Indian Society: लहू का रंग लाल होता है, पर ‘ऊंचे’ होने का घमंड पालने वाले कुलीन तबके को अपने ‘ब्लू ब्लड’ पर नाज रहा है. अब आप पूछेंगे कि यह ‘ब्लू ब्लड’ क्या बला है, तो इसे हम आसान शब्दों में समझ सकते हैं कि 17वीं सदी में स्पेन देश के कुलीन वर्ग के लोगों की गोरी चमड़ी में खून की नसें नीली दिखती थीं, क्योंकि उन का धूप से ज्यादा वास्ता नहीं पड़ता था, तो उन नसों को वे ‘ब्लू ब्लड’ कहते थे.

बाद में पूरे यूरोप के ऐसे कुलीन वर्ग को अपने ‘ब्लू ब्लड’ पर नाज हो गया था, जो आम जनता से खुद को अलग समझ कर उन्हें उन के काले, मटमैले रंग के चलते खुद से छोटा समझते थे.

इस कालेगोरे के भेद के चक्कर में समाज में एक सोच पनपती है कि जिस का रंग ‘कालिया’ वह गुलाम और जिस का रंग ‘दूधिया’ वह बादशाह. यह होता है रंगभेद जो पूरी दुनिया में फैला हुआ है. आधी आबादी खासकर नई उम्र की लड़कियों में यह रंगभेद उन के विचारों की जड़ों में मट्ठा का काम करता है.

आम लड़कियों की तो छोडि़ए, नामचीन लेखिका और समाजसेवी अरुंधति राय का दर्द ही सुन लीजिए, ‘‘मैं पतली थी, एक महिला थी और सांवली थी… 3 ऐसी खासीयतें जो केरल के लोगों को स्वीकार नहीं हैं.’’

यह सब अरुंधति राय ने अपनी पुस्तक ‘गौड औफ स्मौल थिंग्स’ के लिए ब्रिटेन का ‘बुकर पुरस्कार’ जीतने के तुरंत बाद मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा था.

इसी साल मार्च महीने की बात है. तब केरल की चीफ सैक्रेटरी शारदा मुरलीधरन ने रंगभेद पर अपनी आपबीती शेयर करते हुए बताया था कि कैसे सांवले रंग के चलते उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा. फेसबुक पर उन्होंने लिखा था कि कैसे एक अनजान शख्स ने उन के औफिस में उन के रंग को ले कर
टिप्पणी की. उस शख्स ने कहा कि शारदा का कार्यकाल उन के पति वी. वेणु जितना ‘काला’ है, उतना ही उन के पति का ‘सफेद’ है.

शारदा मुरलीधरन ने लिखा कि मैं 50 सालों से इस सोच के साथ जी रही हूं कि मेरा रंग अच्छा नहीं है. हमारे समाज में गोरे रंग को ज्यादा अहमियत दी जाती है, इसलिए सांवले रंग के लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है. यह भेदभाव स्कूलकालेज और औफिस में भी होता है.

शारदा मुरलीधरन ने आगे बताया कि जब वे 4 साल की थीं, तो उन्होंने अपनी मां से कहा था कि ‘मुझे वापस अपनी कोख में डाल दो और फिर से गोरा और सुंदर बना कर बाहर निकालो’.

यह जो गोरा और सुंदर होने की डिमांड या गुहार है न, बड़ी खतरनाक है. तभी तो गोरा करने की क्रीम इश्तिहार बाजार पर काबिज हैं. अगर लड़की काले रंग की है, तो वह अपने घरपरिवार, महल्ले, काम की जगह पर जगहंसाई का पात्र बनती है और अगर वही लड़की हफ्ते तक गोरा करने की क्रीम लगा लेती है, तो समाज में आगे की लाइन में खड़ी दिखती है. पहले हर बात में झिझकने वाली अब हिम्मत के साथ अपनी बात रखती है. नतीजा, घरपरिवार के साथसाथ बाकी सब भी खुश.

यहां गलती तथाकथित ‘गोरा’ बनाने वाली क्रीम की नहीं है, बल्कि उस सोच की है जो किसी को ‘काली कलूटी बैगन लूटी’ कहने को अपनी बड़ाई मानती है. फिर आप सोचिए कि उन लड़कियों की क्या हालत होती होगी जो वंचित समाज से हैं, जहां पैदा होना ही कलंक है और अगर लड़की ‘काली’ निकल आई, तो फिर समझ उस का जीना मुहाल.

इन समाज की पक्के रंग की लड़कियां दोहरी मार झेलती हैं. उन्हें उन के रंग के चलते पढ़नेलिखने से तो दूर रखा जाता ही है, शादीब्याह में भी जल्दी निबटा दिया जाता है.

‘फीयरलैस फ्रीडम’ नामक किताब की लेखिका और नारीवादी कार्यकर्ता कविता कृष्णन ने बीबीसी दिनभर पौडकास्ट में रंग के मुद्दे पर कहा था, ‘‘भारत में रंग के मुद्दे का संबंध अंगरेजों या आजादी से नहीं, बल्कि जाति से ज्यादा है. यह माना जाता है कि जिन का रंग ज्यादा काला है, काले की तरफ है, वह एक तरह से मेहनत करने वाला वर्ग है. उस में जो सब से उत्पीडि़त लोग हैं, दलित हैं, उन का रंग वैसा होता है और जो अभिजात वर्ग है, उस का रंग सफेद होता है.

