भारतीय जनता पार्टी की नजर में राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल की इमेज किसी मसखरे नेता जैसी है. देश के सब से बडे़ प्रदेश में 5 साल मुख्यमंत्री की कुरसी संभालने वाले अखिलेश यादव को भाजपा ने कभी पूरा मुख्यमंत्री ही नहीं माना. चुनावी रणनीति में इन तीनों ने अब भाजपा के सामने चुनौतियों के पहाड़ खडे़ कर दिए हैं. इस से भाजपा के त्रिलोक विजयी की छवि दांव पर लग गई है. अपनी छवि को बचाने के लिए भाजपा ने परिवारवाद से ले कर दलबदल की नीतियों तक को अपना लिया है. इस से भाजपा को अपने अंदर से ही चुनौती मिलने लगी.
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर के विधानसभा चुनाव केंद्र की भाजपा सरकार के लिए चुनौतियों से भरे हैं. चुनौतियों का आभास भाजपा को भी है. इसलिए अब वह अपने सारे सिद्धांतों को दरकिनार कर हर समझौता कर रही है. परिवारवाद से ले कर दलबदल तक के सभी समझौते उस ने कर लिए. भाजपा में जहां पहले सभी फैसले पार्टी के संगठन द्वारा लिए जाते थे, वहीं अब भाजपा हाईकमान अकेले फैसले लेने लगा है. नोटबंदी से ले कर चुनावी रणनीति तक में आपसी विचारविमर्श नहीं दिखा.
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जिस तरह के फैसले भाजपा ने टिकट वितरण में किए हैं उन से पार्टी में व्यापक स्तर पर विरोध हो रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के सामने केवल तब की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ही थी. वह चुनाव असल में भाजपा की जीत के लिए नहीं, कांग्रेस की हार के लिए याद रखा जाएगा. कांग्रेस ने 10 साल के राजकाज में जनता को राहत देने वाले फैसले कम किए पर भ्रष्टाचार खूब किया. सरकार ने अगर अच्छे काम किए भी तो उन को जनता तक पहुंचाया नहीं जा सका. भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने प्रचार और भाषण की जोरदार शैली के बल पर जनता के कांग्रेसविरोध को अपनी ओर करने का काम किया था. दूसरी पार्टियां बिखरी हुई थीं. ऐसे में भाजपा ने मौके का फायदा उठाया और बहुमत से जीत कर सरकार बना ली.
बाद में कई राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए और जहां भाजपाकांग्रेस की टक्कर थी वहां तो भाजपा जीत गई पर जहां भाजपा के सामने दूसरे दल थे उसे वहां हार का सामना करना पड़ा. दिल्ली विधानसभा के चुनाव सब से अहम थे जहां अरविंद केजरीवाल की अगुआई में आम आदमी पार्टी ने भाजपा को करारी मात दी. उस के बाद बिहार विधानसभा चुनावों में विरोधी दलों राजद, जदयू और कांग्रेस ने मिल कर भाजपा को घेरा और मात दे दी. अब यही फार्मूला उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस व समाजवादी पार्टी ने अपनाया है. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जहां राहुलअखिलेश फैक्टर भाजपा को परेशान कर रहा है वहीं गोआ और पंजाब में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल उस के लिए चुनौती बने हुए हैं.
केजरीवाल की रणनीति
पंजाब और गोआ की सब से खास बात यह है कि वहां भाजपा की सरकारें हैं. पंजाब में भाजपा और अकाली दल की मिलीजुली सरकार है. इस चुनाव में भी भाजपा-अकाली गठजोड़ मिल कर चुनाव लड़ रहा है. परेशानी का सबब यह है कि भाजपा और अकाली दल के बीच आपसी मतभेद हैं. इसी का नतीजा है कि भाजपा के स्टार नेता, क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू को भाजपा छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. अकाली दल और भाजपा के मुकाबले कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ रही थी. आम आदमी पार्टी के चुनावी मैदान में आ जाने से मामला और भी रोचक हो गया. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बड़ी चतुराई से अपनी पार्टी को पंजाब और गोआ के विधानसभा चुनावों में उतारा है. वे उत्तर प्रदेश जैसे बडे़ प्रदेश के चुनावी संग्राम से बाहर रहे हैं. यह उन की रणनीति का एक हिस्सा है.

