पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के बशीरहाट कसबे में 12वीं में पढ़ने वाले एक किशोर द्वारा 22 जुलाई 2017 को फेसबुक पर मुसलमान युवकों पर आपत्तिजनक पोस्ट डालने से प्रदेश के कई शहर सुलग उठे. पोस्ट ज्योंही वायरल हुई, मुसलमान सड़कों पर उतर आए. भीड़ ने घरों पर हमला कर दिया. दुकानें लूटीं, कईर् वाहन फूंक दिए. भीड़ पोस्ट करने वाले किशोर को भीड़ के हवाले करने की मांग करने लगी. गोलियां चलने से कसबे में कार्तिक चंद घोष नामक व्यक्ति की मौत हो गई. इस घटना के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को दोषी ठहरा कर विपक्षी दलों में आरोपप्रत्यारोप लगाने का खेल शुरू हो गया.

इस से पहले, फरीदाबाद-पलवल टे्रन में 15 वर्षीय जुनैद खान नामक किशोर को बीफ ले जाने के शक में भीड़ ने उस पर खूब छींटाकशी की, फिर चाकू घोंप कर उस की हत्या कर दी. कुछ समय पहले गायों को ले जा रहे अलवर के पहलू खान की गाय की तस्करी के नाम पर भीड़ ने जान ले ली थी. पिछले साल दादरी में गोमांस के संदेह में घर में घुस कर भीड़ द्वारा मारे गए मोहम्मद अखलाक की मौत का कहर उस के परिवार पर टूट पड़ा था.

भीड़तंत्र द्वारा नफरत के विस्फोट का यह अंतहीन सिलसिला थमता हुआ नहीं दिख रहा है. देशभर में इन दिनों यह भयावह दृश्य देखा जा रहा है. ऐसी घटनाओं ने देश के विचारकों को गहरी चिंता में डाल दिया है. जुनैद हत्याकांड के बाद हजारों लोगों ने सड़कों पर उतर कर ‘नौट इन माई नेम’ नारे के साथ दिल्ली के जंतरमंतर, मुंबई, कोलकाता, बैंगलुरु, हैदराबाद जैसे शहरों में विरोध प्रदर्शन किया.

देश की सरकार न सिर्फ बहरा कर देने वाली चुप्पी साधे हुए है, बल्कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले और भीड़ द्वारा हत्या करने को खुलेआम बढ़ावा देने में लगी हुई है. अल्पसंख्यक आयोग और मौजूदा केंद्र सरकार अल्पसंख्यक समुदाय को सम्मान दिलाने व उस की सुरक्षा का दिखावा तक करने में असफल रही है.

यह और ऐसे कई आरोप लगाते हुए प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता 60 वर्षीया शबनम हाशमी ने अपना राष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिकार पुरस्कार सरकार को वापस लौटाया तो इस पर कोई खास होहल्ला तो दूर, औपचारिक चर्चा भी नहीं हुई.

मानवाधिकार के क्षेत्र में शबनम हाशमी को कार्य करते 2 दशकों से भी ज्यादा का वक्त गुजर चुका है. वे एक धीरगंभीर पर आकर्षक व्यक्तित्व वाली महिला हैं जो आमतौर पर खामोशी से अपना काम करना पसंद करती हैं.

पिछले दिनों देश के विभिन्न क्षेत्रों में खासतौर से गौरक्षा और बीफ खाने व उस की कथित तस्करी के नाम पर उन्मादी भीड़ ने जिस तरह मुसलमानों की चुनचुन कर हत्या की वह दीर्घकालिक चिंता की बात है. समाज पर राज एक वर्गविशेष की भीड़ का चल रहा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति ने गंभीरता से जबकि प्रधानमंत्री ने औपचारिक रूप से चिंता जताई है.

देश धर्मजनित भीड़तंत्र की दहलीज पर न केवल खड़ा है बल्कि यह रोग काफी भीतर तक दाखिल भी हो गया है. इसे समझने के लिए कुछ हादसों पर गौर करना जरूरी है. अफसोस की बात यह भी है कि कट्टर और अदूरदर्शी लोग इन हादसों का समर्थन कर रहे हैं. जब से मौजूदा सरकार सत्ता में आई है, एक सर्वे बताता है कि पिछले 3 वर्षों में इस तरह की घटनाओं में 97 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. हाल की कुछ बहुचर्चित घटनाएं तफसील से पढि़ए.

वल्लभगढ़, 22 जून, 2017

हरियाणा के वल्लभगढ़ से 4 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है खदावली. खदावली गांव में मुसलिमों की तादाद खासी है. इस गांव के एक बुजुर्ग निवासी हैं जलालुद्दीन, जिन का घर भरापूरा है. जलालुद्दीन का छोटा बेटा जुनैद मेवात के एक मदरसे फैज-ए-सोमानिया में पढ़ रहा था. जुनैद इस दफा ईद की छुट्टियां मनाने खदावली आया.

ईद की खरीदारी करने के लिए, हादसे के दिन, जुनैद अपने बडे़ भाई हाशिम के साथ दिल्ली गया था और खरीदारी के बाद रात की लोकल ट्रेन से घर वापस लौट रहा था. वल्लभगढ़ से दिल्ली तकरीबन 45 मिनट का रास्ता है. बहैसियत हाफिज, जुनैद की यह पहली ईद थी और वह दिल्ली की जामा मसजिद का इमाम बन जाने का ख्वाब संजोए था. यह ख्वाब, हद से ज्यादा, हर धार्मिक मुसलमान किशोर का होता है.

