क्रिकेट का बुखार, चुनाव का खुमार

इस बार के 4 महीने मार्च, अप्रैल, मई और जून लोकसभा चुनाव बनाम आईपीएल क्रिकेट टूर्नामैंट के होंगे. लोकसभा में देश के अंदर की पार्टियां आमनेसामने होंगी, जबकि आईपीएल में देशीविदेशी खिलाड़ी दोदो हाथ करेंगे.

लोकसभा चुनाव में नौजवान वोटर यानी 18 साल से 29 साल की उम्र वाले केवल वोटिंग करेंगे, उम्रदराज नेता अहम रोल में होंगे, जबकि अपने बल्ले और गेंद से आईपीएल में धुआंधार प्रदर्शन करने वाले नौजवान खिलाड़ी होंगे. यहां उम्रदराज केवल इंतजाम को ठीक करने में लगे होंगे.

लोकसभा के चुनावों में अहम रोल राष्ट्रवाद और धर्म का रहेगा, जबकि आईपीएल में धर्म और देश की सीमा से बाहर निकल कर खिलाड़ी अपनी खेलभावना का प्रदर्शन करेंगे. चुनाव में धांधली और अपराध की घटनाएं भी होंगी, जिन को रोकने के लिए चुनाव आयोग इंतजाम करेगा.

आईपीएल में सिक्योरिटी और यातायात का इंतजाम करना ही पुलिस का काम होगा. लोकसभा चुनाव के चलते आईपीएल के कुछ मैचों का कार्यक्रम बदल सकता है.

80 दिन होंगे चुनाव के नाम 80 दिनों के लिए लोकसभा चुनाव 2024 की तारीखों का ऐलान हो गया है. लोकसभा की 543 सीटों के लिए

7 चरणों में चुनाव होंगे. पहले चरण की वोटिंग 19 अप्रैल को और आखिरी चरण की वोटिंग 1 जून को होगी. 4 जून को चुनाव के नतीजे आएंगे.

लोकसभा के साथ 4 राज्यों आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के विधानसभा चुनाव भी इसी समय होंगे. ओडिशा में 13 मई, 20 मई, 25 मई और 1 जून को वोटिंग होगी. अरुणाचल और सिक्किम में 19 अप्रैल, आंध्र प्रदेश में 13 मई को वोट पड़ेंगे.

लोकसभा सीटों की तादाद 543 से बढ़ कर 544 सीटें हो गई हैं. इस की वजह मणिपुर की आउटर मणिपुर लोकसभा सीट है. मणिपुर में 2 लोकसभा सीटें इनर मणिपुर और आउटर मणिपुर हैं. इनर मणिपुर में 19 अप्रैल को और आउटर मणिपुर में 19 अप्रैल और 26 अप्रैल को चुनाव होंगे.

इस से पहले साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ था, इसलिए लोकसभा सीटों की संख्या 543 से बढ़ कर 544 हो गई है.

चुनावों के इस दौर में कई राज्यों में उपचुनाव भी होंगे. इन में गुजरात की 5, उत्तर प्रदेश की 4, हरियाणा, बिहार, ?ारखंड, महाराष्ट्र, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु की 1-1 विधानसभा सीट पर उपचुनाव होगा.

चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव को ठीक तरह से निबटाने का पूरा इंतजाम किया है. उसे कई मोरचों पर काम करना पड़ेगा. चुनाव के दौरान बीते 11 सालों में 3,400 करोड़ रुपए के कैश मूवमैंट को रोका गया था. कुछ राज्यों में हिंसा ज्यादा है, कुछ में धनबल ज्यादा है, किसी में भौगोलिक समस्या है. चुनाव आयोग को इन सब समस्याओं से निबटना है.

चुनाव आयोग करेगा निगरानी

निगरानी के लिए हर जिले में कंट्रोलरूम है. टैलीविजन, सोशल मीडिया, वैबकास्टिंग, 1950 और सीविजिल एप पर शिकायत का इंतजाम किया गया है. एक सीनियर अफसर हमेशा इन 5 चीजों पर नजर रखेगा. जहां शिकायत मिलेगी, वहां सख्त कार्यवाही की जाएगी.

