मसला: दलित नेता, दलितों के दुश्मन

29अगस्त, 2022 को नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो ने जो आंकड़े प्रकाशित किए, उन से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में साल 2021 में 1.02 फीसदी दलितों के खिलाफ जुल्म बढ़ने की रिपोर्टें दर्ज हुईं और मध्य प्रदेश में 6.4 फीसदी रिपोर्टें बढ़ीं. केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले, जो खुद दलित हैं, ने मार्च, 2022 में माना कि भारतीय जनता पार्टी के राज में साल 2018 से साल 2020 में 1,38,825 तो जुल्मों की रिपोर्टें दर्ज हुई थीं.

दिसंबर, 2022 में तमिलनाडु में कोयंबटूर के पास के एक गांव में 102 साल की एक बूढ़ी औरत की लाश को कब्रिस्तान में गाड़ने की इजाजत न देने पर झगड़ा हुआ, पर देशभर में किसी ने कुछ नहीं बोला, जबकि दीपिका पादुकोण की बिकिनी के रंग पर सारा सोशल मीडिया बेर्श्मी से रंगा हुआ है. दलित मौतों पर न रिपोर्ट छपती है, न कोई खबर, पर सोशल मीडिया में हल्ला मचता है.

10 दिसंबर, 2022 को ही कानपुर, उत्तर प्रदेश में एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ कर ठाकुरों के घर के सामने से गुस्साए ठाकुरों ने दलित बरातियों की उन के विवाह स्थल पर जा कर जम कर पिटाई की जो ट्विटर पर वीडियो पर देखी जा सकती है.

इन सब मामलों में हिंदू रक्षावाहिनी वाले तो चुप रहे ही, कांग्रेसी, समाजवादी और सब से बड़ी बात मायावती तक ने मुंह नहीं खोला, क्योंकि ये सब दलितों के वोट चाहते हैं, उन्हें बराबर का दर्जा नहीं दिलाना चाहते. उलटे ये जाति व्यवस्था के ग्रंथों ‘गीता’, ‘मनुस्मृति’ व पुराणों को बारबार याद करते हैं और कहने की कोशिश करते हैं कि उन में जो कहा गया है, वही आज के हिंदू बनाम पौराणिक राज में चलेगा.

दलित नेता क्यों रहे पीछे

साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले देशभर में दलित राजनीति चरम पर थी. दलित वोटों को समेटने और गंवा देने की बेचैनी हर तरफ देखी जा रही थी. हर पार्टी, हर नेता को सिर्फ दलित ही दिखाई दे रहा था. खुद प्रधानमंत्री नरेंद मोदी तक प्रयागराज में कुंभ स्नान के दौरान मैला ढोने वालों के पैर अपने हाथों से पखार रहे थे.

दलितों को अपने पाले में रखने की रणनीति के तहत भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ‘जन्म शताब्दी वर्ष’ के कार्यक्रमों में दलितों पर खासतौर पर फोकस किया था. दलितों के बीच लामबंदी तेज करने के लिए भाजपा ने पहली बार हर बूथ पर अनुसूचित मोरचा समिति तक बना डाली थी.

यही नहीं, दलितों की सब से बड़ी नेता कही जाने वाली मायावती ने अपनी दलित राजनीति और जनाधार को बचाए रखने के लिए विधानसभावार कार्यकर्ता सम्मेलन आयोजित किए थे, जिन में उन्होंने खुद बढ़चढ़ कर भाग लिया था. उन्होंने तब अपने सभी कोऔर्डिनेटरों को उत्तर प्रदेश में दलितों पर हो रहे जोरजुल्म के मामलों की जानकारी नियमित तौर पर प्रदेश हैडक्वार्टर भेजने का भी निर्देश दिया था.

दलितों पर अत्याचार के मामलों में पीडि़त पक्ष को कानूनी मदद मुहैया कराने के निर्देश भी दिए गए थे, मगर 17 जुलाई, 2019 को सोनभद्र में एक बड़ा दलित नरसंहार हो गया और मायावती को वहां जा कर पीडि़तों के जख्मों पर हमदर्दी का फाहा रखने का वक्त नहीं मिला.

