मोबाइल फोन, टैक्नोलौजी और इंटरनैट से बहुतकुछ बदला है, लेकिन अगर कुछ नहीं बदला तो वह है पिछड़ी जातियों व दलितों से भेदभाव की सोच. यों तो दलितों से भेदभाव की खबरें देशभर में होती रही हैं, लेकिन एक बड़ी हकीकत चौंकाती है. एक गांव ऐसा भी है, जहां गांव के हज्जाम दलितों के बाल नहीं काटते. यह किस्सा साल 2 साल का नहीं, बल्कि पीढि़यों से चली आ रही एक शर्मनाक परंपरा का है.
यह किस्सा दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र की राजधानी दिल्ली से तकरीबन सवा सौ किलोमीटर दूर नैशनल हाईवे नंबर 58 के नजदीक की वह कड़वी सचाई है, जिस से लोग रूबरू हो रहे हैं. यह उन सरकारी योजनाओं, सोच और बड़ी बयानबाजियों पर भी चोट है, जिन के जरीए समान अधिकारों से ले कर भेदभाव का जड़ समेत उखाड़ने की ताल छोटेबड़े मंचों पर ठोंकी जाती है. उत्तर प्रदेश राज्य के मुजफ्फरनगर जिले की खतौली तहसील के इस गांव का नाम है भूपखेड़ी. गांव की आबादी तकरीबन 4 हजार है, जिन में ज्यादातर अगड़ी जातियां हैं. इन में दलितों की तादाद 3 सौ के आसपास है. गांव के दलितों को हज्जाम के यहां बाल कटाने या हजामत बनवाने की इजाजत नहीं है. अगर कभीकभार वे कोशिश भी करते हैं, तो उन्हे बेइज्जत कर के भगा दिया जाता है.
दरअसल, गांव में अछूत होने के डर से बाल न काटने का सिलसिला सालों पुराना है. इस गांव के दलित दूसरे गांवों में बाल कटवाने के लिए जाते हैं. ठाकुर जाति की नई ग्राम प्रधान अनीता देवी ने इस भेदभाव को खत्म करने की ठानी. उन्होंने अपने पति मान सिंह को भी आगे किया और गांव में हज्जाम की दुकान चलाने वाले से बात की, तो उस ने दलितों के बाल काटने से इनकार कर दिया. उस का कहना था कि दूसरे ठाकुर इस के लिए मना करते हैं. उस के पिता या दादा ने भी कभी दलितों के बाल नहीं काटे, तो फिर वह ऐसा क्यों करे?
कुछ दलित इकट्ठा हो कर बाल काटने पहुंचे, तो उन के साथ गालीगलौज की गई. साथ मिलने से दलितों को हौसला बढ़ा, तो उन्होंने बाकायदा इस की लिखित शिकायत थाना रतनपुरी में की, लेकिन पुलिस का रवैया निराशाजनक रहा. उस ने कोई कार्यवाही करने के बजाय तहरीर ले कर रख ली. नतीजतन, गांव में दोनों बिरादरियों में तनाव हो गया. दलितों ने कलक्टर को भी ज्ञापन दिया. पुलिस प्रशासन ने इस भेदभावपूर्ण परंपरा को तोड़ने की कोशिशों में जुटे दलितों को सहारा देने या ठोस हल निकालने के बजाय कानून व्यवस्था न बिगड़े, इसलिए गांव में पुलिस को तैनात कर दिया. हज्जाम पर दलितों ने दबाव बनाया, तो उस ने दलितों के बाल काटने के बजाय दुकान बंद करना बेहतर समझा. उस ने साफ कर दिया कि कई ठाकुर ऐसा नहीं चाहते. ऐसी परंपरा पर पुलिस वाले भी हैरानी जताते हैं. गांव के दलितों को यह भेदभाव लंबे अरसे से कचोटता रहा है, लेकिन गांव में ठाकुर बिरादरी के लोग ज्यादा हैं, इसलिए कोई विरोध नहीं कर पाता. अछूत होने का डर भले ही हो, लेकिन गांव के दलित ठाकुरों के खेतों में मजदूरी भी करते हैं. दलितों की यह मजदूरी व छोटीमोटी नौकरी ही कमाई का जरीया है.
गांव के एक 90 साला दलित बुजुर्ग भिखारीदास से जब पूछा गया कि उन्हें याद है कि उन्होंने आखिरी बार गांव में बाल कब कटवाए, तो उन्होंने बताया कि जब पहली बार ही यहां बाल नहीं कटे, तो आखिरी बार कैसे कटेंगे. उन की बूढ़ी आंखों में बेबसी के साथ वह उम्मीद भी नजर आती है, जिस से दलितों को भेदभाव से छुटकारा मिल जाए. इसी गांव के दलित ऋषिपाल और उस की पत्नी शारदा कहते हैं कि उन्होंने अपने बच्चों के बाल कटवाने की कोशिश भी की, लेकिन अछूत होने का डर उन में भी था. शारदा जब कभी अपने बच्चों को हज्जाम की दुकान पर ले कर गई, तो खरीखोटी सुना कर चलता कर दिया गया. 45 साल के सलेख की 6 बेटियां और 2 बेटे हैं. न कभी उस के बाल गांव में कटे हैं और न उस के बच्चों के. बुजुर्ग मंगली को ऊंचा सुनाई देता है, लेकिन हर हलचल से वे वाकिफ हैं. इशारों और बातों में वे हमउम्र लोगों से इस पर चर्चा भी करते हैं. उन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. वे कहते हैं कि पता नहीं, हज्जाम उन के बाल क्यों नहीं काटता? बाल कटाने की कोशिश करने पर मिली झिड़कियां उन्हें भी याद हैं.
दलित सुनील मजदूरी करता है. वह कहता है कि जब वह मजदूरी के लिए किसी दूसरी जगह जाता है, तो वहीं बालों की कटिंग करा लेता है. गांव में बाकी लोगों का हाल देख कर उस ने कभी कोशिश भी नहीं की. 70 साला जहरू और 55 साला सोमबीर भी ऐसे ही किस्से बयां करते हैं. साथ ही, वे सवाल भी करते हैं कि आखिर उन का गुनाह क्या है? उन्हें भी बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए. गांव का संजीव नामक नौजवान बीडीसी मैंबर है. वह गलत परंपरा को तोड़ना चाहता है, लेकिन कामयाब नहीं हो पा रहा है. गांव के नितिन वालिया, अभिषेक, प्रियांशु, प्रकाश, राजीव, प्रवेश, अवनीश, सुशील व रामभूल सभी इस परंपरा के खिलाफ हैं. वे इसे तोड़ना भी चाहते हैं. भेदभाव उन्हें हर वक्त कचोटता है.
ऐसा नहीं है कि आसपास के नेताओं को दलितों के इस भेदभाव की खबर नहीं है, बल्कि दलित उन के लिए महज वोटों का जरीया हैं. लोग बताते हैं कि चुनाव के समय नेता उन के महल्ले में आते हैं, तब वे बहुत अपनापन दिखाते हैं. बस, उसी वक्त लगता है कि गांव में कोई भेदभाव या ऊंचनीच की दीवार नहीं है. प्रधानपति मान सिंह का कहना है कि वे इस भेदभाव को खत्म करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें खुद ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है. इस पूरे मामले में प्रशासनिक रवैया ढुलमुल है. सवाल है कि सालों से चली आ रही बुराई से दलितों को नजात कैसे मिले? उस के लिए क्या कोशिश की जाए?