सदर स्टेशन से हाशिम और जुनैद लोकल ट्रेन में बैठे. उन के साथ 2 पड़ोसी दोस्त मोहसिन और मोईन भी थे. सदर में तो ट्रेन में कुछ जगह थी लेकिन जैसेजैसे यह वल्लभगढ़ की तरफ बढ़ने लगी तो मुसाफिरों की तादाद बढ़ने लगी. ये चारों चूंकि बैठ चुके थे, इसलिए जगह और बैठने की मारामारी को देखते हुए बतियाते जा रहे थे. भीड़ में एक बुजुर्ग को खड़ा देख जुनैद ने उन्हें बैठने के लिए अपनी सीट दे दी और खुद उन की जगह खड़ा हो गया.

ओखला स्टेशन से उस डब्बे में एकसाथ कई लोग चढ़े, जिस से धक्कामुक्की होने लगी. लोकल ट्रेनों में ऐसा होना आम बात है. लेकिन धक्कामुक्की इतनी बढ़ी कि एक धक्के से जुनैद गिर पड़ा. इस पर धक्का मारने वालों से हाशिम और जुनैद ने कहा कि वे धक्का न मारें.

बस, इतना कहना भर था कि ओखला से चढ़े एकसाथ 15-20 लोगों में से एक ने हाशिम की टोपी छीन कर नीचे फेंक दी और उसे फिल्मी स्टाइल में अपने पैरों तले कुचल दिया. यह भीड़ इतने से ही शांत नहीं हुई. भीड़ में से एक ने हाशिम की दाढ़ी पकड़ ली. हाशिम और जुनैद, अंजाना पर पहचाना कुछ भी कह लें, खतरा देख अब बचाव की मुद्रा में आ गए.

कायदे से तो बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी कि भीड़ ने 2 मुसलमान युवकों की टोपी रौंदी और दाढ़ी नोची, पर भीड़ का इरादा कुछ और था. इन लोगों ने हाशिम और जुनैद की पिटाई करनी शुरू कर दी. मोईन और मोहसिन को भी खींच कर मारा जाने लगा. मौजूद मुसाफिरों की भीड़ इस मारकुटाई पर कुछ नहीं बोली. इन चारों को पीटने वाले 10-15 लोग चिल्लाते भी जा रहे थे कि ये मुसलमान हैं, गाय खाते हैं और देशद्रोही हैं. पिटाई के दौरान ही हाशिम ने अपने मोबाइल फोन से वल्लभगढ़ में रह रहे अपने बड़े भाई शाकिर को हादसे की खबर दे दी थी, जिस से वह उन्हें लेने के लिए स्टेशन पहुंच गया था.

वल्लभगढ़ पर ट्रेन रुकी तो भीड़ ने इन चारों को उतरने नहीं दिया. इस पर शाकिर ढूंढ़ता हुआ उन के डब्बे तक जा पहुंचा. उस के साथ उस के कुछ दोस्त भी थे. शाकिर और उस के दोस्तों ने देखा कि इन चारों को भीड़ ने पकड़ रखा है, और उन्हें उतरने नहीं दे रहे हैं. इस पर कहासुनी शुरू हुई तो भीड़ ने शाकिर और उस के साथियों की धुनाई शुरू कर दी.

वल्लभगढ़ से टे्रन खिसकी तो भीड़ में से किसी ने एक नुकीला चाकू निकाला और शाकिर पर वार कर दिया. शाकिर को खतरे में देख उस के दोनों छोटे भाई हाशिम और जुनैद आगे आए तो इन पर भी चाकू से हमला किया गया.

अगला स्टेशन असावटी था, महज 10 मिनट का रास्ता, लेकिन जुनैद पर चाकू के इतने हमले हुए थे कि वह मर गया.

चलती टे्रन में एक मुसलमान युवक की हत्या की बात जंगल की आग की तरह देशभर में फैली जिस पर तरहतरह की बातें हुईं. अस्पताल में भरती हाशिम आगंतुकों को रट्टू तोते की तरह यही कहानी सुना रहा था. जलालुद्दीन के घर ईद की खुशियों की जगह मातम ने ले ली और इस इलाके के मुसलमानों ने ईद की नमाज अपने बाजुओं में काली पट्टी बांध कर पढ़ी.

जुनैद को क्यों मारा, यह बात ट्रेन में ही चिल्लाचिल्ला कर हत्यारी भीड़ बता चुकी थी कि ये मुसलमान हैं, ये गाय खाते हैं और देशद्रोही हैं.

रामगढ़, झारखंड

29 जून, 2017

झारखंड के रामगढ़ जिले में मोहम्मद अलीमुद्दीन नाम के युवक को गौरक्षकों ने पीटपीट कर मार डाला. यह वह वक्त था जब गुजरात के साबरमती आश्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नसीहत या चेतावनी दे रहे थे कि गौरक्षा के नाम पर आदमियों की हत्या स्वीकार्य नहीं.