अरविंद केजरीवाल ने गोआ और पंजाब में युवाओं व महिलाओं पर सब से अधिक फोकस करते हुए जुआ व नशे के खिलाफ आवाज उठाई है. लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को सब से अधिक पंजाब से ही सफलता मिली थी. पंजाब में अकाली दल और भाजपा के विरोध में सत्ताविरोधी हवा चल रही है. अकाली दल के बादल परिवार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. पंजाब दिल्ली के करीब है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने जिस तरह से सरकार चलाई है उस से पंजाब के लोग प्रभावित हैं. अरविंद केजरीवाल ने पंजाब में किसानों, दलितों, सिखों, महिलाओं के बीच अपने जनाधार को बढ़ाया है. अरविंद केजरीवाल ने इस को ले कर विरोध जताया है. अरविंद केजरीवाल की छवि और उन की सादगी सब से बड़ा हथियार है. केजरीवाल का रिकौर्डेड मैसेज पंजाब के लोगों को खूब पसंद आ रहा है. इस में अरविंद केजरीवाल पंजाब में अकाली दल के नेता विक्रम मजीठिया पर सब से ज्यादा आरोप लगाते हैं. अरविंद कहते हैं कि मजीठिया ने घरघर नशा पहुंचाने का कृत्य किया है. उन की सरकार बनने पर मजीठिया को जेल में डाला जाएगा.
पंजाब में नशे को मुद्दा बनाने वाले अरविंद केजरीवाल ने गोआ में कैसीनों को निशाने पर लिया है. अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि भाजपा के राज में गोआ में कैसीनों खोले गए. कैसीनों में जुआ खेला जाता है. कैसीनों के चलते युवा जुए का शिकार हो रहे हैं. गोआ में अपराध बढ़ रहा है. अब विदेशी पर्यटक भी गोआ आने से कतराने लगे हैं. गोआ में पहली बार विधानसभा चुनाव में कैसीनों मुद्दा बन रहे हैं. इस मुद्दे पर गोआ की जनता अरविंद केजरीवाल का समर्थन भी कर रही है.
भाजपा में ‘नो सीएम फेस’
पंजाब और गोआ की ही तरह उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी भाजपा को अपनी साख बचाने के लिए हर तरह के फैसले लेने पड़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश में सपाकांग्रेस गठजोड़ के तहत सपा 298 और कांग्रेस 105 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के युवा नेता व राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं, ‘‘प्रदेश की जनता साइकिल की सवारी कर रही है. हमारी सरकार ने जिस तरह से 5 साल विकास के काम कर अपने चुनावी वादों को पूरा किया है, उस से लोग फिर से साइकिल की हवा बनाने लगे हैं. कांग्रेस के साथ आने से हमारी साइकिल की रफ्तार और भी तेज हो गई है.’’
अखिलेश यादव की गणना कुछ समय पहले तक ऐसे सुसंस्कृत नेता की थी जो पिता का मानसम्मान करता था. सत्ता के 5 सालों ने इस चेहरे को इतना बदल दिया कि उस ने पिता को जबरन कुरसी से उतार कर पार्टी को हथिया लिया. मुलायम सिंह लगातार इस बात को कह रहे हैं कि अखिलेश उन की नहीं सुनते. अब सरकार और संगठन दोनों अखिलेश के पास हैं. चुनाव चिह्न की लड़ाई भी वे जीत चुके हैं. इतनी सारी जीत के बाद अगर वे कुछ हारे हैं तो वह उन की अपनी छवि है. यह बात और है कि पूरी कोशिश इस बात की है कि पिता मुलायम को बुरे लोगों से घिरा दिखा कर अपनी छवि को बचाया जाए. अखिलेश के करीबी लोग मानते हैं कि इस लड़ाई में वे निखर कर सामने आए हैं. राजनीति को जाननेपरखने वाले लोग समझते हैं कि यह सही आकलन नहीं है. चाटुकारिता में लोग इस तरह की बातें कर रहे हैं.

