खास अंगों की साफसफाई, ध्यान रखें ये बातें

अब से तकरीबन 23 साल पहले जब दीपक कुशवाहा ने भोपाल के नजदीक बैरसिया कसबे में अपना जनरल स्टोर खोला था, तब दुकान में कहने भर को ही लेडीज आइटम हुआ करते थे, लेकिन दीपक की आधे से ज्यादा दुकान अब लेडीज आइटमों से भरी पड़ी है, जिन में सैनेटरी नैपकिन, हेयर रिमूवर, अंडरगारमैंट्स, क्रीम, पाउडर और तरहतरह के दूसरे आइटम ज्यादा हैं.

इस बदलाव की वजह बताते हुए दीपक कहते हैं, ‘‘शिक्षा और जागरूकता ज्यादा है, जो कसबाई और देहाती लड़कियों में मीडिया और इश्तिहारों के जरीए आई है.’’

कसबे के हाईस्कूल में दाखिले बढ़े, तो नएनए आइटमों की मांग आने लगी. फिर कालेज खुला तो लड़कियों की झिझक और दूर होने लगी. अब तो हालात ऐसे हैं कि लड़कियां खरीदारी में बिलकुल नहीं शरमाती हैं.

दीपक कुशवाहा की बातों पर गौर करें, तो कसबाई और देहाती लड़कियों में खूबसूरती और सेहत के प्रति जबरदस्त जागरूकता आई है और वे बाहरी के साथसाथ अंदरूनी साफसफाई की भी अहमियत समझने लगी हैं. इस बाबत उन्हें घरों से भी छूट मिली हुई है. इसी वजह के चलते कसबे में हर ब्रांडेड कंपनी का हेयर रिमूवर और सैनेटरी नैपकिन मिलते हैं, जिन्हें खरीदने के लिए आसपास के गांवों की लड़कियां भी इफरात से आती हैं.

लेकिन इन लड़कियों की एक बड़ी दिक्कत आज भी यह है कि इन्हें खास अंगों की साफसफाई के बारे में कोई पुख्ता जानकारी कहीं से नहीं मिलती. आधीअधूरी जानकारी के चलते वे कई बार परेशानियों से भी घिर जाती हैं. घर में मां या भाभी अकसर पुराने यानी अपने जमाने के उपाय बाताती हैं, जबकि अब दौर नए तौरतरीकों का है.

मिसाल प्राइवेट पार्ट के आसपास के बालों की सफाई का लें, तो लड़कियां अब हाईस्कूल में आतेआते हेयर रिमूवर का इस्तेमाल शुरू कर देती हैं. पहले इस के लिए ब्लेड और कैंची का इस्तेमाल ज्यादा होता था, हालांकि अभी भी होता है, पर न के बराबर. और जो लड़कियां इन का इस्तेमाल करती हैं, उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि कभी भी पुराने ब्लेड का इस्तेमाल न करें. इस से इंफैक्शन का खतरा बढ़ जाता है.

आजकल बाजार में प्राइवेट पार्ट और बगलों के बालों को हटाने के लिए खास तरह के महीन ब्लेड वाले ब्रांडेड रेजर आ रहे हैं, इन का इस्तेमाल ज्यादा सुरक्षित रहता है.

तरीका जो भी अपनाएं, लेकिन बालों की समयसमय पर सफाई जरूरी है, क्योंकि इन्हीं बालों के ऊपर पसीना जमता है, जो बदबू की बड़ी वजह होता है.

हेयर रिमूवर के इस्तेमाल से बाल एक बार में पूरी तरह साफ हो जाते हैं. इस का इस्तेमाल करने से पहले इसे थोड़ी सी तादाद में हाथ पर कुछ देर लगाए रखना चाहिए. अगर जलन न पड़े तो इस का बेहिचक इस्तेमाल किया जा सकता है. इस के अलावा प्राइवेट पार्ट को रोजाना एक बार कुनकुने पानी से जरूर साफ करें. और हर बार पेशाब करने के बाद साफ पानी से इसे धो लेना चाहिए.

कोशिश यह होनी चाहिए कि प्राइवेट पार्ट को ज्यादा से ज्यादा सूखा रखा जाए. इस के लिए साफ कपड़े या टिशू पेपर से उसे पोंछ लेना चाहिए. इस से कई बीमारियों से बचाव होता है और बदबू भी नहीं आती.

बाल साफ करते रहने से पार्टनर को भी सैक्स में मजा आता है और वह अपने मनचाहे तरीके से प्यार करने में नहीं हिचकता. लेकिन प्राइवेट पार्ट पर कभी तेज खुशबू वाले परफ्यूम और साबुन का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, इस से इंफैक्शन का खतरा बना रहता है.

माहवारी के 5 दिन भले ही तकलीफ वाले होते हों, लेकिन इन दिनों में खासतौर से एहतियात बरतना चाहिए. नैपकिन हर 4 घंटे बाद बदल लेना चाहिए, नहीं तो बदबू तो बढ़ती ही है साथ ही कई बीमारियों का भी डर बना रहता है. अंडरवियर भी इन दिनों में धो कर और सुखा कर ही पहनना चाहिए. सस्ते और लोकल सैनेटरी नैपकिन और अंडरगारमैंट्स के बजाय ब्रांडेड ही लेने चाहिए. ये भरोसेमंद भी होते हैं और अपना काम भी बेहतर तरीके से करते हैं.

दीपक की मानें, तो गांवों के हाट बाजारों में सस्ते के नाम पर लोकल नैपकिन और अंडरगारमैंट्स धड़ल्ले से बिकते हैं, लेकिन इन की न तो क्वालिटी अच्छी होती है और न ही नतीजे अच्छे मिलते हैं.

इन अंगों पर भी दें ध्यान

नाभि, स्तन, नितंब, जांघें और पीठ भी कम खास नहीं होते, जिन की साफसफाई पर लड़कियां कम ही ध्यान देती हैं. इन अंगों की साफसफाई अच्छे साबुन से हो जाती है. सेहत के अलावा ये अंग सैक्स में भी अहम रोल निभाते हैं, इसलिए इन को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. कई लड़कियों की जांघों और नितंबों पर भी महीन बाल उग आते हैं जो हार्मोंस की गड़बड़ी के चलते मामूली बात है. इन बालों को भी रेजर या रिमूवर से हटा लेना चाहिए.

खास अंगों की साफसफाई को ले कर आ रही जागरूकता एक अच्छी बात है, जो लड़कियों को आत्मविश्वास से भरे रखती है. जरूरत इस बात की है कि यह जागरूकता घरघर पहुंचे.

नए तौरतरीकों और प्रोडक्ट्स की जानकारी के किए लड़कियों के लिए खासतौर से निकाली जाने वाली मैगजीन ‘गृहशोभा’ जरूर पढ़नी चाहिए. इस के उपयोगी लेख, फैशन, सेहत, खूबसूरती और सैक्स के अलावा जिंदगी के दूसरे अहम पहलुओं की पेचीदगियों से रूबरू कराते हुए न केवल सही रास्ता सुझाते हैं, बल्कि लड़कियों को नए जमाने से भी जोड़े रखते हैं.

अगर आपको भी लगती है बहुत ज्यादा ठंड तो हो सकता है थायराइड

Health Tips in Hindi: क्या आप को जरूरत से ज्यादा ठंड लगती है, हमेशा आप के हाथपैर ठंडे रहते हैं और जाड़े के मौसम में स्वेटर्स की 2-3 लेयर्स से कम में आप का काम नहीं चलता? आइए जानते हैं क्यों लगती है कुछ लोगों को अधिक ठंड. इस से थायराइड (Thyroid) की समस्या बढ़ सकती है.  हाइपोथायराइडिज्म एक स्थिति है जब थायराइड ग्लैंड कम एक्टिव होता है. थायराइड ग्लैंड बहुत सारे मेटाबौलिज्म (Metabolism) प्रक्रियाओं के लिए उत्तरदायी है. इस का एक काम शरीर के तापमान का नियंत्रण करना भी है. जाहिर है हाइपोथायरायडिज्म से पीड़ित व्यक्ति ज्यादा ठंड महसूस करते हैं क्यों कि उन के शरीर में थायराइड हार्मोन (Harmon) की कमी रहती है.