दरअसल, उस वक्त के अपने भाई आनंद कुमार की नोएडा में कब्जाई तकरीबन 400 करोड़ रुपए की गैरकानूनी जमीन के मामले में उलझी हुई थीं, जिस पर प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग ने कार्यवाही की थी और उसे अटैच कर लिया था.

उस वक्त मायावती के लिए सोनभद्र में दलितों के नरसंहार का मामला इतना खास नहीं था, जितना उन के भाई आनंद कुमार की बेनामी जायदाद को बचाने का मामला.

मई, 2017 में सहारनपुर में दलितराजपूत हिंसा के बाद एक नए

नेता चंद्रशेखर आजाद रावण ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं. कहा जाता है कि उन का बहुजन संगठन छुआछूत, भेदभाव, ऊंचनीच की भावनाओं को मिटा कर बहुजन समाज को उन का हक दिलाने के लिए काम कर रहा है.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान इस संगठन का काफी दबदबा दिख रहा था कि जब आचार संहिता उल्लंघन का आरोप लगा कर पुलिस ने चंद्रशेखर आजाद रावण को गिरफ्तार कर जेल भेजा और वहां से वे अस्पताल में शिफ्ट हुए तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी उन से मिलने गई थीं.

मगर चुनाव खत्म होते ही भीम आर्मी गायब हो गई. सोनभद्र के नरसंहार पर दलित हितैषी चंद्रशेखर आजाद रावण की चुप्पी भी आज तक हैरान करने वाली है.

गुजरात के वेरावल में दलितों की पिटाई के बाद भड़के दलित आंदोलन का नेतृत्व करने वाले जिग्नेश मेवाणी भी सोनभद्र में 10 दलितों की हत्याओं पर चुप रहे.

जिग्नेश मेवाणी वही नेता हैं, जिन्होंने घोषणा की थी कि अब दलित लोग समाज के लिए गंदा काम यानी मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालने, सिर पर मैला ढोने या नालियां या गटर साफ करने जैसा काम नहीं करेंगे.

उन्होंने सरकार से भूमिहीन दलितों को जमीन देने की मांग भी उठाई थी, मगर दलित हित की ये बड़ीबड़ी बातें चुनाव से पहले की हैं. चुनाव खत्म होते ही बातें भी खत्म हो गईं. दलित उसी दशा में हैं, उन्हीं कामों में लगे हुए हैं.

ऐक्टिविस्ट, वकील, नेता और गुजरात विधानसभा में कांग्रेस सीट पर विधायक बने जिग्नेश मेवाणी की दलितों के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट पर दलितों की बेहाली पर कमैंट डाल कर अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री समझ ली.

राजग सरकार में राज्यमंत्री रामदास अठावले दलित नेता हैं. महाराष्ट्र का दलित समाज उन पर बड़ा भरोसा करता है, मगर वे सदन में अपनी बेतुकी तुकबंदियों में ही अपनी सारी ऊर्जा बरबाद कर रहे हैं. दलितों की समस्याओं का समाधान उन के बस की बात नहीं है. हां, उन्होंने क्रिकेट में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 25 फीसदी आरक्षण की मांग जरूर रखी थी, जो कभी पूरी होगी, ऐसा लगता नहीं है.

बीकानेर के सांसद अर्जुनराम मेघवाल भी संसद में दलितों के मुद्दे पर बड़े मुखर हो कर बोलते हैं, लेकिन दलित समाज के बीच जा कर उन के दुखदर्द बांटने का मौका उन्हें भी कम ही रहता है. सोनभद्र पर भी उन का कोई बयान सुनाई नहीं पड़ा.

सुशील कुमार शिंदे हों, पीएल पुनिया या अब कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, तीनों ही कांग्रेस के सीनियर दलित नेता हैं. इन की पहचान उच्च शिक्षित, शांत और सादगी रखने वाले नेताओं के तौर पर है, जिस का कोई फायदा दमन और उत्पीड़न से त्रस्त दलित समाज को नहीं मिलता है.