सभी अफसरों को निर्देश दिए गए हैं कि हिंसा न होने दें. नौनबेलेबल वारंट को पुलिस ऐक्जिक्यूट कर रही है. इंटरनैशनल, इंटरस्टेट बौर्डर पर कड़ी नजर रखी जा रही है और ड्रोन से चैकिंग की जा रही है.

चुनाव आयोग ने इंतजाम किया है कि शिकायत मिलते ही 100 मिनट में टीम पहुंच जाएगी. इस के लिए सीविजिल एप में किसी को शिकायत करनी है, कहीं पैसा या गिफ्ट बांटा जा रहा है, तो बस फोटो खींच कर चुनाव आयोग को भेजना भर है. इस से लोकेशन ट्रेस हो जाएगी और 100 मिनट के भीतर टीम भेज कर चुनाव आयोग शिकायत का हल करेगा.

चुनाव आयोग ने खास इंतजाम किया है कि अपने उम्मीदवार के बारे में भी वोटर मोबाइल पर देख सकते हैं. जिस का क्रिमिनल रिकौर्ड है, उसे अखबार, टैलीविजन में 3 बार सूचना देनी पड़ेगी. पौलिटिकल पार्टी को बताना होगा कि उसे दूसरा कैंडिडेट क्यों नहीं मिला.

85 साल से ज्यादा उम्र वाले जितने वोटर हैं और जो दिव्यांग वोटर हैं, उन के वोट घर में जा कर लिए जाएंगे. नौमिनेशन से पहले उन के घर फार्म पहुंचा जाएंगे. इस बार पूरे देश में यह इंतजाम एकसाथ लागू किया जा रहा है.

पुरुषों से ज्यादा महिला वोटर 12 राज्यों में 1,000 से ऊपर महिला पुरुष का अनुपात है. यहां महिला वोटरों की संख्या पुरुषों से ज्यादा है. 1.89 करोड़ नए वोटरों में से 85 लाख महिलाएं हैं. जिस किसी की उम्र

1 जनवरी, 2024 को 18 साल नहीं हुई थी, उस का भी नाम एडवांस लिस्ट में लिया गया है. 13.4 लाख एडवांस एप्लीकेशन आई हैं. 5 लाख से ज्यादा लोग 1 अप्रैल से पहले वोटर बन जाएंगे.

1.82 करोड़ वोटर पहली बार वोट डालेंगे. कुल 96.8 करोड़ वोटर हैं.

49.7 करोड़ पुरुष, 47 करोड़ महिला वोटर हैं. 18-29 साल के 19.74 करोड़ वोटर हैं. 88.4 लाख लोग दिव्यांग हैं.

82 लाख लोग 85 साल से ऊपर हैं. 2.18 लाख लोग 100 साल से ज्यादा उम्र के हैं और 48,000 ट्रांसजैंडर हैं.

वोटिंग के सही इंतजाम के लिए 10.5 लाख पोलिंग स्टेशन, 1.5 करोड़ पोलिंग अफसर, 55 लाख ईवीएम, 4 लाख गाडि़यों का इंतजाम किया गया है.

आईपीएल बढ़ाएगा रोमांच

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई ने आईपीएल 2024 के मैचों का शैड्यूल जारी कर दिया है. आईपीएल 2024 भी आईपीएल के 2023 सीजन की तरह होगा और इस में 74 मैच खेले जाएंगे. पिछली बार

60 दिन तक आईपीएल चला था, लेकिन इस बार का आईपीएल 67 दिनों तक चल सकता है.

साल 2019 में जब देश में लोकसभा चुनाव हुए थे, तब भी इसी तरह का कार्यक्रम बनाया गया था. आईपीएल फाइनल 26 मई को खेले जाने की उम्मीद है. वोटों की गिनती 4 जून को होगी. इस तरह से लोकसभा चुनाव और आईपीएल करीबकरीब साथ चलेंगे.