अधिक उम्र

अधिक उम्र में ठंड अधिक लगती है. खासकर 60 साल के बाद व्यक्ति का मेटाबोलिज्म स्लो हो जाता है. इस वजह से शरीर कम हीट पैदा करता है.

एनीमिया

आयरन की कमी से शरीर का तापमान गिरता है क्यों कि आयरन रेड ब्लड सेल्स का प्रमुख स्रोत है. शरीर को पर्याप्त आयरन न मिलने से रेड ब्लड सेल्स बेहतर तरीके से काम नहीं कर पाते और हमें ज्यादा ठंड लगने लगती है.

खानपान

यदि आप गर्म चीजें ज्यादा खाते हैं जैसे ड्राई फ्रूट्स, नौनवेज, गुड, बादाम आदि तो आप को ठंड कम लगेगी. इस के विपरीत ठंडी चीजें जैसे, सलाद, आइसक्रीम, वेजिटेबल्स, दही आदि अधिक लेने से ठंड ज्यादा लगती है.

प्रेगनेंसी

प्रेगनेंसी के दौरान महिलाओं को एनीमिया और सरकुलेशन की शिकायत हो जाती है. इस वजह से कई बार ठंड लगने खासकर हाथ पैरों के ठंडा होने की शिकायत करती है.

डीहाइड्रेशन

पानी कम मात्रा में पीने से शरीर का मेटाबौलिज्म घट जाता है और शरीर खुद को गर्म रखने के लिए आवश्यक एनर्जी और हीट तैयार नहीं कर पाता.

हारमोंस

अलगअलग तरह के हार्मोन्स भी हमारे शरीर के तापमान को प्रभावित करते हैं. उदाहरण के लिए एस्ट्रोजेन साधारणतः डाइलेटेड ब्लड वेसल्स और बौडी टेंपरेचर प्रमोट करता है. जबकि पुरुषों में मौजूद टेस्टोस्टेरोन हार्मोन इस के विपरीत कार्य करता है. इस वजह से महिलाओं का शरीर ज्यादा ठंडा होता है. एक अध्ययन के मुताबिक महिलाओं के हाथ पैर पुरुषों के देखे लगातार अधिक ठंडे रहते हैं. यही नहीं महिलाओं में थायराइड और अनीमिया की समस्या भी अधिक होती है. दोनों ही ठंड लगने के लिए अहम् कारक हैं.

पुअर सर्कुलेशन

यदि आप का पूरा शरीर तो आरामदायक स्थिति में है मगर हाथ और पैर ठंडे हो रहे हैं तो इस का मतलब है कि आप को सरकुलेशन प्रौब्लम है जिस की वजह से खून का प्रवाह शरीर के हर हिस्से में सही तरीके से नहीं हो रहा. हार्ट भी सही तरीके से काम नहीं कर रहा. ऐसी स्थिति में भी ठंड अधिक लगने की समस्या पैदा हो सकती है.

तनाव और चिंता

जिन लोगों की जिंदगी में अधिक तनाव और डिप्रेशन होता है वे अक्सर ठंड अधिक महसूस करते हैं क्यों कि तनावग्रस्त होने की स्थिति में हमारे मस्तिष्क का वह भाग सक्रिय हो जाता है जो खतरे के समय आप को सचेत रखता है.ऐसे में शरीर अपनी सारी ऊर्जा खुद को सुरक्षित रखने के लिए रिज़र्व रखता है और हाथपैर जैसे हिस्सों तक गर्मी नहीं पहुंच पाती.

जब बीएमआई कम हो

न केवल बीएमआई और वजन कम होने के कारण आप को ठंड ज्यादा लग सकती है बल्कि आप के शरीर में फैट और मसल्स की मात्रा भी उस की वजह बनती है. मसल्स अधिक मात्रा में होने से शरीर अधिक हीट पैदा करता है और फैट की वजह से भी शरीर से हीट लौस कम होता है जिस से ठंड कम लगती है.

यदि आप को लगता है कि दूसरों के मुकाबले आप का शरीर हमेशा ही ज्यादा ठंडा रहता है या फिर पहले कभी आप ने ठंड महसूस नहीं किया मगर अब हमेशा ही ऐसा लगने लगा है तो आप को मेडिकल चेकअप कराना चाहिए. यदि ठण्ड के साथ आप के वजन में तेजी से बढ़ोतरी या कमी हो रही है, बाल झड़ रहे हैं और कब्ज की शिकायत रहने लगी है ,तो भी किसी अच्छे डाक्टर से जरूर मिलें.

ना करें सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग, हो सकती हैं ये गंभीर बीमारियां

देश की ज्यादातर आबादी आज भी खुले में शौच करती है. जहां भी सार्वजनिक शौचालय मौजूद भी हैं उनकी हालत भी खराब है. इन शौचालयों में शौचालय सीट गंदगी से भरी हुई होती हैं और फ्लश में पानी नहीं आता. पर सवाल ये है कि क्‍या सार्वजनिक शौचालय प्रयोग करने के लिये ठीक होते हैं?

तो जवाब है नहीं, सार्वजनिक शौचालय प्रयोग करने के लिए बिल्‍कुल भी अच्‍छे नहीं होते, क्‍योंकि ये पूरी तरह से संक्रमण से भरे हुए होते हैं. इनका प्रयोग करने से आपको तमाम तरह की जानलेवा बीमारियां हो सकती हैं. जरूरी है कि सार्वजनिक शौचालयों के प्रयोग के बाद आप अपने हाथ अच्छे से धो लें. इस खबर में हम आपको बताएंगे कि सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग करने से आपको कौन सी बीमारियां हो सकती हैं.

  • सेक्शुअली ट्रांसमिटेड डिजीज (एसटीडी)

सार्वजनिक शौचालयों के इस्तेमाल से कई यौन बीनारियों के होने का खतरा होता है. गंदे शौचालय को यदि कोई एस टी डी का रोगी प्रयोग कर ले तो यह रोग फैलने के चांस बढ जाते हैं. यदि आपको इस रोग से बचना है तो शौचालय प्रयोग करने के बाद अपने हाथों को धोना बिल्‍कुल ना भूलें. इसके अलावा शौचालय की चीजों को केवल शौचालय पेपर से ही छूएं.

  • डायरिया

सार्वजनिक शौचालय में पाए जाने वाले बैक्‍टीरिया की वजह से पेट में दर्द और खूनी डायरिया हो सकता है.

  •  संक्रमण

यदि पबलिक शौचालय को कोई संक्रमित व्‍यक्‍ति प्रयोग करे, तो आंत का संक्रमण होने की संभावना हो सकती है. असके अलावा इसके प्रयोग से आपको गले और त्‍वचा का संक्रमण भी लग सकता है.

  • यूटीआई

गंदे शौचालय को प्रयोग करने से मूत्र संक्रमण बड़ी तेजी से फैलता है. ये समस्या महिलाओं में ज्‍यादा पाई जाती है. इस लिए शौचालय की सीट पर बैठने से पहले एक बार फ्लश जरुर चलाएं.

नपुंसकता: तन से नहीं मन से उपजा रोग

चिकित्सा की भाषा में नपुंसकता यानी इंपोटैंस उस स्थिति को कहते हैं जिस में व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से यौन क्रिया का आनंद नहीं ले पाता है. जरूरी नहीं कि यह बीमारी अधिक उम्र के पुरुष में ही हो, बल्कि कुछ नौजवान भी इस के शिकार हो जाते हैं. यह बीमारी प्रजननहीनता यानी इंफर्टिलिटी से अलग है जिस में व्यक्ति के वीर्य में या तो शुक्राणु नहीं होते या बहुत ही कम मात्रा में होते हैं जिस के कारण वह व्यक्ति यौन क्रिया तो सफलतापूर्वक कर लेता है लेकिन संतान उत्पन्न करने में असमर्थ होता है.

