कुछ लोग ऐसे होते हैं जो संसार में आते हैं तो किसी को भनक तक नहीं होती, लेकिन उन की मौत पर दुनिया को बेतहाशा दुख होता है. ऐसे ही महान इंसानों में मिल्खा सिंह को शामिल किया जा सकता है. जिन्होंने अपनी मेहनत और जज्बे की बदौलत सफलता की ऐसी दास्तान लिखी कि…

भारत के महान फर्राटा धावक मिल्खा सिंह पिछले महीने कोरोना संक्रमण से जूझने के बाद ठीक हो गए थे.

लेकिन कुछ रोज पहले उन की तबीयत फिर से बिगड़ गई, जिस के बाद उन्हें चंडीगढ़ के पीजीआईएमईआर के आईसीयू में भरती कराया गया था. लेकिन दुनिया के बड़े से बडे़ धावकों को पछाड़ने वाले इस धावक को आखिर 18 जून, 2021 की रात साढे़ 11 बजे उन की बीमारी ने हरा दिया.

मिल्खा सिंह की हालत 18 जून की शाम से ही खराब थी. बुखार के साथ उन की औक्सीजन भी कम हो गई थी. उन्हें पिछले महीने कोरोना हुआ था, लेकिन 2 दिन पहले उन की रिपोर्ट नेगेटिव आने के बावजूद तबियत में सुधार नहीं हो रहा था. जिस कारण 2 दिन पहले उन्हें जनरल आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया था, वहां उन की हालत स्थिर बनी हुई थी.

दुखद बात यह थी कि उन की पत्नी 85 वर्षीय निर्मल कौर का भी 5 दिन पहले एक निजी अस्पताल में कोरोना बीमारी के कारण निधन हो गया था. बीमारी से जूझ रहे मिल्खा सिंह को प्राण छोड़ते समय तक इस बात का मलाल था कि वह जीवन के कठिन संघर्षों में उन का साथ निभाने वाली जीवनसंगिनी के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो सके थे. उन की पत्नी भारतीय वालीबाल टीम की पूर्व कप्तान रही थीं.

मिल्खा सिंह के निधन की खबर से देश के खेल जगत से एक ऐसा सितारा टूट कर लुप्त हो गया है, जिस की भरपाई होना बेहद मुश्किल है. मिल्खा सिंह के जन्म से ले कर उन के अवसान तक की कहानी किसी ऐतिहासिक फिल्म की कहानी की तरह है, जो युवाओं को प्रेरित करने वाली है.

मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवंबर, 1929 को गोविंदपुरा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) के एक सिख राठौर (राजपूत) परिवार में हुआ था. अपने मांबाप की कुल 15 संतानों में वह एक थे. उन्होंने अपनी पढ़ाई की शुरुआत वहां के एक स्कूल से की और करीब 5वीं कक्षा तक अपनी पढ़ाई की. उन का बचपन 2 कमरों के घर में रहने वाले परिवार के साथ गरीबी में बीता. इस में एक कमरा पशुओं के लिए था.

1947 में भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान उन्होंने अपने मातापिता को खो दिया. उस दौरान विभाजन के लिए हुए मजहबी दंगों में उन के कई भाईबहन समेत परिवार के कई रिश्तेदारों की उन की आंखों के सामने ही हत्या कर दी गई.

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मिल्खा के मनमस्तिष्क पर दंगों की वे स्मृतियां मरते दम तक जिंदा रहीं. मिल्खा अपने  जीवन में कई बार अपनी बचपन की यादों का जिक्र करते भावुक हुए थे, जब उस दौरान हुए दंगों और चारों तरफ फैले खूनखराबा तथा रक्तरंजित मंजर का जिक्र करते थे. मिल्खा शायद अपने जीवन में पहली बार उस दौरान ही रोए थे.

जब पाकिस्तान में उन के परिवार का नरसंहार हुआ, उस से 3 दिन पहले मिल्खा को मुलतान में अपने सब से बड़े भाई माखन सिंह की मदद के लिए भेजा गया था. माखन सिंह मुलतान में हवलदार तैनात थे. मुलतान जाने के लिए उन्होंने कोट अड्डू से ट्रेन पकड़ी. ट्रेन पहले की यात्रा से खून से सनी पड़ी थी. मिल्खा सिंह डर की वजह से महिलाओं के डिब्बे में एक सीट के नीचे छिप गए थे, क्योंकि उन्हें आक्रोशित भीड़ द्वारा खुद को मार दिए जाने की आशंका थी.