रैलियों में भीड़ बढ़ाने में दलितपिछड़ों का इस्तेमाल

मध्य प्रदेश में उज्जैन जिले की बड़नगर विधानसभा क्षेत्र में इन दिनों कांग्रेस उम्मीदवार मुरली मोरवाल की नामांकन रैली का एक वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है, जिस में कुछ नाबालिग बच्चे हाथों में कांग्रेस का झंडा ले कर ‘मुरली मोरवाल जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे हैं और यह भी कह रहे हैं कि हमें झाबुआ, पेटलावद से इस रैली में लाया गया है और रैली में आने के लिए हमें 500-500 रुपए भी दिए गए हैं.

इस पूरे मामले पर मुरली मोरवाल का कहना था कि उन पर जो आरोप लगाए गए हैं, वे सरासर गलत हैं. विधानसभा क्षेत्र में उन के कई व्यापार हैं. ईंटभट्ठे और कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में सैकड़ो लोग उन से जुड़े हुए हैं. इन लोगों को जब पता चला कि उन के सेठ को कांग्रेस पार्टी ने टिकट दिया है तो वे सभी लोग परिवार समेत नामांकन रैली में शामिल हुए थे. झाबुआ, पेटलावद से लोगों को पैसे दे कर बुलाने की बात झूठी है. जो भी ऐसी बात कर रहे हैं, वे गलत कह रहे हैं.

इसी साल जुलाई महीने में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में एक बस का भीषण ऐक्सीडैंट हो गया है. तेज रफ्तार बस ने हाईवे में खड़े हाइवा ट्रक को पीछे से जोरदार टक्कर मार दी थी, जिस में बस सवार 3 लोगों की मौके पर मौत हो गई थी. वहीं, 6 से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे.

जानकारी के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली में शामिल होने के लिए बस सवार यात्री अंबिकापुर से रायपुर जा रहे थे. यह सड़क हादसा तड़के हुआ, जब बस अंबिकापुर से रवाना बेलतरा पहुंची थी. इसी दौरान बेलतरा के पास हाईवे पर खड़े हाइवा को तेज रफ्तार बस ने पीछे से जोरदार टक्कर मार दी थी.

अब एक बहुत बड़ी खबर का रुख करते हैं. नवंबर महीने में होने वाले विधानसभा चुनावों में एससीएसटी जातियों को अपने पक्ष में लुभाने के लिए 24 फरवरी, 2023 को मध्य प्रदेश के सतना में कोल जाति का महाकुंभ आयोजित किया गया, जिस में शामिल होने के लिए सीधी और सिंगरौली जिले से बसों में सवार हो कर कोल समाज के लोग शामिल हुए थे.

इस महाकुंभ में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह आए हुए थे. उस दिन शाम को तकरीबन 5 बजे इस रैली के खत्म होने के बाद सभी लोग बसों में सवार हो कर सीधीसिंगरौली अपने घर जा रहे थे.

रास्ते में 2 बसें रात के तकरीबन 9 बजे मोहनिया टनल से 300 मीटर दूर बडखरा गांव के पास रुकीं. वहां सवारियों के लिए चायनाश्ते का इंतजाम किया गया था.

कोल समाज के लोगों को बसों में जब नाश्ते के पैकेट दिए जा रहे थे, तभी रीवा की ओर से आ रहे एक तेज रफ्तार ट्रक ने एक बस को पीछे से टक्कर मार दी. टक्कर इतनी तेज थी कि आगे वाली बस बीच सड़क पर पलट गई, जबकि जिस बस में टक्कर लगी थी, वह डिवाइडर से टकरा कर बीच सड़क पर आ गई.

उसी दौरान सीधी की ओर से आ रही एक और बस भी टकरा कर पलट गई. जबकि, ट्रक टक्कर मारते हुए नीचे गिर कर पलट गया. इस हादसे में 15 लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए.

अमित शाह के सामने अपनी ताकत दिखाने के लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जिस कोल महाकुंभ का आयोजन सतना में किया था, उस में शामिल हुए ये एससीएसटी तबके के लोग चायनाश्ता, भोजनपानी और एक दिन की मजदूरी के बदले बड़ीबड़ी बसों में भर कर लाए गए थे. रैली में भीड़ जुटाने के लिए सरकारी अफसरों और मुलाजिमों की भी ड्यूटी लगाई गई थी.