दरअसल, इस के पीछे शारीरिक व मानसिक दोनों कारण होते हैं. नए शोधों से पता चला है कि मधुमेह व हार्मोन के असंतुलन से नपुंसकता हो सकती है. शरीर में किसी प्रकार के संक्रमण के कारण व्यक्ति नपुंसकता का शिकार हो सकता है या फिर शरीर में चोट लगना, उच्च रक्तचाप, धूम्रपान व मदिरापान जैसे अन्य शारीरिक कारण भी हो सकते हैं.

हमारे जीवन में हार्मोंस का बहुत महत्त्व है या कहें कि हमारी दिनचर्या इन हार्मोंस के कारण ही संभव है. यदि किसी पुरुष में टेस्टोस्टेरोन का स्तर सामान्य हो तो उस के नपुंसक होने की संभावना काफी कम हो जाती है. दरअसल, सैक्स की इच्छा के लिए हार्मोन का शरीर में उचित अनुपात में बने रहना जरूरी है. आधुनिक अध्ययनों से साबित हो गया है कि नपुंसकता के 80 प्रतिशत मरीजों के पीछे मानसिक कारण होते हैं जबकि 20 प्रतिशत मरीज शारीरिक कारणों से जुड़े होते हैं. सही तरीके से खानपान व रहनसहन न होने से भी व्यक्ति नपुंसकता का शिकार हो सकता है.

आज की भागतीदौड़ती जिंदगी, बढ़ते तनाव, प्रदूषण और कई बुरी आदतों के साथ असमय खानपान व रहनसहन ने स्वास्थ्य की कई परेशानियों व बीमारियों को जन्म दिया है. इन में नपुंसकता भी है. हालांकि, यह कोई नई बीमारी नहीं है लेकिन आज यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि भारत में हर 10वां व्यक्ति यौनक्रिया में अक्षम है. मधुमेह जैसी कुछ बीमारियां भी नपुंसकता पैदा कर सकती हैं. चूंकि मधुमेह से तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है इसलिए अगर व्यक्ति मधुमेह को नियंत्रित नहीं रखता तो उस में 5-10 साल बाद नपुंसकता आ सकती है. लिंग में रक्त बहाव में अंतर आने या लिंग में चोट आ जाने से भी नपुंसकता आ जाती है.

इस के अलावा वीर्य का पतला या गाढ़ा होना निरंतर वीर्य स्खलन पर आधारित होता है और यह देखा जा सकता है कि कितने दिनों के बाद वीर्य स्खलित हुआ है. शीघ्रपतन में वीर्य स्खलन अगर स्त्री के चरमानंद के पूर्व या संभोग से पूर्व ही हो जाता है, तो यह यौन शक्ति की कमी का लक्षण है. जो लोग सहवास के समय अत्यधिक उत्तेजित हो जाते हैं और स्खलन को नियमित नहीं कर पाते हैं, इस समस्या से ग्रसित हो जाते हैं. इस समस्या के मुख्य कारण संभोग के समय अत्यधिक घबराहट, जल्दबाजी में यौन संबंध स्थापित करना है, लेकिन इस का नपुंसकता से कोई ताल्लुक नहीं है.

विभिन्न जांचों द्वारा थायराइड हार्मोन, प्रोलैक्टिन हार्मोन तथा टेस्टोस्टेरोन हार्मोन के स्तर का पता लगाया जाता है. सैक्सोलौजिस्ट सब से पहले यह पता लगाते हैं कि शरीर में किस हार्मोन की कमी है. उस के बाद उस हार्मोन को पूरा करने के लिए मरीज को हार्मोन दिए जाते हैं. मधुमेह के कुछ रोगियों या मानसिक रोगियों पर दवाएं प्रभावित नहीं होती हैं तो ऐसे मरीजों में सर्जरी की मदद से कभीकभी पेनाइल प्रोस्थेटिक डिवाइस के प्रत्यारोपण की सलाह दी जाती है. कुछ दवाएं भी इलाज के लिए सहायक होती हैं.

यह मरीज पर निर्भर करता है कि वह कितना जल्दी अपनेआप को मानसिक तौर पर तैयार कर लेता है. आजकल थोड़ी सी जागरूकता समाज में आई है, लेकिन लोग कई बार नीमहकीम के चक्कर में पड़ जाते हैं और अपनी जिंदगी से काफी हताश हो चुके होते हैं, इलाज करने पर वे ठीक हो जाते हैं. लेकिन रोग जितना पुराना हो जाता  है या मरीज स्वयं को जितना हताश कर लेता है, डाक्टर को रोग ठीक करने में उतनी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. जब भी किसी व्यक्ति को नपुंसकता की संभावना लगे, तुरंत किसी सैक्सोलौजिस्ट से उचित सलाह ले लेनी चाहिए.

संसार में धूम मचा देने वाली वियाग्रा को ले कर भी कई विरोधाभास हैं. वियाग्रा के सकारात्मक परिणाम कम नकारात्मक परिणाम ज्यादा आ रहे हैं क्योंकि जिस व्यक्ति की आयु 40 से कम है और नपुंसकता का शिकार है उसी व्यक्ति को वियाग्रा की गोली डाक्टर की सलाह पर लेनी चाहिए. लेकिन आज 60 वर्ष से ऊपर के वृद्ध भी इस दवा को ले रहे हैं, चूंकि 60 वर्ष के बाद अकसर कामवासना क्षीण हो जाती है. ऐसे में अपनी सेहत के साथ जबरदस्ती करने से निश्चित तौर पर इस के दुष्परिणाम ही होंगे.

वैसे भी आजकल बाजार में नपुंसकता को ठीक करने के लिए ढेर सारी दवाएं मिल रही हैं. अगर व्यक्ति की समझ ठीक है तो दवा की कोई जरूरत नहीं है. यदि किसी व्यक्ति को कोई शंका हो तो डाक्टर की सलाह के बाद ही उसे किसी दवा का इस्तेमाल करना चाहिए.

आधुनिक लाइफस्टाइल के कारण?भी युवा पीढ़ी में नपुंसकता की समस्या बढ़ती जा रही है. युवा पीढ़ी में नपुंसकता होने का मूल कारण है सही जानकारी का न होना. मातापिता तथा बच्चों में सही तालमेल की कमी.

आजकल इलैक्ट्रौनिक मीडिया तरहतरह की तसवीरें दिखा कर नवयुवकों को उत्तेजित करता है. जहां तक यौन शिक्षा का प्रश्न है, इसे पाठ्यक्रम में जरूर शामिल करना चाहिए क्योंकि किशोरावस्था में शारीरिक विकास के साथसाथ मानसिक विकास भी होता है. युवाओं में जानकारी प्राप्त करने की जो इच्छा है वह सही रूप से, सही जगह से, सही तरीके से मिले.

आने वाली पीढ़ी को नपुंसकता की भयानक त्रासदी से बचाने के लिए बच्चों को सही जानकारी की शुरुआत मांबाप के द्वारा ही की जानी चाहिए. अगर बच्चा कोई गलत हरकत करता है तो मांबाप को उसे समझाना चाहिए. उसे यौन शिक्षा के बारे में जानकारी देनी चाहिए.

साथ ही स्कूल के अध्यापकों को यौन शिक्षा के बारे में बच्चों को बताना चाहिए. मीडिया अपना जितना समय सैक्स संबंधी प्रचार करने में बरबाद कर रहा है उस की जगह यदि अच्छी सेहत या स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम दिखाए तो लोगों में जागरूकता आ सकती है क्योंकि जनजागृति इस रोग का अहम निदान है.

अगर आप भी हैं बवासीर के शिकार तो जरूर अपनाएं ये उपाय

बवासीर को पाइल्स या मूलव्याधि भी कहते हैं. यह एक खतरनाक बीमारी है. मलाशय के आस-पास की नसों में सूजन की वजह से बवासीर की समस्या होती है. इस बीमारी में जब मलत्याग किया जाता है तब अत्यधिक पीड़ा और फिर रक्त स्राव की समस्या होती है. बवासीर दो तरह की होती है. अंदरूनी और बाहरी बवासीर. अंदरूनी बवासीर में नसों की सूजन दिखाई नहीं देती जबकि बाहरी बवासीर में यह गुदा के बिल्कुल बाहर दिखाई देती है.