इस बात से रामगढ़ के गौरक्षकों ने जो सीखा वह बेहद घृणित, अमानवीय और वीभत्स है. हादसे के दिन अलीमुद्दीन वैन में मांस, कथित रूप से प्रतिबंधित मांस यानी बीफ, ले कर जा रहा था, जिस की भनक इस इलाके के गौरक्षकों को लग गई थी. उन्होंने रामगढ़ के बाजार टांड़ में अलीमुद्दीन को वैन सहित बलपूर्वक रोका और वैन की तलाशी ली.

वैन में 4 बोरियों में मांस देख गौरक्षक भड़क गए और उन्होंने तुरंत वैन को आग लगा दी. वैन में रखी बोरियों में मांस गाय का था या किसी और जानवर का था या फिर था ही नहीं, यह सचाई कभी पता नहीं चलने वाली.

यह बात भी यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी पर यह शुरुआत थी. गौरक्षकों के आतंक को सैकड़ों लोगों ने देखा. अलीमुद्दीन को खींच कर बीच चौराहे पर लाया गया और गौरक्षकों ने उसे मौत की सजा सुना दी. यह किसी अदालत द्वारा दी गई सजा नहीं थी जिस में कथित मुजरिम को अपनी सफाई देने के लिए कोई वक्त मिलता. मौत की सजा के फैसले पर भीड़ ने तुरंत अमल भी किया और अलीमुद्दीन की जम कर पिटाई की और बाकायदा उस का वीडियो भी बनाया गया. मंशा तय है, ताकि सनद रहे…की थी.

हिंसक और उन्मादी भीड़ अलीमुद्दीन को पीटती रही. इसी बीच कहीं या किसी से खबर मिलने पर पुलिस भी आ गई और बमुश्किल भीड़ के चंगुल से उस ने अलीमुद्दीन को छुड़ाया. जल्द ही इस हादसे की खबर भी आग की तरह फैली कि झारखंड के रामगढ़ जिले में गौरक्षकों ने पीटपीट कर एक मुसलमान को मार डाला. उस पर आरोप यह लगाया कि वह गौमांस ले जा रहा था.

पुलिस अलीमुद्दीन को इलाज के लिए अस्पताल ले गई पर इलाज के दौरान ही उस की मौत हो गई. मौके पर बड़ी तादाद में उस इलाके के आसपास से आए मुसलमान इकट्ठा हो गए. इस वक्त तक अपना मिशन पूरा कर गौरक्षक छूमंतर हो चुके थे.

रिम्स, रांची में पोस्टमौर्टम के बाद अलीमुद्दीन की लाश पुलिस हिफाजत में उस के गांव मनुआ फूलसराय लाई गई. मनुआ फूलसराय के लोगों ने पुलिस वालों का विरोध किया और अलीमुद्दीन के घर वालों ने उस का शव लेने से इनकार कर दिया. सरकारी अधिकारियों ने विरोध झेलते हुए 3 बार मध्यस्थता की, तब कहीं जा कर अलीमुद्दीन की लाश उस के घर वालों ने ली. अब तक रामगढ़ जिले में अघोषित कर्फ्यू लग गया था और 33 संवेदनशील इलाकों में सुरक्षा बल तैनात कर दिए गए थे.

दूसरे दिन सुबह पुलिस ने 12 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया. ये दर्जनभर तो गायब हो ही गए थे, इस इलाके के तमाम हिंदूवादी नेता भी अलीमुद्दीन की मौत के बाद फरार हो गए. हिंसा और रोमांच से भरपूर भीड़ द्वारा की गई इस हत्या में गुल तो कई खिले और अभी तक खिल रहे हैं पर एक बासी बात यह भी प्रचारित हुई कि अलीमुद्दीन पर अपहरण और चोरी के मामले दर्ज थे. इस का उस की हत्या से संबंध किसी को समझ नहीं आया.

भारी तनाव के बीच रामगढ़ और मनुआ फूलसराय के लोग बारबार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह भाषण स्मार्टफोन पर सुन रहे थे जिस में उन्होंने कहा था, गौरक्षा के नाम पर हिंसा क्यों, मौजूदा हालात पर पीड़ा होती है. गाय की सेवा ही गाय की भक्ति होती है. गौरक्षा के नाम पर हिंसा ठीक नहीं. देश को अहिंसा के रास्ते पर चलना होगा, गौभक्ति के नाम पर लोगों की हत्या स्वीकार नहीं की जाएगी. अगर वह इंसान गलत है तो कानून अपना काम करेगा, किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने की जरूरत नहीं है. हिंसा समस्या का समाधान नहीं है.

यह भाषण उल्लेखनीय इसलिए था कि रामगढ़ में गौभक्तों के गैंग ने न केवल कानून अपने हाथ में लिया था बल्कि गाय के नाम पर एक मुसलमान को पीटपीट कर मार डाला था. समस्या का समाधान जिस हिंसा के जरिए निकाला गया उस की प्रतिध्वनि सदियों तक गूंजती रहेगी. प्रधानमंत्री का भाषण ऐसे हर हादसे पर उल्लेखित होगा.

झारखंड, गिरिडीह जिले का बरवाबाद गांव, 29 जून

रांची से लगभग 270 किलोमीटर दूर गिरिडीह जिले के देवरी थाने के तहत आने वाले बरवाबाद गांव में 28 जून को हिंसक भीड़ ने मुहम्मद उस्मान अंसारी की हत्या करने की कोशिश की. उस का घर जला दिया और परिवार वालों को जला कर मारने का प्रयास किया. उस की गायों को लूट कर ले जाया गया.

