Editorial: बिहार में प्रशांत किशोर पांडेय की नई पार्टी सुराज पार्टी को वोट कटुआ पार्टी कहा जा रहा है क्योंकि यह या तो जनता दल (यूनाइटेड) प्लस भारतीय जनता पार्टी के वोट काटेगी या लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल प्लस कांग्रेस के. उम्मीद यही है कि यह जद (यू) भाजपा के वोट ज्यादा काटेगी क्योंकि इस समय वोटर को अगर नाराजगी है तो नीतीश कुमार से है, तेजस्वी यादव से नहीं.

पिछले विधानसभा चुनावों में वोटरों ने तेजस्वी यादव को वोट दिया था जिस का फायदा नीतीश कुमार ने उठाया था और केवल सीनियर होने का फायदा उठा कर वे मुख्यमंत्री बन बैठे और ‘भतीजे’ तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा. बीच मझदार में नीतीश कुमार, जो ‘पलटूराम’ ज्यादा कहे जाते हैं, ने बाजी एक बार पलटी और उस नरेंद्र मोदी के चरणों में जा बैठे जिस से हाथ मिलाने में भी कतराते थे.

नीतीश कुमार ने ही जातीय जनगणना कराई थी जिस का भारतीय जनता पार्टी दिल से विरोध कर रही है. कहने को भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने कह दिया है कि 2026 की जनगणना में जाति भी गिनी जाएगी पर केंद्र सरकार इतनी बार अपने बयान बदलती है कि उस का भरोसा नहीं किया जा सकता.

नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हो कर भी बिहारी वोटरों को मतदान सूचियों से बचाने के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं. उन्हें गद्दी की फिक्र है, बिहारी की नहीं. ऐसे में उन से नाराज पर लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से कम खुश वोटर प्रशांत किशोर पांडेय की बनी सुराज पार्टी को वोट दे सकते हैं. बिहार में प्रशांत किशोर पांडेय पर आंध्र प्रदेश के कुछ रईसों ने बड़ा पैसा लगाया है और उन को कुछ फायदा दिलाने के लिए ही वे राजनीति में कूदे हैं. पहले तो वे केवल राजनीतिक दलों को समझाते थे कि चुनाव कैसे लड़ा और जीता जाए पर खासी राजनीति की समझ के बावजूद वे कभी ही किसी को जिता पाए हों. अब खुद पर वे अपनी धंधागीरी अपना रहे हैं. उन्हें मालूम है कि वे हारेंगे पर वे किसे हराएंगे यह पहेली है.

सवाल यह ज्यादा बड़ा है कि नीतीश या तेजस्वी के मुकाबले प्रशांत किशोर पांडेय कौन सा नया फार्मूला ला रहे हैं कि सारे देश के दफ्तरों, दुकानों, फैक्टरियों, खेतों, ट्रकों, टैक्सियों, आटोरिकशा, मकानों को चलाने व बनाने वाले बिहार को क्यों नहीं बना और चला पा रहे? क्यों मजदूर ही नहीं पढ़ेलिखे भी पिछले कितने ही दशकों से बिहार से बाहर जा रहे हैं? क्यों बिहार के लोग पिछड़े हैं? प्रशांत किशोर पांडेय की ऊंची डिगरियां, राजनीतिक पैठ किस काम में आएगी पता तो चले?

बिहारी जनता को लैबोरेटरी समझना बड़ी गलत बात होगी. हालांकि सारे देश में उन्हें लैब्स के चूहों की तरह समझा जाता है जिन पर जो भी चाहो फार्मूला ट्राई कर लो, वे चूं न करेंगे. प्रशांत किशोर पांडेय अपनी मुट्ठी में बिहार को बदलने की कोई दवा लिए नहीं घूम रहे. वे तो सिर्फ दूसरे दलों के अब ठुकराए जाने के बाद दिल्ली के अरविंद केजरीवाल की तरह कुछ जायजा ले रहे हैं. जिस दिन उन्हें भाजपा बुलाएगी, पक्का है वे उस में जा मिलेंगे. बिहार जाति का गढ़ है और प्रशांत किशोर पांडेय को अपनी खास जाति का पूरा अहसास है. वही लोग तो राज करते रहे हैं. आज भी नीतीश कुमार के पीछे वही हैं.

