Saat Kadam Review: Ronit Roy ने फैंस का जीता दिल

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माता: वियना मीडिया वर्क्स प्रा.लि.

लेखक व निर्देशक: के मोहित कुमार झा

कलाकारः अमित साध,रोनित रौय, दीक्षा सेठ, रोहिणी बनर्जी, शिल्पी रौय, अशोक सिंह, देवाशीष चौधरी, रीता चक्रवर्ती, करमवीर सिंह, विदिशा घोष व अन्य.

अवधिः चार एपीसोड, कुल अवधि दो घंटे दो मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म : Eros Now

फुटबाल खेल के जुनून की पृष्ठ भूमि में पिता पुत्र के रिश्तों की भावना प्रधान व मार्मिक कहानी को वेबसीरीज ‘‘सात कदम’’में लेकर आए हैं लेखक व निर्देशक के मोहित कुमार झा,जिसे eros now पर देखा जा सकता है. इसमें पारिवारिक रिश्तों को भी खूबसूरत चित्रण है. यह फुटबॉल पिच पर लिखी अनसुलझे रिश्तों की ऐसी दास्तान हैं, जिसमें एक पिता का सपना अपने बेटे को एक पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी बनाना है तो वहीं बेटा अधिक से अधिक पैसा कमाने की ख्वाहिश रखता है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में अरविंदो पाल (रोनित रौय) और उनका बेटा रवि पाल (अमित साध) है. अरविंदो को फुटबाल के खेल का जुनून है. वह बेहतरीन फुटबाल खिलाड़ी रह चुके हैं. अचानक तांग टूट जाने के कारण राष्ट्रीय टीम के लिए खेलने का उनका सपना अधूरा रह जाता है. अब वह इस सपने को अपने बेटे रवि के माध्यम से पूरा होते हुए देखना चाहते हैं. अरविंदो की पत्नी रश्मि (रोहिण बनर्जी ) को फुटबाल पसंद नहीं पर अरविंदो छिपकर रवि को फुटबाल की ट्रेनिंग देते रहते हैं. वह अच्छा खिलाड़ी बन चुका है. इस बात से रवि की बहने सलोनी (निहारिका रौय) व सपना (शिल्पी रौय) भी अनजान हैं. उधर सपना का रोमांस साहिल (देवाशीष चौधरी ) संग चल रहा है. जबकि रवि की प्रेमिका किरण बनर्जी (दीक्षा सेठ) है. एक दिन ‘आसनसोल ग्यारह’की फुटबाल टीम के मालिक प्रकाश अग्रवाल (करमबीर सिंह), अरविंदो के घर पहुंचकर अरविंदो को अपनी टीम का कोच बनने का आफर देते हैं. तभी घर में सभी के सामने राज खुलता है कि रवि अच्छा फुटबाल खिलाड़ी है और वह ‘आसनसोल ग्यारह’ की टीम का हिस्सा है. अब अरविंदो इस टीम के कोच बन जाते हैं. अरविंदो चाहते है कि रवि राष्ट्रीय टीम के लिए खेले. पर अचानक कहानी में मोड़ आता है, जब कल कत्ता बागान के मालिक बाबुल बनर्जी (अशोक सिंह) अपनी टीम से रवि को जोड़कर अरविंदो से पुराना बदला लेने का निर्णय लेते हैं. इसके चलते कहानी में कई मोड़ आते हैं.

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लेखन व निर्देशनः

कहानी बहुत ही बेहतरीन है. खेल के जुनून के साथ ही बाप बेटे के रिश्तों की कशमकश और आर्दशों के टकराव का खूबसूरत चित्रण करने में लेखक व निर्देशक कामयाब रहे हैं. मगर पटकथा को थोड़ा कसा जाना चाहिए  था. कई दृश्य काफी इमोशनल हैं. फिल्म का एक संवाद ‘‘गुस्सा और अहंकार के कारण क्या पाया और क्या खो दिया’’ हर इंसान को सोचने पर मजबूर करने वाला है. यह वेब सीरीज एक बेहतरीन संदेश देती है कि आपका लक्ष्य आपके द्वारा चुने गए कुछ कदमों की ही दूरी पर है. पूरी वेब सीरीज मे खेल व भावनाओं के बीच बेहतरीन संतुलन स्थापित किया गया है. निर्देशक मोहित झा कोलकाता शहर के सार को भी बेहतरीन तरीके से इसमें पिरोया है. इसके लिए उन्होने हिंदी के साथ कुछ बंगाली संवाद भी रखे हैं.

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अभिनयः

सपने के टूटने के बाद बिखरने के बावजूद विश्वास न खोने वाले आरविंदो के किरदार में रोनित रौय ने शानदार अभिनय किया है. पिता के सपनों को पूरा करने,पिता पुत्र के आदर्श को निभाने और ढेर सारा पैसा कमाने की कशकमश से घिरे युवक रवि के किरदार में अमित साध ने  खुद को  बेहतरीन अभिनेता साबित किया है. किरण बनर्जी के किरदार में दीक्षा सेठ का भोला प्रदर्शन  का ध्यान खींच ही लेता है. बहनों के किरदार में निहारिका रौय और शिल्पी रौय दोनों ठीक जमे हैं. अन्य कलाकार भी अपनी जगह सही हैं.

