देश में ऐसी बहुत सारी घटनाएं घट रही हैं जिन को देख कर यह साफ हो जाता है कि लोकतंत्र अब लाठीतंत्र की ओर बढ़ता जा रहा है. इस के पीछे धर्म के पाखंड को मजबूत करने की सोच साफतौर पर नजर आती है. इस को धार्मिक अंधविश्वास के डंडे के जोर पर तरहतरह से थोपा जा रहा है.

साल 2012 की एक घटना है. म्यांमार में बौद्धों और मुसलिम संघर्ष की प्रतिक्रिया उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में देखने को मिली थी. कट्टरपंथियों के उकसावे पर सैकड़ों की भीड़ लखनऊ के पक्का पुल पर जमा हुई थी. लोग लाठी, लोहे की छड़, छुरे और तमंचों से लैस हो कर आए थे.

लाठीतंत्र की अगुआ बनी भीड़ ने सब से पहले बुद्धा पार्क में महात्मा बुद्ध की मूर्ति को तोड़ा. इस के बाद शहीद स्मारक पर तोड़फोड़ हुई. वहां से लोग विधानसभा के पास आए और वहां धरना दे रहे बौद्ध समाज के अशोक चंद्र से मारपीट की.

देखा जाए तो म्यांमार की घटना में न तो लखनऊ के लोग शामिल थे, न ही यहां लाठीतंत्र अपनाने से म्यांमार में कोई असर पड़ने वाला था. पक्का पुल से विधान सभा भवन की दूरी महज 6 किलोमीटर है. भीड़ इतनी दूर बाजारों में तोड़फोड़ करते हुए बढ़ रही थी और प्रशासन मजबूर था.

भीड़ ने न केवल तोड़फोड़ की बल्कि पार्क में खेल रहे बच्चों और औरतों से बदतमीजी भी की. इस मामले के 6 साल बीत जाने के बाद भी कोई इंसाफ नहीं मिल सका है.

एससीएसटी आयोग का अध्यक्ष बनने के बाद बृज लाल ने इस घटना को संज्ञान में लिया और लखनऊ के एसएसपी से घटना के बाद उठाए गए कदमों की जानकारी मांगी.

घटना के समय प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार थी. उन पर भी घटना को दबाने का आरोप है.

देखने वाली बात यह है कि अब इस मामले में क्या होता है? सरकार किसी की भी हो, लाठीतंत्र हमेशा हावी होता है. पूरे देश में ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं.

इस तरह की ज्यादातर घटनाओं में धार्मिक और जातीय वजह अहम होती हैं. 1-2 घटनाओं के घटने से बाकी लोगों के हौसले बढ़ते हैं जिस से धीरेधीरे अब ऐसे मामले बढ़ते जा रहे हैं.

बढ़ता है हौसला

इतिहास गवाह है कि लाठीतंत्र के आगे सरकारें झुकती रही हैं. वे किए गए वादों से मुकर जाती हैं. कानून अपना राज स्थापित नहीं कर पाता और प्रशासन लाचार हो जाता है. इस तरह की घटनाओं में इंसाफ नहीं मिलता. अगर मिलता भी है तो आधाअधूरा.

साल 1992 के बाद राम मंदिर का आंदोलन इस तरह के भीड़तंत्र का एक उदाहरण है. उस समय की उत्तर प्रदेश सरकार ने कोर्ट में हलफनामा दे कर कहा था कि अयोध्या में कुछ नहीं होने पाएगा, पर भीड़तंत्र ने लाठीतंत्र के जोर पर विवादित ढांचा ढहा दिया.

26 साल बीत जाने के बाद भी इस का फैसला नहीं आ पाया है. ऐसी घटनाओं से लाठीतंत्र को बढ़ावा मिलता है. साल 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा इस का सब से बड़ा उदाहरण है जिस में उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को गुजरात के मुख्यमंत्री को ‘राजधर्म’ का पालन करने की सीख देनी पड़ी थी.

धीरेधीरे इस तरह की घटनाओं ने तेजी पकड़नी शुरू की. इन का दायरा बढ़ने लगा. लोग एकजुट हो कर इस तरह की घटनाआें को अंजाम देने लगे.

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में एक समुदाय को मारने की घटनाएं लाठीतंत्र का ही उदाहरण हैं. जहां पर एक समुदाय के खिलाफ हिंसा होती रही और बाकी समाज चुप्पी साधे रहा.

पहले इस तरह की गिनीचुनी घटनाएं घटती थीं, पर अब इन की तादाद बढ़ती जा रही है. गौरक्षा के नाम पर ऐसी तमाम घटनाएं घटी हैं जिन में लाठीतंत्र का असर देखने को मिला.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अखलाक की हत्या इस का प्रमुख उदाहरण है. उत्तर प्रदेश की ही तरह राजस्थान, हरियाणा और दूसरे प्रदेशों में भी इस तरह की घटनाएं घटी हैं. इन में सरेआम लोगों की पिटाई और हत्या तक की गई.

साल 2008 में गुर्जर समाज ने पिछड़े तबके के बजाय खुद को दलित जाति में शामिल किए जाने को ले कर आंदोलन किया था. तब पुलिस और आंदोलन करने वालों के बीच हिंसक झड़पों में तकरीबन 37 लोगों की मौतें हुई थीं.

साल 2015 में गुजरात में पाटीदार समाज ने आरक्षण पाने के लिए आंदोलन किया था. 25 अगस्त को अहमदाबाद में हुए सब से बड़े प्रदर्शन में जनजीवन ठप हो गया था.

अगस्त से सितंबर तक की घटनाओं में 14 लोगों की मौतें हो गई थीं. 200 से ज्यादा लोग घायल हुए थे. बहुत सारी बसें जला दी गई थीं. केवल अहमदाबाद शहर में ही 12 करोड़ रुपए से ऊपर का नुकसान हुआ था.

