Bihar Elections: हार की राजनीति हमेशा से ही उतारचढ़ाव से भरी रही है. यहां जनता का रुझान किसी एक दल के लिए परमानैंट नहीं रहता, बल्कि काम और हालात को देख कर बदलता रहता है.
मौजूदा हालात में देखा जाए तो भारतीय जनता पार्टी या राजग गठबंधन के लिए जनता का झुकाव उतना नहीं है, जितना कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए है.
नीतीश कुमार की सरकार ने सड़क और बिजली जैसी बुनियादी सहूलियतों में सुधार किया, जिस के चलते आम लोग उन्हें ‘काम करने वाला नेता’ मानते हैं. गांवगांव में सड़कें बनीं, बिजली पहुंची और शहरों में अस्पताल व स्कूल की आलीशान इमारतें खड़ी की गईं, लेकिन एक हकीकत यह भी है कि इन इमारतों के भीतर सहूलियतों की भारी कमी है.
अस्पतालों में न तो डाक्टर मिलते हैं और न ही दवाएं. स्कूलों में टीचर तो गिनती के हैं, पर पढ़ाई का लैवल गिरा हुआ है. यही वजह है कि सरकारी स्कूलों में बच्चे जाना पसंद नहीं करते. ऊपर से भ्रष्टाचार ने पूरे तंत्र को खोखला कर दिया है.
नीतीश कुमार खुद भी अब चाह कर कुछ कर पाने की हालत में नहीं दिखते. इस वजह से आने वाला चुनाव उन के लिए भारी हो सकता है.
भाजपा की हालत और राजग की बैसाखी
बिहार में भाजपा की पकड़ उतनी मजबूत नहीं है जितनी वह दूसरे राज्यों में बना चुकी है. उस के पारंपरिक वोटर सवर्ण और वैश्य समुदाय से हैं, जिन की तादाद उतनी ही है, जितनी राजद के यादव वोटरों की. ऐसे में भाजपा को जीत पक्की करने के लिए जद (यू) जैसी पार्टी की बैसाखी चाहिए.
इस प्रदेश में भाजपा लगातार दलितों और पिछड़ों के बीच जगह बनाने की कोशिश करती रही है, लेकिन सांप्रदायिक एजेंडे और ‘हिंदूमुसलिम’ के रटेरटाए नारे उसे कामयाबी दिलाने में नाकाम रहे हैं.
राजग की सभाओं में भी वह जोश और भीड़ नहीं दिखती, जो महागठबंधन की यात्राओं में देखने को मिलती है. महागठबंधन के नेता राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जब जनता के बीच पहुंचते हैं, तो भीड़ अपनेआप उमड़ पड़ती है. ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ के नारे के बाद महागठबंधन को एक नई मजबूती मिली है.
इस के उलट भाजपा की सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए सरकारी और प्राइवेट स्कूलों को बंद किया जाता है, ‘जीविका दीदीयों’ को बुलाने के लिए प्रशासनिक दबाव बनाया जाता है और आम दर्शकों को भाड़े पर लाया जाता है. यह सब दिखाता है कि भाजपा के पास असली जनाधार की कमी है.
मुद्दों से ध्यान भटकाने की राजनीति
राजनीति में अकसर देखा जाता है कि असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए भावनात्मक कार्ड खेला जाता है. हाल ही में बिहार में भी कुछ ऐसा ही हुआ.
एक आदमी ने मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां के खिलाफ अपशब्द कहे. यह घटना बहुत गलत थी, लेकिन भाजपा ने इसे बड़ा मुद्दा बना कर महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे असली सवालों से ध्यान हटाने की कोशिश की.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश से लौटते ही एक कार्यक्रम में आधे घंटे के भाषण में तकरीबन 25 मिनट अपनी मां का जिक्र कर दिया और यह कहा कि ‘मेरी मां का अपमान देश का अपमान है’.
लेकिन सवाल यह भी उठता है कि जब भाजपा के कई नेता संसद से ले कर सार्वजनिक मंचों तक विपक्षी नेताओं की माताओं और आम औरतों का अपमान करते रहे हैं, तब प्रधानमंत्री ने कभी इस पर चिंता क्यों नहीं जताई? राजनीति में उन का यही दोहरापन जनता अच्छी तरह समझती है.
बिहार बंद काम न आया
भाजपा ने इस मां का अपमान करने वाले मुद्दे को आधार बना कर बिहार बंद का आह्वान किया. लेकिन बंद को कामयाब बनाने के लिए औरतों और आम जनता को अपमानित किया गया. सड़कों पर बदसुलूकी हुई, जबरन दुकानें बंद कराई गईं. पैसे दे कर भीड़ बुलाने जैसे आरोप लगाए गए.
यह सब लोकतंत्र के मूल्यों और जनता की गरिमा के खिलाफ था. सवाल यह है कि अगर किसी ने गाली दी भी थी, तो उस की गिरफ्तारी हो चुकी थी, फिर भी जनता को परेशान करना किस हद तक सही कहा जा सकता है?
बिहार की राजनीति इस समय एक चौराहे पर खड़ी है. नीतीश कुमार की इमेज अब भी भाजपा की तुलना में थोड़ी अच्छी है, लेकिन भ्रष्टाचार और कामकाज की कमजोरी ने उन के कद को भी कम किया है.
दूसरी ओर भाजपा अपने सांप्रदायिक एजेंडे से आगे नहीं बढ़ पा रही है. यही वजह है कि जनता का भरोसा महागठबंधन की ओर ज्यादा झुकता दिख रहा है.
राजनीति में जनता सिर्फ नारों और भावनाओं से नहीं, बल्कि काम और सहूलियत चाहती है. अगर भाजपा और राजग इसे समझने में नाकाम रहे, तो बिहार में उन की राह और मुश्किल हो जाएगी.
सब से बड़ी बात तो यह है कि अब भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी बिहार में अपनी पकड़ खोते नजर आ रहे हैं. स्थानीय भाजपा नेताओं का भी वोटरों पर ज्यादा भरोसा नहीं बन पा रहा है. यह राजग के लिए खतरे की घंटी हो सकती है. Bihar Elections