देश में कोरोना की वजह से जहां 10 से 15 करोड़ लोग बेकार हो जाएंगे वहीं हजारों कारखाने और धंधे बरबादी के कगार पर पहुंच जाएंगे, क्योंकि मजदूर नहीं मिलेंगे. कोरोना से पहले शहरियों ने अपने ही देश के मजदूरों को बुरी तरह दुहा था और इसीलिए पहला ही बड़ा झटका लगते, ये मजदूर अपनी लगीबंधी नौकरी या छोटामोटा धंधा बंद कर के गांवों की ओर भाग लिए.
अगर 24 मार्च को अचानक 4 घंटे का नोटिस दे कर देश को बंद नहीं किया जाता और
10 दिन लोगों को घरों को लौटने की इजाजत दी जाती तो लौकडाउन में वे लोग शहरों में बने रहते, जिन के पास किराए की छत तो थी. इस अचानक लौकडाउन ने मजदूरों को यह भरोसा दिला दिया कि यह सरकार भरोसे के लायक है ही नहीं.
सरकार ने अगर थोड़ी सी अक्ल लगाई होती और इन मजदूरों को भरोसा दिलाया होता कि वे जातिप्रथा के गुलाम नहीं हैं, बराबर के नागरिक हैं तो बात दूसरी होती. ये मजदूर गांवों से भाग कर इसलिए नहीं आए थे कि वहां भूख सता रही थी. भूख से ज्यादा ये जाति के कहर से परेशान थे. इन का मालमत्ता तो छीन ही लिया जाता था और इन से बेगार तो कराई ही जाती थी, इन की लड़कियों और औरतों को भी जब मरजी उठा लिया जाता था. ये लोग शहरों में हिंदू धर्म की जाति की मार से बचने के लिए आए थे.
शहरों में इन्हें सीधेसीधे चाहे अछूत न समझा गया हो, पर ऊंचे से ले कर नीचे तक सभी इन से रोजाना वही बरताव करते थे जो गांवों में होता था. इन्हें गांवों की तरह शहरों की गंद में रहने को मजबूर किया गया. ये लोग गंदे पानी के नाले के किनारे झुग्गियां बना कर रहे, खुले में खायाबनाया, सैक्स भी सब के सामने किया. हां, शहरों में इन की औरतेंलड़कियां बच जाती रहीं जो अपनेआप में कम नियामत नहीं थी.
पैसा तो शहरों में भी ज्यादा नहीं मिला. वे लोग कपड़ेलत्ते के अलावा गांव में बस अपने बूढ़े मांबाप के लायक कमा सके. फैक्टरियों ने लालच में मजदूरों के रहने की जगह बनानी बंद कर दीं. सरकारों ने मजदूरों की कालोनियों को जगह देना बंद कर दिया. सड़क पर दुकानें लगाने को भी मजबूर किया, रहने को भी. फिर भी जिस आजादी के सपने उन्होंने देखे थे, उन में से कुछ सही होते रहे और इसलिए लोग आते रहे. अब कोरोना और उस से पहले नोटबंदी ने साबित कर दिया कि यह सरकार तो सिर्फ तिलकधारियों का खयाल रखेगी, दबंगों का, पुलिस का.
मजदूरों की कोई जगह इन के पास नहीं है. वे गुलामों की तरह रहें. अब लौटने में भला है चाहे 1,000 किलोमीटर चलना क्यों न पड़े. ये गांवों में खुश रहेंगे इतना पक्का है. शहरों ने इन्हें हकों का इस्तेमाल करना सिखा दिया है, यही काफी है या कहिए कि बस यही कमाई ले कर ये गांव लौट रहे हैं.
यह माना जा सकता है कि सरकार का खजाना खाली है और उस के पास अपने वेतनभत्ते देने का पैसा भी टैक्सों से जमा नहीं हो पा रहा. हालात तो कोरोना से पहले ही खराब होने शुरू हो गए थे, क्योंकि एक साल से गाडि़यों की बिक्री कम हो रही थी, मकान बिक नहीं रहे थे. व्यापारी बैंकों और जमाकर्ताओं का पैसा ले कर भाग रहे थे. देश छातियां तो पीट रहा था और बड़ी 56 इंची बातें कर रहा था, पर सरकार की जेब में पैसा लगातार सिकुड़ रहा था.
अब जब 50 दिन पूरी तरह सब कामधंधे बंद हो जाने से जो झटका लगा है, वह तब तक ठीक न होगा जब तक सरकार कारखानों और मिलों को धंधा चलाने के लिए मोटा पैसा न देगी. यह पैसा सरकार को वेतन काट कर देना होगा. जैसे हर व्यापारी, कारखानेदार, हर मजदूर आधे पैसों में काम करेगा वैसे ही हर सरकारी अफसर, कर्मचारी, सिपाही, जज, ठेकेदार को आधे पैसों में काम करने को तैयार होना होगा.
देश की बचत का एक बड़ा हिस्सा सरकारी नौकरशाही बेकार में उड़ा देती है. बड़ेबड़े दफ्तर बचे हुए हैं जो करते कम हैं, करने से रोकते ज्यादा हैं. जनता को दुरुस्त करने के नाम पर वे अड़चनें डालते हैं. सारे किएधरे को रोकते रहते हैं. अगर कहीं भी कुछ भी अधूरा बना पड़ा दिखे तो समझ लें कि इस के पीछे सरकार है. कहीं भी कोई रुका हो, बंद हो तो समझ लें कि इस के पीछे सरकार है.
राजाओं ने हमेशा महल बनाए हैं, आम लोगों के घर नहीं. उन्होंने खेतों से लगान वसूला है, खेती नहीं की. कारखानों पर टैक्स लगाए हैं, कारखाने नहीं चलाए. अगर सरकारी नौकरशाही का वेतनभत्ता आधा हो जाए तो देश की जनता को पूरी बरकत होगी. अगर हमेशा के लिए नहीं तो 5-6 महीने की कुरबानी तो देनी ही चाहिए.
जब कोरोना के मरीजों को ठीक करने में डाक्टर अपनी जान पर खेल रहे हैं तो नौकरशाही का फर्ज है कि वह अपना हिस्सा वेतन कटौती से दे और 5-6 महीने केवल आधा वेतन ले. वैसे भी लौकडाउन और घरों में बंद रहने से बहुत से खर्च कट रहे हैं.
यह तो पक्का है कि सरकार या उस की 30 लाख करोड़ की नौकरशाही अपने खर्च, वेतन, तामझाम कम नहीं करेगी, क्योंकि 1947 में भी आजादी का मकसद यही था कि राज मुट्ठीभर सरकारी लोगों का हो और उस के बाद की हर सरकार का चाहे वह गरीबी हटाओ की बात कर रही थी या हिंदू धर्म की दोबारा जड़ें जमाने की. यहां जनता से देने को कहा जाता है, लेने को नहीं. पुराणों को उठा कर देख लें, एक भी ऐसी कहानी नहीं मिलेगी जिस में किसी राजा ने आम लोगों के लिए कुछ किया हो. 2020 में कुछ अलग नहीं होने वाला.