जम्मूकश्मीर और बंगलादेश के निहत्थे निर्दोष हिंदू अपने ही देश के नागरिकों द्वारा मारे जा रहे हैं और महान हिंदू राष्ट्र बनाने का वादा करने वाले असहाय ताक रहे हैं. जम्मूकश्मीर में अचानक हिंदू बिहारी मजदूरों पर आक्रमण शुरू हो गए और लगभग उसी समय बंगलादेश में बंगलादेशी नागरिक हिंदुओं पर भी आक्रमण होने लगे. कुछ गोलियां से मारे गए, कुछ हिंसा में, कुछ के घर जले. धर्म के नाम पर एक गुट दूसरे के खून का प्यासा होने लगा, जबकि दोनों ही जगह न हिंदू, न मुसलमान इतनी फुरसत में हैं कि वे किसी तरह का दंगा सह सकें.

आर्थिक संकटों से जूझ रहे बंगलादेश और जम्मूकश्मीर दोनों में समय व शक्ति काम में लगनी चाहिए, पर लग रही है फालतू के दंगों में. जिन से तथाकथित कल्याण करने वाला धर्म बचाया जा सके. बंगलादेश ने हाल में उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति की है और इस में वहां के हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का बराबर का हाथ है और कोई खास वजह नहीं कि वे एकदूसरे के खून के प्यासे हों.

जम्मूकश्मीर में जो भी नाराजगी कश्मीरी मुसलमानों को है वह दिल्ली सरकार से है और बिहार से गए हिंदू मजदूर उस के लिए कहीं से जिम्मेदार नहीं हैं. ये लोग कश्मीर इसलिए आते हैं, क्योंकि यहां इस तरह का काम करने वाले नहीं मिलते. ये कमा रहे हैं पर साथ ही उन कश्मीरियों की सेवा भी कर रहे हैं जो काम नहीं करना चाहते, वरना क्यों गरम इलाकों में रहने वाले कश्मीर की ठंड में सर्दियों में अपने को ठिठुराएंगे?

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धर्म को असल में लोगों के सुख से कुछ लेनादेना नहीं होता. जन्म से ही धर्म में कैद लोगों को चाहे जैसे मरजी हांका जा सकता है. धर्म ने सदियों से यह फार्मूला अपनाया है. झोंपड़ी में रह कर, भूखेनंगे लोगों के पिरामिड बनाए, रोम के चर्च बनाए, मसजिदें बनाईं, मकबरे बनाए, अंकोरवाट जैसे मंदिर बनाए, एलोरा और अजंता में पत्थर काट कर महल बनाए, अपने सुख के लिए नहीं उस धर्म के लिए जिस का न ओर पता है, न छोर और जो देता सपने और वादे है और लेता पैसा, औरतें और जान है.

जो हिंदू कश्मीर और बंगलादेश में मारे जा रहे हैं और जो मुसलमान मर रहे हैं उन की आपस में कोई दुश्मनी नहीं है, किसी ने एकदूसरे से कुछ लियादिया नहीं. धर्म ने कहा मार दो तो मार डाला. हमारे देश में भी यही काम हिंदू बजरंगी, सेवादल कर रहे हैं. सड़कों पर चल रहे निहत्थे मुसलमानों को मारापीटा जा रहा है, बिना किसी कारण के. न कश्मीर में, न बंगलादेश में और न भारत में दूसरे धर्म को लूटने की नीयत से भी नहीं मारा जा रहा. सिर्फ इसलिए पीट दो, मार दो कि  उस का हुक्म उन के धर्म ने दिया है.

अफगानिस्तान में अमेरिका के भाग जाने से मुसलिम जगत की हिम्मत भी बढ़ गई तो बड़ी बात नहीं. तालिबानी अपने मनसूबे पहले ही जता चुके हैं. अफीम के व्यापार के कारण उन के पैर हर जगह फैले हैं. वे अब यूरोप में भी कहर मचाने लगे हैं, अमेरिका में न जाने फिर कभी न्यूयौर्क के ट्विन टौवर जैसा 9/11 हादसा हो जाए.

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इस सब से क्या हिंदू या ईसाई अपना धर्म छोड़ कर मुसलमान बन जाएं तो बात होती. हर धर्म की अपने मूर्ख भक्तों पर इतनी पकड़ है कि वह जानता है कि लोग जान दे देंगे पर धर्म नहीं बदलेंगे. वैसे भी जब भी 10-20 लोग एक धर्म छोड़ कर हावी हो रहे धर्म को अपनाते हैं तो उन के पुराने धर्म वाले ही उन के दुश्मन हो जाते हैं और उन्हें मारने के स्पष्ट आदेश हर धर्म में हैं. एक तरह से हर धर्म का भक्त अपने धर्म का गुलाम है और ये हत्याएं भक्ति का प्रसाद हैं.

इन से न तो इसलाम को लाभ होगा और न हिंदू धर्म को कोई नुकसान होगा. पिसेंगे तो दोनों धर्मों के लोग. दुकानों की हलवापूरी चालू रहेगी. औरतें भी मिलती रहेंगी.

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