Social Awareness, लेखक – शकील प्रेम
साल 2021 में उत्तर प्रदेश में धर्मांतरण विरोधी कानून ‘उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्म परिवर्तन निषेध अधिनियम, 2021’ लागू हुआ था. यह कानून जबरन, धोखे से, लालच दे कर या शादी के जरीए गैरकानूनी धर्मांतरण को रोकने के लिए बनाया गया था. इस में एक से 10 साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है. साल 2024 में इस कानून में और सख्ती कर अधिकतम सजा को बढ़ा कर उम्रकैद तक की सजा कर दी गई.
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में धर्मांतरण विरोधी इस कानून पर गंभीर सवाल उठाए हैं. अदालत ने कहा कि अगर कोई शख्स अपनी मरजी से धर्म बदलना चाहे तो यह कानून उस के लिए मुश्किलें खड़ी करता है.
विश्व हिंदू परिषद के द्वारा धर्मांतरण के आरोप में 35 लोगों और 20 अज्ञात आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था. यह मामला फतेहपुर के हरिहरगंज में बने इवेंजेलिकल चर्च औफ इंडिया में सामूहिक धर्मांतरण के एक आयोजन से जुड़ा था. एक और मामले में सैम हिगिनबौटम कृषि, प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान विश्वविद्यालय (एसएचयूएटीएस) के कुलपति डाक्टर राजेंद्र बिहारी लाल को आरोपी बनाया गया था.
17 अक्तूबर के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने डाक्टर राजेंद्र बिहारी लाल और दूसरों के खिलाफ धर्म परिवर्तन के मामले को खारिज कर दिया. कुलमिला कर अदालत ने पुलिस की 6 में से 5 चार्जशीटों को रद्द कर दिया.
धर्म परिवर्तन के एक और मामले में सुबूतों पर टिप्पणी करते हुए अदालत ने पाया कि पीडि़त और गवाहों द्वारा पेश किए गए हलफनामे साइक्लोस्टाइल तरीके से तैयार किए गए थे और उन की निजी जानकारियों को बदलने के बाद उसी मसौदे को कौपी पेस्ट किया गया था.
इस में यह भी सवाल उठाया गया कि उन गवाहों के बयान अभियोजन पक्ष के मामले में कैसे मदद कर सकते हैं, जिन्होंने न तो धर्म परिवर्तन किया था और न ही सामूहिक धर्म परिवर्तन की जगह पर थे.
कोर्ट ने पुलिस और प्रशासन को फटकार लगाते हुए कहा कि आपराधिक कानून को बेकुसूर लोगों को परेशान करने का साधन नहीं बनाया जा सकता, जिस से कि सरकारी एजेंसियों को पूरी तरह से बेबुनियाद सुबूतों की बुनियाद पर अपनी मरजी से अभियोजन शुरू करने की इजाजत मिल सके.
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने धर्म परिवर्तन के मामले में सरकारी अफसरों के दखल पर भी चिंता जताई. कोर्ट ने कहा कि इस मामले में उत्तर प्रदेश धर्मांतरण अधिनियम के नियमों की संवैधानिक वैधता पर गौर करना हमारा काम नहीं है, फिर भी हम यह मानने से खुद को नहीं रोक सकते कि धर्मांतरण अधिनियम के कुछ प्रावधान बहुत ही कठिन हैं. जो शख्स अपनी मरजी से अपने धर्म के अलावा कोई दूसरा धर्म अपनाना चाहता है, उस के लिए रास्ते मुश्किल कर दिए गए हैं, जो संविधान की मूल भावना के खिलाफ है.
कोर्ट ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना और कौन्स्टिट्यूशन के सैकुलर मूल्यों पर जोर देते हुए कहा कि भारत की सैकुलर प्रवित्ती संविधान के ‘मूल ढांचे’ का अभिन्न अंग है. संविधान की प्रस्तावना में भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के अलावा विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता सुनिश्चित करने और उन सभी के बीच बंधुत्व को बढ़ावा देने, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने का संकल्प लिया गया है.
बड़ी अदालत ने कहा कि भारत के लोगों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता दी गई है और यह स्वतंत्रता देश की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति की अभिव्यक्ति है. संविधान के अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सभी व्यक्तियों को अंतरात्मा की स्वतंत्रता प्राप्त करने का समान अधिकार होगा और उन्हें धर्म को मानने, उस का अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार होगा, जो सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता के अधीन हैं.