500 घरों और 15 मुसलमानों के इस गांव में उस्मान के घर से सटा बदरी मंडल का घर है. उस्मान दूध का कारोबार करता था. उस के पास पहले 14 गाएं थीं पर अब नहीं हैं. इस कारोबार में उस का बेटा सलीम भी मदद करता था. उस्मान की एक जर्सी गाय कई दिनों से बीमार थी. इलाज के बावजूद गाय 25 जून को मर गई. उस्मान ने गांव के एक दलित को सूचना दी कि वह उस की मर चुकी गाय को फेंक आए. दलित गाय फेंकने के एवज में 2 हजार रुपए मांग रहा था पर उस्मान इतने पैसे देने को तैयार नहीं था. वह 700 सौ रुपए देना चाहता था. बात नहीं बनी तो उस्मान ने बेटे की मदद से खुद ही अपने घर के सामने मैदान के पार एक बड़े नाले में फेंक दी.

मैदान में मंगलवार के दिन बाजार लगता है. 27 जून को बाजार लगने की तैयारी हो रही थी. तभी कुछ युवकों ने 60 वर्षीय उस्मान को पकड़ लिया और कहने लगे कि तुम ने गाय को काट कर फेंक दिया. उस्मान कहता रहा कि गाय मेरी थी और बीमारी की वजह से मर गई थी. पर युवकों ने शोरशराबा शुरू कर दिया. भीड़ उस्मान को मारनेपीटने लगी. उस के घर में आग लगा दी गई और घर में बंधी हुई गायों को खोल दिया और लूट कर ले गए.. उस की पत्नी को भी पीटा गया. बेटे और बहू ने भाग कर, छिप कर जान बचाई.

उस्मान को मरा समझ कर भीड़ हटी, तब पुलिस आई. भीड़ ने पुलिस पर भी पथराव किया. बदले में पुलिस ने हवाई फायर किए, तब जा कर भीड़ तितरबितर हुई. उस्मान को इलाज के लिए गिरिडीह ले जाया गया. उस की हालत गंभीर थी.

अलवर, राजस्थान

1 अप्रैल, 2017

यों तो साल 2017 में ऐसे छोटेबड़े हादसों की तादाद दर्जनभर हैं जिन में गाय के नाम पर दलितों और मुसलमानों को हिंदूवादियों और गौभक्तों ने धुना. जिन मामलों में भीड़ द्वारा कोई मरा नहीं, वे दफन हो कर रह गए. पर जिन मामलों में किसी, खासतौर से मुसलमान, को दफन होना पड़ा उन्होंने जरूर तूल पकड़ा. इन में से एक राजस्थान के अलवर का है. इस में 51 वर्षीय पशुपालक पहलू खान की भीड़ ने मारमार कर हत्या कर दी थी.

हरियाणा के नूह जिले के गांव जयसिंहपुर के रहने वाले पहलू खान अपने 4 साथियों सहित जयपुर के मशहूर पशु मेले में गए थे. उन का मकसद था दुधारू मवेशी खरीदना जिस से उन की रोजीरोटी और घर चलते हैं.

पहलू और उन का काफिला मवेशी खरीद कर वापस लौट रहा था. गौरक्षकों ने उन्हें अलवर में रोक लिया. आरोप यह लगाया कि ये लोग गायों की तस्करी करते हैं. इस पर पहलू खान ने उन्हें खरीदे गए मवेशियों की रसीदें दिखाईं कि वे लोग मवेशियों को जायज तरीके से ले जा रहे हैं.

यहां भी बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी पर गौरक्षकों की इस भीड़ का मकसद कुछ और था. पहलू खान सहित उन के 2 बेटों और साथी यूनुस खान को गौरक्षकों की भीड़ ने बेरहमी से धुना और इतना धुना कि पांचों बेहोश हो गए. पुलिस आई, भीड़ छंटी पर इन लोगों को पता नहीं चला. हां, यूनुस की बेहोशी जब मुकम्मल तौर पर टूटी तब उन्हें यह दुखद समाचार मिला कि पहलू दुनिया में नहीं रहे.

यूनुस को समझ नहीं आ रहा था कि किस जुर्म की सजा उन्हें मिली जबकि वे तो दुधारू गाय ला रहे थे. इस के सुबूत भी उन के पास थे.

हादसे में पहलू खान के जिंदा बच गए 22 वर्षीय बेटे इरशाद का कहना है कि गायों की रक्षा के नाम पर वे लोग लूटना चाहते थे. गौरक्षकों ने सब से पहले

हमें रोक कर जेबों की तलाशी ली और 75 हजार रुपए छीन लिए. भगवा कपड़े पहन कर आम लोगों को पीटना, फिर उन से पैसे व मवेशी छीन लेना इन गौरक्षकों का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है.

हालत खराब होने से पहलू खान को इमरजैंसी वार्ड में रखा गया था. वहीं उन की मौत हो गई. इरशाद का कहना है कि वे तो दूध बेच कर अपना पेट पालते हैं और उस दिन भी गाय और भैंसें खरीदने गए थे. गौरक्षकों ने उन्हें गौ तस्कर कह कर मारा.