चुनाव के मैदान में अखिलेश के सामने मुश्किलें अभी बाकी हैं. सब से अहम लड़ाई सपा के खास यादव बिरादरी को एकजुट करने की है. मुलायम का हताश, निराश और बेबस चेहरा यादव बिरादरी भूल जाएगी, यह संभव नहीं लगता. कोई भी पिता यह नहीं चाहता कि पुत्र इस तरह से सत्ता के लिए पिता को बेबस कर दे. यादव बिरादरी में इस तरह की सोच और भी मजबूत है. मुलायम सिंह यादव के साथ पुरानी पीढ़ी का भावनात्मक रिश्ता है. सपा के कुछ वरिष्ठ नेता अपने बेटों के भविष्य के लिए भले ही अखिलेश को सही और मुलायम को गलत कह रहे हों, पर यादव वोटबैंक के लोगों को अखिलेश के साथ ऐसा कोई स्वार्थ नहीं है. ऐसे में वे खुल कर अखिलेश के साथ खड़े होंगे, ऐसा संभव नहीं लगता है.
सपा की लड़ाई चुनावभर की नहीं है. यह आगे तक जाएगी. इस का सही आकलन चुनाव के बाद ही हो पाएगा. अखिलेश की जीत और हार दोनों ही पार्टी का भविष्य तय करेगी. असल में अभी अखिलेश और मुलायम के बीच सीधा मुकाबला नहीं था.अखिलेश सत्ता के शिखर पर थे तो मुलायम लाचार, हथियारविहीन थे. चुनाव के बाद अखिलेश और मुलायम के बीच बराबर का मुकबला होगा. सत्ता के चलते जो लोग अखिलेश के साथ में अपना भविष्य देख रहे हैं, कल बदले हालात में वे कितना अखिलेश के करीब होंगे, यह समझने वाली बात है. भारत में लोकतंत्र जरूर है पर यहां जाति, बिरादरी, धर्म और भावनाओं पर वोट पड़ते हैं. यह बात अखिलेश भी समझते हैं. यही वजह है कि वे कांग्रेस और दूसरे दलों से तालमेल कर अपने दरकते जनाधार की कमी को पूरा करना चाहते हैं.
अब मुलायम सिंह यादव ने अखिलेशराहुल के गठबंधन को नकार दिया है. ऐसे में सपा का बड़ा वोटबैंक अखिलेश के खिलाफ खड़ा हो सकता है. यह समाज ऐसा है कि खुद चाहे कितनी भी गलती करे पर दिखावे में वह सब से बड़ा ईमानदार बनता है. ऐसे में मुलायम के बयान अखिलेश की राह मुश्किल करेंगे और विरोधी दलों को हमले का एक अवसर देंगे. अब जीत और हार ही अखिलेश की छवि को बदल सकती है. पिता मुलायम का बेबस, लाचार चेहरा बारबार नए सवाल उठाता रहेगा. इस से निबटना सरल नहीं होगा.
हालांकि, परिवार के विवाद को सुलझाने और उस से बाहर निकलने के बाद अखिलेश यादव के निशाने पर भाजपा और उस की अगुआई में चलने वाली केंद्र की मोदी सरकार है. अखिलेश यादव लगातार भाजपा द्वारा लोकसभा चुनाव में किए गए वादों और केंद्र सरकार के फैसलों पर सवाल उठा रहे हैं.अखिलेश यादव जनता के बीच जा कर पूछ रहे हैं, ‘अच्छे दिन कहां आए?’ और ‘नोटबंदी से क्या हासिल हुआ?’ ये दोनों सवाल भाजपा के लिए परेशानीभरे साबित हो रहे हैं. भाजपा के बडे़ नेताओं के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं. ऐसे में एक बार फिर से वे राममंदिर के मुद्दे पर आ रहे हैं.
