Social Story In Hindi: सागर अपने दोस्तों के साथ घुमक्कड़ी पर निकला. हाईवे पर कुछ जवान लड़कियां भड़कीले कपड़ों में खड़ी थीं. एक ढाबे वाले ने बताया कि बांछड़ा समाज की ये लड़कियां सड़क किनारे अपने डेरों में देह धंधा करती हैं. सागर एक डेरे में गया. वहां धंधा करने वाली एक लड़की ने उसे एक कड़वे सच से रूबरू कराया.

तकरीबन 3 साल पहले की बात है. अपने दोस्तों नागेंद्र, बृजेंद्र और अरविंद के साथ 10 दिन की घुमक्कड़ी के दौरान मेरा एक ऐसे सच से सामना हुआ, जिसे देखसुन कर मेरी रूह तक कांप गई.

उस दिन शाम का समय था. रतलाम से मंदसौरनीमच की ओर हमारा अभी 7 किलोमीटर तक का सफर ही तय हुआ था कि सड़क किनारे खड़ी जवान लड़़कियों को देख कर हमें हैरानी हुई. कार की रफ्तार धीमी कर मीलों दूर तक हम यह नजारा देख रहे थे.

कुछ देर के बाद हम ने एक ढाबे पर रुकने की सोची. कार से उतर कर ढाबे पर पड़ी खाट पर हम चारों दोस्त बैठ गए. हमारे मन में कई तरह के सवाल उठ रहे थे.

तभी ढाबे का एक वेटर हाजिर हो गया.

अरविंद ने खाने का और्डर करते हुए उस वेटर से पूछा, ‘‘हाईवे पर ये जवान लड़कियां क्यों खड़ी रहती हैं?’’

यह सवाल सुनते ही उस वेटर ने अपने चेहरे पर मुसकान लाते हुए कहा, ‘‘साहब, आप को चाहिए क्या? रातभर के लिए लड़की मिल जाएगी. मालिक से बात कर लीजिएगा.’’

उस वेटर का जवाब सुन कर हम लोग सकपका से गए. इस के बाद हम लोगों ने काउंटर पर जा कर ढाबे के मालिक जगदीश मीणा से उन लड़कियों के बारे में पूछा, तो उस ने बताया, ‘‘साहब, ये लड़कियां यहां के बांछड़ा समुदाय की हैं, जो अपने जिस्म का सौदा करने के लिए रोजाना ही सड़़कों पर उतर आती हैं.’’

‘‘इन्हें किसी का डर नहीं लगता, जो इस तरह खुलेआम सड़कों पर ग्राहक ढूंढ़ती हैं?’’ नागेंद्र ने पूछा.

‘‘ऐसा नहीं है कि ये लड़कियां चोरीछिपे किसी मजबूरी में इस तरह का धंधा करती हैं. इन जवान लड़कियों के मांबाप बड़े शौक से इन से यह घिनौना काम करवाते हैं. कई बार तो मांबाप ही इन लड़कियों के लिए ग्राहक ढूंढ़ कर लाते हैं.’’

जगदीश मीणा से सड़कों पर खड़ी लड़कियों के बारे में यह सच जान कर हम हैरान रह गए. खाने के समय भी हम लोगों की चर्चा में यही लड़कियां रहीं.

मध्य प्रदेश में मंदसौर से नीमच की ओर जाने वाले नैशनल हाईवे पर सफर के दौरान सड़कों पर भड़कीले कपड़ों में सजीधजी लड़कियों को देख कर गाडि़यों की रफ्तार अपनेआप ही धीमी हो जाती है.

होंठों पर लाल रंग की चटक लिपस्टिक और काजल भरी आंखों से इशारा करती लड़कियां ट्रक और कार चलाने वालों का ध्यान अपनी ओर अनायास ही खींच लेती हैं.

