Hindi Story, लेखक – प्रभात गौतम
इत्तिफाक से उस दिन हमारा आमनासामना हो गया. नरेश कालेज के दिनों में मेरा सहपाठी रह चुका था. हमारी आपस में कभी भी गहरी दोस्ती नहीं रही थी, पर आज वह इतना अपनापन दिखा रहा था, जैसे हम जन्मजन्मांतर के साथी हों. बिना मेरी बोरियत को समझे वह लगातार अपने कालेज के दिनों की घटनाएं दोहराए जा रहा था.
मैं कभी सड़क पर गुजरती कारों को देख रहा था, तो कभी आसमान पर छाए हलके बादलों को. किसी भी तरह जल्दी से जल्दी उस से छुटकारा पाने के लिए मैं ‘हां या न’ में उस का समर्थन जता देता था, जिस से वह और भी खुश हो रहा था.
‘‘अच्छा अभी तो मैं चलता हूं. फिर कभी घर आना. यहीं गांधीनगर में,’’ जैसे ही नरेश ने अपनी बात को खत्म किया, मैं ने अपने घर जाने का उतावलापन जाहिर कर दिया.
‘‘फिर कभी क्यों राजन… चलो, अभी चलते हैं. इसी बहाने भाभीजी के हाथों की चाय भी पी लेंगे,’’ नरेश तुरंत बोल पड़ा.
मुझे लगा कि मेरे द्वारा आसमान में उछाला गया कोई पत्थर मेरे ही सिर पर आ गिरा है. मुझे अपनी गलती का पछतावा होने लगा. कितना अच्छा होता मैं यहीं रुक कर कुछ देर और उस की बातें सुन लेता, जिस से मेरा रविवार का मजा खराब होने से तो बच जाता.
घर पर पहुंचने पर जो मेरा बुरा हाल होने वाला था, उस का मुझे आभास होने लगा था. मैं उस की बातों में सारे सामान की लिस्ट भूल चुका था, जो मुझे घर के लिए ले जाना था.
‘‘यार, थोड़ी मिठाई और नमकीन भी ले चल. भूख लगी है,’’ नरेश जैसे फिर बेशर्मी पर उतर आया.
मैं अंदर ही अंदर गुस्से से भर गया था और जेब में पड़े एकलौते नोट के जाने का शोक मनाते हुए मिठाई की दुकान की तरफ बढ़ रहा था.
घर के भीतर आते ही नरेश ‘धम्म’ से सोफे पर बैठ गया और दीवारों पर लगी पेंटिंग्स पर अपनी राय जाहिर करने लगा, जबकि मुझे सीधे लग रहा था कि वह इन के बारे में कुछ नहीं जानता.
कमरे में सजे गुलदस्ते, मूर्तियां नरेश ऐसे देख रहा था जैसे वह इसे पहली बार देख रहा हो. बातचीत को कुछ देर भी रोकना उसे गंवारा नहीं था. कोई न कोई बात खोज कर वह लगातार बोलता जा रहा था और नहीं तो वह कालेज के दिनों की क्लास के दोस्तों की बात ही छेड़ देता, जिसे वह कुछ ही देर पहले बता चुका था. यहां तक कि मुझे ही मेरी आदतों से अवगत कराने लगता था. मुझे उस के मुंह से शराब की हलकीहलकी बदबू भी आ रही थी.
‘‘अरे राजन, तुम तो आज बड़े उदास नजर आ रहे हो. कहीं भाभीजी से झगड़ा तो नहीं हो गया,’’ नरेश मेरी उदासी भांप कर बोल पड़ा.
मुझे अपने एकमात्र नोट के जाने का दुख सता रहा था जिसे बचाने के लिए मुझे अपनी औफिस की पार्टी छोड़नी पड़ी थी और औफिस से घर के लिए कभी किसी से, कभी किसी से लिफ्ट लेनी पड़ी थी.
‘‘नहीं… तो. मैं उदास कहां हूं. वह तो थोड़ी सी थकावट है,’’ मैं ने चेहरे पर बनावटी मुसकराहट लाने की कोशिश की.
‘‘तुम बैठो, मैं अभी तुम्हारे लिए चाय बनवा देता हूं,’’ मैं ने बात पलटने के अंदाज में कहा, जिस से मुझे उठ कर श्रीमतीजी को हालात समझाने का मौका भी मिल सके.
‘‘चाय आए तब तक तुम मिठाई ही ले आओ,’’ अब नरेश एकदम अनौपचारिकता पर उतर आया था, जो मुझे बेशर्मी लग रही थी. मन चाहा कि उसे इसी समय धक्का मार कर बाहर निकाल दूं, पर किसी तरह अपनेआप को रोका और कमरे से बाहर आ गया. हालांकि, मैं मन ही मन उसे ढेर सारी गालियां दे चुका था.
