दादी : एक परिवार ऐसा भी

किसी ने बड़ी जोर से दरवाजा खटखटाया और पिताजी को पुकारा. हम सब की नींद खुल गई. पिताजी हड़बड़ा कर उठ बैठे. फौरन बत्ती जलाई. घड़ी में सुबह के पौने 4 बजे थे. इस समय कौन होगा? कोई चोर या फिर…?

पिताजी ने दरवाजे के पास जा कर पूछा, ‘‘कौन है?’’

‘‘भाई साहब, मैं हूं मंजीत सिंह,’’ बाहर से आवाज आई.

पिताजी को जब पूरी तरह से तसल्ली हो गई, तब उन्होंने दरवाजा खोला.

मंजीत सिंह ने अंदर आते ही कहा, ‘‘माताजी चल बसीं…’’

मां कल रात ही तो पड़ोस वाली दादी की बात कर रही थीं और बता रही थीं कि उन की हालत अच्छी नहीं है, पल दो पल की मेहमान हैं.

हम सब भी अपनेअपने बिस्तर से उठ कर बरामदे में आ गए. पिताजी के पूछने पर मंजीत सिंह को रोना आ गया, ‘‘भाई साहब, रात 12 बजे से ही मां की हालत बहुत खराब थी. पेट में दर्द था. शायद थोड़ी सूजन भी थी.’’

‘‘हां, उन्हें बहुत कष्ट था. चलो, अच्छा ही हुआ इस दर्द से छुटकारा मिल गया,’’ पिताजी बोले.

मां ने उन की बात में जोड़ते हुए कहा, ‘‘कल तो काफी तकलीफ थी, पर लगता नहीं था कि इतनी जल्दी…’’

पिताजी ने मंजीत चाचा को हिम्मत बंधाई. उन से किसी भी चीज की जरूरत के बारे में पूछा और बाहर तक छोड़ने चले गए. मां ने हाथमुंह धोया और मुझ से सफेद दुपट्टा निकालने को कहा.

मैं चाय बनाने रसोई में चली गई और खयालों में खो गई कि मंजीत चाचा की मां, प्रीतम चाची की सास और हरजीत, रानी और अमरजीत की दादी, कहने को तो छोटे बेटे चरणजीत की भी मां, छोटी बहू बलवंत की भी सास और बाबी व टिंकू की भी दादी थीं. लेकिन शायद किसी के मन में कोई शोक न था. किसी के मन में उन के जाने की पीड़ा न थी. आंखों से जो आंसू बह रहे थे, वे तो किसी भी अजनबी, अनजाने, अनचाहे इनसान के लिए निकल सकते हैं.

ये सब सगेसंबंधी तो शायद दादी की मौत का ही इंतजार कर रहे थे. शायद ही क्यों, यह तो पूरी सच बात है. जब से रानी की दादी ठीक से चलनेफिरने लायक नहीं रहीं, तब से ही सब बुढि़या के मरने का इंतजार कर रहे थे.

इस दुनिया में कहने को तो दादी का भरापूरा परिवार था, पर अपना दुखदर्द बांटने वाला, देखभाल करने वाला, हमेशा साथ बने रहने वाला एक ही आदमी था, वे थे दादी के पति. हां, दादाजी. बस, एक वे ही थे, जो दादी का पूरी तरह ध्यान रखते थे. दादी जो कहतीं, वे हाजिर करते.

कई बार मुंह का स्वाद बदलने को दादी खट्टीमिट्ठी गोलियां खा लेतीं, तब बड़े तो क्या बच्चे तक उन्हें चिढ़ाते, ‘अरे बुढि़या को तो देखो, क्या चटोरी हो कर गोलियां खा रही है. क्या जवानी में खानेपीने से मन नहीं भरा, जो बुढ़ापे में गोलियां चूस रही है?’

वे सब सुनती रह जातीं. बहुएं बूढ़े को भी नहीं छोड़ती थीं, ‘बड़ा प्यार हो रहा है, जो मांगती हैं वही ला कर देता है. इस बुढ़ापे में भी शर्म नहीं आती बुढि़या को गोलियां खिलाते हुए.’

जब दादाजी काम करते थे और पैसे ला कर देते थे, तो वे सभी को प्यारे लगते थे. तब तो दादी की भी पूछ थी. लेकिन जब से आंखों की रोशनी कम हो गई थी, काम कम ही मिलता था. धीरेधीरे सब के मन में बदलाव आ गया था. पहले बिना मांगे ही सुबह की चाय मिल जाती थी और अब धूप निकल आने पर भी, दादी के आवाज लगाने पर भी दो घूंट चाय नहीं मिलती थी.

कितनी अजीब बात है यह. क्या आदमी का रिश्ता पैसों तक ही सिमट गया है? क्या आदमी की अपनी कोई कीमत नहीं होती? क्या उस का खुद का कोई वजूद नहीं है या जो वजूद की कीमत है वह बस पैसे की ही है?

अगर यह हाड़मांस का पुतला निकम्मा हो जाता है, तो क्यों सबकुछ उस से दूर चला जाता है? उस के अपने भी क्यों पराए हो जाते हैं? यह बात समझ में नहीं आती.

दादी के साथ भी ऐसा ही हुआ था. नकारा होते ही वे अपने ही बेटों को भार लगने लगी थीं.

जो मकान दादीजी का अपना था, उन्होंने अपनी कमाई से बनवाया था, उस घर में ही अब दादादादी के लिए जगह नहीं थी. वैसे तो वे दोनों बड़े बेटे मंजीत के पास ही रहते थे, लेकिन कभीकभी उन्हें रखने के लिए बड़ी बहू और छोटी बहू में खूब जम कर लड़ाई भी हो जाती थी.

दादी कहलाने को तो घर की मालकिन थीं, लेकिन दो वक्त भी चैन से भरपेट भोजन नहीं मिलता था. एक चपाती, छोटी सी कटोरी में दाल या सब्जी, बस. और मांगने पर चपातियों

की जगह गालियां परोस दी जातीं, ‘कुछ कामधाम है नहीं, बैठीबैठी रोटियां तोड़ती रहती है, बुढि़या मरती भी नहीं. पता नहीं, कब पीछा छूटेगा.’

दादी शायद उन की यह नादानी समझ कर माफ करती रहती थीं. यह सब झेलते हुए भी दादी का मन अपने परिवार में ही बसा हुआ था. बाहर का कोई आ कर घर की किसी चीज को छू तो जाए फिर तो दादी की डांट सुनने ही लायक होती थी. अमरूद के मौसम में जब बच्चे पेड़ पर चढ़ कर अमरूद तोड़ते, तो दादी अपनी बैसाखी बजाबजा कर उन्हें भगाती थीं.

कितना अपनापन था दादी की हर हरकत में. पर, परिवार के सभी सदस्य इस अपनेपन की कोई कीमत नहीं समझते थे. उन्हें तो दादादादी मुसीबत लगते थे. हर समय दुत्कार ही दुत्कार और दुत्कार…

मुझे याद है, जब रानी के दादाजी गांव में अपनी जमीन बेच कर आए थे, तब उन के दिन फिर गए थे. उन की खातिरदारी बढ़ गई थी. समय पर चाय, खाना और प्यार से बोलना. दोनों बहुओं में होड़ लगी थी, दादाजी का मन जीत कर पैसे हड़पने की. लेकिन प्रीतम चाची जीत गई थीं.

मेरी मां ने बताया था कि सारे रुपए रानी के खाते में जमा करा दिए गए थे, यह कह कर कि बूढ़ेबुढि़या के आड़े वक्त में काम आएंगे. रुपए का तमाशा खत्म हुआ कि फिर से उन के वही बुरे दिन लौट आए थे.

मेरी मां उन के घर अफसोस जता कर आई तो कहने लगीं, ‘‘सब ने रोरो कर आंखें सुजा ली हैं. मन में तो उस समय आया कि एकएक से पूछूं, जीतेजी दादी की सेवा न हुई और अब ये आंसू किसलिए…’’

श्मशान ले जाने का समय आया, तो समाज की चिंता ने दोनों परिवारों को आ घेरा. अर्थी पर से पैसे फेंकने के लिए पैसों का इंतजाम किया गया. लोग क्या कहेंगे? 2-2 बेटे हैं, पोते भी हैं, काम अच्छा नहीं किया, तो समाज में नाक कट जाएगी.

वाह रे इनसान, जिंदा आदमी के लिए दो दाने अन्न के भी नहीं, मर गए तो पैसे फेंकते हैं. कितना घिनौना रिवाज है हमारे समाज, हमारे लोगों का. जैसेतैसे अंतिम संस्कार की रस्म पूरी हुई, सब तरफ से पूरी कोशिश की गई थी कि कोई कल को यह न कह दे कि 2-2 बेटों के रहते कुछ कमी रह गई थी.

जिस दादी की सेवा करने के लिए उन के पास जरा सा समय न होता था, मरने के बाद उस के लिए अफसोस जताने आए लोगों के साथ पूरा दिन बैठना पड़ता था.

लोगों ने आज को आधुनिक युग, नाम गलत दे दिया है. यह तो पत्थर युग है, पत्थर के दिल, जिन पर किसी के दर्द, आह का कोई असर नहीं होता.

13वें दिन अंतिम क्रिया की गई. पूरी बिरादरी और जानपहचान के लोगों को खाना खिलाया गया. दादी को भूखा मार दिया, लेकिन बिरादरी में नाक रखने के लिए खाना खिलाया.

क्या खाना था… मटरपनीर, चना, उड़द की दाल और चावल. बच्चों के लिए तो कोई त्योहार ही हो गया था. बड़े भी भूल चुके थे कि किसी की मृत्यु पर यह भोज दिया जा रहा है. किसी को याद तक न रहा था कि दादी ने हमारे बीच में अंतिम सांस छोड़ी थी. उन की आंखें पानी से भरी थीं, जिन में शायद अभी तक दादी नहीं रहीं.

