14 सितंबर, 2018 को दिल्ली के डाबड़ी इलाके में सीवर की सफाई करते हुए अनिल नामक एक नौजवान की मौत हो गई. सफाई ठेकेदार द्वारा अनिल को 20 फुट गहरे सीवर में कमजोर रस्सी के सहारे नीचे उतार दिया गया था. रस्सी टूटने की वहज से अनिल सीवर में जा गिरा और उस की मौत हो गई. अनिल को किसी तरह के बचाव उपकरण मुहैया नहीं कराए गए थे.

इस से पहले 9 सितंबर, 2018 को दिल्ली के ही मोतीनगर के कैपिटल ग्रीन डीएलएफ अपार्टमैंट्स में सीवर की सफाई करते हुए 5 नौजवान मौत के मुंह में समा गए थे. मारे गए लोगों में 22 साल का राजा, 20 साल का विशाल, 24 साल का पंकज, 19 साल का सरफराज और 23 साल का उमेश था.

सीवर में सफाई करने वाले मुलाजिमों की मौतें थमने का नाम नहीं ले रही हैं. ऐसी घटनाओं का अब तक न रुकने वाला एक सिलसिला बन गया है. इन घटनाओं की खबरें मीडिया की सुर्खियां बन कर खत्म हो जाती हैं पर शासनप्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

साल 2015 में बृहन्मुंबई नगरपालिका ने बताया था कि साल 2009 से ले कर साल 2015 के बीच 1386 सफाई मुलाजिमों की मौत हो गई थी. राष्ट्रीय कर्मचारी आयोग के मुताबिक, 1 जनवरी, 2017 से 31 सितंबर, 2017 तक सीवर में 132 मौतें हो गई थीं. इसी साल जनवरी से अब तक 89 जानें चली गई हैं.

अकेले दिल्ली में एक साल में 17 मौतें हो गईं. पिछले 5 सालों में दिल्ली में 74 सफाई मुलाजिमों की मौत सीवरों और सैप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान हुई हैं.

25 सितंबर, 2018 को इन मौतों को ले कर दलित संगठनों ने दिल्ली के जंतरमंतर पर प्रदर्शन किया और सीवर से होने वाली मौतें रोके जाने के लिए ठोस उपाय करने की मांग की गई.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि कैसी भी इमर्जैंसी में बिना सुरक्षा उपाय, उपकरणों और कपड़ों के सीवर में जाना अपराध है. इस के लिए कोई मजबूर नहीं कर सकता. सीवर और सैप्टिक टैंक की सफाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों में कहा गया है कि सफाई मुलाजिम के पास मास्क, ऐनक, जूते, दस्ताने, इमर्जैंसी सुरक्षा बैल्ट जैसे सुरक्षा सामान होने चाहिए. काम के वक्त एंबुलैंस गाड़ी खड़ी होनी चाहिए और बड़े अफसर की देखरेख में सीवर या सैप्टिक टैंक की सफाई की जानी चाहिए.

साल 1993 में देश में मैला ढोने की प्रथा खत्म करने को ले कर पहला कानून आया था. बाद में 2013 में इस से संबंधित दूसरा कानून आया था जिस में सीवरों और सैप्टिक टैंकों की सफाई के लिए रोजगार या ऐसे कामों के लिए लोगों की सेवाएं लेने पर बैन है पर 2 कानूनों व अदालतों के आदेश के बावजूद जमीनी लैवल पर कोई बदलाव नहीं हुआ है. तमाम दिशानिर्देशों के बावजूद मौतों का सिलसिला खत्म नहीं हो रहा है.

जानकारों का कहना है कि सीवरों और सैप्टिक टैंकों में गैसें इस कदर जहरीली होती हैं कि आदमी के एक बार सांस लेते ही मौत हो जाती है.

सीवेज सिस्टम में पैदा हो कर इकट्ठा होने वाली जहरीली गैसों का एक खतरनाक मिश्रण होता है. इन में हाइड्रोजन सल्फाइड, अमोनिया, मीथेन, कार्बन मोनोऔक्साइड, सल्फर डाईऔक्साइड, नाइट्रोजन औक्साइड शामिल होती हैं.

