किसी ने बड़ी जोर से दरवाजा खटखटाया और पिताजी को पुकारा. हम सब की नींद खुल गई. पिताजी हड़बड़ा कर उठ बैठे. फौरन बत्ती जलाई. घड़ी में सुबह के पौने 4 बजे थे. इस समय कौन होगा? कोई चोर या फिर…?
पिताजी ने दरवाजे के पास जा कर पूछा, ‘‘कौन है?’’
‘‘भाई साहब, मैं हूं मंजीत सिंह,’’ बाहर से आवाज आई.
पिताजी को जब पूरी तरह से तसल्ली हो गई, तब उन्होंने दरवाजा खोला.
मंजीत सिंह ने अंदर आते ही कहा, ‘‘माताजी चल बसीं…’’
मां कल रात ही तो पड़ोस वाली दादी की बात कर रही थीं और बता रही थीं कि उन की हालत अच्छी नहीं है, पल दो पल की मेहमान हैं.
हम सब भी अपनेअपने बिस्तर से उठ कर बरामदे में आ गए. पिताजी के पूछने पर मंजीत सिंह को रोना आ गया, ‘‘भाई साहब, रात 12 बजे से ही मां की हालत बहुत खराब थी. पेट में दर्द था. शायद थोड़ी सूजन भी थी.’’
‘‘हां, उन्हें बहुत कष्ट था. चलो, अच्छा ही हुआ इस दर्द से छुटकारा मिल गया,’’ पिताजी बोले.
मां ने उन की बात में जोड़ते हुए कहा, ‘‘कल तो काफी तकलीफ थी, पर लगता नहीं था कि इतनी जल्दी…’’
पिताजी ने मंजीत चाचा को हिम्मत बंधाई. उन से किसी भी चीज की जरूरत के बारे में पूछा और बाहर तक छोड़ने चले गए. मां ने हाथमुंह धोया और मुझ से सफेद दुपट्टा निकालने को कहा.
मैं चाय बनाने रसोई में चली गई और खयालों में खो गई कि मंजीत चाचा की मां, प्रीतम चाची की सास और हरजीत, रानी और अमरजीत की दादी, कहने को तो छोटे बेटे चरणजीत की भी मां, छोटी बहू बलवंत की भी सास और बाबी व टिंकू की भी दादी थीं. लेकिन शायद किसी के मन में कोई शोक न था. किसी के मन में उन के जाने की पीड़ा न थी. आंखों से जो आंसू बह रहे थे, वे तो किसी भी अजनबी, अनजाने, अनचाहे इनसान के लिए निकल सकते हैं.
ये सब सगेसंबंधी तो शायद दादी की मौत का ही इंतजार कर रहे थे. शायद ही क्यों, यह तो पूरी सच बात है. जब से रानी की दादी ठीक से चलनेफिरने लायक नहीं रहीं, तब से ही सब बुढि़या के मरने का इंतजार कर रहे थे.
इस दुनिया में कहने को तो दादी का भरापूरा परिवार था, पर अपना दुखदर्द बांटने वाला, देखभाल करने वाला, हमेशा साथ बने रहने वाला एक ही आदमी था, वे थे दादी के पति. हां, दादाजी. बस, एक वे ही थे, जो दादी का पूरी तरह ध्यान रखते थे. दादी जो कहतीं, वे हाजिर करते.
कई बार मुंह का स्वाद बदलने को दादी खट्टीमिट्ठी गोलियां खा लेतीं, तब बड़े तो क्या बच्चे तक उन्हें चिढ़ाते, ‘अरे बुढि़या को तो देखो, क्या चटोरी हो कर गोलियां खा रही है. क्या जवानी में खानेपीने से मन नहीं भरा, जो बुढ़ापे में गोलियां चूस रही है?’
वे सब सुनती रह जातीं. बहुएं बूढ़े को भी नहीं छोड़ती थीं, ‘बड़ा प्यार हो रहा है, जो मांगती हैं वही ला कर देता है. इस बुढ़ापे में भी शर्म नहीं आती बुढि़या को गोलियां खिलाते हुए.’
जब दादाजी काम करते थे और पैसे ला कर देते थे, तो वे सभी को प्यारे लगते थे. तब तो दादी की भी पूछ थी. लेकिन जब से आंखों की रोशनी कम हो गई थी, काम कम ही मिलता था. धीरेधीरे सब के मन में बदलाव आ गया था. पहले बिना मांगे ही सुबह की चाय मिल जाती थी और अब धूप निकल आने पर भी, दादी के आवाज लगाने पर भी दो घूंट चाय नहीं मिलती थी.
कितनी अजीब बात है यह. क्या आदमी का रिश्ता पैसों तक ही सिमट गया है? क्या आदमी की अपनी कोई कीमत नहीं होती? क्या उस का खुद का कोई वजूद नहीं है या जो वजूद की कीमत है वह बस पैसे की ही है?
अगर यह हाड़मांस का पुतला निकम्मा हो जाता है, तो क्यों सबकुछ उस से दूर चला जाता है? उस के अपने भी क्यों पराए हो जाते हैं? यह बात समझ में नहीं आती.