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बौलीवुड में मराठी एक्टर्स के साथ होता है भेदभाव – स्मिता तांबे

यह हास्य व्यंग प्रधान वेब सीरीज लोगों के घरों के अंदर काम करने वाली बाई की कहानी है,जो सोशल मीडिया पर स्टार बन जाती है.इसमें स्मिता तांबे ने शीला का मुख्य किरदार निभाया है. स्मिता तांबे का मानना है कि मराठी भाषीयों को अंडरस्टीमेट नहीं किया जाना चाहिए.

स्मिता तांबे ने 2009 में मराठी भाषा की फिल्म ‘‘जोगवा’’में अभिनय किया था और इसके लिए उन्हे अर्वाड मिल गया था.उसके बाद से स्मिता तांबे ने ‘देवूल’, ‘तुकाराम’,‘72 माइल्सः एक प्रवास’,‘महागुरू’, ‘बायोस्कोप’, ‘गणवेश’जैसी कुछ सफल मराठी भाषी फिल्मों,अंतरराष्ट्रिय स्तर पर प्रशंसित अंग्रेजी भाषा की फिल्म ‘‘उमरीका’’के अलावा ‘‘सिंघम रिटर्न’’,‘‘अजी’’, ‘‘रूख’’, ‘‘नूर’’ व ‘‘डबल गेम’’ जैसी हिंदी फिल्में कर चुकी हैं.इन दिनों वह एक मराठी भाषा की फिल्म ‘‘सावत’का निर्माण व उसमें अभिनय कर रही हैं.

स्मिता तांबे को मराठी फिल्मों में स्टार माना जाता है.स्मिता तांबे ने मराठी फिल्मों में बतौर हीरोईन  कई स्ट्रांग किरदार निभाए हैं. मगर हिंदी फिल्मों में उन्हे हमेशा छोटे किरदारों से ही संतुष्ट होना पड़ा है.सिर्फ स्मिता तांबे ही नहीं लगभग हर मराठी भाषी कलाकार के साथ ऐसा होता आया है.

हाल ही में ‘‘माई नेम इज शीला’’के प्रमोशन के दौरान जब  स्मिता तांबे से हमारी एक्सक्लूसिब बातचीत हुई,तो हमने उनसे हिंदी फिल्मों में महाराष्ट्यिन कलाकारों के संग भेदभाव को लेकर सवाल किया,जिसका उन्होने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया.

प्रस्तुत है स्मिता तांबे के संग हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश…

सवाल: आपको पहली बार कब लगा कि अभिनय के क्षेत्र में आगे बढ़ा जाना चाहिए?

-यूं तो में कौलेज दिनो से ही नाटकों में अभिनय करती आयी हूं. मैंने कईमराठी के टीवी सीरियल भी किए. फिर मैंने 2009 में मराठी फिल्म‘‘जोगवा’’ की, जिसके लिए पुरस्कार भी मिला.इस फिल्म के सेट पर मुझे अहसास हुआ कि यह ऐसा माध्यम है,जो सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं,बल्कि एक साधना है.इस फिल्म में अभिनय करते हुए अभिनय तथा फिल्म माध्यम को देखने का मेरा नजरिया ही बदल गया.अब तक मैं बीस से अधिक फिल्में कर चुकी हूं. इन दिनों तीन मराठी फिल्में,‘पंगा’जैसी हिंदी फिल्म के अलावा हिंदी की तीन वेब सीरीज कर रही हूं.

सवाल: सिर्फ आप ही नहीं किसी भी मराठी भाषी कलाकार को हिंदी फिल्मों में वह सफलता नहीं मिल रही है,जो मिलनी चाहिए.इसकी क्या वजह आपकी समझ में आ रही है?

-मुझे ऐसा लगता है कि अब धीरे धीरे यह परिदृश्य बदल रहा है.यदि आप पूरी समाज व्यवस्था देख लो,यदि कोई गुजराती या दक्षिण भारतीय मुंबई आता है,तो मुंबई में रह रहे मध्यम व निम्न मध्यम वर्गीय महाराष्ट्यिन परिवार की औरतें उनके यहां मेड बर्तन मांजने या कपड़े धोने का काम करने वाली बाई बनकर रह जाती हैं.जबकि यहॉं के जो निवासी हैं, सामाजिक व आर्थिक स्थितियां बदलने के साथ ही वह धीरे धीरे मुंबई से दूर टिटवाला या अंबरनाथ जैसे उपनगरों में जाकर रहने को मजबूर हो गए.तो मराठी कलाकारों के लिए हिंदी फिल्मों में उसी तरह के किरदार लिखे गए. मराठी भाषी कलाकार मेहनती हैं .हमारी फिल्म इंडस्ट्री बहुत बड़ी है.मराठी फिल्मों में स्टार बनने के बावजूद उन्हे हिंदी फिल्मों में काम करने के लिए शून्य से शुरूआत करनी होती है.और उस वक्त उन्हें हिंदी फिल्मों में बड़े किरदार दिए नहीं जाते.