कारण

कुछ व्यक्तियों में यह रोग पीढ़ी दर पीढ़ी पाया जाता है. अतः अनुवांशिकता इस रोग का एक कारण हो सकता है. जिन व्यक्तियों को अपने रोजगार की वजह से घंटों खड़े रहना पड़ता हो या भारी वजन उठाने पड़ते हों उनमें इस बीमारी से पीड़ित होने की संभावना अधिक होती है. कब्ज भी बवासीर को जन्म देती है. इसकी एक प्रमुख वजह खान पान की अनियमितता का होना भी है.

उपचार

हम आपको यहां कुछ घरेलू उपाय के बारें में बताने जा रहे हैं, जिसके इस्तेमाल से बवासीर से पूरी तरह से छुटकारा पाया जा सकता है. चलिए जानते हैं इसके बारे में.

छाछ और जीरा

दो लीटर छाछ में पचास ग्राम जीरा पीसकर मिला लें और जब भी प्यास लगे तब पानी की जगह यह मिश्रण पिएं. ऐसा करने पर आपको तीन से चार दिन के अंदर ही लाभ दिखने लगेगा. आप छाछ की जगह पानी का इस्तेमाल भी कर सकते हैं. इसके लिए एक गिलास पानी में आधा चम्मच जीरा पाउडर मिलाकर पिएं. यह बवासीर को जल्द से जल्दी ठीक करने का एक बेहतरीन उपाय है.

इसबगोल

रात में सोते समय एक गिलास पानी में दो चम्मच इसबगोल की भूसी डालकर पिए. इसबगोल की भूसी खाने से पेट साफ रहता है और मल की कठोरता कम होती है. इससे बवासीर में दर्द नहीं होता.

बड़ी इलायची

50 ग्राम बड़ी इलायची लेकर उसे तवे पर भून लीजिए. जब इलायची लाल हो जाए तब इसे तवे पर से उतारकर ठंडा कर लीजिए और पीसकर रख लीजिए. हर रोज सुबह खाली पेट इस चूर्ण के साथ पानी पीजिए. यह बवासीर को जड़ से मिटाने में सहायक है.

किशमिश

रात को सोते समय सौ ग्राम किशमिश को पानी में भिगो दें. सुबह उठकर पानी में ही इसे मसल डालें और रोज इस पानी का सेवन करें. बवासीर रोग में यह बेहद फायदेमंद नुस्खा है.

जामुन

खूनी बवासीर में जामुन और आम की गुठली बड़े काम की चीज होती है. जामुन और आम की गुठली के अंदर का भाग निकालकर इसे धूप में सुखा लें और इसका चूर्ण बना लें. अब रोजाना एक चम्मच चूर्ण को गुनगुने पानी या फिर छाछ के साथ पिएं. बवासीर में बेहद लाभ मिलेगा.

इसके अलावा तरल पदार्थों, हरी सब्जियों एवं फलों का बहुतायात मात्रा में सेवन करें. तली हुई चीजें, मिर्च-मसालों युक्त गरिष्ठ भोजन न करें.

अगर आप भी हैं पैनिक डिसऔर्डर के शिकार तो जरूर पढ़ें ये खबर

पैनिक डिसऔर्डर एक ऐसा मनोरोग है जिस में किसी बाहरी खतरे के बावजूद विभिन्न शारीरिक लक्षणों, मसलन, दिल की धड़कन का असामान्य हो जाना तथा चक्कर आना आदि के साथ लगातार और आकस्मिक रूप से रोगी आतंकित हो जाता है. ये आतंकित कर देने वाले दौरे, जो कि पैनिक डिसऔर्डर की पहचान हैं, तब आते हैं जब किसी खतरे पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की सामान्य मानसिक प्रक्रिया तथा कथित संघर्ष अनुपयुक्त रूप से जाग जाता है.

पैनिक डिसऔर्डर से ग्रस्त अधिकतर लोग अगले अटैक की संभावना को ले कर चिंतित रहते हैं और उन स्थितियों से बचने की कोशिश करते हैं जिन में उन के अनुसार यह भय का दौरा पड़ सकता है.

शुरुआती पैनिक अटैक

आमतौर पर पहला पैनिक अटैक कभी भी हो सकता है, जैसे कार चलाते हुए या काम के लिए जाते हुए. सामान्य गतिविधियों के दौरान एकाएक व्यक्ति डराने वाले तथा तकलीफदेह लक्षणों से ग्रस्त हो जाता है. ये लक्षण कुछ सैकंड तक जारी रहते हैं लेकिन कई मिनट तक भी यह स्थिति बनी रह सकती है. ये लक्षण लगभग एक घंटे के भीतर सामान्य हो जाते हैं. जिन लोगों पर यह दौरा पड़ चुका है वे बता सकते हैं कि उन्होंने किस तरह की बेचैनी के साथ यह डर महसूस किया था कि उन्हें कोई बहुत खतरनाक जानलेवा बीमारी हो गई है या फिर वे पागल हो रहे हैं.

ऐसे कुछ लोग जिन्हें एक पैनिक अटैक या फिर कभीकभार जिन का सामना इस दौरे से हुआ हो, उन में ऐसी किसी समस्या का विकास नहीं होता जो उन के जीवन को प्रभावित करे लेकिन दूसरों के लिए इस स्थिति का जारी रहना असहनीय हो जाता है. पैनिक डिसऔर्डर में आतंकित कर देने वाले दौरे जारी रहते हैं और व्यक्ति के मन में यह डर समा जाता है कि उसे अगले दौरे का सामना कभी भी करना पड़ सकता है.

यह भय जिसे अग्रिम बेचैनी या डर का खौफ कहते हैं, अधिकतर समय मौजूद रहता है और व्यक्ति के जीवन को गंभीर रूप से तब भी प्रभावित कर सकता है जब उस पर दौरा नहीं पड़ा हो. इस के साथसाथ उस के मन में उन स्थितियों को ले कर भयंकर फोबिया का जन्म हो जाता है जिन में उस पर दौरा पड़ा था.

उदाहरण के लिए अगर किसी को गाड़ी चलाते वक्त पैनिक अटैक हुआ हो तो वह आसपास जाने के लिए भी गाड़ी चलाने में डरता है. जिन लोगों में आतंक से जुड़े इस फोबिया का विकास हो गया हो वे उन स्थितियों से बचने की कोशिश करने लगते हैं जिन के बारे में उन्हें आशंका रहती है कि उन को दौरा पड़ सकता है. परिणामस्वरूप वे अपनेआप को लगातार सीमित करते चले जाते हैं. उन का काम प्रभावित होता है क्योंकि वे बाहर निकलना नहीं चाहते और न ही समय पर अपने काम पर पहुंचते हैं.

इन दौरों की वजह से व्यक्ति के संबंध भी प्रभावित होते हैं. नींद पर असर पड़ता है और रात में दौरा पड़ने की स्थिति में व्यक्ति आतंकित हो कर जाग जाता है. यह अनुभव इतना हिला देने वाला होता है कि कई लोग सोने से भी डरने लगते हैं और थकेथके से रहते हैं. दौरा न पड़े, तब भी डर की वजह से नींद प्रभावित होती है.

इस सिलसिले में डाक्टर से मिलने के बाद जब यह पता चल जाता है कि जीवन पर खतरे की कोई स्थिति नहीं है तब भी इस दौरे से प्रभावित बहुत से लोग आतंक में डूबे रहते हैं. वे बहुत से चिकित्सकों के पास दिल की बीमारी या सांस की समस्या के इलाज के लिए भी जाया करते हैं. इस बीमारी के लक्षणों की वजह से बहुत से मरीज यह समझते हैं कि उन्हें कोई न्यूरोलौजिकल बीमारी या फिर कोई गंभीर गैस्ट्रौइनटैस्टाइनल समस्या हो गई है. कुछ मरीज कई चिकित्सकों से मिल कर महंगी और अनावश्यक जांच करवाते हैं ताकि यह मालूम किया जा सके कि इन लक्षणों की वजह क्या है.

