Editorial: बिहार में हार से बचने के लिए भारतीय जनता पार्टी अब खुल्लमखुल्ला चुनाव आयोग को शिखंडी बना कर नेताओं और पार्टियों को नहीं वोटरों को तीरों का निशाना बना रही है. चुनाव आयोग मतदाता सूचियों का रिवीजन कर रहा है और इस बहाने हर उस जने को वोटर लिस्ट से हटाया जा रहा है जिस के पास जन्म प्रमाणपत्र, नागरिकता प्रमाणपत्र, मातापिता दोनों के प्रमाणपत्र जैसे डौक्यूमैंट न हों.

बिहार जैसे राज्य में जहां हर साल बाढ़ में सैकड़ों गांवों में पानी भर जाता है, लोग अपनी जान बचाने के लिए भागते हैं, डौक्यूमैंट नहीं. जब गांव की फूस की झोंपडि़यों में आग लगती है तो कौन सा डौक्यूमैंट बचता है, इस की चिंता चुनाव आयोग को नहीं. बिहार से बाहर जाने वाले और फिर लौटने वाले लाखों लोग आतेजाते अपने डौक्यूमैंट खो बैठते हैं.

बिहार के सीधे, आधे पढ़े लोग भी अब तक वोट देते रहे थे क्योंकि कुछ चुनाव आयुक्तों ने पहले सही कदम उठाया था कि वे बेघरों को भी वोट डालने का मौका देंगे चाहे उन के पास डौक्यूमैंट हो या न हो. अब भारतीय जनता पार्टी के कठपुतले चुनाव आयोग को आदेश है कि बिहार में ऐसे लोगों की छंटनी कर दी जाए जिन के पास प्रमाणपत्र नहीं है.

यह काम अमेरिका में हो रहा है जहां गोरों के राजा डोनाल्ड ट्रंप हर ब्राउन, ब्लैक को वोट देने के हक से निकालने के लिए ऐसा ही काम कर रहे हैं और लाखों को जेलों में बंद कर रहे हैं. भारत में जेलों में बंद करने का काम बाद में शुरू होगा, जब चुनाव आयोग कटी हुई सूचियां जारी कर देगा. तब एक बड़े परिवार के कुछ लोग नागरिक माने जाएंगे, कुछ को घुसपैठिया करार कर दिया जाएगा. यह पक्का है कि नीतीश कुमार इस मामले में ज्यादा नहीं बोल पाएंगे क्योंकि उन्हें तो कुरसी प्यारी है और वे अपने राज के अंतिम महीनों में इस छोटी सी बात के लिए, जिस का फर्क लाखों पर पड़ेगा, भारतीय जनता पार्टी से बैर मोल नहीं ले सकते.

पप्पू यादव या कांग्रेस ज्यादा न बोले इस के लिए दोनों के खिलाफ मुकदमे किए हुए हैं, बाकी कई दल तो चुप्पे रह गए हैं. सुप्रीम कोर्ट तक मामला जातेजाते चुनाव हो चुके होंगे क्योंकि चुनाव आयोग पक्का है कि सूचियां चुनाव की तारीखों का ऐलान करने के कुछ दिन पहले ही जारी करेगा.

लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि भाजपा की जीत की गारंटी है. जिन का वोट कटेगा उन के साथीरिश्तेदार भाजपा और चुनाव आयोग के गठबंधन को समझ जाएंगे. वे जानते हैं कि वोट का हक छीनना 1975 वाली इमर्जैंसी लगाना है. जैसे उन्होंने इंदिरा गांधी के मनसूबे ढहाए थे, वह काम फिर हो तो बड़ी बात नहीं.

वोट का हक बहुत बड़ा हक है. बाकी सारे हक इसी से निकलते हैं. उसे हाथ से फिसलने देने का मतलब है पौराणिक युग की गुलामी में चले जाना जो मुगलों और अंगरेजों की गुलामी से भी ज्यादा बदतर थी. जमींदारों ने उसी गुलामी को मराठा युग में इस्तेमाल किया था. आज वही न दोहराया जाए.