जब मिल्खा अपने भाई माखन के साथ लौट कर कोट अड्डू पहुंचे, तब तक दंगाइयों ने उन के गांव को श्मशान घाट में बदल दिया था. मिल्खा के मातापिता, 2 भाइयों और उन की पत्नियों को इतनी बेरहमी के साथ मारा गया था कि उन के शवों को भी नहीं पहचाना जा सका.

जूतों पर करते थे पौलिश

घटना के लगभग 4 या 5 दिनों के बाद माखन के कहने पर मिल्खा सिंह अपनी भाभी जीत कौर के साथ भारत के लिए सेना के एक ट्रक में सवार हो कर फिरोजपुर-हुसनीवाला क्षेत्र में आ गए. माखन वहां सेना में ही रहे.

यहां आ कर मिल्खा ने काम ढूंढना शुरू किया. काम की तलाश में वह अकसर स्थानीय सेना के शिविरों का दौरा किया करते थे और कई बार भोजन पाने के लिए सेना के जवानों के जूते पौलिश करते थे.

लेकिन यहां भी समस्या ने उन का साथ नहीं छोड़ा. फिरोजपुर से हो कर जो सतलुज नदी गुजरती है, अगस्त महीने में उस में बाढ़ आ गई जिस से छत पर चढ़ कर उन्हें जान बचानी पड़ी. घर का सारा सामान बह चुका था.

फिरोजपुर में तकलीफें झेल चुके मिल्खा ने दिल्ली का रुख करने का मन बनाया. सुना था कि वहां काम ढूंढना आसान होता है. उन की प्राथमिकता दिल्ली पहुंचने की थी लेकिन ट्रेन में इतनी भीड़ थी कि उस में घुसना भी मुश्किल था. किसी तरह उन्होंने भाभी को महिला डिब्बे में घुसा दिया और खुद ट्रेन की छत पर चढ़ गए.

जिस ट्रेन से वह दिल्ली  गए थे, उस में भी कत्लेआम हुआ और दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने उस ट्रेन में कई लाशें देखीं.

पुरानी दिल्ली स्टेशन पर वह उन हजारों शरणार्थियों की तरह ही थे, जो प्लेटफार्म पर खड़े थे, जिन्हें यह नहीं पता था कि जाना कहां है.

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चूंकि दिल्ली में रहने के लिए कोई जगह नहीं थी, उन्होंने कुछ दिन पुरानी दिल्ली रेलवे प्लेटफार्म पर ही अराजकता से भरे दिन बिताए. उन्होंने स्टेशन के बाहर जूते भी पौलिश किए. बाद में उन्हें पता चला कि उन की भाभी के मातापिता दिल्ली के शाहदरा इलाके में बस गए हैं. वह भाभी के मायके में चले तो गए, लेकिन उन्हें भाभी के घर पर रहने में घुटन महसूस हो रही थी, क्योंकि काफी समय यहां रहने पर वह खुद को एक बोझ सा समझने लगे थे.

हालांकि उन के लिए एक राहत की बात यह थी कि जब उन्हें पता चला कि उन की एक बहन ईश्वर कौर पास के ही एक स्थानीय इलाके में रह रही हैं तो वह रहने के लिए उन के पास चले गए. जब वह उन के घर पहुंचे तो परिवार का पुनर्मिलन आंसुओं भरा और मर्मस्पर्शी था. लेकिन वहां भी मिल्खा को यह अहसास हो गया कि बहन के अलावा अन्य लोगों को उन का वहां रहना जरा भी नहीं भाता था.

चूंकि मिल्खा के पास काम करने के लिए कुछ नहीं था, उन्होंने अपना समय सड़कों पर बिताना शुरू कर दिया और इस प्रक्रिया में वह बुरी संगत में पड़ गए. उन्होंने फिल्में देखना और उन के टिकट खरीद कर बेचना शुरू कर दिया.

साथ ही साथ अन्य लड़कों के साथ जुआ खेलना और चोरी करना भी शुरू कर दिया. उसी समय मिल्खा ने सुना कि उन के भाई माखन सिंह सेना की टुकड़ी के साथ भारत आ गए हैं. तब उन्हें उम्मीद जगी कि अब सारी चिंताएं दूर हो जाएंगी.

