भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां धर्म के नाम पर जो भी किया जाए, सब जायज माना जाता है. अपनी तथाकथित आस्था और बेसिरपैर के विश्वास के लिए यहां के रूढ़िवादी लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं. वे तथाकथित देवताओं को भी खुश करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते.

‘पुण्य’ कमाने और ‘फल’ पाने के लोगों ने कई साधन अपना रखे हैं, इन्हीं में से एक है, भगवती जागरण. इस से रातभर जाग कर अन्य किसी को कुछ हासिल होता हो या न होता हो, मगर जागरण करने वाली पार्टियों और धंधेबाजों के लिए यह बड़े फायदे का आयोजन बन कर रह गया है.

अब तो भगवती जागरण करने वाली पार्टियां भी पूर्ण रूप से व्यावसायिक हो गई हैं. पहले जहां 500 रुपए में भी ऐसा आयोजन हो जाता था वहीं अब छोटेमोटे गायक ही 2 से 10 हजार रुपए आराम से ले लेते हैं. इस के अलावा अन्य खर्चों की तो बात ही अलग है.

कहींकहीं गुफा बना कर बर्फ की सिल्लियां भी रख दी जाती हैं, जिन पर से बहुत से लोग फिसल कर गिर पड़ते हैं, कई बार तो गंभीर दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं. मगर इन सब से बेपरवाह आयोजक पुण्य कमाने के लिए आंखें बंद किए रहते हैं. दरबार किसी पुरोहित के बिना शोभा नहीं देता इसलिए वहां पर अपना एक आदमी बैठा दिया जाता है, ताकि चढ़ावे का ध्यान रखा जाए.

बड़े आयोजनों के लिए महीनों पहले चंदा इकट्ठा किया जाता है. शहरों में मुनादी करवाई जाती है, अखबारों में विज्ञापन दे कर लोगों को सूचित किया जाता है कि वे इस अवसर पर एकत्र हो कर पुण्य कमाने में पीछे न रहें. कई बार आयोजकों को पैसे के कारण आपस में लड़तेझगड़ते भी देखा गया है.

यहां गायक व गायिकाएं फिल्मी तर्जों पर ‘भेंटें’ गाते दिखाई देते हैं. यह सिलसिला सारी रात चलता रहता है और कानफोड़ू आरकेस्ट्रा से बेहद शोर उत्पन्न कर आसपास के लोगों को परेशान किया जाता है. फिर इस से ध्वनि प्रदूषण की जो समस्या उत्पन्न होती है, वह तो अलग ही है. समाज सुधारक भी यहां आ कर खूब तालियां पीटते देखे जाते हैं.

ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस शोर को सुन कर आम आदमी भी खुश नहीं होता, वहां देवी का प्रसन्न होना तो दूर की बात है. भगवती जागरण के अधिकांश कार्यक्रमों में ऐसे भक्त मिल जाएंगे, जो बिना किसी नशे के गा ही नहीं पाते. जब खुद में ही कोई श्रद्धा और भक्ति की भावना नहीं जगा पाए तो उन का गायन दूसरों को कैसे प्रभावित कर सकता है.

इसलिए अब ऐसे आयोजनों का मंतव्य सिर्फ नाम, शोहरत और पैसा कमाना ही रह गया है. यही इन की मुख्य आस्था और यकीन है और इसी यकीन के बल पर कई गायकों ने अपने आडियो कैसेट निकाले हैं. कुछ व्यावसायिक भक्तों ने तो वीडियो कैसेट भी जारी किए हैं. इसी ‘भक्तिभाव’ से प्रेरित हो कर दिन प्रतिदिन ऐसे लोगों की जमात बढ़ती जा रही है.

चिंतपूर्णी मंदिर के पास एक धर्मशाला में एक बार ऐसे आयोजन करने गई 2 देवियों में चढ़ावे की रकम को ले कर विवाद पैदा हो गया. एक देवी ने अपने पास रखे त्रिशूल से दूसरी ‘माता’ पर वार कर दिया और उसे लहूलुहान कर दिया. बाद में थाने में इन में समझौता करवाया गया. जागरण के पीछे लगभग हर जगह यही मानसिकता दिखाई देती है.

जितना धन ऐसे आयोजनों पर खर्च किया जाता है, उस से कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा सकती हैं. परंतु धर्म के ठेकेदारों को यह सब मंजूर नहीं, क्योंकि पैसा बटोरने का इस से सरल रास्ता और कोई उन्हें दिखाई नहीं देता. इस ‘जागरण संस्कृति’ ने अब व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है. फिर ऐसे फलतेफूलते कारोबार को कौन बेवकूफ बंद करना चाहेगा.

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