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य ने कहा, ‘‘अगर प्रदेश में भाजपा बहुमत से सरकार बनाएगी तो राममंदिर जरूर बनेगा.’’ यह बात और है कि प्रदेश की जनता को अब भाजपा के वादों पर यकीन नहीं है. भाजपा केवल अखिलेश यादव के सवालों का जवाब ही नहीं दे पा रही बल्कि उन की तरह लोकप्रिय, साफसुथरा और स्मार्ट नेता भी अपने लिए खोज नहीं पाई है. बहुत सारे समीकरण बनाने के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री लायक कोई चेहरा नहीं मिल पा रहा है. उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा दोनों के पास अपने मुख्यमंत्री के चेहरे हैं. भाजपा ने बहुत प्रयास किया पर उस को ऐसा कोई नहीं मिला जिस को वह मुख्यमंत्री का चेहरा बना सकती. ऐसे में पार्टी ने मुख्यमंत्री पद को चुनाव बाद के हालात पर छोड़ दिया है. ऐसा नहीं है कि भाजपा ने पहले मुख्यमंत्री का चेहरा आगे कर चुनाव नहीं लड़ा है. दिल्ली में किरन बेदी, बिहार में सुशील मोदी, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर के नाम सामने हैं. उत्तर प्रदेश में अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने यहां के नेताओं पर कम भरोसा किया है. जिस की वजह से गुटबाजी में भाजपा पूरी तरह से फंस गई है. भाजपा ने भीतरघात की परेशानी से बचने के लिए मुख्यमंत्री पद के लिए नाम की घोषणा नहीं की है.
आलोचनाओं को दरकिनार करते राहुल
कांग्रेस नेता के रूप में राहुल गांधी भाजपा की आलोचना का सब से अधिक शिकार हुए. भाजपा ने अपने मजबूत प्रचारतंत्र के दम पर राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी. चुनावी हार के चलते हवा राहुल के विरोध में बनी रही. इस के बाद भी राहुल गांधी ने हार नहीं मानी. लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस के सामने चुनाव में खडे़ रहने की सब से बड़ी चुनौती थी.बडे़बडे़ राजनीतिक समीक्षकों ने यह मान लिया कि पूरे देश से कांग्रेस का सफाया हो गया. अब कांग्रेस की वापसी संभव नहीं है. गांधी परिवार को पूरी तरह से हाशिए पर ढकेल दिया गया. कांग्रेस के लिए वह चुनौतीभरा दौर था. कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी बीमारी के कारण पार्टी को पहले जैसा समय और नेतृत्व नहीं दे पा रहीं. राहुल गांधी लगातार असफल होते दिख रहे थे. प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए आगे नहीं बढ़ रही थीं.
कांग्रेस को आगे बढ़ाने व उस को एकजुट रखने के लिए गांधी नेहरू परिवार की सब से अधिक जरूरत होती है. विरोधी दलों को यह पता है कि बिना गांधीनेहरू परिवार के कांग्रेस बिखर जाएगी. भाजपा ने मान लिया था कि125 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी लोकसभा में विपक्षी पार्टी बनने भर की संख्या में संसद सदस्य नहीं ला पाई, इसलिए वह अब वापस नहीं आ सकती. वहीं, अपनी सभी अलोचनाओं को दरकिनार कर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुकाबले कचुनौती को स्वीकार किया. भाजपा हमेशा कहती थी कि राहुल गांधी को लोकसभा में बोलना नहीं आता, वे दूसरों का लिखा भाषण पढ़ते हैं. ऐसे समय में राहुल गांधी ने केंद्र की ताकतवर मोदी सरकार पर हमला बोला और उस को ‘सूटबूट वाली सरकार’ का नाम दिया.
