भारत एक कृषि प्रधान देश होने के बावजूद यहां खेती और किसान दोनों की ही हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है. क्या यह एक सोचनीय सवाल नहीं है कि देश में किसानों की हालत बदतर है. उन के उत्पादों के लिए न तो बाजार ही मिल रहा है और न ही सरकार उन की समस्याओं को हल करने में कोई खास दिलचस्पी ले रही है.
मध्य प्रदेश में कर्जमाफी को ले कर किसानों का आंदालेन उग्र हो चला है. तमाम राजनीतिक दल किसानों की इस पीड़ा पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं. वे इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि किसान कल्याण के लिए कर्जमाफी कोई स्थायी हल नहीं है. पर वे अपनी राजनीति चमकाने के लिए आग में घी डालने से नहीं चूक रहे हैं.
आजादी के बाद से ही सरकारें समयसमय पर किसानों के कर्जों को माफ करती रही है, पर इस से किसानों की हालत बेहतर होने के बजाय और बदतर होती चली गई. घाटे का सौदा बनी खेती को उबारने के प्रति किसी का भी ध्यान नहीं गया.
जिस काम से भारत की दोतिहाई आबादी जुड़ी हुई है, उसे लाभकारी बना दिया जाता, तो गरीब किसानों को आज यह दिन नहीं देखना पड़ता.
आज देश की सभी सरकारें हैरान हैं कि किसान अपनी आवाज उठाने के लिए क्यों और कैसे खड़े हो रहे हैं और आंदोलन कर रहे हैं. किसानों की हालत पीढ़ी दर पीढ़ी बदतर होने के कारण शायद ऐसा हो रहा है.
केमिकल खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल के चलते जमीन की उर्वरा शक्ति लगातार कम होती जा रही है. इस के चलते खेती की जमीन में देश के अंदर तकरीबन 5 लाख टन सल्फर तत्त्व की कमी हो गई है, जो साल 2025 तक बढ़ कर 20 लाख टन हो जाएगी. जाहिर है कि खेत की मिट्टी को ले कर किसानों का न तो वर्तमान ही ठीक है और न ही भविष्य. जहां तक उत्पादन का सवाल है, तो वह भी हर साल गिरता ही जा रहा है.
पिछले 5 सालों में उत्तर प्रदेश में कृषि उत्पादन बढ़ोतरी से संबंधित 5 योजनाएं पूरी हो चुकी हैं. सब से खास प्रशिक्षण एवं संपर्क योजना को तो 5 साल पहले ही मृत संवर्ग में डाल दिया गया था, जिस के खराब नतीजे अब सामने भी आने लगे हैं.
कृषि आपूर्ति संगठन नामक योजना के बंद किए जाने से किसान अब बाजार से महंगे कृषि यंत्र और खाद आदि खरीदने के लिए मजबूर हैं, वहीं उन की चीजें मिट्टी के भाव भी नहीं बिक रही हैं. अगर किसान गन्ने की फसल को ले कर गन्ने की तरह पिस रहे हैं, तो आलू को मुफ्त में किसी को देने के लिए भी मजबूर हैं.
कई जिलों से सूचनाएं प्राप्त हुई हैं कि वहां के किसान अपने खेत खाली करने के लिए मुफ्त में ही आलू खोद कर ले जाने की इजाजत दे रहे हैं, क्योंकि कोल्ड स्टोरेज में वे आलू नहीं रख पा रहे हैं. कोल्ड स्टोरेजों के मालिक केवल प्रभावशाली लोगों के ही आलू रख रहे हैं. इन मालिकों की समस्या यह है कि उन्हें कारोबार में घाटा हो रहा है. वे जितनी धनराशि भंडारण के रूप में पाते हैं, उतना तो उन्हें बिजली का बिल देना पड़ता है.
सरकार आलू किसानों के बारे में कुछ सोचती नहीं है और न ही कोई स्थायी योजना बना पा रही है. सरकार का कृषि विभाग एक सफेद हाथी साबित हो रहा है. यहां यह कहना सही है कि केवल किसान पंचायत करने से ही किसानों की समस्याएं दूर होने वाली नहीं हैं. उस के लिए जिले और राजधानी में बैठे अफसरों के पेंच कसने होंगे, साथ ही किसानों के उत्पादों के लिए बाजार मुहैया कराने के लिए स्थायी योजनाएं भी बनानी होंगी. किसानों की समस्याओं का स्थायी हल तलाशना होगा, नहीं तो कृषि और किसान की हालत बद से बदतर होती जाएगी, जो किसी भी तरह से अच्छी नहीं होगी.
जिस तरह से आलू किसान परेशान हैं, ठीक उसी तरह से गन्ना किसान भी चिंतित हैं, क्योंकि उत्तर प्रदेश में गन्ने की कुल पैदावार के तकरीबन 40 फीसदी से ज्यादा हिस्से की पेराई मिलें नहीं कर पाती हैं. नतीजतन किसानों को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने गन्ने को औनेपौने दामों में क्रेशर और कोल्हू वालों के हाथों बेचना पड़ता है. गन्ना क्षेत्र में भी सरकार की उदासीनता के चलते इस का उत्पादन लगातार कम होता जा रहा है.
प्रदेश के 67 फीसदी गन्ना क्षेत्रफल में पिछले 20 सालों तक महज 2 प्रजातियां ही बोई जाती रही हैं, जिस के चलते गन्ने का उत्पादन या तो कम हो गया है या फिर वह स्थिर हो गया है.
प्रदेश का गन्ना विभाग किसानों को गन्ने का बीज तक मुहैया नहीं करा पाता. प्रदेश में 600 लाख क्विंटल गन्ने के बीज की जरूरत होती है, पर गन्ना विभाग 60 से 65 लाख क्विंटल ही गन्ने के बीज दे पाता है. देश के कुल गन्ना उत्पादन का तकरीबन 55-60 फीसदी गन्ना उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में ही पैदा किया जाता है. इस वजह से उत्तर प्रदेश का गन्ना किसान अपनी फसल को जलाने के लिए मजबूर हो जाता है. अगर किसानों को आलू मुफ्त में देने पड़ रहे हैं और गन्ने को जलाना पड़ रहा है, तो ऐसी स्थिति में किसान पंचायत का क्या मतलब है हमारी सरकार ने केवल किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को खत्म करने का काम ही नहीं किया है, बल्कि उन के उत्पादन की खरीद को काफी कम कर के उन के एक बहुत बड़े तबके को, जो कि छोटे और मझोले किसानों का है, पूरी तरह से बाजार के हवाले कर दिया है. नतीजतन, किसान अपनी फसल को जल्द से जल्द औनेपौने दामों में बेचने के लिए मजबूर हैं. इस के लिए उन्हें या तो घाटे का सौदा करना पड़ता है या फिर आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ता है.
यही वजह है कि मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन के दौरान गोली लगने से 6 किसानों की मौत हो गई. किसानों का खेती से भागने का असली कारण यही है कि फसल अच्छी होने के बावजूद उन्हें अपने उत्पाद की सही कीमत नहीं मिल पा रही है. इसीलिए किसान बरबाद हो रहे हैं और कृषि क्षेत्र में आए इस संकट के चलते लाखों परिवारों पर भूख का साया मंडराने लगा है. साथ ही राशन व्यवस्था का चौपट होना हालात को और ज्यादा भयावह बना रहा है.