दक्षिण भारत की फिल्मों के सुपरस्टार हीरो रजनीकांत ने आखिरकार राजनीति में आने का मन बना ही लिया है. उन्होंने एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने की बात कही है. वैसे वे राजनीति में आ कर क्या करेंगे, अब तक इस बात का कोई राजनीतिक नजरिया सामने नहीं आया है.
सामाजिक आंदोलन से निकल कर आए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक नजरिया अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान उन के नई पार्टी बनाने के ऐलान से पहले ही साफ हो चुका था. वे देश की भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव की बात करते थे.
रजनीकांत राजनीति में भ्रष्टाचार की बात मानते तो हैं, पर उन्होंने इस के खिलाफ कोई रोडमैप पेश नहीं किया है, जैसा कि जनलोकपाल बिल के लिए अरविंद केजरीवाल अपना संकल्प दोहराते थे.
तमिलनाडु की राजनीति में 2 द्रविड़ पार्टियों के बीच रजनीकांत कहां जगह बना पाएंगे, यह साफ नहीं है. ये दोनों पार्टियां बारीबारी से सत्ता में आती रही हैं. राज्य की राजनीति में दोनों पार्टियां द्रविड़ और गैरद्रविड़ के अपनेअपने जातीय, वर्गीय आधार पर टिकी हैं. यहां द्रविड़ और गैरद्रविड़ जातियों में ऊंचनीच, भेदभाव, आपसी जलन का टकराव चलता आया है.
वैसे भी फिल्मों में मशहूर होना अलग बात है. भले ही ऐसे कलाकार राजनीति में आ कर अपनी लोकप्रियता भुनाने में कामयाब हो जाएं, सत्ता की कुरसी पर जा बैठें, पर राजनीति में आ कर कोई बदलाव या करिश्मा कर पाएंगे, मुश्किल है.
रुपहले परदे से अमिताभ बच्चन, सुनील दत्त, विनोद खन्ना, धर्मेंद्र, वहीदा रहमान, गोविंदा, रेखा, हेमामालिनी, स्मृति ईरानी जैसे सितारों की लंबी फेहरिस्त है, पर फिल्मी परदे पर सुनी जाने वाली इन की बुलंद आवाज संसद में तकरीबन खामोश ही रही. संसद में ये महज शोपीस बने दिखाई दिए. जनता के लिए बहुत कम मुद्दे इन सितारों ने उठाए. इन की कोई बदलाव वाली सोच कभी सामने नहीं आई.
लाखोंकरोड़ों प्रशंसकों के चहेते खिलाड़ी भी संसद में आ कर जनता के पैसे से सुविधाएं और मोटा पैसा पाते रहे. क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर और फिल्म हीरोइन रेखा तो अपने कार्यकाल में संसद में न के बराबर दिखाई देते हैं. संसद के अधिवेशनों में भी नदारद रहते हैं. इन की हाजिरी को ले कर कई बार सवाल उठे हैं. न सचिन तेंदुलकर खेलों के लिए कोई सुधार की बात संसद में रख सके, न ही रेखा जैसे फिल्म सितारे.
तमिलनाडु की राजनीति में फिल्मी सितारों का आना नई बात नहीं है. यहां की जनता की फिल्मी सितारों के प्रति दीवानगी जगजाहिर है. लोग सितारों से भावनात्मक रूप से जुड़े रहते हैं.
दक्षिण भारत से ही एमजी रामचंद्रन, जे. जयललिता, एम. करुणानिधि जैसे नेता फिल्मों से आए, पर वे राज्य को भ्रष्टाचार, जातिवाद, मजहब, क्षेत्रीयता, भाषा को ले कर छोटी सोच से छुटकारा नहीं दिला पाए.
कुछ समय पहले दक्षिण भारत के लोकप्रिय सुपरस्टार चिरंजीव राजनीति में आए थे. उन्होंने अपनी नई पार्टी ‘प्रजा राज्यम’ बनाई थी, पर रुपहले परदे पर धमाल मचाने वाले हीरो राजनीति में फुस नजर आए.
साल 2009 में आंध्र प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में उन्हें 295 सीटों में से महज 18 सीटें ही मिलीं. 2 सीटों पर खड़े हुए चिरंजीवी एक सीट पर हार गए. बाद में उन्हें कांग्रेस में शामिल होना पड़ा.
सुपरस्टार के रूप में रजनीकांत को पसंद करने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है. जो लोग उन्हें पसंद करते हैं, वे किसी खास जाति, धर्म, क्षेत्र, वर्ग या विचारधारा से जुड़े नहीं हैं. उन्हें कलाकार के रूप में पसंद करने वालों का दायरा बहुत बड़ा है, पर राजनीति में ऐसा नहीं होता. राजनीति में जाति, धर्म एक कड़वी सचाई है. ऐसे में रजनीकांत खुद किसी न किसी विचारधारा के प्रतीक बन कर रह जाएंगे.
निचले तबके से आने वाले शिवाजी राव गायकवाड़ नाम के इस सितारे के स्वीकार करने का दायरा उतना बड़ा नहीं रह पाएगा. राजनीति में आने पर उन की अपने प्रशंसकों से दूरी बन जाएगी. विपक्ष उन की जाति पर सवाल उठाएगा, जैसा कि फिल्म ‘कबाली’ में सोशल मीडिया पर उन के दलित होने का प्रचार किया गया. उन पर राजनीति से प्रेरित हमले होंगे. नीचे गिराने के लिए हर तरह से कीचड़ उछाला जाएगा. उन का हाल चिरंजीवी जैसा हो सकता है.
आज देश को नई सोच वाले क्रांतिकारी नौजवान नेताओं की जरूरत है. बेंगलुरु ट्रांसपोर्ट सेवा में बस कंडक्टर की नौकरी से अपना कैरियर शुरू करने वाले 67 साला रजनीकांत मिस्टर इंडिया या मिस्टर तमिलनाडु बन पाएंगे, मुश्किल है.
फिल्मों के चमत्कार असली जिंदगी से बहुत अलग हैं. राजनीति की जमीन बड़ी खुरदरी है, जहां बेशुमार समस्याओं की हकीकत से रूबरू होना पड़ता है. इस के लिए लकीर के फकीर नहीं, कुछ अलग और नया करने वाले हीरो चाहिए.
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