लोकसभा चुनाव के बाद दूसरे प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार का सिलसिला जारी रहा. इस के बाद भी राहुल गांधी ने अपने मनोबल को टूटने नहीं दिया. वे भाजपा से मुकाबले की धुन में लगे रहे. कांग्रेस को अपनी कमजोरी का आभास हो चला था. प्रदेश स्तर पर वह लगातार जनाधार खोती जा रही थी. कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता सत्ता से बाहर रहने के कारण संतुलन खोते जा रहे थे. ऐसे में राहुल गांधी ने बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन तैयार किया. इस में कांग्रेस के साथ जदयू और राजद जैसे प्रमुख सहयोगी साझीदार बने. बिहार में अपनी जीत पक्की मान रही भाजपा को हार का सामना करना पड़ा. दिल्ली में केजरीवाल के बाद बिहार की हार से साबित हो गया कि नरेंद्र मोदी के विजयरथ को रोका जा सकता है.

बहुत सारे विरोधों को दरकिनार करते उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और राहुल गांधी की पहल पर भाजपा के खिलाफ एक ताकतवर मोरचा बना है. भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश की लड़ाई सब से अहम है. सब से बड़ी वजह यह है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सब से अधिक सीटें हैं. यहां का विधानसभा चुनाव जीतने का अलग प्रभाव पड़ता है. लोकसभा चुनाव में भाजपा को 73 सीटें मिली थीं. इस प्रदर्शन को दोहराना किसी चुनौती से कम नहीं है. उत्तर प्रदेश में अयोध्या है. जहां पर रामजन्मभूमि मंदिर की राजनीति कर के ही भाजपा ने लोकसभा में 2 सीटों से शुरू हो कर बहुमत की सरकार बनाने तक के सफर को पूरा किया है. उत्तर प्रदेश में हार से भाजपा का मनोबल टूटेगा. कांग्रेस को यह पता चल जाएगा कि भाजपा की चुनावी जीत पानी के बुलबुले जैसी थी. उत्तर प्रदेश में चुनावी जीत के लिए भाजपा ने जिस तरह से दलबदल करने वाले नेताओं को अहमियत दी है उस से पार्टी के संगठन से जुडे़ कार्यकर्ता और नेता बेहद क्षुब्ध हैं. भाजपा के नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि कांग्रेस को खत्म कर भाजपा का कांग्रेसीकरण हो गया है. जब तक भाजपा में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं तब तक लोग चुप हैं. अनुशासन के नाम पर दबी विरोध की आवाज 2019 के चुनाव परिणामों को तय करेगी. जिस कांग्रेस को खत्म हुआ मान लिया गया था वह फिर से मुकाबले में इतनी जल्दी खड़ी हो जाएगी, इस बात की उम्मीद भाजपा को नहीं थी.
अरविंद केजरीवाल की जुझारू छवि
16 अगस्त, 1968 को हरियाणा के सिवानी में पैदा हुए अरविंद केजरीवाल आईआईटी खड़गपुर से बीटैक करने के बाद 1989 में टाटा स्टील से जुडे़. 1992 में वहां से इस्तीफा दे दिया. 1995 में वे असिस्टैंट कमिश्नर, इनकम टैक्स के रूप में भारतीय राजस्व सेवा से जुडे़. 2006 में नौकरी छोड़ कर आरटीआई ऐक्टिविस्ट के रूप में सूचना अधिकार कानून के लिए काम करना शुरू किया. यहीं से वे अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का हिस्सा बने. 2012 में आम आदमी पार्टी बनाई. इस में वे राष्ट्रीय संयोजक बने. पार्टी बनाने के एक साल के अंदर ही 2013 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ा और कांग्रेस, जदयू व निर्दलीय विधायकों के साथ मिल कर सरकार बनाई. 38 साल की उम्र में वेदिल्ली के सब से युवा मुख्यमंत्री बने. यह सरकार ज्यादा नहीं चली. 2014 में मुख्यमंत्री की कुरसी छोड़ कर वे दोबारा चुनाव मैदान में उतरे. 2015 में पूरे बहुमत से दिल्ली में सरकार बनाई. दोबारा मुख्यमंत्री बने.
