस से राइस ब्रान आयल यानी खाना पकाने में काम आने वाला कीमती तेल बन रहा है. इसी तरह गेहूं का भूसा व गन्ने का कचरा जानवरों को चारे में खिलाते थे, लेकिन अब उत्तराखंड के काशीपुर में उस से उम्दा जैव ईंधन 2जी एथनाल व लिग्निन बन रहा है.

फिर भी खेती के कचरे को बेकार का कूड़ा समझ कर ज्यादातर किसान उसे खेतों में जला देते हैं, लेकिन उसी कचरे से अब बायोमास गैसीफिकेशन के पावर प्लांट चल रहे हैं. उन में बिजली बन रही है, जो राजस्थान के जयपुर व कोटा में, पंजाब के नकोदर व मोरिंडा में और बिहार आदि राज्यों के हजारों गांवों में घरों को रोशन कर रही है. स्वीडन ऐसा मुल्क है, जो बिजली बनाने के लिए दूसरे मुल्कों से हरा कचरा खरीद रहा है.

तकनीकी करामात से आ रहे बदलाव के ये तो बस चंद नमूने हैं. खेती का जो कचरा गांवों में छप्पर डालने, जानवरों को खिलाने या कंपोस्ट खाद बनाने में काम आता था, अब उस से कागज बनाने वाली लुग्दी, बोर्ड व पैकिंग मैटीरियल जैसी बहुत सी चीजें बन रही हैं. साथ ही खेती का कचरा मशरूम की खेती में भी इस्तेमाल किया जाता है.

धान की भूसी से तेल व सिलकान, नारियल के रेशे से फाइबर गद्दे, नारियल के छिलके से पाउडर, बटन व बर्तन और चाय के कचरे से कैफीन बनाया जाता है यानी खेती के कचरे में बहुत सी गुंजाइश बाकी है. खेती के कचरे से डीजल व कोयले की जगह भट्ठी में जलने वाली ठोस ब्रिकेट्स यानी गुल्ली अपने देश में बखूबी बन व बिक रही है. खेती के कचरे की राख से मजबूत ईंटें व सीमेंट बनाया जा सकता है.

जानकारी की कमी से भारत में भले ही ज्यादातर किसान खेती के कचरे को ज्यादा अहमियत न देते हों, लेकिन अमीर मुल्कों में कचरे को बदल कर फिर से काम आने लायक बना दिया जाता है. इस काम में कच्चा माल मुफ्त या किफायती होने से लागत कम व फायदा ज्यादा होता है. नई तकनीकों ने खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल करने के कई रास्ते खोल दिए हैं. लिहाजा किसानों को भरपूर फायदा उठाना चाहिए.

1. कचरा है सोने की खान

अमीर मुल्कों में डब्बाबंद चीजें ज्यादा खाते हैं, लेकिन भारत में हर व्यक्ति औसतन 500 ग्राम फल, सब्जी आदि का हरा कचरा रोज कूड़े में फेंकता है. यानी कचरे का भरपूर कच्चा माल मौजूद है, जिस से खाद, गैस व बिजली बनाई जा सकती है. खेती के कचरे को रीसाइकिल करने का काम नामुमकिन या मुश्किल नहीं है.

खेती के कचरे का सही निबटान करना बेशक एक बड़ी समस्या है. लिहाजा इस का जल्द, कारगर व किफायती हल खोजना बेहद जरूरी है. खेती के कचरे का रखरखाव व इस्तेमाल सही ढंग से न होने से भी किसानों की आमदनी कम है.

किसानों का नजरिया अगर खोजी, नया व कारोबारी हो जाए, तो खेती का कचरा सोने की खान है. देश के 15 राज्यों में बायोमास से 4831 मेगावाट बिजली बनाई जा रही है. गन्ने की खोई से 5000 मेगावाट व खेती के कचरे से 17000 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है. उसे नेशनल ग्रिड को बेच कर किसान करोड़ों रुपए कमा सकते हैं. 10 क्विंटल कचरे से 300 लीटर एथनाल बन रहा है. लिहाजा खेती के कचरे को जलाने की जगह उस से पैसा कमाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए किसानों को उद्यमी भी बनना होगा.