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कर्ज दे कर पैसा कमाना इस देश के व्यापारियों का मेन काम रहा है. गांवगांव, कसबेकसबे में जो भी व्यापारी थोड़ा पैसा कमा रहा है वह जरूर किसी न किसी तरह सूद पर पैसे देने वाला है. इन छोटेछोटे व्यापारियों, सूदखोरों और कहीं छोटे कारखानेदारों का मुनाफा सिर्फ ब्याज से होता था, क्योंकि ये दिए गए पैसे पर 10 फीसदी नहीं, 30 से 100 फीसदी तक का ब्याज लेते थे.

इन का पहला काम होता था कि गरीबों को इस हालत में लाओ कि वे कर्ज लेने को दौड़ें. इस में पंडितों और मौलवियों का बड़ा साथ था और इसीलिए ये व्यापारी मंदिरमसजिद खूब बनवाते थे. मंदिरों में तो पूजापाठ, कीर्तन, भंडारे, तीर्थयात्रा, प्रवचन, महापंडितों के दौरे चलाए जाते ताकि गरीब बेवकूफ इस जन्म और अगले जन्म को सुधारने के चक्कर में कामधाम छोड़ कर पैसा गांव से लगा कर धर्म की दुकान पर गंवा आए.

जब जेब खाली हो जाए और बीमारी, शादी, बच्चा, काम छूटने से नुकसान होने लगे तो महाजनों के पास जाए. सदियों से यह काम बड़ी शान से चल रहा है. अब इस में सरकारों की शह पा कर और नई टैक्नोलौजी आने से यह लूट छोटे महाजनों से खिसक कर टाई वालों की कंपनियों में पहुंच गई है.

माइक्रोफाइनैंस करने वाली कंपनियों ने देशभर में 4.2 करोड़ लोगों को कर्ज दे रखा है. पिछले साल 2023-24 में 60 हजार करोड़ रुपए कर्ज में दिए गए जिन पर औसतन 25 से 30 फीसदी ब्याज वसूला गया. याद रखें कि इन के पास पैसा जमा कराओ तो ये 9-10 फीसदी भी ब्याज नहीं देते.

अगर मासिक किस्त में देर हो जाए तो ब्याज पर ब्याज और जुर्माना लगने लगता है. माइक्रोफाइनैंस कंपनियां ऐसे ही ग्राहक फंसाती हैं जो समय पर किस्त न भर पाएं. इन के गांवगांव में फैले एजेंट ‘लोन ही लोन’ के परचे बांटते रहते हैं ताकि थोड़ा कमाने वाला बचत करने की जगह कर्ज ले, तीर्थ पर जाए, घर में भोज कराए, मंदिर में बड़ा दान दे, बीमारी में लगाए, शादी में लगाए और फिर किस्त न दे पाए. 60 हजार करोड़ का एक साल

में कर्ज देने वाली कंपनियों का बाजार में इतना ही पैसा उन हाथों में फंसा हुआ है जिन्होंने 90 दिनों तक किस्त नहीं चुकाई.

माइक्रोफाइनैंस कंपनियां अब भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार से मिन्नतें कर रही हैं कि इन्होंने जिन बैंकों से कम ब्याज पर पैसा ले रखा है वह सरकार माफ कर दे. यह हो भी जाएगा क्योंकि जब अरबों का बड़े बैंकों से कर्जा लिए माइक्रोफाइनैंस कंपनी बंद हो जाएगी तो बड़े बैंक माइक्रोफाइनैंस कंपनी को दिए कर्ज को भूल जाएंगे.

इस दौरान जिस ने कर्ज लिया वह मूल से ज्यादा दे चुका होगा पर ब्याज इतना ज्यादा हो चुका होगा कि फिर भी बहुत बकाया रह जाएगा. लोन कलैक्टर गुंडे भी इन माइक्रोफाइनैंस कंपनियों ने पाल रखे हैं जो मारपीट पर उतर आते हैं. अमीर और गरीब सब इस की मार खा रहे हैं. कर्ज लो, पछताओ की बात कोई न कहता है और न कोई सुनना चाहता है. Editorial

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