जहां सारे नेता मुख्यमंत्री बनने के बाद सब से अधिक विभाग अपने पास रखते हैं वहां अरविंद केजरीवाल ने एक भी विभाग अपने पास नहीं रखा. पंजाब और गोआ विधानसभा चुनावों में अगर अरविंद केजरीवाल जीत हासिल कर लेते हैं तो वे राष्ट्रीय राजनीति में अपना दखल बढ़ा लेंगे.
अखिलेश की बेदाग छवि
उत्तर प्रदेश में 5 साल सरकार चलाने के बाद भी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की छवि साफसुथरी और बेदाग है. अखिलेश के पास संसद से ले कर विधानसभा तक का पर्याप्त अनुभव है. अखिलेश साल 2000 में पहली बार कन्नौज लोकसभा सीट से संसद सदस्य चुने गए. वे केंद्र सरकार की कई महत्त्वपूर्ण समितियों में सदस्य बने. 2004 और 2009 में वे दोबारा लोकसभा सदस्य चुने गए. इंजीनियरिंग से पढ़ाई कर चुके अखिलेश अपनी पत्नी डिंपल और बच्चों के साथ सुखद परिवारिक जीवन जी रहे हैं. समयसमय पर परिवार के साथ बिताए पलों की फोटो वे सोशल मीडिया पर पोस्ट करते रहते हैं.
2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अखिलेश यादव को अपना चेहरा बनाया. अखिलेश ने उस समय उत्तर प्रदेश में पार्टी का खूब प्रचार किया. प्रदेश के लोगों को अखिलेश पसंद आए. जनता ने अखिलेश पर भरोसा करबहुमत की सरकार दी. 15 मार्च, 2012 को अखिलेश सब से कम उम्र में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. 5 साल सरकार चलाने के दौरान अखिलेश ने अपने चुनावी वादों को पूरा किया. अपने काम पर भरोसा ही था, जिस के चलते अखिलेश ने परिवार के विवाद के बाद भी अलग रहते हुए चुनाव लड़ने का साहस दिखाया था. बहरहाल, जाहिरी तौर पर परिवार में अब एकजुटता है.
अलग छवि की पहचान है राहुल
अमेठी लोकसभा से 2004 में पहली बार सांसद चुने गए राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को बहाल करने की शुरुआत की तो पार्टी में उन का विरोध शुरू हुआ. अपनी धुन के पक्के राहुल गांधी ने विरोध को दरकिनार कर युवा नेताओं को तरजीह देने का काम जारी रखा. राहुल ने 2009 और 2014 में भी लोकसभा चुनाव जीता. 2009 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बेहद मजबूत आधार दिया. कांग्रेस ने उम्मीद से उलट 22 लोकसभा सीटों पर कब्जा कर सभी को चौंका दिया था. विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी को वह सफलता नहीं मिली. राहुल गांधी ने यूथ कांग्रेस में संगठनात्मक बदलाव की पहल की. 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रचार की शुरुआत राहुल गांधी ने ‘खाट सभा’ से की. इस को प्रदेश के लोगों ने पूरा समर्थन दिया. प्रदेश में सब से अधिक यात्रा करने वाले नेताओं में राहुल गांधी का नाम आता है. किसानों के पक्ष में उन की भट्ठा परसौल यात्रा बेहद सफल रही है.
तमाम विरोधों के बाद भी राहुल गांधी की पहल पर उत्तर प्रदेश में गठजोड़ बना जो भाजपा के लिए परेशानी का बड़ा सबब है. राहुल गांधी 2013 में कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने. लोकसभा में भले ही कांग्रेस के सदस्य कम हों पर राहुल गांधी ने भाजपा के विरोध के सुर को कमजोर नहीं होने दिया. नोटबंदी के मौके पर जहां दूसरे नेता विरोध में स्वर उठाने में संकोच कर रहे थे वहीं राहुल गांधी ने संसद से ले कर सड़क तक अपनी आवाज को बुलंद कर भाजपा को घेरने का काम किया. भाजपा लोकसभा में नोट से जुडे़ मुद्दों पर जवाब देने से बचती रही.