पढ़ाई में नहीं लगा मन

कुछ समय बाद उन के सब से बड़े भाई माखन सिंह को भारत के लाल किले में पोस्टिंग मिल गई. माखन सिंह मिल्खा को पास के एक स्कूल में ले गए और उन्हें 7वीं कक्षा में दाखिला करा दिया. परंतु अब उन्हें पढ़ाई करने में बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था, जिस के कारण वह फिर से बुरी संगत में पड़ गए.

1949 में मिल्खा सिंह और उन के दोस्तों ने भारतीय सेना में शामिल होने के बारे में सोचा और लाल किले में हो रहे भरती कैंप में चले गए. हालांकि मिल्खा सिंह को रिजेक्ट कर दिया गया. उन्होंने 1950 में फिर से एक कोशिश की और फिर से उन्हें खारिज कर दिया गया.

2 बार अस्वीकार किए जाने के बाद उन्होंने एक मैकेनिक के रूप में काम करना शुरू कर दिया. बाद में उन्हें एक रबर फैक्ट्री में नौकरी मिल गई, जहां उन का वेतन 15 रुपए महीना था. लेकिन वह लंबे समय तक काम नहीं कर पाए, क्योंकि इस बीच उन्हें हीट स्ट्रोक आया और 2 महीने तक वह बिस्तर पर ही पड़े रहे.

1952 के नवंबर में उन्हें अपने भाई की मदद से आखिर सेना में नौकरी मिल ही गई और उन की पहली पोस्टिंग श्रीनगर में हुई. श्रीनगर से उन्हें सिकंदराबाद में भारतीय सेना की ईएमई (इलैक्ट्रिकल मैकेनिकल इंजीनियरिंग) इकाई में भेजा गया.

वहां पर रहते हुए उन्होंने पहली बार जनवरी 1953 में 6 मील (लगभग 10 किमी) क्रौस कंट्री रेस में भाग लिया और 6ठे स्थान पर रहे. उस के बाद उन्होंने अपनी पहली 400 मीटर दौड़ 63 सेकंड में ब्रिगेड मीट में पूरी की और चौथे स्थान पर रहे. फिर उन्होंने पूर्व एथलीट गुरदेव सिंह से ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी.

जीतने की धुन हुई सवार

उस वक्त अकसर 400 मीटर दौड़ के अभ्यास के दौरान कभीकभी उन की नाक से खून निकलने लगता था. परंतु उन्हें जीतने की इतनी धुन सवार थी कि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

समय बीतता गया और एक एथलीट के रूप में वह दिनबदिन निखरते गए. आज उन्होंने जो पाया है, यकीनन वह उस के हकदार हैं. एक एथलीट के रूप में सभी भारतीयों को उन पर गर्व है.

बाद में सेना में एथलीट बनने के उन के ऐसे संघर्ष की शुरुआत हुई, जिस ने मिल्खा सिंह को खेल के आसमान में चमकने वाला ऐसा धु्रव तारा बना दिया, जिस का उदय अब शायद ही कभी होगा.

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नए कीर्तिमान किए स्थापित

मिल्खा सिंह ने दौड़ के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा को पहचान लिया था. इस के बाद उन्होंने सेना में कड़ी मेहनत शुरू की और 200 मीटर और 400 मीटर प्रतिस्पर्धा में अपने आप को स्थापित किया. उन्होंने एक के बाद एक कई प्रतियोगिताओं में सफलता हासिल की.

उन्होंने सन 1956 के मेलबोर्न ओलिंपिक खेलों में 200 और 400 मीटर में भारत का प्रतिनिधित्व किया पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुभव न होने के कारण सफल नहीं हो पाए. लेकिन 400 मीटर प्रतियोगिता के विजेता चार्ल्स जेंकिंस के साथ हुई मुलाकात ने उन्हें न सिर्फ प्रेरित किया, बल्कि ट्रेनिंग के नए तरीकों से अवगत भी कराया.

इस के बाद सन 1958 में कटक में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर प्रतियोगिता में राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किए और एशियन खेलों में भी इन दोनों प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक हासिल किए.