पर दादाजी चुपचाप उस कमरे में चारपाई के साथ लगे बैठे थे, जहां दादी की धुंधली सी तसवीर बसी हुई थी, जिसे वे लोगों की उस भीड़ में खोज रहे थे, जो दादी की अंतिम क्रिया में शामिल हो कर मुंह का स्वाद बढ़ा रहे थे.

आलू वड़ा : मामी से उलझे दीपक के नैन

‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, मझले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया. मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.

‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने झट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था.

कोट का अस्तर : रफीक बाबू को किस घटना ने तोड़ दिया था

सर्दी इस कदर ज्यादा थी कि खून भी जमा दे. दफ्तर पहुंच कर रफीक बाबू की रगों में जैसे खून का दौरा शुरू हुआ.

दफ्तर में लोगों की तादाद में इजाफा होने लगा था और शुरू हुई फाइलों की उठापटक, अफसरान की घंटियां.

रफीक बाबू की दाहिनी ओर निरंजन शर्मा बैठते थे, तो बाईं ओर आमोद प्रकाश. वे दोनों उन पर किसी दुश्मन की तरह काबिज रहते थे. उन के तरकश के तीर रफीक के मन को बींध कर रख देते थे.

दफ्तर में कहने को तो और भी बहुत लोग थे, पर उन दोनों का एक ही टारगेट था, रफीक बाबू.

आज फिर निरंजन शर्मा ने ताना कसा, ‘‘यार रफीक, मेरी राय में तुम्हें एक नया कोट खरीद लेना चाहिए. इस बार की सर्दी कम से कम यह कोट तो नहीं   झेल पाएगा.’’

‘‘आप की मानें तब न. जनाब तो कानों में रुई ठूंसे रखते हैं. पता नहीं, इस कोट की जान कहां बाकी है?’’ आमोद प्रकाश ने चुटकी ली.

‘‘भाई, जान नहीं होती, तो ओढे़ रहते?’’ निरंजन शर्मा ने कहा.

‘‘शर्माजी, सच कहूं तो इन की हालत उस बंदरिया जैसी है, जो मरे बच्चे को जिंदा सम  झ कर अपनी छाती से चिपकाए फिरती है. इसे कहते हैं प्यारमुहब्बत,’’ कहते हुए आमोद प्रकाश ने हलकी सी मुसकान छोड़ी, तो रफीक बाबू जलभुन कर खाक हो गए, लेकिन वे सिर   झुकाए खयालों की दुनिया में मशगूल रहे.

उन्होंने सोचा, ‘यह कमबख्त सर्दी कब खत्म होगी और कब इन बदमाशों का ध्यान इस कोट से हटेगा. आज कोट बनवा लूं, तो पेट काटने वाली बात हो जाएगी.

‘इस तनख्वाह से बेटी के निकाह में लिए कर्ज की किस्त चुकता करूं कि बीवी समेत 3-3 बच्चों के मुंह में निवाला डालूं. जितनी चादर होगी, उतने ही तो पैर पसरेंगे.

‘इन का क्या है. बापदादा का कमाया पोता ही तो बरतेगा. ऊपरी कमाई है, सो अलग. अपने गले में ईमानदारी का तमगा जो लगा है, कोढ़ में खाज की तरह. जब समय आएगा, तब कोट भी बन जाएगा.’

इसी उधेड़बुन में शाम ढलने लगी. ऐसा नहीं है कि रफीक बाबू की हैसियत कोट सिलवाने की न थी, पर कुछ पैसे वे मसजिद में चढ़ा कर आते, तो कुछ खैनीजरदा खाने में खर्च कर देते थे. कमजोरी की वजह से डाक्टर का खर्च भी था. जब कोट बनवाने की बात हो, तो दूसरे खर्च काटने का मन न करता और धर्म व जरदे को वे छोड़ नहीं पा रहे थे.

आज महीने का पहला दिन था. तनख्वाह बैंक में चली गई थी. बेगम ने सुबह ही लंबी फेहरिस्त हाथ में थमा दी थी कि यह ले आना, वह ले आना. अब 1-2 दिन हिसाबकिताब में कटेंगे, बाकी बचे दिनों की गिनती करने में.

इधर दीवार घड़ी 5 बार ठुनकी, तब जा कर रफीक बाबू फ्लैशबैक से लौटे.

रफीक बाबू हड़बड़ा कर उठे और सीधे एटीएम की ओर चल दिए. वहां से नोट निकाले. कड़क नोटों को उंगलियों के बीच मसल कर उन्हें पलभर को गरमी का एहसास हुआ.

रफीक बाबू बाहर निकले थे कि तभी उन का निरंजन शर्मा से सामना हो गया.

रफीक बाबू उन की अनदेखी कर दोबारा एटीएम में घुस गए. लेकिन भला निरंजन शर्मा ऐसा मौका क्यों चूकते. उन्होंने धीरे से जुमला उछाल दिया, ‘‘वाह रे कोट, क्या किस्मत पाई है. सर्दी में भी गरमी का एहसास.’’

रफीक बाबू उन से उल  झना नहीं चाहते थे. बस, खून के घूंट पी कर रह गए. आज जल्दी घर पहुंचना चाहते थे, लेकिन निकलतेनिकलते शाम के 6 बज गए.

बसस्टैंड पर पहुंच कर रफीक बाबू ने सोचा, ‘चलो, एक पैकेट सिगरेट ही खरीद लें.’ उन के हाथ की उंगलियां जेबें टटोल रही थीं, मगर रुपयों से टकराव नहीं हुआ. मारे घबराहट के उन्हें सर्दी के बावजूद पसीना छलक आया.

पान वाला रफीक बाबू की उड़ती रंगत भांप गया. सो, मुसकरा कर दूसरे ग्राहकों को निबटाने लगा.

रफीक बाबू के हाथों के तोते उड़ गए थे और जेब से पगार. हिम्मत कर के वे तेजी से उस एटीएम की ओर लपके, जहां से रुपए निकाले थे.

एटीएम का कोनाकोना देख मारा, पर कहीं कुछ न मिला. थकहार कर वे बैरंग लौट आए. अब किस से कहें और किस से पूछें?

अंधेरे के काले डैने फैलने लगे थे. रफीक बाबू खुद को धकियाते हुए पैदल ही घर तक का सफर तय करने लगे.

उन की हालत यह हो गई कि एक बार वे मोटरसाइकिल से टकरातेटकराते बचे थे, तो दूसरी बार ठेली वाले से बातोंबातों में   झगड़ने से बचे थे.

रफीक बाबू किसी तरह घर पहुंचे. उन्हें देखते ही बेगम नसीरा का चेहरा खिल गया, पर रफीक बाबू के मुर्दनी चेहरे को देख कर वे पलभर में उदास हो गईं.

‘‘इतनी देर कैसे हुई? सब ठीक तो है न?’’ शक और डर के अंबार को दबा कर नसीरा ने पूछा.

रफीक बाबू ने जैसे कुछ सुना ही नहीं और सीधे कुरसी में पसर गए.

‘‘क्या बात है? कुछ कहोगे भी या नहीं?’’ नसीरा घबरा कर बोलीं.

‘‘कुछ नहीं नसीरा. बस, बदकिस्मती   झपट गई. लगता है, यह महीना फाका करने में गुजरेगा,’’ रफीक बाबू अपना सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘आखिर हुआ क्या है? मुझे भी तो कुछ पता चले?’’ नसीरा खीज उठीं.

‘‘आज तनख्वाह में से 15 हजार रुपए निकाले थे… और पूरे रुपए कोट की जेब में डाल कर बाहर निकल आया था. जब मैं बसस्टैंड पर पहुंचा, तो देखा कि रुपए नदारद थे,’’ रफीक बाबू ने उदास हो कर कहा.

‘‘मेरे मालिक, तू भी खूब है. किसी को छप्पर फाड़ कर दे और किसी से दो जून की रोटी भी छीन ले,’’ नसीरा दुपट्टे में मुंह छिपा कर रो पड़ीं.

बच्चे दीनदुनिया से बेखबर सो गए थे. उस रात वे दोनों बगैर खाए ही लेट गए. रात चढ़ आई थी, लेकिन नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी.

नसीरा को इस घटना ने तोड़ कर रख दिया था. वे खिड़की से अंदर आ रही रोशनी में खूंटी से लटके कोट को घूरे जा रही थीं, मानो सारा कुसूर उस पुराने कोट का था, जिस का अस्तर कोट से बाहर   झांक रहा था, मानो उन्हें चिढ़ा रहा हो.

नसीरा ने उठ कर खिड़की पर परदा तान दिया, तो भी नींद कहां थी भला?

‘‘कितनी बार कहा था कि एक कोट बनवा लो, मगर कान पर जूं तक न रेंगी. ईद भी चली गई. न जाने कब तक लादे रहेंगे इस कमबख्त कोट को?’’ नसीरा लेटेलेटे बड़बड़ाती रहीं.

रफीक बाबू कुछ नहीं बोले. बस, चुपचाप सुनते रहे.

‘इन्होंने कोट अच्छी तरह देख लिया था न? कहीं रुपए अस्तर में न उल  झे पड़े हों?’ नसीरा सारे घटनाक्रम को नए सिरे से सोच रही थीं कि शायद कोई सुराग हाथ आ जाए, मगर पूछने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं.

रफीक बाबू खामोशी का लबादा ओढ़े लेटे हुए थे. सारी रात आंखों में ही कट गई. सुबह होने को थी. रफीक बाबू उठे नहीं, बिस्तर से चिपके रहे.

नसीरा से रहा नहीं गया, ‘‘आज दफ्तर नहीं जाओगे क्या? कुछ तो हौसला रखो. ऐसे लेटे रहने से कुछ नहीं होने वाला.’’