आप यदि मेरे करियर का ग्राफ देखोगे,मैने जिस तरह से विविध प्रकार के स्ट्ंाग किरदार मराठी फिल्मों में निभाए हैं,मैने कई मराठी फिल्मों में अमन प्रोटोगौनिस्ट के किरदार निभाए हैं.यदि आप मेरा वह अनुभव जोडे़गे,तो मुझे हिंदी फिल्मों में किसी अन्य उंचे मुकाम पर होना चाहिए था.तो अब मुझे यह याद रखना पड़ेगा कि जब हम हिंदी फिल्मों में काम करें, तो मराठी फिल्मों में मिली सफलता व शोहरत का बोझ लेकर न आएं.

हिंदी में मेरी एक अलग यात्रा है.और मुझे लग रहा है कि दुनिया छोटी होती जा रही है.बंगला या दक्षिण की किसी भी भाषा की हीरोईन को अब हिंदी की वेब सीरीज में याद किया जा रहा है. इससे अब पूरा परिदृश्य बदलेगा. अब मैं भी हिंदी की इस वेब सीरीज ‘‘माई नेम इज शीला’’में मेन किरदार निभा रही हूं. मुझे अलग अलग भाषाओं में काम करना है और मुझे यकीन है कि मुझे ऐसा अवसर अवश्य मिलेगा.इसके अलावा हर कलाकार को किरदारों का चयन करते समय काफी सतर्क रहना होगा.यह उनकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी बनती है. मैं अपना कंफर्ट जोन तोड़कर काम कर रही हूं. मेरी राय में बिना कंफर्ट जोन तोड़े आप आगे नहीं बढ़ सकते.

सवाल: आपको नहीं लगता कि मराठी में स्टार होने के बावजूद हिंदी के विशाल दर्शक वर्ग तक पहुंचने के लालच में हिंदी फिल्मों में जो भी काम मिल जाए,कलाकार कर लेता है?

-ऐसा होता है.मगर ‘कुछ भी मिल जाए,कर लो’की सोच बहुत घातक है.आप जो भी कर रहे हैं,उसको लेकर आपका कलाकार के तौर पर कंविंस होना जरुरी है.मसलन-‘माई नेम इज शीला’कर रही हूं ,तो क्यों कर रही हूं,यह सोचा है.मुझे पता है कि मैं क्या कर रही हूं. पर हमें नहीं पता होता कि किस वक्त किसकी क्या जरुरत है.उसके अपने हालात क्या हैं? मेरे लिए एक सवाल यह भी है कि यह किसने तय किया है कि यही मेरा पायदान है?यह हमने ही बनाया है,किसी अन्य ने नहीं. मुझे ऐसा खुद स्मिता को अपने अंदर झॉंक कर ऐसा लग रहा है कि मैं अपना कंफर्ट जोन तोड़कर बाहर निकल रही हूं. मुझे मेरा चेहरा दिखता है.मुझे लगता है कि अब कलाकार के तौर पर मैं यह किरदार करना चाहती हूं. यह एक्सरसाइज करना चाहती हूं.

सवाल: क्या सामाजिक राजनैतिक स्थितियों के ही चलते महाराष्ट्नि किसी बड़े ओहदे तक नहीं पहुंच पा रहे हैं?

-ऐसा न कहें.बड़े बड़े ओहदे पर मराठी लोग हैं.पुलिस विभाग हो या ब्यूरोके्रट्स हों, हर जगह मराठी भाषीयों की उपस्थिति अच्छी है. ओलंपिक में साझी को देख लो.पोलीटीशियन को देख लें.मराठी लोग कई जगहों पर बहुत अच्छा काम कर रहे हैं.

सवाल: महाराष्ट्नि दादर व गिरगांव जैसे दक्षिण मुंबई इलाके से निकलकर मुंबई के आउट स्कर्ट टिटवाला या विरार की तरफ बढ़ गए.इसकी वजहें क्या रहीं?

-इसकी वजह सामाजिक उथलपुथल रहीं.पहले कपड़े की मिले मुंबई सेंट्ल से दादर के बीच में थी.इन मिलों के बंद होने से करीबन तीस हजार मिल मजदूर बेरोजगार हो गए.उसके बाद दादर जैसे इलाके में खुद को सर्वाइव करना मुश्किल हो गया.इसलिए इन्हे आउट स्कर्ट में जाना पडा.

मगर उसी वक्त में विजय तेंदुलकर जैसे लेखक भी आगे बढ़े. इनके नाटकों को लोगों  ने सबसे ज्यादा पसंद किया.कई मराठी लेखक पैदा हुए. इनके जिंदा होने की वजह से ही मराठी थिएटर जिंदा है.मराठी थिएटर का मुकाबला किसी भी भाषा का थिएटर नहीं कर सकता. मेरा मानना है कि मराठी भाषीयों को अंडरस्टीमेट नहीं किया जाना चाहिए.

शान्तिस्वरुप त्रिपाठी

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