साल 1958 में उन्हें एक और महत्त्वपूर्ण सफलता मिली, जब उन्होंने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मीटर प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया. इस प्रकार वह राष्ट्रमंडल खेलों के व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले खिलाड़ी बन गए.

मिल्खा सिंह ने खेलों में उस समय सफलता प्राप्त की, जब खिलाडि़यों के लिए कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, न ही उन के लिए किसी ट्रेनिंग की व्यवस्था थी. आज इतने सालों बाद भी कोई एथलीट ओलंपिक में पदक पाने में कामयाब नहीं हो सका है.

रोम ओलंपिक शुरू होने तक मिल्खा सिंह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि जब वह स्टेडियम में घुसते थे तो दर्शक उन का जोशपूर्वक स्वागत करते थे.

रोम ओलंपिक में हो गई बड़ी चूक

दरअसल, मिल्खा सिंह की लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह था कि रोम पहुंचने के पूर्व वह यूरोप के कई टूर में अनेक बड़े खिलाडियों को हरा चुके थे और उन के रोम पहुंचने से पहले उन की लोकप्रियता की चर्चा वहां पहुंच चुकी थी.

हालांकि वहां वह कोई टौप के खिलाड़ी नहीं थे, लेकिन श्रेष्ठ धावकों में उन का नाम अवश्य था. उन की लोकप्रियता का दूसरा कारण उन की बढ़ी हुई दाढ़ी व लंबे बाल थे. लोग उस वक्त सिख धर्म के बारे में अधिक नहीं जानते थे. लोगों को लगता था कि कोई साधु इतनी अच्छी दौड़ लगा रहा है. उस वक्त ‘पटखा’ का चलन भी नहीं था, अत: सिख सिर पर रुमाल बांध लेते थे. मिल्खा सिंह के जीवन में 2 घटनाएं सब से ज्यादा महत्त्व रखती हैं.

पहली भारत पाकिस्तान का विभाजन जब उन के परिवार का पाकिस्तान में हुए कत्लेआम में खात्मा कर दिया गया, तब वह पहली बार रोए थे.  दूसरी घटना रोम ओलंपिक में उन का पदक पाने से चूक जाना था, जब वे दूसरी बार बिलखबिलख कर रोए.

रोम ओलिंपिक खेल शुरू होने से कुछ साल पहले से ही मिल्खा सिंह अपने खेल जीवन के सर्वश्रेष्ठ फौर्म में थे और ऐसा माना जा रहा था कि इन खेलों में मिल्खा पदक जरूर जीतेंगे.

रोम में 1960 के ओलंपिक खेलों में मिल्खा भारत के सब से बड़े पदक लाने की उम्मीद वाले खिलाडि़यों में से एक थे और उन के शानदार प्रदर्शन को देख कर देश उन से उम्मीदों पर खरे उतरने की उम्मीद कर रहा था.

लेकिन मिल्खा इस खेल में तीसरे स्थान पर भी नहीं रहे. दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेंस ने ब्रोंज जीता था. हालांकि इस रेस में 250 मीटर तक मिल्खा पहले स्थान पर भाग रहे थे, लेकिन इस के बाद उन की गति कुछ धीमी हो गई और बाकी के धावक उन से आगे निकल गए थे. खास बात यह है कि 400 मीटर की इस रेस में मिल्खा उसी एथलीट से हारे थे, जिसे उन्होंने 1958 कौमनवेल्थ गेम्स में हरा कर स्वर्ण पदक पर कब्जा किया था.

दरअसल उन्होंने ऐसी भूल कर दी, जिस का पछतावा उन्हें मरते दम तक रहा. इस दौड़ के दौरान उन्हें लगा कि वह अपने आप को अंत तक उसी गति पर शायद नहीं रख पाएंगे और पीछे मुड़ कर अपने प्रतिद्वंदियों को देखने लगे, जिस का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और वह धावक जिस से स्वर्ण की आशा थी कांस्य भी नहीं जीत पाया.

लेकिन 1960 के ओलंपिक में भले ही मिल्खा कांस्य पदक से चूक कर चौथे स्थान पर रहे. मगर उन का 45.73 सेकंड का ये रिकौर्ड अगले 40 साल तक नैशनल रिकौर्ड रहा.