न चाह कर भी रफीक बाबू को दफ्तर का मुंह देखना पड़ा. देर हो गई थी. साथी मुलाजिम अपनेअपने कामों में मसरूफ थे.

रफीक बाबू के मुर  झाए चेहरे को देख कर सभी को हैरानी हो रही थी. वैसे भी आज सब से देर में पहुंचने वालों में वे ही थे.

निरंजन शर्मा ने पलट कर देखा और बोले, ‘‘आओ मियां, आज देर कैसे कर दी? लगता है कि भाभीजान ने बुरी गत बनाई है. खैर, दफ्तर आ गए हो, तो कम से कम हुलिया तो ठीक करो. घरगृहस्थी में सब चलता रहता है.’’

रफीक बाबू से और बरदाश्त नहीं हुआ. मन में आया कि सीधे निरंजन शर्मा का गरीबान पकड़ लें, लेकिन कुछ नहीं कर पाए. बस, वे चिल्ला कर रह गए, ‘‘शर्मा, जूती का मुंह जब खुल जाता है, तो बहुत आवाज करती है. कभी किसी का दर्द महसूस करोगे या नहीं?’’

‘‘अरे क्या हुआ, क्यों तैश खाते हो? कुछ गड़बड़ है क्या?’’ निरंजन शर्मा ने मौके की नजाकत को सम  झा.

रफीक बाबू ने एक लंबी आह छोड़ी और वे बु  झी सी आवाज में बोले, ‘‘मेरे 15 हजार… न जाने कहां गिर गए.’’

‘‘बस, इतनी सी बात और इतनी सारी गालियां. ये लो, पूरे 15 हजार रुपए. मगर एक बार मुसकरा तो दो,’’ कहते हुए निरंजन शर्मा ने रुपए मेज पर रख दिए.

रफीक बाबू की आंखें खुली की खुली रह गईं. उन की जान में जान लौट आई, ‘‘लेकिन तुम्हें… ये रुपए तुम्हें कहां मिले?’’

‘‘इसे गनीमत कहो कि ऐनवक्त पर मैं भी एटीएम पहुंच गया. ठीक तुम्हारे बाद. जब तुम ने रुपए कोट के हवाले किए थे, तभी पूरी गड्डी खिसक कर फर्श पर आ गिरी थी.

‘‘उस समय मैं ने सोचा कि तुम्हें लौटा दूं, फिर खयाल आया कि तुम्हें थोड़ा एहसास करा ही दूं.’’

निरंजन शर्मा ने उन के कंधे पर हाथ रख कर धीमे से कहा, ‘‘कहीं अस्तर तो फटा नहीं है बरखुरदार?’’

रफीक बाबू बुरी तरह   झेंप गए. रुपए मिलने की खुशी में शुक्रिया भी न कह सके. बस, होंठ कांप कर रह गए.

निरंजन शर्मा और आमोद प्रकाश मुसकरा रहे थे. इस बार रफीक बाबू को उन का मुसकराना नहीं अखरा. उन्होंने मन ही मन फैसला कर डाला कि चाहे इस महीने कर्जा न दे पाएं तो चलेगा, लेकिन हर हाल में कोट बनवाएंगे.

अब रफीक बाबू का मन शांत था. वे अपनी कुरसी की ओर बढ़े. उन के ठीक सामने की कुरसी पर एक बड़ा सा पैकेट रखा था. कुछ देर तक वे पैकेट को हैरानी से देखते रह गए.

‘‘क्या देख रहे हो मियां… आप के लिए ही है… नए साल का तोहफा.’’

रफीक बाबू ने पैकेट हाथों में लिया, जिस पर लिखा था, ‘प्रिय रफीक बाबू, अपने दुश्मनों की ओर से यह तोहफा कबूल फरमाएं. इसे पहनें और पुराने कोट को अलविदा कहें. बस, बदले में इन दुश्मनों को मसजिद और जरदे पर पैसा न खर्च करने का वादा करना है.’

रफीक बाबू के होंठों पर पहली बार एक लंबी मुसकान फैल गई. उन्होंने फौरन उन दोनों को ऐसी   झप्पी मारी कि साथी मुलाजिम औरतें पहले तो मुंह खोले देखती रहीं, फिर उन्होंने शरमा कर अपना मुंह दूसरी तरफ कर लिया.

ऐसा कोई सगा नहीं : संतोषीलाल का परिवार क्यां फूला नहीं समाया

संतोषीलाल के घर पर आज उत्सव का सा माहौल था. हो भी क्यों न, एक साधारण परिवार की एकलौती लड़की को उन के समाज के जानेमाने और लगातार 4 बार विधानसभा चुनाव जीत कर इतिहास रचने वाले बबलूराम ने अपने एकलौते बेटे के लिए पसंद जो किया है. बबलूराम खुद चल कर शादी का प्रस्ताव लाए हैं.

इतने बड़े घर में संबंध होने की बात से संतोषीलाल का परिवार फूला नहीं समा रहा था.

चूंकि 2 साल पहले ही बबलूराम की पत्नी की मौत हो चुकी थी, इसलिए घर में सासननद नाम का कोई झंझट नहीं था. यह दूसरी बड़ी बात थी. यह भी तय ही था कि शादी के बाद उन की लड़की गोपी ही घर की सर्वेसर्वा रहेगी. ऐसे प्रस्ताव को नकारना बेवकूफी ही होगी.

बबलूराम पर कई हत्याओं के आरोप थे और विरोधी भी उन के करैक्टर पर उंगलियां उठाते रहते थे, पर संतोषीलाल ने अपने घर वालों का मुंह यह कह कर बंद कर दिया था, ‘‘देखो, राजनीति में विरोधियों का काम ही आरोप लगाना है. ऐसा कोई नेता नहीं, जिस पर आरोप न लगे हों. अभी कोर्ट में भी कुछ साबित नहीं हुआ है.

‘‘हो सकता है कि बबलूराम ने आगे बढ़ने के लिए कुछ गलत किया हो, पर हम शादी तो उन के एकलौते लड़के दीपक से कर रहे हैं, जिस का राजनीति से दूरदूर तक कोई वास्ता नहीं है. वह अपनी फैक्टरी चलाता है और उस का राजनीति में आने का अभी कोई इरादा भी नहीं है.

‘‘फैक्टरी से अच्छीखासी आमदनी हो जाती है. अगर कल को बबलूराम को सजा हो भी जाती है तो भी गोपी महफूज रहेगी.’’

गोपी 19 साल की एक खूबसूरत लड़की थी जो कालेज के आखिरी साल का इम्तिहान दे रही थी.

एक शादी समारोह में अच्छी तरह से सजीसंवरी गोपी बेहद ही आकर्षक लग रही थी, वहीं पर बबलूराम ने गोपी को देखा और अपने बेटे दीपक के लिए चुन लिया था.

दीपक की उम्र भी 24 साल है. बबलूराम ने अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा के बल पर उस के लिए एक फैक्टरी डलवा दी है जो अच्छीखासी चलती है. उस शादी में दीपक भी था और उसे भी गोपी बहुत अच्छी लगी थी.

बबलूराम ने दीपक की शादी को तड़कभड़क से दूर रखा था. परिवार के अलावा कुछ चुनिंदा लोगों को ही शादी में बुलाया गया था.

शादी होने के साथ ही आए हुए रिश्तेदार भी अपनेअपने घर को चले गए थे. अब घर में वे तीनों ही रह गए थे और कुछ घरेलू नौकर थे, जो समयसमय पर आते थे.

शुरूशुरू में तो गोपी को सब अच्छा लगा, पर जल्दी ही घर पर अकेलापन उसे खलने लगा.

एक दिन गोपी ने दीपक से कहा, ‘‘मैं घर में अकेले बोर हो जाती हूं. क्यों न मैं भी तुम्हारे साथ फैक्टरी चलूं?’’

‘‘अरे नहीं, कारखाने में कई मजदूर हैं और मजदूरों की सोच तो तुम्हें मालूम ही है. मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे बारे में कोई अनापशनाप बोले…’’

दीपक उसे समझाने लगा, ‘‘और वैसे भी पिताजी के आनेजाने का समय तय नहीं है, इसलिए तुम घर पर ही रहो तो बेहतर रहेगा.’’

शादी के 2 साल पूरे होतेहोते गोपी ने एक बेटे को जन्म दे दिया, जिस का नाम राजन रखा गया.

अब गोपी का ज्यादातर समय राजन के साथ ही बीत जाता और उस के बोर होने की शिकायत दूर हो गई.

राजन अब 4 साल का हो गया था और प्रीनर्सरी स्कूल में जाने लगा था.

अब गोपी की पुरानी समस्या फिर से सिर उठाने लगी थी. एक दिन नाश्ते की टेबल पर जब तीनों बैठे थे, तभी गोपी ने दीपक से कहा, ‘‘मुझे भी फैक्टरी ले जाया करो. मैं यहां अकेली घर पर बोर हो जाती हूं.’’

‘‘देखो गोपी, यह मुमकिन नहीं है. मैं तरहतरह के लोगों से मिलता हूं. सभी लोगों से बात करने का लहजा भी अलग होता है. ऐसे में तुम्हारे वहां बैठने से मुझे भी परेशानी होगी और तुम भी सहज नहीं रह पाओगी,’’ दीपक गोपी को समझते हुए बोला.

‘‘तब तो पापाजी आप ही मुझे राजनीति में शामिल करवा लीजिए. इस बहाने कुछ समाजसेवा भी हो जाएगी और मेरा अकेलापन भी दूर हो जाएगा…’’ गोपी बबलूराम से अनुरोध करते हुए बोली, ‘‘वैसे भी आप सीएम के बाद दूसरे नंबर की पोजीशन पर हैं, इसीलिए आप के लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं है.’’