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बिहार में मतदाता सूचियों के गहन पुनर्निरीक्षण के नाम पर जो नाटक ऐन चुनावों से पहले चल रहा है उस का सीधासादा मकसद बिहार के वोटरों को समझाना है कि भाजपा की सरकार के पास इतने सिविल ड्रैस में फौजी हैं जो कलम की बंदूक से किसी भी नागरिक का आज ही नहीं कल भी बिगाड़ कर रख सकते हैं और इसलिए सिर्फ भाजपा को वोट दें वरना अपने ही देश में वे घुसपैठिए हो जाएंगे, सारे हक खो बैठेंगे.

सरकार मतदाता सूचियों के गहन पुनर्निरीक्षण के बाद जारी सूचियों से वोट का हक तो छीनेगी ही, वह नौकरी का हक भी छीन सकती है, उन की प्रौपर्टी भी विदेशी की होने का कह कर जब्त कर सकती है, बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर सकती है, सस्ता राशन, सस्ती गैस बंद कर सकती है.

एक पत्रकार ने कुछ पोल खोली है तो उस के खिलाफ जगहजगह से पुलिस केस बनाए जा रहे हैं ताकि जांच के नाम पर उस का कंप्यूटर, पैन ड्राइव, रिकौर्डिंग, मोबाइल कब्जे में कर के सफा किया जा सके.
जैसे सदियों से पौराणिक राज में गांवगांव में पंडागीरी चलती थी जिस में 2-4 पंडों और ठाकुरों के कहने पर किसी का भी जीना मुश्किल कर दिया जाता था, खेतखलिहान छीन लिए जाते थे, लड़कियों को अगवा कर के रेप कर दिया जाता था, वैसा ही मतदाता सूचियों से नाम कटने पर किया जा सकता है.

मतदाता सूचियों में पुरखों के सर्टिफिकेट जानबूझ कर मांगे जा रहे हैं ताकि सिर्फ भाजपा कट्टर वोटरों को इन सूचियों में रहने दिया जाए. सरकार में बैठे ऊंची जातियों के लोग अच्छी तरह जानते हैं कि हुक्कापानी बंद करने से क्याक्या होता है.

यह बिहार ही था जहां से 1757 के बाद अंगरेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्राह्मण व राजपूत सैनिक भाड़े पर भारी गिनती में रखे थे जो अपने हिंदुस्तानियों पर ही 100 सालों तक गोलियां चला कर मराठों, सिखों, मुगलों, छोटेमोटे राजाओं से लड़ते रहे. इन भाड़े के सैनिकों में, जिन में मंगल पांडे भी था, को जब नई एन्फील्ड राइफलों के कारतूसों को मुंह से काटना पड़ा तो उन्हें गांवों में से निकाल दिया गया. 1857 का संग्राम इसी पर हुआ था. उस से पहले भी गांवों में इन भाड़े के ऊंची जातियों के सैनिकों के खिलाफ लोग खड़े होने लगे थे कि ये अंगरेजों और मुसलमानों का छुआ खा रहे हैं, उन की जीहुजूरी कर रहे हैं.

आज जब उन्हें वोट से जीत कर आए किसी लालू प्रसाद यादव, जीतन राम मांझी या नीतीश कुमार की सेवा करनी पड़ती है तो वैसा ही खून खौलता है जैसा मंगल पांडे का खौलता था जिसे वरना अपने हिंदुस्तानी लोगों पर गोली चलाने में कोई हिचक नहीं थी. चुनाव आयोग के कारिंदे अंगरेजों के राज से भी बदतर राज खड़ा करने में भगवा चोलों के लिए काम कर रहे हैं. इन में जो लोग पिछड़ीनीची जाति के हैं, वे अगर साथ दे रहे हैं तो संविधान से गद्दारी कर रहे हैं, उस संविधान की जो गांधी, अंबेडकर, नेहरू की देन है.

यह पूरा नाटक सिर्फ बिहारियों को सबक सिखाने के लिए है कि उन्होंने पिछले चुनावों में नीतीश कुमार, तेजस्वी और कांग्रेस को क्यों जिताया. अब उन का वोट का नहीं, सिर उठा कर चलने का हक भी छीना जा सकता है. Editorial

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