मिल्खा को इस बात का अंत तक मलाल रहा. इस असफलता से वह इतने निराश हुए कि उन्होंने दौड़ से संन्यास लेने का मन बना लिया पर बहुत समझाने के बाद मैदान में फिर वापसी की.

1960 में पाकिस्तान में एक इंटरनैशनल एथलीट दौड़ प्रतियोगिता में हिस्सा लेने जाने का न्यौता मिला,  लेकिन बचपन की घटनाओं की वजह से वह वहां जाने से हिचक रहे थे. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समझाने पर वह इस के लिए राजी हो गए, क्योंकि दोनों देशों की मित्रता के लिए हो रहे प्रयासों के बीच उन के पाकिस्तान नहीं जाने से राजनीतिक उथलपुथल का संदेश जा सकता था. इसलिए उन्होंने दौड़ने का न्यौता स्वीकार लिया.

बहरहाल, रोम ओलंपिक के बाद हुए  टोक्यो एशियाई खेलों में मिल्खा ने 200 और 400 मीटर की दौड़ जीत कर भारतीय एथलेटिक्स के लिए नए इतिहास की रचना की. जब उन्होंने पहले दिन 400 मीटर दौड़ में भाग लिया. उन्हें जीत का पहले से ही विश्वास था, क्योंकि एशियाई क्षेत्र में उन का बेहतरीन  कीर्तिमान था.

शुरूशुरू में जो तनाव था, वह स्टार्टर की पिस्तौल की आवाज के साथ रफूचक्कर हो गया. उम्मीद के अनुसार उन्होंने सब से पहले फीते को छुआ और नया रिकौर्ड कायम किया.

जापान के सम्राट ने जब उन के गले में स्वर्ण पदक पहनाया तो उस क्षण का रोमांच मिल्खा शब्दों में व्यक्त नहीं कर सके. इस के अगले दिन 200 मीटर की दौड़ थी. इस में मिल्खा का पाकिस्तान के अब्दुल खालिक के साथ कड़ा मुकाबला था.

खालिक 100 मीटर का विजेता था. दौड़ शुरू हुई और दोनों के कदम एक साथ पड़ रहे थे. फिनिशिंग टेप से 3 मीटर पहले मिल्खा की टांग की मांसपेशी खिंच गई और वह लड़खड़ा कर गिर पड़े.

चूंकि वह फिनिशिंग लाइन पर ही गिरे थे इसलिए फोटो फिनिश रिव्यू में उन्हें विजेता घोषित किया गया और इस तरह मिल्खा एशिया के सर्वश्रेष्ठ एथलीट बन गए. जापान के सम्राट ने उस समय मिल्खा से जो शब्द कहे थे, वह मरते दम तक कभी नहीं भूले. उन्होंने उन से कहा था, ‘दौड़ना जारी रखोगे तो तुम्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो सकता है. बस, दौड़ना जारी रखो.’

पाकिस्तान में मिल्खा का मुकाबला एशिया के सब से तेज धावक माने जाने वाले अब्दुल खालिक से था. यह मिल्खा की जिंदगी का सब से रोमांचक दबाव भरा और भावनाओं की उथलपुथल भरा मुकाबला था. लेकिन इस मुकाबले में जीत के लिए मिल्खा ने अपना सर्वस्व झोंक दिया.

इस दौड़ में मिल्खा सिंह ने सरलता से अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर दिया और आसानी से जीत गए. इस मुकाबले में अधिकांशत: मुसलिम दर्शक इतने प्रभावित हुए कि पूरी तरह बुर्कानशीन औरतों ने भी इस महान धावक को गुजरते देखने के लिए अपने नकाब तक उतार दिए थे.

मिला फ्लाइंग सिख का खिताब

यही कारण रहा कि अब्दुल खालिक को हराने के बाद उस समय पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान ने मिल्खा सिंह से कहा था, ‘आज तुम दौड़े नहीं उड़े हो. इसलिए हम तुम्हें फ्लाइंग सिख के खिताब से नवाजते हैं.’ इस के बाद से मिल्खा सिंह को पूरी दुनिया में ‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से जाना जाने लगा.

एक के बाद एक रेस जीतने और कई रिकौर्ड अपने नाम पर दर्ज करा चुके मिल्खा धीरेधीरे अपने करियर में आगे बढ़ते रहे. मिल्खा सिंह के करियर का मुख्य आकर्षण 1964 का एशियाई खेल था, जहां उन्होंने 400 मीटर और 4×400 मीटर रिले स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीते.