‘‘वह तो ठीक है गोपी, पर राजनीति कई तरह के बलिदान मांगती है. हो सकता है, राजनीति में आने के बाद तुम अपने परिवार… मेरा मतलब है कि दीपक व राजन को पूरा समय न दे पाओ. कभी सुबह जल्दी जाना तो रात में देर से घर आना पड़ सकता है. कई उलटेसीधे काम भी करने पड़ सकते हैं,’’ बबलूराम हंसते हुए बोले.

‘‘अरे पापाजी, घरपरिवार का तो आप को मालूम ही है. दीपक तो महीने में 15 दिन तो टूर पर रहते हैं और मैं घर पर अकेली.

‘‘राजन डे बोर्डिंग में जाता है तो शाम को ही घर आ पाता है. आप खुद भी ज्यादातर बाहर ही रहते हैं, इसलिए मेरे अकेले रहने को तो परिवार नहीं कह सकते न,’’ गोपी बोली.

‘‘पापा ठीक कह रहे हैं गोपी. राजनीति बहुत ज्यादा समर्पण मांगती है,’’ दीपक बोला.

‘‘आप तो रहने ही दो. न फैक्टरी जाने देते हो और न समाजसेवा के लिए राजनीति में. जब तक पापाजी मेरे साथ हैं, मुझे कोई डर नहीं,’’ गोपी बनावटी गुस्से से बोली.

‘‘ठीक है, अगले साल नगरनिगम के चुनाव हैं. हम कोशिश करेंगे कि इस में अच्छा पद पाने की, पर इस के लिए अभी से मेहनत करनी पड़ेगी,’’ बबलूराम बोले.

नाश्ता कर के सभी अपनेअपने कामों में लग गए.

उस शाम बबलूराम जल्दी घर आ गए. तकरीबन 15 मिनट बाद गोपी जब चाय देने के लिए कमरे में गई तो यह देख कर हैरान रह गई कि बबलूराम के कमरे में एक गुप्त अलमारी लगी हुई थी जिस में कई तरह की विदेशी शराब रखी हुई थी.

उसे कमरे में देख कर बबलूराम बोले, ‘‘यह राजनीति का पहला सबक है. एक नेता को अपने चेहरे पर कई चेहरे लगाने पड़ते हैं, इसलिए राजनीति में जो जैसा दिखता है, जैसा बोलता है, वैसा होता नहीं. समझ?’’

‘‘जी, पापाजी,’’ गोपी कुछ घबरा कर बोली.

‘‘अच्छा, ऐसा करो, इस हरे रंग की बोतल में से एक पैग बना कर मुझे दे दो. उस के बाद फ्रिज में से निकाल कर एक क्यूब बर्फ भी डाल दो और चली जाओ. जब दीपक आ जाए तो मुझ भी खाने पर बुला लेना. और हां, राजन आ गया क्या?’’ बबलूराम ने पूछा.

‘‘जी, आ गया वह,’’ कह कर गोपी ने पैग बना कर बबलूराम को दे दिया.

तकरीबन डेढ़ घंटे बाद दीपक फैक्टरी से आ गया और सभी खाने की टेबल पर इकट्ठा हो गए.

बबलूराम दीपक से बोले, ‘‘आज से गोपी की राजनीतिक तालीम शुरू हो गई है. आज मैं ने उसे समझाया है कि राजनीति में हर आदमी के एक से ज्यादा चेहरे होते हैं.’’

यह सुन कर सभी हंस दिए. खाना खाते समय दीपक ने बताया कि उसे परसों पूना निकलना पड़ेगा. फैक्टरी का कुछ काम है, इसलिए एक हफ्ते तक वहीं रुकना पड़ेगा.

तय कार्यक्रम के अनुसार दीपक सुबह जल्दी पूना के लिए निकल गया.

नाश्ता करते समय बबलूराम ने गोपी से कहा, ‘‘आज दोपहर 12 बजे तुम पार्टी दफ्तर आ जाना. मैं तुम्हें यहां का नगर अध्यक्ष बनवा दूंगा, ताकि चुनाव लड़ने में कोई दिक्कत नहीं आए.’’

गोपी समय पर पार्टी दफ्तर पहुंच गई, जहां पर बबलूराम ने उसे पार्टी की महिला मोरचे की अध्यक्ष अपने गुरगों के जरीए बनवा दिया. दिनभर जुलूस व रैली का कार्यक्रम चलता रहा. शाम को गोपी घर आ गई, पर बबलूराम पार्टी दफ्तर में ही रुक गए.

रात तकरीबन 9 बजे तक इंतजार करने के बाद गोपी ने खाना खा लिया. बबलूराम तकरीबन 11 बजे घर लौटे और गोपी की तरफ देख कर बोले, ‘‘अब तो तुम खुश हो न?’’

‘‘जी पापाजी, मैं बहुत खुश हूं. आप के लिए खाना लगा दूं क्या?’’ गोपी ने बडे़ ही अपनेपन से पूछा.

‘‘नहीं, मुझे भूख नहीं है. लेकिन मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है. तुम थोड़ी मालिश कर दोगी क्या?’’ बबलूराम ने गोपी से पूछा.

‘‘जी हां, क्यों नहीं,’’ गोपी बोली. ‘‘मैं चेंज कर के आती हूं,’’ गोपी ने गाउन पहन रखा था.

‘‘अरे, नहींनहीं, इस की क्या जरूरत है. 10 मिनट में तो मेरी मालिश हो ही जाएगी. फिर तुम क्यों परेशान होती हो. आ जाओ ऐसे ही,’’ बबलूराम ने कहा.

गोपी सकुचाते हुए बबलूराम के कमरे में चली गई.

बबलूराम अपने बैड पर लेट गए और गोपी हलके हाथ से उन की मालिश करने लगी.

धीरेधीरे बबलूराम का सिर गोपी की गोद में आ गया. गोपी समझ कि शायद बबलूराम को नींद लग गई है और ऐसा हो गया है, पर ऐसा नहीं था. यह सबकुछ जानबूझ कर हो रहा था.

धीरेधीरे बबलूराम ने गोपी को अपनी तरफ खींच लिया. गोपी कुछ समझ पाती, उस के पहले ही वह सब हो गया, जो नहीं होना चाहिए था.

सुबह राजन अपने स्कूल चला गया. गोपी अभी अपने कमरे में ही पड़ी हुई थी, तभी बबलूराम उस के कमरे में आए और बोले, ‘‘मैं ने तुम्हें समझाया था कि राजनीति में तुम्हें काफी बलिदान करना पड़ेगा और यह तुम्हारा बलिदान ही है.

‘‘यह भी याद रख लो, इस घटना का जिक्र दीपक या किसी और से किया तो उस आदमी का इस धरती पर वह आखिरी दिन होगा.

‘‘दीपक की मां को भी हम ने ही स्वर्ग में स्थान दिलवाया है, क्योंकि उसे सब पता चल चुका था.

‘‘इस के अलावा जो लोग हमारे विरोध में बोलते थे, उन को भी हम ने ही मुक्ति दिलवाई है. अब यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम कैसी जिंदगी चाहती हो. सुख से भरी हुई या एक मैली साड़ी वाली घरवाली की.’’

‘‘पर, यह गलत है. और गलत बात एक न एक दिन सामने आ ही जाती है,’’ गोपी रोते हुए बोली.

‘‘पता तो तब चलेगा न, जब हम दोनों में से कोई बताएगा.

‘‘रही बात गलत होने की, तो प्यार, जंग और राजनीति में सबकुछ जायज है. यही तो रहस्य नीति मतलब राजनीति है.

‘‘अगर तुम आगे बढ़ना चाहती हो तो दोपहर 12 बजे पार्टी दफ्तर पहुंच जाना. अपने सपनों को पूरा करने का सुनहरा मौका तुम्हारे सामने है,’’ बबलूराम समझने के अंदाज में धमका कर चले गए.

काफी देर तक रोनेधोने और काफी सोचनेसमझने के बाद गोपी दोपहर 12 बजे पार्टी दफ्तर पहुंच गई.

अगले साल होने वाले नगरनिगम के चुनाव में गोपी को अध्यक्ष पद का टिकट दे दिया गया और बबलूराम ने अपने गुरगों के प्रभाव से उसे अच्छे वोटों से जितवा भी दिया.

बबलूराम की सलाह पर दीपक ने कारखाने में एक मैनेजर रख दिया और वह खुद को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से जोड़ने के लिए दुबई चला गया.

अब दीपक 3-4 महीनों के बाद ही घर आ पाता है. राजन को भी दूर के पहाड़ी स्कूल में अच्छी तालीम के लिए भेज दिया गया है.

अब गोपी विधानसभा का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है. उस का प्रमोशन जारी है. अब वह अकसर प्रदेश अध्यक्ष की गाड़ी से देर रात में उतरती है तो बबलूराम उसे एक पैग बना कर पिला देते हैं, ताकि थकान दूर हो जाए.

मुझे यकीन है: गुलशन के ससुराल वाले क्या ताना देते थे ?

पढ़ीलिखी गुलशन की शादी मसजिद के मुअज्जिन हबीब अली के बेटे परवेज अली से धूमधाम से हुई. लड़का कपड़े का कारोबार करता था. घर में जमीनजायदाद सबकुछ था. गुलशन ब्याह कर आई तो पहली रात ही उसे अपने मर्द की असलियत का पता चल गया. बादल गरजे जरूर, पर ठीक से बरस नहीं पाए और जमीन पानी की बूंदों के लिए तरसती रह गई. वलीमा के बाद गुलशन ससुराल दिल में मायूसी का दर्द ले कर लौटी. खानदानी घर की पढ़ीलिखी लड़की होने के बावजूद सीधीसादी गुलशन को एक ऐसे आदमी को सौंप दिया गया, जो सिर्फ चारापानी का इंतजाम तो करता, पर उस का इस्तेमाल नहीं कर पाता था.