अपनी पत्नी को थोड़े में सारी बात समझा कर मैं दोबारा नरेश के सामने वाले सोफे पर बैठ गया. अब उसे हमारी बातचीत के विषय याद नहीं आ रहे थे. आसपास नजरें दौड़ा कर वह किसी अखबार या पत्रिका की तलाश में था, जिसे जानते हुए भी मैं अनजान बना हुआ था, क्योंकि मैं अखबार वगैरह मंगवाता ही नहीं था.
कुछ देर के लिए हमारे बीच चुप्पी बनी रही, जिसे तोड़ने के लिए नरेश अपने जूते हिला कर ‘खटखट’ की आवाज कर लेता था. कभी हम घूमते पंखे को देखते थे, कभी दीवारों पर टंगे कलैंडर में तारीखें पढ़ने लगते थे. जैसे ही वह मेरी तरफ देखता था, मैं अपने चेहरे पर बनावटी मुसकराहट तैरा लेता.
कुछ ही देर में चाय, मिठाई और नमकीन से सजी ट्रे के साथ मेरी पत्नी हमारे सामने थी, जिस को देखते ही नरेश ने फिर से अपनी बकबक शुरू कर दी. वह लगातार चाय, नमकीन की तारीफ कर प्लेट साफ किए जा रहा था. मेरे साथ होने वाली बातें बड़े यकीन से वह मेरी पत्नी को बताए जा रहा था, जो कभी मेरे साथ घटित ही नहीं हुई थीं. फिर भी हम दोनों चुपचाप उसे सुने जा रहे थे.
मुझे नरेश के द्वारा सुनाए जा रहे किसी भी चुटकुले पर हंस नहीं आ रही थी. कई बार तो मुझे वह एक डाकू या लुटेरा जैसा लगने लगा था, जो हमारे घर को लूटने पर आमदा है और हम उसे चुपचाप बैठे देख रहे हैं. पत्नी भी उस की बातों का औपचारिक जवाब दे कर चुप हो जाती थी.
आखिरकार सबकुछ खा पीने के बाद जब नरेश जाने के लिए उठा, तो मुझे कुछ संतोष हुआ. कदम बढ़ाते हुए मैं उसे बाहरी दरवाजे तक ले आया था, पर वह था कि कोई न कोई विषय पर नई बात शुरू कर देता था.
‘‘कितने बरसों बाद तो हम मिले हैं,’’ कह कर नरेश फिर से पत्नी की तरफ मुखातिब हो गया.
‘‘भाभीजी, आप क्या करती हैं? आप तो अच्छी पढ़ीलिखी हैं कहीं सर्विस क्यों नहीं कर लेतीं?’’ उस ने पत्नी से पूछा.
‘‘करना तो चाहती हूं, पर मिले भी तो,’’ पत्नी ने टालने के अंदाज में जवाब दिया.
‘‘तुम दिला दो इन्हें सर्विस,’’ मैं ने कुछ गुस्से से कहा.
‘‘आप की तो इंगलिश भी बहुत अच्छी लग रही है. आप बता रही थीं आप ने बीएड भी कर रखा है… कोई स्कूल जौईन करना चाहें तो आप कल ही आ जाओ. आप की नौकरी पक्की. अभी 20,000 से स्टार्ट करवा दूंगा, फिर आगे देख लेंगे. स्कूल का मालिक मेरा अच्छा जानकार है. एकदम जिगरी यार. समझो, अपना ही स्कूल है.’’
नरेश ने किसी नामी स्कूल का नाम बताया. मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि वह इतने बड़े स्कूल के मालिक का जानकार होगा.
इस एक वाक्य से एकदम नरेश अच्छे और भले आदमी में तबदील हो गया. जैसे मेरे सामने पैंटशर्ट पहने कोई दूत खड़ा था. मैं उस के कपड़ों में लगे परफ्यूम की भीनीभीनी महक महसूस कर रहा था. उस की बातें अब हमें बड़ी अच्छी लग रही थी.
‘‘आप खाना खा कर जाते,’’ पत्नी ने भी अब उस की मेहमाननवाजी शुरू कर दी थी.
‘‘नहीं, आप ने इतना कुछ तो खिला दिया. खाना खाऊंगा आप की पहली तनख्वाह मिलने पर,’’ कह कर नरेश आगे बढ़ने लगा.
‘‘मैं तुम्हें स्कूटर पर छोड़ देता हूं,’’ मैं भी पूरी तरह नरेश की खातिरदारी पर उतर आया था. वह मना करते हुए चुपचाप आगे बढ़ गया.
…और कमरे में वापस जाते हुए मैं नरेश की तारीफ के पुल बांधे जा रहा था. Hindi Story