अपनी अदाओं से लोगों को लुभाती ये जवान लड़कियां अपने जिस्म का सौदा करती हैं. जिस्मफरोशी के इस बाजार में रोजाना न जाने कितनी ही लड़कियां चंद सौ रुपयों के लिए अपनी बोली लगाती हैं.

जिन लोगों ने महूनीमच नैशनल हाईवे का सफर किया है, उन्होंने कभी न कभी बांछड़ा समाज की इन लड़कियों को जरूर देखा होगा. भले ही किसी की गाड़ी न रुकी हो, लेकिन सड़क किनारे खड़ी 16-17 साल की उन लड़कियों को जरूर देखा गया होगा जो होंठों पर लिपस्टिक पोते, आंखों में काजल मले, खुले बालों के साथ, कमर मटकाती खुद के बिकने का इंतजार करती हैं.

रतलाम में मंदसौर, नीमच की ओर जाने वाले महूनीमच नैशनल हाईवे पर जावरा से तकरीबन 7 किलोमीटर दूर गांव बगाखेड़ा से बांछड़ा समुदाय के डेरों की शुरुआत होती है.

यहां से तकरीबन 5 किलोमीटर दूर हाईवे पर ही परवलिया डेरा है. इस डेरे में बांछड़ा समुदाय के तकरीबन 50 परिवार रहते हैं.

महूनीमच नैशनल हाईवे पर डेरों की यह हालत नीमच जिले के नयागांव तक है. रतलाम जिले के दूरदराज के गांव भी इन के डेरों से आबाद हैं.

यह समुदाय हमेशा ग्रुप में रहता है, जिन्हें डेरा कहते हैं. बांछड़ा समुदाय के ज्यादातर लोग झोंपड़ीनुमा कच्चे मकानों में रहते हैं. इन की बस्ती को आम बोलचाल की भाषा में डेरा कहते हैं.

इन लोगों के बारे में यह भी कहा जाता है कि मेवाड़ की गद्दी से उतारे गए राजा राजस्थान के जंगलों में छिप कर अपने अलगअलग ठिकानों से मुगलों से लोहा लेते रहे थे. यह भी माना जाता है कि उन के कुछ सिपाही नरसिंहगढ़ में छिप गए थे और फिर वहां से मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले में चले गए.

जब सेना बिखर गई तो उन लोगों के पास रोजीरोटी चलाने का कोई जरीया नहीं बचा. गुजारे के लिए मर्द डकैती डालने लगे, तो औरतों ने देह धंधे को अपना पेशा बना लिया. ऐसा कई पीढि़यों तक चलता रहा और आखिर में यह मजबूरी एक परंपरा बन गई.

शाम हो चली थी. अभी हम लोग सड़क से उतर कर एक डेरे की तरफ बढ़ रहे थे. टिमटिमाते बल्बों की रोशनी में अपने डेरे के सामने खड़ी उन लड़कियों को देख ही रहे थे. हर उम्र के मर्दों की मौजूदगी वहां दिखाई दे रही थी. किसी के कदम नशे में डगमगाते थे, तो कोई तयशुदा चाल में अंधेरे में खुलते दरवाजों की ओर बढ़ता था. हर दरवाजे पर सजी औरतें इशारों से ग्राहकों को बुला रही थीं और हम लोग थोड़ा सहमे हुए से थे.

तभी किसी नन्ही उंगली की हलकी सी पकड़ ने मेरी सोच की डोरी को झकझोर दिया.

‘‘अंकल, मेरी दीदी आप को बुला रही है,’’ 6-7 साल की मासूम सी एक बच्ची बोली. उस की आंखों में विजयी मुस्कान थी, चेहरा दमक रहा था.

‘‘कहां है तुम्हारी दीदी?’’

‘‘वह घर के अंदर, आप मेरे साथ चलो न.’’

उस लड़की के चेहरे में छिपी मासूमियत ने मुझे झकझोर दिया. क्या वह अपनी बहन के लिए ग्राहक ढूंढ़ रही है? यह खयाल आते ही मेरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई.

