15 अप्रैल, 2018 को पटना में गांधी मैदान में हुए ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जम पर निशाना साधा गया. मुसलिमों के इस सम्मेलन में पहली बार मुसलिम और दलित एकता का नारा दिया गया.
राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के माय यानी मुसलिमयादव समीकरण से आगे बढ़ कर मुसलिमदलित एकता का नारा बुलंद किया गया.
देशभर में मुसलिमदलित समाज को एकजुट करने की कवायद शुरू हो चुकी है. साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को ले कर यह कोशिश जोर पकड़ने लगी है.
तकरीबन 30 करोड़ दलित और तकरीबन 18 करोड़ मुसलिमों की आबादी पर राजनीतिक दलों ने अपनी निगाहें टिका दी हैं. इन दोनों को मिलाने की राह में कई रोड़े हैं लेकिन इस के बाद भी नेताओं को उम्मीद है कि मुसलिमदलित एकता बनेगी और अगले चुनाव में अपना रंग दिखाएगी.
‘इमारत ए शरिया’ के इस सम्मेलन में बिहार, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के मुसलिम शामिल हुए. ‘इमारत ए शरिया’ की बुनियाद मौलाना अबुल कलाम आजाद और मौलाना सज्जाद ने साल 1921 में रखी थी. इस संस्था का मकसद सामाजिक सुधार, कल्याणकारी काम, तालीम का प्रसार और गरीबों की मदद करना है.
इस सम्मेलन की अगुआई करते हुए ‘इमारत ए शरिया’ के अमीर शरीअत और आल इंडिया मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड के महासचिव हजरत मौलाना सैयद वली रहमानी ने कहा कि देश के हालात पिछले कुछ सालों से ठीक नहीं हैं. संविधान में दिए गए बुनियादी हकों को खत्म करने की साजिशें चल रही हैं. सुप्रीम कोर्ट तक पर दबाव बनाया जा रहा है.
इस सम्मेलन की खासीयत यह रही कि इस में मुसलिमों और दलितों की एकता पर जोर दिया गया.
पिछले कुछ समय से कई राजनीतिक दल दलितमुसलिम एकता का नारा बुलंद करने लगे हैं. मुलायम सिंह यादव, मायावती, ममता बनर्जी को तो छोडि़ए, भारतीय जनता पार्टी के पिछलग्गू नीतीश कुमार भी अब मुसलिमदलित एकता की रट लगा रहे हैं.
लालू प्रसाद यादव ने अपने माय यानी मुसलिमयादव समीकरण के दम पर 16 सालों तक बिहार पर राज किया था. उन के इस कामयाब समीकरण की तोड़ के लिए अब नीतीश कुमार एमडी यानी मुसलिमदलित समीकरण के बूते नई सियासी जमीन बनाने में लगे हुए हैं, जबकि उन की आका पार्टी भारतीय जनता पार्टी मुसलिमों को देशद्रोही घोषित करने की कोशिश कर रही है और दलितों को पौराणिक गुलाम.
पिछले दिनों बिहार विधानपरिषद के चुनाव में नीतीश कुमार ने अनजान से मुसलिम चेहरे खालिद अनवर को परिषद का टिकट दे कर इस समीकरण को मजबूत बनाने की कवायद की.
अरब देशों से खूब पैसा कमाने के बाद जब खालिद अनवर बिहार लौटे तो उन्होंने राजनीति में पैठ बनाने की कोशिश शुरू की. पहले तो वे लालू प्रसाद यादव के दरबार में घूमे, लेकिन वहां मुसलिम नेताओं की भरमार होने की वजह से उन्हें कोई खास भाव नहीं मिला. इस के बाद वे नीतीश कुमार के चारों ओर चक्कर काटने लगे.
नीतीश कुमार ने उन्हें अपनी ताकत दिखाने के लिए कहा. इस के बाद खालिद अनवर पटना के गांधी मैदान में मुसलिमों को जमा करने की कवायद में लग गए और ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ रैली करा कर अपनी ताकत दिखा दी. उसी दिन शाम होते ही खालिद अनवर के घर पर विधानपरिषद का टिकट पहुंच गया.
इस से पहले जनता दल (यूनाइटेड) का कोई नेता खालिद अनवर को जानता तक नहीं था. पटना के कुम्हरार इलाके में सुन्नी वक्फ बोर्ड की वक्फ संख्या-1048 की 5300 वर्गफुट जमीन पर उन का प्रिंटिंग प्रैस चलता है. इस जमीन पर उन्होंने जबरन कब्जा जमा रखा है.