टोक्यो में आयोजित हुए 1964 ओलंपिक में मिल्खा सिंह का प्रदर्शन यादगार नहीं था, जहां वह केवल एक ही इवेंट में भाग ले रहे थे, वह था 4×400 मीटर रिले दौड़ में मिल्खा सिंह के नेतृत्व वाली भारतीय टीम गरमी के कारण आगे बढ़ने में असमर्थ रही, जिस के बाद इस असफलता से निराश लंबे समय तक मिल्खा सिंह ने अपने दौड़ने वाले जूते लटका दिए थे.

कभीकभार जब मिल्खा सिंह से उन की 80 दौड़ों में से 77 में मिले अंतरराष्ट्रीय पदकों के बारे में पूछा जाता था तो वह कहते थे, ‘ये सब दिखाने की चीजें नहीं हैं, मैं जिन अनुभवों से गुजरा हूं, उन्हें देखते हुए वे मुझे अब भारत रत्न भी दे दें तो मेरे लिए उस का कोई महत्त्व नहीं है.’

बता दें कि आज की तारीख में भारत के पास बैडमिंटन से ले कर शूटिंग तक में वर्ल्ड चैंपियन हैं. बावजूद इस के ‘फ्लाइंग सिख’ मिल्खा सिंह की ख्वाहिश अधूरी है. वह दुनिया छोड़ने से पहले भारत को एथलेटिक्स में ओलंपिक मेडल जीतते देखना चाहते थे.

1958 के एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद सेना ने मिल्खा सिंह को जूनियर कमीशंड औफिसर के तौर पर प्रमोशन कर सम्मानित किया था. बाद में उन्हें पंजाब के शिक्षा विभाग में खेल निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया और इसी पद से मिल्खा सिंह साल 1998 में रिटायर्ड हुए.

पहली जुलाई, 2012 को उन्हें भारत का सब से सफल धावक माना गया, जिन्होंने ओलंपिक्स खेलों में लगभग 20 पदक अपने नाम किए हैं. यह अपने आप में ही एक रिकौर्ड है. मिल्खा सिंह ने अपने जीते गए सभी पदकों को देश के नाम समर्पित कर दिया था, पहले उन के मैडल्स को जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में रखा गया था, लेकिन फिर बाद में पटियाला के एक गेम्स म्यूजियम में मैडल्स ट्रांसफर कर दिए गए.

जब नेहरू ने मिल्खा सिंह से कहा मांगो क्या मांगते हो

आजादी के फौरन बाद वैश्विक खेल मंच पर अगर किसी एक खिलाड़ी ने भारत का सिर ऊंचा किया तो वह थे मिल्खा सिंह. मिल्खा ने अपनी जिंदगी में कई यादगार रेस पूरी की थीं, मगर 1958 की उस रेस के बाद सब कुछ बदल गया था.

1958 की उस गौरवशाली रेस की कहानी, मिल्खा सिंह के शब्दों में जानना ज्यादा दिलचस्प होगा.

‘मैं टोक्यो एशियन गेम्स में 2 गोल्ड मैडल्स (200 मीटर और 400 मीटर) जीत कर 1958 के कौमनवेल्थ गेम्स (कार्डिफ, वेल्स) में हिस्सा लेने पहुंचा था. जमैका, साउथ अफ्रीका, केन्या, इंग्लैंड, कनाडा और आस्ट्रेलिया के वर्ल्ड क्लास एथलीट्स वहां थे. कार्डिफ में चुनौती बेहद तगड़ी थी और कार्डिफ के लोग सोचते थे, अरे इंडिया क्या है, इंडिया इज नथिंग.

‘मुझे यकीन नहीं था कि मैं कौमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड जीत सकता हूं. उस तरह का भरोसा कभी रहा ही नहीं क्योंकि मैं वर्ल्ड रेकौर्ड होल्डर मैल्कम क्लाइव स्पेंस (साउथ अफ्रीका) से टक्कर ले रहा था. वह उस समय 400 मीटर में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धावक थे.