चिकित्सकीय सहायता की यह खोज लंबे समय तक भी जारी रह सकती है क्योंकि इन मरीजों की जांच करने वाले बहुत से चिकित्सक पैनिक डिसऔर्डर की पहचान करने में असफल रहते हैं. जब चिकित्सक बीमारी की थाह पा भी लेते हैं तब भी कभीकभी वे इस की व्याख्या करते हुए यह सलाह दे देते हैं कि खतरे की कोई बात नहीं है और इलाज की कोई जरूरत नहीं है.

उदाहरण के लिए, चिकित्सक यह कह सकते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है. आप को सिर्फ पैनिक डिसऔर्डर अटैक हुआ था. हालांकि इस का उद्देश्य सिर्फ हौसलाअफजाई होता है, फिर भी ये शब्द उस चिंतित मरीज के लिए बेहद निराशाजनक होते हैं जोकि बारबार इस तरह के आतंकित करने वाले दौरों की चपेट में रहता है. मरीज को यह बताया जाना जरूरी है कि चिकित्सक अशक्त बना देने वाले पैनिक डिसऔर्डर से होने वाली परेशानी को समझते हैं और उन का मानना है कि इस का इलाज प्रभावी ढंग से किया जा सकता है.

क्या है इलाज

चिकित्सीय इलाज पैनिक डिसऔर्डर से पीडि़त मरीजों में 70 से 80 प्रतिशत को राहत पहुंचा सकता है और शुरुआती इलाज इस रोग को एगोराफोबिया की स्थिति तक नहीं पहुंचने देता. किसी भी इलाज की शुरुआत से पूर्व मरीज की पूरी चिकित्सकीय जांच की जानी चाहिए ताकि यह पता चल सके कि हताशा के इन लक्षणों की और कोई वजह तो नहीं है.

ऐसा इसलिए आवश्यक है क्योंकि थायराइड हार्मोन से खास तरह की ऐपिलैप्सी और हृदय संबंधी समस्या बढ़ जाती है और पैनिक डिसऔर्डर से मिलतेजुलते लक्षण पैदा हो सकते हैं.

कौगनिटिव बिहेवियरल थैरेपी कही जाने वाली साइकोथैरेपी के प्रयोग और दवाओं के सेवन द्वारा पैनिक डिसऔर्डर का इलाज किया जा सकता है. इलाज का चयन व्यक्तिगत जरूरतों तथा प्राथमिकताओं के मुताबिक किया जाता है.

पैनिक अटैक समस्या नहीं

35 वर्षीय रोहण बैंक एग्जीक्यूटिव है. वह काम के लिए रोज दादर स्टेशन से मुंबई सीएसटी जाता था. एक दिन जब वह काम पर जा रहा था तो सीएसटी से पहले के ही स्टेशन पर उतर गया. जब वह वापस उस ट्रेन में नहीं चढ़ पाया तो दूसरी ट्रेन का सहारा ले कर औफिस लेट पहुंचा. बौस ने उसे डांटा तो वह वहीं बेहोश हो कर गिर पड़ा. थोड़ी देर बाद सबकुछ सामान्य हो गया. पर इस के बाद से जब भी बारिश होती या ट्रेन लेट आती, भले औफिस में कोई कुछ नहीं कहता, पर वह पैनिक हो जाता. उसे बेहोशी छाने लगती. दिनप्रतिदिन उस का परफौर्मेंस बिगड़ने लगा. धीरेधीरे नौबत ऐसी आ गई कि वह ट्रेन में भीड़ देख कर घबराने लगता. बैठने की जगह न हो तो परेशान हो जाता. ठंड में भी पसीने छूटने लगते. उस का खानापीना कम होने लगा. वह बीमार दिखने लगा. उस की पत्नी सीमा ने कई डाक्टरों से सलाह ली. सभी ने जांच की पर कोई समस्या नहीं दिखी. किसी दोस्त ने मनोचिकित्सक के पास ले जाने की सलाह दी. सीमा, रोहण को डा. पारुल टौक के पास ले गई. डाक्टर ने करीब 1 महीने की काउंसलिंग और दवा के जरिए रोहण को ठीक किया.

ऐसी ही एक और घटना है. 45 वर्षीय अनुराधा को हमेशा छाती में दर्द की शिकायत रहती थी. घबराहट में उसे चक्कर आने लगते थे और वह कई बार बेहोश हो कर गिर पड़ती थी. उस के पति धीरेन को अपनी पत्नी को ले कर काफी चिंता सताने लगी. उन्होंने सब से पहले कार्डियोलौजिस्ट से संपर्क किया. जांच के बाद डाक्टर को कोई भी समस्या नहीं दिखी. धीरेन पेट के डाक्टर के पास भी गए क्योंकि उन की पत्नी को पेटदर्द, बारबार दस्त का लगना आदि समस्या थी. वहां भी जांच में कुछ नहीं निकला. फिर फैमिली फिजीशियन की सलाह पर वे मनोचिकित्सक के पास गए. वहां पता चला कि अनुराधा पैनिक अटैक की शिकार है.

पैनिक अटैक के बारे में मुंबई के फोर्टिस अस्पताल और निमय हैल्थकेयर की मनोचिकित्सक डा. पारुल टौक कहती हैं, ‘‘इस तरह की समस्या किसी भी उम्र की महिला, पुरुष या युवा को हो सकती है. यही अटैक आगे चल कर फोबिया या डिप्रैशन का कारण बनता है. यह कोई बड़ी बीमारी नहीं है. इसे आसानी से और बिना अधिक खर्च किए मरीज को ठीक किया जा सकता है. लक्षणों का पता चलते ही तुरंत किसी मनोचिकित्सक से मिल कर इलाज करवाएं.’’

पैनिक अटैक आने पर क्या करें

अगर आप के परिवार में या आप के आसपास किसी व्यक्ति को पैनिक अटैक आए तो घबराएं नहीं, बल्कि उस कठिन परिस्थिति में आप उस व्यक्ति की सहायता कर सकते हैं

–       शांत रहें और पीडि़त व्यक्ति की शांत रहने में सहायता करें.

–       अगर वह व्यक्ति एंग्जाइटी की दवा लेता है तो उसे यह दवा तुरंत दें.

–       उस की समस्या को तुरंत और संक्षेप में समझने का प्रयास करें.

–       उस व्यक्ति को दोनों हाथ सिर के ऊपर सीधे उठाने में सहायता करें.

–       पैनिक होने की स्थिति में व्यक्ति को टहलाने ले जाएं, स्ट्रैचिंग या कूदने को कहें.

–       पीडि़त को धीरेधीरे सांस लेने को कहें और इस में उस की सहायता करें. नाक से लंबी सांस लें और मुंह से छोड़ें.

–       तुरंत किसी पास के अस्पताल में ले जाएं.

–       व्यक्ति को पैनिक अटैक से बचाए रखने के लिए उस को प्रोत्साहित करते रहें.

–       यदि स्थिति बिगड़ जाए तो उसे विश्वास दिलाएं कि यह कोई बड़ी बात नहीं है.

–       मातापिता हमेशा बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ाते रहें. जैसे कुछ भी अच्छा काम करने पर तारीफ करें या कहें, हमें तुम पर नाज है.

–       नियमित तौर पर हैड मसाज देते रहें.

–       व्यक्ति से हमेशा अपने दिल की बात खुल कर बताने को कहें.