‘‘चलो न अंकल फिर मुझे खाना भी खाना है,’’ कह कर उस लड़की ने मेरा हाथ थाम लिया.

पहले तो मैं अकेले जाने से झिझका, मगर अपने अखबार के लिए एक खास रिपोर्ट बनाने के लिहाज से मेरे कदम अपनेआप उस लड़की के साथ चल पड़े.

मेरे दोस्त मुझे जाते हुए देख रहे थे. अरविंद बोला, ‘‘चले जाओ सागर, हम लोग यहीं हैं.’’

वह बच्ची फुरती में आगेआगे भागती, गलियों से होते हुए एक दरवाजे तक मुझे ले गई. उस ने दरवाजे पर हलकी सी दस्तक दी और मुझे देख कर मुसकराई.

दरवाजा खुला. एक अधेड़ सा आदमी बाहर निकला. बच्ची मुझे भीतर तक ले गई और कमरे के एक ओर इशारा कर के बोली, ‘‘यह मेरी दीदी है.’’

सामने एक पलंग पर बैठी औरत की तरफ मैं ने अपनी नजरें दौड़ाईं. वह औरत 28-30 साल की रही होगी. चेहरा खूबसूरत नहीं, मगर थका हुआ भी नहीं, बल्कि ऐसा, जिस में वक्त ठहर गया हो.

‘‘बैठिए,’’ कहते हुए वह औरत मुसकराई, मगर मुसकराहट से ज्यादा उस की आंखों में कई सवाल थे.

‘‘पानी या चाय कुछ लेंगे आप?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘जी नहीं, शुक्रिया.’’

‘‘ठीक है, पहले पैसे दीजिए.’’

मैं ने 500 रुपए का एक नोट उस के सामने कर दिया. उस ने नोट उठाया, माथे से लगाया और सामने टंगे एक पर्स में डाल दिया.

‘‘कहां तक पढ़ी हैं आप? आप को यह घिनौना काम अच्छा लगता है क्या?’’ मेरे इन सवालों पर वह औरत कुछ सकपकाई, मगर दूसरे ही पल आंखों में शरारत लिए बोली, ‘‘मैं तो खूब पढ़ना चाहती थी साहब, मगर मांबाप ने परंपरा की दुहाई दी. फिर भी नहीं मानी तो कहा गया कि तुम्हारी नानी और मां ने भी यही काम किया है.

‘‘आखिर में दो जून की रोटी का वास्ता दिया गया, तो मेरी आंखों के सामने अपने छोटेछोटे भाईबहनों के चेहरे घूमने लगे और घुटने टेकते हुए मैं ने समझौता कर लिया.

‘‘साहब, बांछड़ा समुदाय की लड़कियों को परंपरा का हवाला दे कर छोटी उम्र में ही देह धंधे के दलदल में धकेल दिया जाता है.’’

‘‘यह नन्ही गुडि़या आप की बहन है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्यों वक्त बरबाद कर रहे हैं साहब. जिस काम के लिए आए हैं, उसी से मतलब रखिए,’’ उस औरत ने अपनी बांहें मेरी गरदन पर डालते हुए कहा.

मैं ने कहा, ‘‘देखिए, मैं उस नीयत से नहीं आया. मैं एक पत्रकार हूं और तुम लोगों के इस घिनौने पेशे के खिलाफ पत्रिका में लिखना चाहता हूं. मैं आप से कुछ कहना और पूछना चाहता हूं.’’

‘‘तो कहिए मगर. वक्त की कीमत है. आप घंटे के पैसे रख लीजिए, मेरी बात सुन लीजिए.’’

मैं ने फिर एक 200 का नोट उस की तरफ बढ़ा दिया. उस ने थोड़ी देर मुझे देखा और नोट रखते हुए बोली, ‘‘हां, बताइए?’’