फसलों की कटाई के बाद तने, डंठल, ठूंठ, छिलके व पत्ती आदि के रूप में बहुत सा कचरा बच जाता है. खेती में तरक्की से पैदावार बढ़ी है. उसी हिसाब से कचरा भी बढ़ रहा है. खेती के तौरतरीके भी बदले हैं. उस से भी खेती के कचरे में इजाफा हो रहा है. मसलन गेहूं, धान वगैरह की कटाई अब कंबाइन मशीनों से ज्यादा होने लगी है. लिहाजा फसलों के बकाया हिस्से खेतों में ही खड़े रह जाते हैं. उन्हें ढोना व निबटाना बहुत टेढ़ी खीर है.

गेहूं का भूसा, धान की पुआल, गन्ने की पत्तियां, मक्के की गिल्ली और दलहन, तिलहन व कपास आदि रेशा फसलों का करीब 5000 टन कचरा हर साल बचता है. इस में तकरीबन चौथाई हिस्सा जानवरों को चारा खिलाने, खाद बनाने व छप्पर आदि डालने में काम आ जाता है. बाकी बचे 3 चौथाई कचरे को ज्यादातर किसान बेकार मान कर खेतों में जला कर फारिग हो जाते हैं, लेकिन इस से सेहत व माहौल से जुड़े कई मसले बढ़ जाते हैं.

जला कर कचरा निबटाने का तरीका सदियों पुराना व बहुत नुकसानदायक है. इस जलावन से माहौल बिगड़ता है. बीते नवंबर में दिल्ली व आसपास धुंध के घने बादल छाने से सांस लेना दूभर हो गया था. आगे यह समस्या और बढ़ सकती है. लिहाजा आबोहवा को बचाने व खेती से ज्यादा कमाने के लिए कचरे का बेहतर इस्तेमाल करना लाजिम है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बागबानी महकमे ने ऐसे कई तरीके निकाले हैं, जिन से कचरा कम निकलता है.

2. चाहिए नया नजरिया

उद्योगधंधों में छीजन रोक कर लागत घटाने व फायदा बढ़ाने के लिए वेस्ट मैनेजमेंट यानी कचरा प्रबंधन, रीसाइकलिंग यानी दोबारा इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है. कृषि अपशिष्ट प्रबंधन यानी खेती के कचरे का सही इंतजाम करना भी जरूरी है. कचरे को फायदेमंद बनाने के बारे में किसानों को भी जागरूक होना चाहिए. इंतजाम के तहत हर छोटी से छोटी छीजन को रोकने व उसे फायदे में तब्दील करने पर जोर दिया जाता है.

अपने देश में ज्यादातर किसान गरीब, कम पढ़े व पुरानी लीक पर चलने के आदी हैं. वे पोस्ट हार्वेस्ट टैक्नोलोजी यानी कटाई के बाद की तकनीकों की जगह आज भी सदियों पुराने घिसेपिटे तरीके ही अपनाते रहते हैं. इसी कारण वे अपनी उपज की कीमत नहीं बढ़ा पाते, वे उपज की प्रोसेसिंग व खेती के कचरे का सही इंतजाम व इस्तेमाल भी नहीं कर पाते.

ज्यादातर किसानों में जागरूकता की कमी है. उन्हें खेती के कचरे के बेहतर इस्तेमाल की तनकीकी जानकारी नहीं है. ऊपर से सरकारी मुलाजिमों का निकम्मापन, भ्रष्टाचार व ट्रेनिंग की कमी रास्ते के पत्थर हैं. लिहाजा खेती का कचरा फुजूल में बरबाद हो जाता है. इस से किसानों को माली नुकसान होता है, गंदगी बढ़ती है व आबोहवा खराब होती है.

प्रदूषण बढ़ने की वजह से सरकार ने खेतों में कचरा जलाने पर पाबंदी लगा दी है. उत्तर भारत में हालात ज्यादा खराब हैं. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व उत्तर प्रदेश के खेतों में कचरा जलाने वाले किसानों से 15000 रुपए तक जुर्माना वसूलने व खेती का कचरा निबटाने के लिए मशीनें मुहैया कराने का आदेश दिया है. अब सरकार को ऐसी मशीनों पर दी जाने वाली छूट बढ़ानी चाहिए.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने खेती का कचरा बचाने के लिए राष्ट्रीय पुआल नीति बनाई थी. इस के तहत केंद्र के वन एवं पर्यावरण, ग्रामीण विकास व खेती के महकमे राज्यों को माली इमदाद देंगे, ताकि खेती के कचरे का रखरखाव आसान करने की गरज से उसे ठोस पिंडों में बदला जा सके. लेकिन सरकारी स्कीमें कागजों में उलझी रहती हैं. खेती के कचरे से उम्दा, असरदार व किफायती खाद बनाई जा सकती है.