बताया जाता है कि इस रैली में 10 स्कूल मास्टर और 7 पटवारी भी घायल हुए थे. इन‌ मास्टरों और पटवारियों की ड्यूटी अमित शाह की रैली में भीड़ जुटाने के लिए लगाई गई थी.

रैली में भीड़ जुटाने की यह घटना न‌ई नहीं है. जब भी कहीं किसी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल की रैली होती है, सरकारी मुलाजिमों की ड्यूटी इस तरह के कार्यक्रम में लगाई जाती है. वे अपना कामकाज छोड़ कर नेताओं की रैली में भीड़ जुटाने का काम करते हैं. कायदेकानून की अनदेखी कर के एक जिले से दूसरे जिले में बसों को बिना परमिट भेजा जाता है.

इन रैलियों में सब से ज्यादा एससीओबीसी तबके के लोगों का इस्तेमाल किया जाता है. इन जातियों का बड़ा तबका अभी भी रोजीरोटी के‌ लिए जद्दोजेहद करता है. अपने परिवार का पेट पालने के लिए रोज कड़ी मेहनत करता है, तभी उन के घरों का चूल्हा जलता है.

यही वजह है कि जब राजनीतिक दलों के लोग उन्हें दिनभर की मजदूरी और खानेपीने का लालच देते हैं, तो वे यह सोच कर आसानी से तैयार हो जाते हैं कि एक दिन की मजदूरी भी मिल जाएगी.

रैलियों की भीड़ जीत का पैमाना नहीं

राजनीतिक दलों की रैलियों में जुट रही भीड़ से इस बात का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि वोटर का रुख किस के पक्ष में है. क‌ई बार वोटर सभी दलों की रैलियों में बतौर मेहनताना शामिल होता है.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव के समय भी जब प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस की कमान संभाली थी, तब उन की रैलियों में काफी भीड़ जुटती थी. इसी तरह से साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भी अखिलेश यादव और राहुल गांधी की रैलियों में भी भीड़ बहुत रहती थी, मगर चुनाव में जीत भारतीय जनता पार्टी की हुई थी. भाजपा ने 300 से ज्यादा सीटें हासिल की थीं.

दलितों की हिमायती मायावती की रैलियों में भी भारी भीड़ उमड़ती थी. बसपा सुप्रीमो मायावती के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि वे एकलौती ऐसी नेता हैं, जिन के लिए मैदान छोटा पड़़ जाता था, इसलिए किसी की रैली में उमड़ी भीड़़ के आधार पर किसी पार्टी या नेता की जीत का दावा नहीं किया जा सकता.

बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में सभी दल वोटरों को लुभाने में लगे थे, रैलियों में भीड़ भी दिखाई दे रही थी, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैरानपरेशान थे, क्योंकि उन की रैलियों से भीड़ न जाने कहां गायब हो गई थी.

रैलियों से नदारद भीड़ को देख कर नीतीश कुमार यह मान चुके थे कि सत्ता उन के हाथ से फिसल कर राष्ट्रीय जनता दल की की झोली में जा रही है, लेकिन जब वोटिंग मशीनों से नतीजे निकले तो राजनीतिक पंडित ही नहीं, बल्कि नीतीश कुमार भी हैरान रह गए थे.

उस समय नीतीश कुमार की जीत में महिला वोटरों ने अहम रोल निभाया था, जो नीतीश सरकार द्वारा प्रदेश में शराबबंदी किए जाने से नीतीश सरकार की मुरीद हो गई थीं. इस के अलावा कानून व्यवस्था में सुधार भी एक अहम मुद्दा था. बिहार में महिला वोटरों को लगता था कि अगर बिहार में राष्ट्रीय जनता दल की सरकार बन जाएगी, तो बिहार में फिर से जंगलराज कायम हो जाएगा.