गुलशन को एक हफ्ते बाद हबीब अली ससुराल ले कर आए. उस ने सोचा कि अब शायद जिंदगी में बहार आए, पर उस के अरमान अब भी अधूरे ही रहे. मौका पा कर एक रात को गुलशन ने अपने शौहर परवेज को छेड़ा, ‘‘आप अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से क्यों नहीं कराते?’’

‘‘तुम चुपचाप सो जाओ. बहस न करो. समझी?’’ परवेज ने कहा.

गुलशन चुपचाप दूसरी तरफ मुंह कर के अपने अरमानों को दबा कर सो गई. समय बीतता गया. ससुराल से मायके आनेजाने का काम चलता रहा. इस बात को दोनों समझ रहे थे, पर कहते किसी से कुछ नहीं थे. दोनों परिवार उन्हें देखदेख कर खुश होते कि उन के बीच आज तक तूतूमैंमैं नहीं हुई है. इसी बीच एक ऐसी घटना घटी, जिस ने गुलशन की जिंदगी बदल दी. मसजिद में एक मौलाना आ कर रुके. उन की बातचीत से मुअज्जिन हबीब अली को ऐसा नशा छाया कि वे उन के मुरीद हो गए. झाड़फूंक व गंडेतावीज दे कर मौलाना ने तमाम लोगों का मन जीत लिया था. वे हबीब अली के घर के एक कमरे में रहने लगे.

‘‘बेटी, तुम्हारी शादी के 2 साल हो गए, पर मुझे दादा बनने का सुख नहीं मिला. कहो तो मौलाना से तावीज डलवा दूं, ताकि इस घर को एक औलाद मिल जाए?’’ हबीब अली ने अपनी बहू गुलशन से कहा. गुलशन समझदार थी. वह ससुर से उन के बेटे की कमी बताने में हिचक रही थी. चूंकि घर में ससुर, बेटे, बहू के सिवा कोई नहीं रहता था, इसलिए वह बोली, ‘‘बाद में देखेंगे अब्बूजी, अभी मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’ हबीब अली ने कुछ नहीं कहा.

मुअज्जिन हबीब अली के घर में रहते मौलाना को 2 महीने बीत गए, पर उन्होंने गुलशन को देखा तक नहीं था. उन के लिए सुबहशाम का खाना खुद हबीब अली लाते थे. दिनभर मौलाना मसजिद में इबादत करते. झाड़फूंक के लिए आने वालों को ले कर वे घर आते, जो मसजिद के करीब था. हबीब अली अपने बेटे परवेज के साथ दुकान में रहते थे. वे सिर्फ नमाज के वक्त घर या मसजिद आते थे. मौलाना की कमाई खूब हो रही थी. इसी बहाने हबीब अली के कपड़ों की बिक्री भी बढ़ गई थी. वे जीजान से मौलाना को चाहते थे और उन की बात नहीं टालते थे. एक दिन दोपहर के वक्त मौलाना घर आए और दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘जी, कौन है?’’ गुलशन ने अंदर से ही पूछा.

‘‘मैं मौलाना… पानी चाहिए.’’

‘‘जी, अभी लाई.’’

गुलशन पानी ले कर जैसे ही दरवाजा खोल कर बाहर निकली, गुलशन के जवां हुस्न को देख कर मौलाना के होश उड़ गए. लाजवाब हुस्न, हिरनी सी आंखें, सफेद संगमरमर सा जिस्म… मौलाना गुलशन को एकटक देखते रहे. वे पानी लेना भूल गए.

‘‘जी पानी,’’ गुलशन ने कहा.

‘‘लाइए,’’ मौलाना ने मुसकराते हुए कहा.

पानी ले कर मौलाना अपने कमरे में लौट आए, पर दिल गुलशन के कदमों में दे कर. इधर गुलशन के दिल में पहली बार किसी पराए मर्द ने दस्तक दी थी. मौलाना अब कोई न कोई बहाना बना कर गुलशन को आवाज दे कर बुलाने लगे. इधर गुलशन भी राह ताकती कि कब मौलाना उसे आवाज दें. एक दिन पानी देने के बहाने गुलशन का हाथ मौलाना के हाथ से टकरा गया, उस के बाद जिस्म में सनसनी सी फैल गई. मुहब्बत ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया था. ऊपरी मन से मौलाना ने कहा, ‘‘सुनो मियां हबीब, मैं कब तक तुम्हारा खाना मुफ्त में खाऊंगा. कल से मेरी जिम्मेदारी सब्जी लाने की. आखिर जैसा वह तुम्हारा बेटा, वैसा मेरा भी बेटा हुआ. उस की बहू मेरी बहू हुई. सोच कर कल तक बताओ, नहीं तो मैं दूसरी जगह जा कर रहूंगा.’’

मुअज्जिन हबीब अली ने सोचा कि अगर मौलाना चले गए, तो इस का असर उन की कमाई पर होगा. जो ग्राहक दुकान पर आ रहे हैं, वे नहीं आएंगे. उन को जो इज्जत मौलाना की वजह से मिल रही है, वह नहीं मिलेगी. इस समय पूरा गांव मौलाना के अंधविश्वास की गिरफ्त में था और वे जबरदस्ती तावीज, गंडे, अंगरेजी दवाओं को पीस कर उस में राख मिला कर इलाज कर रहे थे. हड्डियों को चुपचाप हाथों में रख कर भूतप्रेत निकालने का काम कर रहे थे. बापबेटे दोनों ने मौलाना से घर छोड़ कर न जाने की गुजारिश की. अब मौलाना दिखाऊ ‘बेटाबेटी’ कह कर मुअज्जिन हबीब अली का दिल जीतने की कोशिश करने लगे. नमाज के बाद घर लौटते हुए हबीब अली ने मौलाना से कहा, ‘‘जनाब, आप इसे अपना ही घर समझिए. आप की जैसी मरजी हो वैसे रहें. आज से आप घर पर ही खाना खाएंगे, मुझे गैर न समझें.’’ मौलाना के दिल की मुराद पूरी हो गई. अब वे ज्यादा वक्त घर पर गुजारने लगे. बाहर के मरीजों को जल्दी से तावीज दे कर भेज देते. इस काम में अब गुलशन भी चुपकेचुपके हाथ बंटाने लगी थी.

तकरीबन 6 महीने का समय बीत चुका था. गुलशन और मौलाना के बीच मुहब्बत ने जड़ें जमा ली थीं. एक दिन मौलाना ने सोचा कि आज अच्छा मौका है, गुलशन की चाहत का इम्तिहान ले लिया जाए और वे बिस्तर पर पेट दर्द का बहाना बना कर लेट गए. ‘‘मेरा आज पेट दर्द कर रहा है. बहुत तकलीफ हो रही है. तुम जरा सा गरम पानी से सेंक दो,’’ गुलशन के सामने कराहते हुए मौलाना ने कहा.

‘‘जी,’’ कह कर वह पानी गरम करने चली गई. थोड़ी देर बाद वह नजदीक बैठ कर मौलाना का पेट सेंकने लगी. मौलाना कभीकभी उस का हाथ पकड़ कर अपने पेट पर घुमाने लगे.

थोड़ा सा झिझक कर गुलशन मौलाना के पेट पर हाथ फिराने लगी. तभी मौलाना ने जोश में गुलशन का चुंबन ले कर अपने पास लिटा लिया. मौलाना के हाथ अब उस के नाजुक जिस्म के उस हिस्से को सहला रहे थे, जहां पर इनसान अपना सबकुछ भूल जाता है. आज बरसों बाद गुलशन को जवानी का वह मजा मिल रहा था, जिस के सपने उस ने संजो रखे थे. सांसों के तूफान से 2 जिस्म भड़की आग को शांत करने में लगे थे. जब तूफान शांत हुआ, तो गुलशन उठ कर अपने कमरे में पहुंच गई.

‘‘अब्बू, मुझे यकीन है कि मौलाना के तावीज से जरूर कामयाबी मिलेगी,’’ गुलशन ने अपने ससुर हबीब अली से कहा.

‘‘हां बेटी, मुझे भी यकीन है.’’

अब हबीब अली काफी मालदार हो गए थे. दिन काफी हंसीखुशी से गुजर रहे थे. तभी वक्त ने ऐसी करवट बदली कि मुअज्जिन हबीब अली की जिंदगी में अंधेरा छा गया. एक दिन हबीब अली अचानक किसी जरूरी काम से घर आए. दरवाजे पर दस्तक देने के काफी देर बाद गुलशन ने आ कर दरवाजा खोला और पीछे हट गई. उस का चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. बदन में कंपकंपी आ गई थी. हबीब अली ने अंदर जा कर देखा, तो गुलशन के बिस्तर पर मौलाना सोने का बहाना बना कर चुपचाप मुंह ढक कर लेटे थे. यह देख कर हबीब अली के हाथपैर फूल गए, पर वे चुपचाप दुकान लौट आए.

‘‘अब क्या होगा? मुझे डर लग रहा है,’’ कहते हुए गुलशन मौलाना के सीने से लिपट गई.

‘‘कुछ नहीं होगा. हम आज ही रात में घर छोड़ कर नई दुनिया बसाने निकल जाएंगे. मैं शहर से गाड़ी का इंतजाम कर के आता हूं. तुम तैयार हो न?’’ ‘‘मैं तैयार हूं. जैसा आप मुनासिब समझें.’’ मौलाना चुपचाप शहर चले गए. मौलाना को न पा कर हबीब अली ने समझा कि उन के डर की वजह से वह भाग गया है.