पिछले साल जद (यू) के कुछ नेता कब्रिस्तान की जमीन पर कब्जा करने के विरोध में खालिद अनवर के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे. इस मामले में इतनी तीखी झड़प हुई थी कि जद (यू) के नेताओं ने खालिद अनवर की पिटाई कर दी थी और थाने में केस भी दर्ज कराया था.
खालिद अनवर पर यह भी आरोप है कि उन्होंने पटना के ही चितकोहरा इलाके में कब्रिस्तान की 63 डिसमिल जमीन पर कब्जा जमा रखा है.
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में दलितों की कुल आबादी 20 करोड़, 14 लाख थी. यह तब की कुल आबादी का 16.6 फीसदी था. उत्तर प्रदेश में सब से ज्यादा दलित हैं. वहां कुल दलित आबादी में से 20 फीसदी दलित हैं. इस के बाद बिहार में 7.2 फीसदी दलित आबादी है.
कई दलित संगठन अपनेअपने सर्वे के हिसाब से यह दावा करते हैं कि दलितों की कुल आबादी आज 32 करोड़ के आसपास है. उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, ओडिशा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश में सब से ज्यादा दलित बसते हैं. उन से ऊपर शूद्रों यानी अन्य पिछड़ी जातियों में भी बहुत सी जातियां हैं. जो हैं तो दलितों के बराबर, पर उन्हें मंडल आयोग ने ऊंची जमात में रख दिया जहां उन्हें हिकारत से देखा जाता है.
वहीं 2011 की जनगणना रिपोर्ट बताती है कि देश में 17 करोड़, 22 लाख मुसलिम रहते हैं. वे देश की कुल आबादी का 14.23 फीसदी हैं. इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद भारत मुसलिम आबादी के लिहाज से तीसरा सब से बड़ा देश है.
भारत में सब से ज्यादा मुसलिम आबादी उत्तर प्रदेश में है. वहां 3 करोड़, 7 लाख मुसलिम रहते हैं. इस के बाद पश्चिम बंगाल का नंबर आता है, जहां 2 करोड़, 2 लाख मुसलिम हैं. बिहार में एक करोड़, 37 लाख मुसलिम हैं. देश की कुल मुसलिम आबादी में से 47 फीसदी आबादी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार में ही रहती है.
सियासत के जानकार हेमंत राव कहते हैं कि मुसलिमों के साथ दलितों को मिला कर साझा राजनीति करने का सपना मुसलिम के साथ हिंदू नेता भी देख रहे हैं. राजनीति में मुसलिम की खास पैठ नहीं है, इसलिए वे दलितों के कंधे पर सवार हो कर राजनीति में अपनी कमजोर हालत को मजबूत बनाने की कवायद में लगे हैं.
गौरतलब है कि मुसलिमों का एक बड़ा हिस्सा वे लोग हैं जो हिंदुओं की निचली और सताई गई जातियों से धर्म बदल कर मुसलिम हुए हैं. भारत के 18 करोड़ मुसलिमों में से ज्यादातर हिंदू दलित ही हैं, जिन्होंने हिंदुओं की ऊंची जातियों के जोरजुल्म से बचने के लिए इसलाम धर्म कबूल कर लिया था.
वैसे, हिंदू दलितों और मुसलिमों की बदहाली के लिए अलगअलग वजहें हैं. दोनों की समस्याएं और जरूरतें अलगअलग हैं. हिंदू दलित जहां ब्राह्मणवाद के शिकार हैं, वहीं मुसलिम सांप्रदायिकता नाम की बीमारी से पीडि़त हैं. इन दोनों समस्याओं को राजनीतिक दलों ने अपने फायदे के लिए पैदा किया और कायम रखा है.
मुसलिमों के पैरोकार और सांसद ऐजाज अली कहते हैं कि हर दल मुसलिमों की तरक्की की बात तो करता है, पर उस की कोशिश यही रही है कि मुसलिमों की तरक्की न हो. वे पढ़ेलिखे नहीं है. पढ़लिख जाने पर उन्हें समझदारी आ जाएगी और फिर वे अपने दिमाग से वोट डालेंगे. सियासी दलों का मकसद बस मुसलिमों को वोट बैंक बना कर रखना है, न कि उन की तरक्की करना.