कांग्रेस के यह तीनों दलित नेता व्यक्तिगत रूप से न कभी दलित समाज के बीच उठतेबैठते हैं और न ही इस समाज के दर्द और परेशानियों से उन का कोई वास्ता है. ये चुनाव के दौरान ही सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी वाड्रा के पीछे नजर आते हैं.

पहले उग्र रहे दलित नेता उदित राज भी भाजपा से दुत्कारे जाने के बाद कभीकभी अखबारटीवी में दलित चर्चा कर लेते हैं.

उत्तर प्रदेश के राम नगर के खटीक परिवार में जनमे उदित राज ज्यादातर वक्त अपनी राजनीतिक जमीन खोजने में बिताते हैं. जब वे भाजपा से बाहर थे, तो भाजपा को गरियाते थे, पर फिर उन का दिल बदल गया और भाजपा की गोद में जा कर सांसद बन गए थे, तब उन के सुर भाजपा वाले हो जाते थे.

वहीं 5 बार लोकसभा सांसद और स्पीकर रह चुकी मीरा कुमार से भी दलित समाज को क्या मिला? उपप्रधानमंत्री रह चुके जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार ने साल 1985 में उत्तर प्रदेश के बिजनौर से चुनावी राजनीति में प्रवेश किया था और पहले ही चुनाव में रामविलास पासवान और मायावती को भारी मतों से हराया था.

दलित नेता के रूप में दलित समाज को उन से काफी उम्मीदें थीं, मगर वे कभी अपनों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं. कांग्रेस ने उन का इस्तेमाल ‘दलित हितैषी’ होने का संदेश देने के लिए किया और राष्ट्रपति पद के लिए मीरा कुमार का नाम कांग्रेस की तरफ से प्रस्तावित हुआ.

हालांकि बाद में देश के इस सर्वोच्च पद पर दलित रामनाथ कोविंद बैठे, जो उत्तर प्रदेश की गैरजाटव कोरी जाति से हैं. साल 1991 में भाजपा से जुड़ने के बाद रामनाथ कोविंद 1998-2002 के बीच भाजपा दलित मोरचा के अध्यक्ष रहे. रामनाथ कोविंद के बहाने भाजपा हाशिए पर पड़ी अपनी दलित राजनीति को केंद्र में ले आई.

रामनाथ कोविंद खुद के संघर्षपूर्ण जीवन का जिक्र करने से नहीं चूके और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी राष्ट्रपति पद पर उन की उम्मीदवारी का ऐलान करते वक्त तकरीबन 5 मिनट में 5 बार ‘दलित’ शब्द का जिक्र किया.

रामनाथ कोविंद के कारण भाजपा की दलित वोटों को ले कर रस्साकशी कुछ कम हुई और हिंदुत्ववादी राजनीति को भी नया तेवर मिला. कुछ दलित वोट भाजपा के पाले में खिसका, मगर देश के सर्वोच्च पद पर कोविंद की अहमियत सजावटी ही है, उन के जरीए दलित समाज का कोई उद्धार न हुआ और न होगा. वे भाजपा के हिंदुत्व जागरण के दलित एंबेसेडर बन कर रह गए.

दरअसल, रामनाथ कोविंद की पे्ररणा तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है. संघ और भाजपा ने सिर्फ अपने एजेंडे को लागू करने के लिए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया था, न कि दलितों के किसी फायदे के लिए. इन छद्म दलित नेताओं से दलित समाज का कोई उद्धार होगा, उन्हें इस देश में बराबरी का हक मिलेगा, इस भरम से अब इस तबके को निकल आना चाहिए.

वर्ण व्यवस्था मजबूत कर रहा है संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है. संघ की उत्पत्ति ही इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हुई थी. इसे वह कैसे छोड़ देगा? वह ऐसा हिंदू राष्ट्र चाहता है, जिस में वर्णाश्रम व्यवस्था पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो.

कितनी विरोधाभासी बात है कि यही संघ ‘समरसता’ का नारा देता है, यानी सब के साथ समान बरताव हो, लेकिन मूर्ख से मूर्ख आदमी भी यह सवाल उठाएगा कि जातीय श्रेष्ठता के भाव से पैदा हुए शोषण, उत्पीड़न को खत्म किए बगैर समरसता कैसे हो सकती है?