अकसर किसानों को दूसरी फसलें बोने की जल्दी रहती है, लिहाजा वे कचरे को खेतों में सड़ा कर उस की खाद बनाने के मुकाबले उसे जलाने को सस्ता व आसान काम मानते हैं. मेरठ के किसान महेंद्र की दलील है कि फसलों की जड़ें खेत में जलाने से कीड़ेमकोड़े व उन के अंडे भी जल कर खत्म हो जाते हैं, लिहाजा अगली फसल पर हमला नहीं होता.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के वैज्ञानिक खेतों में कचरा जलाना नुकसानदायक मानते हैं. चूंकि इस से मिट्टी को फायदा पहुंचाने वाले जीव खत्म होते हैं, लिहाजा किसान खेती का कचरा खेत में दबा कर सड़ा दें व बाद में जुताई कर दें तो वह जीवांश खाद में बदल जाता है. रोटावेटर मशीन कचरे को काट कर मिट्टी में मिला देती है.

आलू व मूंगफली की जड़ों, मूंग व उड़द की डंठलों और केले के कचरे आदि से बहुत बढि़या कंपोस्ट खाद बनती है. खेती के कचरे को किसी गड्ढे में डाल कर उस में थोड़ा पानी व केंचुए डालने से वर्मी कंपोस्ट बन जाती है, लेकिन ज्यादातर किसान खेती के कचरे से खाद बनाने को झंझट व अंगरेजी खाद डालने को आसान मानते हैं.

3. ऐसा करें किसान

तकनीक की बदौलत तमाम मुल्कों में अब कचरे का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. इस में अरबों रुपए की सालाना खरीदफरोख्त होती है. लिहाजा बहुत से मुल्कों में कचरा प्रबंधन, उस के दोबारा इस्तेमाल व कचरे से बने उत्पादों पर खास ध्यान दिया जा रहा है. अपने देश में भी नई तकनीकें, सरकारी सहूलियतें व मशीनें मौजूद हैं. लिहाजा किसान गांव में ही कचरे की कीमत बढ़ाने वाली इकाइयां लगा कर खेती से ज्यादा धन कमा सकते हैं.

खेती के कचरे से उत्पाद बनाने के लिए किसान पहले माहिरों व जानकारों से मिलें, कचरा प्रबंधन व उसे रीसाइकिल करने की पूरी जानकारी हासिल करें, पूरी तरह से इस काम को सीखें और तब पहले छोटे पैमाने पर शुरुआत करें. तजरबे के साथसाथ वे इस काम को और भी आगे बढ़ाते जाएं.

कृषि अपशिष्ट प्रबंधन आदि के बारे में खेती के रिसर्च स्टेशनों, कृषि विज्ञान केंद्रों व जिलों की नवीकरणीय उर्जा एजेंसियों से जानकारी मिल सकती है. पंजाब के कपूरथला में सरदार स्वर्ण सिंह के नाम पर चल रहे जैव ऊर्जा के राष्ट्रीय संस्थान में नई तकनीकों के बारे में बढ़ावा व ट्रेनिंग देने आदि का काम होता है.

4. पूंजी इस तरह जुटाएं

किसान अकेले या आपस में मिल कर पूंजी का इंतजाम कर सकते हैं. सहकारिता की तर्ज पर इफको, कृभको, कैंपको व अमूल आदि की तरह से ऐसे कारखाने लगा सकते हैं, जिन में खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके. खाने लायक व चारा उपज के अलावा होने वाली पैदावार व खरपतवारों से जैव ऊर्जा व ईंधन बनाने वाली बायोमास यूनिटों को सरकार बढ़ावा दे रही है. लिहाजा सरकारी स्कीमों का फायदा उठाया जा सकता है.

केंद्र सरकार का नवीकरण ऊर्जा महकमा भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास संस्था, इरेडा, लोधी रोड, नई दिल्ली फोन 911124682214 के जरीए अपनी स्कीमों के तहत पूंजी के लिए माली इमदाद 15 करोड़ रुपए तक कर्ज व करों की छूट जैसी कई भारीभरकम सहूलियतें देता है. जरूरत आगे बढ़ कर पहल करने व फायदा उठाने की है.

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