‘मैं अपने अमेरिकन कोच डा. आर्थर डब्यू  हावर्ड को क्रेडिट दूंगा. पूरी रेस की रणनीति उन्होंने ही तैयार की थी. उन्होंने स्पेंस को पहले और दूसरे राउंड में दौड़ते हुए देखा. फाइनल रेस से पहले वाली रात वह चारपाई पर बैठे और मुझ से कहा, ‘मिल्का, मैं थोड़ीबहुत हिंदी ही समझता हूं लेकिन मैं तुम्हें मैल्कम स्पेंस की रणनीति के बारे में बताता हूं और यह भी कि तुम्हें क्या करना चाहिए.’

कोच ने मुझ से कहा कि स्पेेंस अपनी रेस के शुरुआती 300-350 मीटर धीमे दौड़ता है और फाइनल स्ट्रेच में बाकियों को पछाड़ देता है. डा. हावर्ड ने कहा, ‘तुम्हें शुरू से ही पूरी स्पीड से दौड़ना होगा. क्योेंकि तुम में स्टैमिना है. अगर तुम ऐसा करोगे तो स्पेंस अपनी रणनीति भूल जाएगा.’

‘मैं आउटर लेन पर था, नंबर 5 वाली और स्पेंस दूसरी लेन पर था. कार्डिफ आर्म्स पार्क स्टेडियम में रेस होनी थी. उन दिनों एक बैग से जो नंबर चुनते थे, उस के आधार पर लेन अलाट होती थी. इसी वजह से मुझे 5 नंबर वाली लेन मिली. मतलब हमें शुरुआती राउंड में पहले दौड़ना था, फिर क्वार्टर फाइनल में, सेमीफाइनल में और फाइनल में भी.

‘मैं शुरू से ही पूरा दम लगा कर भागा, आखिरी 50 मीटर तक बड़ी तेज दौड़ा. स्पेंस को अहसास हो गया कि मिल्खा बहुत आगे निकल गया है. मुझे दिख रहा था कि स्पेंस अपनी रणनीति भूल गया है क्योंकि वह मेरी बराबरी में लगा था.

‘वह तेज दौड़ने लगा और आखिर में वह मुझ से एक फुट ही पीछे था. वह आखिर तक मेरे कंधों के पास था, मगर मुझे हरा नहीं पाया. मैं ने 46.6 सेकेंड्स में रेस खत्म की और उस ने 46.9 में. डा. हावर्ड का शुक्रिया कि मैं ने गोल्ड मेडल जीता.

‘मैं अपनी जीत पर यकीन तक नहीं कर पा रहा था और उस महिला ने मेरी तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह महिला कौन है. इतने में अचानक अपना परिचय देते हुए उस महिला ने कहा, ‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं, मैं पंडितजी की बहन हूं.’ जी हां, वह महिला थीं तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरूजी की बहन विजयलक्ष्मी पंडित.

‘विजयलक्ष्मी पंडित ने उसी समय मेरी बात पंडित नेहरू से ट्रंक काल के जरिए करवाई. मेरे लिए यह गर्व का क्षण था. पंडितजी ने कहा आज आप ने देश का नाम रोशन किया है. मिल्खा, तुम्हें क्या चाहिए?

‘उस वक्त मुझे पता नहीं था कि क्या  मांगना चाहिए. मैं 200 एकड़ जमीन या दिल्ली में घर मांग सकता था और मुझे मिल भी जाता, लेकिन मैं ने कहा मुझे मांगना नहीं आता. इसीलिए अगर वह कर सकते हैं तो देश भर में एक दिन की छुट्टी घोषित कर दें और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ऐसा ही किया. मिल्खा सिंह के यह कहने से पंडित जवाहरलाल उन की काबीलियत के साथसाथ उन की ईमानदारी के भी कायल हो गए.’

अंतरराष्ट्रीय गेम्स प्रतियोगिताओं की महत्ता उस दौर में भी वही थी और आज भी उन का जादू जस का तस बरकरार है. फर्क बस इतना है कि पहले खिलाड़ी देश के लिए खेलते थे और आज खेल पैसों के लिए खेला जाता है. लेकिन मिल्खा सिंह उस दौर के खेलों के लिए समर्पित इकलौते ऐसे खिलाड़ी थे जिन्हें जीवनपर्यंत दौलत का मोह नहीं रहा.