सुबह हबीब अली के बेटे परवेज ने बताया, ‘‘अब्बू, गुलशन भी घर पर नहीं है. मैं ने तमाम जगह खोज लिया, पर कहीं उस का पता नहीं है. वह बक्सा भी नहीं है, जिस में गहने रखे हैं.’’ हबीब अली घबरा कर अपनी जिंदगी की कमाई और बहू गुलशन को खोजने में लग गए. पर गुलशन उन की पहुंच से काफी दूर जा चुकी थी, मौलाना के साथ अपना नया घर बसान.

मुक्त : बेवफाई की राह पर सरोज

आज मंगलवार है और राज के आने का दिन भी. सरोज कल रात से ही अपनी आंखों में अनगिनत सपनों को संजोए सो नहीं पाई थी. राज के नाम से ही उस के जिस्म में एक अनछुई हलचल हिलोरें मार रही थी. वह अपनेआप को 18 बरस की उस कमसिन कली सा महसूस कर रही थी, जिसे पहली बार किसी लड़के ने छुआ हो.

सरोज ने आज बहुत ही जल्दी काम निबटा लिया था. विकास को भी टिफिन दे कर बहुत ही अच्छे मन से विदा किया था. विकास के साथ सरोज की शादी 10 साल पहले हुई थी. उन्होंने सरोज को 2 प्यारेप्यारे बच्चे उस उपहार के रूप में दिए थे, जिस का मोल वह कभी नहीं चुका सकती थी.

विकास बहुत ही सीधे स्वभाव के इनसान हैं. वे सरोज की हर बात में सिर्फ और सिर्फ अपनी रजामंदी ही देते हैं. कभी भी उन्होंने सरोज के फैसले पर अपने फैसले की मुहर नहीं लगाई है. सच कहें, तो सरोज अपने गरीबखाने की महारानी है.

इस सब के बावजूद बस एक यही बात सरोज को बेचैन कर देती है कि विकास को तो बच्चे हो जाने के बाद उस से दूर होने का बहाना मिल गया था. वह जब भी रात में उन के करीब जा कर अपनी इच्छा जाहिर करने की कोशिश करती, तो वे ‘आज नहीं’, ‘बच्चे उठ जाएंगे’, ‘फिर कभी’ कह कर सरोज को बड़ी ही सफाई से मना कर देते थे. वह भी अपने अंदर उठते ज्वारभाटे के तूफान को दबाते हुए आंखों में आंसुओं का सैलाब ले कर सोने का नाटक करती थी.

इसी तरह महीने, फिर साल बीतने लगे. सरोज उस मछली सा तड़पने लगी, जिस के पास समुद्र तो है, फिर भी वह प्यासी ही है. इसी प्यास को अपने गले में भर कर सरोज भी नौकरी करने लगी. समय अपनी रफ्तार से चलता रहा और वह और ज्यादा प्यास से तड़पने लगी.

राज सरोज के सीनियर थे और अपनी हर बात उस से शेयर करने लगे थे. वह भी जैसे उन के मोहपाश में बंध कर अपनी सीमाओं को पार कर उन के साथ चलते हुए सात घोड़े के रथ पर सवार आकाश में बिन पंख के उड़ने लगी थी.

धीरेधीरे राज और सरोज कब एक होने को उतावले हो गए, सच में पता ही नहीं चला और आखिरकार आज वह दिन भी आ गया, जब राज को अपने घर आने का न्योता देते हुए उस ने अपनी आंखों से रजामंदी भी दे दी थी.

आज सरोज ने छुट्टी ले ली थी और राज आधे दिन की छुट्टी ले कर उस के घर आ जाएंगे. बस उसी पल के इंतजार में वह न जाने कितनी बार खुद को आईने में निहारती रही. उसे आज एक अजीब सी सिहरन महसूस हो रही थी.

सरोज आज उस कुएं में खुद को विलीन करने जा रही थी, जिस के पनघट पर उस का कोई हक नहीं था. पर वह आज जी भर कर उस कुएं का पानी पीना चाहती थी. बस यही सोचते हुए वह एकएक पल गिन रही थी.

अचानक दरवाजे की घंटी ने सरोज का ध्यान हटा दिया. आज अपने बैडरूम से मेन दरवाजा खोलने तक का सफर उसे कई मीलों सा लग रहा था. उस के कदम शरीर का साथ नहीं दे रहे थे. वे उस के दिल में उठे उस तूफान को शांत करने में लगे थे, जो उस के और राज के बीच एक कमजोर से धागे को बांध कर उस से विश्वास की मजबूती की चाहत करने की सोच रहे थे.

बड़ी ही जद्दोजेहद से सरोज दरवाजे तक पहुंच पाई. आज पहली बार दरवाजे को खोलने में वह अपनी नजरों को नीचे किए हुए थी. वह पापपुण्य के बीच अपनी उस प्यास को महसूस कर रही थी, जिस की बेचैनी उसे जीने नहीं दे रही थी.

सरोज ने धड़कते दिल से दरवाजा खोला. देखा कि सामने विकास हाथ में गजरा लिए मुसकराते हुए खड़े थे.

‘‘क्या सरोज, इतनी देर से घंटी बजा रहा था. क्या कर रही थी?’’

सरोज कुछ बोल पाती, इस के पहले ही विकास ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. उस के बालों को गजरे से सजातेसजाते वे धीरे से कानों में फुसफुसाने लगे, ‘‘अच्छा हुआ, जो तुम ने आज छुट्टी कर ली. मैं कल से ही तुम्हें सरप्राइस देने की सोच चुका था. आज मैं पूरा दिन सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे मुताबिक जीना चाहता हूं और तुम्हारी सारी शिकायतें भी तो दूर करनी हैं.’’

सरोज सपनों की दुनिया से बाहर आ गई और अपने उस फैसले पर पछताने लगी, जो आज उस के और विकास के विश्वास को तोड़ते हुए उसे उस पलभर के सुख के बदले आत्मग्लानि के अंधे और सूखे कुएं में गिराने वाला था.

सरोज विकास की बांहों से खुद को मुक्त कर के उस अंधेरे को फोन करने जाने लगी, जो उसे अपने खुशहाल परिवार की रोशनी से दूर करने वाला था और वह अंधकार भी सरोज ने ही तो चुना था.

नौटंकीबाज पत्नी : नयना की नासमझी ने क्या कर दिया

मुंबई में रहने वाले कोंकण इलाके के ज्यादातर लोग अपने गांव में आम और कटहल खाने आते हैं. इतना ही नहीं, कोंकण ताजा मछलियों के लिए भी बहुत मशहूर है, इसलिए सागर को अपने लिए बागबगीचे पसंद करने और मांसमछली पका लेने वाली पत्नी चाहिए थी. वह चाहता था कि उस की पत्नी घर और खेतीबारी संभालते हुए गांव में रह कर उस के मातापिता की सेवा करे, क्योंकि सागर नौकरी में बिजी रहने के चलते ज्यादा दिनों तक गांव में नहीं ठहर सकता था. ऐसे में उसे ऐसी पत्नी चाहिए थी जो उस का घरबार बखूबी संभाल सके.

आखिरकार, सागर को वैसी ही लड़की पत्नी के रूप में मिल गई, जैसी उसे चाहिए थी. नयना थोड़ी मुंहफट थी, लेकिन खूबसूरत थी. उस ने शादी की पहली रात से ही नखरे और नाटक करना शुरू कर दिया. सुहागरात पर सागर से बहस करते हुए वह बोली, ‘‘तुम अपना स्टैमिना बढ़ाओ. जो सुख मुझे चाहिए, वह नहीं मिल पाया.’’

दरअसल, सागर एक आम आदमी की तरह सैक्स में लीन था, लेकिन वह बहुत जल्दी ही थक गया. इस बात पर नयना उस का जम कर मजाक उड़ाने लगी, लेकिन सागर ने उस की किसी बात को दिल पर नहीं लिया. उसे लगा, समय के साथसाथ पत्नी की यह नासमझ दूर हो जाएगी. छुट्टियां खत्म हो चुकी थीं और उसे मुंबई लौटना था.

नयना ने कहा, ‘‘मुझे इस रेगिस्तान में अकेली छोड़ कर क्यों जा रहे हो?’’

सच कहें तो नयना भी यही चाहती थी कि सागर गांव में न रहे, क्योंकि पति की नजर व दबाव में रहना उसे पसंद नहीं था और न ही उस के रहते वह पति के दोस्तों को अपने जाल में फंसा सकती थी. मायके में उसे बेरोकटोक घूमने की आदत थी, जिस वजह से गांव के लड़के उसे ‘मैना’ कह कर बुलाते थे.

मुंबई पहुंचने के बाद सागर जब भी नयना को फोन करता, उस का फोन बिजी रहता. उसे अकसर कालेज के दोस्तों के फोन आते थे.

लेकिन धीरेधीरे सागर को शक होने लगा कि कहीं नयना अपने बौयफ्रैंड से बात तो नहीं करती है? सागर की मां ने बताया कि नयना घर का कामधंधा छोड़ कर पूरे गांव में आवारा घूमती रहती है.

एक दिन अचानक सागर गांव पहुंच गया. बसस्टैंड पर उतरते ही सागर ने देखा कि नयना मैदान में खड़ी किसी लड़के से बात कर रही थी और कुछ देर बाद उसी की मोटरसाइकिल पर बैठ कर वह चली गई. देखने में वह लड़का कालेज में पढ़ने वाला किसी रईस घर की औलाद लग रहा था. नैना उस से ऐसे चिपक कर बैठी थी, जैसे उस की प्रेमिका हो.

घर पहुंचने के बाद सागर और नैना में जम कर कहासुनी हुई. नैना ने सीधे शब्दों में कह दिया, ‘‘बौयफ्रैंड बनाया है तो क्या हुआ? मुझे यहां अकेला छोड़ कर तुम वहां मुंबई में रहते हो. मैं कब तक यहां ऐसे ही तड़पती रहूंगी? क्या मेरी कोई ख्वाहिश नहीं है? अगर मैं ने अपनी इच्छा पूरी की तो इस में गलत क्या है? तुम खुद नौर्मल हो क्या?’’

