उत्तर प्रदेश की चुनावी सभाओं में अखिलेश राहुल एक तरफ और मोदी शाह दूसरी तरफ नारों की बरसात तो करते रहे हैं, पर उन से इस बड़े राज्य का भला होने वाला है, ऐसा कहीं नहीं दिखता. आमतौर पर चुनावों में सिर्फ वादे किए जाते हैं और नारे लगाए जाते हैं, पर दोनों में आम गरीब जनता का भला करने की बात होती है. इस बार भाजपा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी तीनों ही एकदूसरे पर लट्ठमार जबान चलाते रहे हैं, जनता के लिए क्या करेंगे, इस की बात तक नहीं कही गई.
ठीक है. हमारे देश की ही नहीं, दुनिया के लगभग सारे देशों की जनता ने चुनावों को महज शासकों को टौफी बांटने का खेल बना लिया है. हर 5 या 4 साल बाद कौन बनेगा राजा का खेल होता है और एक आधाअधूरा नेता टौफी को ट्रौफी की तरह ले जाता है और अपने नए मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री निवास में सजा देता है. आम वोटर वहीं का वहीं.
उत्तर प्रदेश की गरीबी को बयान करने की जरूरत नहीं. कहीं से उत्तर प्रदेश में घुसो या आसमान से टपको, ऐसा लगेगा मानो किसी जंगल में आ गए हो. कूड़ों के ढेर, रिकशे की भरमार. सड़कों पर दुकानें, दुकानों में ऊंघते मालिक, खंभों पर टूटे बल्ब, पर नए नेताओं के फ्लैक्सी चेहरे, भीड़भाड़, धूलधक्कड़ सब मिलेगा. कहीं ऐसा नहीं लगेगा कि यहां सरकार नाम की चीज है. इन कामों की जिम्मेदारी वैसे नगरपालिकाओं की होती है, पर वे कौन सी नरेंद्र मोदी, अखिलेश यादव या मायावती से अलग हैं. सभी एक थैली के चट्टेबट्टे और शान से उत्तर प्रदेश की जनता को कहते रहे कि हम से वादे भी न लो, बस दूसरों की बुराई सुनो. हम खराब हैं तो क्या दूसरे तो हम से भी खराब. हम कुछ नहीं करेंगे, तो परेशानी क्या है. दूसरे कहां कह रहे हैं कि वे कुछ करेंगे.
नतीजा यह है कि अखिलेशराहुल जोड़ी जीते या न जीते, उत्तर प्रदेश उसी तरह उलटा प्रदेश बना रहेगा, यह पक्का है. यहां कुछ नहीं होगा, क्योंकि न तो वोटर काम करने को राजी है, न नेता काम कराने को. वोटरों को जय हो के नारे लगाने की आदत हो गई है और नेताओं को खादी के कलफ लगे सफेद कपड़े और मोदी जैकेट पहनने की. राज्य की खुशहाली के लिए बस यही काफी है.
ये चुनाव हों, इस से पिछले वाले हों या उस से पिछले वाले, हर बार वही कहानी दोहराई जाती है. कुछ सड़कें बन जाती हैं, कुछ भव्य भवन बन जाते हैं और शासक उन का राग अलापते रहते हैं. पैसा कमाने के लिए जो खेतों में हड्डियां तोड़ते हैं, उन्हें बस जिंदा रहने लायक मिलता है. आधों के घरों से तो कोई न कोई पत्नीबच्चे छोड़ कर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जा कर काम करता है. चुनाव में यह मुद्दा भी कोई नहीं उठाता कि आखिर उत्तर प्रदेश के लोगों को बाहर जा कर काम करने की जरूरत क्यों पड़ती है? बाहर वाले आ कर सत्ता में बैठने को तैयार हैं, पर काम करने को क्यों नहीं?