खुद विश्वविद्यालयों की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी दूसरों की राजनीति को दबाने की भरसक कोशिश कर रही है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को पाकसाफ, शुद्ध, संस्कारी मान कर व उस के गुर्गों की गुंडई को नजरअंदाज कर के कितने ही विश्वविद्यालय प्रबंधक व चांसलर आज वामपंथियों, सधर्मियों, कांग्रेसियों, समाजवादियों की गतिविधियों को राष्ट्रद्रोह करार दे रहे हैं. ज्यादातर चांसलर व वाइस चांसलर अब घोषित तौर पर कट्टर हिंदू संस्कृति के समर्थक हैं.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में फरवरी 2016 में अफजल गुरु की फांसी पर विरोध प्रकट करने को हुई एक सभा में जेएनयू छात्र संघ के तब के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के भाषण देने पर विश्वविद्यालय की अनुशासन कमेटी ने उसे 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया था और 10,000 रुपए का जुर्माना भी लगाया था. 14 अन्य छात्रों को भी दंड दिया गया था.
अब उच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालय को आदेश दिया है कि वह मामले को फिर से सुने और इस निष्कासन को वापस ले. विश्वविद्यालय के अधिकारी अब जो भी फैसला लेंगे यह पक्का है कि उस में राजनीति तो चलेगी ही.
विश्वविद्यालय राजनीति के गढ़ हैं, यह पक्का है और आज से नहीं, आजादी की लड़ाई से ऐसा हो रहा है. अपनी ही नहीं, समाज और देश की भी सोच रहे पढ़ेलिखे गरम खून के युवा जब एकत्र होते हैं तो वे कुछ करना ही चाहते हैं. अपना कैरियर बनातेबनाते वे देश का उद्धार भी करना चाहते हैं और इस में कोई खराबी नहीं है. खराबी तब होती है जब एक जुझारू वर्ग दूसरे वर्गों को मारपीट कर दुरुस्त करना चाहे, अपनी बात को तर्क से नहीं, डंडे के जोर पर मनवाना चाहे.
संस्कृति के पोषक ही नहीं, वामपंथी, जातिपंथी और भाषापंथी भी इस के शिकार रहे हैं. कितने ही विश्वविद्यालयों में गुटबाजी, राजनीति के साथसाथ मारपीट और धौंस भी चलती है. यह कहींकहीं खराब हालत पैदा भी करती है पर फिर भी युवाओं को देश की बागडोर संभालने की ट्रेनिंग देती है.
विश्वविद्यालयों में केवल किताबी ज्ञान नहीं बांटा जा सकता. उन का भव्य भवनों में चलने, खुले मैदानों में होने की वजह ही यह है कि जिम्मेदारी संभालने से पहले छात्रों को हर सोच, हर वर्ग, हर उदारपंथी, हर कट्टरपंथी से मिलने और जूझने का मौका मिले. इन विश्वविद्यालयों को केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय, गवर्नरों, वाइस चांसलरों के माध्यम से आर्मी कैंप बनाने की कोशिश न की जाए, जहां सिर्फ हुक्म चलता है.
विश्वविद्यालय जिंदादिली की जगह हैं और उन्हें खुला छोड़ दें. कन्हैया कुमार को राहत दे कर उच्च न्यायालय ने सही किया है और आशा है कि विश्वविद्यालय के अफसर रंगीन चश्मा उतार कर ही कोई फैसला लेंगे.