‘‘मैं नौर्मल ही हूं. लेकिन तू हवस की भूखी है. फिर से उस मोटरसाइकिल वाले के साथ अगर गई तो घर से निकाल दूंगा,’’ सागर चिल्लाया.

‘‘तुम क्या मुंबई में बिना औरत के रहते हो? तुम्हारे पास भी तो कोई होगी न? ज्यादा बोलोगे तो सब को बता दूंगी कि तुम मुझे जिस्मानी सुख नहीं दे पाते हो, इसलिए मैं दूसरे के पास जाती हूं.’’

यह सुन कर सागर को जैसे बिजली का करंट लग गया. ‘इस नौटंकीबाज, बदतमीज, पराए मर्दों के साथ घूमने वाली औरत को अगर मैं ने यहां से भगा दिया तो यह मेरी झूठी बदनामी कर देगी… और अगर इसे मां के पास छोड़ता हूं तो यह किस के साथ घूम रही होगी, क्या कर रही होगी, यही सब सोच कर मेरा काम में मन नहीं लगेगा,’ यही सोच कर सागर को नींद नहीं आई. वह रातभर सोचता रहा, ‘क्या एक पल में झूठ बोलने, दूसरे पल में हंसने, जोरजोर से चिल्ला कर लोगों को जमा करने, तमाशा करने और धमकी देने वाली यह औरत मेरे ही पल्ले पड़नी थी?’

बहुत देर तक सोचने के बाद सागर के मन में एक विचार आया और बिना किसी वजह से धमकी देने वाली इस नौटंकीबाज पत्नी नयना को उस ने भी धमकी दी, ‘‘नयना, मैं तुझ से परेशान हो कर एक दिन खुदकुशी कर लूंगा और एक सुसाइड नोट लिख कर जाऊंगा कि तुम ने मुझ धोखा दे कर, डराधमका कर और झूठी बदनामी कर के आत्महत्या करने पर मजबूर किया है. किसी को धोखा देना गुनाह है. पुलिस तुझ से पूछताछ करेगी और तेरा असली चेहरा सब के सामने आएगा. तेरे जैसी बदतमीज के लिए जेल का पिंजरा ही ठीक रहेगा.’’

सागर के लिए यह औरत सिर पर टंगी हुई तलवार की तरह थी और उसे रास्ते पर लाने का यही एकमात्र उपाय था. खुदकुशी करने का सागर का यह विचार काम आ गया. यह सुन कर नयना घबरा गई.

‘‘ऐसा कुछ मत करो, मैं बरबाद हो जाऊंगी,’’ कह कर नयना रोने लगी.

इस के बाद सागर ने नयना को मुंबई ले जाने का फैसला किया. उस ने भी घबरा कर जाने के लिए हां कर दी. उस के दोस्त फोन न करें, इसलिए फोन नंबर भी बदल दिया.

अब वे दोनों मुंबई में साथ रहते हैं. नयना भी अपने बरताव में काफी सुधार ले आई है.

बेटी होने का दर्द : अनामिका की खुशी का क्या राज था

‘‘पापा… पापा… मेरा रिजल्ट आ गया है. देखिए, मैं ने अपनी क्लास में टौप किया है. पापा, मुझे प्रिंसिपल मैडम ने यह मैडल भी दिया है,’’ यह बताते हुए अनामिका खुशी से चहक रही थी. उस के पैर जमीन पर नहीं टिक रहे थे. मन में डाक्टर बनने का सपना लिए अनामिका 11वीं क्लास में साइंस स्ट्रीम चुनना चाहती थी.

अनामिका के पापा के बौस दूर खड़े अनामिका की यह सारी बातें सुन रहे थे. वे बिना सोचे समझे बीच में बोल पड़े, ‘‘अरे मिश्राजी, बेटी को डाक्टर बनाने का क्या फायदा… डाक्टर की डिगरी हासिल करने में बहुत मेहनत और काफी पैसा चाहिए. आप इतना पैसा कहां से लगाएंगे? आप की तनख्वाह भी इतनी नहीं है, फिर 2 बेटे भी हैं आप के. उन दोनों को पढ़ालिखा कर कुछ बनाइएगा.’’

अनामिका के पापा को अपने बौस की बात समझ में आ गई और उन्होंने अनामिका को आर्ट्स स्ट्रीम लेने का आदेश दे दिया.

अनामिका बहुत रोईगिड़गिड़ाई, पर पापा नहीं माने. टौपर का रिजल्ट हाथ में लिए चंचल चिडि़या सी अनामिका खुद को बिना पंखों की चिडि़या की तरह लाचार महसूस कर रही थी. उसे लग रहा था कि अच्छे समाज को बनाने में सहायक बेटियों की इतनी बुरी हालत… क्या बेटी होना इतना बड़ा गुनाह है?

इन्हीं सवालों के साथ आर्ट्स स्ट्रीम ले कर अनामिका पढ़ाई करने लगी. 12वीं क्लास पास होते ही मम्मी ने पापा से कहा, ‘‘सुनिए, अब अच्छा सा कोई लड़का देख कर अनामिका की शादी कर दीजिए, बहुत हुई पढ़ाईलिखाई.’’

इधर, डाक्टर न बन पाने की कसक दिल में लिए अनामिका मन ही मन आईएएस बनने का सपना सजा कर बैठी थी, पर मां की बात सुन कर एक बार फिर वह अपना सपना टूटने के डर से कराह उठी. जैसेतैसे पापा को मना कर बीए का फार्म भरवाया और फिर वह ग्रेजुएट हो गई.

इस के बाद अनामिका को यह कह कर उस की शादी करा दी गई  कि अब जो करना है, अपने घर जा कर करना.

अनामिका की शादी हुई, ससुराल पहुंची और ससुराल वालों के सामने उस ने आगे पढ़ाई की इच्छा जाहिर की, तो जवाब मिला कि और ज्यादा पढ़ना था तो अपने पिता के घर में पढ़ती रहती, शादी क्यों की? अब शादी हो गई है, तो घर का चूल्हाचौका संभालो.

मन मार कर अनामिका घर के कामों में बिजी रहने लगी. इसे बेटी की मजबूरी कहें या समाज की दोगली सोच?

एक मां ऐसी : अहराज की जिंदगी में आया तूफान

हर धर्म और हर धार्मिक किताब में मां को महान बताया गया है. मां के कदमों के नीचे जन्नत बताई जाती है और वह इतना बड़ा दिल रखती है कि अपनी औलाद के लिए बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना करने के लिए हमेशा तैयार रहती है.

पर हमारे समाज में कभीकभार ऐसी मां के बारे में भी सुनने को मिलता रहता है, जिस ने अपनी इच्छा के लिए अपनी ही औलाद को मार दिया या मरने के लिए छोड़ दिया. यह कहानी एक ऐसी ही मां की है, जिस ने अपनी इच्छा पूरी करने के लिए खुद अपनी सगी बेटी के साथसाथ उस के मासूम बच्चों की जिंदगी भी अंधेरे से भर दी.

अहराज की शादी साल 2010 में सना नाम की एक लड़की से बिजनौर जिले के एक गांव में हुई थी. वह मुंबई में एक अच्छा कारोबारी था. उस ने अपनी मेहनत के बल पर काफी जायदाद बना रखी थी.  वक्त बहुत खुशगवार गुजर रहा था. शादी के 10 साल में उस के 4 बच्चे हो गए थे. शादी के 6 साल बाद अहराज की सास अपनी बेटी सना के पास मुंबई आ कर रहने लगी थीं.

अहराज को इस में कोई एतराज न था. उस ने सोचा कि वह खुद तो काम में बिजी रहता है, सास अगर साथ में रहेगी तो उस के बच्चों को भी नानी का प्यार मिलता रहेगा.  कुछ साल तो अहराज की सास सही रहीं, फिर उन्होंने अपनी बेटी सना को भड़काना शुरू कर दिया.

हुआ यों था कि अहराज के ससुर का एक दिन उस के पास फोन आया और उन्होंने पूछा, ‘सना की अम्मी कब तक वहां रहेंगी? मैं भी बीमार रहने लगा हूं.

मेहरबानी कर के तुम उन्हें घर भेज दो. कई महीनों से फोन करता रहा हूं, पर उधर से कोई जवाब नहीं मिलता, इसलिए मजबूर हो कर तुम्हारे पास फोन किया.’ अहराज ने अपने ससुर को दिलासा देते हुए कहा, ‘‘मैं आज ही उन से बात करता हूं.’’ रात में घर पहुंच कर जब अहराज ने सना से इस बारे में बात की, तो उस ने कोई जवाब नहीं दिया. सुबह अहराज अपने काम पर चला गया.

जब वह दोपहर को घर आया और खाना मांगा तो उस की बीवी चुप रही और सास ने भी कोई जवाब नहीं दिया.  अहराज ने सना से बात की, तो उस ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘पहले अपनी प्रौपर्टी मेरे नाम करो.’’ अहराज सना के मुंह से यह सुन कर हक्काबक्का रह गया. उस ने उसे समझाने की काफी कोशिश की, पर वह नहीं मानी. अहराज ने अपनी सास को यह बात बताई तो वे सिर्फ इतना ही बोलीं, ‘‘वह ठीक कह रही है.’’ अहराज सोच में पड़ गया कि क्या किया जाए. वह परेशान रहने लगा.