जयसिंहपुर मुसलिम बाहुल्य गांव है लेकिन पहलू खान की गौरक्षकों की भीड़ द्वारा पिटाई के बाद मौत हुई तो अब वहां कोई गाय नहीं पालना चाहता. कोई और अब पहलू खान की तरह भीड़ के हाथों मरना नहीं चाहता.

यहां भी ये कथित गौरक्षक हिंदूवादी संगठनों से जुड़े थे. उन्होंने साजिश के तहत पहलू खान और उन के साथियों को बेरहमी से मारा और औन द स्पौट अपना फैसला थोप दिया.

नोएडा, उत्तर प्रदेश

12 जुलाई, 2017

भीड़तंत्र का रोग अन्य क्षेत्रों में भी फैला है. उत्तर प्रदेश के नोएडा स्थित महागुन मौडर्न सोसायटी में घुस कर 500 से अधिक लोगों ने तोड़फोड़ की. पुलिस पर पत्थरबाजी की गई. हंगामे के कारण घंटों तक सोसायटी में दहशत का माहौल रहा. कहा गया कि घर में काम करने वाली एक महिला को फ्लैट में बंधक बना कर रखा गया. नौकरानी पर एक घर से 10 हजार रुपए चुराने का आरोप था. उस की चोरी सीसीटीवी फुटेज में पकड़ी गई थी. इस पर नौकरानी का पति भीड़ के साथ सोसायटी में पहुंचा और तोड़फोड़ शुरू कर दी.

इस भीड़ ने फैसला करना अपने हाथ में ले लिया. यह भीड़ पुलिस, कानून को नकारने लगी है. लोकतंत्र में भीड़ का यह कैसा फैसला है? भीड़ विरोध करे तो जायज कहा जा सकता है पर भीड़ तो फैसले करने लगी है. यह खतरनाक है. कुछ समय पहले व्यवस्था के खिलाफ दिल्ली के जंतरमंतर पर उमड़ा आक्रोश जायज था. वह शांतिपूर्वक विरोध था. इस तरह का विरोध लोकतंत्र के लिए जरूरी है पर भीड़ द्वारा हिंसा फैलाना लोकतंत्र के लिए घातक है.

भीड़तंत्र की दुनिया

लोकतंत्र के वोटतंत्र और भीड़तंत्र में फर्क है. वोटतंत्र का एक मकसद होता है. वोट सोचसमझ कर डाले जाते हैं. पर भीड़तंत्र का मकसद मात्र विध्वंस होता है. बाबरी मसजिद, चर्चों, सरकारी दफ्तरों, सार्वजनिक इमारतों में तोड़फोड़ के पीछे भीड़ का उन्माद होता है. यह भीड़ लोकतंत्र के हित में नहीं, नुकसान में

जुटी दिखती है. यह भीड़ अमेरिका के औक्युपाई वालस्ट्रीट, दिल्ली के जंतरमंतर का आंदोलन, फ्रांस की क्रांति, रूसी क्रांति, चीनी क्रांति, अरब वसंत वाली भीड़ नहीं है. यह विध्वंसक भीड़ है.

भीड़ उन्मादी होती है. उसे पुलिस या सेना रोक नहीं सकती. आएदिन पुलिस थानों पर हमला, पत्थरबाजों की भीड़ द्वारा सेना पर हमला रोके नहीं रुक रहा. मिस्र, लीबिया, सीरिया, ट्यूनीशिया, इन चारों देशों को राजनीतिक तौर पर अस्थिर कर दिया गया. इस का असर अभी तक कायम है. सेना के टैंकों के बावजूद भीड़ नियंत्रित नहीं हो पाई. तख्तापलट कर दिए गए

पर ये देश स्थिरता के लिए तरस रहे हैं. तेल जैसे समृद्ध संसाधनों के बावजूद इसलामिक भीड़ ने पश्चिम एशिया को विनाश के मुहाने पर ला खड़ा किया.

इसी भीड़तंत्र से दुनिया को विभाजन का दंश झेलना पड़ा है. भारत-पाक बंटवारा भीड़तंत्र का नतीजा था, जिस में साफ था 2 धर्म आमनेसामने खड़े थे. भीड़तंत्र द्वारा दोनों धर्मों के लोगों के बीच नफरत फैलाई जा रही थी. दोनों अपनेअपने धर्म के पक्ष और बचाव में नारेबाजी करते हुए तोड़फोड़ करने में जुटे थे. दोनों के बीच हिंसा चरम पर पहुंच गई थी और नतीजा धर्म के आधार पर ‘टू नैशन थ्योरी’ के अंजाम तक पहुंच गया.

भीड़तंत्र ‘धर्म खतरे में है’ जैसे नारे देता है. अब यह नाजियों की तरह ‘राष्ट्रवाद खतरे में है’ के नए रूप में सामने आ रहा है.

भीड़तंत्र ने राष्ट्रों को सामाजिक, आर्थिक तौर पर बड़ा नुकसान पहुंचाया है. कम्युनिज्म का खात्मा इसीलिए हुआ कि वह सर्वहारा के नाम पर उद्योगों को चौपट करने पर तुला हुआ था. भारत के कोलकाता में हजारों कारखाने भीड़तंत्र की उन्मादी मानसिकता के कारण बंद हो गए. आएदिन मजदूरों की हड़तालों ने, तोड़फोड़ ने आर्थिक संसाधनों को बंदी के कगार पर पहुंचा दिया.