मुसलिमों को टिकट देने में हर दल आनाकानी करता रहा है. मुसलिम नेता कहते हैं कि अगर मुसलिमदलित की राजनीतिक एकता मजबूत बनाने के पहले मुसलिमों को उन के हक दिए जाएं.
अगर इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि साल 1936 से साल 1950 तक मुसलिमों के दलित तबके को हिंदू दलितों की तरह ही रिजर्वेशन का फायदा मिलता था. साल 1950 में संविधान की धारा 34(1) में यह आदेश जारी किया गया था कि कोई भी शख्स जो हिंदू धर्म के अलावा किसी धर्म को मानता हो, उसे अनुसूचित जाति के दायरे से बाहर माना जाएगा. इस फरमान के बाद मुसलिमों में जो दलित थे, उन्हें रिजर्वेशन का फायदा मिलना पूरी तरह से बंद हो गया था, जबकि हिंदू दलितों को इस का फायदा मिलता रहा.
कुछ मुसलिम नेता दबी जबान में कहते हैं कि दलित मुसलिमों को आरक्षण का फायदा देने से वंचित करने के इस फरमान पर डाक्टर भीमराव अंबेडकर भी चुप्पी साधे रहे.
गौरतलब है कि अंबेडकर उस समय केंद्र सरकार में कानून मंत्री थे. मुसलिमों के साथ हुई इस नाइंसाफी और बेईमानी के खिलाफ उन्होंने जरा भी आवाज नहीं उठाई. इस से आम मुसलिम हिंदू दलितों के साथ कंधे से कंधा मिलाने के नाम पर कन्नी काटते रहे हैं.
राज्यसभा के सदस्य रह चुके पिछड़े मुसलिमों के नेता अली अनवर कहते हैं कि हर चुनाव से पहले मुसलिमों को ले कर सियासत शुरू हो जाती है पर उन्हें टिकट देने की बात उठते ही सब बगलें झांकने लगते हैं.
बिहार की ही बात करें तो वहां मुसलिमों की आबादी 16.5 फीसदी है और कुल 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 60 में वे फैसला करने के रोल में हैं. मुसलिम नेता मानते हैं कि 243 विधानसभा सीटों में से 60 सीटों में मुसलिमों के वोटों से किसी भी उम्मीदवार को जिताया जा सकता है. उन क्षेत्रों में मुसलिमों के वोट 18 से 74 फीसदी तक हैं. इस के अलावा 50 ऐसी सीटें हैं जहां 10 से 17 फीसदी मुसलिम वोट हैं. इस के बाद भी सियासी दल मुसलिमों को टिकट देने में आनाकानी करते रहे हैं.
बिहार विधानसभा के 10 साल तक (2005-2015) अध्यक्ष रहे जद (यू) नेता उदय नारायण चौधरी ने जद (यू) पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दी है. वे कहते हैं कि बिहार में नीतीश सरकार दलितों को सता रही है. जद (यू) में पैसे वालों और बाहरी लोगों को तरजीह दी जा रही है. दलितों पर होने वाले जोरजुल्म के मसले पर सरकार ने चुप्पी साध ली है. दलितों को केवल सत्ता पाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.
दलितों और अल्पसंख्यकों को ठगा गया है : जीतनराम मांझी
बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके जीतनराम मांझी का मानना है कि केंद्र से ले कर राज्य सरकारें दलितों को केवल ठगने का ही मायाजाल बिछाती रही हैं. अगर सरकार को दलितों का खयाल है तो वह सभी थानों में एससीएसटी ऐक्ट की तरह एफआईआर दर्ज कराने का फरमान जारी करे और इस काम के लिए दलित अफसर को ही बहाल करे. अल्पसंख्यक बरहुज थानों का थानाध्यक्ष भी अल्पसंख्यक समाज का ही होना चाहिए. इतना ही नहीं, इस ऐक्ट का केस देखने के लिए अलग से कोर्ट भी बनाया जाए.
एससीएसटी ऐक्ट के तहत दर्ज केस में कनविक्शन रेट महज 1.86 फीसदी ही है. पिछले साल तक इस ऐक्ट के तहत दर्ज 25 हजार, 943 केस पैंडिंग थे. इन में से 1443 केसों का ही फैसला आया और केवल 89 केसों में ही सजा मिली.
जीतनराम मांझी बेपेंदे के लोटे की तरह हैं जो कभी इधर की और कभी उधर की हांकते हैं.