उस ने सना को बहुत समझाया, ‘‘हमारे छोटेछोटे मासूम बच्चे हैं. क्यों ऐसा कर रही हो?’’ पर वह टस से मस न हुई और अपनी बात पर अड़ी रही. एक दिन मौका पा कर सना ने अहराज की तिजोरी से तकरीबन  30 लाख रुपए निकाल लिए. अब उस के अंदर का शैतान जाग चुका था.

उस पर मौडलिंग करने का भूत सवार हो  गया था. अहराज को जब इस का पता चला तो उस ने अपने पैसे के बारे में पूछा, पर सना ने कोई जवाब नहीं दिया. तकरीबन एक साल तक ऐसा ही चलता रहा. सना अपनी मनमानी करती रही. वह अपने मासूम बच्चों को छोड़ कर कईकई घंटे घर से गायब रहने लगी. जब अहराज  उस से कुछ पूछता तो वह उलटा ही जवाब देती.

अहराज ने इस बात का जिक्र  अपने साले और ससुर से किया और कहा कि सना की अम्मी को घर वापस बुला लो. उन्होंने पूरी बात सुन कर सना की अम्मी पर जोर दिया तो उन्होंने पहले तो आनाकानी की, पर जब उन के बेटे ने मुंबई आने की धमकी दी, तो उन्होंने अहराज से अपना ट्रेन का टिकट खरीदने के लिए कहा. अहराज ने अगले ही दिन उन का तत्काल में टिकट खरीदा और उन्हें बांद्रा स्टेशन छोड़ने चला गया.

जब वह वापस आया तो सना ने उस से बहुत लड़ाई की. जैसेतैसे 10 दिन गुजर गए. सना की अम्मी अपने घर नहीं पहुंचीं. सब लोग परेशान थे. सना सब से यही बोल रही थी कि अहराज ने उन्हें मार दिया है, पर अहराज बेखौफ हो कर बोला, ‘‘स्टेशन पर सीसीटीवी कैमरे लगे होते हैं. उन में चैक करो कि मैं उन्हें ट्रेन में बैठा कर वापस आया था या नहीं.’’ इस पर सना चुप हो गई.

अगले दिन अहराज के पास किसी लड़की का फोन आया, ‘तुम्हारी अम्मी ने रूम किराए पर लिया था. तुम्हारी बीवी भी आई थी. उस का नाम सना है. हम पक्का करना चाहते हैं कि ये तुम्हारी अम्मी ही हैं और ये देर रात तक गायब क्यों रहती हैं?’

अहराज समझ गया कि ये उस की सास हैं, जिन्हें सना ने अपनी सास बता कर रूम दिलाया होगा.  अहराज ने उस लड़की से पूछा, ‘‘मेरा फोन नंबर तुम्हें कहां से मिला?’’ वह लड़की बोली, ‘आधारकार्ड की फोटोकौपी से.’ ‘‘वह रूम कहां है और आप कहां से बोल रही हैं?’’ ‘‘मैं बांद्रा से बोल रही हूं.’’ अहराज ने यह बात सना को बता दी.

इस के बाद वह अहराज से लड़ने लगी और अपने चारों बच्चों को छोड़ कर चली गई. पहले तो अहराज ने सोचा कि सना थोड़ी देर में वापस आ जाएगी, पर उस की यह भूल थी. अगले दिन वह पुलिस स्टेशन गया और सारी बात बताई. काफी दिन के बाद पुलिस की सना से फोन पर बात हो पाई.

उसे पुलिस स्टेशन बुलाया गया. वह आई भी.  पुलिस ने उसे बहुत समझाया, पर वह नहीं मानी और बोली, ‘‘मैं ने अपने पति अहराज पर दहेज लेने और मारपीट करने का केस दायर कर दिया है.’’ वक्त गुजरता रहा.

इस घटना को  6 महीने हो गए. अहराज बच्चों को अपने गांव ले गया और कुछ महीने वहीं रहा. बच्चे छोटे थे और उन की पढ़ाई के साथसाथ उन का बचपन भी बिखर चुका था. इस तरह एक मां ऐसी भी निकली, जिस ने अपनी बेटी की जिंदगी तो बरबाद की ही, साथ ही उसे भी अपने जैसी गैरजिम्मेदार मां बना दिया.

बिगड़ैल बेटे को खुद सुधारें

लड़का चाहे कितना ही नकारा, निकम्मा और गैरजिम्मेदार क्यों न हो, उस की शादी एक सुशील और संस्कारी लड़की से करने की खोज शुरू हो जाती है, जो शादी के बाद उसे सुधार दे.

जरा सोचिए, जिस लड़के को 25-30 साल की उम्र तक उस के मातापिता नहीं सुधार पाए, उसे एक ऐसी लड़की कैसे सुधार सकती है, जो उसे जानती तक नहीं?

शादी सुधारगृह नहीं है आज भी हमारे समाज में अगर कोई लड़का गैरजिम्मेदार सोच का होता है, तो उस के लिए एक ही बात कही जाती है कि इस की शादी कर दो, सुधर जाएगा.

समाज का शादी को सुधारगृह के नजरिए से देखने के चलते एक लड़की को कई चुनौतियों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है, जिस का बुरा नतीजा शादी का टूटना, कानूनी लड़ाई झगड़े के कदम के रूप में सामने आता है, जो बाद में पूरे परिवार के पछतावे की वजह बनता है.

आजकल जिस तरह से बेटियों का पालनपोषण किया जा रहा है, उन में कुछ भी गलत सहन करने की समझ नहीं है. वैसे भी यह कैसी सोच है कि अगर लड़का नशा करता है, कुछ काम नहीं करता है, तो उसे सुधारने के लिए उस की शादी करवा दो?

ओछी सोच की वजह

ऐसे लोग अपनी सोच और इस फैसले के नतीजे से अनजान होते हैं और आने वाली लड़की की जिंदगी के बारे में नहीं सोचते. क्या बहू बन कर आने वाली बेटी नहीं होती? जिस बिगड़े लड़के को सुधरना होता है, उस के लिए मांबाप, रिश्तेदार और पड़ोसियों के ताने बहुत होते हैं. उसे किसी अच्छीखासी लड़की के साथ शादी के बंधन में बांध कर उस के सुधरने की उम्मीद करना बेकार सोच और गलत फैसला है.

एक हकीकत

कीर्ति (बदला हुआ नाम) की शादी को एक साल हुआ है. पति राजीव के मातापिता जानते थे कि उन का बेटा बिगड़ा हुआ है. वह शादी से पहले भी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ रहा था और गलत संगत में था, फिर भी उस के मातापिता ने यह सोच कर कीर्ति से उस की  शादी करवा दी कि घरपरिवार की जिम्मेदारियां पड़ेंगीं, तो वह सुधर जाएगा. पत्नी सुधार देगी.

लेकिन जैसेजैसे कीर्ति के सामने राजीव की सचाई सामने आने लगी, कीर्ति ने राजीव और उस के परिवार को उन के गलत फैसले का मजा चखाने और अपनी आगे की जिंदगी सुधारने का फैसला किया. उस ने पति और ससुराल वालों के खिलाफ सारे सुबूत इकट्ठा किए और कोर्ट में केस दायर कर दिया. अब पूरा परिवार जेल की हवा खा रहा है.

यह रखें ध्यान

‘शादी के बाद लड़का सुधर जाएगा’ यह जुमला कह कर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला ?ाड़ लेने वाले मांबाप के चलते लड़कियों की तकलीफें बढ़ जाती हैं. शादी के बाद ऐसी लड़कियों पर पैसे कमाने का दबाव बढ़ जाता है. बच्चे के जन्म के बाद तो समस्याएं और भी बढ़ जाती हैं.

बेटा आप का है, तो उसे सुधारने की जिम्मेदारी भी आप की है. लड़के के मांबाप को बचपन से बेटे को सही आदतें और संस्कार सिखाने चाहिए. महिलाओं की इज्जत करना सिखाना चाहिए. जब तक आप का बेटा कमाता नहीं, तब तक उस की शादी न करें. पहले बेटे को इस लायक बनाएं कि वह शादी की जिम्मेदारी उठा सके, उस के बाद ही उस के रिश्ते की बात शुरू करें.

बहू से उम्मीद क्यों

यह क्या बात हुई कि बेटा आप का बिगड़ा हुआ है, लेकिन उस की शादी कर के आप एक ऐसी लड़की की जिंदगी खराब कर रहे हैं, जिस की कोई गलती नहीं है. वह कैसे उसे जिंदगीभर बरदाश्त करेगी? इसलिए बिगड़े बेटे को सुधारने की अपनी समस्या भूल कर भी आने वाली लड़की के सिर पर न डालें, इस का खमियाजा सास के साथ पूरे परिवार को भुगतना पड़ सकता है. पूरा परिवार फंस सकता है, जेल जा सकता है.

किसी भी लड़की को बिगड़ी औलाद को सुधारने की मशीन सम?ाना सरासर गलत है. लड़के के मांबाप को यह सोचना चाहिए कि अगर उस लड़की की जगह उन की खुद की बेटी होती, तो क्या वे ऐसे बिगड़े लड़के से उस की शादी करते?

हर लड़की के शादी को ले कर कुछ अरमान होते हैं. वह भी शादी के बाद अपनी जिंदगी खुशहाली से बिताना चाहती है, लेकिन जब किसी बिगड़ैल लड़के के साथ वह शादी के बंधन में बंध जाती है, तो उस के सारे सपने चकनाचूर हो जाते हैं. जब वह बदला लेने पर आती है, तो सब की जिंदगी दूभर हो जाती है.

अगर लड़के में कोई काबिलीयत नहीं है कि वह अपना घर चला सके, तो उस की शादी करने का खयाल भी न करें. अगर लड़की के मांबाप भी बिगड़ैल लड़कों से बेटी की शादी इस सोच के साथ करते हैं कि वह बाद में सुधर जाएगा, तो वे भी कम कुसूरवार नहीं होते हैं.

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