अगर आप भी घिरे रहते हैं गैजेट्स से, तो हो जाइए सावधान

किशोरों की सुबह मोबाइल अलार्म से शुरू हो कर आईपैड व वीडियो गेम्स, कंप्यूटर और वीडियो चैट, मूवी, लैपटौप आदि के इर्दगिर्द गुजरती है. दिनभर वे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप जैसी सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर बिजी रहते हैं. इन्हें नएनए गैजेट्स अपने जीवन में सब से अहम लगते हैं. इन की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन अगर इन का उपयोग जरूरत से ज्यादा होने लगे तो यह एक संकेत है कि आप अपनी सेहत के साथ खुद ही खिलवाड़ कर रहे हैं.

कैलाश हौस्पिटल, नोएडा के डाक्टर संदीप सहाय का कहना है कि देर रात तक स्मार्टफोन, टैब या लैपटौप का इस्तेमाल करने से नींद पर असर पड़ सकता है. इस से न सिर्फ गहरी नींद में खलल पड़ेगा बल्कि अगली सुबह थकावट का एहसास भी होगा. यदि हम एकदो रात अच्छी तरह से न सोएं तो थकावट का एहसास होने लगता है और चुस्ती कम हो जाती है. यह बात सही है कि इस से हमें शारीरिक या मानसिक तौर पर कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन यदि कईर् रातों तक नींद उड़ी रहे तो न सिर्फ शरीर पर थकान हावी रहेगी बल्कि एकाग्रता और सोचने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा. लंबे समय में इस से उच्च रक्तचाप, मधुमेह और मोटापे जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं.

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गरदन में दर्द : लैपटौप में स्क्रीन और कीबोर्ड काफी नजदीक होते हैं. इस कारण इस पर काम करने वाले को झुकना पड़ता है. इसे गोद में रख कर इस्तेमाल करने पर गरदन को झुकाने की आवश्यकता पड़ती है. इस से गरदन में खिंचाव पैदा होता है, जिस से दर्द होता है. कभी कभी तो डिस्क भी अपनी जगह से खिसक जाती है. लैपटौप पर ज्यादा समय तक काम करने से शरीर का पौश्चर बिगड़ जाता है. लैपटौप में कीबोर्ड कम जगह में बनाया जाता है. इसलिए इस में उंगलियों को अलग स्थितियों में काम करना पड़ता है. इस से उंगलियों में दर्द होता है. चमकती स्क्रीन देखने पर आंखों में चुभन हो सकती है. आंखें लाल होना, उन में खुजली होना और धुंधला दिखाई देना सामान्य समस्याएं हैं.

स्पाइन, नर्व व मांसपेशियों में दिक्कत : दिन का अधिकतर समय लैपटौप पर बिताने से स्पाइन मुड़ जाती है. इस से स्प्रिंग की तरह काम करने की गरदन की जो कार्यप्रणाली है वह भी प्रभावित होती है. इस से तंत्रिकाएं क्षतिग्रस्त भी हो सकती हैं. अधिकतर लोग लैपटौप को पैरों पर रख कर काम करते हैं. इस से भी मांसपेशियों को नुकसान पहुंचता है.

ज्यादा टीवी देखना भी है हानिकारक : ब्रिटिश जर्नल औफ मैडिसन में प्रकाशित एक लेख के अनुसार 25 या उस से अधिक उम्र के लोगों द्वारा हर घंटे देखे गए टीवी से उन का जीवनकाल 22 सैकंड कम हो जाता है. हर भारतीय एक सप्ताह में औसतन 15-20 घंटे टीवी देखता है. कई शोधों से यह बात भी सामने आई है कि हर घंटे देखे गए टीवी से उन का जीवनकाल 22 सैकंड कम हो जाता है. रोज 2 घंटे टीवी केसामने बिताने से टाइप 2 डायबिटीज और दिल की बीमारियों का खतरा 20त्न बढ़ जाता है.

पढ़ाई से ध्यान हटना :  जो युवा अपना अधिकतर समय कंप्यूटर व गैजेट्स के सामने बिताते हैं उन की पढ़ने की क्षमता पर प्रभाव पड़ता है और धीरेधीरे उन का मन पढ़ाई में कम और गैजेट्स में ज्यादा लगने लगता है. उन को घंटों बैठ कर पढ़ाई करने से ज्यादा अच्छा गेम खेलना लगता है. वे अगर किताबें ले कर बैठ भी जाते हैं तो भी उन का सारा ध्यान कंप्यूटर पर ही टिका रहता है, जो उन की पर्सनैलिटी को नैगेटिव बनाने के साथसाथ उन का कैरियर तक चौपट कर देता है.

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असामाजिक होना : वर्चुअल दुनिया का साथ मिलने पर युवा अकसर असामाजिक होने लगते हैं, क्योंकि वे उस दुनिया में अपनी मनमानी करते हैं. वहां उन्हें कोई रोकने वाला नहीं होता है.

लड़कों में नपुंसकता बढ़ती है : देश की प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में किए जा रहे अध्ययन से पता चला है कि मोबाइल फोन और उस के टावर्स से निकलने वाली रेडिएशन पुरुषों की प्रजनन क्षमता पर असर डालने के अलावा शरीर की कोशिकाओं के डिफैंस मैकेनिज्म को नुकसान पहुंचाती हैं.

क्यों होता है सेहत को नुकसान : एक शोध के अनुसार इलैक्ट्रौनिक उपकरणों के प्रयोग से हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है. ये उपकरण इलैक्ट्रोमैग्नैटिक रेडिएशन छोड़ते हैं, जिन में मोबाइल फोन, लैपटौप, टैबलेर्ट्स वाईफाई वायरलैस उपकरण शामिल हैं.

शोध के मुताबिक वायरलैस उपकरणों के ज्यादा उपयोग से इलैक्ट्रोमैग्नैटिक हाईपरसैंसेटिविटी की शिकायत हो जाती है, जिसे गैजेट एलर्जी भी कहा जा सकता है.

डब्लूएचओ की एक रिपोर्ट में यह कहा गया है कि मोबाइल फोन की रेडियो फ्रीक्वैंसी फील्ड शरीर के ऊतकों को प्रभावित करती है. हालांकि शरीर का ऐनर्जी कंट्रोल मैकेनिज्म आरएफ ऐनर्जी के कारण पैदा गरमी को बाहर निकालता है, पर शोध साबित करते हैं कि यह फालतू ऐनर्जी ही अनेक बीमारियों की जड़ है. हम जिस तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं उस के नुकसान को अनदेखा करते हैं. मोबाइल फोन, लैपटौप, एयरकंडीशनर, ब्लूटूथ, कंप्यूटर, एमपी3 प्लेयर आदि की रेडिएशंस से नुकसान होता है.

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ईएनटी विशेषज्ञ का कहना है कि नुकसान करने वाली रेडिएशंस हमारे स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ करती हैं और हमारी कार्यक्षमता को कम करती हैं. हम पूरे दिन लगभग 500 बार इलैक्ट्रोमैग्नैटिक रेडिएशंस से प्रभावित होते हैं. ये हमारी एकाग्रता को प्रभावित करती हैं. हमें चिड़चिड़ा बनाती हैं और थके होने का एहसास कराती हैं. हमारी स्मरणशक्ति को कमजोर करती हैं, प्रतिरोधक क्षमता को कम करती हैं और सिरदर्द जैसी समस्या पैदा करती हैं.

यही स्थिति मोबाइल की भी है अधिकांश लोग कम से कम 30 मिनट तक मोबाइल पर बात करते हैं. इस तरह एक साल में मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाले को 11 हजार मिनट का रेडिएशन ऐक्सपोजर का सामना करना पड़ता है. मोबाइल फोन के रेडिएशन के खतरे बढ़ते जा रहे हैं.

क्या कहती है रिसर्च

एक रिसर्च में यह बात सामने आई है कि जो किशोर कंप्यूटर या टीवी के सामने ज्यादा वक्त बिताते हैं उन किशोरों की हड्डियों पर बुरा प्रभाव पड़ता है, जिस की वजह से वे गंभीर स्वास्थ्य संकट की ओर बढ़ रहे हैं. नौर्वे में हुई एक रिसर्च में कहा गया है कि किशोरों में हड्डियों की समस्या बढ़ती जा रही है, जिस की वजह कंप्यूटर पर देर तक बैठ कर काम करना है.