लव मैरिज हुई थी निर्मल कौर से

मिल्खा सिंह और निर्मल कौर की मुलाकात साल 1955 में श्रीलंका के कोलंबो में हुई थी.  मिल्खा सिंह और निर्मल कौर 1955 में कोलंबो में एक टूर्नामेंट में हिस्सा लेने गए थे. निर्मल कौर उस समय भारतीय महिला वालीबाल टीम की कप्तान थीं, जबकि मिल्खा सिंह एथलेटिक्स टीम का हिस्सा थे.

पहली नजर में मिल्खा को निर्मल पसंद आ गईं. दोनों ने एकदूसरे से काफी बातें कीं. जब वापस जाने लगे तो मिल्खा सिंह अपने होटल का पता लिख कर देने लगे. जब कोई कागज नहीं मिला तो उन्होंने निर्मल के हाथ पर ही होटल का नंबर लिख दिया.

फिर बातें और मुलाकातें होने लगीं और बात शादी तक पहुंच गई. लेकिन शादी में भी अड़चन आ गई. निर्मल पंजाबी खत्री फैमिली से थीं. इसलिए परिवार शादी के लिए राजी नहीं हो रहा था.

प्यार परवान चढ़ चुका था और निर्मल कौर का परिवार मिल्खा सिंह से शादी के लिए तैयार नहीं था. उन की शादी में अड़चन की बात भी कई लोगों तक पहुंच चुकी थी.

पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों को पता चला तो वह मदद के लिए आगे आए और दोनों परिवारों से बात कर शादी तय करवा दी. साल 1962 में दोनों शादी के बंधन में बंध गए.

एक इंटरव्यू में मिल्खा सिंह ने कहा था कि हर खिलाड़ी और एथलीट की जिंदगी में प्यार आता है, उसे हर स्टेशन पर एक प्रेम कहानी मिलती है. मिल्खा सिंह की जिंदगी में 3 लड़कियां आईं. तीनों से प्यार हुआ, लेकिन शादी उन्होंने निर्मल कौर से की.

मिल्खा सिंह ने कई बार सार्वजनिक तौर पर अपनी पत्नी की तारीफ की थी. उन्होंने कहा था कि वे खुद 10वीं पास थे. बच्चों को पढ़ाने और संस्कार देने में उन की पत्नी निर्मल का ही अहम रोल रहा. उन की गैरमौजूदगी में निर्मल ने बच्चों की पढ़ाई और बाकी सभी बातों का ध्यान रखा. वह अपनी पत्नी को सब से बड़ी ताकत मानते थे.

शादी के बाद उन के 4 बच्चे हुए, जिन में 3 बेटियां और एक बेटा है. मिल्खा सिंह के बेटे जीव मिल्खा सिंह इंटरनैशनल स्तर पर एक जानेमाने गोल्फर हैं. जीव ने 2 बार एशियन टूर और्डर औफ मेरिट जीता है. उन्होंने साल 2006 और 2008 में यह उपलब्धि हासिल की थी. 2 बार इस खिताब को जीतने वाले जीव भारत के एकमात्र गोल्फर हैं. वह यूरोपियन टूर, जापान टूर और एशियन टूर में खिताब जीत चुके हैं.

जीव मिल्खा सिंह को पद्मश्री सम्मान से नवाजा जा चुका है. ऐसे में मिल्खा सिंह और उन के बेटे जीव मिल्खा सिंह देश के ऐसे इकलौते पितापुत्र जोड़ी हैं, जिन्हें खेल उपलब्धियों के लिए पद्मश्री मिला है.

साल 1999 में मिल्खा सिंह ने 7 साल के एक बेटे को भी गोद ले लिया था. जिस का नाम हवलदार बिक्रम सिंह था, जोकि टाइगर हिल के युद्ध में शहीद हो गया था.

मिल्खा सिंह ने बाद में खेल से संन्यास ले लिया और भारत सरकार के साथ खेलकूद के प्रोत्साहन के लिए काम करना शुरू किया. अब वह चंडीगढ़ में रहते थे. मिल्खा सिंह देश में होने वाले विविध तरह के खेल आयोजनों में शिरकत करते रहे.

हैदराबाद में 30 नवंबर, 2014 को हुए 10 किलोमीटर के जियो मैराथन-2014 को उन्होंने झंडा दिखा कर रवाना किया. अपने जीवन के अंत समय तक वह युवाओं को खेलों के लिए प्रेरणा देते रहे.

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