‘‘खासकर महिलाओं को उन के रंग के हिसाब से देखा जाना, यह चलता आ रहा है और यह सामान्य है. इस के खिलाफ समाज में जो आंदोलन होना चाहिए था, वह नहीं हुआ है.’’

महिलाओं को उन के रंग से देखा जाना और यह सामान्य बात है, सारे रंगभेद की जड़ इसी वाक्य में छिपी है. लड़का अगर काला है तो कोई बात नहीं, पर अगर लड़की जरा सी भी दबे रंग की है, तो घर पर ही उस के रूपरंग का पोस्टमार्टम कर दिया जाता है.

‘ज्यादा चाय मत पिया कर’, ‘भूतनी, पता नहीं हमारे घर में पैदा हो गई’, ‘अब कौन इस से ब्याह करेगा’, ‘इस की तो अगली नस्ल भी बिगड़ जाएगी’ जैसी तोहमतें लगा दी जाती हैं लड़कियों पर, जिस से वे ऐसे दबाव में जीने लगती हैं कि उन्हें गोरे रंग वाले के आसपास रहना भी शाप जैसा लगता है.

नतीजतन, वे घरघुन्नी बन कर रह जाती हैं. स्कूल जाने की उन की हिम्मत नहीं होती है. वे कागज पर पैंसिल से ककहरा लिखने के लिए खुद को लायक नहीं समझती हैं. पैंसिल से एक बात याद आई, ‘पैंसिल टैस्ट’.

एक वह दौर था जब दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का बोलबाला था. तब ‘पैंसिल टैस्ट’ हुआ करता था, जिसे इनसान के ‘गोरे’ या ‘रंगीन’ होने का पैमाना समझ जाता था. ‘पैंसिल टैस्ट में उस इनसान के बालों में पैंसिल घुसाई जाती थी, जिस का नस्लीय समूह अनिश्चित था. अगर पैंसिल जमीन पर गिर जाती, तो इनसान ‘पास’ हो जाता और उसे ‘गोरा’ माना जाता. अगर पैंसिल बालों में उलझ जाती, तो उस इनसान के बाल गोरा होने के लिए बहुत घुंघराले माने जाते और उसे ‘रंगीन’ (मिश्रित नस्लीय विरासत वाला) के रूप में वर्गीकृत किया जाता.

‘रंगीन’ के रूप में वर्गीकरण से किसी इनसान को ‘काले’ माने जाने वाले इनसान की तुलना में ज्यादा हक मिलते थे, लेकिन ‘गोरा’ माने जाने वाले इनसान की तुलना में कम हक और फर्ज मिलते थे.

इस ‘पैंसिल टैस्ट’ से समझ लीजिए कि आप की चमड़ी के रंग से आप को हक और फर्ज मिलते थे. कालों को ‘दास’, ‘गुलाम’ बनाने और कहने की प्रथा इसी रंग की बदौलत कामयाब रही थी.

भारत में इस तरह का कोई ‘पैंसिल टैस्ट तो नहीं हुआ, पर आज भी वंचित समाज की लड़कियां रंग के फेर में ऐसी उलझाई गई हैं कि वे स्कूल में पैंसिल पकड़ने से डरती हैं. वे खुद को ‘गुलाम’ समझने लगती हैं. घर में परिवार वालों की, मजदूरी या खेतिहरी में जमींदार की और ससुराल में पति की.

सवाल उठता है कि क्या जब देश खुद को हर मामले में ‘विश्वगुरु’ कहलाने की कवायद में लगा है, तो क्या वंचित समाज की लड़कियों को अपने पक्के रंग के चलते आईने के सामने आने में झिझकते रहना होगा? नहीं, क्योंकि रंग तो कुदरत की देन है और गोरा रंग होने का यह मतलब कतई नहीं है कि बंदा दिल का भी साफ ही होगा.

लिहाजा, सूरत से ज्यादा सीरत पर फोकस करना चाहिए. इस के लिए स्कूलों और समाज में रंगभेद विरोधी शिक्षा और समानता की अहमियत को बढ़ावा देना जरूरी है. रंग के चक्कर में हीनता का बोध मन में लिए फिरने वाली लड़कियों को यह समझना होगा कि काला या पक्का रंग भी खूबसूरत होता है और किसी के कहने भर से आप बदसूरत नहीं हो सकतीं.

अगर काला रंग इतना ही बुरा होता तो सूडान की मौडल न्याकिम गैटवेच को दुनिया यों ही सिरआंखों पर नहीं बिठाती. वे फिलहाल दुनिया की तथाकथित सब से काली मौडल हैं, जिन्हें ‘क्वीन औफ डार्कनैस’ का खिताब मिला हुआ है.

न्याकिम गैटवेच अपने काले रंग पर फख्र करते हुए कहती हैं, ‘‘मुझे कितना भी पैसा मिल जाए, मैं अपने स्किन कलर के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करूंगी.’’

ऐसी ही हिम्मत हर उस लड़की को दिखानी चाहिए, जिसे उस के रंग की वजह से दबाया जाता है. याद रखिए, चमड़ी पर होने वाली बीमारी ‘सफेद दाग’ की सफेदी कोई नहीं चाहता है, पर आंखों पर लगा काजल हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है. जैसे ‘ब्लू ब्लड’ एक सोच है, वैसे ही ‘क्वीन औफ डार्कनैस’ भी सोच ही है, जो न्याकिम गैटवेच को उन के काले रंग के बावजूद दुनियाभर में मशहूर कर देती है. Indian Society

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