अमेरिकन एकैडमी औफ पीडियाट्रिक्स ने कंप्यूटर के इस्तेमाल का समय भी बताया. आर्कटिक विश्वविद्यालय औफ नौर्वे की एनी विंथर ने स्थानीय जर्नल में एक रिपोर्ट प्रकाशित कराई है, जिस में कंप्यूटर के सामने बैठने की वजह से शारीरिक नुकसान का आकलन किया गया है. इस रिपोर्ट के साथ ही अमेरिकन एकैडमी औफ पीडियाट्रिक्स ने किशोरों के लिए कंप्यूटर के इस्तेमाल का समय भी बताया है.

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मोबाइल फोन, लैपटौप आदि के ज्यादा इस्तेमाल से आप की उम्र तेजी से बढ़ रही है, जिस से आप जल्दी बूढ़े हो सकते हैं. स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक इस स्थिति को टैकनैक कहते हैं. इस में इंसान की त्वचा ढीली हो जाती है. गाल लटक जाते हैं और झुर्रियां पड़ जाती हैं. इन सब के कारण इंसान का चेहरा उम्र से पहले ही बूढ़ा लगने लगता है. इस के अलावा आंखों के नीचे काले घेरे बनने लगते हैं और गरदन व माथे पर उम्र से पहले ही गहरी लकीरें दिखने लगती हैं.

मुंबई के फोर्टिस हौस्पिटल के कौस्मैटिक सर्जन विनोद विज ने बताया कि मोबाइल फोन का लंबे वक्त तक झुक कर इस्तेमाल करने से गरदन, पीठ और कंधे का दर्द हो सकता है. इस के अलावा सिरदर्द, सुन्न, ऊपरी अंग में झुनझुनी के साथ आप को हाथ, बांह, कुहनी और कलाई में दर्द हो सकता है.

ऐसे बचें गैजेट्स की लत से

इंटरनैट और मोबाइल एसोसिएशन औफ इंडिया की हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में 37 करोड़ 10 लाख मोबाइल इंटरनैट यूजर्स होने का अनुमान है, जिन में 40 फीसदी मोबाइल इंटरनैट यूजर्स 19 से 30 वर्ष के हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि इलैक्ट्रौनिक गैजेट्स का इस्तेमाल करने के लिए कई बार आगे की ओर झुकने से रीढ़ की हड्डी, मांसपेशियों और हड्डियों की प्रकृति में बदलाव होने लगता है.

कौस्मैटिक सर्जरी इंस्टिट्यूट के सीनियर कौस्मैटिक सर्जन मोहन थामस कहते हैं कि लोगों को अभी इस बात का एहसास नहीं है कि उन की त्वचा गरदन और रीढ़ की हड्डी को कितना नुकसान पहुंच रहा है. तकनीक के इस्तेमाल के आदी लोगों को इलैक्ट्रौनिक गैजेट्स की लत से बचने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए. उन्होंने कहा कि स्मार्टफोन के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण गरदन की मांसपेशियां छोटी हो जाती हैं. इस के अलावा त्वचा का गुरुत्वाकर्षणीय खिंचाव भी बढ़ जाता है. इस के कारण त्वचा का ढीलापन, दोहरी ठुड्डी और जबड़ों के लटकने की समस्या हो जाती है.

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फ्रांस में अदालत का खटखटाया दरवाजा

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के नए आंकड़ों के मुताबिक भारत की 125 करोड़ की आबादी के पास 98 करोड़ मोबाइल कनैक्शन हैं. हाल ही में फ्रांस की एक अदालत ने इएचएस से पीडि़त एक महिला को विकलांगता भत्ता दे कर वाईफाई और इंटरनैट की पहुंच से दूर शहर छोड़ गांव में रहने का आदेश दिया. हालांकि ऐसा मामला अब तक भारत में नहीं आया, लेकिन अगर आप को भी शारीरिक कमजोरी हो तो डाक्टर को दिखाने के साथसाथ आप भी अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं.

लौकडाउन स्पेशल : ये टिप्स अपनाएं, खर्राटे दूर भगाएं

दिन भर काम करने के बाद अगर रात को बगल में लेटा व्यक्ति जोर-जोर से खर्राटे ले रहा हो, तो गुस्सा आना स्वाभाविक है. यों तो खर्राटे लेना किसी को भी पसंद नहीं होता, पर जिस व्यक्ति को खर्राटे आ रहे हैं वह खुद उनसे अनजान होता है. उसे इस बात का जरा भी एहसास नहीं होता कि उसके खर्राटे की वजह से उसके आसपास के लोग परेशान हो रहे हैं. खर्राटे आना कई बार एक बीमारी बन जाती है. इस बीमारी को स्लीप एपनिया भी कहा जाता है.

रात में सोते समय खर्राटे आने की कई वजहें हैं. आइये जानते हैं इसके बारे में-

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गले के पिछले हिस्से का संकरा होना

जब हमारे गले का पिछला हिस्सा संकरा होता जाता है तब खर्राटे की समस्या जन्म लेती है. दरअसल, जब गले का पिछला हिस्सा संकरा हो जाता है तब औक्सीजन उस रास्ते से होकर जाती है और तब आसपास के ऊतक कंपित होने लगते हैं और खर्राटे आने लगते हैं.

सांस के रास्ते में अवरोध

खर्राटे आने की मूल वजह सांस के रास्ते में अवरोध को माना जाता है. जब हमारे शरीर में कार्बनडाइ औक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है और औक्सीजन कम हो जाता है तब औक्सीजन की पूर्ति के लिए हम सांस लेने की कोशिश करते हैं और सांस के रास्ते में अवरोध आने की वजह से खर्राटे आते हैं.

पीठ के बल सोना

जो लोग पीठ के बल सोते हैं उन्हें भी यह समस्या हो जाती है. जब पीठ के बल सोते हैं तो हमारी जीभ पीछे की ओर हो जाती है, जिससे वह तालू के पीछे मूर्धा पर जाकर लग जाती है और सांस लेने और छोड़ने में दिक्कत होती है. इस तरह हमारे ऊतक कंपन करने लगते हैं और खर्राटे आने लगते हैं.

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नाक में मांस बढ़ना

कुछ लोगों की नाक की हड्डी जब टेढ़ी हो जाती है या उसमें मांस बढ़ने लगता है तब उन्हें सांस लेने में दिक्कत होती है, जिससे खर्राटे आने लगते हैं.

गर्दन या नीचे वाले जबड़े का छोटा होना

अगर किसी व्यक्ति की गर्दन ज्यादा छोटी है तो यह भी खर्राटे आने की वजह बनता है. इसके अलावा अगर आपका नीचे वाला जबड़ा छोटा है तब भी खर्राटे की समस्या उतपन्न हो जाती है, क्योंकि जब जबड़ा छोटा होता है तो लेटते समय जीभ पीछे की ओर हो जाती है और सांस की नली बंद हो जाती है. जिससे सांस लेने और छोड़ने में दबाव पड़ता है, जिसके चलते कंपन होता और खर्राटे आते हैं.

वजन बढ़ना

खर्राटे आने का एक कारण वजन बढ़ना भी है. जब किसी व्यक्ति का वजन बढ़ता है तो गर्दन का मांस लटकने लगता है. मांस लटकने की वजह से सांस की नली पर दबाव बनता और सांस लेने में दिक्कत होती है.

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ऐसे करें बचाव

अगर आप भी खर्राटे से परेशान हैं तो इस समस्या से ऐसे पाएं छुटकारा

रात के समय कम खाना खाएं ताकि वजन न बढ़े और आप सांस ठीक से ले पाएं.

अगर आपका वजन ज्यादा है तो पहले वजन कम करिए, ताकि आपके खर्राटे बंद हो सकें. वजन कम करने के लिए आप जिम भी जा सकती हैं या अपने डाइटीशियन से सलाह भी ले सकती हैं.