स्टार प्रचारक बनीं प्रियंका और डिंपल
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी वाड्रा और अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव स्टार प्रचारक होने के साथ ही साथ सहयोगी भी हैं. प्रियंका के प्रचार की बात करते ही भाजपा में खलबली मच गई. भाजपा के बडे़ नेता विनय कटियार तो यहां तक कह गए कि प्रियंका से सुदंर भाजपा नेता स्मृति ईरानी हैं. उन को देखनेसुनने के लिए ज्यादा भीड़ आती है. कांग्रेस और सपा के गठबंधन में अखिलेश और राहुल के अलावा प्रियंका व डिंपल का भी बड़ा अहम रोल रहा है. ऐसे में चुनावप्रचार अभियान और आगे की रणनीति में इन की भूमिका प्रभावी रहेगी. खुद प्रियंका और डिंपल के बीच मधुर संबंध हैं. इन दोनों का सौम्य व्यवहार जनता को भी पसंद आता है. कांग्रेस और सपा दोनों ही दलों में लंबे समय से प्रियंका और डिंपल को आगे करने का दबाव रहा है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इन की भूमिका अलग दिखेगी.

अखिलेश यादव की दोस्ती जितनी राहुल गांधी से है, उस से कहीं अधिक दोस्ती प्रियंका से है. अखिलेश की पत्नी और सांसद डिंपल यादव राहुल से अधिक उन की मां सोनिया गांधी के करीब हैं. संसद में सदन के दौरान सोनिया और डिंपल अकसर आपस में बात करती दिखती रही हैं. राहुल की बहन प्रियंका भी डिंपल के साथ मधुर रिश्ते रखती हैं. आपसी बातचीत में दोनों ही बहुत सहज रही हैं. उत्तर प्रदेश की राजनीति में डिंपल खामोशी से पति अखिलेश यादव के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं तो बहन प्रियंका, अपने भाई राहुल गांधी के साथ खड़ी नजर आती हैं.

चुनावी जुमला साबित हुई मोदी की सीख
परिवारवाद पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीख चुनावी जुमला साबित हुई. नरेंद्र मोदी ने सांसदों से अपने करीबी रिश्तेदारों को चुनावी टिकट दिलाने की पैरवी करने से मना किया था. प्रधानमंत्री ने इस बहाने पार्टी में परिवारवाद को रोकने का दिखावा ही किया था. भाजपा ने केवल अपने ही दल के नेताओं और उन के परिवार वालों को ही टिकट नहीं दिया, बल्कि दलबदल करने वाले नेताओं के परिवार वालों को भी टिकट दिया. भाजपा चुनावी हमाम में दूसरे दलों से भी बदतर साबित हुई है. पार्टी जिस तरह सेअपने उसूलों और सिद्धांतों की दुहाई देती रही है वे इस चुनाव में तारतार नजर आ रहे हैं. लखनऊ में मलिहाबाद सीट से भाजपा से मोहनलालगंज लोकसभा सीट के सांसद कौशल किशोर की पत्नी जय देवी को टिकट दिया है. विधानसभा चुनाव में बसपा छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मौर्य को भाजपा ने पडरौना से और उन के पुत्र उत्कर्ष मौर्य को ऊंचाहार सीट से टिकट दिया है. उत्तराखंड में भी भाजपा ने यही किया है. कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आए यशपाल आर्य के बेटे संजीव को नैनीताल से और विजय बहुगुणा के बेटे सौरभ को सितारगंज से टिकट दिया है. इसी तरह भाजपा ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह, कल्याण सिंह के पौत्र संदीप सिंह, प्रेमलता कटियार की बेटी नीलिमा कटियार, हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह, ब्रहमदत्त द्विवेदी के बेटे मेजर सुनील दत्त द्विवेदी, लालजी टंडन के बेटे आशुतोष टंडन और भुवनचंद्र खंडूरी की बेटी रितुयमकेश्वर को भी चुनावी मैदान में उतारा है.