सफाई कर्मचारी आंदोलन के संस्थापक और मैगसेसे पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन के मुताबिक, सफाई मुलाजिमों की समस्याओं को ले कर किसी को चिंता नहीं है. सरकारें चुप हैं. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है. यूरोप और दूसरे देशों में सीवेज सफाई के लिए मौडर्न उपकरणों का इस्तेमाल होता है और वहां सफाई मुलाजिमों की मौत न के बराबर होती है.

वे आगे कहते हैं कि सैप्टिक टैंक देश के कोनेकोने में हैं. जब ये भर जाते हैं तो सफाई मुलाजिमों को इन्हें साफ करने की जिम्मेदारी दी जाती है. सरकार इस के लिए कोई पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं करती या टैक्नोलौजी क्यों नहीं लाती है?

दरअसल, सीवर की सफाई का धंधा हिंदू जाति व्यवस्था का निम्नतम वंशानुगत पेशा है. जाति व्यवस्था में सब से निचली जातियों के हिस्से में साफसफाई, मरे पशुओं को उठाना, उन्हें ठिकाने लगाना जैसे काम आए हैं.

इसी व्यवस्था के चलते देशभर में लाखों सफाई मुलाजिम हर रोज अपनी जान जोखिम में डाल कर सीवर और गटर को साफ करते हैं. इन में ज्यादातर स्थानीय निकायों में ठेके पर काम करने वाले होते हैं. रोजीरोटी की कमी में बेहद गरीबी के चलते वे लोग यह काम करने पर मजबूर हैं.

आज भी लाखों लोग इस पेशे से जुड़े हुए हैं. सालों पहले मैला ढोने पर बैन लगने के बावजूद देश में तकरीबन 10 लाख परिवार यह गंदा काम करने पर मजबूर हैं.

आज दुनिया दूसरे ग्रहों पर घर बनाने की योजना बना रही है, बड़ेबड़े सैटेलाइट अंतरिक्ष में पहुंचाए जा रहे हैं पर गटरों की सफाई का काम अभी भी रोटी के लिए मजबूर हाथों से ही कराया जा रहा है. भले ही हम ने कितनी ही वैज्ञानिक तरक्की कर ली हो पर इन मौतों के पीछे शासनप्रशासन की पुरानी सोच ही जिम्मेदार है.

जहरीली गैसों से भरी सीवर लाइनों की सफाई करने वालों की सुरक्षा के प्रति हमारी पूरी व्यवस्था घोर लापरवाही से ग्रस्त है. अगर यंत्रों से सुरक्षा इंतजाम किए जाते तो ये मौतें नहीं होतीं.

ऐसा नहीं है कि साफसफाई के लिए आधुनिक व्यवस्था नहीं है. यंत्र हैं, औजार हैं, पर शहरों के शासक इन पर पैसा खर्च करने को तैयार नहीं हैं.

सरकार इसलिए नहीं चाहती क्योंकि मैला साफ करना, साफसफाई करना हमारी सामाजिक व्यवस्था में निचली जातियों के जिम्मे है और इस वर्ग के लोगों को इनसान नहीं समझा जाता.

दलितों के साथ सदियों से ही भेदभाव बरता गया है. उन्हें कीड़ेमकोड़ों की तरह समझा गया है इसलिए आज तक ऐसी मौतों के मामले में किसी को भी सजा नहीं दी गई है. मुआवजे के आदेश के बावजूद भी पैसा नहीं दिया जाता है.

यह इस तबके के प्रति पुरानी सामाजिक सोच का नतीजा है. समाज के रवैए में कोई बदलाव नहीं आया है. ऊंची जाति के लोगों का सोचना है कि गंदा काम करना निचली जातियों के पिछले जन्मों के कर्मों का नतीजा है. उन के द्वारा किए गए पापों का फल है इसलिए शासनप्रशासन में बैठे ऊंची जाति के लोग साफसफाई करने वालों के साथ पुरानी सोच के हिसाब से बरताव कर रहे हैं.

साफसफाई करने वालों ने भी इसे अपनी किस्मत मान लिया है इसलिए शासनप्रशासन इन मौतों को रोकने के लिए गंभीरता से कोई ठोस उपाय नहीं कर पाता है.

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