खर्राटे लेने वाले व्यक्ति को अधिक पानी पीना चाहिए, क्योंकि जब हम कम पानी पीते हैं तब हमारी नाक की नली सूख जाती है. ऐसे में साइनस हवा की गति को श्वास तंत्र में पहुंचने के बीच में सहयोग नहीं कर पाता और सांस लेना कठिन हो जाता है. ऐसे में खर्राटे की समस्या बढ़ जाती है.

अगर आपको पीठ के बल सोने की आदत है तो उसे बदलें. इसके अलावा सोते समय सिर को थोड़ा ऊंचा करके सोएं. इससे आपकी जीभ और सांस की नली में रुकावट नहीं आएगी.

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जो लोग धूम्रपान करते हैं उन्हें भी खर्राटे की समस्या हो जाती है. तो अगर आपको भी खर्राटे की समस्या है तो धूम्रपान छोड़ दें.

अगर आपकी नाक का मांस बढ़ रहा है तो डाक्टर से संपर्क करें.

अगर आप गर्भवती हैं तो भी आपको सांस लेने में दिक्कत हो सकती है और खर्राटे आएंगे. इसलिए ऐसे में करवट लेकर ही सोएं.

प्लास्टिक या जहर!

अगर हम सिर्फ किचन की बात करें तो नमक, घी, तेल, आटा, चीनी, ब्रेड, बटर, जैम और सौस…सब कुछ प्लास्टिक में ही पैक होकर आता है और हमारे घर पर भी तमाम चीजें प्लास्टिक के कंटेनर्स में ही रखी जाती हैं. लेकिन क्या आपको मालूम है कि खाने-पीने की चीजों में इस्तेमाल किया जाने वाला प्लास्टिक आपकी सेहत के लिए कितना हानिकारक सिध्द हो सकता है.

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फूड कंटेनर्स

प्लास्टिक की थालियां और स्टोरेज कंटेनर्स खाने-पीने की चीज में केमिकल छोड़ते हैं. इन प्लास्टिक्स में बाइस्फेनाल ए (बीपीए) नामक केमिकल होता है जो प्लास्टिक आइटम्स में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला केमिकल है. यह प्लास्टिक को लोचदार बनाता है. ये केमिकल हमारे शरीर के हार्मोंस को प्रभावित करते हैं. एक रिसर्च में यह माना गया है कि सभी तरह के प्लास्टिक एक वक्त के बाद केमिकल छोडऩे लगते हैं, खासकर जिन्हें गर्म किया जाता है. ऐसा करने से प्लास्टिक के केमिकल्स टूटने शुरू हो जाते हैं और फिर ये खाने-पीने की चीजों में मिल जाते हैं, जिससे गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ता है.

पानी की बोतल

पानी की बोतलों को एक बार इस्तेमाल करके तोड़ देना चाहिए. साथ ही यह भी ध्यान रखें कि अक्सर हम प्लास्टिक की बोतल को तेज धूप में खड़ी कार में रखकर छोड़ देते हैं. गर्म होकर इन प्लास्टिक बोतलों से केमिकल निकलकर पानी में रिएक्ट करता है. ऐसे पानी या साफ्ट ड्रिंक्स को नहीं पीना चाहिए.

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पालिथिन में चाय

अक्सर देखा गया है कि छोटी पालिथिन थैलियों में लोग गर्म चाय ले जाते हैं जो बेहद ही नुकसानदेह है. तुरंत तो कुछ पता नहीं चलता लेकिन लंबे समय तक इस्तेमाल करने से यह कैंसर का कारण बन सकता है.

दवा की शीशी

प्लास्टिक शीशी में होम्योपैथिक दवाएं सेफ होती हैं, बशर्ते शीशी लूज प्लास्टिक की न बनी हो.

एक रिसर्च के मुताबिक, पानी में न घुल पाने और बायोकेमिकल ऐक्टिव न होने की वजह से प्योर प्लास्टिक कम जहरीला होता है लेकिन जब इसमें दूसरे तरह के प्लास्टिक और कलर्स मिला दिए जाते हैं तो यह नुकसानदेह साबित हो सकता है.

प्लास्टिक के क्वालिटी की जांच

यूं तो हम सभी लोग पानी के लिए प्लास्टिक की बोतल या खाना रखने के लिए प्लास्टिक लंच बाक्स का इस्तेमाल करते हैं लेकिन क्या कभी हमने उन्हें पलटकर देखा है कि उनके पीछे क्या लिखा है? क्या इस पर कोई सिंबल तो नहीं बना हुआ है? दरअसल, अच्छी क्वालिटी के प्रोडक्ट पर सिंबल्स का होना जरूरी है. यह मार्क ब्यूरो आफ इंडियन स्टैंडर्ड जारी करता है. इन सिंबल्स के बीच में कुछ नंबर दिये होते हैं जिससे पता लगता है कि आपके हाथ में जो प्रोडक्ट है, वह किस तरह के प्लास्टिक से बना है और उसकी क्वालिटी कैसी है.

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नंबर्स का मतलब

अगर प्रोडक्ट पर नंबर 1 लिखा है तो यह प्रोडक्ट टेरेफथालेट से बना है. यह अच्छा प्लास्टिक है. अमेरिका के फूड एंड ड्रग ऐडमिनिस्ट्रेशन ने इसे खाने-पीने की चीजों की पैकेजिंग के लिए सुरक्षित बताया है. साफ्ट ड्रिंक, वाटर, केचअप, अचार, जेली और पीनट बटर ऐसी बोतलों में रखे जाते हैं.

नंबर 2 का मतलब है कि यह प्रोडक्ट हाई-डेंसिटी पालिथिलीन से बना है. वजन में हल्का और टिकाऊ होने की वजह से इसका इस्तेमाल आम है. दूध, पानी और जूस की बोतल, रिटेल बैग्स बनाने में इसका इस्तेमाल किया जाता है.

नंबर 3 का मतलब है कि यह प्रोडक्ट पालीविनाइपाइरोलीडोन क्लोराइड से बना है.

इसका इस्तेमाल कन्फेक्शनरी प्रोडक्ट्स, डेयरी प्रोडक्ट्स, सौस, मीट, हर्बल प्रोडक्ट्स, मसाले, चाय और काफी आदि की पैकेजिंग में होता है.

नंबर 4 का मतलब है कि यह प्रोडक्ट लो डेंसिटी पालिथिलीन से बना है. यह नान-टाक्सिक मैटेरियल है. इससे सेहत को कोई नुकसान नहीं होता. इससे आउटडोर फर्नीचर, फ्लोर टाइल्स और शावर कर्टेन बनते हैं.

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नंबर 5 का मतलब है कि यह प्रोडक्ट पालीप्रोपोलीन से बना है. इससे बोतल के ढक्कन, ड्रिंकिंग स्ट्रा और योगर्ट कंटेनर बनाए जाते हैं.

नंबर 6 का मतलब है कि प्रोडक्ट पालिस्टरीन से बना है. यह फूड पैकेजिंग के लिए सेफ है लेकिन इसे रीसाइकल करना मुश्किल है इसलिए इसके ज्यादा इस्तेमाल से बचना चाहिए.

नंबर 7 का मतलब है कि इस प्रोडक्ट में कई तरह के प्लास्टिक का मिक्सचर होता है. यह काफी मजबूत होता है. हालांकि कुछ एक्सपर्ट्स कहते हैं कि इसमें हार्मोंस पर असर डालने वाले बाइस्फेनाल की मौजूदगी होती है इसलिए इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

खाने की चीजें रखने के लिए 1, 2, 4 और 5 कैटेगरी का प्लास्टिक सही है. ये बेहतर फूडग्रेड कैटेगरी में आते हैं. जबकि 3 और 7 नंबर वाले कैटेगरी के कंटेनर खाने में केमिकल छोड़ते हैं, खासकर गर्म करने के बाद. 6 नंबर के प्लास्टिक भी नुकसानदेह होते हैं इसलिए इसका भी कम इस्तेमाल करें और इनमें खाने की चीजें न रखें.

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