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इलाहाबाद के एक रेस्त्रां में ऊंची जातियों के बिगड़ैलों का एक दलित को पीटपीट कर मार डालने का मामला एक भयंकर खतरे का एक और एहसास है. इस से पहले हैदराबाद में रोहित वेमूला की खुदकुशी का मामला हुआ था. ऊना में दलितों को मारने का मामला हुआ था. राजस्थान के राजसमंद में एक लव जेहाद के नाम पर दलित को मारने की घटना हुई थी.
मोबाइलों से बनी ऐसी फिल्मों का अंबार लग चुका है जिन में दलितों को बुरी तरह मारा जा रहा है. औरतों और लड़कियों के बलात्कार के वीडियो भी वायरल होते रहे हैं.
सदियों से अछूतों के नाम से जाने जाने वाले दलित अब बराबरी की मांग कर रहे हैं और पढ़ने व कमाने के मौके पा कर देश की मुख्यधारा में शामिल होने की कोशिश कर रहे हैं पर मंदिर, पूजा, पाखंड की राजनीति ऊंची जाति बनाम नीची जाति की रणनीति बनने लगी है और दलितों को दबानेकुचलने की कोशिशें हो रही हैं. ऊंची जातियां चाहती हैं कि उन्हें सस्ते, असहाय, हुक्म मानने वाले मजदूर लगातार मिलते रहें और उन्हें डर लगता है कि अगर कल को दलित बराबर हो गए तो समाज का सदियों का बना ढांचा टूट जाएगा.
चूंकि इन दलितों के पास वोट का हक है और इन के नेता अपनी पहचान का फायदा उठाने से चूक नहीं रहे हैं और दलित अपने से ऊंची जातियों, चाहे वे बैकवर्ड कहलाती हों या राजपूत, वैश्य और ब्राह्मण, से भी कोई मेलजोल नहीं बना पा रही है.
इलाहाबाद के रेस्त्रां की घटना एक खौलते रुख की निशानी है. ऊंची जातियां चाहे वे सवर्ण हों या गैरसवर्ण सोचती हैं कि दलितों को वैसा ही रहना चाहिए जैसे वे सदियों रहे. दलित जातियां संख्या, चुनावी राजनीति और अब आरक्षण से मिली नौकरियों और पढ़ाई के बल पर बराबरी की सी मांग कर रही हैं. यह ऊंचों को सहन नहीं हो रहा और हर शहर, कसबे, गांव में इलाहाबाद जैसी घटनाओं की भरमार होने लगी है जिन में से कुछ ही सुर्खियां बनती हैं.
यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की कामकाजी जनता मोटेतौर पर दलितों की है. सवर्ण तो कभी भी मेहनत का काम करते ही नहीं थे. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने हाथ से काम करना अपमान समझते रहे हैं. पहले पिछड़े वर्गों के लोग खेतों, कारखानों और खानों में मेहनत का काम करते थे पर अब इन की गिनती कम होने लगी है क्योंकि इन के पास जमीन आ गई?है. देश की तरक्की का दारोमदार आज दलितों पर है. उन से मेहनत करा सकते हो तो देश को चीन बना सकते हो. उन्हें जानवर की तरह रखोगे तो सारा देश गरीब बना रहेगा. उन से मारपीट करना अपने हाथों को जख्मी करना है. हो सकता है वे सहम जाएं, हो सकता है आपसी फूट की वजह से वे अपने हक न मांग सकें, हो सकता है पढ़े न होने के कारण वे पाखंडों में फंस जाएं पर इस सब से देश को नुकसान होगा.
देश की हर गली में तूतूमैंमैं हो, हर नुक्कड़ पर 2-4 गुट एकदूसरे को मारने की फिराक में खड़े हों, अदालतें ऊंचेनीचों के झगड़े निबटाने में लगी रहें, संसद में अत्याचारों की आवाजें ज्यादा गूंजें, तो देश आगे बढ़ने से रहा, उन्नति के सपने साकार होने से रहे.
दलितों के साथ बढ़ रहे अत्याचारों के पीछे वह पाखंडी सोच है जिसे हर रोज बढ़ावा दिया जा रहा है. संस्कृति की दुहाई दे कर जो बात हर बार याद दिलाई जाती है वह यही है कि समाज में अलगअलग खेमे भगवान की देन हैं, पिछले जन्मों के पापों के फल हैं. उन पर उंगली न उठाइए क्योंकि यही इस समाज का दस्तूर है. यहां हरेक को बोलने, चलनेफिरने में अपनी पैदाइश का खयाल रखना होगा. सिर्फ पढ़ाई कर लेने से जाति नहीं सुधर जाती. ऊंचों की सेवा करो तभी कल्याण होगा, यह सोच देश को उसी गड्ढे में फिर धकेल देगी जहां से निकलने की कोशिशें हो रही हैं.