कोर्ट ने यह भी कहा कि भारत में लोगों को अपने धार्मिक विचारों का प्रचार करने का अधिकार है.
अनुच्छेद 25 द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन, हमारे संविधान के तहत प्रत्येक व्यक्ति को मौलिक अधिकार है कि वह ऐसे धार्मिक विश्वास को अपनाए, जिसे वह अपने विवेक से स्वीकार करता हो.
कोर्ट के इस अहम फैसले से यह तो साबित होता ही है कि धर्मांतरण विरोधी कानून की आड़ में ईसाई और मुसलिम को निशाना बनाया जा रहा है. यह मुद्दा हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए जरूरी भी है, लेकिन जब आंकड़ों पर नजर डालते हैं, तो यह मुद्दा पूरी तरह प्रोपगैंडा ही साबित होता है.
प्यू रिसर्च सैंटर के मुताबिक 98 फीसदी लोग वही धर्म मानते हैं जो उन्हें बचपन में मिला होता है. हिंदू 0.7 फीसदी बाहर जाते हैं, लेकिन 0.8 फीसदी अंदर आते हैं. ईसाई महज 0.4 फीसदी हिंदू से कन्वर्ट होते हैं, लेकिन कुल ईसाई आबादी में नैट गेन सिर्फ 0.3 फीसदी का है. वहीं मुसलिम कन्वर्जन तो और भी कम 0.2 फीसदी है.
साल 1951 से साल 2011 के बीच का जनगणना डाटा भी यह बताता है कि ईसाई आबादी स्थिर (2.3 फीसदी) बनी हुई है. इस में 60 सालों में कोई बड़ा इजाफा नहीं हुआ है. यह डाटा मिशनरीज के द्वारा ‘मास कन्वर्जन’ के दावों को खारिज करता है.
प्यू रिसर्च सैंटर के मुताबिक, फर्टिलिटी रेट सभी धर्मों में घट रहा है. हिंदू में 2.1 फीसदी, मुसलिम में 2.6 फीसदी और ईसाई में महज 2 फीसदी है. हालांकि यह बात सच है कि सबसे ज्यादा हिंदू ही कन्वर्ट करते हैं. गुजरात में धर्म परिवर्तन के कुल आवेदन में 93 फीसदी के आसपास हिंदू आवेदक होते हैं, लेकिन इस से हिंदू धर्म को कोई नैट लौस नहीं है.
‘उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्म परिवर्तन निषेध अधिनियम, 2021’ के तहत साल 2020 से कुल 427 केस रजिस्टर हुए जिन में 833 गिरफ्तारियां हुईं, लेकिन इन में ज्यादातर मामले कोर्ट में झूठे साबित हुए.
धर्मांतरण का डर दिखा कर अकसर यह फैलाया जाता है कि मुसलिम साल 2035 तक बहुमत में हो जाएंगे, लेकिन यह भी महज प्रोपगैंडा ही साबित होता है, क्योंकि मुसलिमों में भी फर्टिलिटी गैप लगातार सिकुड़ रहा है.
एक झूठ यह भी फैलाया जाता है कि मुसलिम ज्यादा शादियां करते हैं, इसलिए उन की आबादी तेजी से बढ़ती है लेकिन हकीकत यह है कि मुस्लिम में पौलीगैमी सिर्फ 5.7 फीसदी है, तो वहीं हिंदू में यह 5.8 फीसदी है.
भारत में धर्मांतरण ऐसा मुद्दा है जिस से धु्रवीकरण की राजनीति को ताकत मिलती है. धर्मांतरण के ज्यादातर मामले फेक न्यूज पर आधारित होते हैं और यह सब पौलिटिकल प्रोपगैंडा के तहत किया जाता है. ऐसा नहीं है कि देश में धर्मांतरण नहीं होता, लेकिन सालाना सिर्फ 5,000 लोग ही कन्वर्जन करते हैं. देश की तकरीबन 140 करोड़ की आबादी में यह बेहद मामूली संख्या है, जिसे इतना बड़ा मुद्दा बनाना महज प्रोपगैंडा ही है. Social Awareness