नरेंद्र मोदी की भीड़ भी नहीं दिला पाई जीत

आज भी देश के ज्यादातर इलाकों में आदिवासी और दलितपिछड़े तबके के लोग कम पढ़ेलिखे हैं, उस की वजह सरकारी योजनाओं का फायदा उन तक नहीं पहुंच पाना है. इसी वजह से आदिवासी और दलितपिछड़ों के वोट बैंक का इस्तेमाल राजनीतिक पार्टियां अपने लिए आसानी से करती रहती है.

साल 2018 के विधानसभा चुनाव के वक्त 24 अप्रैल को मध्य प्रदेश के मंडला जिले में भी एक बड़ी रैली का आयोजन सरकार द्वारा किया गया था, जिस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आए थे.

रमपुरा गांव में रहने वाले आदिवासी वंशीलाल गौड़ बताते हैं कि उन्हें बस द्वारा मंडला ले जाया गया था. रास्ते में खानेपीने के इंतजाम के साथ रैली से लौटने पर 500 रुपए बतौर मेहनताना दिए गए थे. इस रैली में लाखों की तादाद में आदिवासियों को मध्य प्रदेश के ‌क‌ई जिलों से बसों में भर कर लाया गया था.

इस भीड़ को देख कर भाजपा ने यही अंदाजा लगाया जा कि उस की सरकार फिर से बनेगी, लेकिन उस समय कांग्रेस की सरकार बनी और कमलनाथ मुख्यमंत्री बने थे. यह अलग बात है कि 15 महीने बाद भाजपा ने सिंधिया समर्थक विधायकों की खरीदफरोख्त कर फिर से सरकार बना ली थी.

पश्चिम बंगाल में साल 2021 में विधानसभा चुनाव के समय भी यही नजारा देखने को मिला था, जहां भाजपा की रैलियों में जनसैलाब उमड़ रहा था. ऐसा लग रहा था कि ममता बनर्जी की सत्ता से विदाई तय है. भाजपा की रैलियों में जनता की मोदी के प्रति दीवानगी देखने लायक थी.

पश्चिम बंगाल के कोलकाता में ब्रिगेड मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली में उमड़े जनसैलाब की तसवीरों को कौन भूल सकता है, क्योंकि पिछले कुछ दशकों में यहां किसी भी नेता को सुनने के लिए इतने लोगों की भीड़ एकसाथ जमा नहीं हुई थी.

इस मैदान के बारे में यह कहा जाता रहा है कि केवल कम्यूनिस्टों की रैली में ही यह पूरा भर पाता था. तृणमूल की रैली में भी इस मैदान में काफी भीड़ जमा होती थी, पर भाजपा की यहां हुई रैली में जुटी भीड़ माने रखती थी. इस रैली के जरिए भाजपा ने पश्चिम बंगाल में अपनी ताकत को दिखाया था.

भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के लिए 10 लाख लोगों की भीड़़ जुटाने का टारगेट रखा था. इस के लिए भाजपा ने राज्य के हर शहर, हर गांव से कार्यकर्ताओं को कोलकाता पहुंचने का आदेश दिया था.

दरअसल, भारतीय जनता पार्टी के लिए यह रैली पश्चिम बंगाल में इज्जत का सवाल बन गई थी. इसी वजह से भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं ने पश्चिम बंगाल के नेताओं को साफ निर्देश दिया था कि किसी भी कीमत पर इस रैली को कामयाब बनाना है.

मध्य प्रदेश के भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय इस रैली की देखरेख खुद कर रहे थे. उन्हीं के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल के लोकल भाजपा नेताओं ने कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में इतनी बड़ी तादाद में जनसैलाब जुटाया था. लेकिन जब नतीजे आए तो भाजपा चारों खाने चित नजर आई और ममता बनर्जी फिर से मुख्यमंत्री बनीं.

वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले भी साल 2014 और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में रैली की थी, जो भीड़ के हिसाब से ऐतिहासिक थी, पर नतीजों के लिहाज से फेल ही रहीं.