‘‘तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि इस बच्ची का जन्म शाप बन कर रह गया है?’’ मेरे इस सवाल पर उस औरत की हंसी बाहर निकल आई. अपनेआप को संभालते हुए उस ने जो बताया, उस ने मेरी रूह को झकझोर कर रख दिया.

‘‘साहब, देश का पढ़ालिखा तबका भले ही बेटी को मां के पेट में ही मारने पर उतारू है, मगर हमारे यहां तो बेटी पैदा होने पर जश्न मनाया जाता है. मगर इस जश्न के पीछे छिपा है एक शर्मनाक सच.

एक बेटी यानी कम से कम 2 पुश्तों की आमदनी का जरीया. बांछड़ा समाज में, जो बेटियों की देह पर जिंदा है, देह धंधा बुरा नहीं है, बल्कि वह लघु उद्योग बन गया है.’’

मैं ने एक सांस में कह दिया, ‘‘आप यह काम छोड़ क्यों नहीं देतीं और शादी कर लीजिए. एक नई जिंदगी
शुरू कीजिए.’’

वह औरत इस तरह हंसी जैसे मैं ने कोई बचकाना सवाल कर दिया हो. वह बोली, ‘‘शादी? हम तो हर रोज शादी करते हैं साहब… कभी घंटेभर की, कभी पूरी रात की. शादी हमारे लिए एक सौदा है, सौगात नहीं.’’

‘‘आप के मातापिता को पता है कि आप यह धंधा करती हैं?’’

मेरा सवाल पूरा होने से पहले ही उस ने जवाब दिया, ‘‘अभी जो इस डेरे से दरवाजा खोल कर बाहर जाने वाला आदमी आप ने देखा… वही मेरा बाप है.’’

यह सुन कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई.

‘‘और वह छोटी सी गुडि़या?’’

‘‘वह मेरी बेटी है.’’

‘‘बेटी? लेकिन वह आप को दीदी क्यों बुलाती है?’’

‘‘मैं ने उसे मां कहना कभी सिखाया ही नहीं, क्योंकि अगर वह जा कर बोलेगी कि मेरी ‘मां’ बुला रही है, तो कौन मेरे पास आएगा?’’

अब मैं बुत बन गया था. उस का जवाब मेरे जेहन में गूंज गया.

वह औरत बोली, ‘‘यहां लड़कियां सिर्फ अपनी होती हैं. उन के बाप कौन हैं, यह भी हम नहीं जानते. बेटियां हमारी जगह लेती हैं और बेटे दलाल बनते हैं. यही उसूल है इस बांछड़ा डेरे का.’’

तभी बाहर से फिर वही आवाज आई, ‘‘दीदी, टाइम हो गया.’’

मुझे लगा जैसे मेरी धड़कन वहीं अटक गई.

‘‘इस बच्ची का नाम क्या है?’’

‘‘मुसकान.’’

‘‘इस का क्या सोचा है?’’

‘‘बांछड़ा समुदाय में प्रथा के मुताबिक घर में जन्म लेने वाली पहली बेटी को जिस्मफरोशी करनी ही पड़ती है. वह मेरी तरह ही यही करेगी और मेरा सहारा बनेगी. आप यों ही वक्त बरबाद कर रहे हो.’’

अब मैं खड़ा हो गया और बाहर निकल आया. मुसकान बाहर खड़ी थी. वह मुसकराते हुए मुझ से बोली, ‘‘मेरी बख्शीश?’’

आंखों में आई नमी को पोंछते हुए मैं ने पूछा, ‘‘क्या चाहिए?’’

‘‘बस 50 रुपए,’’ उस लड़की ने मासूमियत से हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा.

मैं ने चुपचाप उस लड़की की हथेली पर 50 रुपए रख दिए. वह फुदकती हुई, चिडि़या की तरह उन्हीं गलियों में गुम हो गई. Social Story In Hindi

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