आरक्षण पाने के लिए जाट समुदाय ने साल 2016 में आंदोलन किया था. हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में 340 अरब रुपए का नुकसान हुआ था. रेलवे का तकरीबन 60 करोड़ रुपए का घाटा हुआ था. तकरीबन ढाई दर्जन लोग मारे गए थे.

आंध्र प्रदेश में कापू आंदोलन हुआ. कापू समुदाय ने खुद को पिछड़ी जाति में शामिल किए जाने की मांग को ले कर आंदोलन छेड़ा और रेलवे लाइन और हाईवे को बंद कर दिया. ‘रत्नाचंल ऐक्सप्रैस’ रेलगाड़ी की कई बोगियों में आग लगा दी गई थी. इतना ही नहीं, सिक्योरिटी में लगे आरपीएफ के जवानों पर भी हमला किया गया.

अगस्त, 2017 में हरियाणा के पंचकूला में डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरुमीत राम रहीम की गिरफ्तारी के बाद उपजी हिंसा में 29 लोगों की मौत और 200 से ज्यादा लोग घायल हो गए.

इसी तरह फिल्म ‘पद्मावत’ के विरोध में राजस्थान में करणी सेना ने फिल्म के सैट पर तोड़फोड़ की. जनवरी, 2018 में जब यह फिल्म रिलीज हुई तो विरोध में हिंसक घटनाएं हुईं.

अप्रैल, 2018 में दलित ऐक्ट में संशोधन के विरोध में हिंसा हुई. वह भी लाठीतंत्र का ही उदाहरण है.

क्यों नहीं बदल रहे हालात

देश की आजादी के बाद भारत को एक लोकतांत्रिक देश का दर्जा मिला. शांति और अहिंसा को देश का मूल स्वरूप रखा गया. आजादी की लड़ाई के समय महात्मा गांधी ने अहिंसा का सहारा ले कर अंगरेजों को देश छोड़ने पर मजबूर किया था. गांधीजी ने कई ऐसे आंदोलन को वापस लिया जिस में हिंसा होने लगी थी.

आजादी के समय अहिंसा ने अपना काम किया और आजादी के बाद जब देश को ज्यादा संविधान का पालन करना चाहिए था तब हिंसक घटनाएं घटने लगीं. इन में देश में होने वाले चुनावों का रोल भी काफी असरदार होता है.

अगर 1977 और 1984 के चुनावों को छोड़ दें तो हर चुनाव में जातिधर्म का ही बोलबाला रहा है. राजनीति धर्म और जाति पर केंद्रित होती है. जीत के लिए जाति और धर्म का सहारा लिया जाने लगा. इस की वजह से खेमेबंदी शुरू हो गई और लाठीतंत्र के खिलाफ कदम उठाना मुश्किल हो गया.

धर्म की कहानियों से शिक्षा लेने वाले समाज को दिखता है कि धर्म में ऐसी बहुत सी घटनाएं घटी हैं जहां पर अपनी बात को मनवाने के लिए हिंसा का सहारा लिया गया.

देश के सब से लोकप्रिय पौराणिक ग्रंथ ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ इस से भरे पड़े हैं. ‘रामायण’ में राजा बलि का उदाहरण देखें तो पता चलता है कि अपनी बात को मनवाने के लिए राम ने उस से युद्ध किया और उस को मार कर बलि का राज्य उस के छोटे भाई सुग्रीव को दे दिया. शूर्पणखा ने जब लक्ष्मण के सामने प्रणय निवेदन किया तो लक्ष्मण ने  सबक सिखाने के लिए उस की नाक काट ली.

धार्मिक ग्रंथों में कई ऐसी कहानियां हैं जिन में यह पता चलता है कि अपनी बात को मनवाने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है. इन कहानियों को पढ़ कर लोगों ने अब हिंसा का ही सहारा ले लिया है. उन को जब भी राज्य से शिकायत होती है वे हिंसा का सहारा लेते हैं.

यह बात और है कि हिंसा का सहारा ले कर चले आंदोलन कभी कामयाब नहीं होते. साल 2012 का अन्ना आंदोलन वर्तमान समय में इस का उदाहरण है.

कांग्रेस की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के समय में लोकपाल बिल को ले कर यह आंदोलन इतना प्रभावी हुआ कि कांग्रेस पूरी तरह से सरकार से बाहर हो गई. भाजपा कांग्रेस के विकल्प के रूप में सरकार बनाने में कामयाब हो गई.

सत्ता में आने के बाद भाजपा इस बात से अनजान है. उस के राज में ऐसी कई घटनाएं घटी हैं जिन में हिंसा का सहारा लिया गया था.

भाजपा चाहती तो इन को रोक सकती थी. पर उस ने वोट बैंक का फायदा लेने के लिए ऐसा नहीं किया. आज सोशल मीडिया का दौर है जिस में किसी भी घटना की प्रतिक्रिया बड़ी तेजी से सामने आती है. इस से हिंसा और भड़क जाती है. भीड़ और लाठीतंत्र एकदूसरे के पूरक हो गए हैं.

संविधान के मुताबिक, लोकतंत्र में सभी को इज्जत और इंसाफ मिलना चाहिए. इस की हिफाजत तभी मुमकिन है जब राज करने वालों की मनमानी पर रोक लगे या उन की नीयत साफ हो. जब तक वोट बैंक और उस से होने वाले नफानुकसान को देख कर फैसले होंगे तब तक इंसाफ नहीं मिलेगा. भीड़ लाठी ले कर आएगी और अपने हिसाब से काम करने को मजबूर कर देगी. ऐसा लाठीतंत्र किसी के भी फायदे में नहीं है.

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