एक दौर था जब लोग नेताओं के भाषण सुनने जाते थे और नेता नुक्कड़ सभाओं के जरीए अपनी बात जनता के बीच रखते थे. किसी दल या नेता की रैलियों में जुटने वाली भीड़ से अंदाजा लगा लिया जाता था कि किस दल का पलड़ा हलका या भारी है.

इस के पीछे की मुख्य वजह यही थी कि तब वोटर अपनी मरजी से अपने चहेते नेताओं के भाषण सुनने और उसे देखने आया करते थे, लेकिन अब समय बदल चुका है. धीरेधीरे भीड़ जुटाने के लिए रणनीति बनने लगीं. लोगों को खानेपीने और पैसे का लालच दे कर रैली की जगह पर बुलाया जाने लगा, इसीलिए कई बार भीड़ में जो चेहरे एक पार्टी के रैली में दिखाई देते थे, वही चेहरे दूसरी पार्टी की रैली में भी दिख जाते हैं. अब भीड़ के बिना नेता भाषण भी देना नहीं चाहता.

पंजाब का वाकिआ लोगों को याद ही होगा जब सभा में भीड़ न जुटने के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सुरक्षा में खामी बता कर वापस लौट आए थे.

हैलीकौप्टर और फिल्मी ऐक्टर देखने उमड़ती है भीड़

चुनावी रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए राजनीतिक दलों के लोग तमाम तरह के हथकंडे अपनाते हैं. गांवकसबों में भी चुनाव के वक्त बड़े नेताओं, फिल्मी ऐक्टरों की रैली और सभाएं होती हैं, जिन में लोग केवल फिल्म ऐक्टर और हैलीकौप्टर को देखने जाते हैं.

साल 2018 के विधानसभा चुनाव में गाडरवारा विधानसभा में भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार करने फिल्म हीरोइन हेमा मालिनी आई थीं, जिन्हें देखने के लिए भारी तादाद में भीड़ जुटी थी, लेकिन यह भीड़ भाजपा उम्मीदवार को जीत नहीं दिला सकी.

चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार की कोशिश रहती है कि उस के प्रचार में कोई स्टार प्रचारक हैलीकौप्टर से आए और उस बहाने बड़ी तादाद में भीड़ जमा हो जाए. पार्टी आलाकमान के कहने पर स्टार प्रचारक हैलीकौप्टर में सवार हो कर दिनभर में 4-5 सभाएं करते हैं, जिन्हें देखने के लिए भीड़ लगती है और पार्टी उम्मीदवार समझता है कि उस की जीत पक्की हो गई है. कई बार तो इस तरह की रैली में भाषण देने आए इन स्टार प्रचारकों को उम्मीदवार का नाम ही पता नहीं रहता है.

रणनीतिकार बाकायदा दावा करते हैं कि अमुक नेता की रैली में इतने लाख की भीड़ जुटेगी और भीड़ जुटती भी है, लेकिन इस में कौन किस पार्टी को वोट देगा, कोई नहीं जानता. अब रैलियों की भीड़ से किसी दल या नेता की लोकप्रियता का अंदाजा लगाना मुश्किल हो गया है.

चुनाव का वक्त आते ही सभी राजनीतिक दलों के नेता दलितपिछड़े लोगों के हिमायती बन जाते हैं और चुनाव जीतने के बाद कोई उन की सुध तक नहीं लेता. इसी तरह चुनाव में शराब और पैसे का लालच दे कर इन भोलेभाले लोगों के वोट हासिल किए जाते हैं और फिर पूरे 5 साल तक उन की अनदेखी की जाती है.

विकास की मुख्यधारा से हमेशा दूर रहने वाले इस तबके के लोगों का चुनावी रैलियों में इस तरह से इस्तेमाल करना लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है. दलितपिछड़े तबके के लोगों को जागरूक होने की जरूरत है.

बेहाल कर रही चुनावी डयूटी

लोकसभा चुनाव की पूरी प्रक्रिया बेहद लंबी है. लगभग 2 महीने तकचुनाव का कामकाज चल रहा है. बहुत सारे सरकारी विभागों में कामकाज ठप्प है. सरकारी कर्मचारी चुनावी डयूटी पर है. यहा तक की पुलिस विभाग मेंभी बहुत सारे केस पेडिंग है. पुलिस चुनावी डयूटी में लगी है. सबसे खराबहालत पोलिंग बूथ पर डयूटी देने वाले कर्मचारियों की होती है. इनको अपने घर से दूर गांवगांव ऐसी जगहों पर जाना होता है जहां रहनेखाने तक की कोई व्यवस्था नहीं होती है.

