कुछ समय पहले एक गांव में हुए एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला. उस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि महिला सरपंच थीं. मंच पर 5 लोग बैठे थे, लेकिन उन में कोई भी औरत नहीं थी.

मैं ने एक गांव वाले से पूछा, ‘‘क्या आप की सरपंच बाहर गई हुई हैं?’’

वह बोला, ‘‘जी नहीं, वह तो यहीं बैठी है.’’

मैं ने कहा, ‘‘कहां हैं?’’

उस ने भीड़ में इशारे से कहा, ‘‘जो औरत घूंघट में बैठी है, वही सरपंच है.’’

मुझे हैरानी हुई और पूछा, ‘‘जब वे सरपंच हैं, तो मंच पर क्यों नहीं बैठीं? जमीन पर क्यों बैठी हैं?’’

गांव वाले ने बताया, ‘‘मंच पर सरपंचपति बैठे हैं. हर बार वे ही अपनी पत्नी की जगह शामिल होते हैं.’’

मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने वह कार्यक्रम करा रहे लोगों से उस महिला सरपंच को मंच पर बिठाने को कहा.

इस पर उन में से एक आदमी ने कहा, ‘‘यह गांव है, शहर नहीं. यहां की औरतें चाहे सरपंच क्यों न बन जाएं, वे रहती घूंघट में ही हैं. वे तो नाममात्र की सरपंच होती हैं. असल में तो उन का पति ही सारा काम देखता है.

‘‘कई सरपंच तो 5वीं जमात पास भी नहीं होतीं. यहां तक कि उन्हें दस्तखत करने तक नहीं आते. ऐसे में वे मंच पर कैसे बैठेंगी? वे घूंघट में ही रहती हैं.

‘‘जो औरत अनपढ़ हो, वह भला भाषण कैसे देगी? यही वजह है कि ज्यादातर महिला सरपंच घर में ही बैठी रहती हैं और गांव वाले उन के पति को ही सरपंच मानते हैं. गांव में तो सरपंचपति की ही चलती है.’’

मैं ने कहा, ‘‘जो औरत परदे में रहती हो, किसी से बातचीत तक नहीं करती हो, उसे सरपंच बनाने का क्या मतलब है? क्या इन की जगह किसी पढ़ीलिखी, जागरूक औरत को गांव वाले सरपंच नहीं चुन सकते?’’

‘‘क्या करें, सरपंच का पद औरत के लिए रिजर्व किया गया है. गांव के माहौल को तो आप जानते ही हैं.

यहां की औरतें तो कुएं की मेढक होती हैं. उन्होंने बाहर की दुनिया देखी ही नहीं होती है.’’

यह बात सुन कर मैं ने कहा, ‘‘जब वे अपने हकों और फर्ज तक को नहीं जानतीं, तो गांव की दूसरी औरतों के हक के लिए लड़ाई कैसे लड़ेंगी?’’

वे जनाब इस सवाल का कोई जवाब नहीं दे पाए. कार्यक्रम खत्म होने के बाद मैं ने सरपंचपति से भी मुलाकात की और उसे नारी सशक्तीकरण की अहमियत समझाई, लेकिन उस के आगे मर्द होने का अहम आड़े आ गया.

मालूम पड़ा कि वह खुद भी पढ़ालिखा नहीं था और दकियानूसी खयालों का था. वह खुद नहीं चाहता था कि उस की पत्नी का घूंघट उठे. वह तो बस पत्नी की सत्ता हथियाना चाहता था.

यह कहानी किसी एक गांव या किसी एक महिला सरपंच की नहीं है, बल्कि ऐसे ढेरों उदाहरण हैं, जिन में सरपंच भले ही पत्नी हो, लेकिन उस की चाबी पति के हाथों में होती है. सरपंच होने के बावजूद उसे दुनियादारी की कोई खबर नहीं होती. पति जैसी पट्टी पढ़ाता है, वह उसे मान लेती है. पति जहां दस्तखत करने या अंगूठा लगाने को कहता है, वह वैसा ही कर देती है.

दरअसल, घूंघट में रहने वाली महिला सरपंच अपने पति के हाथ की कठपुतली बन कर रह जाती है.

हर गांव में तकरीबन आधी आबादी औरतों की होती है. आज भले ही औरतें थोड़ाबहुत पढ़लिख लेती हों, लेकिन गांव का माहौल होने की वजह से उन के चेहरे से घूंघट नहीं हटा है. ऐसे में सरपंच होते हुए भी उन की अपनी कोई पहचान नहीं होती.

वे अपने पति के नाम से ही जानी जाती हैं. कैसी अजीब बात है कि सरपंच के चुनाव में मतदाता बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और उसे अपना वोट देते हैं, जिस का चेहरा तक उन्होंने नहीं देखा होता. ऐसे में उसे पहचानने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.

ज्यादातर घूंघट में रहने वाली महिला सरपंच को मतदाता उस के पति को देख कर वोट देते हैं. घूंघट में रहने वाली सरपंच अपने मतदाताओं को पहचानती तक नहीं है.

घूंघट में रहना लोकतंत्र और औरत जाति के लिए एक चुनौती है. समय के साथ बहुतकुछ बदल गया है और आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, लेकिन नहीं बदली है तो गांव के लोगों की सोच. घूंघट में जीना यहां की औरतों की जिंदगीभर की कहानी है. औरतें भले ही इस बात को न मानें कि वे घूंघट में घुटनभरी जिंदगी जी रही हैं, लेकिन इस कड़वी सचाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता.

राजनीति घूंघट में रह कर नहीं हो सकती. इस के लिए बेबाक होना पड़ता है, तभी उस का असर पड़ता है. जब औरतें घूंघट में होंगी, किसी कार्यक्रम में मंच पर बैठेंगी ही नहीं या घूंघट निकाल कर बैठेंगी, तो वहां के हालात बड़े अजीबोगरीब हो जाते हैं.

गांवों में तरक्की हुई है, बराबरी बढ़ी है, लेकिन नहीं बदली है तो वहां के लोगों की सोच. औरतों को अपने से कमतर मानने की सोच के चलते ही उन के चेहरे से परदा नहीं हट पा रहा है.

औरतों के सिर से घूंघट हटाने के लिए एक सजग क्रांति की जरूरत है. इस के लिए लड़कियों के मातापिता को आगे आना होगा. उन्हें अपनी बेटियों की शादी उसी परिवार में करानी चाहिए, जहां घूंघट का बंधन नहीं हो और वे आसानी से सांस ले सकें.

घूंघट में रह कर औरतें अपनी जिंदगी के तानेबाने को कैसे बुन सकती हैं? घूंघट में रह कर राजनीति या समाजसेवा नहीं की जा सकती. गांव की तरक्की न केवल औरतों के पढ़ेलिखे होने पर टिकी है, बल्कि घूंघट मुक्त समाज पर भी निर्भर करती है.

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