भीड़तंत्र का तुरंत नुकसान नजर नहीं आता, पर दीर्घकालीन प्रभाव रहता है.

2 समाजों, वर्गों के बीच पैदा हुआ वैमनस्य कभी खत्म नहीं होता. समयसमय पर इन के बीच हिंसा, कटुता की वारदातें सामने आती रहती हैं. हिंदू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी के बीच झगड़ा सैकड़ों सालों से चला आ रहा है.

भीड़ का फैसला

भीड़ जहां फैसला करने लगती है, वहां सरकार के होने न होने के कोई माने नहीं रह जाते. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया पहलू खान की मौत पर उस के गांव नहीं गईं तो बात हैरानी की है. जिस तरह इस वारदात को अंजाम दिया गया वह साफसाफ बता रहा है कि अगर दूध आप की रोजीरोटी है और आप गाय खरीदतेबेचते हैं तो आप की जिंदगी आज सुरक्षित नहीं है बशर्ते आप मुसलमान या दलित हैं तो. पिछड़ों को अभी नहीं छेड़ा जा रहा क्योंकि कट्टरों के लठैत वही हैं.

साफ है कि समूचे देश में लोकतंत्र और संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. गौरक्षक गिरोह, एंटी रोमियो स्क्वैड अब खुलेआम सड़कों पर उतर आए हैं और कानून अपने हाथों में ले रहे हैं. इन गिरोहों को सरकार का संरक्षण हासिल है. कट्टरपंथियों का मनोबल आसमान छू रहा है. देशभर में दलितों, अल्पसंख्यकों पर हमलों की बाढ़ सी आ गई है.

ये मामले इतने नए भी नहीं हैं. यही भीड़ कभी अयोध्या में बाबरी मसजिद गिरा देती है. गुजरात में कत्लेआम मचा देती है. गोधरा कांड बन जाता है. दिल्ली में सिखों पर टूट पड़ती है. गैंगरेप से ले कर औरतों को डायन कह कर मार डालने वाली यह भीड़ खुद फैसले करने पर उतारू दिख रही है.

दुख और आश्चर्य की बात यह है कि इस भीड़ को सत्ता का अभयदान मिल रहा है. छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार गौहत्या में शामिल लोगों को मृत्युदंड देने का ऐलान कर चुकी है. जो एक तरह से गौरक्षकों के लिए कवच है कि जिसे मृत्युदंड मिलना ही है, उसे भीड़ ने मार डाला तो क्या गुनाह है?

मुख्यमंत्री रमन सिंह मीडिया के सामने कह चुके हैं कि गौहत्या जैसे अपराधों में शामिल होने वालों को लटका दिया जाएगा. गुजरात में इसी अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है. हरियाणा सरकार गौहत्या के अपराधी को 10 साल के कारावास की सजा का प्रावधान कर चुकी है. महाराष्ट्र में 5 साल जेल की सजा है.

भीड़तंत्र का यह उभार और सरकार का इसे खुला समर्थन देना एक खतरनाक संकेत है जो आएदिन उग्र और अराजक होता जा रहा है. यह भीड़ जागरूक नागरिक नहीं, उन्मादी है. यह मानवीयता के मकसद से नहीं, मजहबी नफरत से उपजा उभार है जो किसी भी समाज के आपसी प्रेम, भाईचारे, शांति के खात्मे के लिए काफी है.

आज राष्ट्र, धर्म, रंग, जाति के नाम पर पनपती भीड़ का नागरिक विवेक खत्म हो चुका है. समाज को सच बताने वाला कोई नहीं है, न मीडिया, न नेता. झूठ को सच बता कर बेचा जा रहा है. युवा धर्म और संस्कृति के सड़ेगले विचारों की अर्थी ढो रहा है. युवाओं के पास तर्क नहीं हैं. उन में तर्कशक्ति का विकास करने वाले साधन न के बराबर हैं जबकि मध्यकालीन बर्बर मानसिकता में धकेलने वाले साधन काफी ज्यादा हैं.

यह भीड़तंत्र की धर्मजनित सोच लोकतंत्र को जल्दी ही तानाशाही में तबदील कर देगी. सवाल मनुष्यता और लोकतंत्र पर मंडराते खतरे को ले कर है. धर्मजनित भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहा देश इस बात का संकेत है कि हम बर्बर युग की ओर बढ़ रहे हैं.

सोशल मीडिया की भूमिका

अफवाहें पहले भी फैलती थीं. खासकर धर्म पर आधरित अफवाहों के फैलने में देर नहीं लगती थी. बिना मोबाइल के दिल्ली में गणेश की मूर्ति के दूध पीने की अफवाह सैकड़ों किलोमीटर दूर तक घंटों में पहुंच गई. ऐसे उदाहरण कई हैं. धर्म पर आधारित अफवाहें पहले तेज गति की आंधियों की रफ्तार से चलती थीं.  सोशल मीडिया के जमाने में ये तूफान से भी तेज गति से फैलने लगी हैं. धर्म की अफवाहें धर्मभीरुओं को सक्रिय कर देती हैं जो कानून को अपने हाथ में लेने में नहीं घबराते. यही वजह है कि घटना एक  शहर में होती है तो उस की प्रतिक्रियाएं दूसरे शहरों में भी होती हैं. पहले अफवाहें फैलाने के माध्यम कम थे. उन में बहुत क्रिएशन नहीं होता था. साधारणतौर पर कभी पोस्टकार्ड तो कभी एक या दो रंग में छपे हुए पंफ्लेट ही प्रमुख साधन होते थे.