दलित समाज को भी इस बात पर चिंतन करना चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहे दलितों के पांव पखारें या संघ दलितों की ओर शंकराचार्य, महामंडलेश्वर और मंदिर का पुजारी बनने का चुग्गा फेंकें, इन प्रलोभनों के पीछे छिपे सच की पड़ताल जरूरी है.

दलित, जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था, वे भारत की कुल आबादी का 16.6 फीसदी हैं. इन्हें अब सरकारी आंकड़ों में अनुसूचित जातियों के नाम से जाना जाता है. साल 1850 से 1936 तक ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार इन्हें दबेकुचले वर्ग के नाम से बुलाती थी.

भारत में आज हिंदू दलितों की कुल आबादी तकरीबन 23 करोड़ है. अगर हम 2 करोड़ दलित ईसाइयों और 10 करोड़ दलित मुसलमानों को भी जोड़ लें, तो भारत में दलितों की कुल आबादी तकरीबन 35 करोड़ बैठती है. ये भारत की कुल आबादी के एकचौथाई से भी ज्यादा हैं.

भेदभाव, दमन, मंदिरों में प्रवेश से रोक और अत्याचारों से तंग दलित समुदाय आज बौद्ध धर्म की ओर खासा खिंचता है. बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा नहीं होती, इसलिए धर्म परिवर्तन के जरीए लाखों दलित बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके हैं.

अब हिंदू राष्ट्र के निर्माण की कल्पना पाले हिंदुत्ववादियों को यह डर सता रहा है कि कहीं बचे हुए 23 करोड़ दलित भी हिंदू धर्म न छोड़ दें. इस से उन की ताकत कम हो जाएगी.

दरअसल, मंदिरों में प्रवेश पर पाबंदी को ले कर अब दलित यह सवाल करने लगा है कि अगर हम भी हिंदू हैं तो फिर अछूत कैसे हैं? हमें मंदिरों में प्रवेश क्यों नहीं मिल सकता है और इसीलिए संघ ने ‘समरसता’ का नारा दे कर इन्हें जोड़े रखने की चाल चली है, इसीलिए एक मंदिर, एक श्मशान की बातें भी हो रही हैं. मगर वर्ण व्यवस्था को खत्म करने की बात कहीं नहीं सुनाई पड़ रही. सवर्ण दलित में रोटीबेटी के संबंध की बात भी नहीं सुनाई देती. जब तक यह नहीं तो समरसता कैसी?

दलितों को अपने साथ जोड़ने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी सभाओं के द्वार दलितों के लिए भी खोले. पर दलित वहां बैठने के लिए अपनी दरी अपने साथ लाया. सभा में सभी अपनीअपनी दरियां लाते हैं.

पहली लाइन में बैठने वाले सवर्णों की महीन रेशमी धागों से बुनी सुंदर कलाकृतियों वाली दरियां और आखिरी लाइनों में बैठने वाले निचली जाति के लोगों की मोटे धागेजूट की बनी दरियां. कौन ऊंचा और कौन दलित, यह फर्क दरी देख कर ही नजर आ जाता था, जबकि ‘समरसता’ का मंत्र दिया गया और सब की दरियों का रंग भगवा कर दिया गया है.

लिहाजा, ऊपरी तौर पर फर्क खत्म हो गया है. संघ से जुड़े दलितों की हीनभावना में भी कुछ कमी दिख रही है. सभा संदेश की तरफ उस का भी मन लगने लगा है, मगर दलितों को यह समझने की जरूरत है कि अंदरूनी तौर पर तो फर्क अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है.

रेशमी भगवा दरियां और मोटे जूट की भगवा दरियों में फर्क तो है ही और यह फर्क उस पर बैठने वाले को ही अनुभव होता है यानी भगवा रंग के भीतर वर्ण व्यवस्था ज्यों की त्यों बरकरार है. फर्क वहीं का वहीं है. संघ की इस चालाकी को समझने की जरूरत है.  द्य

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