लगभग आजादी के बाद से भारत सरकारों का गरीबों की मुसीबतों से ध्यान बंटाने में कश्मीर बड़े काम का रहा है. जब भी महंगाई, बेरोजगारी, सूखा, बाढ़, पानी की कमी, फसल के दामों, मजदूर कानून, मकानों की बात होती है, सरकारें कश्मीर के सवाल को खड़ा कर देती हैं कि पहले इसे सुलटा लें, फिर इन छोटे मामलों को देखेंगे. 1947 से ही कश्मीर की आग में लगातार तेल डाला जाता रहा है ताकि यह जलती रहे और देश की जनता को मूर्ख बनाया जाता रहे.

भारतीय जनता पार्टी के लिए तो यह मामला बहुत दिल के करीब है क्योंकि मुगल और अफगान शासनों के बाद डोगरा राज जब कश्मीर में आया तो ढेरों पंडितों को वहां अच्छे ओहदे मिले पर 1985 के बाद जब कश्मीर में आतंकवाद पनपने लगा तो उन्हें कश्मीर छोड़ कर जम्मू या अन्य राज्यों में जाना पड़ा. इन पंडितों की बुरी हालत का बखान भाजपा के लिए चुनावी मुद्दा रहा है, गरीबों, किसानों, मजदूरों की मुसीबतें नहीं.

अब कश्मीर के मसले में पाकिस्तान की जगह अफगानिस्तान के तालिबानी भी आ कूद पड़े हैं. अफगानों ने कश्मीर पर 1752 से 1819 तक राज किया था और एक लाख से ज्यादा पश्तून वहां रहते हैं. तालिबानी शासकों ने साफसाफ कह दिया है कि उन्हें कश्मीर के मामले में बोलने का हक है. और चूंकि अफगानिस्तान पर पूरे कब्जे के बाद तालिबानियों के हौसले अब बुलंद हैं और चीन, रूस भी उन से उल?ाने को तैयार नहीं और पाकिस्तान तो उन का साथी है ही, कश्मीर का विवाद अब तेज होगा ही.

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नरेंद्र मोदी की सरकार अब इस मामले को चुनावों में कैसे भुनाती है, यह देखना है. 1947 के बाद अफगानिस्तान कश्मीर के मामले में आमतौर पर चुप रहा है और पाकिस्तान ही कश्मीर की पैरवी करता रहा है. पाकिस्तान का नाम ले कर अपने यहां हिंदू खतरे में है का नारा लगा कर चुनाव जीतना काफी आसान है. लोगों को चाहे फर्क नहीं पड़ता हो, पर हवा जो बांधी जाती है उस में हाय पाकिस्तान, हाय पाकिस्तान इतना होता है कि चुनाव में लगता है कि विपक्षी दल तो हैं ही नहीं और चुनाव में पाकिस्तान और देश में से एक को चुनना है. रोटी, कपड़ा, मकान बाद में देखेंगे, पहले कश्मीर और पाकिस्तान को सुलटा लें.

तालिबानी लड़ाकुओं से निबटना भारत के लिए आसान नहीं होगा. काबुल और इसलामाबाद की दोस्ती की वजह से तालिबानी लड़ाकू आसानी से भारतीय सीमा पर डटे सैनिकों से भिड़ने आ सकते हैं. चूंकि तालिबानी मरने से डरते नहीं हैं और उन के पास जो अमेरिकी हथियारों का भंडार है उसे कश्मीर में ही इस्तेमाल किया जा सकता है, हमारे लिए चिंता की बात है. हमें कश्मीर को तो बचाना है पर यह जो बहाना बनेगा सरकार के निकम्मेपन को छिपाने का, यह दोहरी मार होगी.

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अफगानिस्तान में अमेरिकी सेनाओं को भी भगा देने से अफगानों की हिम्मत बहुत बढ़ गई है और वे तालिबानी पंजे कहांकहां फैलाएंगे, पता नहीं. भारत उन के चंगुल में फंसेगा या बचेगा अभी नहीं कहा जा सकता. कट्टर हिंदू भाजपा सरकार और कट्टर इसलामी तालिबानी सरकारों की आपस में बनेगी, इस की गुंजाइश कम है. गरीबों की रोजीरोटी और मकान के मसले चुनावी जंग में फिर पीछे कहीं चले जाएंगे.

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