सोशल मीडिया के जमाने में अफवाहों को फैलाने के लिए तरहतरह के सजीव से दिखने वाले वीडियो का सहारा लिया जाता है. अपनी अफवाह की आड़ में मजबूत तर्क गढ़ लिए जाते हैं. कई बार वीडियो देश के बाहर के होते हैं. पर उन को ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे वे अपने देश के हों. इन को चंद घंटों में ही लाखों लोगों तक न केवल पहुंचा दिया जाता है बल्कि इन को ले कर धर्म के नाम पर भड़काने वाली एक बहस भी शुरू हो जाती है. यह बहस ही भीड़तंत्र के लिए हथियार का काम करती है. बेंगलुरु में पूर्वोत्तर राज्यों के रहने वाले युवाओं के खिलाफ ऐसे संदेश वायरल हुए कि उन युवाओं को दूसरे शहरों में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा.

दलित चिंतक रामचंद कटियार कहते हैं, ‘‘सोशल मीडिया का सब से बड़ा प्रभाव धर्म पर आधारित बातों के प्रचारप्रसार में देखने को मिलता है. धर्म की अफवाह फैलाने वाले पहले इस टैक्नोलौजी का विरोध करते थे. उन का कहना था कि यह पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा है. जैसे ही यह टैक्नोलौजी लोगों को पसंद आई, धर्म का प्रचार करने वालों ने इस को स्वीकार कर लिया. यह केवल अफवाहों के फैलाने तक ही सीमित नहीं है. चंदा मांगने और उसे सीधे बैंक के अपने खाते में जमा करने तक में सोशल मीडिया की भूमिका प्रभावी हो गई है. इस तरह का प्रचार करने वालों की संख्या बढ़ रही है और इतनी अधिक होती जा रही है कि इस का विरोध करने वाले कमजोर पड़ते जा रहे हैं.’’

नफरत फैलाने का काम

धर्म को ले कर सोशल मीडिया के बडे़ ग्रुप में कुछ संदेश ऐसे होते हैं जो केवल आपस में धर्म को ले कर टकराव व नफरत फैलाने का काम करते हैं. ये हर बात में धर्म को बीच में लाते हैं और फिर इस के आधार पर दूरियां पैदा करते हैं. इस से धर्म के वैमनस्य की जमीन तैयार होती है. बड़े अचंभे की बात यह होती है कि अपना काम होते ही ऐसे संदेश मीडिया पटल से पूरी तरह से गायब हो जाते हैं. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एक संदेश बहुत तेजी से प्रचारित किया गया. उस में कहा गया था, ‘भाजपा ने किसी भी मुसलिम को टिकट नहीं दिया है. यह हिंदुत्व की सब से बड़ी जीत है. अब हिंदुओं की बारी है कि वे मुसलिम समर्थक पार्टियों को वोट न दें.’ चुनावभर यह मुद्दा बना रहा. प्रदेश में भारी जीत हासिल करने के बाद सरकार बनी तो भाजपा ने मुसलिम मंत्री भी बनाया. अब यह बात मुद्दा नहीं बनी कि भाजपा ने ऐसा क्यों किया.

सोशल मीडिया के जानकार कहते हैं, ‘‘ऐसी अफवाहें फैलाने वाले अपनी बात को कहते हैं, पूरी तरह से प्रचारित करते हैं और फिर आसानी से बाहर निकल जाते हैं. वे तर्क में फंसने की कोशिश नहीं करते. अगर तर्क में फंसते हैं तो दूसरे पर आरोप लगा कर निकल लेते हैं. ऐसे संदेश केवल दिलों में नफरत भरने का काम करते हैं. यह काम संगठित तौर पर चलाया जाता है.

‘‘मैसेज के ऐसे संदेश बनाए जाते हैं जो लोगों को पसंद आएं. उन के दिल को छू जाएं. संदेश के साथ फोटो और वीडियो को सुबूत के रूप में जोड़ा जाता है. कई बार ऐसे फोटो और वीडियो एडिट कर सामने रखे जाते हैं जिन से देखने वाले का खून खौल उठे. भारत और पाकिस्तान को ले कर एक वीडियो ऐसा जारी किया गया जिस में

2 सैनिकों के सिर चाकू से काटते दिखाया जाता है. इसे पाकिस्तान की करतूत बताई गई. असल में यह वीडियो भारत व पाकिस्तान के सैनिकों की जगह आतंकी संगठन आईएसआईएस का था जो इराक में शूट किया गया था.’’

विरोधियों पर निशाना

धर्मजनित भीड़तंत्र के खिलाफ काम करने वालों, ऐसी घटनाओं पर सचेत करने वालों को ये लोग अपने निशाने पर लेते हैं. उन को अपने प्रचारतंत्र से सब से बड़ा खलनायक समझाने का काम करते हैं. सोशल मीडिया के संदेशों को सब से प्रमुख मानने वाले लोग इन की बातों को सच मान लेते हैं. ये केवल धर्म से धर्म को ही नहीं लड़ाते, जाति से जाति के बीच भी टकराव का सब से बड़ा कारण बनते हैं.

सहारनपुर में दलित-ठाकुर हिंसा रही हो या रायबरेली में ब्राहमण-पिछड़ा हिंसा, सोशल मीडिया के भड़काऊ संदेश ही माध्यम रहे हैं. सहारनपुर में प्रशासन को ऐसे संदेशों को रोकने के लिए इंटरनैट को ही बंद करना पड़ा था. कश्मीर में ऐसे संदेश बड़े पैमाने पर हिंसा भड़काने का काम करते हैं. वहां भी बारबार इंटरनैट को बंद करना पड़ता है.

सोशल मीडिया पर आने वाले ये संदेश बहुत ही संगठित तरह से फैलाए जाते हैं. ऐसा करने वाले बहुत होशियार होते हैं. उन को पता होता है कि किस काम के लिए कैसे संदेश प्रभाव डाल सकेंगे. ये लोग केवल पैसे के लिए अपना काम करते हैं. कभी ये चुनावों में नेताओं के प्रचारप्रसार के लिए काम करते हैं तो कभी ये विरोधी नेता की छवि को खराब करने का काम करते हैं. एक बार ऐसे संदेशों का जखीरा तैयार कर सोशल मीडिया के हवाले कर के ये लोग बाहर हो जाते हैं.

जानकार बताते हैं कि ऐसे काम करने वाले देश के बाहर भी बैठे हो सकते हैं. ये काम केवल भारत में ही नहीं हो रहा, देश के बाहर भी ऐसे काम खूब हो रहे हैं. यही वजह है कि नेताओं में अब काम करने के बजाय इस तरह के दिखावे करने की आदत बढ़ती जा रही है.

धर्म के आगे नतमस्तक

धर्मजनित अफवाहें सब से ज्यादा फैलती हैं, इस का खास कारण भी है. धर्म का डर बहुत सारे भारतीयों के मन में बसा है. वे धर्म की अफवाह को अफवाह मानते हुए भी दिल से अस्वीकार नहीं करना चाहते. यह सोशल मीडिया के तंत्र का ही कमाल है कि जो धर्म के अंधविश्वास, रूढि़वादिता का विरोध करता है, उसे राष्ट्र का विरोधी मान लिया जाता है.

राष्ट्र और धर्म को आपस में जोड़ कर देखने की प्रवृत्ति ने तर्कशक्ति को प्रभावित किया है. जिस के कारण अब धर्म को गलत मानते हुए उस का विरोध करने का साहस लोगों में घटता जा रहा है. ऐसा लगता है कि धर्म की खामियों का विरोध करना आप के भारतीय होने के सुबूत को छीन लेगा.

धर्म के गलत बयानों का विरोध करने वालों के खिलाफ जनमानस को तैयार करने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका होेती जा रही है. ऐसे लोगों के खिलाफ पहले धर्मजनित संदेश फैलाए जाते हैं. इस के बाद भीड़ इन पर हमला कर देती है. उस समय कानून भी इन का साथ नहीं दे पाता.

कानून पीडि़त का साथ नहीं देता और दोषी के खिलाफ कड़े कदम नहीं उठाता. ऐसे में धर्म पर आधारित प्रचार और भीड़तंत्र दोनों को ही बढ़ावा देने वाले लोग बच जाते हैं. सोशल मीडिया पर सक्रिय ऐसे लोगों में से बहुतायत फर्जी नाम से अपनी पहचान बनाते हैं और प्रचार को आगे बढ़ाते हैं.

धर्म के नाम पर जिस तरह से समाज अपनी खुली आंखों को भी बंद करता है वह भीड़तंत्र और उस के प्रचारतंत्र के हौसले को बढ़ाता है. गौरक्षा से ले कर, लव जिहाद तक ऐसे मामले खूब देखने में आए हैं. जब कानून और प्रशासन इन के खिलाफ ऐसे काम नहीं करता तो इन का हौसला बढ़ता है. ऐसे मामले भाजपा सरकार से पहले भी होते थे पर अब जब भाजपा सरकार धर्म का बचाव करती और उस की आलोचना करने वाले को दोषी मानती हैं तो ऐसे काम करने वाले लोगों को शह मिलती है. जब धर्म की आलोचना करने वाले को निशाना बनाया जाता है तो धर्म के नाम पर आंख बंद कर चुके लोगों को लगता है कि यह धर्म पर आधारित न्याय है. लोग यह भूल जाते हैं कि देश के बाहर इस तरह का न्याय ही आतंकवाद को बढ़ावा देता है.

आतंकवाद का पोषण करने वाले धर्म के नाम पर ही जिहाद फैलाते हैं. अपना धर्म न मानने वालों को कत्ल से ले कर उन्हें तमाम तरह ये उत्पीडि़त करने को अपना अधिकार समझ लेतेहैं. जब हम ऐसे लोगों को गलत मानते हैं तो फिर अपने देश में धर्मजनित भीड़तंत्र द्वारा की जाने वाली हत्याओं का समर्थन कैसे कर सकते हैं. हत्या ही नहीं, अफवाहों से भरे संदेशों को फैलाने वाले, उन का समर्थन करने वाले भी उसी तरह के दोषी होते हैं.

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