दादी के साथ भी ऐसा ही हुआ था. नकारा होते ही वे अपने ही बेटों को भार लगने लगी थीं.
जो मकान दादीजी का अपना था, उन्होंने अपनी कमाई से बनवाया था, उस घर में ही अब दादादादी के लिए जगह नहीं थी. वैसे तो वे दोनों बड़े बेटे मंजीत के पास ही रहते थे, लेकिन कभीकभी उन्हें रखने के लिए बड़ी बहू और छोटी बहू में खूब जम कर लड़ाई भी हो जाती थी.
दादी कहलाने को तो घर की मालकिन थीं, लेकिन दो वक्त भी चैन से भरपेट भोजन नहीं मिलता था. एक चपाती, छोटी सी कटोरी में दाल या सब्जी, बस. और मांगने पर चपातियों
की जगह गालियां परोस दी जातीं, ‘कुछ कामधाम है नहीं, बैठीबैठी रोटियां तोड़ती रहती है, बुढि़या मरती भी नहीं. पता नहीं, कब पीछा छूटेगा.’
दादी शायद उन की यह नादानी समझ कर माफ करती रहती थीं. यह सब झेलते हुए भी दादी का मन अपने परिवार में ही बसा हुआ था. बाहर का कोई आ कर घर की किसी चीज को छू तो जाए फिर तो दादी की डांट सुनने ही लायक होती थी. अमरूद के मौसम में जब बच्चे पेड़ पर चढ़ कर अमरूद तोड़ते, तो दादी अपनी बैसाखी बजाबजा कर उन्हें भगाती थीं.
कितना अपनापन था दादी की हर हरकत में. पर, परिवार के सभी सदस्य इस अपनेपन की कोई कीमत नहीं समझते थे. उन्हें तो दादादादी मुसीबत लगते थे. हर समय दुत्कार ही दुत्कार और दुत्कार…
मुझे याद है, जब रानी के दादाजी गांव में अपनी जमीन बेच कर आए थे, तब उन के दिन फिर गए थे. उन की खातिरदारी बढ़ गई थी. समय पर चाय, खाना और प्यार से बोलना. दोनों बहुओं में होड़ लगी थी, दादाजी का मन जीत कर पैसे हड़पने की. लेकिन प्रीतम चाची जीत गई थीं.
मेरी मां ने बताया था कि सारे रुपए रानी के खाते में जमा करा दिए गए थे, यह कह कर कि बूढ़ेबुढि़या के आड़े वक्त में काम आएंगे. रुपए का तमाशा खत्म हुआ कि फिर से उन के वही बुरे दिन लौट आए थे.
मेरी मां उन के घर अफसोस जता कर आई तो कहने लगीं, ‘‘सब ने रोरो कर आंखें सुजा ली हैं. मन में तो उस समय आया कि एकएक से पूछूं, जीतेजी दादी की सेवा न हुई और अब ये आंसू किसलिए…’’
श्मशान ले जाने का समय आया, तो समाज की चिंता ने दोनों परिवारों को आ घेरा. अर्थी पर से पैसे फेंकने के लिए पैसों का इंतजाम किया गया. लोग क्या कहेंगे? 2-2 बेटे हैं, पोते भी हैं, काम अच्छा नहीं किया, तो समाज में नाक कट जाएगी.
वाह रे इनसान, जिंदा आदमी के लिए दो दाने अन्न के भी नहीं, मर गए तो पैसे फेंकते हैं. कितना घिनौना रिवाज है हमारे समाज, हमारे लोगों का. जैसेतैसे अंतिम संस्कार की रस्म पूरी हुई, सब तरफ से पूरी कोशिश की गई थी कि कोई कल को यह न कह दे कि 2-2 बेटों के रहते कुछ कमी रह गई थी.
जिस दादी की सेवा करने के लिए उन के पास जरा सा समय न होता था, मरने के बाद उस के लिए अफसोस जताने आए लोगों के साथ पूरा दिन बैठना पड़ता था.
लोगों ने आज को आधुनिक युग, नाम गलत दे दिया है. यह तो पत्थर युग है, पत्थर के दिल, जिन पर किसी के दर्द, आह का कोई असर नहीं होता.
13वें दिन अंतिम क्रिया की गई. पूरी बिरादरी और जानपहचान के लोगों को खाना खिलाया गया. दादी को भूखा मार दिया, लेकिन बिरादरी में नाक रखने के लिए खाना खिलाया.
क्या खाना था… मटरपनीर, चना, उड़द की दाल और चावल. बच्चों के लिए तो कोई त्योहार ही हो गया था. बड़े भी भूल चुके थे कि किसी की मृत्यु पर यह भोज दिया जा रहा है. किसी को याद तक न रहा था कि दादी ने हमारे बीच में अंतिम सांस छोड़ी थी. उन की आंखें पानी से भरी थीं, जिन में शायद अभी तक दादी नहीं रहीं.
पर दादाजी चुपचाप उस कमरे में चारपाई के साथ लगे बैठे थे, जहां दादी की धुंधली सी तसवीर बसी हुई थी, जिसे वे लोगों की उस भीड़ में खोज रहे थे, जो दादी की अंतिम क्रिया में शामिल हो कर मुंह का स्वाद बढ़ा रहे थे.