यूपी ही तय करेगा दिल्ली का सरताज

किसी जानपहचान वाले के घर रूकना या फिर मतदान स्थल पर रात गुजारनी पडती है.इस दौरान वह अपने घर परिवार के संपर्क से भी दूर रहते है. डयूटी के समय उनको अपने फोन तक के प्रयोग की अनुमति नही होती है. सबसे अधिक परेशानी शिक्षा विभाग में काम करने वाली शिक्षिकाओं की है. इनमें से तमाम के छोटे बच्चे है. एकल परिवार में रहने के कारणवह बच्चों को छोड नहीं सकती और डयूटी के समय साथ भी नहीं रख सकती. इनकी डयूटी जब गांव देहात के एरिया में लग जाती है तो उसको संभालना मुश्किल हो जाता है. मतदान वाले दिन की डयूटी ज्यादा कठिन होती है. सुबह 5 बजे मतदान स्थल पर पहंुचना पडता है. इसके लिये रात भर का सफर करना पडता है. मतदान खत्म होने के बाद भी उनको छुटटी तब मिलती है जब मतपेटी जमा हो जाती है और सारे कागजात का मिलान हो जाता है. बहुत सारे मतदान स्थल गांव के सरकारी स्कूलों में होते है. जहां आज भी महिलाओं के लिये साफ सुथरे शौचालय नहीं है.

मोदी जी की सेना कहने पर सैनिक हुए खफा

स्कूल में एकही शौचालय होता भी है तो उसका प्रयोग करने वालों की संख्या बढ जाती है. शौचालय को साफ करने वाले नहीं होते है. इसके अलावा रात रूकने की व्यवस्था गांव में नहीं होती. गरमी और मच्छरों से भरी रात किसी कैदखाने से कम नहीं होती है. चुनावी डयूटी से बचने के लिये कर्मचारी बहुत तरह से कोशिश करते है. इसके बाद भी उनको चुनावी डयूटी मेंजाना ही पडता है.लोकसभा चुनाव में 7 चरण पूरे 2 माह के कार्यक्रम से बनाये गये है. ऐसे में मतगणना के बाद ही चुनावी छुटटी से मुक्ति मिलती है. इस दौरान तमाम कर्मचारी बीमार हो जाते है. गर्मी में चुनाव होने के कारण परेशानी और भी अधिक होती है. चुनाव दर चुनाव यह परेशानियांबढती जा रही है. इसके अलावा महिला कर्मचारियों को चुनाव के दिन मतदान स्थल पर तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पडता है. कई बार यहां पर लडाई झगडा, गाली गलौच भी होता है. ऐसे में उनको यह सब भी सहना पडता है. नाम ना छापने की शर्त पर कई महिला कर्मचारियों ने बताया कि मतदान वाले दिन वह लोग पानी कम पीते है.

मोदी जी की सेना कहने पर सैनिक हुए खफा

जिससे उनको कम से कम शौचालय का प्रयोग करना पडे. इससे शाम तक कई की तबीयत खराब हो गई. अपने 5 माह के बच्चे को छोड कर मतदान स्थल पर डयूटी दे रही महिला टीचर ने बताया कि चुनावी डयूटी किसी प्रताडना से कम नहीं होती है. सरकार किसी तरह की कोई व्यवस्था नहीं करती. अधिकारी कोई बात सुनते नहीं. ज्यादा कहों तो निजी दुश्मनी मानकर प्रताडित करते है. कई बार तो साथी पुरूष कर्मचारी इन हालातों से मजा लेते है. चुनाव सुधार की बात करते समय ऐसी चुनावी

डयूटी को भी सरल करने पर विचार करना चाहिये.

Edited By – Neelesh Singh Sisodia

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें